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Sunday, September 1, 2013

सीरिया पर निश्चित अमरीकी हमले को ब्रिटेन की जनता ने रोका


शेष नारायण सिंह

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जिस तरह का माहौल बनाया था कि लगता था की सीरिया पर अमरीकी हमला किसी भी वक़्त हो सकता है . इस हमले के बाद बराक ओबामा भी उन अमरीकी राष्ट्रपतियों की श्रेणी में खड़े हो जाते जिन्होंने अपनी गलतियों को छुपाने या अमरीकी अहंकार की धौंस कायम करने के लिए दूसरे देशों पर हमला किया . लेकिन ब्रिटेन की पब्लिक ने अमरीका के सबसे बड़े भक्त देश ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरून पर लगाम कस दी और हमला फिलहाल रुक गया है।  ब्रिटेन में ऐसा माहौल बन गया कि  प्रधानमंत्री कैमरून को लगने लगा कि  अगर अमरीका का हुक्का भरने से बाज़ न आये और अमरीकी हितों के लिए ब्रिटिश जनमत को गिरवी रखते रहे तो अपनी ही गद्दी खिसक जायेगी। जब भी बराक ओबामा सीरिया पर हमला करेगें वे एक नए वियतनाम को जन्म देने की राजनीतिक मजबूरी के शिकार हो जायेगें . इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी हुकूमत अपनी ताक़त देख चुकी है और सही बात है कि इन दो लड़ाइयों के कारण अमरीकी अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता है और वह आर्थिक संकट की तरफ बढ़ चुका है . सीरिया की मौजूदा सरकार या उसका विरोध कर रही ताक़तें, दोनों ही युद्ध की सौदागर हैं और युद्ध का किसी भी हाल में समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन लगता  है कि अमरीका तेल के पश्चिम एशियाई साम्राज्य में  अपनी  धाक बनाए रखने के लिए कुछ भी करने के लिए आमादा है . अमरीकी मनमानी का इससे बड़ा क्या नमूना होगा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों की मर्जी के खिलाफ उसने सीरिया पर हमले की तैयारी कर ली है .इस मुहिम में उसके साथ ब्रिटेन है ,ठीक उसी तरह जैसे  इराक पर अमरीकी हमले के समय ब्रिटिश  प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर लगे रहते थे .ब्रिटेन में आज के प्रधानमंत्री की राजनीतिक कमजोरी इतनी ज़्यादा है कि उनकी पार्टी के ही बहुत सारे नेता सीरिया के मुद्दे पर उनके खिलाफ हैं . अमरीकी हमले की संभावना के मद्देनज़र सीरिया के पड़ोसी देशों में भी अफरातफरी का आलम है . खबर है कि अमरीका के मुख्य शिष्य इजरायल में भी हुकूमत अपने  नागरिकों को गैस के मास्क सप्लाई कर रही है . यह खबर इस बात को लगभग सुनिश्चित कर देती है कि सीरिया पर अमरीका हमला परम्परागत  बमबारी की शक्ल में नहीं होगा , यह हमला रासायानिक युद्ध के रूप में होने वाला है .
