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Wednesday, October 20, 2010

वंशवादी राजनीति देश के नौजवान को अलग थलग कर देगी

शेष नारायण सिंह

मुंबई में दशहरा के दिन शिव सेना के नेता बाल ठाकरे ने अपनी पार्टी में अपने और अपने बेटे के बाद तीसरी पीढी को भी राजनीति में शामिल कर लिया है और उसे अपने वंश का उत्तराधिकारी बनाने का अघोषित सन्देश जारी कर दिया है . इस तरह से वंशवाद की राजनीति के एक पुराने विरोधी ने धृतराष्ट्र की तरह पुत्र मोह की बेदी पर अपने आपको कुरबान कर दिया है . देश के भविष्य को सबसे बड़ा ख़तरा वंशवादी राजनीति से है . वंशवाद की राजनीति राष्ट्र की मुख्यधारा से नौजवानों के एक बड़े वर्ग को अलग कर सकने की क्षमता रखती है . देश में अपने बच्चों को की अपनी राजनीतिक विरासत थमा देने की राजनीति फिर से सामंती व्यवस्था लागू करने जैसा है . पिछले एक हज़ार साल के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि राजपरिवारों की बातों में देश का आम आदमी नहीं शामिल होता था. राजा महाराजा आपस में लड़ते रहते थे. उनकी लड़ाई में उनके निजी स्वार्थ मुख्य भूमिका निभाते थे. इसलिए आमआदमी को कोई मतलब नहीं रहता था. भारत की एकता का सूत्र उसकी संस्कृति और उसकी धार्मिक परम्पराएं थी. राजनीति पूरी तरह से वंशवाद की भेट चढ़ चुकी होती थी. देश एक रहता था और सामंत लड़ते रहते थे . महात्मा गाँधी ने यह सब बदल दिया . जब वे कांग्रेस में आये तो कांग्रेस एक तरह से अंग्रेजों से छूट मांगने का फोरम मात्र था लेकिन महात्मा गाँधी ने कांग्रेस को जन आकांक्षाओं से जोड़ दिया और १९२० में पूरा देश महात्मा गाँधी के साथ कहदा हो गया. महातम अगंधी ने पूरे देश में यह सन्देश पंहुचा दिया कि आज़ादी के लड़ाई किसी एक राजा ,एक वंश या एक खानदान के हितों के लिए नहीं लड़ी जा रही थी , वह भारत के हर आदमी की अपनी लड़ाई थी . और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया. अपने किसी बच्चे को महात्मा गाँधी ने राजनीति में महत्व नहीं दिया . यह परंपरा आज़ादी मिलने के शुरुआती वर्षों में भी थी. जवाहरलाल नेहरू की बेटी , इंदिरा गाँधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं , वे राजनीति में भूमिका भी अदा करना चाहती थीं लेकिन आज़ादी की लड़ाई की जो गतिशीलता थी, उसके दबाव में जवाहरलाल नेहरू की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वे इंदिरा गाँधी को अपने वारिस के रूप में पेश करते. उनकी मौत के बाद स्व लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा गाँधी को पहली बार मंत्री बनाया था . लेकिन इंदिरा गाँधी में आजादी की महान परम्पराओं के