जूता राजनीति स्थायी भाव होता जा रहा है। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति के ऊपर बगदाद में चला जूता एक नई राजनीति के व्याकरण को जन्म देने की क्षमता रखता है। जब गृहमंत्री पी.चिदंबरम के ऊपर नई दिल्ली में जूता चला तो उसकी धमक दूर तलक सुनी गई। दिल्ली की राजनीति में मजबूती से जमे हुए संजय गांधी युग के दो नेताओं को संसदीय राजनीति से अलविदा कहना पड़ा।
जूता कांड के ताजा शिकार बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी पर चला जूता कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। यहां यह साफ कर देने की जरुरत है कि सभ्य समाज में जूता मारने की संस्कृति को सही नहीं ठहराया जा सकता। असहमति व्यक्त करने के लिए जूते का सहारा लेना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भविष्य में कोई भी किसी पर जूता चलाकर अपनी बात न बताए। और यह सबसे जरुरी बात है। रही आडवाणी पर जूता चलना महत्वपूर्ण होने की बात, तो वह इसलिए कि उन पर जूता उनके अपने कार्यकर्ता ने चलाया। वह भी एक ऐसी जगह जहां बीजेपी का शासन है। दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेताओं को उम्मीद है कि मध्यप्रदेश से बीजेपी के सार्वधिक सांसद जीतकर आएंगे।
सवाल उठता है कि अगर सब कुछ पक्ष में ही है तो जूता क्यों चला। इस सच्चाई को समझने की कोशिश गंभीर राजनीतिक चर्चा की शुरुआत हो सकती है। बगदाद, नई दिल्ली और कटनी में चले जूतों में एक समानता है, वह यह कि सभी जूते राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर लेगों पर चले हैं। सवाल उठता है कि जूता चलाकर अपनी ओर ध्यान बंटाने की कोशिश भर है, किसी के उकसाने में किया गया कार्य है या क्षणिक भावावेश में किया गया काम है। जहां तक राजनीतिक नेताओं की टिप्पणी की बात है, लगता है कि इस मामले में उनको गंभीरता से लेने की जरुरत नहीं बीजेपी के प्रवक्ता ने पी चिदंबरम पर चले जूते पर बहुत गदगद होकर प्रतिक्रिया दी थी, जबकि आडवाणी पर जूता चलने पर बहुत मायूस नजर आए।
लिहाजा नेताओं की बात को विचार में न लेकर सामान्य आदमी के विवेक से विचार करने पर जूता फेंकने वालों की मनोदशा को समझा जा सकता है। लगता है कि जूता फेंकने वाला हर व्यक्ति हताश है, समस्याओं का निदान करने की जो भी व्यवस्था है उसने निराश है और किसी समस्या विशेष की ओर संबंधित लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश कर रहा है। पी चिदंबरम के ऊपर जूता फेंकने की घटना की मीडिया में सबसे ज्यादा चर्चा हुई।
जूता फेंकने वाले की भी सबसे ज्यादा चर्चा हुई। जूता फेंकने वाले ने भी बताया कि 1984 के दंगों में कांग्रेसी नेता जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार की भूमिका पर कानून की लाचारी से वह हताश है। उसे यह भी शक था कि कांग्रेस के बड़े नेताओं की शह पर ही सी.बी.आई ने इन दो नेताओं को बरी करने की प्रक्रिया की शुरूआत की है। यहां उसके आरोप या शक की पड़ताल करने का कोई औचित्य नहीं है। यहां बस यह समझ लेना जरूरी है कि उस व्यक्ति को हताशा थी और उसी हताशा के चलते उसने यह काम किया।
जॉर्ज बुश और आडवाणी पर फेंके गए जूते भी कहीं न कहीं इस हताशा से संबंधित नजर आते हैं। जब व्यक्ति को लगता है कि उपलब्ध तरीकों से उसे न्याय नहीं मिल पा रहा है, बल्कि वह दोषी न होते हुए भी दंडित हो रहा है तो वह व्यवस्था से निराश होता है, हताश होता है और बागी हो जाता है। ऊपर लिखे जूता प्रकरणों में भी न्याय न मिलने से हताश व्यक्ति बागी हो गए और उन्होंने जूता फेंक कर अपनी बगावत की भावना को दर्ज किया। यही बगावत की भावना आदमी को हथियार उठाने को मजबूर करती है।
चंबल के बीहड़ों में जो नौजवान इंसाफ की तलाश में भटकता हुआ हथियार उठा लेता है। उसे डाकू का नाम दे दिया जाता है। और पूरी दुनिया में अमरीका और उसकी कठपुतली हुकूमतों के खिलाफ बगावत करने वाले को आतंकवादी करार दे दिया जाता है। जरूरत इस बात की है कि समाज और सरकारें यह सुनिश्चित करें कि आम आदमी को हर हाल में इंसाफ मिले और वह हताशा में जूता फेंकने को मजबूर न हो और हथियार की शरण में न जाय।
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Sunday, July 26, 2009
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