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Tuesday, May 15, 2012

आतंकवादियों को निष्क्रिय करने के लिए सुरक्षा व्यवस्था को मज़बूत करना ज़रूरी



शेष  नारायण सिंह 

राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र  यानी एन सी टी सी की स्थापना की कोशिश ठंडे बस्ते के हवाले हो गयी  है. इस तरह कारगिल पर पाकिस्तानी घुसपैठ के बाद शुरू हुई केंद्र सरकार की वह कोशिश भी अनिश्चय को समर्पित हो गयी है जिसमें दावा किया गया था कि अब आतंकवाद को रोकने के लिए प्रभावी कार्रवाई की जायेगी और इंटेलिजेंस की व्यवस्था इतनी मज़बूत कर दी जायेगी कि आतंकी वारदात के पहले ही उसकी जानकारी मिल जाया करेगी .इसी योजना के हिसाब से गृह मंत्रालय ने  हमले के बाद अमरीकी होमलैंड सेक्योरिटी  विभाग की तरह का आतंकवाद विरोधी संगठन बनाने  की योजना बनायी थी .इस साल की शुरुआत में  केंद्र सरकार ने गृह मंत्रालय के उस प्रस्ताव  को मंजूरी दे दी थी  जिसके  तहत  नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर ( एन सी टी सी ) की स्थापना होनी थी. मूल योजना के अनुसार यह संगठन १ मार्च २०१२ से अपना काम करना शुरू कर देता . इस के लिए जारी किये गए सरकारी नोटिफिकेशन में बताया गया था एन सी टी सी एक  बहुत ही शक्तिशाली पुलिस संगठन के रूप में काम करेगा .ऐसे प्रावधान किये गए थे आतंकवाद के मामलों की जांच एन सी टी सी के अफसर किसी भी राज्य  में कर सकेगें.इन अफसरों को संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ्तार करने के अधिकार दिए गए थे. यह  तलाशी भी ले सकेगें और इंटेलिजेंस इकठ्ठा करने के अधिकार भी इस संगठन के पास होगा.  एन सी टी सी  के पास  नैशनल सेक्योरिटी गार्ड को भी तलब करने का अधिकार है.
कारगिल में हुए संघर्ष में इंटेलिजेंस की नाकामी  के बाद केंद्र सरकार ने एक  ग्रुप आफ मिनिस्टर्स का गठन किया था जिसने  तय किया कि एक ऐसे संगठन की स्थापना की जानी चाहिए जो आतंरिक और वाह्य सुरक्षा के मामलों की पूरी तरह से ज़िम्मेदारी ले सके.मंत्रियों के ग्रुप ने कहा था कि एक स्थायी संयुक्त टास्क फ़ोर्स बनायी जानी चाहिए जिसके पास एक ऐसा संगठन भी हो जो अंतरराज्यीय  इंटेलिजेंस इकट्ठा  करने का काम भी करे. इसका काम  राज्यों से स्वतंत्र रखने का प्रस्ताव था .इस सन्दर्भ में ६ दिसंबर २००१ को एक आदेश जारी  कर दिया गया था .मुंबई  में २६ नवम्बर २००८ में हुए आतंकवादी हमलों के बाद इस संगठन की ज़रुरत  बहुत ही शिद्दत से महसूस  की गयी और ३१ दिसम्बर २००८ के दिन केंद्र सरकार ने एक पत्र जारी करके इस मल्टी एजेंसी सेंटर  के काम के बारे में विधिवत  आदेश जारी कर दिया था.इस तरह का एक सेंटर बनाने के बारे में प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी सुझाव दिया था.