प्रति वह सम्मान नहीं था . उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को राजनीति में शामिल किया और उसे मनमानी करने की पूरी छूट दी और भारतीय राजनीति में वंशवाद की बुनियाद रख दी. संजय गाँधी की याद इस देश के राजनीतिक इतिहास के उस अध्याय में की जायेगी जिसमें यह बताया जायेगा कि कांग्रेस ने महात्मा गाँधी की राजनीतिक मान्यताओं को कैसे तिलांजलि दी थी.. संजय गांधी की राजनीतिक ताजपोशी का बहुत सारे कांग्रेसियों ने विरोध भी किया था लेकिन वे सब इतिहास के डस्टबिन के हवाले हो गए. संजय गांधी को इंदिरा गाँधी ने १९८० में जितनी ताक़त दी थी , उतनी समकालीन इतिहास में किसी के पास नहीं थी. संजय गाँधी की राजनीतिक ताजपोशी की सफलता के बाद बाकी पार्टियों में भी यही ज़हर फैल गया .. मुंबई में शिव सेना की तीसरी पीढी की ताजपोशी उसी वंशवादी राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण है .
इस दशहरे के दिन मुंबई में जो हुआ , उसके पहले बहुत सारी पार्टियों के नेता अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित कर चुके हैं और ज्यदातर ऐसे नेताओं की दूसरी तीसरी पीढी राजनीति के चरागाह में मौज उड़ा रही है . दक्षिण से लेकर उत्तर तक लगभग हर बड़े नेता के बच्चे बिलकुल नाकारा होने के बावजूद राज कर रहे हैं . करूणानिधि, शरद पवार , जी के मूपनार , करुणाकरण, राजशेखर रेड्डी, एन टी रामाराव ,बीजू पटनायक , लालू प्रसाद यादव , मुलायम सिंह यादव , चौधरी चरण सिंह , देवी लाल, बंसी लाल , भजन लाल, शेख अब्दुल्ला, प्रकाश सिंह बदल , सिंधिया परिवार, कांग्रेस में लगभग सभी नेता ,इस मर्ज़ के शिकार हैं. अभी पिछले दिनों बिहार से खबर आई थी कि बी जे पी के प्रदेश अध्यक्ष ने इस्तीफा दे दिया था क्योंकि वे अपने बेटे को टिकट नहीं दिलवा पाए थे. देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार में तो वंशवाद है ही.ज़ाहिर है कि हालात बहुत खराब हैं और अपने वंश जो कायम करने की बेसब्री में बहुत सारे नेता देश की राजनीतिक संस्थाओं का बहुत अपमान कर रहे हैं . अगर यही हालत चलती रही तो देश के नौजवानों की बहुत बड़ी संख्या राजनीति में रूचि लेना बंद कर देगी और देश की एकता और अखंडता को भारी ख़तरा पैदा हो जाएगा. जिन देशों में कुछ खानदानों के लोग ही सत्ता पर काबिज़ रहते हैं , उनके हस्र को देखना दिलचस्प होगा. पड़ोसी देश नेपाल के अलावा इस सन्दर्भ में उत्तर कोरिया का उदाहरण दिया जा सकता है अगर देश के सभी लोग देश की भलाई में साझी नहीं किये जायेगें तो देश का भला नहीं होगा. वंशवादी राजनीति आम आदमी को सत्ता से भगा देने की एक साजिश है और उसका विरोध किया जाना चाहिये

