Showing posts with label आतंकवाद. Show all posts
Showing posts with label आतंकवाद. Show all posts

Saturday, July 9, 2011

पाक प्रधानमंत्री ने कहा -उनके मुल्क के अस्तित्व को ख़तरा

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान बुरी तरह से आतंकवाद के घेरे में फंस गया है.वहां के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने बुधवार को अपने मुल्क की परेशानी का बहुत ही साफ़ शब्दों में उल्लेख किया . बहुत ही दुखी मन से उन्होंने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ जो लड़ाई उनका देश लड़ रहा है, उसमें सफल होना बहुत ज़रूरी है . उन्होंने आगाह किया कि अगर पाकिस्तानी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाना है तो सरकार और देश की जनता को इस लड़ाई में फतह हासिल करनी पड़ेगी. पाकिस्तानी प्रधान मंत्री क यह दर्द जायज़ है . बहुत तकलीफ होती है जब हम देखते हैं कि पाकिस्तान पूरी तरह से आजकल आतंकवाद की ज़द में है . भारत और पाकिस्तान की अंदरूनी हालात पर जब नज़र डालते हैं तो साफ़ नज़र आता है कि गलत राजनीतिक फैसलों के चलते राष्ट्रों की क्या फजीहत हो सकती है .भारत और पाकिस्तान एक ही दिन ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद हुए थे.भारत ने सभी धर्मों को सम्मान देने की राजनीति को अपने संविधान की बुनियाद में डाल दिया . पाकिस्तान के संस्थापक,मुहम्मद अली जिन्नाह भी वही चाहते थे लेकिन वह नहीं हो सका.उनकी मृत्यु के बड़ा पाकिस्तान में ऐसे लोगों की सत्ता कायम हो गयी जो बहुत ही हलके लोग थे .आज आलम यह है कि भारत एक सुपरपावर बनने के रास्ते पर है और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री स्वीकार कर रहा है कि जिस आतंकवाद को पाकिस्तानी हुक्मरान ने भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए शुरू किया और पाला पोसा उसी के चलते आज पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने अस्तित्व का सवाल पैदा हो गया है . हालांकि जब पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह,जनरल जिया उल हक ने आतंकवाद को जिहाद का नाम देने की कोशिश की थी.हो सकता है ऐसा रहा भी हो लेकिन आज तो यह कुछ लोगों का बाकायदा धंधा बन चुका है.पाकिस्तानी समाज में जिस तरह से रेडिकल तत्व हावी हुए हैं वह किसी भी सरकार के लिए मुसीबत बन सकते हैं . युसूफ रजा गीलानी अपने देश के शहर, मिंगोरा में आयोजित रेडिकल तत्वों को खत्म करने के राष्ट्रीय सेमिनार में भाषण कर रहे थे.उन्होंने दावा किया कि वे अपने देश से आतंकवाद को ख़त्म कर देगें.उनको भरोसा है कि उनके देश की जनता इस मुहिम में पाकिस्तान की सरकार को पूरी मदद करेगी. उनके हिसाब से पाकिस्तान आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .पाकिस्तान की सरकार की नीयत पर बाकी दुनिया में भरोसा नहीं किया जा रहा है . इस बात का अंदाज़ इस सेमिनार में भी लग गया .पाकिस्तान में आतंकवाद के फलने फूलने में वहां की फौज और आई एस आई का बड़ा हाथ माना जाता है लेकिन इस सेमिनार में पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया जनरल परवेज़ अशफाक कयानी ने भी भाषण किया . ज़ाहिर है कि प्रधान मंत्री गीलानी ने जो भी बातें कहीं वे अमरीका और भारत को नज़र में रख कर कहीं गयी थीं क्योंकि यही दो मुल्क पाकिस्तान से बार बार निवेदन कर रहे हैं कि है वह अपने देश से आतंकवाद का खात्मा करे. हालांकि यह भी उतना ही सच है कि न तो अमरीका और न ही भारत को यह विश्वास है कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर क़दम उठायेगी. कुछ संवेदन हीन लोग पाकिस्तानी आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद भी कहते हैं . यह बहुत ही गलत बात है क्योंकि आतंकवाद इस्लामी नहीं हो सकता. इस्लाम में आतंकवाद की कोई गुंजाइश नहीं है .वह स्वार्थी लोगों की तरफ से राजनीतिक फायदे के लिए किया जाने वाला काम है . मुलिम नौजवानों के शामिल होने की वजह से उसे 'इस्लामी आतंकवाद' नाम देने की कोशिश की जाती है . जो कि सरासर गलत है . अमरीकी अखबारों, भारतीय दक्षिणपंथी राजनेताओं और अमरीकी सरकार की तरफ से कोशिश होती है और उन्हें इस प्रचार में आंशिक सफलता भी मिलती है .

सच्चाई यह है कि अगर सही माहौल मिले तो मुसलमान आतंक को कभी भी राजनीतिक हथियार नहीं बनाएगा. जो अमरीका, पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों को लगभग पूरी तरह से आतंकवाद का केंद्र मानता है वही अमरीका भारत के मुसलमानों को आतंकवाद से बहुत दूर मानता है . यह देखना दिलचस्प होगा कि पिछले दिनों भारत में तैनात अमरीकी राजदूत डेविड मुलफोर्ड ने समय समय पर अपनी सरकार के पास जो गुप्त रिपोर्टें भेजी थीं ,उसमें उन्होंने साफ़ कहा था को भारत में पंद्रह करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं लेकिन वे अपने आप को हर तरह की आतंकवादी गतिविधियों से दूर रखते हैं . उन्होंने दावा किया कि भारत के मुसलमान अपने देश के जीवंत लोकतंत्र में पूरी तरह से शामिल हैं .साझा संस्कृति पर गर्व करते हैं और भारत के अल्पसंख्यक राष्ट्रवादी हैं. अमरीकी राजदूत का यह कथन किसी कूटनीतिक सभा में दिया भाषण नहीं है . यह विकीलीक्स के हवाले से दुनिया को मालूम हुआ है और यह उन गुप्त दस्तावजों का हिस्सा है जो प्रतिष्ठित अखबार ' हिन्दू 'के सहयोग से विकीलीक्स ने भारत में जारी किया था.डिस्पैच में लिखा है कि भारत के बहुसंख्यक मुसलमान उदारवादी राजनीति में विश्वास करते हैं और अपने देश के उद्योग और समाज में अच्छे मुकाम पर पंहुचने की कोशिश करते हैं .उन्होंने दावा किया कि बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवान मुख्य धारा में ही अपनी तरक्की के अवसर तलाशते हैं इसलिए यहाँ से आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के लिए रंगरूट नहीं मिल रहे हैं .डेविड मुलफोर्ड ने लिखा है कि भारत में भी इस्लाम में विश्वास करने वाले लोग कई समुदायों में बँटे हुए हैं लेकिन वे सभी राजनीति के सेकुलर धाराओं में हे एसक्रिया होते हैं . धार्मिक अपील वाले संगठनों को भारत में कोई भी समर्थन नहीं मिलता . वे हाशिये पर ही रहते हैं .जबकि भारत में सभी धर्मों के नौजवानों के हीरो आजकल मुस्लिम नौजवान ही हैं . मुलफोर्ड के डिस्पैच में शाहरुख खां ,आमिर खान और सलमान खान का ज़िक्र भी है जो सभी धर्मों के नौजवानों के प्रिय हैं.

अजीब बात है कि शुरू से की पाकिस्तान के साथ खड़े होने वाले अमरीका को अब पाकिस्तान पर भरोसा नहीं है जबकि अमरीका ने पाकिस्तान के बराबर साबित करने के चक्कर में हमेशा से ही भारतक अविरोध किया था . १९७१ के बंगलादेश मुक्ति संग्रामके दौरान तो पाकिस्तान की फौजी हुकूमत को बचाए रखने के लिए उसने भारत पर सातवें बेडे के हमले की योजना भी बना दी थी .लेकिन आज उसी अमरीका को भारत में जीवंत लोकतंत्र नज़र आ रहा है जबकि पाकिस्तान को वह आतंकवादी देश घोषित करने की योजना पर काम कर रहा है.