देश की आतंरिक सुरक्षा को चाक चौबंद करने के लिए इस तरह के संगठन की ज़रुरत  चारों तरफ से महसूस की जा रही थी.अटल बिहारी वाजपेयी  और डॉ मनमोहन सिंह की सरकारें  इस के बारे में  विचार करती रही थीं .लगता है कि केंद्र सरकार से गलती वहीं हो गयी जब एन सी टी सी को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रख दिया गया . इसका मुखिया इंटेलिजेंस  ब्यूरो के अतिरिक्त निदेशक रैंक  का एक अधिकारी बनाना तय किया गया था. 
एन सी टी सी के गठन का नोटिफिकेशन ३ फरवरी को जारी किया गया था . उसके बाद से ही विरोध शुरू हो गया. सरकार को इस पर पुनर्विचार के लिए ५ मई को मुख्य मंत्रियों की एक बैठक बुलानी पड़ी. बैठक  के बाद जो बात सबसे ज्यादा बार चर्चा में आई वह एन सी टी सी  को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधीन रखने को लेकर थी. लगता है कि एन सी टी सी को केंद्र सरकार को इंटेलिजेंस ब्यूरो से अलग करना ही पडेगा .एकाध को छोड़कर सभी मुख्य मंत्रियों ने इस बात पर सहमति जताई  कि आतंकवाद से लड़ना बहुत ज़रूरी है और मौजूदा तैयारी के आगे जाकर उस के बारे में कुछ किया जाना चाहिए .पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी , तमिल नाडू की मुख्य मानती जयललिता और गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी ने एन सी टी सी के गठन का ही  विरोध किया केंद्र सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि आतंकवाद को रोकने के लिए सामान्य पुलिस की ज़रूरत नहीं होती . उसके लिए बहुत की  कुशल संगठन की ज़रुरत होती है और एन सी टी सी वही संगठन है 
मुख्यमंत्रियों के दबाव के बाद केंद्र सरकार को एन से टी सी के स्वरूप में कुछ परिवर्तन करने पड़ेगें .उसकी  कंट्रोल की व्यवस्था में तो कुछ ढील देने  को तैयार है .गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि आतंकवाद कोई सीमा नहीं मानता इसलिए  उसको किसी एक राज्य की सीमा में बांधने का  कोई मतलब नहीं है .आतंकवाद अब कई रास्तों से आता है . समुद्र , आसमान, ज़मीन और आर्थिक आतंकवाद के बारे में तो सबको मालूम है लेकिन अब साइबर स्पेस में भी आतंकवाद है . उसको रोकना  किसी भी देश की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए . . इसलिए  अब तो हर तरह की  टेक्नालोजी का इस्तेमाल करके हमें अपने सरकारी  दस्तावेजों, और बैंकिंग क्षेत्र की सुरक्षा का  बंदोबस्त करना चाहिये . उन्होंने कहा कि हमारे देश की समुद्री  सीमा साढ़े सात हज़ार  किलोमीटर है जबकि १५ हज़ार  किलोमीटर से भी ज्यादा अन्तर राष्ट्रीय बार्डर  है . आतंक का मुख्य श्रोत वही है .. उसको कंट्रोल करने में केंद्र सरकार की ही सबसे कारगर भूमिका हो सकती है उन्होंने कहा कि  इस बात की चिंता करने के ज़रुरत नहीं  कि केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार छीन लेगी. बल्कि ज्यों ज्यों राज्यों के  आतंक से लड़ने का तंत्र मज़बूत होता  जायेगा . केंद्र सरकार अपने आपको  धीरे धीरे उस से अलग कर लेगी.