Monday, February 15, 2010

पवार और बाल ठाकरे की दोस्ती पर भारी पड़ी मुंबई की जनता

शेष नारायण सिंह

शिव सेना की राजनीति का आख़री दौर शुरू हो गया है. एक हफ्ते में लगातार दो बार उनके इलाकाई नेता पुलिस के हाथों विधिवत पीटे गए हैं . अक्खी मुंबई में शिव सेना छाप बकैती का कोई पुछत्तर नहीं है .जिस कांग्रेस ने उसे शुरू करवाया और बाकायदा मदद की , उसके सभी नेता पल्ला झाड चुके हैं . सबसे अजीब बात तो यह है कि अपने विरोधियों की सियासी चमक को फीका करने के लिए पिछले ३० वर्षों से शिव सेना का इस्तेमाल कर रहे शरद पवार ने भी अपने ताज़ा बयान में शिव सेना से पिंड छुडाने की कसरत शुरू कर दी है .यह अलग बात है कि राहुल गाँधी वाली धुनाई के दिन ही शिव सेना वालों के हौसले पस्त हो गए थे . शिव सेना के युवराज अपनी बिल में विराजमान थे और उनके चचेरे भाई बहुत ही अदब से बात कर रहे थे . शिव सेना के संस्थापक को औकातबोध हो चुका था और वे भीगी बिल्ली के रूप में अपने घर के अन्दर छुप गए थे. कहीं कोई बयान नहीं था . ऐसी हालत में मुंबई में अराजकता फैला कर सियासत करने वाले ,केंद्रीय कृषि मंत्री, शरद पवार ने बाल ठाकरे के घर जाकर फर्शी सलाम बजाया . उनकी मंशा यह थी कि शिव सेना वालों को भड़काया जाए क्योंकि अगर मुंबई में अमन-चैन कायम हो गया तो उनकी राजनीतिक रौनक कमज़ोर पड़ जायेगी. . उनकी इस यात्रा से घर के अन्दर दुबके , बाल ठाकरे की हिम्मत बढ़ी और उन्होंने एक निहायत ही कमजोर विकेट पर खेलने के फैसला कर लिया. उन्होंने एक लोकप्रिय अभिनेता के खिलाफ मर्चा खोल दिया और १२ फरवरी को रिलीज़ होने वाली उसकी फिल्म के खिलाफ मैदान ले लिया . क्रिकेट के खेल का एक नियम है कि जब किसी मज़बूत खिलाड़ी के सामने कोई लूज़ बाल फेंकी जाती है तो एक ज़ोरदार छक्का लगता है ..लेकिन सियासत की क्रिकेट के नियम कुछ अलग हैं . इस खेल में जब कोई भी खिलाड़ी लूज़ बाल फेंकता है तो सैकड़ों छक्के लगते हैं और कई बार तो इस एक लूज़ बाल की वजह से उसकी टीम ही हार जाती है . मातोश्री जाकर बाल ठाकरे को भड़काने की शरद पवार की भड़ी में आकर शिव सेना ने वही बेवकूफी कर दी और अब शिव सेना मुंबई शहर में पूरी तरह से अलग थलग पड़ गयी है... मुसीबत में पड़े किसी भी साथी को मंझधार में छोड़ देने के खेल के उस्ताद, शरद पवार ने भी अब शिव सेना से पिंड छुडाने की कोशिश शुरू कर दी है ..