Tuesday, January 4, 2011

हिन्दू धर्म में आतंकवाद की कोई जगह नहीं,आर एस एस सभी हिन्दुओं का संगठन नहीं

शेष नारायण सिंह

दिसंबर में हुई कांग्रेस की सालाना बैठक में जब से तय हुआ कि आर एस एस के उस रूप को उजागर किया जाए जिसमें वह आतंकवादी गतिविधियों के प्रायोजक के रूप में पहचाना जाता है ,तब से ही आर एस एस के अधीन काम करने वाले संगठनों और नेताओं में परेशानी का आलम है .जब से आर एस एस के ऊपर आतंकवादी जमातों के शुभचिंतक होने का ठप्पा लगा है वहां अजीबोगरीब हलचल है . आर एस एस ने अपने लोगों को दो भाग में बाँट दिया है. एक वर्ग तो इस बात में जुट गया है कि वह संघ को बहुत पाकसाफ़ संगठन के रूप में प्रस्तुत करे जबकि दूसरे वर्ग को यह ड्यूटी दी गयी है कि वह आर एस एस को सभी हिन्दुओं का संगठन बनाने की कोशिश करे.आर एस एस के पे रोल पर कुछ ऐसे लोग हैं जो पत्रकार के रूप में अभिनय करते हैं . ऐसे लोगों की ड्यूटी लगा दी गयी है कि वे हर उस व्यक्ति को हिन्दू विरोधी साबित करने में जुट जाएँ जो आर एस एस या उस से जुड़े किसी व्यक्ति या संगठन को आतंकवादी कहता हो .लगता है कि कांग्रेस ने आर एस एस की पोल खोलने की योजना की कमान दिग्विजय सिंह को थमा दी है . दिग्विजय सिंह ने भी पूरी शिद्दत से काम को अंजाम देना शुरू कर दिया है . देश के सबसे बड़े अखबार में उन्होंने एक इंटरव्यू देकर साफ़ किया कि वे हिन्दू आतंकवाद की बात नहीं कर रहे हैं , वे तो संघी आतंकवाद का विरोध कर रहे हैं . यह अलग बात है कि आर एस एस वाले उनका विरोध यह कह कर करते पाए जा रहे हैं कि दिग्विजय सिंह हिन्दुओं के खिलाफ हैं . लेकिन इस मुहिम में आर एस एस को कोई सफलता नहीं मिल रही है . दुनिया जानती है कि आर एस एस ने अपना तामझाम मीडिया में मौजूद अपने मित्रों का इस्तेमाल करके बनाया है. लगता है कि दिग्विजय सिंह भी मीडिया का इस्तेमाल करके आर एस एस के ताश के महल को ज़मींदोज़ करने के मन बना चुके हैं . उनके इंटरव्यू को आधार बनाकर जो खबर अखबारों में छापी गयी उसमें संघी आतंकवाद को हिन्दू आतंकवाद लिखकर बात को आर एस एस के मन मुताबिक बनाने की कोशिश की गयी . बीजेपी के कुछ नेताओं ने दिग्विजय के हिन्दू विरोधी होने पर बयान भी देना शुरू कर दिया . लेकिन लगता है कि दिग्विजय ने भी खेल को भांप लिया और देश की सबसे बड़ी न्यूज़ एजेंसी , पी टी आई के मार्फ़त अपनी बात को पूरे देश के अखबारों में पंहुचा दिया. ज़्यादातर अखबारों में छपा है कि दिग्विजय सिंह ने इस बात का खंडन किया है कि कि वे हिन्दू धर्म के खिलाफ हैं .देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार , द हिन्दू में पी टी आई के हवाले से जो बयान छपा है वह आर एस एस के खेल में बहुत बड़ा रोड़ा साबित होने की क्षमता रखता है . दिग्विजय सिंह ने कहा है कि उन्होंने कभी भी आतंकवाद को किसी धर्म से नहीं जोड़ा . उनका दावा है कि आतंकवाद बहुत गलत चीज़ है . वह चाहे जिस धर्म के लोगों की तरफ से किया जाए. उन्होंने कहा कि हर हिन्दू आतंकवादी नहीं होता लेकिन पिछले दिनों जो भी हिन्दू आतंकवादी घटनाओं में शामिल पाए गए हैं, वे सभी आर एस एस या उस से संबद्ध संगठनों के सदस्य हैं . यानी वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हिन्दू नहीं आर एस एस वाला आदमी आतंकवादी होता है . उन्होंने बीजेपी और आर एस एस से अपील भी की है कि वे आत्मनिरीक्षण करें और इस बात का पता लगाएं कि हर आदमी जो भी आतंकवादी घटनाओं में पकड़ा जा रहा है ,उसका सम्बन्ध आर एस एस से ही क्यों होता है . उन्होंने कहा कि वे हिन्दू धर्म का विरोध कभी नहीं करेगें क्योंकि वे खुद हिन्दू धर्म का बहुत सम्मान करते हैं . उनके माता पिता हिन्दू हैं और उनके सभी बच्चे हिन्दू हैं . लेकिन वे सभी आर एस एस के घोर विरोधी हैं . ज़ाहिर है दिग्विजय सिंह एक ऐसे अभियान पर काम कर रहे हैं जिसमें यह सिद्ध कर दिया जाएगा कि आर एस एस एक राजनीतिक जमात है और उसका विराट हिन्दू समाज से कुछ लेना देना नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि हिन्दुओं का ठेकेदार बनने की आर एस एस और उसके मातहत संगठनों की कोशिश को गंभीर चुनौती मिल रही है. भगवान् राम के नाम पर राजनीति खेल कर सत्ता तक पंहुचने वाली बी जे पी के लिए और कोई तरकीब तलाशनी पड़ सकती है क्योंकि कांग्रेस की नयी लीडरशिप हिन्दू धर्म के प्रतीकों पर बी जे पी के एकाधिकार को मंज़ूर करने को तैयार नहीं है . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने साफ़ कहा है कि हिन्दू धर्म पर किसी राजनीतिक पार्टी के एकाधिकार के सिद्धांत को वे बिलकुल नहीं स्वीकार करते. लेकिन आर एस एस को भगवा या हिंदू धर्म का पर्याय वाची भी नहीं बनने दिया जाएगा . दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से भी कहा है कि भगवा रंग बहुत ही पवित्र रंग है और उसे किसी के पार्टी की संपत्ति मानने की बात का मैं विरोध करता हूँ . उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्था के बल पर मैं राजनीतिक फसल काटने के पक्ष में नहीं हूँ और न ही किसी पार्टी को यह अवसर देना चाहता हूँ . उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म पर हर हिन्दू का बराबर का अधिकार है और उसके नाम पर आर एस एस और बी जे पी वालों को राजनीति नहीं करने दी जायेगी . और अगर कांग्रेस अपनी इस योजना में सफल हो गयी तो और बी जे पी की उस कोशिश को जिसके तहत वह हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में अपने को स्लाट कर रही थी , नाकाम कर दिया तो इस देश की राजनीति का बहुत भला होगा

Sunday, December 19, 2010

हर तरह के आतंकवाद से देश की एकता को भारी ख़तरा

शेष नारायण सिंह


विकीलीक्स के दस्तावेजों में अमरीकी राजदूत ने अपने आकाओं को सूचित किया है कि राहुल गाँधी ने उनसे कहा था कि दक्षिणपंथी हिन्दू आतंकवाद से देश को ज्यादा ख़तरा है . जब बात पब्लिक हुई तो आर एस एस और उसके अधीन संगठनों के नेता टूट पड़े और यह साबित करने में जुट गए कि राहुल गांधी हिन्दुओं के खिलाफ बोल रहे हैं . दिन भर टेलीविज़न चैनलों पर संघ के बडबोले हिमयातियों का क़ब्ज़ा रहा और राहुल गाँधी को हिन्दू विरोधी साबित करने के लिए बड़े बड़े सूरमा तरह तरह के ज्ञान देते रहे . कांग्रेस वाले भी भांति भांति की बातों से राहुल गांधी को हिन्दू प्रेमी साबित करते रहे . काग्रेसियों की इस दुविधा का लाभ संघी आतंकवाद के समर्थकों को मिल रहा था और अपने आपको देश के सभी हिन्दुओं का प्रतिनिधि साबित करने का सपना पूरा होता दिख रहा था . इस सारे खेल में बीजेपी के गंभीर नेता शामिल नहीं थे. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज ने अपने आपको इस खेल से बाहर ही रखा . बीजेपी के दूसरी कतार के नेता ही दिन भर सक्रिय रहे. लेकिन शाम होते होते माहौल बदलना शुरू हो गया . जब टी वी समाचारों के किसी चैनल ने मणि शंकर अय्यर को उतारा और उन्होंने संघी आतंकवाद पर हमला बोलना शुरू किया. मणि शंकर अय्यर ने साफ़ कहा कि राहुल गाँधी ने क्या कहा ,उन्हें नहीं मालूम है . कांग्रेस का औपचारिक दृष्टिकोण क्या है यह भी उन्हें नहीं मालूम लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि संघी आतंकवाद से देश की एकता और अखंडता को बहुत ज्यादा ख़तरा है . उन्होंने कहा कि यह देश का सौभाग्य है कि आर एस एस और उसके मातहत संगठनों को देश के ज़्यादातर हिन्दू नफरत की नज़र से देखते हैं और आर एस एस की सभी हिंदुओं का प्रतिनधि बनने की कोशिशों का विरोध करते हैं . मणि शंकर के हस्तक्षेप के बाद आर एस एस वाले थोडा घबराये नज़र आने लगे . कांग्रेस में सक्रिय चापलूस नेताओं ने भी हिम्मत करके बात को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया . और अब लगता है कि कांग्रेस का नेतृत्व आर एस एस के आतंकवाद को बहस की मुख्य धारा में लाने का मन बना चुका है . मुल्क तैयार है और कांग्रेसियों को भी अंदाज़ लग गया है कि आर एस एस के बडबोले नेताओं को काबू में करने की ज़रुरत है और उन्हें यह साफ़ बता देना भी ज़रूरी है कि संघी आतंकवाद बीजेपी की विचार धारा का एक ज़रूरी पह्लू है . जहां तक राहुल गाँधी का सवाल है उनका बयान उस दौर में दिया गया लगता है जब मुंबई के जांबाज़ पुलिस अफसर हेमंत करकरे जिंदा थे और कई आतंकी घटनाओं में आर एस एस वालों की साज़िश का पर्दाफ़ाश हो रहा था .दुनिया जानती है कि बहुमत के आतंकवाद के बाद देश के अस्तित्व पर ख़तरा आ जात अहै . पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है . जब वहां पर जिया उल हक के शासन काल में आतंकवाद के सहारे अपने देश में और भारत में पाकिस्तानी आई एस आई के ने नरक मचा रखा था तो जानकार समझ गए थे कि पाकिस्तान के विखंडन को कोई नहीं रोक सकता . आज पाकिस्तान की जो भी दुर्दशा है वह इसी बहुमत के आतंकवाद की वजह से है . भारत में भी अगर आर एस एस की चली तो वही पाकिस्तानी हालात पैदा हो जायेगे . मणि शंकर अय्यर के हस्तक्षेप के बाद संघी आतंकवाद के पोषक बैकफुट पर चले गए हैं .

पता चला है कि कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में भी संघी आतंकवाद को देश में आतंकी माहौल पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की योजना है . यह देश हित के लिए ज़रूरी भी है . टी वी न्यूज़ चैनलों पर अपने विचार रखते हुए मणि शंकर अय्यर ने जो कहा था अगर कांग्रेस के लोग उसे अपनी नीति का हिस्सा बना लें तो आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले संगठनों को अगले कई वर्षों तक अपने आपको निर्दोष साबित करने में लग जाएगा . कम से कम हमलावर होने का मौक़ा तो नहीं ही लगेगा .कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव में महात्मा गाँधी की हत्या को सबसे बड़ा आतंकवाद बताने की योजना है .यह भी कोशिश की जायेगी कि हिन्दू धर्म और सावरकर के हिंदुत्व के अंतर पर भी मीमांसा हो .दुनिया जानती है कि सावरकर का हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका उद्देश्य बहुसंख्यक हिन्दुओं को राजनीतिक काम के लिए इस्तेमाल करना है . इसका सफल प्रयोग १९९२ के ६ दिसंबर को आर एस एस ने अयोध्या में किया था . बाबरी मस्जिद के ध्वंस के वक़्त अयोध्या पंहुचे लोग हिन्दू थे लेकिन उन्हें न तो हिंदुत्व से कुछ भी लेना देना था और न ही आर एस एस से. आर एस एस की कोशिश है कि आगे भी इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जाय लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि काठ की हांडी को दुबारा चढ़ाना असंभव माना जाता है . सभी हिन्दुओं का नुमाइंदा बनने की आर एस एस की कोशिश का भी वही हाल होगा जो इसके पहले के संघी आतंकवाद के पोषकों का हुआ था . आज अपना देश इतिहास के उस मोड़ पर है जब सभी धर्म निरपेक्ष जमातों को एक होकर देश को संघी आतंकवाद से बचाने में अपना योगदान करना चाहिए

Saturday, October 9, 2010

जनरल मुशर्रफ ने माना ,कश्मीर के आतंकवाद में पाकिस्तान का हाथ

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ,जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक जर्मन अखबार के साथ बातचीत में कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दिल्ली दरबार सकते में है . भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के करता धरता समझ नहीं पा रहे हैं कि पाकिस्तान की राजनीति में शीर्ष पर रह चुके एक फौजी जनरल की बात को कूटनीतिक भाषा में कैसे फिट करें.हालांकि भारत समेत पूरी दुनिया को मालूम है कि कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह से पाकिस्तान की कृपा से ही फल फूल रहा है लेकिन अभी तक पाकिस्तानी इस्टेब्लिशमेंट ने इस बात को कभी नहीं स्वीकार किया था . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . भारत के विदेश मंत्रालय के लिए भी आसान था कि वह कूटनीतिक स्तर पर अपनी बात कहता रहे और कोई मज़बूत एक्शन न लेना पड़े . लेकिन अब बात बदल गयी है . अब तो कश्मीर में आतंकवाद को इस्तेमाल करने वाले एक बड़े फौजी और कई वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहे जनरल ने साफ़ साफ़ कह दिया है कि हाँ हम कश्मीर में आतंकवाद फैला रहे हैं , जो करना हो कर लो. यह भारत के लिए मुश्किल है . इस तरह की साफगोई के बाद तो भारत को पाकिस्तान के साथ वही करना चाहिए जो अल-कायदा का मददगार साबित हो जाने के बाद ,तालिबान के खिलाफ अमरीका ने किया था या १९६५ में कश्मीर में घुसपैठ करा रही पाकिस्तान की जनरल अयूब सरकार को औकात बताने के लिए लाल बहादुर शास्त्री ने किया था . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . शरारत पर आमादा पाकिस्तान को अब सैनिक भाषा में जवाब नहीं दिया जा सकता क्योंकि अभी पाकिस्तान की सरकार औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं कर रही है कि कश्मीर में आतंकवाद उनकी तरफ से करवाया जा रहा है . पाकिस्तान की हालत तो मुशर्रफ के खुलासे के बाद बहुत ही खराब है . पाकिस्तान सरकार के मालिक सन्न हैं .औपचारिक रूप से पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कह दिया है कि मुशर्रफ के बयान बेबुनियाद हैं लेकिन सबको मालूम है कि मुशर्रफ को नकार पाना पाकिस्तानी फौज और सिविलियन सरकार ,दोनों के लिए असंभव है . पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कहा है कि उसे नहीं मालूम कि मुशर्रफ ने यह बात सार्वजनिक रूप से क्यों कही वैसे अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव के डर से पाकिस्तानी सरकार कह रही है कि सरकार इन बेबुनियाद आरोपों का खंडन करती है यह अलग बात है कि पाकिस्तान कश्मीरी लोगों के संघर्ष का समर्थन करता है.