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ़ कह दिया है कि सीरिया की सरकार ने २१ अगस्त को जब सुन्नी विरोधियों के ऊपर रासायनिक हथियारों से बमबारी की थी तो उसे मालूम होना चाहिए था कि उसके नतीजे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी कोई कार्रवाई कर  सकता है . किसी भी देश में अमरीकी मनमानी के लिए तैयारी कर रहे राष्ट्रपतियों ने अपनी मंशा को परंपरागत रूप से अंतर्राष्ट्रीय रंग देने की हमेशा से ही कोशिश की है . ओबामा भी वही कोशिश कर रहे हैं. हालांकि उन्होने कई  बार कहा है कि सीरिया पर वे लंबी लड़ाई के पक्ष में नहीं हैं लेकिन सभी देशों को जानना चाहिए कि जब रासायनिक हथियारों के मामले में कानून को तोडा जाएगा तो उसके नतीजे भी भुगतने पड़ेगें. यहाँ यह कहना है कि अगर ओबामा समझते हैं कि उनकी मंशा  बहुत पवित्र है तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने  साथियों , रूस और चीन को भी साथ साथ लेकर चलें. लेकिन अमरीकी मनमानी और पश्चिम एशिया में अमरीकी कठपुतलियों की सरकार कायम करने की अमरीका की उतावली के चलते संयुक्त राष्ट्र को भी मनमानी का हथियार बनाने से अमरीका बाज़ नहीं आ रहा है .ओबामा ने ब्रिटेन को आगे कर दिया है और ब्रिटेन की तरफ से सुरक्षा परिषद में वह प्रस्ताव लाया  गया है जिसमें संयुक्त राष्ट्र से कहा गया है कि सीरिया में रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल को रोकने के लिए एक सीमित सैनिक कार्रवाई की अनुमति दी जाए . इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए सुरक्षा परिषद के पाँचों स्थायी सदस्यों की एक बैठक भी की गयी लेकिन रूस और चीन ने साफ़ मना कर दिया कि इस तरह की कारवाई को अधिकृत नहीं किया जा सकता .   बैठक में शामिल अमरीकी प्रतिनिधियों ने साफ़ कर दिया कि अगर सुरक्षा परिषद अधिकृत नहीं भी करती तो ओबामा अपना काम जारी रखेगें , यानी संयुक्त राष्ट्र की अनदेखी करके भी हमला किया जाएगा . इस वक़्त सीरिया में निरीक्षकों का एक दल मौजूद है जो यह देख रहा है कि के वास्तव में सीरिया के पास रासायनिक हथियार हैं और क्या वह उनको इस्तेमाल कर रहा है . बताया गया  है कि अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र की तरफ से भेजे गए निरीक्षकों को बता दिया  है कि वे लोग शनिवार तक सीरिया से वापस आ जाएँ . जानकार बताते हैं कि बस उसके बाद किसी भी वक़्त अमरीका सीरिया की शिया हुकूमत को तबाह करने के लिए दमिश्क और उसके आस पास के इलाकों पर बमबारी शुरू कर देगा .जबकि संयुक्त राष्ट्र ने शायद सीरिया की वह अपील मान लिया है कि  अभी सीरिया में गया हुआ संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों का दल  वहीं रहे और अपना काम पूरा करके वापस जाय। 
 अमरीकी अधिकारियों के रुख से साफ़ समझ में आने लगा है कि उनको संयुक्त राष्ट्र महसचिव बान की मून की कोई परवाह नहीं है क्योंकि बान की मून ने कहा है अभी सीरिया में संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षक मौजूद हैं और वे सच्चाई का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं .उसके बाद ही कोई फैसला किया जायेगा. संयुक्त राष्ट्र ने इराक की तरह सीरिया में भी एक विशेष दूत की तैनाती की है . इस बार भी वही लखदर ब्राहिमी विशेष दूत हैं जो इराक में अमरीका कि सेवा कर चुके हैं . लेकिन उनकी बात को ओबामा प्रशासन नज़र अंदाज़ करता लग रहा है .अमरीकी अधिकारियों का कहना है कि तैयारी पूरी हो चुकी है. भूमध्य सागर में अमरीकी विमानवाही जहाज़ तैनात हैं और वे क्रूज मिसाइल दाग सकते हैं . अमरीका के रक्षा सचिव चक हेगेल ने कहा है कि  सेना की तैयारी पूरी है. जब भी राष्ट्रपति ओबामा आगे बढ़ने को कहेगें , हमला कर दिया जाएगा . हालांकि अमरीकी अधिकारी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हमला बहुत ही सीमित होगा और सीरिया के सैनिक केन्द्रों को ही निशाना बनाया जाएगा लेकिन जानकार बताते हैं कि सीमित एक्शन की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि लड़ाई शुरू करने वाले के पास उसको रोकने का विकल्प नहीं रहता . युद्ध का एक  गतिशास्त्र होता है ,वही किसी भी संघर्ष के नतीजों को तय करता है .