ज़ाहिर है कि मौजूदा पुलिस व्यवस्था से   आतंक को कंट्रोल करना नामुमकिन होगा , अब तक ज़्यादातर मामलों में  वारदात के बाद ही कार्रवाई होती रही है . लेकिन यह सच्चाई कि अगर अपनी  पुलिस को वारदात के  पहले इंटेलिजेंस की सही  जानकारी मिल जाए , पुलिस की सही  लीडरशिप  हो और राजनीतिक  सपोर्ट  हो तो आतंकवाद पर हर हाल में काबू पाया जा सकता है. सीधी पुलिस कार्रवाई में कई बार एक्शन में सफलता के बाद पुलिस को पापड़ बेलने पड़ते हैं  और मानवाधिकार आयोग वगैरह  के चक्कर लगाने पड़ते हैं . पंजाब में आतंकवाद के खात्मे में सीधी  पुलिस कार्रवाई का बड़ा योगदान है. लेकिन अब सुनने में आ रहा है कि राजनीतिक कारणों से उस दौर के आतंकवादी लोग  हीरो के  रूप में  समानित किये जा रहे हैं जबकि पुलिस वाले मानवाधिकार के चक्कर काट रहे हैं . इसी तरह की एक  घटना उत्तर प्रदेश की भी है. बिहार में पाँव जमा लेने के बाद  माओवादियों और अन्य नक्सलवादी  संगठनों ने उत्तर प्रदेश को निशाना बनाया तो  मिर्ज़ापुर से काम शुरू किया .. लेकिन वहां उन दिनों एक  ऐसा पुलिस अफसर था जिसने अपने मातहतों को प्रेरित किया और नक्सलवाद को शुरू होने से पहले ही दफ़न करने की योजना बनायी . बताते हैं कि राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री राज नाथ सिंह से जब आतंकवाद की दस्तक के बारे में बताया गया तो उन्होंने वाराणसी के आई जी से कहा कि आप संविधान के अनुसार अपना काम कीजिये , मैं आपको पूरी राजनीतिक बैकिंग दूंगा. नक्सल्वादियों के किसी ठिकाने का जब पुलिस को पता लगा तो उसने  इलाके के लोगों को भरोसे  में लेकर खुले आम हमला बोल दिया . दिन भर इनकाउंटर  चला ,कुछ लोग मारे गए  .इलाके के लोग सब कुछ देखते रहे लेकिन आतंकवादियों को सरकार की मंशा का पता चल गया और उतर प्रदेश में नक्सली आतंकवाद  की शुरुआत ही नहीं हो पायी.  हाँ यह भी सच है कि बाद में मिर्जापुर के मडिहान में हुई इस वारदात की हर तरह से जांच कराई गयी. आठ साल तक चली जांच के बाद एक्शन में  शामिल पुलिस वालों को  जाँच से निजात मिली लेकिन यह भी तय है कि सही  राजनीतिक और पुलिस  लीडरशिप के कारण दिग्भ्रमित नक्सली आतंकवादी  काबू में किये जा सके. 

लेकिनं इस तरह की मिसालें बहुत कम  हैं. कारगिल की  घुसपैठ और संसद पर आतंकवादी हमले के बाद यह तय है कि सामान्य पुलिस की व्यवस्था के  रास्ते आतंकवाद काक मुकाबला नहीं किया जा सकता . अगर राज्यों के मुख्य मंत्रियों को आई बी की दखलंदाजी नहीं मंज़ूर है तो सरकार को कोई और तरीका निकालना ही पडेगा लेकिन यह ज़रूरी है कि एक विशेषज्ञ पुलिस फ़ोर्स के बिना आधुनिकतम  टेक्नालोजी और हथियारों से लैस  आतंकवादियों को निष्क्रिय नहीं किया जा सकता .

Monday, April 30, 2012

मधु लिमये ने सरदार पटेल को धर्मनिरपेक्षता का महान प्रणेता बताया था


( १-०५-१९२२ को मधु लिमये का जन्म हुआ था )  



शेष  नारायण सिंह 

मधु लिमये होते तो ९० साल के हो गए होते . मुझे मधु  जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोक सभा के लिए चुनकर दिल्ली  आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मैं बहुत व्यस्त हो गया. . जब आर एस एस ने  बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया .  इन दिनों वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे. बाबरी मस्जिद के बारे में आर एस एस और बीजेपी वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हुम लोग भी दबे रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी साम्प्रदायिक बताने की कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. 
 दिसंबर १९४९ में  फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के के नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख दी गयी थीं . केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी . ९ जनवरी १९५० के दिन  देश के गृह मंत्री ने रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था. पत्र में साफ़ लिखा है कि " मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए . इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता... मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए ." 

मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक थे किउन्होने मामले के भावनात्मक आयामों  को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया . उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि जवाहर ;लाल से मिल जुल कर काम कारण है . सरदार पटेल एन महात्मा जी की अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया ..

मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था . धर्मनिरपेक्षता  भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और  कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.

मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" 

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता।
बाद में  इन चर्चाओं के दौरान हुई  बहुत  सारी बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ," सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता " में विस्तार से लिखी भी हैं . १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत  अच्छा है . मैं अपने लेखन के बारे में उनके उस बयान को अपनी यादों की सबसे बड़ी धरोहर मानता हूँ जो उस महान व्यक्ति ने मुझे उत्साहित करने के लिए दिया था .

Friday, August 5, 2011

शातिर अपराधियों को संसद और विधानसभा में नहीं घुसने देगें

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार ने ऐसी पहल की है कि आने वाले दिनों में अपराधियों के लिए चुनाव लड़ पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. कानून मंत्रालय ने केंद्रीय मंत्रिपरिषद के विचार के लिए एक प्रस्ताव भेजा है जिसमें सुझाया गया है कि उन लोगों पर भी चुनाव लड़ने से रोक लगा दी जाए जिनको ऊपर किसी गंभीर अपराध के लिए चार्ज शीत दाखिल कर दी गयी है . अभी तक नियम यह है कि है जिन लोगों को दो साल या उस से ज़्यादा की सज़ा सुना दी गयी हो वे चुनाव नहीं लड़ सकते. इस नियम से अपराधियों को रोक पाना बहुत ही मुश्किल हो रहा है .मौजूद समाज की जो हालत है उसमें इलाके के दबंग को सज़ा दिला पाना बिलकुल असंभव होता है . लगभग सभी मामलों में गवाह नहीं मिलते . उनको डरा धमकाकर गवाही देने से हटा दिया जाता है . अगर किसी मामले में निचली अदालत से सज़ा हो भी गयी तो हाई कोर्ट में अपील होते है और वहां कई कई साल तक मुक़दमा लंबित रहता है . अपने देश के हाई कोर्टों में बयालीस हज़ार से ज्यादा मुक़दमें विचाराधीन हैं . ऐसी हालत में अपराधी इस बिना पर चुनाव लड़ता रहता है कि उसका केस अभी अपील में है. लुब्बो लुबाब यह है कि संसद और विधान सभाओं में अपराधी लोग बहुत ही आराम से पंहुचते रहते हैं . सब को मालूम रहता है कि चुनाव अपराधी व्यक्ति लड़ रहा है लेकिन कोई कुछ कर नहीं सकता क्योंकि कानून उसे अपील के तय होने तक निर्दोष मानने की सलाह देता है . यह भी देखा गया है कि चुनाव में बहुत सारे दबंग लोग आतंक के सहारे चुनाव जीत लेते हैं .