अब तक होता यह था कि शिव सेना का इस्तेमाल कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों के नेता उन कामों के लिए करते थे , जो वे कानून के दायरे में रह कर खुद नहीं कर सकते थे .मुंबई के ट्रेड यूनियन आन्दोलन में कम्युनिस्टों की हैसियत को कम करने के लिए उस वक़्त के कांग्रेसी नेताओं ने एक मामूली कार्टूनिस्ट को आगे करके शिवसेना की स्थापना करवाई थी. उस दौर के कांग्रेसी ही शिवसेना के संरक्षक हुआ करते थे . परेल के विधायक सुभाष देसाई का मुंबई के ट्रेड यूनियन हलकों में ख़ासा दबदबा था . वे कम्युनिस्ट थे . १९७० में उनकी हत्या कर दी गयी . आरोप शिव सेना पर लगा लेकिन जानकार बताते हैं कि उस वक़्त की कांग्रेसी सरकार ने शिव सेना प्रमुख को साफ़ बचा लिया .. बात में दत्ता सामंत के खिलाफ भी शिव सेना का इस्तेमाल किया गया . उनके नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनों को सरकार ने ख़त्म किया और मुंबई का औद्योगिक नक्शा बदल दिया . जब कामगारों में शिव सेना की ताक़त बढ़ी तो मजदूरों के साथ साथ मिल मालिकों से भी वसूली जोर पकड़ने लगी और शिव सेना ने बाकायदा हफ्ता वसूली का काम शुरू कर दिया...यहाँ समझने वाली बात यह है कि जब दत्ता सामंत पर शिव सेना भारी पड़ी और उनकी हत्या हुई ,उस दौर में शरद पवार एक राजनीतिक ताक़त बन चुके थे . वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन चुके थे .तब से अब तक शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे और शरद पवार की दोस्ती का सिलसिला जारी है और दोनों हमेशा एक दूसरे के काम आते रहे हैं ..मौजूदा दौर में भी उनकी कोशिश यही थी कि शिवसेना का इस्तेमाल करके दिल्ली में अपने आप को महत्वपूर्ण बनाए रखें लेकिन उनकी बदकिस्मती है कि आजकल दिल्ली में राज करने वाला कोई लल्लू नहीं है . दिल्ली में सोच समझ कर फैसले लेने की परंपरा शुरू हो गयी है . शायद इसी लिए जब वे बाल ठाकरे को चने की झाड पर चढ़ा कर वापस लौटे तो दिल्ली वालों ने बाल ठाकरे के लोगों की धुनाई की योजना बना ली. बेचारे बाल ठाकरे अपने घर में बैठ कर शरद पवार को गरिया रहे हैं और उनकी समझ में नहीं आ रहा है अब क्या करें ? क्योंकि यह बात सारी दुनिया जानती है कि अगर गुंडे से लोग डरना बंद कर दें तो उसकी दूकान बंद हो जाती है . शिव सेना में काम करने वालों को कोई तनख्वाह तो मिलती नहीं , उनका खर्चा- पानी तो मोहल्ले और झोपड़-पट्टी में वसूली से ही चलता है . जब गरीब आदमी शिव सेना के मुकामी कार्यकर्ता से डरना बंद कर देगा तो उसे पैसा क्यों देगा. और अगर शिव सैनिक होने के बावजूद शहरी लुम्पन को खाने पीने की तकलीफ होने लगेगी तो वह शिव सेना के साथ क्यों रहेगा .वह कोई और रास्ता देखने के लिए मजबूर हो जाएगा. . यहाँ यह देखना दिलचस्प होगा कि शिव सेना की न्युसांस वैल्यू ख़त्म होने के बाद बाल ठाकरे और उनका कुनबा तो पैदल हो ही जाएगा, शरद पवार की सियासत भी बहुत कमज़ोर हो जायेगी.

महाराष्ट्र की राजनीति का कोई भी जानकार बता देगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार की ताक़त में जब भी वृद्धि हुई, उसी दौर में राज्य और राजधानी मुंबई में शिव सेना को मजबूती मिली. १९७८-७९ से शुरू हुआ यह सिलसिला आज तक चल रहा है. १९९२-९३ के मुंबई दंगों के दौरान तो उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री सुधाकर राव नाईक ने श्रीकृष्ण कमीशन के सामने बयान दिया था कि तत्कालीन रक्षा मंत्री, शरद पवार ने सेना की तैनाती में अड़चन लगाई जिस से कि शिव सेना के दंगाई गुंडे उन इलाकों में लूट,आगज़नी और क़त्ल का नंगा कर सकें जहां बड़ी संख्या में मुसलमान रहते थे .. उसके बाद भी जब भी मौक़ा मिलता है ,शरद पवार शिव सेना की मदद करते रहते हैं . यह अलग बात है कि इस बार शिव सेना को आगे बढाने की उनकी कोशिश को सोनिया गाँधी और मनमोहन सिंह ने पकड़ लिया और वे आजकल अपने घाव चाटते देखे जा रहे हैं .. शिव सेना ने भी उनकी हमेशा मदद की है पिछले दिनों जब प्रधान मंत्री पद एक लिए शरद पवार की दावेदारी की बात चली थी, शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे खुल कर उनके पक्ष में आ गए थे ..