अमरीका का दावा है कि वह हमला इसलिए कर रहा  है कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने बागियों के ऊपर रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर दिया है लकिन उसकी इस बात को मानने के लिए कोई निष्पक्ष सबूत नहीं है , संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों ने ऐसी कोई बात नहीं बताई है ,क्योंकि अभी निरीक्षण का काम चल ही रहा है. पता नहीं कहाँ से बराक  ओबामा को मालूम हो गया कि रासायनिक हमला हो चुका है . कुल मिलाकर इस बात में अभी शक है कि रासायनिक हथियारों का हमला हुआ  है लेकिन दूसरी बात बिलकुल तय है और वह यह कि अगर अमरीका ने सीरिया पर बमबारी शुरू की तो यह युद्ध  मुकम्मल तौर पर रासायनिक हथियारों का युद्ध हो जाएगा क्योंकि सीरिया के राष्ट्रपति ,बशर अल असद ने पिछले साल ही स्पष्ट कर दिया था कि अगर उनके ऊपर कोई विदेशी ताक़त हमला करती है तो वे निश्चित रूप से रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर देगें . उसी तरह से दो दिन में रासायनिक हथियारों को बर्बाद करके वापस आने की बात का भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि जब १९९८ में संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी के बिना अमरीका और ब्रिटेन ने इराक पर बमबारी शुरू की थी और सामूहिक नर संहार के हथियारों  को तहस नहस करके कार्रवाई खत्म करने की बात की थी ,तब भी लड़ाई लंबी चली थी  और कहीं कोई सामूहिक नरसंहार के हथियार नहीं मिले थे . बल्कि बाद में पता चला कि और अब सारी दुनिया जानती है कि इराक में सामूहिक नरसंहार के हथियार थे ही नहीं .१९९९ में अमरीकी अगुवाई में नैटो ने जब तत्कालीन यूगोस्लाविया पर हमला किया  तब भी यही बताया गया था कि स्लोबोदान  मिलासोविच की सत्ता को खत्म करने के लिए हमला किया गया था लेकिन लड़ाई बहुत दिन तक चली थी. यह भी गौर करने की बात  है कि उस बार भी आज की तरह संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध को अधिकृत नहीं किया था और उस हमले में अमरीकी बम , अस्पतालों और दूतावासों पर भी गिराए गए थे . २०११ में जब नैटो ने लीबिया पर सीमित हमला किया था तो मीडिया के संस्थानों पर हमला हुआ था . इस बार भी डर है कि कहीं सीरियन अरब एजेंसी समेत अन्य मीडिया संस्थानों को भी न हमले का निशाना न बनाया जाये.
आज की स्थिति यह है कि ओबामा हर हाल में सीरिया पर डायरेक्ट सैनिक कार्रवाई के लिए दीवाने हो रहे है .वे बाकी दुनिया को यह बताने के कोशिश कर रहे हैं कि वे तो वास्ताव में वह काम करने जा रहे हैं जो संयुक्त राष्ट्र को करना चाहिए था . ओबामा के लोग पूरी कोशिश कर रहे हैं कि रासायनिक हथियारों के बारे में सच्चाई सामने न आने पाए इसीलिए वे बार बार कह रहे हैं कि शनिवार तक संयुक्त राष्ट्र की तरफ से वहाँ काम कर रहे निरीक्षक वापस आ जाएँ . इसके पहले भी यह हुआ है . जब २००३ में संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षकों को इराक में वे हथियार नहीं मिले जिसकी बात अमरीकी अखबार और उसके साथी हर मंच से कर रहे थे तो अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र के उन कर्माचारियों की ईमानदारी और उनकी काबिलियत पर सवाल उठाना शुरू कर दिया था .  इस बार भी अगर फ़ौरन से पेशतर संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षक वहाँ से वापस नहीं आये तो उनका भी वही हश्र हो  सकता है .