मुशर्रफ आजकल पाकिस्तान की राजनीति में वापसी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं . उन्हें मालूम है कि अमरीका की मर्जी के बिना पाकिस्तान में राज नहीं किया जा सकता. आजकल पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . पाकिस्तान की राजनीति का स्थायी भाव भारत का विरोध करने की राजनीतिक रणनीति है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मने में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं और उनका यह इकबालिया बयान इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए . जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार के दिन गिने चुने रह गए हैं, भारत के लिए भी पाकिस्तान में जनरल कयानी से बेहतर मुशर्रफ ही रहेगें क्योंकि वे अमरीकी हुक्म को मानने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं .दुनिया जानती है कि अमरीका भारत को खुश रखने की विदेश नीति का गंभीरता से पालन कर रहा है

Sunday, August 1, 2010

ब्रिटेन की चेतावनी ----- पाकिस्तान के आतंकवाद से दुनिया को ख़तरा

शेष नारायण सिंह

भारत की यात्रा पर आये ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने नई दिल्ली में जो कुछ कहा उस से साफ़ है कि ब्रिटेन अब भारत और पाकिस्तान को एक तराजू में रखने की मानसिकता से बाहर आ चुका है . अब तक ब्रिटेन सहित अन्य पूजीवादी ,साम्राज्यवादी देश भारत और पाकिस्तान को बराबर मानने की ग्रंथि के शिकार थे. अब हालात बदल चुके हैं . यह कोई अहसान नहीं है . दुनिया के विकसित देशों को मालूम है कि भारत एक विकासमान देश है जबकि पाकिस्तान एक ऐसा देश है जिसने पिछले साठ वर्षों की गलत आर्थिक,राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय नीतियों का पालन करके अपने आपको ऐसे मुकाम पर पंहुचा दिया है जहां से उसके एक राष्ट्र के रूप में बचे रहने की संभावना बहुत कम है . इसलिए अब भारत और पाकिस्तान के बारे में बात करते हुए पश्चिम के बड़े देश हाइफन इस्तेमाल करना बंद कर चुके हैं . ब्रिटिश प्रधान मंत्री डेविड केमरून की भारत यात्रा इस मामले में भी ऐतिहासिक है कि वह अब अपने देश को भारत के मित्र के रूप में पेश करके खुश हैं . प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के साथ उनकी पत्रकार वार्ता को देख कर लगता है कि ब्रिटेन अब पाकिस्तान से दूरी बनाकार रखना चाहता है . ब्रिटेन भी पहले जैसा ताक़तवर देश नहीं रहा . उनकी अर्थ व्यवस्था में विदेशों से आने वाले छात्रों के पैसों का ख़ासा योगदान रहता है . भारत में शिक्षा को जो मह्त्व दिया जा रहा है ,उसके मद्देनज़र दोनों देशों के बीच हुए शिक्षा के समझौते में ब्रिटेन का ज्यादा हित है . व्यापार और रक्षा के समझौतों में भी ब्रिटेन का ही फायदा होगा और उसकी अर्थ व्यवस्था को बल मिलेगा . इस तरह अब साफ़ नज़र आने लगा है कि साठ वर्षों में हालात यहाँ तक बदल गए हैं कि कभी भारत पर राज करने वाला ब्रिटेन अब अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए भारत की ओर देखता है . लेकिन पाकिस्तान के साथ ऐसा नहीं है . पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में कुछ भी मज़बूत नहीं है . आजकल तो उनका खर्च तक विदेशी सहायता से चल रहा है . अगर अमरीका और सउदी अरब से दान मिलना बंद हो जाये तो पाकिस्तानी आबादी का बड़ा हिस्सा भूखों मरने को मजबूर हो जाएगा. भारत से मिल रहे सहयोग के बदले ब्रिटेन के प्रधान मंत्री ने भारत की पक्षधरता की बात की . उन्होने भारत को सुरक्षा परिषद् में शामिल करने की बात की और पाकिस्तान में पल रहे आतंकवाद को भारत , अफगानिस्तान और लन्दन के लिए ख़तरा बताया और पाकिस्तानी मदद से चलाये जा रहे आतंकवाद के खिलाफ भारत की मुहिम में अपने आप को शामिल कर लिया . उन्होंने साफ़ कहा कि इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान के अन्दर इस तरह के आतंकवादी संगठन मौजूद हों जो पाकिस्तान के अन्दर भी आतंक फैलाएं और भारत और अफगानिस्तान को आतंक का निशाना बनाएं. उन्होंने कहा कि ब्रिटेन की कोशिश है कि वह पाकिस्तान को इस बात के लिए उत्साहित करे कि वह लश्कर-ए-तय्यबा और तालिबान से मुकाबला कर सके.उन्होंने कहा कि अगले हफ्ते वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति से इन विषयों पर बातचीत करेगें.भारत के प्रधानमंत्री ने भी इस बात से सहमति जताई और कहा कि उन्हें उम्मीद है पाकिस्तानी विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी भारत की यात्रा पर आने का निमंत्रण स्वीकार करेगें.जिस से देर सबेर बातचीत का सिलसिला शुरू किया जा सके.उन्होंने शाह महमूद कुरेशी की आचरण पर भी टिप्पणी की .

पाकिस्तान को आतंकवाद का केंद्र बताने की ब्रिटिश प्रधानमंत्री की बात को पाकिस्तान ने पसंद नहीं किया है . उनके हुक्मरान की समस्या यह है कि वे अभी भी अपनी जनता को बताते रहते हैं कि भारत और पाकिस्तान बाकी दुनिया की नज़र में बराबर की हैसियत वाले मुल्क हैं लेकिन अब सच्चाई सब के सामने आ चुकी है . अमरीका के ख़ास रह चुके पाकिस्तान को अमरीकी रुख में बदलाव भी नागवार गुज़र रहा है . लेकिन अब कोई भी देश पाकिस्तान को इज्ज़त से देखने की हिम्मत नहीं जुटा सकता. पाकिस्तान एक ऐसा देश हैं जहां सबसे ज्यादा खेती आतंकवाद की होती है और पिछले तीस वर्षों से वह आतंकवाद को सरकारी नीति के रूप में चला रहा है. अगर पाकिस्तान की इस बात को मान भी लिया जाए कि ब्रिटेन उसे भारत के बराबर माने तो उसके बाद क्या होगा . पाकिस्तान की अर्थ व्यवस्था इतनी जर्जर है कि जो देश भी उस से सम्बन्ध बनाएगा उसे पाकिस्तान की आर्थिक सहायता करनी पड़ेगी . अगर शिक्षा या संस्कृति के क्षेत्र में सहयोग हुआ तो पाकिस्तान से छात्रों के रूप में कितने आतंकवादी ब्रिटेन पंहुच जायेगें, इसका अंदाज़ कोई नहीं लगा सकता .इस लिए पाकिस्तान के शासकों को चाहिए कि वे वास्तविकता को स्वीकार करें और भारत समेत बाकी दुनिया से सहायता मांगें और अपने देश में मौजूद आतंकवाद को ख़त्म करें . बाकी दुनिया को यह मुगालता भी नहीं रखना चाहिए पाकिस्तान में लोकतंत्र कायम हो चुका है . वास्तव में वहां सत्ता फौज के हाथ में ही है . हालांकि विदेशों से सहायता झटकने के लिए फौज ने सिविलियन सरकार को बैठा रखा है लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि फौज के आला अफसर ,शाह महमूद कुरैशी जैसे गैर ज़िम्मेदार नेताओं को लगाम दें. जहां तक भारत से बराबरी की बात है ,उसे हमेशा के लिए भूल जाएँ क्योंकि भारत ने विकास की जो मंजिलें तय की हैं वह पाकिस्तान के लिए सपने जैसा है . पाकिस्तान को सच्चाई को स्वीकार करने की शक्ति विकसित करनी चाहिए