कानून मंत्रालय का नया प्रस्ताव अपराधियों को संसद और विधान सभाओं में पंहुचने से रोकने का कारगर उपाय साबित होने की क्षमता रखता है . प्रस्ताव यह है कि गंभीर अपराधों के अभियुक्त उन लोगों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाए जिनके खिलाफ ट्रायल कोर्ट में चार्जशीट दाखिल हो चुकी हो. प्रस्ताव में गंभीर अपराधों की लिस्ट भी दी गयी है जिसमें आतंक ,हत्या,अपहरण, नक़ली स्टैम्प पेपर या जाली नोटों से जुड़े हुए अपराध , बलात्कार के मामले , मादक द्रव्यों से सम्बंधित अपराध और देशद्रोह के मामले शामिल हैं . अगर प्रस्ताव को मंत्रिमंडल की मंजूरी मिली तो इसे संसद में विचार करने के लिए लाया जाएगा .वहां पास हो जाने के बाद इन अपराधों में पकडे गए लोगों को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाएगा. पिछले कई वर्षों से अपराधियों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने की कोशिश होती रही है लेकिन बात को यह कह कर रोक दिया जाता है कि अगर अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोकने की बात को कानून बना दिया गया तो पुलिस के पास अकूत पावर आ जाएगा और वह किसी को भी पकड़ कर अभियुक्त बनाकर उसे चुनाव लड़ने से रोक देगी. अपने देश में पुलिस की यही ख्याति है , हर इलाके में ऐसे कुछ न कुछ ऐसे मामले मिल जायेगें जहां पुलिस ने लोगों को फर्जी तरीके से फंसाया हो. ज़ाहिर है जब भी इस तरह का मामला आया तो लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधर जमातों ने विरोध किया . नतीजा यह हुआ कि राजनीति में अपराधियों की संख्या बढ़ती गयी. पुलिस को किसी को राजनीति के दायरे से बाहर रख सकने की ताक़त देना लोकतंत्र के खिलाफ होगा लेकिन लोकतंत्र को अपराधियों के कब्जे से बचाने की कोशिश भी करना होगा. इसी सोच का नतीजा है कानून मंत्रालय का नया सुझाव . नए सुझाव में यह प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति पुलिस की मनमानी का शिकार नहीं होगा . गंभीर अपराधों के आरोप में पुलिस जिसको भी गिरफ्तार करेगी वह तब तक चुनाव लड़ने के लिए योग्य माना जाता रहेगा जब तक कि पुलिस की अर्जी पर अदालत अभियुक्त के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने का हुक्म न सेना दे. यानी नए प्रावधान में पुलिस की मनमानी की संभावना पर पूरी तरह से नकेल लगाने की व्यवस्था कर दी गयी है .नए सुझावों में यह भी इंतज़ाम किया गया है कि उन लोगों को भी चुनाव लड़ने से रोक दिया जाएगा जिनको निचली अदालत से सज़ा मिल चुकी है और उनका केस ऊपरी अदालतों में अपील के तहत विचाराधीन है . अभी तक अपील के नाम पर चुनाव लड़ने वाले अपराधियों को भी इस नए सुझाव से रोका जा सकेगा.