सीरिया में हो रही लड़ाई से पश्चिमी देशों का एक और चेहरा  सामने आ रहा  है . अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों में  मुसलमान अल्पसंख्यक सभी देशों में हैं . उनको वहाँ  अधिकार भी मिले हुए हैं लेकिन जब से अल कायदा और उसके सहयोगी इस्लाम के सबसे बड़े प्रचारक के रूप में सामने आने की कोशिश कर रहे हैं , तब से कुछ स्वार्थी लोगों ने इस्लाम के नाम पर अल कायदा का प्रचार शुरू कर दिया है . पश्चिम के देशों में यह प्रवृत्ति बढ़ रही है . यह लोग अक्सर हिंसा की वकालत करते पाए जाते हैं . इस्लाम की बुनियादी मान्यताओं से यह दूर हैं और हिंसा को  समर्थन देते हैं . अल्पसंख्यकों की असुरक्षा की भावना को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करते हैं . नतीजा यह हुआ है कि पश्चिमी यूरोप के शांतिप्रिय देशों में इस्लाम के प्रति अजीब सा  कन्फ्यूज़न फ़ैल रहा है और वे इस्लाम के असली शांतिप्रिय रूप से अपरिचित होने लगे हैं . जानकार बता रहे हैं कि इस्लाम को मानने वालों के अलग अलग संप्रदायों को आपस में लड़ाकर इस्लाम को कमज़ोर करने की अमरीका और ब्रिटेन की इस साज़िश को पश्चिमी यूरोप के अन्य देशों में इसीलिये समर्थन मिल रहा  है . सीरिया में शिया और सुन्नी मत मानने वालों के बीच चल रही लड़ाई इस नीति का सबसे ज्वलंत उदाहरण है . ज़रूरत इस बात की है कि दुनिया के सभी लोग साम्राज्यवादी साज़िश को समझें और इंसानों के बीच नफरत को सर्वनाश का जरिया न बनने से रोकें 

Thursday, May 30, 2013

सीरिया का गृहयुद्ध लेबनान के रास्ते एक क्षेत्रीय युद्ध में बदल सकता है


शेष नारायण सिंह 
अमरीका सहित अन्य यूरोपीय देशों की सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश एक नए और खतरनाक दौर में पंहुच गयी है . २५ मई को हेज़बोल्ला संगठन के मुखिया हसन नसरुल्ला ने ऐलान किया कि बशर अल-असद को राष्ट्रपति पद से हटाने की कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा . टेलिविज़न पर दिया गया हसन नसरुल्ला का यह भाषण पूरे लेबनान में देखा गया जिसमें उन्होंने कहा कि ,” यह हमारी लड़ाई है और हम इसमें फतेह्याब  होगें .उन्होंने कहा कि अब युद्ध एक नए दौर में पंहुच गया है .”  उधर यूरोपीय यूनियन ने सीरिया पर लागू हथियारों की पाबंदी को हटा लिया है . हालांकि सीरिया के ऊपर लगी हथियारों की पाबंदी को हटाने का यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों नें विरोध किया लेकिन ब्रिटेन और नीदरलैंड्स जैसे देशों ने पाबंदी को हटाने की जोरदार मांग की . इसका मतलब यह हुआ कि अब अमरीका के मित्र देश सीरिया के राष्ट्रपति को हटाने की मुहिम में लगी अधिकांशतः सुन्नी  लड़ाकुओं की जमात को जमकर हथियार  देगें . यूरोपीय यूनियन  के मेंबर कई देशों ने तो कहा कि इस बात की पूरी संभावना है कि अगर सीरियाई विद्रोहियों को हथियार दिए गए तो वे अल-कायदा के  हाथों में पंहुच जायगें और उनका इस्तेमाल यूरोप और अमरीका के हितों के खिलाफ होगा लेकिन दमिश्क में अफगानिस्तान या इराक जैसी वफादार हुकूमत करने की जल्दी में अमरीका कुछ भी करने को तैयार नज़र आ रहा है .