Tuesday, June 15, 2010

पंद्रह हज़ार करोड़ रूपये का मुआवजा देंगें लीबिया के गद्दाफी

शेष नारायण सिंह

आतंकवाद के प्रायोजकों के लिए बहुत बुरी खबर है . आतंकवादियों को मदद देने वालों को सभ्य समाज की ताक़त दबोचती ज़रूर है . ओसामा बिन लादेन का उदाहरण दुनिया के सामने है .उसे अंदाज़ भी नहीं रहा होगा कि आतंक की कीमत इतनी भारी हो सकती है . ताज़ा उदाहरण नरेंद्र मोदी का है . गुजरात में आतंक और २००२ के नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार नेता, नरेंद्र मोदी की पूरी दुनिया के सभ्य समाजों में प्रवेश की मनाही है . अभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें ज़रा संभल के रहने की चेतावनी दी है .इसके पहले अमरीका और यूरोप के देशों की कुछ सरकारों ने उनकी वीजा की अर्जी को ठुकरा कर उन्हें अपनी हैसियत में रहने की ताकीद की थी. १९७४ में चिली के राष्ट्रपति अलेंदे को मार कर चिली में आतंक का शासन कायम करने वाले पिनोशे का भी वही हाल हुआ जो बाकी आतंक फैलाने वालों का होता है . आतंक की सियासत के आदिपुरुष, एडोल्फ हिटलर को अपने किये की जो सज़ा मिली, उस से दुनिया में आतंक की खेती करने वाले आजतक सबक लेते हैं .१९८४ में सिखों को चुन चुन कर आतंक का शिकार बनाने वाले अर्जुन दास, ललित माकन, हरिकिशन लाल भगत ,सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का हश्र दुनिया ने देखा ही है .आतंक की सियासत के नतीजों को भोगने का एक नया मामला सामने आया है . करीब ३५ साल से अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों के खिलाफ अभियान चला रहे, लीबिया के राष्ट्रपति , कर्नल मुअम्मर गद्दाफी को तीसरी दुनिया के बहुत सारे देशों में इज्ज़त से देखा जाता था लेकिन अपने आपको गलत समझने के चक्कर में वे आतंकवादी गतिविधियों के प्रायोजक हो गए.और इंग्लैंड में आतंक फैला रहे आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के आतंकवादियों को हथियार देने लगे जिसका इस्तेमाल करके उन लोगों ने आयरलैंड और इंग्लैण्ड में खूब आतंक फैलाया . हज़ारों लोगों का मौत के घाट उतारा और सामान्य जीवन को खतरनाक बनाया .. अब तो दुनिया जानती है कि लाकरबी विमान विस्फोट काण्ड भी कर्नल गद्दाफी के दिमाग की उपज थी क्योंकि अब उन्होंने ही उसे स्वीकार कर लिया है ... हालांकि सबको मालूम है कि गद्दाफी ने अमरीकी और पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी मुल्कों की उस लूट पर लगाम लगाई थी जो पेट्रोल के आविष्कार के बाद से ही जारी थी . लेकिन अपने उत्साह में उन्होंने निर्दोष लोगों को मारने का काम शुरू कर दिया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था लेकिन गद्दाफी निरंकुश तानाशाह थे और उनको टोकने की हिम्मत किसी के पास नहीं थी . बाद में जब सोवियत रूस का विघटन हुआ तो गद्दाफी ने पश्चिम के देशों से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी लेकिन वह कोशिश उनको बहुत महंगी पड़ रही है . लाकरबी विमान के हादसे के शिकार हुए लोगों के परिवारों को वे बहुत बड़ी रक़म बतौर मुआवजा दे चुके हैं . और अब खबर आई है कि वे आयरलैंड में आतंक के शिकार हुए परिवारों को भी करीब १५ हज़ार करोड़ रूपये के बराबर की रक़म देने वाले हैं . हालांकि वे इसे मुआवजा नहीं मान रहे हैं , उनका कहना है कि यह तो मानवीय सहायता के लिए दिया जा रहा है लेकिन यह तय है कि कि लीबिया की सरकार आयरलैंड के आतंक के शिकार लोगों को बहुत बड़ी रक़म दे रही है .. गद्दाफी ने आयरलैंड के आतंकवादियों को एक खतरनाक विस्फोटक सेमटैक्स की सप्लाई की थी . यह एक प्लास्टिक विस्फोटक है और आर डी एक्स जैसा असर करता है . गद्दाफी की सरकार की तरफ से सप्लाई किये गए सेमटैक्स का इस्तेमाल कम से कम दस आतंकवादी वारदातों में हुआ था लन्दन के विख्यात डिपार्टमेंटल स्टोर, हैरड्स और लाकरबी विमान के धमाके में इसी विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ था. लाकरबी धमाके के शिकार लोगों के परिवार वालों को तो गद्दाफी पहले ही मुआवाज़ा दे चुके हैं . यह सारी रक़म रखवा लेने के बाद ब्रिटेन की सरकार ने गद्दाफी को केवल यह राहत दी है कि वे आयरलैंड में मानवीय सहायता के नाम पर कुछ कार्यक्रम चला सकते हैं जिस से यह लगे कि वे जो कुछ भी दे रहे हैं अपनी खुशी से दे रहे हैं ,उन पर कोई दबाव नहीं है . बहर हाल तरीकों पर चर्चा करना यहाँ उद्देश्य नहीं है लेकिन यह पक्का है कि आतंकवादी की राजनीति हमेशा हार कू ही गले लगाती है और इंसानियत हर बार विजयी रहती है . भविष्य के आतंकवादियों को इन पुराने आतंकियों के अंजाम को देख कर सबक ज़रूर लेना चाहिए

Friday, June 4, 2010

पाकिस्तान को ख़त्म कर सकता है आतंकवाद

शेष नारायण सिंह


पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय लोगों की दो मस्जिदों में शुक्रवार की नमाज़ के वक़्त जो हमला हुआ वह पाकिस्तानी समाज में व्याप्त असहिष्णुता को एक बार भी फिर रेखांकित कर देता है .. अहमदिया समुदाय के लोग अपने आप को मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उन्हें मुसलमान नहीं मानती. वे वहां के सरकारी रिकॉर्ड में गैर-मुस्लिम जमात के रूप में दर्ज हैं . शायद इसीलिए जब शुक्रवार के दिन मस्जिद में हुए हमलों में मारे गए अहमदिया समुदाय के लोगों का अंतिम संस्कार किया गया तो कोई भी सरकारी नेता या अधिकारी वहां नहीं गया . राजनीतिक पार्टियों ने तो दो मस्जिदों में हुए इस नरसंहार के खिलाफ बयान दे दिए लेकिन कोई नेता सार्वजनिक रूप से सहानुभूति व्यक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा सका.दरअसल पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के लोगों के खिलाफ बहुत असहिष्णुता है . पाकिस्तानी हुकूमत का दावा है कि अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों की आबादी उनके देश में चौथाई प्रतिशत से भी कम है . पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही जब जमाते-इस्लामी के नेता , मौलाना मौदूदी ने नए देश को इस्लामी राज्य के रूप में स्थापित करने की मुहिम शुरू की , तो लोगों को लगने लगा था कि पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान तो कभी नहीं बन पायेगा. इसका कारण यह था कि पाकिस्तान की बुनियादी मांग ही धार्मिक आधार पर की गयी थी. जिन्ना ने अंग्रेजों से पाकिस्तान हासिल ही इसलिए किया था कि उन्हें शक़ था कि आज़ादी के बाद जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो हिन्दू बहुमत की सरकारें मुसलमानों को परेशान करेंगीं . जिन्ना की यह सोच गलत थी क्योंकि आज भी मुसलमान भारत में गर्व से रहते हैं और मुस्लिम विरोधी आर एस एस के खिलाफ लगभग पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष हिन्दू लामबंद हैं.. जिन्ना की वफादारी और भारत के टुकड़े करने की अपनी नीति के तहत अंग्रेजों ने मुल्क का बँटवारा कर दिया . शायद इसीलिए जमाते इस्लामी की अगुवाई में मुल्लाओं ने इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए कोशिश शुरू कर दी लेकिन जिन्ना के दिमाग में कुछ और था . वे धार्मिक मामलों को राजकाज का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे. इसीलिए पाकिस्तान के बँटवारे के बाद उन्होंने जो सबसे चर्चित भाषण दिया था उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि नया मुल्क एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा. उनका वह भाषण बार बार उद्धृत किया जाता है . उस पर गौर करने की ज़रुरत है क्योंकि उसकी रोशनी में ही समझ में आयेगा कि पाकिस्तान के संस्थापक के असली सपने कितने नीचे दफन कर दिए गए हैं .
जिन्ना ने अपने उस विख्यात भाषण में कहा था कि ' मेरी समझ से भारत के विकास में धार्मिक मतभेद की समस्या सबसे बड़ी बाधा रही है . इसलिए हमें इस से एक सबक सीखना चाहिए . इस नए पाकिस्तान में आप मंदिर में जाने के लिए स्वतंत्र हैं .आप अपनी मस्जिदों में जा सकते हैं या किसी और पूजा स्थल पर जा सकते हैं . आप किसी भी धर्म, जाति या मत से ताल्लुक रख सकते हैं , उस से राज्य का कोई लेना देना नहीं है .' जिन्ना का यह भाषण साफ़ कर देता है कि पाकिस्तान हथियाने के लिए उन्होंने चाहे जो कुछ भी किया हो लेकिन नए देश को वे भी धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर चलाना चाहते थे . लेकिन उनकी बात को सुनने वाला कोई नहीं था . उनके मरने के कुछ बाद ही उनके चहेते और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली को मार डाला गया , पंजाबी साम्राज्यवाद की शुरुआत हो गयी शुरू में तो जिन्ना की सोच को इज्ज़त देने का ड्रामा होता रहा लेकिन बाद में अपने आप को बहुत सेकुलर और आधुनिक कहलाने के शौकीन , ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने सत्ता पर काबिज़ होने के बाद सरकारी स्तर पर मुल्लाओं की बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया . ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने ही अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों को गैर-मुस्लिम घोषित किया था . बाद में उनके हत्यारे और पाकिस्तान के फौजी तानाशाह ,जिया उल हक ने उसे बहुत ही मज़बूत कर दिया .

बहरहाल यह पक्का है कि मुहम्मद अली जिन्ना वाला पाकिस्तान आज कहीं दूर दूर तक नहीं है . यह हाल शुरू से ही है . पाकिस्तान में सत्तर के दशक में लोग कहते पाए जाते थे कि यहाँ सिन्धी हैं , पंजाबी हैं , पख्तून हैं और बलूच हैं लेकिन पाकिस्तानी कोई नहीं . आज हालात उस से भी बदतर हैं . जिस तरह से पूरे पाकिस्तान में खून खराबा हो रहा है, उसे देखकर कई बार शक़ होने लगता है आज के पाकिस्तान में इंसान की इज्ज़त करने वाली जमातें भी कहीं छुप गयी हैं . मुहम्मद अली जिन्ना मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पैरोकार थे ..१९१९ के पहले की कांग्रेस में उनकी हैसियत एक बड़े नेता की थी लेकिन अपने चिडचिडे और दूसरों की राय की इज्ज़त न करने के स्वभाव कारण उन्हें कांग्रेस से अलग होना पड़ा . बाद में लियाक़त अली के साथ मिलकर वे मुल्क के बँटवारे के अभियान के नेता बने. लेकिन आज़ादी के बाद वे पाकिस्तान में वैज्ञानिक सोच के आधार पर हुकूमत के पक्षधर थे. जो हो न सका .उनका सपना पूरा नहीं हुआ .. पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के सपने अब कहीं नहीं हैं. पूर्व तानाशाह जिया उल हक ने जिस तरह से हर पाकिस्तानी के दिमाग में भारत से दुश्मनी का ज़हर भर दिया था , वह अब रंग दिखाने लगा है . भारत को तबाह करने के लिए जिया ने आतंकवाद को अपनी सरकार की प्राथमिकता में शामिल किया था और आई एस आई का इस्तेमाल करके आतंकवाद का एक बड़ा तामझाम तैयार किया था . भारत ने तो अपने आप को सुरक्षित कर लिया लेकिन वही आतंकवाद आज पाकिस्तान की तबाही का कारण बनता नज़र आ रहा है. और लगता है कि जिया से शुरू होकर बेनजीर ,नवाज़ शरीफ और मुशर्रफ के शासन काल में जिस आतंकवाद को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश की गयी थी ,वह पाकिस्तान को तबाह करके ही दम लेगा.