करीब तीस वर्षों से अपराधी छवि के लोग चुनाव मैदान में उतरने लगे है.इसके पहले बड़े नेताओं की सेवा में ही अपराधी तत्व पाए जाते थे.लेकिन अस्सी के लोकसभा चुनाव में बहुत सारे शातिर अपराधियों को टिकट मिल गया था. उसके बाद तो यह सिलसिला ही शुरू हो गया .हर पार्टी में अपराधी छवि के लोग शामिल हुए और चुनाव जीतने लगे . बाद के वर्षों में जब टिकट दिया जाता था तो इंटरव्यू के वक़्त टिकटार्थी यह दावा करता था कि वह ज्यादा से ज्यादा बूथों पर क़ब्ज़ा कर सकता है .बूथ पर क़ब्ज़ा कर सकने की क्षमता के बल पर राजनीति में अपराधियों की जो आवाजाही शुरू हुई,उसी का नतीजा है कि आज राजनीति में अपराधियों का चौतरफा बोलबाला है . कई बार अपराधियों को रोकने की पहल हुई लेकिन लगभग सभी पार्टियां उसमें अडंगा लगा देती थीं क्योंकि उनकी पार्टियों के बहुत सारे नेताओं पर आर्थिक अपराध की धाराएं लगी हुई होती थी. देश भर में बहस शुरू हो जाती थी कि निजी दुश्मनी निकालने के लिए पुलिस वाले किसी को भी फंसा सकते हैं और इस तरह से मुक़दमों के चलते कोई भी चुनाव प्रक्रिया से बाहर हो सकता है यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है . वैसे भी देश के बहुत सारे बड़े नेता आर्थिक अपराधों में फंसे हुए हैं.ज़ाहिर है वे ऐसा कोई भी कानून नहीं बनने देंगें जो उनकी राजनीतिक सफलता की यात्रा में बाधक होगा . कानून मंत्रालय से जो नए सुझाव आये हैं उनकी खासियत यह है कि आर्थिक अपराध वालों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने की बात नहीं की गयी है . इसका नतीजा यह होगा कि राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता इस कानून के दायरे के बाहर हो जायेगें.गंभीर अपराधों की श्रेणी से आर्थिक अपराधों को बाहर रखकर सरकार ने बड़े नेताओं को बचाने की कोशिश की है लेकिन इसका फायदा यह होगा कि यह सुझाव संसद में पास हो जायेगें.हत्या,बलात्कार,देशद्रोह जैसे अपराधों में देश का कोई भी बड़ा नेता शामिल नहीं है . अपनी राजनीतिक बिरादरी को जानने वालों को विश्वास है कि अगर बड़े नेता खुद नहीं फंस रहे हैं तो वे शातिर अपराधियों को दरकिनार करने में संकोच नहीं करेगें. वैसे भी नए प्रस्तावों में पुलिस पर लगाम लगाने की पूरी व्यवस्था है. पुलिस के आरोप लगाने मात्र से कोई चुनाव लड़ने से वंचित नहीं हो जाएगा . पुलिस अगर किसी को गंभीर अपराध के आरोप में पकड़ती है तो उसे तफ्तीश करने के बाद ट्रायल कोर्ट में जाना होगा . अगर अदालत से चार्ज फ्रेम करने की अनुमति मिलेगी तभी कोई नेता चुनाव लड़ने से वंचित हो सकेगा . ज़ाहिर है कि नए कानून में राजनीतिक व्यवस्था को अपराधियों से मुक्त करनी की दिशा में क़दम उठाने की क्षमता है .हालांकि अभी बहुत ही शुरुआती क़दम है लेकिन आज देश के एक बड़े अखबार में खबर छप जाने के बाद इस विषय पर पूरे देश में बहस तो शुरू हो ही जायेगी और उम्मीद की जानी चाहिए कि बहस के बाद जो भी सुधार चुनाव प्रक्रिया में होगा , उससे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को फायदा होगा.