ब्रसेल्स में हुई यूरोपीय यूनियन की बैठक में एक मुकाम पर तो यह तर्क दिया गया कि अगर पाबंदी हटा ली गयी तो रूस और इरान सीरिया के राष्ट्रपति  को खुले आम हथियार  मुहैया करवाने लगेगें लेकिन बात आई गई हो गयी क्योंकि स्वीडन के विदेशमंत्री ने  कहा कि यह दोनों देशों बशर अल असद को खूब हथियार दे चुके हैं .अब और अधिक हथियार देकर उनकी लड़ाई की ताक़त को नहीं बढ़ाया जा सकता ,उससे उनका हथियारों का ज़खीरा ही मज़बूत होगा .हालैंड के विदेशमंत्री फ़्रांस टिमरमैंस ने कहा कि हथियारों के निर्यात पर लगी पाबंदी हटा ली गयी है उन्होंने इस बात पर खुशी ज़ाहिर की कि बाकी आर्थिक पाबंदियां बरकारार हैं .इसका मतलब यह नहीं कि यूरोपीय यूनियन के सदस्य देश तुरंत ही सीरिया के बागियों के लिए हथियार भेजना शुरू कर देगें लेकिन यह बात मुकम्मल तौर पर सही है कि अब  सीरिया पर कब्जे की लड़ाई में हथियारों की कमी नहीं रह जायेगी. आस्ट्रिया ,चेक रिपब्लिक और स्वीडन ने सीरिया को हथियार भेजने का ज़बरदस्त विरोध किया .उनका कहना था कि सीरिया में जो विरोधी ताक़तें हैं उनके अलकायदा वालों से अच्छे सम्बन्ध हैं और जो हथियार बशर अल-असद के  खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए भेजे जायेगे, वे धार्मिक आतंकवादियों के हाथों भी लग सकते हैं .

 हेज़बोल्ला का सीधे तौर पर युद्ध में शामिल होना और यूरोपीय यूनियन की हथियारों की सप्लाई के मद्दे नज़र यह बात तय है कि यह लड़ाई अब बढ़ जायेगी. हेज़बोल्ला के शामिल होने के मतलब यह है कि लेबनान तो अब लड़ाई में शामिल ही  हो गया है क्योंकि हेज़बोल्ला का मुख्यालय लेबनान में ही है .और उस पर अभी इसी हफ्ते राकेट से हमला हो चुका है . हेज़बोल्ला और इरान में जो सम्बन्ध हैं उसके चलते इरान पूरी तरह से  सीरिया की लड़ाई में शामिल है ही. क्योंकि अल्वी सम्प्रदाय के शिया बशर अल-असद को सीरिया के बहुमत वाले सुन्नी अवाम पर हुकूमत का अवसर उपलब्ध कराते रहना इरान की नीति का एक प्रमुख हिस्सा है . हेज़बोल्ला का खुले आम  सीरिया की सरकार की मददमें  जाना इस लड़ाई के लिए बहुत ही खतरनाक  संकेत हैं .हालांकि अभी भी  हेज़बोल्ला के लड़ाके सीरिया की फौज के साथ बागियों के खिलाफ लड़ाई मेंशामिल हैं लेकिन औपचारिक रूप से इसका ऐलान नहीं किया जा रहा थाअब हसन नसरुल्ला के ऐलान के ाद तस्वीर बदल जायेगी .हसन नसरुल्ला के लिएबशर अल-असद  की सत्ता को कायम रखना उनके अपने अस्तित्व से भी जुड़ा हुआ है .  लेबनान में रहकर अपना अभियान चलाने वाले हेज़बोल्ला  लिएइरान के साथ सड़क मार्ग से संपर्क रखने का रास्ता सीरिया  अंदर से ही है . अगर सीरिया  किसी ऐसी सत्ता का कब्ज़ा हो या जो अमरीका या अन्ययूरोपीय यूनियन सदस्यों के प्रति वफादार ुई तो हेज़बोल्ला के लिए बहुत मुश्किल पेश आयेगी  ,उसका अपने सबसे बड़े समर्थक से संपर्क खत्म हो जाएगा.ऐस हालत में असद के लिए तो दमिश् की सत्ता पर काबिज रहना बहुत ही अहम है ही , हेज़बोल्ला के लि भी कम महत्वपूर्ण नहीं है .
