शेष नारायण सिंह
पाकिस्तानी अखबार डान के पहले पेज पर खबर छपी है कि पाकिस्तानी फौज के मुखिया, जनरल अशफाक परवेज़ कयानी और आई एस आई के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा ने मंगलवार को प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी के दफ्तर जाकर उनसे मुलाक़ात की . इस बैठक में राजकाज के बहुत सारी बातों के अलावा यह भी तय किया गया कि अफगानिस्तान में सरकार की नीतियों को लागू करने की दिशा में क्या क़दम उठाये जाने हैं . प्रधानमंत्री ने विदेशमंत्री, हिना रब्बानी खार को अफगानिस्तान की यात्रा करने का निर्देश दिया .इस यात्रा का उद्देश्य अमरीका-पाकिस्तान-अफगानिस्तान की शीर्ष बैठक के पहले माहौल ठीक करना भी बताया गया है .
इस खबर का ज़िक्र करने का मतलब यह है कि जहाँ पाकिस्तानी फौज और आई एस आई देश की सबसे ताक़तवर संस्थाएं मानी जाती थीं और अगर किसी नवाज़ शरीफ या किसी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उसका हुक्म नहीं माना तो उसे सत्ता से बेदखल कर दिया जाता था, उसी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गीलानी के सख्त तेवर के बाद आई एस आई और फौज का मुखिया राजकाज के मामलों की चर्चा में शामिल होने के लिए प्रधान मंत्री के यहाँ हाजिरी लगा रहा है . पाकिस्तान के पिछले साठ साल के इतिहास को जानने वाले जानते हैं कि फौज का मुखिया डांट खाने के बाद कभी किसी भी सिविलियन सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए ही उसके दफतर जाता है .लेकिन पाकिस्तान में भी हालात बदल रहे हैं . चारों तरफ से लोकतंत्र की मजबूती की खबरें आ रही हैं जो पाकिस्तान के लिए तो बहुत अच्छा है ही, भारत और अफगानिस्तान के लिए बहुत अच्छा है, बाकी दुनिया के लिए बहुत अच्छा है .
पाकिस्तान के बारे में पिछले कुछ महीनों से अजीब खबरें आ रही थीं . पाकिस्तानी मामलों के भारत में मौजूद लाल बुझक्कड़ अक्सर बताते रहते हैं कि बहुत जल्द पाकिस्तान में फौजी हुकूमत कायम होने वाली है. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . जब से सिविलियन हुकूमत ने फौज को अपनी हद में रहने की हिदायत दी है,उसी वक़्त से बार बार यह चर्चा जोर पकड़ लेती है कि फौज अब फ़ौरन राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की छुट्टी कर देगी और खुद सरकार बन जायेगी. सारी दुनिया में पाकिस्तानी मामलों के जानकार अपनी इस तर्ज़ पर की गयी भविष्यवाणियों के पूरा होने का इंतज़ार करते रहे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.पाकिस्तानी मीडिया में भी इस तरह की खबरें रोज़ ही आ रही थीं कि पता नहीं कब क्या हो जाए लेकिन लगता है कि वहां लोकशाही की जड़ें मज़बूत होना शुरू हो गयी हैं .पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों को विश्वास होने लगा है कि अब उनके देश में लोकतंत्र के लिए अब पहले से ज़्यादा अवसर मौजूद हैं . हालांकि यह भी हो सकता है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में मौजूदा सरकार हटा दी जाए लेकिन सिविलियन हुकूमत के पिछले कुछ हफ़्तों के तेवर ऐसे हैं जो पक्की तरह से लोक शाही की ताकत का सन्देश देते हैं . अगर मौजूदा सरकार चुनाव के पहले नहीं हटाई जायेगी गयी तो पाकिस्तान के इतिहास में पहली सिविलियन सरकार बन जायेगी जिसने अपने पूरा कार्यकाल पूरा किया हो .