Monday, October 18, 2010

जांच का खेल शुरू ,क्या दिल्ली के मालपुआ जीवियों का कुछ बिगड़ेगा

शेष नारायण सिंह

कामनवेल्थ खेलों के समापन के अगले दिन ही खेलों की तैयारियों में हुई हेराफेरी की जांच का आदेश देकर केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर संभावित राजनीतिक पैंतरेबाजी पर लगाम लगा दिया है लेकिन इस जांच की गंभीरता पर सवाल किये जाने लगे हैं . दिल्ली में सत्ता के गलियारों में सक्रिय ज़्यादातर लोग इस खेल में शामिल थे. पूना वाले बुड्ढे नौजवान ने मामला इस तरह से डिजाइन किया था कि दिल्ली के सभी अमीर उमरा ७० हज़ार करोड़ रूपये की लूट में थोडा बहुत हिस्सा पा जाएँ . दिल्ली की काकटेल सर्किट में पिछले ३० वर्षों से सक्रिय इस राजनेता के लिए यह कोई असंभव बात नहीं थी. देश के कोने कोने से आये और दिल्ली में धंधा करने वाले सत्ता के ब्रोकरों के एक बड़े वर्ग के आराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित , सुरेश कलमाडी को नुकसान पंहुचा पाना आसान नहीं माना जाता . पिछले एक वर्ष में देखा गया है कि दिल्ली में जिसके कंधे पर भी सुरेश कलमाडी ने हाथ रख दिया ,वह करोडपति हो गया. ऐसी स्थिति में यह मुश्किल लगता है कि इस लूट के लिए उनको ज़िम्मेदार ठहराया जा सकेगा . दिल्ली में सक्रिय सभी पार्टियों के सत्ता के दलालों के रिश्तेदारों को कोई न कोई ठेका दे चुके कलमाडी के चेहरे पर जो प्रसन्नता नज़र आ रही है ,उसे देख कर तो लगता है कि वे आश्वस्त हैं कि उनका कोई नुकसान नहीं होगा. जिन लोगों ने इसी दिल्ली में जैन हवाला काण्ड की जांच होते देखी है , उनका कहना है कि मौजूदा जांच का भी वही हश्र होने वाला है. जैन हवाला काण्ड भी राजनीतिक मिलीभगत और भ्रष्टाचार का अजीबोगरीब नमूना था . उसमें लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, अरुण नेहरू ,आरिफ मुहम्मद खां , सतीश शर्मा आदि का नाम था . कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा उन सभी पार्टियों के एकाध नेता थे जो पार्टियां दिल्ली में सक्रिय हैं . जब स्व मधु लिमये और राम बहादुर राय ने पोल खोली तो मीडिया में बहुत हल्ला गुल्ला हुआ. जांच की मांग शुरू हुई . निजी न्यूज़ चैनलों के शुरुआती दिन थे ,लिहाजा बात सरकार के घेरे से बाहर आई. बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से जांच की मांग की गयी और जनाब, जांच के आदेश दे दिए गए .उसके बाद किसी को कुछ पता नहीं चला कि हुआ क्या . लाल कृष्ण आडवाणी ने एक बार लोक सभा का चुनाव यह कहकर नहीं लड़ा कि जब तक उनका नाम जैन हवाला काण्ड के कलंक से नहीं मुक्त हो जाता ,वे चुनाव नहीं लड़ेगें. बाकी तो कहीं कुछ नहीं बदला . धीरे धीरे मीडिया वालों की भी हिम्मत छूट गयी और जांच का क्या नतीजा हुआ, यह पता लगा सकना नामुमकिन नहीं हो, लेकिन मुश्किल ज़रूर है . दिल्ली के मिजाज़ क समझने वाले कुछ खांटी शक्की किस्म के मित्रों ने बताया कि जांच का आदेश तुरंत देकर कांग्रेस मारल हाई ग्राउंड लेने में कामयाब हो गयी है और विपक्ष को भी इस विषय पर हल्ला मचाने से मुक्ति मिल गयी है . अब सभी लोग आराम से कह सकते हैं कि जांच चालू आहे ,सब नतीजा आएगा तो सच्च्चाई का पता चलेगा. उसके बाद ही अगली कार्रवाई की बात की जायेगी. जिन्हें मालूम है वे जानते हैं कि भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक की जांच के बाद कोई भी आपराधिक मुक़दमा नहीं चल सकता . उसकी जांच के आधार पर आगे की कार्रवाई डिजाइन की जा सकती है बस. यानी किसी आपराधिक जांच एजेंसी को शामिल करना पड़ेगा जिसके पास पुलिस के पावर हों .सी वी सी वालों को भी जांच जांच खेलने का मौक़ा मिल रहा है , उनकी जांच के बाद भी आपराधिक कार्रवाई के लिए सी बी आई जैसी किसी ऐसी एजेंसी को लाना पड़ेगा जो आपराधिक जांच करके मुक़दमा कायम कर सके. . सी बी आई के पास जांच के मामलों का बहुत बड़ा ज़खीरा जमा है . ज़ाहिर हैं कि वह बहुत जल्दी में नहीं रहेगी. वैसे भी विपक्षी पार्टियां सी बी आई के राजनीतिक इस्तेमाल की बात करती रहती हैं . इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कामनवेल्थ खेलों में भी जांच का वही हश्र होगा जो जैन हवाला काण्ड का हुआ था. इसलिए इस जाँच को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जांच की मांग को लेकर संभावित शोरगुल को बचाकर तुरंत जांच का आदेश कर दिया जाय और वक़्त के साथ साथ जब लोग धीरे धीरे भूलना शुरू कर दें तो एक दस हज़ार पृष्ठों की सरकारी भाषा से लैस रिपोर्ट पेश कर दी जाय जिसका कोई मतलब न हो . इस प्रकार दिल्ली में बसने वाले मालपुआजीवियों की बड़ी जमात को खिसियाना भी न पड़े और जांच जांच का खेल भी पूरा हो जाय.

