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Sunday, September 1, 2013

सीरिया पर निश्चित अमरीकी हमले को ब्रिटेन की जनता ने रोका


शेष नारायण सिंह

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जिस तरह का माहौल बनाया था कि लगता था की सीरिया पर अमरीकी हमला किसी भी वक़्त हो सकता है . इस हमले के बाद बराक ओबामा भी उन अमरीकी राष्ट्रपतियों की श्रेणी में खड़े हो जाते जिन्होंने अपनी गलतियों को छुपाने या अमरीकी अहंकार की धौंस कायम करने के लिए दूसरे देशों पर हमला किया . लेकिन ब्रिटेन की पब्लिक ने अमरीका के सबसे बड़े भक्त देश ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरून पर लगाम कस दी और हमला फिलहाल रुक गया है।  ब्रिटेन में ऐसा माहौल बन गया कि  प्रधानमंत्री कैमरून को लगने लगा कि  अगर अमरीका का हुक्का भरने से बाज़ न आये और अमरीकी हितों के लिए ब्रिटिश जनमत को गिरवी रखते रहे तो अपनी ही गद्दी खिसक जायेगी। जब भी बराक ओबामा सीरिया पर हमला करेगें वे एक नए वियतनाम को जन्म देने की राजनीतिक मजबूरी के शिकार हो जायेगें . इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी हुकूमत अपनी ताक़त देख चुकी है और सही बात है कि इन दो लड़ाइयों के कारण अमरीकी अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता है और वह आर्थिक संकट की तरफ बढ़ चुका है . सीरिया की मौजूदा सरकार या उसका विरोध कर रही ताक़तें, दोनों ही युद्ध की सौदागर हैं और युद्ध का किसी भी हाल में समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन लगता  है कि अमरीका तेल के पश्चिम एशियाई साम्राज्य में  अपनी  धाक बनाए रखने के लिए कुछ भी करने के लिए आमादा है . अमरीकी मनमानी का इससे बड़ा क्या नमूना होगा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों की मर्जी के खिलाफ उसने सीरिया पर हमले की तैयारी कर ली है .इस मुहिम में उसके साथ ब्रिटेन है ,ठीक उसी तरह जैसे  इराक पर अमरीकी हमले के समय ब्रिटिश  प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर लगे रहते थे .ब्रिटेन में आज के प्रधानमंत्री की राजनीतिक कमजोरी इतनी ज़्यादा है कि उनकी पार्टी के ही बहुत सारे नेता सीरिया के मुद्दे पर उनके खिलाफ हैं . अमरीकी हमले की संभावना के मद्देनज़र सीरिया के पड़ोसी देशों में भी अफरातफरी का आलम है . खबर है कि अमरीका के मुख्य शिष्य इजरायल में भी हुकूमत अपने  नागरिकों को गैस के मास्क सप्लाई कर रही है . यह खबर इस बात को लगभग सुनिश्चित कर देती है कि सीरिया पर अमरीका हमला परम्परागत  बमबारी की शक्ल में नहीं होगा , यह हमला रासायानिक युद्ध के रूप में होने वाला है .