पाकिस्तान में सारा विवाद तब शुरू हुआ जब उनकी फौज की नाक के नीचे ओसामा बिन लादेन की मौजूदगी साबित हो गयी जबकि जनरल परवेश मुशर्रफ से लेकर जनरल कयानी तक सभी फौजी कहते रहे थे कि उन्हें नहीं मालूम कि ओसामा कहाँ है. उसके बाद जब सरकार ने फौज को आइना दिखाने की कोशिश की तो सेना मुख्यालय से तख्तापलट के संकेत आने लगे थे . बाद में उसी चक्कर में मेमो काण्ड वाला लफडा भी हुआ . लगने लगा कि सिविलियन हुकूमत के आदेश न मानने के लिए बदनाम पाकिस्तानी फौज अब सरकार की छुट्टी कर देगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ .पाकिस्तान में फौज ने चार बार सिविलियन सत्ता को हटाकर खुद गद्दी पर क़ब्ज़ा किया है . चारों बार सडकों पर टैंक उतार दिए जाते थे, रेडियो और टेलीविज़न पर क़ब्ज़ा कर लिया जाता था और सिविलियन शासक को पकड़ लिया जाता था . इस बार ऐसा संभव नहीं है . आज न्यायपालिका एक मज़बूत सत्ता केंद्र के रूपमें विकसित हो चुकी है , पाकिस्तानी मीडिया भी अपनी भूमिका बहुत ही खूबी से निभा रहा है और आज मीडिया ब्लैक और का सपना देखना किसी ही शासक के लिए संभव नहीं है . पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पूरा भरोसा है कि आज फौज की हिम्मत नहीं है कि वह सीधे हस्तक्षेप कर सके.
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद फौज की जो बदनामी हुई उसके बाद से ही ज़रदारी-गीलानी सरकार ने अपनी अथारिटी को स्थापित करना शुरू कर दिया था . उसी जद्दो-जहद में देश में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले चार महीनों में कुछ ऐसे कानून पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में बदलाव ही हवा बह रही है. पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति ,बी एम कुट्टी दिसंबर में मुंबई आये थे .उन्होंने बहुत सारे उदाहरणों के साथ यह बात समझाया कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान में अब आम तौर पर माना जाने लगा है कि फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं .
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Saturday, January 28, 2012
Monday, January 16, 2012
पाकिस्तान में लोकतंत्र और राजनीतिक पार्टियों का इम्तिहान हो रहा है
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान में आजकल वह हो रहा है जो अब तक कभी नहीं हुआ.देश की संसद में यह तय हो रहा है कि देश में लोकतंत्र का निजाम रहना है कि एक बार फिर तानाशाही कायम होनी है . अब तक तो होता यह था कि कोई फौजी जनरल आकर सिविलियन सरकारों को बता देता था कि भाई बहुत हुआ अब चलो ,हम राजकाज संभालेगें . सिविलियन हुकूमत वाले जब ज्यादा लोकशाही की बात करते थे तो उन्हें दुरुस्त कर दिया जाता था. चाहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो रहे हों या लियाकत अली खां और या नवाज़ शरीफ रहे हों सब को फौज ने अपमानित ही किया लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि पूरे देश में आजकल लोकतंत्र बनाम तानाशाही की बहस चल रही है . हालांकि मौजूदा सरकार की लोकप्रियता और भ्रष्टाचार के हवाले से उसे हटाने का राग चारों तरफ से सुनायी पड़ने लगा है लकिन लगता है कि अब पुरानी बातें नहीं चलने वाली हैं . संसद का विशेष सत्र चल रहा है और सोमवार को संसद तय करेगी कि आगे का रास्ता क्या हो . प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने संसद में कहा कि तय यह होना है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र रहेगा या तानाशाही .उन्होंने कहा कि अगर उनकी सरकार ने गलातियाँ की हैं तो ठीक है उन्हें सज़ा दी जाए लेकिन संसद या लोकतंत्र को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए .पाकिस्तानी जनमत का दबाव ऐसा है कि अब तक फौज के बूटों पर ताल दे रहे पंजाबी राजनेता , नवाज़ शरीफ भी कहने लगे हैं कि सरकार को चाहिए कि वक़्त से पहले चुनाव करवाकर लोकतंत्र की बहाली को सुनिश्चित करें.