लेकिन एक फिल्म की रिलीज़ जैसे मुद्दे पर अपना सब कुछ दांव पर लगा देने की बेवकूफी कर के शिव सेना ने अपना सर्वनाश कर लिया है .. शाहरुख खान की फिल्म की मुखालिफत करके शिवसेना की अपनी गुंडई वाली ज़मीन को वापस लेने की कोशिश बहुत महंगी पड़ गयी है .और एक बार साफ़ हो गया है कि अब मुंबई की जनता के ऊपर ,शिवसेना के बड़े से बड़े नेता की घुड़की का कोई असर नहीं पड़ने वाला है ..वरना दादर इलाके में लोगों को घरों में बैठे रहने की नसीहत देने वाले पूर्व मुख्यमंत्री, मनोहर जोशी की बात पर लोग विचार करते.जो ११ फरवरी को घूम घूम कर कह रहे थे कि अगर पत्थर न खाना हो तो १२ फरवरी को सड़क पर न निकलें .. जो आदमी महाराष्ट्र का मुख्य मंत्री रह चुका हो और लोकसभा का अध्यक्ष रह चुका हो उसे सड़क छाप गुंडों की तरह लोगों को धमकाते देख कर मन में बहुत तकलीफ होती है . लेकिन सच्चाई यह है कि यही शिवसेना की सियासत है और इसी के सहारे उसकी दाल रोटी चलती है . लेकिन इस देश के लोक तंत्र और राजनीति में काम करने वाले लोगों के लिए यह शर्म की बात है कि शरद पवार जैसा राष्ट्रीय स्तर का नेता भी शिव सेना की दादागीरी के खेल में शामिल हो कर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करता है ..बहरहाल जो भी हुआ,एक बात तो पक्की है कि शाहरुख खान की फिल्म के बाद हुए घटनाक्रम से साफ़ हो गया है कि अब शिव सेना को गंभीरता से लेने वालों की संख्या में बहुत बड़ी कमी आई है .

Sunday, February 14, 2010

तबाह शिवसेना के कार्यकर्ताओं को मुख्य धारा में लाने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह

पहली बार मुंबई की सडकों पर शिव सेना अपमानित हुई है . इसके पहले कभी भी ऐसा दिन नहीं देखा था... परेल और दादर के औद्योगिक इलाकों में १९७० के आस पास इनकी ताक़त का अहसास होने लगा था . कम्युनिस्ट विधायक, कृष्णा देसाई की हत्या के बाद तो बहुत बड़ी संख्या में मिल मजदूर शिव सेना वालों से डरने लगे थे . दत्ता सामंत की हत्या के बाद से यह संगठन मुंबई और उसके उप नगरों में सबसे ताक़तवर जमात के रूप में माना जाने लगा था. बेरोजगार युवकों की टोलियाँ उन दिनों जार्ज फर्नांडीज़ के साथ भी जुड़ रही थीं लेकिन वहां पैसा-कौड़ी नहीं था लिहाजा ज़्यादातर नौजवान शिव सेना से जुड़ने लगे. आज तक यही हाल था . मोहल्ले में लोग शिव सेना के युवकों से डरते थे और चंदा देते थे . कांग्रेस और बी जे पी की सरकारें कभी भी शिव सैनिकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करती थीं. कभी कोई वारदात होती थी तो मुंबई पुलिस कुछ देर थाने में बैठाकर छोड़ देती थी . शायद इसी लिए शिव सेना में भर्ती होना राजनीति के साथ साथ आर्थिक विकास और मुकामी सम्मान का भी रास्ता माना जाता था लेकिन पिछले १० दिनों में सब कुछ बदल गया . राहुल गाँधी की यात्रा और उनके पारिवारिक मित्र ,शाहरुख खान की फिल्म को हिट करवाने के चक्कर में महाराष्ट्र की कांग्रेसी सरकार की पुलिस ने शिव सैनिकों को खूब पीटा. शरद पवार की पार्टी का उप मुख्यमंत्री भी उन्हें बचा न सका . पहली बार मुंबई की सडकों पर सरकार के हाथों शिव सैनिक पिटा है. जिसका नतीजा यह है कि वह निराश है . बाल ठाकरे की अपने बन्दों को बचा सकने की योग्यता पर पहली बार सवाल उठा है . ज़ाहिर है कि बड़ी संख्या में नौजवान हताशा का शिकार हुआ है ..यह नौजवान बिलकुल निर्दोष है . इसे सामाजिक जीवन में जीने और अपने नेता की बात मानने की आदत पड़ चुकी है . इसको फिर से किसी राजनीतिक जमात में शामिल किये जाने की ज़रुरत है . इस लिए मुम्बई में सक्रिय राजनीतिक पार्टियों को चाहिए कि वे इन नौजवानों को अपने साथ ले कर इनका राजनीतिक पुनर्वास करें..अगर ऐसा न हुआ तो यह नौजवान किसी ऐसे संगठन में भी शामिल हो सकते हैं जिसके देशप्रेम का रिकॉर्ड संदिग्ध हो..इस लिए कांग्रेस, बी जे पी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को तुरंत यह घोषणा कर देनी चाहिए कि अगर शिव सेना से निराश नौजवान चाहें तो उनको सम्मान पूर्वक मुख्य धारा की इन पार्टियों में शामिल किया जाएगा. . यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि शिव सेना के मालिकों की नीति कुछ भी हो , मराठी बेरोजगार नौजवान तो उनके साथ देश और समाज की सेवा के लिए जुडा था. उसका इस्तेमाल इन लोगों ने गलत काम के लिए कर लिया तो नौजवान का कोई दोष नहीं है .इस लिए उसे बदमाशी की राजनीति से बाहर लाकर मुख्य धारा में शामिल करने का यह अवसर गंवाया नहीं जाना चाहिए . सवाल उठ सकता है कि इन गुमराह नौजवानों को राजनीति के पचड़े से दूर रख कर किसी रचनात्मक काम में लगा दिया जाए तो ज्यादा उपयोगी होगा . लेकिन इस तर्क में बुनियादी दोष है . पिछले १५-२० साल से जो लडके राजनीति में काम कर रहे हैं ,उन्हें और किसी भी काम में लगाना खतरे से खाली नहीं है .अव्वल तो राजनीति में शामिल ज़्यादातर नौजवानों के पास कोई ख़ास योग्यता नहीं होती और अगर होगी भी तो इतने दिनों तक शिव सेना की गुंडई और दादागीरी की राजनीति करके वे बेचारे सब कुछ भूल भाल गए होंगें .. ऐसी हालत में उन्हें राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में ही पुनर्वास देने के बारे में सोचा जा सकता है ... दूसरा सवाल यह उठ सकता है कि शिव सेना टाइप राजनीति करने के बाद क्या यह नौजवान मुख्य धारा की राजनीति में शामिल हो सकते हैं . . जवाब हाँ में है क्योंकि बाकी पार्टियों में भी गुंडे ही बहुतायत में हैं . हाँ उनके यहाँ फर्क इतना है कि हर पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व खुले आम बदमाशी को समर्थन नहीं करता जबकि शिव सेना वाले राष्ट्रीय नेता भी दादागीरी के पक्ष में भाषण देते पाए जाते हैं ..
इस बहस को हलके लेने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि इस बात का भी पूरा ख़तरा बना हुआ है कि दिशा से बहक गए ये नौजवान आतंकवादियों के हाथ भी लग सकते हैं . जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है वहां बड़ी संख्या में आतंकवादी संगठनों के रिक्रूटिंग एजेंट घूम रहे हैं . मालेगांव में विस्फोट करने वालों को भी आतंकवादी गतिविधियाँ चलाने के लिए नौजवानों की ज़रुरत है और उनके लिए हिंदुत्व की ट्रेनिंग पा चुके इन नौजवानों का बहुत ही ज्यादा इस्तेमाल है . इन लोगों का इस्तेमाल पाकिस्तान में रहने वाले आतंकवादी भी कर सकते हैं . यहाँ यह बात भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता.. पिछले ३० वर्षों का इतिहास देखें तो समझ में आ जाएगा कि पाकिस्तान की आई एस आई ने पंजाब, असम और मुंबई में आतंकवादी गतिविधियों के लिए हिन्दू और सिख लड़कों का इस्तेमाल किया था....इस लिए सभी पार्टियों को शिव सेना की तबाही का जश्न मनाना छोड़कर फ़ौरन उन लड़कों को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने की कोशिश करनी चाहिए जो शिव सेना के चक्कर में रास्ते से बहक गए थे