Thursday, February 25, 2010

भारत -पाक वार्ता, ढाक के तीन पात

शेष नारायण सिंह
अमरीका की तरफ से बार बार की गयी पहल के बाद करीब १४ महीने बाद ,भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर बात-चीत का सिलसिला शुरू हो गया है .विदेश सचिव स्तर की बात-चीत से कुछ नहीं निकलेगा ,यह सबको मालूम था . लेकिन दोनों देशों की जनता के लिए यह एक ऐसी गोली है जिसका बीमारी पर कोई असर नहीं पड़ना था लेकिन शान्ति के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए यह एक लाली पाप ज़रूर है.. भारत और पाकिस्तान के बीच जो भी समस्या है ,वह राजनीतिक है . ज़ाहिर है कि उसका हल भी राजनीतिक होना चाहिए . इस लिए जब भी सचिव स्तर की बीत चीत होती है उसे असली बात की तैयारी के रूप में ही देखा जाना चाहिए.लेकिन दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य बनाने की कोशिश करने वालों को और भी बहुत कुछ ध्यान में रखना चाहिए. अपने ६३ साल के इतिहास में पाकिस्तान के शासक यह कभी नहीं भूले हैं कि भारत उनका दुश्मन नंबर एक है . और उन्होंने अपनी जनता को भी यह बात भूलने का कभी भी अवसर नहीं दिया है .शुरुआती गलती तो पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिनाह ने ही कर दी थी . उन्होंने बंटवारे के पहले अविभाजित भारत के मुसलमानों को मुगालते में रखा और सबको यह उम्मीद बनी रही कि उनका अपना इलाका पाकिस्तान में आ जाएगा लेकिन जब सही पाकिस्तान का नक्शा बना तो उसमें वह कुछ नहीं था जिसका वादा करके जिनाह ने मुसलमानों को पाकिस्तान के पक्ष में लाने की कोशिश की थी और सफल भी हुए थे ... बाद में लोगों की नाराज़गी को संभालने की गरज से पाकिस्तानी शासकों ने कश्मीर , हैदराबाद और जूनागढ़ की बात में अपने देश वालों को कुछ दिन तक भरमाये रखा. लेकिन काठ की हांडी के एक उम्र होती है और वह बहुत दिन तक काम नहीं आ सकती . वही पाकिस्तान के हुक्मरान के साथ भी हुआ. . जिसका नतीजा यह है कि पकिस्तान में आज सारे लोगों की एकता को सुनिश्चित करने के लिए कश्मीर की बोगी का इस्तेमाल होता है . पिछले ६० वषों में इतनी बार कश्मीर को अपना बताया हैं इन बेचारे नेताओं और फौजियों ने कि अब कश्मीर के बारे में कोई भी तर्क संगत बात की ही नहीं जा सकती है . जहां तक भारत का सवाल है, वह कश्मीर को अपना हिस्सा मानता है और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को अपने इलाके में मिलाना चाहता है . . पाकिस्तानी हुकूमतें कहती रही हैं कि कश्मीर के मसले पर उन्होंने भारत से ३ युद्ध लड़े हैं . लिहाज़ा वे कश्मीर को छोड़ नहीं सकते.बहर हाल यह पाकिस्तानी अवाम का दुर्भाग्य है कि अपनी आज़ादी के ६३ वर्षों में उन्हें महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू जैसा कोई नेता नहीं मिला. दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ी गयी. वास्तव में पाकिस्तान की स्थापना भारत की आजादी की लड़ाई को बेकार साबित करने के लिए अंग्रेजों की तरफ से डिजाइन किया गया एक धोखा है जिसे जिनाह को उनकी अँगरेज़ परस्ती के लिए इनाम में दिया गया था .

आज की हकीक़तें बिलकुल अलग हैं.आज जब पाकिस्तानी विदेश सचिव दिल्ली में बात कर रहे हैं , उनके ऊपर पाकिस्तानी सत्ता के ३ केन्द्रों को खुश रखने का लक्ष्य है . ज़ाहिर तौर पर तो वहां पाकिस्तानी राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री हैं . जिनकी अपनी विश्वसनीयता की कोई औकात नहीं है .वे दोनों ही वहां इस लिए बैठे हैं कि उन्हें अमरीका का आशीर्वाद प्राप्त है . वे दोनों ही अमरीका के हुक्म के गुलाम हैं , जो भी अमरीका कहेगा उसे वे पूरा करेंगें ... दूसरी पाकिस्तानी ताक़त का नाम है , वहां की फौज. शुरू से ही फौज़ ने भारत विरोधी माहौल बना रखा है . उसी से उनकी दाल रोटी चलती है . और शायद इसी लिए पाकिस्तानी समाज में भी फौजी होना स्टेटस सिम्बल माना जाता है . आई एस आई भी इसी फौजी खेल का हिसा है . तीसरी ताक़त है वहां का आतंकवादी . इसे भी सरकार और फौज का आशीर्वाद मिला हुआ है. धार्मिक नेताओं के ज़रिये बेरोजगार नौजवानों को जिहादी बनाने का काम १९७९ में जनरल जिया उल हक ने शुरू किया था . उसी दौर में आज आतंक का पर्याय बन चुका हाफ़िज़ मुहम्मद सईद , जनरल जिया उल हक का सलाहकार बना था . और अब वह इतना बड़ा हो गया है कि आज पाकिस्तान में कोई भी उसको सज़ा नहीं दे सकता . जिया के वक़्त में उसका इतना रुतबा था कि वह लोगों को देश की बड़ी से बड़ी नौकरियों पर बैठा सकता था. बताते हैं कि पाकिस्तानी हुकूमत के हर विभाग में उसकी कृपा से नौकरी पाए हुए लोगों की भरमार है , जिसमें फौजी अफसर तो हैं ही, जज और सिविलियन अधिकारी भी शामिल हैं ..बहुत सारे नेता भी आज उसकी कृपा से ही राजनीति में हैं . पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री, नवाज़ शरीफ भी कभी उसका हुक्का भरते थे . भारत के खिलाफ जो भी माहौल है , उसके मूल में इसी हाफ़िज़ सईद का हाथ है . बताया गया है कि पाकिस्तान का मौजूदा विदेश मंत्री , शाह महमूद कुरेशी भी इसी हाफ़िज़ सईद के अखाड़े का एक मामूली पहलवान है . ऐसी हालत में विदेश सचिव स्तर की बात चीत से कुछ भी नहीं निकलना था और न निकलेगा. भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश सचिवों की बात चीत को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए ..शायद इसी लिए वार्ता शुरू होने से पहले ही चीन में जाकर पाकिस्तानी विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी ने चीन को बिचौलिया बनाने की बात कर डाली. सब को मालूम है कि इस सुझाव को कोई नहीं मानने वाला है. पाकिस्तान की रोज़मर्रा की रोटी पानी का खर्च उठा रहे अमरीका को भी यह सुझाव नागवार गुज़रा है . . पाकिस्तानी फौज को मालूम है कि अगर भारत को सैन्य विकल्प का इस्तेमाल करना पड़ा तो पाकिस्तान का तथाकथित परमाणु बम धरा रह जाएगा और पाकिस्तान का वही हश्र हो सकता है जो १९७१ की लड़ाई के बाद हुआ था लेकिन फौज किसी कीमत पर दोनों देशों के बीच सामान्य सम्बन्ध नहीं होने देगी क्योंकि अगर भारत और पाकिस्तान में दुश्मनी न रही तो पाकिस्तानी फौज़ के औचित्य पर ही सवाल पैदा होने लगेगें. आई एस आई और उसके सहयोगी आतंकवादी संगठनों को भी भारत विरोधी माहौल चाहिए क्योंकि उसके बिना उन का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा. जहाँ तक ज़रदारी-गीलानी जोड़ी का सवाल है उनकी तरफ से भारत से बात चीत का राग चलता रहेगा क्योंकि अगर उन्होंने भी इस से ना नुकुर की तो अमरीका नाराज़ हो जाएगा और अमरीका के नाराज़ होने का मतलब यह है कि पकिस्तान में भूखमरी फैल जायेगी. . आज पाकिस्तान की बुनियादी ज़रूरतें भी अमरीकी खैरात से चलती हैं . इस लिए बात चीत की प्रक्रिया को चलाते रहना उनकी मजबूरी है. . लेकिन उनकी राजनीतिक हैसियत इतनी नहीं है कि वे कोई फैसला ले सकें . इस लिए पूरे भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि भारत और पकिस्तान के बीच समबन्धों में निकट भविष्य में कोई सुधार नहीं होने वाला है ..

Monday, November 16, 2009

ओबामा ने पाकिस्तान परस्त अफसर को तैनात करके गलती की

- शेष नारायण सिंह
अमरीकी राष्ट्रपति, बराक हुसैन ओबामा ने दक्षिण एशिया में गलतियाँ करना शुरू कर दिया है..उन्होंने पाकिस्तान को अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के एक हिस्से की निगरानी का काम रोबिन राफेल को दे दिया है . यह हिस्सा गैर सैनिक सहायता का है. जब अमरीका ने केरी-लुगर एक्ट के तहत पाकिस्तान को करीब डेढ़ अरब डालर प्रति वर्ष की आर्थिक सहायता देने की बात की थी और उसमें बड़ी बड़ी शर्तें लगाई थीं जिसके मुताबिक अमरीका की मदद के एक एक पैसे का हिसाब रखा जाना था और पाकिस्तानी फौजियों पर सिविलियन सरकार की निगरानी रखी जानी थी तो लोगों ने उम्मीद बांधी थी कि अब अमरीका सुधर रहा है. अमरीकी टैक्सपेयर का पैसा पाकिस्तान की मनमानी के हवाले न करके , ऐसा इन्तेजाम कर दिया है कि उसका इस्तेमाल पाकिस्तानी अवाम के लिए होगा . लेकिन इन उम्मीदों पर हमेशा के लिए पानी फेर दिया गया है. अमरीकी गैर सैनिक सहायता की निगरानी का काम अमरीकी सरकार की रिटायर अफसर , रोबिन राफेल के जिम्मे कर दिया गया है. यह तेज़ तर्रार महिला अफसर काबिल तो बहुत हैं लेकिन यह पाकिस्तानी फौज, शासक वर्ग और उनकी खुफिया एजेंसियों से बहुत ही घुली मिली हैं. इनकी तैनाती का मतलब यह है कि पाकिस्तानी फौज जिस तरह से भी चाहे अमरीकी आर्थिक सहायता का इस्तेमाल कर सकती है. रोबिन राफेल को किसी भी कागज़ पर दस्तखत कर देने में कोई दिक्क़त नहीं होगी. लगता है के केरी-लुगर के आर्थिक सहायता वाले कानून के असर को पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत उपयोगी बनाने की गरज से यह नियुक्ति की गयी है. यह वास्तव में अमरीकी फौज को दी गयी एक रियायत है.. जो लोग अमरीकी अफसर रोबिन राफेल को नहीं जानते , उनके लिए इस पहली को समझना थोडा मुश्किल होगा लेकिन दक्षिण एशिया के कूटनीतिक हलकों में इनका इतना नाम है कि कूटनीति का मामूली जानकार भी सारी बात को बहुत आसानी से समझ सकता है . आप ९० के दशक के शुरुआती वर्षों में अमरीकी प्रशासन में दक्षिण एशिया से सम्बंधित मामलों की सहायक सचिव थीं और हर मामले में अमरीकी रुख को भारत के खिलाफ करती रहती थीं. इन्होने ने कश्मीर को अमरीकी विदेशनीति की किताबों में "विवादित क्षेत्र" घोषित करवाया था. जब ये सहायक सचिव के रूप में तैनात थीं, तो पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में अमरीकी विदेश नीति को सही दिशा में चलाने में मदद देना इनका मुख्य काम था लेकिन इन्होने अपने को पाकिस्तान के दोस्त के रूप में पेश करना ही ठीक समझा . इनके पक्षपात पूर्ण रुख का फायदा , बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उठाया. उस दौर में भारत और अमरीका के आपसी रिश्तों में जो ज़हर इन्होने घोला था, बाद के अमरीकी राष्ट्रपतियों ने उसको साफ़ करने में बहुत मेहनत की .इस पृष्ठभूमि में यह समझ में नहीं आ रहा है कि बराक ओबामा जैसे सुलझे हुए राष्ट्रपति ने पाकिस्तान और अमरीका के बीच ऐसे किसी इंसान को क्यों आने दिया जिसका पाकिस्तान प्रेम इस हद तक जाता है कि वह भारत की दुश्मनी की भी परवाह नहीं करता.