शुक्रवार को अवामी नेशनल पार्टी के नेता, अफसंदर वली खां ने कौमी असेम्बली में संसद,सरकार और लोकतंत्र के पक्ष में एक प्रस्ताव रखा. इसी प्रस्ताव पर सोमवार को वोट पडेगा. प्रस्ताव में राजनीतिक नेतृत्व की उस कोशिश का भी समर्थन किया गया है जिसमें वह लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रही है .पाकिस्तान में आजकल सरकार ही सवालों के घेरे में नहीं है .सही बात यह है कि पाकिस्तान के अस्तित्व पर एक बार फिर सवालिया निशान लग गया है .पाकिस्तान के लोकतंत्र को एक बार फिर अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया गया है .लेकिन यह एक दिन में नहीं हुआ. बहुत शुरू से ही पाकिस्तान की हर मुसीबत के लिए नेताओं को ज़िम्मेदार ठहराकर पाकिस्तानी फौज़ सत्ता हथियाती रही है . नेता भी आम तौर पर इतने बेईमान और भ्रष्ट हो जाते थे कि जनता दुआ करने लगती थी कि किसी तरह से फौज ही आ जाए . आम तौर पर फौज के सत्ता में आने पर लोग राहत की सांस लेते थे .लेकिन अब पहली बार ऐसा हो रहा है कि जनता इस बात पर बहस कर रही है कि देश में किस तरह का निजाम स्थापित किया जाए . हुकूमत के फैसलों में मनमानी करने की आदी पाकिस्तानी फौज़ के सामने भी विकल्प कम होते जा रहे हैं . हर बार होता यह था कि जब भी पाकिस्तान की सरकार पर फौज का क़ब्ज़ा होता था तो अमरीका फौजी तानाशाह को मदद करने लगता था . आर्थिक रूप से अमरीकी सरकार के शामिल हो जाने के बाद फौजी जनरल को कोई रोक नहीं सकता था . इस इलाके में रूस के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से अमरीका ने शुरुआती दो जनरलों, अयूब और याहया खां को समर्थन दिया था. जिया उल हक को अफगानिस्तान में सोवियत दखल को कम करने के लिए समर्थन दिया गया था और परवेज़ मुशर्रफ को तालिबानी आतंकियों को काबू में करने के लिए धन दिया गया था . लेकिन इस बार यह बिलकुल तय है कि अमरीका किसी भी फौजी हुकूमत को समर्थन देने को तैयार नहीं है . उसके अपने हित में है कि पाकिस्तान में जैसी भी हो लोकतंत्र वाली सरकार ही रहे. ऐसे माहौल में लगता है कि पाकिस्तान की जनता को आज़ादी के साठ साल बाद ही सही अपने हक को हासिल करने का मौक़ा मिल रहा है .
हालांकि अभी यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि जिस तरह का माहौल है उसमें संसदीय लोकतंत्र सुरक्षित बच पायेगा .फौज ने एक पुराने क्रिकेट खिलाड़ी को आगे कर दिया है और लगता है कि वह उसी को आगे करके लोकतंत्र को कंट्रोल में रखने की कोशिश कर रही है .इस खिलाड़ी ने एक राजनीतिक पार्टी भी बना रखा है और अगर पहले जैसे हालात होते तो अब तक वह सत्ता पर काबिज़ भी हो चुका होता लेकिन पाकिस्तानी मीडिया और जनमत का दबाव ऐसा है कि फौज को चुप बैठने के लिए मजबूर कर दिया गया है .पाकिस्तान की सभी राजनीतिक पार्टियां भी एक इम्तिहान के दौर से गुज़र रही है देखना यह है कि आने वाले वक़्त में पाकिस्तान में लोक तंत्र बचता है कि नहीं और अगर बचता है तो किस रूपमें .