Saturday, October 9, 2010

जनरल मुशर्रफ ने माना ,कश्मीर के आतंकवाद में पाकिस्तान का हाथ

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ,जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक जर्मन अखबार के साथ बातचीत में कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दिल्ली दरबार सकते में है . भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के करता धरता समझ नहीं पा रहे हैं कि पाकिस्तान की राजनीति में शीर्ष पर रह चुके एक फौजी जनरल की बात को कूटनीतिक भाषा में कैसे फिट करें.हालांकि भारत समेत पूरी दुनिया को मालूम है कि कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह से पाकिस्तान की कृपा से ही फल फूल रहा है लेकिन अभी तक पाकिस्तानी इस्टेब्लिशमेंट ने इस बात को कभी नहीं स्वीकार किया था . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . भारत के विदेश मंत्रालय के लिए भी आसान था कि वह कूटनीतिक स्तर पर अपनी बात कहता रहे और कोई मज़बूत एक्शन न लेना पड़े . लेकिन अब बात बदल गयी है . अब तो कश्मीर में आतंकवाद को इस्तेमाल करने वाले एक बड़े फौजी और कई वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहे जनरल ने साफ़ साफ़ कह दिया है कि हाँ हम कश्मीर में आतंकवाद फैला रहे हैं , जो करना हो कर लो. यह भारत के लिए मुश्किल है . इस तरह की साफगोई के बाद तो भारत को पाकिस्तान के साथ वही करना चाहिए जो अल-कायदा का मददगार साबित हो जाने के बाद ,तालिबान के खिलाफ अमरीका ने किया था या १९६५ में कश्मीर में घुसपैठ करा रही पाकिस्तान की जनरल अयूब सरकार को औकात बताने के लिए लाल बहादुर शास्त्री ने किया था . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . शरारत पर आमादा पाकिस्तान को अब सैनिक भाषा में जवाब नहीं दिया जा सकता क्योंकि अभी पाकिस्तान की सरकार औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं कर रही है कि कश्मीर में आतंकवाद उनकी तरफ से करवाया जा रहा है . पाकिस्तान की हालत तो मुशर्रफ के खुलासे के बाद बहुत ही खराब है . पाकिस्तान सरकार के मालिक सन्न हैं .औपचारिक रूप से पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कह दिया है कि मुशर्रफ के बयान बेबुनियाद हैं लेकिन सबको मालूम है कि मुशर्रफ को नकार पाना पाकिस्तानी फौज और सिविलियन सरकार ,दोनों के लिए असंभव है . पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कहा है कि उसे नहीं मालूम कि मुशर्रफ ने यह बात सार्वजनिक रूप से क्यों कही वैसे अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव के डर से पाकिस्तानी सरकार कह रही है कि सरकार इन बेबुनियाद आरोपों का खंडन करती है यह अलग बात है कि पाकिस्तान कश्मीरी लोगों के संघर्ष का समर्थन करता है.

मुशर्रफ आजकल पाकिस्तान की राजनीति में वापसी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं . उन्हें मालूम है कि अमरीका की मर्जी के बिना पाकिस्तान में राज नहीं किया जा सकता. आजकल पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . पाकिस्तान की राजनीति का स्थायी भाव भारत का विरोध करने की राजनीतिक रणनीति है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मने में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं और उनका यह इकबालिया बयान इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए . जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार के दिन गिने चुने रह गए हैं, भारत के लिए भी पाकिस्तान में जनरल कयानी से बेहतर मुशर्रफ ही रहेगें क्योंकि वे अमरीकी हुक्म को मानने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं .दुनिया जानती है कि अमरीका भारत को खुश रखने की विदेश नीति का गंभीरता से पालन कर रहा है