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Thursday, May 30, 2013

सीरिया का गृहयुद्ध लेबनान के रास्ते एक क्षेत्रीय युद्ध में बदल सकता है


शेष नारायण सिंह 
अमरीका सहित अन्य यूरोपीय देशों की सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश एक नए और खतरनाक दौर में पंहुच गयी है . २५ मई को हेज़बोल्ला संगठन के मुखिया हसन नसरुल्ला ने ऐलान किया कि बशर अल-असद को राष्ट्रपति पद से हटाने की कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा . टेलिविज़न पर दिया गया हसन नसरुल्ला का यह भाषण पूरे लेबनान में देखा गया जिसमें उन्होंने कहा कि ,” यह हमारी लड़ाई है और हम इसमें फतेह्याब  होगें .उन्होंने कहा कि अब युद्ध एक नए दौर में पंहुच गया है .”  उधर यूरोपीय यूनियन ने सीरिया पर लागू हथियारों की पाबंदी को हटा लिया है . हालांकि सीरिया के ऊपर लगी हथियारों की पाबंदी को हटाने का यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों नें विरोध किया लेकिन ब्रिटेन और नीदरलैंड्स जैसे देशों ने पाबंदी को हटाने की जोरदार मांग की . इसका मतलब यह हुआ कि अब अमरीका के मित्र देश सीरिया के राष्ट्रपति को हटाने की मुहिम में लगी अधिकांशतः सुन्नी  लड़ाकुओं की जमात को जमकर हथियार  देगें . यूरोपीय यूनियन  के मेंबर कई देशों ने तो कहा कि इस बात की पूरी संभावना है कि अगर सीरियाई विद्रोहियों को हथियार दिए गए तो वे अल-कायदा के  हाथों में पंहुच जायगें और उनका इस्तेमाल यूरोप और अमरीका के हितों के खिलाफ होगा लेकिन दमिश्क में अफगानिस्तान या इराक जैसी वफादार हुकूमत करने की जल्दी में अमरीका कुछ भी करने को तैयार नज़र आ रहा है .ब्रसेल्स में हुई यूरोपीय यूनियन की बैठक में एक मुकाम पर तो यह तर्क दिया गया कि अगर पाबंदी हटा ली गयी तो रूस और इरान सीरिया के राष्ट्रपति  को खुले आम हथियार  मुहैया करवाने लगेगें लेकिन बात आई गई हो गयी क्योंकि स्वीडन के विदेशमंत्री ने  कहा कि यह दोनों देशों बशर अल असद को खूब हथियार दे चुके हैं .अब और अधिक हथियार देकर उनकी लड़ाई की ताक़त को नहीं बढ़ाया जा सकता ,उससे उनका हथियारों का ज़खीरा ही मज़बूत होगा .हालैंड के विदेशमंत्री फ़्रांस टिमरमैंस ने कहा कि हथियारों के निर्यात पर लगी पाबंदी हटा ली गयी है उन्होंने इस बात पर खुशी ज़ाहिर की कि बाकी आर्थिक पाबंदियां बरकारार हैं .इसका मतलब यह नहीं कि यूरोपीय यूनियन के सदस्य देश तुरंत ही सीरिया के बागियों के लिए हथियार भेजना शुरू कर देगें लेकिन यह बात मुकम्मल तौर पर सही है कि अब  सीरिया पर कब्जे की लड़ाई में हथियारों की कमी नहीं रह जायेगी. आस्ट्रिया ,चेक रिपब्लिक और स्वीडन ने सीरिया को हथियार भेजने का ज़बरदस्त विरोध किया .उनका कहना था कि सीरिया में जो विरोधी ताक़तें हैं उनके अलकायदा वालों से अच्छे सम्बन्ध हैं और जो हथियार बशर अल-असद के  खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए भेजे जायेगे, वे धार्मिक आतंकवादियों के हाथों भी लग सकते हैं .