पाकिस्तान में आजकल वह हो रहा है जो अब तक कभी नहीं हुआ.देश की संसद में यह तय हो रहा है कि देश में लोकतंत्र का निजाम रहना है कि एक बार फिर तानाशाही कायम होनी है . अब तक तो होता यह था कि कोई फौजी जनरल आकर सिविलियन सरकारों को बता देता था कि भाई बहुत हुआ अब चलो ,हम राजकाज संभालेगें . सिविलियन हुकूमत वाले जब ज्यादा लोकशाही की बात करते थे तो उन्हें दुरुस्त कर दिया जाता था. चाहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो रहे हों या लियाकत अली खां और या नवाज़ शरीफ रहे हों सब को फौज ने अपमानित ही किया लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि पूरे देश में आजकल लोकतंत्र बनाम तानाशाही की बहस चल रही है . हालांकि मौजूदा सरकार की लोकप्रियता और भ्रष्टाचार के हवाले से उसे हटाने का राग चारों तरफ से सुनायी पड़ने लगा है लकिन लगता है कि अब पुरानी बातें नहीं चलने वाली हैं . संसद का विशेष सत्र चल रहा है और सोमवार को संसद तय करेगी कि आगे का रास्ता क्या हो . प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने संसद में कहा कि तय यह होना है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र रहेगा या तानाशाही .उन्होंने कहा कि अगर उनकी सरकार ने गलातियाँ की हैं तो ठीक है उन्हें सज़ा दी जाए लेकिन संसद या लोकतंत्र को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए .पाकिस्तानी जनमत का दबाव ऐसा है कि अब तक फौज के बूटों पर ताल दे रहे पंजाबी राजनेता , नवाज़ शरीफ भी कहने लगे हैं कि सरकार को चाहिए कि वक़्त से पहले चुनाव करवाकर लोकतंत्र की बहाली को सुनिश्चित करें.
शुक्रवार को अवामी नेशनल पार्टी के नेता, अफसंदर वली खां ने कौमी असेम्बली में संसद,सरकार और लोकतंत्र के पक्ष में एक प्रस्ताव रखा. इसी प्रस्ताव पर सोमवार को वोट पडेगा. प्रस्ताव में राजनीतिक नेतृत्व की उस कोशिश का भी समर्थन किया गया है जिसमें वह लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रही है .पाकिस्तान में आजकल सरकार ही सवालों के घेरे में नहीं है .सही बात यह है कि पाकिस्तान के अस्तित्व पर एक बार फिर सवालिया निशान लग गया है .पाकिस्तान के लोकतंत्र को एक बार फिर अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया गया है .लेकिन यह एक दिन में नहीं हुआ. बहुत शुरू से ही पाकिस्तान की हर मुसीबत के लिए नेताओं को ज़िम्मेदार ठहराकर पाकिस्तानी फौज़ सत्ता हथियाती रही है . नेता भी आम तौर पर इतने बेईमान और भ्रष्ट हो जाते थे कि जनता दुआ करने लगती थी कि किसी तरह से फौज ही आ जाए . आम तौर पर फौज के सत्ता में आने पर लोग राहत की सांस लेते थे .लेकिन अब पहली बार ऐसा हो रहा है कि जनता इस बात पर बहस कर रही है कि देश में किस तरह का निजाम स्थापित किया जाए . हुकूमत के फैसलों में मनमानी करने की आदी पाकिस्तानी फौज़ के सामने भी विकल्प कम होते जा रहे हैं . हर बार होता यह था कि जब भी पाकिस्तान की सरकार पर फौज का क़ब्ज़ा होता था तो अमरीका फौजी तानाशाह को मदद करने लगता था . आर्थिक रूप से अमरीकी सरकार के शामिल हो जाने के बाद फौजी जनरल को कोई रोक नहीं सकता था . इस इलाके में रूस के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से अमरीका ने शुरुआती दो जनरलों, अयूब और याहया खां को समर्थन दिया था. जिया उल हक को अफगानिस्तान में सोवियत दखल को कम करने के लिए समर्थन दिया गया था और परवेज़ मुशर्रफ को तालिबानी आतंकियों को काबू में करने के लिए धन दिया गया था . लेकिन इस बार यह बिलकुल तय है कि अमरीका किसी भी फौजी हुकूमत को समर्थन देने को तैयार नहीं है . उसके अपने हित में है कि पाकिस्तान में जैसी भी हो लोकतंत्र वाली सरकार ही रहे. ऐसे माहौल में लगता है कि पाकिस्तान की जनता को आज़ादी के साठ साल बाद ही सही अपने हक को हासिल करने का मौक़ा मिल रहा है .