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ़ कह दिया है कि सीरिया की सरकार ने २१ अगस्त को जब सुन्नी विरोधियों के ऊपर रासायनिक हथियारों से बमबारी की थी तो उसे मालूम होना चाहिए था कि उसके नतीजे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी कोई कार्रवाई कर  सकता है . किसी भी देश में अमरीकी मनमानी के लिए तैयारी कर रहे राष्ट्रपतियों ने अपनी मंशा को परंपरागत रूप से अंतर्राष्ट्रीय रंग देने की हमेशा से ही कोशिश की है . ओबामा भी वही कोशिश कर रहे हैं. हालांकि उन्होने कई  बार कहा है कि सीरिया पर वे लंबी लड़ाई के पक्ष में नहीं हैं लेकिन सभी देशों को जानना चाहिए कि जब रासायनिक हथियारों के मामले में कानून को तोडा जाएगा तो उसके नतीजे भी भुगतने पड़ेगें. यहाँ यह कहना है कि अगर ओबामा समझते हैं कि उनकी मंशा  बहुत पवित्र है तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने  साथियों , रूस और चीन को भी साथ साथ लेकर चलें. लेकिन अमरीकी मनमानी और पश्चिम एशिया में अमरीकी कठपुतलियों की सरकार कायम करने की अमरीका की उतावली के चलते संयुक्त राष्ट्र को भी मनमानी का हथियार बनाने से अमरीका बाज़ नहीं आ रहा है .ओबामा ने ब्रिटेन को आगे कर दिया है और ब्रिटेन की तरफ से सुरक्षा परिषद में वह प्रस्ताव लाया  गया है जिसमें संयुक्त राष्ट्र से कहा गया है कि सीरिया में रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल को रोकने के लिए एक सीमित सैनिक कार्रवाई की अनुमति दी जाए . इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए सुरक्षा परिषद के पाँचों स्थायी सदस्यों की एक बैठक भी की गयी लेकिन रूस और चीन ने साफ़ मना कर दिया कि इस तरह की कारवाई को अधिकृत नहीं किया जा सकता .   बैठक में शामिल अमरीकी प्रतिनिधियों ने साफ़ कर दिया कि अगर सुरक्षा परिषद अधिकृत नहीं भी करती तो ओबामा अपना काम जारी रखेगें , यानी संयुक्त राष्ट्र की अनदेखी करके भी हमला किया जाएगा . इस वक़्त सीरिया में निरीक्षकों का एक दल मौजूद है जो यह देख रहा है कि के वास्तव में सीरिया के पास रासायनिक हथियार हैं और क्या वह उनको इस्तेमाल कर रहा है . बताया गया  है कि अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र की तरफ से भेजे गए निरीक्षकों को बता दिया  है कि वे लोग शनिवार तक सीरिया से वापस आ जाएँ . जानकार बताते हैं कि बस उसके बाद किसी भी वक़्त अमरीका सीरिया की शिया हुकूमत को तबाह करने के लिए दमिश्क और उसके आस पास के इलाकों पर बमबारी शुरू कर देगा .जबकि संयुक्त राष्ट्र ने शायद सीरिया की वह अपील मान लिया है कि  अभी सीरिया में गया हुआ संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों का दल  वहीं रहे और अपना काम पूरा करके वापस जाय। 
 अमरीकी अधिकारियों के रुख से साफ़ समझ में आने लगा है कि उनको संयुक्त राष्ट्र महसचिव बान की मून की कोई परवाह नहीं है क्योंकि बान की मून ने कहा है अभी सीरिया में संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षक मौजूद हैं और वे सच्चाई का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं .उसके बाद ही कोई फैसला किया जायेगा. संयुक्त राष्ट्र ने इराक की तरह सीरिया में भी एक विशेष दूत की तैनाती की है . इस बार भी वही लखदर ब्राहिमी विशेष दूत हैं जो इराक में अमरीका कि सेवा कर चुके हैं . लेकिन उनकी बात को ओबामा प्रशासन नज़र अंदाज़ करता लग रहा है .अमरीकी अधिकारियों का कहना है कि तैयारी पूरी हो चुकी है. भूमध्य सागर में अमरीकी विमानवाही जहाज़ तैनात हैं और वे क्रूज मिसाइल दाग सकते हैं . अमरीका के रक्षा सचिव चक हेगेल ने कहा है कि  सेना की तैयारी पूरी है. जब भी राष्ट्रपति ओबामा आगे बढ़ने को कहेगें , हमला कर दिया जाएगा . हालांकि अमरीकी अधिकारी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हमला बहुत ही सीमित होगा और सीरिया के सैनिक केन्द्रों को ही निशाना बनाया जाएगा लेकिन जानकार बताते हैं कि सीमित एक्शन की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि लड़ाई शुरू करने वाले के पास उसको रोकने का विकल्प नहीं रहता . युद्ध का एक  गतिशास्त्र होता है ,वही किसी भी संघर्ष के नतीजों को तय करता है .