 हेज़बोल्ला का सीधे तौर पर युद्ध में शामिल होना और यूरोपीय यूनियन की हथियारों की सप्लाई के मद्दे नज़र यह बात तय है कि यह लड़ाई अब बढ़ जायेगी. हेज़बोल्ला के शामिल होने के मतलब यह है कि लेबनान तो अब लड़ाई में शामिल ही  हो गया है क्योंकि हेज़बोल्ला का मुख्यालय लेबनान में ही है .और उस पर अभी इसी हफ्ते राकेट से हमला हो चुका है . हेज़बोल्ला और इरान में जो सम्बन्ध हैं उसके चलते इरान पूरी तरह से  सीरिया की लड़ाई में शामिल है ही. क्योंकि अल्वी सम्प्रदाय के शिया बशर अल-असद को सीरिया के बहुमत वाले सुन्नी अवाम पर हुकूमत का अवसर उपलब्ध कराते रहना इरान की नीति का एक प्रमुख हिस्सा है . हेज़बोल्ला का खुले आम  सीरिया की सरकार की मददमें  जाना इस लड़ाई के लिए बहुत ही खतरनाक  संकेत हैं .हालांकि अभी भी  हेज़बोल्ला के लड़ाके सीरिया की फौज के साथ बागियों के खिलाफ लड़ाई मेंशामिल हैं लेकिन औपचारिक रूप से इसका ऐलान नहीं किया जा रहा थाअब हसन नसरुल्ला के ऐलान के ाद तस्वीर बदल जायेगी .हसन नसरुल्ला के लिएबशर अल-असद  की सत्ता को कायम रखना उनके अपने अस्तित्व से भी जुड़ा हुआ है .  लेबनान में रहकर अपना अभियान चलाने वाले हेज़बोल्ला  लिएइरान के साथ सड़क मार्ग से संपर्क रखने का रास्ता सीरिया  अंदर से ही है . अगर सीरिया  किसी ऐसी सत्ता का कब्ज़ा हो या जो अमरीका या अन्ययूरोपीय यूनियन सदस्यों के प्रति वफादार ुई तो हेज़बोल्ला के लिए बहुत मुश्किल पेश आयेगी  ,उसका अपने सबसे बड़े समर्थक से संपर्क खत्म हो जाएगा.ऐस हालत में असद के लिए तो दमिश् की सत्ता पर काबिज रहना बहुत ही अहम है ही , हेज़बोल्ला के लि भी कम महत्वपूर्ण नहीं है .
उधर अमरीका अपनी तिकडम की विदेशनीति को लागू करने की योजना पर भी लगातार काम कर रहा है .पेरिस में अमरीकी विदेशमंत्री जान केरी और रूस के विदेशमंत्री सर्जेई लेवरोव के बीच एक मुलाक़ात हुई है जिसमें अगले महीने जिनेवा में प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय शान्ति सम्मलेन के लिए समर्थन जुटाने की योजना पर बात हुई है . इस सम्मलेन का एजेंडा ही यह  है कि बशर अल-असद को हटाकर किसी कठपुतली हुकूमत को सीरिया में कैसे बैठाया जाए. इस बातचीत में शामिल होने के लिए असद की सरकार तैयार है लेकिन सुन्नी प्रमुखता वाले विपक्ष के नेता अभी सलाह मशविरा कर रहे हैं .
सीरिया की आतंरिक  लड़ाई मार्च २०११ में शुरू हुई थी और अब तक सत्तर हज़ार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं लेकिन अभी ऐसा कोई संकेत नहीं है कि लड़ाई खत्म होने वाली है . कोई भी पक्ष अपनी पोजीशन से पीछे हटने को तैयार नहीं है .ताज़ा स्थिति यह है कि दमिश्क से समुद्र की तरफ जाने वाली सड़क के शहर कुसैर पर कब्जे के लिए घमासान युद्ध चल रहा है .सरकारी फौजों ने हेज़बोल्ला के लड़ाकों की मदद से हमीदिया कस्बे पर कब्जा कर लिया है और कुसैर की घेराबंदी को मज़बूत कर लिया है. ऐसे माहौल में सीरिया की सरकारी फौजों के साथ हेज़बोल्ला का ऐलानियाँ शामिल होना इस युद्ध को एक क्षेत्रीय युद्ध बना सकता है .अभी सीरिया की लड़ाई मूल रूप से देश के बहुसंख्य सुन्नी और शासक शिया के बीच हक की  लड़ाई है .दोनों पक्ष खिलाफ पार्टी की ताक़तों को बेझिझक क़त्ल कर रहे हैं .हेज़बोल्ला के शामिल होने के बाद सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का पलड़ा बहुत भारी हो जाएगा. लगता है कि इसी समर्थन के असर को कमज़ोर करने के उद्देश्य से यूरोपीय देशों ने अब सीरियाई बागियों को हथियार देने का फैसला किया है .