हालांकि अभी यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि जिस तरह का माहौल है उसमें संसदीय लोकतंत्र सुरक्षित बच पायेगा .फौज ने एक पुराने क्रिकेट खिलाड़ी को आगे कर दिया है और लगता है कि वह उसी को आगे करके लोकतंत्र को कंट्रोल में रखने की कोशिश कर रही है .इस खिलाड़ी ने एक राजनीतिक पार्टी भी बना रखा है और अगर पहले जैसे हालात होते तो अब तक वह सत्ता पर काबिज़ भी हो चुका होता लेकिन पाकिस्तानी मीडिया और जनमत का दबाव ऐसा है कि फौज को चुप बैठने के लिए मजबूर कर दिया गया है .पाकिस्तान की सभी राजनीतिक पार्टियां भी एक इम्तिहान के दौर से गुज़र रही है देखना यह है कि आने वाले वक़्त में पाकिस्तान में लोक तंत्र बचता है कि नहीं और अगर बचता है तो किस रूपमें .
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शेष नारायण सिंह
Saturday, July 9, 2011
पाक प्रधानमंत्री ने कहा -उनके मुल्क के अस्तित्व को ख़तरा
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान बुरी तरह से आतंकवाद के घेरे में फंस गया है.वहां के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने बुधवार को अपने मुल्क की परेशानी का बहुत ही साफ़ शब्दों में उल्लेख किया . बहुत ही दुखी मन से उन्होंने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ जो लड़ाई उनका देश लड़ रहा है, उसमें सफल होना बहुत ज़रूरी है . उन्होंने आगाह किया कि अगर पाकिस्तानी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाना है तो सरकार और देश की जनता को इस लड़ाई में फतह हासिल करनी पड़ेगी. पाकिस्तानी प्रधान मंत्री क यह दर्द जायज़ है . बहुत तकलीफ होती है जब हम देखते हैं कि पाकिस्तान पूरी तरह से आजकल आतंकवाद की ज़द में है . भारत और पाकिस्तान की अंदरूनी हालात पर जब नज़र डालते हैं तो साफ़ नज़र आता है कि गलत राजनीतिक फैसलों के चलते राष्ट्रों की क्या फजीहत हो सकती है .भारत और पाकिस्तान एक ही दिन ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद हुए थे.भारत ने सभी धर्मों को सम्मान देने की राजनीति को अपने संविधान की बुनियाद में डाल दिया . पाकिस्तान के संस्थापक,मुहम्मद अली जिन्नाह भी वही चाहते थे लेकिन वह नहीं हो सका.उनकी मृत्यु के बड़ा पाकिस्तान में ऐसे लोगों की सत्ता कायम हो गयी जो बहुत ही हलके लोग थे .आज आलम यह है कि भारत एक सुपरपावर बनने के रास्ते पर है और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री स्वीकार कर रहा है कि जिस आतंकवाद को पाकिस्तानी हुक्मरान ने भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए शुरू किया और पाला पोसा उसी के चलते आज पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने अस्तित्व का सवाल पैदा हो गया है . हालांकि जब पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह,जनरल जिया उल हक ने आतंकवाद को जिहाद का नाम देने की कोशिश की थी.हो सकता है ऐसा रहा भी हो लेकिन आज तो यह कुछ लोगों का बाकायदा धंधा बन चुका है.पाकिस्तानी समाज में जिस तरह से रेडिकल तत्व हावी हुए हैं वह किसी भी सरकार के लिए मुसीबत बन सकते हैं . युसूफ रजा गीलानी अपने देश के शहर, मिंगोरा में आयोजित रेडिकल तत्वों को खत्म करने के राष्ट्रीय सेमिनार में भाषण कर रहे थे.उन्होंने दावा किया कि वे अपने देश से आतंकवाद को ख़त्म कर देगें.उनको भरोसा है कि उनके देश की जनता इस मुहिम में पाकिस्तान की सरकार को पूरी मदद करेगी. उनके हिसाब से पाकिस्तान आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .पाकिस्तान की सरकार की नीयत पर बाकी दुनिया में भरोसा नहीं किया जा रहा है . इस बात का अंदाज़ इस सेमिनार में भी लग गया .पाकिस्तान में आतंकवाद के फलने फूलने में वहां की फौज और आई एस आई का बड़ा हाथ माना जाता है लेकिन इस सेमिनार में पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया जनरल परवेज़ अशफाक कयानी ने भी भाषण किया . ज़ाहिर है कि प्रधान मंत्री गीलानी ने जो भी बातें कहीं वे अमरीका और भारत को नज़र में रख कर कहीं गयी थीं क्योंकि यही दो मुल्क पाकिस्तान से बार बार निवेदन कर रहे हैं कि है वह अपने देश से आतंकवाद का खात्मा करे. हालांकि यह भी उतना ही सच है कि न तो अमरीका और न ही भारत को यह विश्वास है कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर क़दम उठायेगी. कुछ संवेदन हीन लोग पाकिस्तानी आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद भी कहते हैं . यह बहुत ही गलत बात है क्योंकि आतंकवाद इस्लामी नहीं हो सकता. इस्लाम में आतंकवाद की कोई गुंजाइश नहीं है .वह स्वार्थी लोगों की तरफ से राजनीतिक फायदे के लिए किया जाने वाला काम है . मुलिम नौजवानों के शामिल होने की वजह से उसे 'इस्लामी आतंकवाद' नाम देने की कोशिश की जाती है . जो कि सरासर गलत है . अमरीकी अखबारों, भारतीय दक्षिणपंथी राजनेताओं और अमरीकी सरकार की तरफ से कोशिश होती है और उन्हें इस प्रचार में आंशिक सफलता भी मिलती है .