रोबिन राफेल के पाकिस्तान प्रेम के कुछ भावात्मक कारण भी हैं . सबसे महत्वपूर्ण तो शायद यह है कि इनके पति आर्नाल्ड राफेल , पूर्व पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल जिया उल हक के करीबी दोस्त थे . १७ अगस्त १९८८ को जिस विमान हादसे में जिया की मौत हुई, उसी विमान में रोबिन राफेल के पति आर्नाल्ड राफेल भी सवार थे. ज़ाहिर है वह दौर अमरीका और पाकिस्तान की दोस्ती का सबसे बेहतरीन दौर है. उसी दौर में अमरीका ने पाकिस्तान के लिए थैलियाँ खोल दी थीं क्योंकि पाकिस्तानी फौज आज के अपने दुश्मन ,,इन्हीं तालिबान और ओसामा बिल लादेन के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही थी और अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को भगाने का काम चल रहा था. भारत उन दिनों अमरीका का दुश्मन माना जाता था क्योंकि उसकी दोस्ती सोवियत रूस से थी और पाकिस्तानी हुक्मरान अमरीका की मदद से भारत को तबाह करने पर आमादा थे. भारतीय पंजाब में पाकिस्तान की खुफिया एजेन्सी , आई एस आई के आर्शीवाद से आतंकवाद पूरी बुलंदी पर था और कश्मीर में आतंकवाद की तैयारियों में पाकिस्तानी खाद पड़ रही थी. ज़ाहिर है पाकिस्तान से कूटनीतिक सम्बन्ध बनांये रखने के लिए अमरीका अपने बहुत ही अधिक भरोसे के अफसर को वहां राजदूत बनाएगा. और पाकिस्तानी राष्ट्रपति का निजी विश्वास भी उस अफसर पर था , इसीलिए , अपने सबसे ज्यादा भरोसे के अफसरों के साथ किसी सैनिक विमान में यात्रा करते वक़्त , जिया उल हक ने एक विदेशी को साथ ले जाने का फैसला किया . और वह राजदूत इन रोबिन राफेल साहिबा का पति था. पाकिस्तान के मामलों में इनकी दिलचस्पी की यही व्याख्या बताते हैं . पाकिस्तान में बहुत सारे परिवारों में रोबिन राफेल के घरेलू ताल्लुकात भी हैं . पाकिस्तानी राजनयिक, शफ़क़त काकाखेल का परिवार भी ऐसा ही एक परिवार है. शफ़क़त काकाखेल ९० के दशक में दिल्ली के पाकिस्तानी दूतावास में एक बड़े पद पर तैनात थे. उन दिनों के कूटनीतिक हलकों के जानकारों को मालूम है कि श्री काकाखेल जिस तरह से चाहें , अमरीकी नीति को मोड़ सकते थे. वैसे यह बात बिलकुल सच है कि रोबिन राफेल और शफ़क़त काकाखेल की जोड़ी ने भारत के खिलाफ अमरीका का खूब जमकर इस्तेमाल किया और आज भी उन दिनों हुए नुक्सान को संभालने की कोशिश की अमरीकी राजनयिक करते रहते हैं ..

अमरीकी सरकार की सेवा से रिटायर होने के बाद भी रोबिन राफेल साहिबा अमरीका में पाकिस्तान के लिए लाबी करने का काम करती रही हैं ..उनके कुछ ताज़ा काम ऐसे हैं जो कि उनकी निष्पक्षता पर सवाल पैदा कर देते हैं. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने अमरीका के लिए जमकर लाबीइंग की है. और पाकिस्तान से रक़म भी बतौर फीस वसूल पायी है . . पाकिस्तान में अमरीकी खैरात का हिसाब रखने के लिए की गयी उनकी तैनाती ऐसी ही है जैसे कहीं किसी खदान से हो रही चोरी को रोकने के लिए मधु कोडा को तैनात कर दिया जाए ..अमरीकी प्रशासन, ख़ास कर राष्ट्रपति ओबामा को चाहिए कि रोबिन राफेल की नियुक्ति को फ़ौरन रद्द कर दें वरना पूरी दुनिया जान जायेगी कि अमरीका पाकिस्तानी फौज के अफसरों के सामने घुटने टेक चुका है

Monday, October 26, 2009

भारत के प्रति चीन का गैरजिम्मेदार रुख

भारत के वर्तमान नेताओं पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। अमेरिका से भारत की बढ़ती मुहब्बत की वजह से चीन को चिंता हो गई है। खतरा यह है कि चीन किसी भी वक्त भारत को अस्थिर करने की कोशिश कार सकता है और अगर ऐसा हुआ तो भारत की पूंजीवादी आर्थिक प्रगति की गाड़ी पर ब्रेक लग जाएगा। चीन का सपना है कि वह एक महाशक्ति बने, कम से कम एशिया में वह किसी किस्म की चुनौती नहीं चाहता है, लेकिन भारत में भी विदेशी पूंजी और अमेरिका के बढ़ते प्रभाव और भारत की लगभग सभी पार्टियों में अमेरिका के मित्र बड़े नेताओं की मौजूदगी चीन को अच्छे नहीं लग रही है। शायद इसी कारण से चीन ने अपने मित्रों को भारत के खिलाफ लगाने की कोशिश शुरू कर दी है। नेपाल में चीन की राजनीतिक हस्तक्षेप की ताकत बढ़ी है और वह भारत को डराने के लिए उसका इस्तेमाल भी कर रहा है। पिछले दिनों नेपाल के माओवादी नेता ए बाबूराम भट्टराई ने जो बयान दिया है उसका राग चीन के हित साधन वाला है।

अब प्रधानमंत्री ने जो बयान दिया है वह तो भारत के खिलाफ चीन के अभियान की अंदरूनी कोशिशों को काफी हद तक खोल देता है। तीनों सेनाओं के कमाडरों की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत पर आतंकवादी हमलों की आशका बहुत ही बढ़ गई है। देश के प्रधानमंत्री की ओर से आने वाला यह बयान निश्चित रूप से चिंता का विषय है। जाहिर है कि केंद्र सरकार को मालूम है कि भारत के खिलाफ खासी गाढ़ी खिचड़ी पाक रही है। इस बीच यहां साफ कर देना जरूरी है कि कुछ टीवी चैनलों की तरफ से चलाए जा रहे चीनी खतरे के अभियान को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। उनकी युद्धोन्मादी खबरें केवल मनोरंजन की सीमाओं में ही रखी जानी चाहिए, लेकिन भारत के अंदर और बाहर मौजूद चीन के दोस्तों की कारस्तानियों को हल्का करके आकने की गुंजाइश नहीं रह गई है। भारत के अंदर अपनी राह से भटके कम्युनिस्ट, जो माओवादी बन गए हैं, देश और समाज को तबाह करने परआमादा हैं। सरकार और सिविल सोसाइटी को उनके खिलाफ कोई भी अभियान चलाने के पहले बार बार सोचना पड़ेगा। नेपाल भी आजकल चीन का बड़ा दोस्त है, क्योंकि बाबूराम और प्रचंड ने चीन की कृपा से ही नेपाल में अब तक संघर्ष चलाया और अब सत्ता का सुख भोग रहे हैं। उनको भी अगर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से हुक्म मिला तो नेपाल का भी इस्तेमाल भारत के खिलाफ करने में संकोच नहीं करेंगे। सबसे बड़ी दुविधा पाकिस्तान की है। अभी पिछले दिनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी चीन की यात्रा पर गए थे। पूरी संभावना है कि वहा उनको भारत के खिलाफ आतंकवादियों को छोड़ देने का फरमान सुना दिया गया हो। पाकिस्तान की हालत यह है कि वह आजकल चीन के एक अधीन राज्य की भूमिका अदा करता है। पाकिस्तान ने बहुत सी राजनीतिक गलतियां की हैं उनमें से एक यह है कि उसने अपने परमाणु कार्यक्रम और अन्य सैनिक साजो सामान के लिए चीन से भारी मदद ली है और अब उसके अहसान के नीचे दबा हुआ है। चीन का पाकिस्तान में इतना ही स्वार्थ था कि वह उसे भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता था। चीन को लगता है कि वह वक्त आ गया है।

जहा तक पाकिस्तान का सवाल है, उसे मालूम है कि भारत के खिलाफ अभियान चलाना उसके हित में नहीं है। आतंकवाद के भस्मासुरी जाल में फंसे पाकिस्तान की यह हैसियत भी नहीं है कि वह भारत के खिलाफ कोई तोड़-फोड़ की गतिविधि चला सके, लेकिन चीन के हुक्म को मना करना अब पाकिस्तान के लिए संभव नहीं है। पाकिस्तान की दुर्दशा का आलम यह है कि उसे भारत के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने पर अमेरिका से डाट पड़ेगी, लेकिन फिर भी चीन के हुक्म को नजरअंदाज कर पाना पाकिस्तान के लिए बहुत ही मुश्किल फैसला होगा। सच्चाई यह है कि आज की तारीख में पाकिस्तान को बुनियादी खर्च के लिए भी अमेरिका से मदद मिल रही है। अमेरिका नहीं चाहता कि पाकिस्तान का ध्यान और कहीं जाए। उसकी पूरी कोशिश है कि वह पाकिस्तान की सारी ताकत का इस्तेमाल तालिबान आतंकियों के खिलाफ करे। अंदर से बिखर चुकी पाकिस्तानी फौज के लिए भारत जैसी किसी संगठित सेना से मुकाबला कर पाना बहुत ही कठिन होगा, क्योंकि वह तो अपने ही देश में सक्रिय आतंकवादियों से कई बार हार का सामना कर चुकी है। इसलिए पाकिस्तान की तरफ से किसी हमले की संभावना तो नहीं है, लेकिन चीन को खुश करने के लिए पाकिस्तान की आईएसआई भारत के अंदर आतंकवादी हमले जरूर करवा सकती है। (दैनिक जागरण से साभार )