Friday, June 26, 2009

शिव सैनिकों की सनक

यह संतोषजनक है कि शिव सैनिकों की धमकी और पथराव का सामना करने के बावजूद अधिवक्ता अंजलि वाघमारे ने मुंबई हमले के दौरान पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब की वकालत करने की इच्छा जताई। यह निराशाजनक भी है और निंदनीय भी कि शिव सैनिक खुद को प्रखर राष्ट्रभक्त प्रकट करने के फेर में देश की कानूनी प्रक्रिया को अपने हिसाब से चलाने पर आमादा हैं।

उनकी इस सनक भरी जिद का कोई मतलब नहीं कि किसी कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल किए बगैर कसाब को सीधे फांसी पर लटका दिया जाए। यह न तो 16 वीं सदी है और न ही भारत में जंगलराज है। आखिर शिव सेना इस साधारण सी बात पर विचार करने के लिए क्यों नहीं तैयार कि आतंकियों को सजा देने के मामले में उसके सुझावों पर अमल करना संभव नहीं? सच तो यह है कि आतंकियों को दंडित करने के संबंध में उसके उपाय भारत की बदनामी कराने वाले हैं।

जब भारतीय न्याय प्रक्रिया ही नहीं, नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत भी यह कहता है कि किसी को अपने बचाव का मौैका दिए बगैर दंडित करना एक तरह का अन्याय है तब फिर शिव सेना की उछल-कूद का कोई मतलब नहीं। महज प्रचार पाने के लिए शिव सेना जो कुछ कर रही है उससे कुल मिलाकर कसाब सरीखे खूंखार आतंकी को दंडित करने में देरी ही हो रही है।

शिव सेना ने पहले यह सुनिश्चित किया कि कोई भी वकील कसाब की वकालत करने के लिए आगे न आने पाए और फिर जब अदालत ने विवश होकर अपनी ओर से एक वकील का नाम घोषित किया तो शिव सैनिक उसे धमकाने उसके घर तक पहुंच गए। यह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है?

माना कि इसे लेकर रंच मात्र भी संदेह नहीं कि कसाब ने मुंबई में बेहद घृणित कृत्य अंजाम दिया, लेकिन क्या उसे दंड का भागीदार बनाने के लिए न्याय प्रक्रिया का उल्लंघन कर दिया जाए? यदि शिव सैनिक अभी भी शिवाजी से प्रेरणा पाते हैं तो बेहतर होगा कि वे उनके आदर्शो से नए सिरे से कुछ सीख लें। इस तरह की मांग का तो औचित्य समझ आता है कि आतंकियों के मामलों की सुनवाई द्रुत गति से हो और ऐसी कोई व्यवस्था भी बनाई जाए जिससे उनके मुकदमे वर्षो तक न खिंचें, लेकिन ऐसे किसी विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता कि किसी को भी उनकी वकालत करने का अधिकार न मिले।

यह चिंताजनक है कि पिछले कुछ समय से शिव सेना सरीखे दलों के साथ-साथ वकीलों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आ गया है जो न तो स्वयं आतंकियों अथवा अन्य जघन्य अपराधियों की वकालत करता है और न ही किसी को करने देता है। जब कभी अदालत ऐसे तत्वों के लिए सरकारी खर्चे से वकील तय करती है तो उसका विरोध करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी संकोच नहीं किया जाता।

जो अधिवक्ता यह मानते हैं आतंकियों की वकालत करना अनुचित है वे अपनी इस मान्यता पर दृढ़ रह सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी इस मान्यता को दूसरों पर जबरन थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। बेहतर होगा कि बार काउंसिल आफ इंडिया सरीखे संगठन अपने साथियों को यह स्पष्ट संदेश दें कि वे शिव सेना सरीखा दृष्टिकोण अपनाकर न्याय की गरिमा गिराने का काम कर रहे हैं।