सच्चाई यह है कि अगर सही माहौल मिले तो मुसलमान आतंक को कभी भी राजनीतिक हथियार नहीं बनाएगा. जो अमरीका, पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों को लगभग पूरी तरह से आतंकवाद का केंद्र मानता है वही अमरीका भारत के मुसलमानों को आतंकवाद से बहुत दूर मानता है . यह देखना दिलचस्प होगा कि पिछले दिनों भारत में तैनात अमरीकी राजदूत डेविड मुलफोर्ड ने समय समय पर अपनी सरकार के पास जो गुप्त रिपोर्टें भेजी थीं ,उसमें उन्होंने साफ़ कहा था को भारत में पंद्रह करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं लेकिन वे अपने आप को हर तरह की आतंकवादी गतिविधियों से दूर रखते हैं . उन्होंने दावा किया कि भारत के मुसलमान अपने देश के जीवंत लोकतंत्र में पूरी तरह से शामिल हैं .साझा संस्कृति पर गर्व करते हैं और भारत के अल्पसंख्यक राष्ट्रवादी हैं. अमरीकी राजदूत का यह कथन किसी कूटनीतिक सभा में दिया भाषण नहीं है . यह विकीलीक्स के हवाले से दुनिया को मालूम हुआ है और यह उन गुप्त दस्तावजों का हिस्सा है जो प्रतिष्ठित अखबार ' हिन्दू 'के सहयोग से विकीलीक्स ने भारत में जारी किया था.डिस्पैच में लिखा है कि भारत के बहुसंख्यक मुसलमान उदारवादी राजनीति में विश्वास करते हैं और अपने देश के उद्योग और समाज में अच्छे मुकाम पर पंहुचने की कोशिश करते हैं .उन्होंने दावा किया कि बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवान मुख्य धारा में ही अपनी तरक्की के अवसर तलाशते हैं इसलिए यहाँ से आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के लिए रंगरूट नहीं मिल रहे हैं .डेविड मुलफोर्ड ने लिखा है कि भारत में भी इस्लाम में विश्वास करने वाले लोग कई समुदायों में बँटे हुए हैं लेकिन वे सभी राजनीति के सेकुलर धाराओं में हे एसक्रिया होते हैं . धार्मिक अपील वाले संगठनों को भारत में कोई भी समर्थन नहीं मिलता . वे हाशिये पर ही रहते हैं .जबकि भारत में सभी धर्मों के नौजवानों के हीरो आजकल मुस्लिम नौजवान ही हैं . मुलफोर्ड के डिस्पैच में शाहरुख खां ,आमिर खान और सलमान खान का ज़िक्र भी है जो सभी धर्मों के नौजवानों के प्रिय हैं.