अमरीका का दावा है कि वह हमला इसलिए कर रहा  है कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने बागियों के ऊपर रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर दिया है लकिन उसकी इस बात को मानने के लिए कोई निष्पक्ष सबूत नहीं है , संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों ने ऐसी कोई बात नहीं बताई है ,क्योंकि अभी निरीक्षण का काम चल ही रहा है. पता नहीं कहाँ से बराक  ओबामा को मालूम हो गया कि रासायनिक हमला हो चुका है . कुल मिलाकर इस बात में अभी शक है कि रासायनिक हथियारों का हमला हुआ  है लेकिन दूसरी बात बिलकुल तय है और वह यह कि अगर अमरीका ने सीरिया पर बमबारी शुरू की तो यह युद्ध  मुकम्मल तौर पर रासायनिक हथियारों का युद्ध हो जाएगा क्योंकि सीरिया के राष्ट्रपति ,बशर अल असद ने पिछले साल ही स्पष्ट कर दिया था कि अगर उनके ऊपर कोई विदेशी ताक़त हमला करती है तो वे निश्चित रूप से रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर देगें . उसी तरह से दो दिन में रासायनिक हथियारों को बर्बाद करके वापस आने की बात का भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि जब १९९८ में संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी के बिना अमरीका और ब्रिटेन ने इराक पर बमबारी शुरू की थी और सामूहिक नर संहार के हथियारों  को तहस नहस करके कार्रवाई खत्म करने की बात की थी ,तब भी लड़ाई लंबी चली थी  और कहीं कोई सामूहिक नरसंहार के हथियार नहीं मिले थे . बल्कि बाद में पता चला कि और अब सारी दुनिया जानती है कि इराक में सामूहिक नरसंहार के हथियार थे ही नहीं .१९९९ में अमरीकी अगुवाई में नैटो ने जब तत्कालीन यूगोस्लाविया पर हमला किया  तब भी यही बताया गया था कि स्लोबोदान  मिलासोविच की सत्ता को खत्म करने के लिए हमला किया गया था लेकिन लड़ाई बहुत दिन तक चली थी. यह भी गौर करने की बात  है कि उस बार भी आज की तरह संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध को अधिकृत नहीं किया था और उस हमले में अमरीकी बम , अस्पतालों और दूतावासों पर भी गिराए गए थे . २०११ में जब नैटो ने लीबिया पर सीमित हमला किया था तो मीडिया के संस्थानों पर हमला हुआ था . इस बार भी डर है कि कहीं सीरियन अरब एजेंसी समेत अन्य मीडिया संस्थानों को भी न हमले का निशाना न बनाया जाये.
आज की स्थिति यह है कि ओबामा हर हाल में सीरिया पर डायरेक्ट सैनिक कार्रवाई के लिए दीवाने हो रहे है .वे बाकी दुनिया को यह बताने के कोशिश कर रहे हैं कि वे तो वास्ताव में वह काम करने जा रहे हैं जो संयुक्त राष्ट्र को करना चाहिए था . ओबामा के लोग पूरी कोशिश कर रहे हैं कि रासायनिक हथियारों के बारे में सच्चाई सामने न आने पाए इसीलिए वे बार बार कह रहे हैं कि शनिवार तक संयुक्त राष्ट्र की तरफ से वहाँ काम कर रहे निरीक्षक वापस आ जाएँ . इसके पहले भी यह हुआ है . जब २००३ में संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षकों को इराक में वे हथियार नहीं मिले जिसकी बात अमरीकी अखबार और उसके साथी हर मंच से कर रहे थे तो अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र के उन कर्माचारियों की ईमानदारी और उनकी काबिलियत पर सवाल उठाना शुरू कर दिया था .  इस बार भी अगर फ़ौरन से पेशतर संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षक वहाँ से वापस नहीं आये तो उनका भी वही हश्र हो  सकता है .