उधर अमरीका अपनी तिकडम की विदेशनीति को लागू करने की योजना पर भी लगातार काम कर रहा है .पेरिस में अमरीकी विदेशमंत्री जान केरी और रूस के विदेशमंत्री सर्जेई लेवरोव के बीच एक मुलाक़ात हुई है जिसमें अगले महीने जिनेवा में प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय शान्ति सम्मलेन के लिए समर्थन जुटाने की योजना पर बात हुई है . इस सम्मलेन का एजेंडा ही यह  है कि बशर अल-असद को हटाकर किसी कठपुतली हुकूमत को सीरिया में कैसे बैठाया जाए. इस बातचीत में शामिल होने के लिए असद की सरकार तैयार है लेकिन सुन्नी प्रमुखता वाले विपक्ष के नेता अभी सलाह मशविरा कर रहे हैं .
सीरिया की आतंरिक  लड़ाई मार्च २०११ में शुरू हुई थी और अब तक सत्तर हज़ार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं लेकिन अभी ऐसा कोई संकेत नहीं है कि लड़ाई खत्म होने वाली है . कोई भी पक्ष अपनी पोजीशन से पीछे हटने को तैयार नहीं है .ताज़ा स्थिति यह है कि दमिश्क से समुद्र की तरफ जाने वाली सड़क के शहर कुसैर पर कब्जे के लिए घमासान युद्ध चल रहा है .सरकारी फौजों ने हेज़बोल्ला के लड़ाकों की मदद से हमीदिया कस्बे पर कब्जा कर लिया है और कुसैर की घेराबंदी को मज़बूत कर लिया है. ऐसे माहौल में सीरिया की सरकारी फौजों के साथ हेज़बोल्ला का ऐलानियाँ शामिल होना इस युद्ध को एक क्षेत्रीय युद्ध बना सकता है .अभी सीरिया की लड़ाई मूल रूप से देश के बहुसंख्य सुन्नी और शासक शिया के बीच हक की  लड़ाई है .दोनों पक्ष खिलाफ पार्टी की ताक़तों को बेझिझक क़त्ल कर रहे हैं .हेज़बोल्ला के शामिल होने के बाद सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का पलड़ा बहुत भारी हो जाएगा. लगता है कि इसी समर्थन के असर को कमज़ोर करने के उद्देश्य से यूरोपीय देशों ने अब सीरियाई बागियों को हथियार देने का फैसला किया है .