अजीब बात है कि शुरू से की पाकिस्तान के साथ खड़े होने वाले अमरीका को अब पाकिस्तान पर भरोसा नहीं है जबकि अमरीका ने पाकिस्तान के बराबर साबित करने के चक्कर में हमेशा से ही भारतक अविरोध किया था . १९७१ के बंगलादेश मुक्ति संग्रामके दौरान तो पाकिस्तान की फौजी हुकूमत को बचाए रखने के लिए उसने भारत पर सातवें बेडे के हमले की योजना भी बना दी थी .लेकिन आज उसी अमरीका को भारत में जीवंत लोकतंत्र नज़र आ रहा है जबकि पाकिस्तान को वह आतंकवादी देश घोषित करने की योजना पर काम कर रहा है.
पाकिस्तान बुरी तरह से आतंकवाद के घेरे में फंस गया है.वहां के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने बुधवार को अपने मुल्क की परेशानी का बहुत ही साफ़ शब्दों में उल्लेख किया . बहुत ही दुखी मन से उन्होंने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ जो लड़ाई उनका देश लड़ रहा है, उसमें सफल होना बहुत ज़रूरी है . उन्होंने आगाह किया कि अगर पाकिस्तानी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाना है तो सरकार और देश की जनता को इस लड़ाई में फतह हासिल करनी पड़ेगी. पाकिस्तानी प्रधान मंत्री क यह दर्द जायज़ है . बहुत तकलीफ होती है जब हम देखते हैं कि पाकिस्तान पूरी तरह से आजकल आतंकवाद की ज़द में है . भारत और पाकिस्तान की अंदरूनी हालात पर जब नज़र डालते हैं तो साफ़ नज़र आता है कि गलत राजनीतिक फैसलों के चलते राष्ट्रों की क्या फजीहत हो सकती है .भारत और पाकिस्तान एक ही दिन ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद हुए थे.भारत ने सभी धर्मों को सम्मान देने की राजनीति को अपने संविधान की बुनियाद में डाल दिया . पाकिस्तान के संस्थापक,मुहम्मद अली जिन्नाह भी वही चाहते थे लेकिन वह नहीं हो सका.उनकी मृत्यु के बड़ा पाकिस्तान में ऐसे लोगों की सत्ता कायम हो गयी जो बहुत ही हलके लोग थे .आज आलम यह है कि भारत एक सुपरपावर बनने के रास्ते पर है और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री स्वीकार कर रहा है कि जिस आतंकवाद को पाकिस्तानी हुक्मरान ने भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए शुरू किया और पाला पोसा उसी के चलते आज पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने अस्तित्व का सवाल पैदा हो गया है . हालांकि जब पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह,जनरल जिया उल हक ने आतंकवाद को जिहाद का नाम देने की कोशिश की थी.हो सकता है ऐसा रहा भी हो लेकिन आज तो यह कुछ लोगों का बाकायदा धंधा बन चुका है.पाकिस्तानी समाज में जिस तरह से रेडिकल तत्व हावी हुए हैं वह किसी भी सरकार के लिए मुसीबत बन सकते हैं . युसूफ रजा गीलानी अपने देश के शहर, मिंगोरा में आयोजित रेडिकल तत्वों को खत्म करने के राष्ट्रीय सेमिनार में भाषण कर रहे थे.उन्होंने दावा किया कि वे अपने देश से आतंकवाद को ख़त्म कर देगें.उनको भरोसा है कि उनके देश की जनता इस मुहिम में पाकिस्तान की सरकार को पूरी मदद करेगी. उनके हिसाब से पाकिस्तान आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .पाकिस्तान की सरकार की नीयत पर बाकी दुनिया में भरोसा नहीं किया जा रहा है . इस बात का अंदाज़ इस सेमिनार में भी लग गया .पाकिस्तान में आतंकवाद के फलने फूलने में वहां की फौज और आई एस आई का बड़ा हाथ माना जाता है लेकिन इस सेमिनार में पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया जनरल परवेज़ अशफाक कयानी ने भी भाषण किया . ज़ाहिर है कि प्रधान मंत्री गीलानी ने जो भी बातें कहीं वे अमरीका और भारत को नज़र में रख कर कहीं गयी थीं क्योंकि यही दो मुल्क पाकिस्तान से बार बार निवेदन कर रहे हैं कि है वह अपने देश से आतंकवाद का खात्मा करे. हालांकि यह भी उतना ही सच है कि न तो अमरीका और न ही भारत को यह विश्वास है कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर क़दम उठायेगी. कुछ संवेदन हीन लोग पाकिस्तानी आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद भी कहते हैं . यह बहुत ही गलत बात है क्योंकि आतंकवाद इस्लामी नहीं हो सकता. इस्लाम में आतंकवाद की कोई गुंजाइश नहीं है .वह स्वार्थी लोगों की तरफ से राजनीतिक फायदे के लिए किया जाने वाला काम है . मुलिम नौजवानों के शामिल होने की वजह से उसे 'इस्लामी आतंकवाद' नाम देने की कोशिश की जाती है . जो कि सरासर गलत है . अमरीकी अखबारों, भारतीय दक्षिणपंथी राजनेताओं और अमरीकी सरकार की तरफ से कोशिश होती है और उन्हें इस प्रचार में आंशिक सफलता भी मिलती है .