सीरिया में हो रही लड़ाई से पश्चिमी देशों का एक और चेहरा  सामने आ रहा  है . अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों में  मुसलमान अल्पसंख्यक सभी देशों में हैं . उनको वहाँ  अधिकार भी मिले हुए हैं लेकिन जब से अल कायदा और उसके सहयोगी इस्लाम के सबसे बड़े प्रचारक के रूप में सामने आने की कोशिश कर रहे हैं , तब से कुछ स्वार्थी लोगों ने इस्लाम के नाम पर अल कायदा का प्रचार शुरू कर दिया है . पश्चिम के देशों में यह प्रवृत्ति बढ़ रही है . यह लोग अक्सर हिंसा की वकालत करते पाए जाते हैं . इस्लाम की बुनियादी मान्यताओं से यह दूर हैं और हिंसा को  समर्थन देते हैं . अल्पसंख्यकों की असुरक्षा की भावना को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करते हैं . नतीजा यह हुआ है कि पश्चिमी यूरोप के शांतिप्रिय देशों में इस्लाम के प्रति अजीब सा  कन्फ्यूज़न फ़ैल रहा है और वे इस्लाम के असली शांतिप्रिय रूप से अपरिचित होने लगे हैं . जानकार बता रहे हैं कि इस्लाम को मानने वालों के अलग अलग संप्रदायों को आपस में लड़ाकर इस्लाम को कमज़ोर करने की अमरीका और ब्रिटेन की इस साज़िश को पश्चिमी यूरोप के अन्य देशों में इसीलिये समर्थन मिल रहा  है . सीरिया में शिया और सुन्नी मत मानने वालों के बीच चल रही लड़ाई इस नीति का सबसे ज्वलंत उदाहरण है . ज़रूरत इस बात की है कि दुनिया के सभी लोग साम्राज्यवादी साज़िश को समझें और इंसानों के बीच नफरत को सर्वनाश का जरिया न बनने से रोकें 

Sunday, August 1, 2010

ब्रिटेन की चेतावनी ----- पाकिस्तान के आतंकवाद से दुनिया को ख़तरा

शेष नारायण सिंह

भारत की यात्रा पर आये ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने नई दिल्ली में जो कुछ कहा उस से साफ़ है कि ब्रिटेन अब भारत और पाकिस्तान को एक तराजू में रखने की मानसिकता से बाहर आ चुका है . अब तक ब्रिटेन सहित अन्य पूजीवादी ,साम्राज्यवादी देश भारत और पाकिस्तान को बराबर मानने की ग्रंथि के शिकार थे. अब हालात बदल चुके हैं . यह कोई अहसान नहीं है . दुनिया के विकसित देशों को मालूम है कि भारत एक विकासमान देश है जबकि पाकिस्तान एक ऐसा देश है जिसने पिछले साठ वर्षों की गलत आर्थिक,राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय नीतियों का पालन करके अपने आपको ऐसे मुकाम पर पंहुचा दिया है जहां से उसके एक राष्ट्र के रूप में बचे रहने की संभावना बहुत कम है . इसलिए अब भारत और पाकिस्तान के बारे में बात करते हुए पश्चिम के बड़े देश हाइफन इस्तेमाल करना बंद कर चुके हैं . ब्रिटिश प्रधान मंत्री डेविड केमरून की भारत यात्रा इस मामले में भी ऐतिहासिक है कि वह अब अपने देश को भारत के मित्र के रूप में पेश करके खुश हैं . प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के साथ उनकी पत्रकार वार्ता को देख कर लगता है कि ब्रिटेन अब पाकिस्तान से दूरी बनाकार रखना चाहता है . ब्रिटेन भी पहले जैसा ताक़तवर देश नहीं रहा . उनकी अर्थ व्यवस्था में विदेशों से आने वाले छात्रों के पैसों का ख़ासा योगदान रहता है . भारत में शिक्षा को जो मह्त्व दिया जा रहा है ,उसके मद्देनज़र दोनों देशों के बीच हुए शिक्षा के समझौते में ब्रिटेन का ज्यादा हित है . व्यापार और रक्षा के समझौतों में भी ब्रिटेन का ही फायदा होगा और उसकी अर्थ व्यवस्था को बल मिलेगा . इस तरह अब साफ़ नज़र आने लगा है कि साठ वर्षों में हालात यहाँ तक बदल गए हैं कि कभी भारत पर राज करने वाला ब्रिटेन अब अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए भारत की ओर देखता है . लेकिन