सीरिया के  गृहयुद्ध का असर बाकी दुनिया पर तो कूटनीति के स्तर पर पडेगा लेकिन लेबनान में इस लड़ाई का सीधा असर पड़ने वाला है .लेबनान १९७५ के बाद से अपने ही गृह युद्ध की आग में झुलस चुका है . १९९० के बाद से वहाँ थोड़ी शान्ति हुई है . वहाँ की शिया,सुन्नी और ईसाई आबादी के बीच मौजूद बहुत ही नाज़ुक रिश्तों की बुनियाद पर टिकी लेबनान की शान्ति में हेज़बोल्ला के शिया शासक के पक्ष में ऐलानियाँ उतर जाने के बाद निश्चित रूप से बदलाव आएगा . डर  यह है कि यह  बदलाव लेबनान में ही शिया-सुन्नी संघर्ष में न तब्दील हो जाए. वहाँ हेज़बोल्ला कहने को तो एक राजनीतिक जमात है लेकिन उसके पास फौज भी है और वह फौज लेबनान की सेना से भी भारी है .इसलिए हेज़बोल्ला का खुले आम सीरिया में शिया शासक के साथ शामिल होना लेबनान के अंदर के शिया सुन्नी रिश्तों को प्रभावित करने की क्षमता  रखता है . पश्चिम एशिया की राजनीति के जानकारों को मालूम है कि हेज़बोल्ला को लेबनान में  कोई भी नहीं धमका सकता है . इसलिए जानकार आशंका जता रहे हैंकि अभी तक जो सीरिया के युद्धस्थल है वह आगे चल कर सीरिया और लेबनान का संयुक्त मैदान न बन जाए. लेबनान के सुन्नी लोग भी गुपचुप तरीके से सीरिया में बागियों की मदद में जाते रहे हैं . सीरिया के बागियों ने भी बार बार हेज़बोल्ला को चेताया है कि अगर वह सीरिया में सुन्नियों के खिलाफ मोर्चे में शामिल होता है तो लड़ाई से फारिग  होकर हेज़बोल्ला को भी निशाना बनाया जाएगा. इस सारी स्थिति का मतलब यह है कि इस क्षेत्र में जारी खूंखार युद्ध के भौगोलिक दायरे में वृद्धि के संकेत साफ नज़र आ रहे हैं .अभी मार्च में लेबनान के सुन्नी राजनेता और प्रधानमंत्री नजीब मिकाती ने इस्तीफा दे दिया था .सबको मालूम है कि हेज़बोल्ला की मर्जी के खिलाफ जाकर लेबनान में किसी भी प्रधानमंत्री का सत्ता में बने रहना असंभव होता है .खासकर जबकि सीमा के उस पार हेज़बोल्ला के लड़ाके सुन्नियों को चुन चुन कर मार  रहे हों .
सीरिया में बगावत शुरू हुए दो साल हो गए हैं . अमरीका का दावा है कि उसने बागियों को हथियार नहीं दिया है . लेकिन अमरीकी नीति निर्धारक भी स्वीकार करते हैं उन्होंने सीरियाई बागियों को अन्य तरह से मदद दी है . इसका मतलब यह हुआ कि सीरिया के बागियों के पास जो हथियार हैं उसमें अमरीकी धन की भूमिका है . वैसे भी पूरे पश्चिम एशिया में अमरीका के मदद से बहुत सारे हथियार फैले पड़े हैं और वे हथियार सीरियाई बागियों के पास पंहुच रहे हैं.. राष्ट्रपति ओबामा प्रकट रूप से अपने आपको अभी सीरिया के मामले से अलग रखा हुआ है .वे कहते हैं कि सरिया की लड़ाई में बहुत सारी पेचीदगियां  हैं और उनमें फंसना खतरे से खाली नहीं . ओबामा का यह तर्क अब तक तो चल रहा था लेकिन अब खेल बदल चुका है . हेज़बोल्ला के ऐलानियाँ शामिल हो जाने के बाद बाद सीरिया की लड़ाई को पश्चिम एशिया के अन्य देशों में जाने से कोई रोक नहीं सकता . ऐसी हालात में अमरीका का इस से बिलकुल बाहर रह पाना संभव नहीं रह जाएगा और अमरीका के शामिल होने के मतलब  अलग अलग इलाकों में अलग अलग संदर्भों में देखा जाएगा लेकिन एक बात तय है कि अमरीकी राजनीति और विदेशनीति को एक बार फिर बहुत ही भयानक परीक्षा के दौर से गुज़रना पडेगा .