सीरिया के  गृहयुद्ध का असर बाकी दुनिया पर तो कूटनीति के स्तर पर पडेगा लेकिन लेबनान में इस लड़ाई का सीधा असर पड़ने वाला है .लेबनान १९७५ के बाद से अपने ही गृह युद्ध की आग में झुलस चुका है . १९९० के बाद से वहाँ थोड़ी शान्ति हुई है . वहाँ की शिया,सुन्नी और ईसाई आबादी के बीच मौजूद बहुत ही नाज़ुक रिश्तों की बुनियाद पर टिकी लेबनान की शान्ति में हेज़बोल्ला के शिया शासक के पक्ष में ऐलानियाँ उतर जाने के बाद निश्चित रूप से बदलाव आएगा . डर  यह है कि यह  बदलाव लेबनान में ही शिया-सुन्नी संघर्ष में न तब्दील हो जाए. वहाँ हेज़बोल्ला कहने को तो एक राजनीतिक जमात है लेकिन उसके पास फौज भी है और वह फौज लेबनान की सेना से भी भारी है .इसलिए हेज़बोल्ला का खुले आम सीरिया में शिया शासक के साथ शामिल होना लेबनान के अंदर के शिया सुन्नी रिश्तों को प्रभावित करने की क्षमता  रखता है . पश्चिम एशिया की राजनीति के जानकारों को मालूम है कि हेज़बोल्ला को लेबनान में  कोई भी नहीं धमका सकता है . इसलिए जानकार आशंका जता रहे हैंकि अभी तक जो सीरिया के युद्धस्थल है वह आगे चल कर सीरिया और लेबनान का संयुक्त मैदान न बन जाए. लेबनान के सुन्नी लोग भी गुपचुप तरीके से सीरिया में बागियों की मदद में जाते रहे हैं . सीरिया के बागियों ने भी बार बार हेज़बोल्ला को चेताया है कि अगर वह सीरिया में सुन्नियों के खिलाफ मोर्चे में शामिल होता है तो लड़ाई से फारिग  होकर हेज़बोल्ला को भी निशाना बनाया जाएगा. इस सारी स्थिति का मतलब यह है कि इस क्षेत्र में जारी खूंखार युद्ध के भौगोलिक दायरे में वृद्धि के संकेत साफ नज़र आ रहे हैं .अभी मार्च में लेबनान के सुन्नी राजनेता और प्रधानमंत्री नजीब मिकाती ने इस्तीफा दे दिया था .सबको मालूम है कि हेज़बोल्ला की मर्जी के खिलाफ जाकर लेबनान में किसी भी प्रधानमंत्री का सत्ता में बने रहना असंभव होता है .खासकर जबकि सीमा के उस पार हेज़बोल्ला के लड़ाके सुन्नियों को चुन चुन कर मार  रहे हों .
सीरिया में बगावत शुरू हुए दो साल हो गए हैं . अमरीका का दावा है कि उसने बागियों को हथियार नहीं दिया है . लेकिन अमरीकी नीति निर्धारक भी स्वीकार करते हैं उन्होंने सीरियाई बागियों को अन्य तरह से मदद दी है . इसका मतलब यह हुआ कि सीरिया के बागियों के पास जो हथियार हैं उसमें अमरीकी धन की भूमिका है . वैसे भी पूरे पश्चिम एशिया में अमरीका के मदद से बहुत सारे हथियार फैले पड़े हैं और वे हथियार सीरियाई बागियों के पास पंहुच रहे हैं.. राष्ट्रपति ओबामा प्रकट रूप से अपने आपको अभी सीरिया के मामले से अलग रखा हुआ है .वे कहते हैं कि सरिया की लड़ाई में बहुत सारी पेचीदगियां  हैं और उनमें फंसना खतरे से खाली नहीं . ओबामा का यह तर्क अब तक तो चल रहा था लेकिन अब खेल बदल चुका है . हेज़बोल्ला के ऐलानियाँ शामिल हो जाने के बाद बाद सीरिया की लड़ाई को पश्चिम एशिया के अन्य देशों में जाने से कोई रोक नहीं सकता . ऐसी हालात में अमरीका का इस से बिलकुल बाहर रह पाना संभव नहीं रह जाएगा और अमरीका के शामिल होने के मतलब  अलग अलग इलाकों में अलग अलग संदर्भों में देखा जाएगा लेकिन एक बात तय है कि अमरीकी राजनीति और विदेशनीति को एक बार फिर बहुत ही भयानक परीक्षा के दौर से गुज़रना पडेगा .