सच्चाई यह है कि अगर सही माहौल मिले तो मुसलमान आतंक को कभी भी राजनीतिक हथियार नहीं बनाएगा. जो अमरीका, पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों को लगभग पूरी तरह से आतंकवाद का केंद्र मानता है वही अमरीका भारत के मुसलमानों को आतंकवाद से बहुत दूर मानता है . यह देखना दिलचस्प होगा कि पिछले दिनों भारत में तैनात अमरीकी राजदूत डेविड मुलफोर्ड ने समय समय पर अपनी सरकार के पास जो गुप्त रिपोर्टें भेजी थीं ,उसमें उन्होंने साफ़ कहा था को भारत में पंद्रह करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं लेकिन वे अपने आप को हर तरह की आतंकवादी गतिविधियों से दूर रखते हैं . उन्होंने दावा किया कि भारत के मुसलमान अपने देश के जीवंत लोकतंत्र में पूरी तरह से शामिल हैं .साझा संस्कृति पर गर्व करते हैं और भारत के अल्पसंख्यक राष्ट्रवादी हैं. अमरीकी राजदूत का यह कथन किसी कूटनीतिक सभा में दिया भाषण नहीं है . यह विकीलीक्स के हवाले से दुनिया को मालूम हुआ है और यह उन गुप्त दस्तावजों का हिस्सा है जो प्रतिष्ठित अखबार ' हिन्दू 'के सहयोग से विकीलीक्स ने भारत में जारी किया था.डिस्पैच में लिखा है कि भारत के बहुसंख्यक मुसलमान उदारवादी राजनीति में विश्वास करते हैं और अपने देश के उद्योग और समाज में अच्छे मुकाम पर पंहुचने की कोशिश करते हैं .उन्होंने दावा किया कि बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवान मुख्य धारा में ही अपनी तरक्की के अवसर तलाशते हैं इसलिए यहाँ से आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के लिए रंगरूट नहीं मिल रहे हैं .डेविड मुलफोर्ड ने लिखा है कि भारत में भी इस्लाम में विश्वास करने वाले लोग कई समुदायों में बँटे हुए हैं लेकिन वे सभी राजनीति के सेकुलर धाराओं में हे एसक्रिया होते हैं . धार्मिक अपील वाले संगठनों को भारत में कोई भी समर्थन नहीं मिलता . वे हाशिये पर ही रहते हैं .जबकि भारत में सभी धर्मों के नौजवानों के हीरो आजकल मुस्लिम नौजवान ही हैं . मुलफोर्ड के डिस्पैच में शाहरुख खां ,आमिर खान और सलमान खान का ज़िक्र भी है जो सभी धर्मों के नौजवानों के प्रिय हैं.
अजीब बात है कि शुरू से की पाकिस्तान के साथ खड़े होने वाले अमरीका को अब पाकिस्तान पर भरोसा नहीं है जबकि अमरीका ने पाकिस्तान के बराबर साबित करने के चक्कर में हमेशा से ही भारतक अविरोध किया था . १९७१ के बंगलादेश मुक्ति संग्रामके दौरान तो पाकिस्तान की फौजी हुकूमत को बचाए रखने के लिए उसने भारत पर सातवें बेडे के हमले की योजना भी बना दी थी .लेकिन आज उसी अमरीका को भारत में जीवंत लोकतंत्र नज़र आ रहा है जबकि पाकिस्तान को वह आतंकवादी देश घोषित करने की योजना पर काम कर रहा है.
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शेष नारायण सिंह
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