पाकिस्तान के साथ ऐसा नहीं है . पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में कुछ भी मज़बूत नहीं है . आजकल तो उनका खर्च तक विदेशी सहायता से चल रहा है . अगर अमरीका और सउदी अरब से दान मिलना बंद हो जाये तो पाकिस्तानी आबादी का बड़ा हिस्सा भूखों मरने को मजबूर हो जाएगा. भारत से मिल रहे सहयोग के बदले ब्रिटेन के प्रधान मंत्री ने भारत की पक्षधरता की बात की . उन्होने भारत को सुरक्षा परिषद् में शामिल करने की बात की और पाकिस्तान में पल रहे आतंकवाद को भारत , अफगानिस्तान और लन्दन के लिए ख़तरा बताया और पाकिस्तानी मदद से चलाये जा रहे आतंकवाद के खिलाफ भारत की मुहिम में अपने आप को शामिल कर लिया . उन्होंने साफ़ कहा कि इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान के अन्दर इस तरह के आतंकवादी संगठन मौजूद हों जो पाकिस्तान के अन्दर भी आतंक फैलाएं और भारत और अफगानिस्तान को आतंक का निशाना बनाएं. उन्होंने कहा कि ब्रिटेन की कोशिश है कि वह पाकिस्तान को इस बात के लिए उत्साहित करे कि वह लश्कर-ए-तय्यबा और तालिबान से मुकाबला कर सके.उन्होंने कहा कि अगले हफ्ते वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति से इन विषयों पर बातचीत करेगें.भारत के प्रधानमंत्री ने भी इस बात से सहमति जताई और कहा कि उन्हें उम्मीद है पाकिस्तानी विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी भारत की यात्रा पर आने का निमंत्रण स्वीकार करेगें.जिस से देर सबेर बातचीत का सिलसिला शुरू किया जा सके.उन्होंने शाह महमूद कुरेशी की आचरण पर भी टिप्पणी की .

पाकिस्तान को आतंकवाद का केंद्र बताने की ब्रिटिश प्रधानमंत्री की बात को पाकिस्तान ने पसंद नहीं किया है . उनके हुक्मरान की समस्या यह है कि वे अभी भी अपनी जनता को बताते रहते हैं कि भारत और पाकिस्तान बाकी दुनिया की नज़र में बराबर की हैसियत वाले मुल्क हैं लेकिन अब सच्चाई सब के सामने आ चुकी है . अमरीका के ख़ास रह चुके पाकिस्तान को अमरीकी रुख में बदलाव भी नागवार गुज़र रहा है . लेकिन अब कोई भी देश पाकिस्तान को इज्ज़त से देखने की हिम्मत नहीं जुटा सकता. पाकिस्तान एक ऐसा देश हैं जहां सबसे ज्यादा खेती आतंकवाद की होती है और पिछले तीस वर्षों से वह आतंकवाद को सरकारी नीति के रूप में चला रहा है. अगर पाकिस्तान की इस बात को मान भी लिया जाए कि ब्रिटेन उसे भारत के बराबर माने तो उसके बाद क्या होगा . पाकिस्तान की अर्थ व्यवस्था इतनी जर्जर है कि जो देश भी उस से सम्बन्ध बनाएगा उसे पाकिस्तान की आर्थिक सहायता करनी पड़ेगी . अगर शिक्षा या संस्कृति के क्षेत्र में सहयोग हुआ तो पाकिस्तान से छात्रों के रूप में कितने आतंकवादी ब्रिटेन पंहुच जायेगें, इसका अंदाज़ कोई नहीं लगा सकता .इस लिए पाकिस्तान के शासकों को चाहिए कि वे वास्तविकता को स्वीकार करें और भारत समेत बाकी दुनिया से सहायता मांगें और अपने देश में मौजूद आतंकवाद को ख़त्म करें . बाकी दुनिया को यह मुगालता भी नहीं रखना चाहिए पाकिस्तान में लोकतंत्र कायम हो चुका है . वास्तव में वहां सत्ता फौज के हाथ में ही है . हालांकि विदेशों से सहायता झटकने के लिए फौज ने सिविलियन सरकार को बैठा रखा है लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि फौज के आला अफसर ,शाह महमूद कुरैशी जैसे गैर ज़िम्मेदार नेताओं को लगाम दें. जहां तक भारत से बराबरी की बात है ,उसे हमेशा के लिए भूल जाएँ क्योंकि भारत ने विकास की जो मंजिलें तय की हैं वह पाकिस्तान के लिए सपने जैसा है . पाकिस्तान को सच्चाई को स्वीकार करने की शक्ति विकसित करनी चाहिए