Saturday, October 3, 2009

आतंकवादी रुखसाना को मार डालेंगे

जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले के कालसी गांव की किशोरी रुखसाना कौसर की बहादुरी के किस्से पूरे देश में सुने जा रहे हैं। उसके परिवार पर हमला करने वालों को अंदाज लग गया है कि जब एक बहादुर लड़की अपनी रक्षा खुद करने का फैसला कर लेती है तो खतरनाक हथियारों से लैस दरिंदे भी हार जाते हैं। रुखसाना से पूछा गया कि इतनी बहादुरी का काम कैसे किया तो विनम्र लड़की ने कहा कि अल्लाह ने मुझे इस मुसीबत की घड़ी में इतनी हिम्मत दी कि मैं उन दहशतगर्दों का मुकाबला कर पाई।
लेकिन उसे डर है कि इतनी बड़ी शिकस्त के बाद दहशतगर्द फिर वापस आएंगे और रुखसाना के परिवार को और खुद उसको जिंदा नहीं छोड़ेंगे। उसने बताया कि गांव के बाहर पुलिस की एक पिकेट लगा दी गई है लेकिन उसको आशंका है कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उसको आतंकवादी मार डालेंगे। रुखसाना कौसर एक बहादुर लड़की है। उसने आत्मरक्षा में हथियार छीनकर दहशतगर्दों को बता दिया कि अगर औरत अपनी रक्षा का फैसला कर ले तो खतरनाक हथियारों से लैस आतंकवादी भी उसका कुछ बना बिगाड़ नहीं सकता। लेकिन रुखसाना के मन में जो डर है वह एक बहुत बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है।
पिछले 20 साल से कश्मीर में चल रहे आतंकवाद के खेल में आम आदमी की कोई हैसियत नहीं है। सरकार ने कभी भी आम आदमी को शामिल करने की कोशिश नहीं की। जिस मुस्तैदी से वहां सैनिक ताकत का इस्तेमाल करके समस्या को सुलझाने की कोशिश की गई वह हमेशा से विवादों के घेरे में रही है। कश्मीरी अवाम को भरोसे में लेकर अगर कोशिश की गयी होती तो जम्मू-कश्मीर में हर इंसान अपने हित को सुरक्षित करने के लिए हुकूमत के साथ होता। यह प्रयोग वहां पर सफलतापूर्पक किया जा चुका है। 1947 में जब आजादी मिली तो पाकिस्तान ने कश्मीर पर दावा ठोका था। कश्मीर के राजा हरि सिंह भी दुविधा में थे, कभी स्वतंत्र कश्मीर की बात करते थे, कभी भारत के साथ आने की तो कभी पाकिस्तान के साथ जाने की सोचते थे। इस बीच पाकिस्तानी सेना के सहयोग से कबायलियों का हमला हो गया और हरिसिंह डर गये। उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी। सरदार पटेल ने मदद तो दी लेकिन शर्त लगा दी कि आप अपनी मर्जी से भारत के साथ कश्मीर के विलय के कागजों पर दस्तखत कर दें तभी भारतीय सेना वहां जायेगी।
शेख अब्दुल्ला उन दिनों कश्मीरी जनता के हीरो थे। वे भारत के साथ रहना चाहते थे इसलिए पूरा कश्मीरी अवाम भारत के साथ रहना चाहता था। बहरहाल जनता को साथ लेकर चलने से कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। कश्मीर के राजा हरिसिंह की मरजी के खिलाफ भी शेख साहब ने जनता को अपने साथ रखा। 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद सब कुछ बिगड़ गया। उसके बाद तो दिल्ली की सरकारों ने गलतियों पर गलतियां कीं और कश्मीर में केंद्र सरकार के प्रति मुहब्बत खत्म होती गयी। उधर पाकिस्तान ने प्राक्सी वार के जरिए कश्मीर में खून खराबे को बढ़ावा दिया। रुखसाना कौसर का दूसरा डर यह है कि आतंकवादी फिर आएंगे और उसे मार डालेंगे। भारत सरकार के लिए यह मौका है कि वह साबित कर दे कि वह कश्मीरी अवाम की हिफाजत के लिए कुछ भी कर सकती है। रुखसाना की सुरक्षा के लिए वहीं पुलिस पिकेट बना देना कोई बहुत अच्छी योजना नहीं है। इस देश में हजारों लोग ऐसे हैं जिनको चौबीस घंटे की सरकारी सुरक्षा दी जाती है। बहुत सारे ऐसे लोग भी है जिन्हें राज्यों की राजधानियों में जगह दी जाती है जहां वे रह सकें। हजारों विधायकों को शहरों में सभी सुविधाओं से लैस मकान दिए जाते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि वे जनहित और राष्ट्रहित में काम कर रहे हैं। इसलिए उनको सारी सरकारी सुविधाएं दी जा रही हैं। वे सारी सुविधाएं रुखसाना और उसके परिवार को भी दी जा सकती हैं क्योंकि जो काम उसने कर दिखाया है वह बड़े बड़े सूरमा नहीं कर सकते है। उसका काम भी जनहित और राष्ट्रहित का है दरअसल रुखसाना की बहादुरी ने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की सफलता के सवाल पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।
सच्चाई यह है कि आतंकवादी जमातों ने कश्मीर की जनता के दिमाग में यह दहशत पैदा कर दी थी कि उनको बचाने वाला कोई नहीं है और आम तौर पर लोग डर गए थे। वरना अगर आतंकवाद के शुरुआती दौर में ही लोगों ने मुकाबला किया होता तो दहशतगर्दी के सफल होने की सारी संभावना खत्म हो गई होती। दुनिया भर में आतंकवाद वहीं सफल होता है जहां हुकूमत आम आदमी से कट चुकी होती है और आम आदमी को भरोसा नहीं होता कि सरकार उनकी हिफाजत कर सकेगी। जम्मू कश्मीर में यही हालत थी और आतंकवाद लगभग सफल हो गया। लेकिन रुखसाना कौसर की बहादुरी ने सरकार को एक बेहतरीन मौका दिया है। रुखसाना ने वह कर दिखाया है जो सरकार के कई विभाग नहीं कर सके। सरकार को चाहिए कि वह रुखसाना के परिवार को इतनी सुविधा दे और इतनी इज्जत दे कि पूरे राज्य में यह माहौल बन जाय कि अगर आतंकवाद का सामना हिम्मत से किया जाय तो बाकी जिंदगी बहुत ही अच्छी हो सकती है। अगर इस तरह का माहौल बन गया तो इस बात की पूरी संभावना है कि हर गांव से बहादुर लड़के लड़कियां आगे आएंगे और आतंकवाद का मुकाबला हर मोड़ पर किया जायेगा। इसका फायदा यह होगा कि जनसमर्थन का मुगालता पालने वाले आतंकवादी संगठनों को औकातबोध हो जायेगा। वे आम आदमी को निशाना बनाने की हिम्मत नहीं करेंगे। जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की तैनाती के नाम पर होने वाले खर्च में भी कटौती होगी और कश्मीर में फिर से अमन चैन कायम हो जाएगा।

Saturday, September 26, 2009

इस्लाम का आतंकवाद से कोई मतलब नहीं

दक्षिण अफ्रीका के तीन शहरों में शबाना आजमी की फिल्मों का रिट्रोस्पेक्टिव चल रहा है। इस मौके पर वहां तरह तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। कुछ कार्यक्रमों में शबाना आजमी शामिल भी हो रही हैं। ऐसे ही एक सेमिनार में उन्होंने कहा कि इस्लाम को आतंकवाद से जोडऩे की कोशिश अनुचित और अन्यायपूर्ण तो है ही, यह बिल्कुल गलत भी है। उनका कहना है कि इस्लाम ऐसा धर्म नहीं है जिसे किसी तरह के सांचे में फिट किया जा सके। शबाना आजमी ने बताया कि 53 देशों में इस्लाम पर विश्वास करने वाले लोग रहते हैं और जिस देश में भी मुसलमान रहते हैं वहां की संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव साफ देखा जा सकता है।

दरअसल अमरीका के कई शहरों में 9 सितंबर 2001 को हुए आतंकवादी हमलों के बाद के मुख्य अभियुक्त के रूप में ओसामा बिन लादेन का नाम आया जिसने अपने संगठन अल-कायदा के माध्यम से आतंक के बहुत से काम अंजाम दिए है। अमरीका ने योजनाबद्घ तरीके से ओसामा बिन लादेन और उसके साथियों को अपने अभियान का निशाना बनाना शुरू किया। यह दुनिया और सभ्य समाज की बद किस्मती है कि उन दिनों अमरीका का राष्ट्रपति एक ऐसा व्यक्ति जिसके बौद्घिक विकास के स्तर को लेकर जानकारों में मतभेद है।

आम तौर पर माना जाता है कि तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश अव्वल दर्जे के मंद बुद्घि इंसान हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जिसे शक है कि बुश जूनियर कभी कभी समझदारी की बात भी करने की क्षमता रखते हैं। बहर-हाल अपने आठ साल के राज में उन्होंने अमरीका का बहुत नुकसान किया। अमरीकी अर्थ व्यवस्था को भयानक तबाही के मुकाम पर पहुंचा दिया, इराक और अफगानिस्तान पर मूर्खता पूर्ण हमले किए।

पाकिस्तान के एक फौजी तानाशाह की ज़ेबें भरीं जिसने आतंक का इतना जबरदस्त ढांचा तैयार कर दिया कि अब पाकिस्तान का अस्तित्व ही खतरे में है। अपने गैर जिम्मेदार बयानों से बुश ने जितने दुश्मन बनाए शायद इतिहास में किसी ने न बनाया हो। बहरहाल बुश ने ही शायद जानबूझकर यह कोशिश की कि मुसलमानों से आतंकवाद को जोड़कर वह उन्हें अलग थलग कर लेंगे। यह उनकी मूर्खतापूर्ण गलती थी। उनको जानना चाहिए था कि इस्लाम मुहब्बत, भाईचारे और जीवन के उच्चतम आदर्श मूल्यों का धर्म है।

अगर कोई मुसलमान इस्लाम की मान्यताओं से हटकर आचरण करता है तो वह मुसलमान नहीं है। इसलाम में आतंक को कहीं भी सही नहीं ठहराया गया है। अगर यही बुनियादी बात बुश जूनियर की समझ में आ गई होती तो शायद वे उतनी गलतियां न करते जितनी उन्होंने कीं। उन्होंने योजनाबद्घ तरीके से इस्लाम को आतंक से जोडऩे का अभियान चलाया। उसी का नतीजा है कि अमरीकी हवाई अड्डों पर उन लोगों को अपमानित किया जाता है जिनका नाम फारसी या अरबी शब्दों से मिलता जुलता है। अपने बयान में शबाना आजमी इसी अमरीकी अभियान को फटकार रही थीं।

अमरीकी विदेश नीति की इस योजना को सफल होने से रोकना बहुत जरूरी है। संतोष की बात यह है कि वर्तमान अमरीकी राष्टï्रपति बराक ओबामा भी इस दिशा में काम कर रहे हैं। भारत में भी एक खास तरह की सोच के लोग यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सभी मुसलमान एक जैसे होते हैं। और अगर यह साबित करने में सफलता मिल गई तो संघी सोच वाले लोगों को मुसलमान को आतंकवादी घोषित करने में कोई वक्त नहीं लगेगा। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि संघी सोच के लोग आर.एस.एस. के बाहर भी होते हैं। सरकारी पदों पर बैठे मिल जाते हैं, पत्रकारिता में होते हैं और न्याय व्यवस्था में भी पाए जाते हैं।

एक उदाहरण से बात को स्पष्ट करने की कोशिश की जायेगी। सरकार की तरफ से सांप्रदायिक सदभाव के पोस्टर जारी किये जाते हैं जिसमें कुछ शक्लें बनाई जाती है। चंदन लगाए व्यक्ति को हिंदू, पगड़ी पहने व्यक्ति को सिख और एक खास किस्म की पोशाक वाले को पारसी बताया जाता है। मुसलमान का व्यक्तित्व दिखाने के लिए जालीदार बनियान, चारखाने का तहमद और एक स्कल कैप पहनाया जाता है। कोशिश की जाती है कि मुसलमान को इसी सांचे में पेश करके दिखाया जाय। सारे मुसलमान इसी पोशाक को नहीं पहनते लेकिन इस तरह से पेश करना एक साजिश है और इस पर फौरन रोक लगाई जानी चाहिए।

क्योंकि अगर ऐसा न हुआ और दुबारा बीजेपी का कोई आदमी प्रधानमंत्री बना तो भारत में भी वही हो सकता है जो बुश जूनियर ने पूरी दुनिया में कर दिखाया है। वैसे संघ बिरादरी ने यह कोशिश शुरू कर दी थी कि आतंकवाद की सारी घटनाओं को मुसलमानों से जोड़कर पेश किया जाय लेकिन जब मालेगांव के धमाकों में संघ के अपने खास लोग पकड़ लिए गए तो मुश्किल हो गई। वरना उसके पहले तो बीजेपी के सदस्य और शुभचिंतक पत्रकार मुसलमान और आतंकवादी को समानार्थक शब्द बताने की योजना पर काम करने लगे थे। शबाना आजमी जैसे और भी लोगों को सामने आना चाहिए और यह साफ करना चाहिए कि मुसलमान और इसलाम को आतंकवाद से जोडऩे की कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा। धर्मनिरपेक्ष पत्रकारों को भी इस दिशा में होने वाली हर पहल का उल्लेख करना चाहिए क्योंकि एक वर्ग विशेष को आतंकवादी साबित करने की कोशिशों के नतीजे किसी के हित में नहीं होंगे।

आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता

पुलिस ने पटना में एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है जो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई के लिए काम करता था। वह भारतीय सेना में भी कभी नौकरी कर चुका है। उसके ऊपर आरोप है कि उसने भारतीय सेना के बारे में बहुत ही गुप्त जानकारी चुराई और उसे पाकिस्तानी आई.एस.आई. को बेच रहा था। ज़ाहिर है यह काम पैसे के लालच में कर रहा था। वह हिंदू है और उसे मालूम है कि आई.एस.आई. को दिया गया सामान आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि अब सारी दुनिया जानती है कि आई.एस.आई. का काम राह भटक चुके नौजवानों को बेवकूफ बनाकर भारत समेत अन्य देशों के खिलाफ इस्तेमाल करना है।

पाकिस्तान में 70 के दशक में जनरल जिया उल हक ने सत्ता संभाली तब से ही भारत में आतंक फैलाने के लिए राह भटके लोगों का इस्तेमाल होता रहा है। पंजाब में दस साल तक आतंक का जो राज चला उसके पीछे पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक का मुख्य हाथ था। लेकिन भारत के पंजाब में खून की होली खेल रहे लोग ज्यादातर सिख थे। दिल्ली में एक माओवादी नेता को बाद को पकड़ा गया है। आंध्र्रप्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में चल रहे आतंकवादी कारनामों को चलाने वाले संगठन कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (माओवादी) की सबसे महत्वपूर्ण नीति निर्धारक संस्था, पोलिट ब्यूरो के सदस्य कोबाद गांधी का धर्म पारसी है। माले गांव में विस्फोट करने वाले संगठन के लोग प्रज्ञा ठाकुर और रमेश पुरोहित हिंदू हैं।

अयोध्या की बाबरी मस्जिद को विध्वंस करने पर आमादा भीड़ में लगभग सभी हिंदू थे। प्रवीन तोगडिय़ा, अशोक सिंघल सभी हिंदू हैं और आतंक के जरिए अपनी बात मनवा लेने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। कश्मीर में आतंक फैलाने वाले और पाकिस्तान की आई.एस.आई की मदद से तबाही करने वाले लोग मुसलमान हैं। भारतीय संसद पर हमला करने वाले लोग ज्यादातर मुसलमान थे, बजरंग दल का हर सदस्य हिंदू है। गुजरात 2002 के नरसंहार को अंजाम देने वाले लोग भी हिंदू ही बताए गए हैं। इस तरह हम देखते हैं कि आतंकवाद के जरिए अपना लक्ष्य हासिल करने वाले व्यक्ति का उद्देश्य राजनीतिक होता है जिसको पूरा करने के लिए वह उन लोगों का इस्तेमाल करता है जो पूरी बात को समझ नहीं पाते।

पूरी दुनिया में आतंक के तरह तरह के रूप देखे गए है। जब अमरीका में नागरिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू हुई तो शुरुआती काम अमरीका के दक्षिणी शहर, नेशविल में हुआ। तीन साल तक भारत में रहकर जब जेम्स लासन नाम के व्यक्ति ने काम शुरू किया तो उसका सबसे बड़ा हथियार महात्मा गांधी का सत्याग्रह था। इसके पहले अमरीका के अफ्रीकी मूल वाले नागरिक, मानवाधिकारों की लड़ाई के लिए हिंसक तरीके अपनाते थे लेकिन जेम्स लासन ने महत्मा गांधी की तरकीब अपनाई और लड़ाई सिविल नाफरमानी के सिद्घांत पर केंद्रित हो गई। वहां के क्लू, क्लास, क्लान के श्वेत गुंडों ने इन लोगों को बहुत मारा-पीटा, आतंक का सहारा लिया लेकिन लड़ाई चलती रही, शांति ही उस लड़ाई का स्थाई भाव था।

बाद में मार्टिन लूथर किंग भी इस संघर्ष में शामिल हुए और अमरीका में अश्वेत मताधिकार सेग्रेगेशन आदि समस्याएं हल कर ली गईं। अमरीकी मानवाधिकारों को दबा देने की कोशिश कर रहे सभी अश्वते गुंडे आतंक का सहारा ले रहे थे और ईसाई धर्म में विश्वास करते थे। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले व्यक्ति का उद्देश्य हमेशा राजनीतिक होता है और वह भोले भाले लोगों को अपने जाल में फंसाता है। इसलिए आतंकवाद की मुखालिफत करना तो सभ्य समाज का कर्तव्य है लेकिन आतंकवाद को किसी धर्म से जोडऩे की कोशिश करना जहालत की इंतहा है क्योंकि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। आतंकवाद अपने आप में एक राजनीतिक विचारधारा बनती जा रही है।

इसे हर हाल में रोकना होगा। जहां तक भारत का सवाल है, उसने आतंकवाद की राजनीति के चलते बहुत नुकसान उठाया है। महात्मा गांधी की हत्या करने वाले भी आतंकवादी थे और पूरी तरह से राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित थे। उनके मुख्य साजिश कर्ता वी.डी. सावरकर थे जो हिन्दुत्व के सबसे बड़े अलंबरदार थे। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि हिंदू धर्म का सावरकर के हिंदुत्व से कोई लेना देना नहीं है। इसके बाद भी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याएं भी आतंकवादी कारणों से हुईं। इंदिरा गांधी के हत्यारे सिख थे राजीव गांधी की हत्या हिन्दू आतंकवादियों ने की थी। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले का कोई मजहब नहीं होता। वह सीधे सादे लोगों की भावनाओं को उभारता है और उसका इस्तेमाल अपने मकसद को हासिल करने के लिए करता है।

सवाल यह है कि आतंकवाद को खत्म करने के लिए क्या किया जाय। जवाब साफ है कि किसी भी आतंकवादी को ऐसे मौके न दिए जांय जिससे कि वह मामूली आदमी की भावनाओं को भड़का सके। सरकारों को सख्त होना पड़ेगा और न्यायपूर्ण तरीके से फैसले करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए अगर उस वक्त की सरकारों ने 6 दिसंबर 1992 के दिन अपने कर्तव्य का पालन इंसाफ को ध्यान में रखकर किया होता तो मुस्लिम नवयुवकों का एक बड़ा वर्ग आतंकवादियों की बात को न मानता। लेकिन साफ दिख रहा था कि उत्तरप्रदेश की कल्याण सिंह सरकार और केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार आतंकवादियों के साथ मिली हुई हैं तो नौजवान भटका। इसमें से ही कुछ लोग आंतकवादियों के हत्थे चढ़ गये और इस्तेमाल हो गये।

1992-93 के मुंबई विस्फोट का सारा विस्फोटक मुंबई में तस्करी के चैनल से आया था और उसमें कस्टम अधिकारियों का हाथ था। स्वर्गीय मधु लिमये ने पता लगाया था कि वे सारे कस्टम वाले हिंदू थे। यह लोग पैसे की लालच में काम कर रहे थे। पटना में पकड़ा गया, आई.एस.आई. का कार्यकर्ता भी हिंदू है और पैसे की लालच में था। पंजाब में भी आतंकवाद शुरू तो हुआ पाकिस्तान की शह पर लेकिन अपने आखरी दिनों में पंजाब का आतंकवाद शुद्घ कारोबार बन गया था। इसलिए आतंकवाद को किसी भी मजहब से जोडऩा बहुत बड़ी गलती होगी।

Friday, June 26, 2009

शिव सैनिकों की सनक

यह संतोषजनक है कि शिव सैनिकों की धमकी और पथराव का सामना करने के बावजूद अधिवक्ता अंजलि वाघमारे ने मुंबई हमले के दौरान पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब की वकालत करने की इच्छा जताई। यह निराशाजनक भी है और निंदनीय भी कि शिव सैनिक खुद को प्रखर राष्ट्रभक्त प्रकट करने के फेर में देश की कानूनी प्रक्रिया को अपने हिसाब से चलाने पर आमादा हैं।

उनकी इस सनक भरी जिद का कोई मतलब नहीं कि किसी कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल किए बगैर कसाब को सीधे फांसी पर लटका दिया जाए। यह न तो 16 वीं सदी है और न ही भारत में जंगलराज है। आखिर शिव सेना इस साधारण सी बात पर विचार करने के लिए क्यों नहीं तैयार कि आतंकियों को सजा देने के मामले में उसके सुझावों पर अमल करना संभव नहीं? सच तो यह है कि आतंकियों को दंडित करने के संबंध में उसके उपाय भारत की बदनामी कराने वाले हैं।

जब भारतीय न्याय प्रक्रिया ही नहीं, नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत भी यह कहता है कि किसी को अपने बचाव का मौैका दिए बगैर दंडित करना एक तरह का अन्याय है तब फिर शिव सेना की उछल-कूद का कोई मतलब नहीं। महज प्रचार पाने के लिए शिव सेना जो कुछ कर रही है उससे कुल मिलाकर कसाब सरीखे खूंखार आतंकी को दंडित करने में देरी ही हो रही है।

शिव सेना ने पहले यह सुनिश्चित किया कि कोई भी वकील कसाब की वकालत करने के लिए आगे न आने पाए और फिर जब अदालत ने विवश होकर अपनी ओर से एक वकील का नाम घोषित किया तो शिव सैनिक उसे धमकाने उसके घर तक पहुंच गए। यह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है?

माना कि इसे लेकर रंच मात्र भी संदेह नहीं कि कसाब ने मुंबई में बेहद घृणित कृत्य अंजाम दिया, लेकिन क्या उसे दंड का भागीदार बनाने के लिए न्याय प्रक्रिया का उल्लंघन कर दिया जाए? यदि शिव सैनिक अभी भी शिवाजी से प्रेरणा पाते हैं तो बेहतर होगा कि वे उनके आदर्शो से नए सिरे से कुछ सीख लें। इस तरह की मांग का तो औचित्य समझ आता है कि आतंकियों के मामलों की सुनवाई द्रुत गति से हो और ऐसी कोई व्यवस्था भी बनाई जाए जिससे उनके मुकदमे वर्षो तक न खिंचें, लेकिन ऐसे किसी विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता कि किसी को भी उनकी वकालत करने का अधिकार न मिले।

यह चिंताजनक है कि पिछले कुछ समय से शिव सेना सरीखे दलों के साथ-साथ वकीलों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आ गया है जो न तो स्वयं आतंकियों अथवा अन्य जघन्य अपराधियों की वकालत करता है और न ही किसी को करने देता है। जब कभी अदालत ऐसे तत्वों के लिए सरकारी खर्चे से वकील तय करती है तो उसका विरोध करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी संकोच नहीं किया जाता।

जो अधिवक्ता यह मानते हैं आतंकियों की वकालत करना अनुचित है वे अपनी इस मान्यता पर दृढ़ रह सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी इस मान्यता को दूसरों पर जबरन थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। बेहतर होगा कि बार काउंसिल आफ इंडिया सरीखे संगठन अपने साथियों को यह स्पष्ट संदेश दें कि वे शिव सेना सरीखा दृष्टिकोण अपनाकर न्याय की गरिमा गिराने का काम कर रहे हैं।