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Tuesday, January 4, 2011

हिन्दू धर्म में आतंकवाद की कोई जगह नहीं,आर एस एस सभी हिन्दुओं का संगठन नहीं

शेष नारायण सिंह

दिसंबर में हुई कांग्रेस की सालाना बैठक में जब से तय हुआ कि आर एस एस के उस रूप को उजागर किया जाए जिसमें वह आतंकवादी गतिविधियों के प्रायोजक के रूप में पहचाना जाता है ,तब से ही आर एस एस के अधीन काम करने वाले संगठनों और नेताओं में परेशानी का आलम है .जब से आर एस एस के ऊपर आतंकवादी जमातों के शुभचिंतक होने का ठप्पा लगा है वहां अजीबोगरीब हलचल है . आर एस एस ने अपने लोगों को दो भाग में बाँट दिया है. एक वर्ग तो इस बात में जुट गया है कि वह संघ को बहुत पाकसाफ़ संगठन के रूप में प्रस्तुत करे जबकि दूसरे वर्ग को यह ड्यूटी दी गयी है कि वह आर एस एस को सभी हिन्दुओं का संगठन बनाने की कोशिश करे.आर एस एस के पे रोल पर कुछ ऐसे लोग हैं जो पत्रकार के रूप में अभिनय करते हैं . ऐसे लोगों की ड्यूटी लगा दी गयी है कि वे हर उस व्यक्ति को हिन्दू विरोधी साबित करने में जुट जाएँ जो आर एस एस या उस से जुड़े किसी व्यक्ति या संगठन को आतंकवादी कहता हो .लगता है कि कांग्रेस ने आर एस एस की पोल खोलने की योजना की कमान दिग्विजय सिंह को थमा दी है . दिग्विजय सिंह ने भी पूरी शिद्दत से काम को अंजाम देना शुरू कर दिया है . देश के सबसे बड़े अखबार में उन्होंने एक इंटरव्यू देकर साफ़ किया कि वे हिन्दू आतंकवाद की बात नहीं कर रहे हैं , वे तो संघी आतंकवाद का विरोध कर रहे हैं . यह अलग बात है कि आर एस एस वाले उनका विरोध यह कह कर करते पाए जा रहे हैं कि दिग्विजय सिंह हिन्दुओं के खिलाफ हैं . लेकिन इस मुहिम में आर एस एस को कोई सफलता नहीं मिल रही है . दुनिया जानती है कि आर एस एस ने अपना तामझाम मीडिया में मौजूद अपने मित्रों का इस्तेमाल करके बनाया है. लगता है कि दिग्विजय सिंह भी मीडिया का इस्तेमाल करके आर एस एस के ताश के महल को ज़मींदोज़ करने के मन बना चुके हैं . उनके इंटरव्यू को आधार बनाकर जो खबर अखबारों में छापी गयी उसमें संघी आतंकवाद को हिन्दू आतंकवाद लिखकर बात को आर एस एस के मन मुताबिक बनाने की कोशिश की गयी . बीजेपी के कुछ नेताओं ने दिग्विजय के हिन्दू विरोधी होने पर बयान भी देना शुरू कर दिया . लेकिन लगता है कि दिग्विजय ने भी खेल को भांप लिया और देश की सबसे बड़ी न्यूज़ एजेंसी , पी टी आई के मार्फ़त अपनी बात को पूरे देश के अखबारों में पंहुचा दिया. ज़्यादातर अखबारों में छपा है कि दिग्विजय सिंह ने इस बात का खंडन किया है कि कि वे हिन्दू धर्म के खिलाफ हैं .देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार , द हिन्दू में पी टी आई के हवाले से जो बयान छपा है वह आर एस एस के खेल में बहुत बड़ा रोड़ा साबित होने की क्षमता रखता है . दिग्विजय सिंह ने कहा है कि उन्होंने कभी भी आतंकवाद को किसी धर्म से नहीं जोड़ा . उनका दावा है कि आतंकवाद बहुत गलत चीज़ है . वह चाहे जिस धर्म के लोगों की तरफ से किया जाए. उन्होंने कहा कि हर हिन्दू आतंकवादी नहीं होता लेकिन पिछले दिनों जो भी हिन्दू आतंकवादी घटनाओं में शामिल पाए गए हैं, वे सभी आर एस एस या उस से संबद्ध संगठनों के सदस्य हैं . यानी वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हिन्दू नहीं आर एस एस वाला आदमी आतंकवादी होता है . उन्होंने बीजेपी और आर एस एस से अपील भी की है कि वे आत्मनिरीक्षण करें और इस बात का पता लगाएं कि हर आदमी जो भी आतंकवादी घटनाओं में पकड़ा जा रहा है ,उसका सम्बन्ध आर एस एस से ही क्यों होता है . उन्होंने कहा कि वे हिन्दू धर्म का विरोध कभी नहीं करेगें क्योंकि वे खुद हिन्दू धर्म का बहुत सम्मान करते हैं . उनके माता पिता हिन्दू हैं और उनके सभी बच्चे हिन्दू हैं . लेकिन वे सभी आर एस एस के घोर विरोधी हैं . ज़ाहिर है दिग्विजय सिंह एक ऐसे अभियान पर काम कर रहे हैं जिसमें यह सिद्ध कर दिया जाएगा कि आर एस एस एक राजनीतिक जमात है और उसका विराट हिन्दू समाज से कुछ लेना देना नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि हिन्दुओं का ठेकेदार बनने की आर एस एस और उसके मातहत संगठनों की कोशिश को गंभीर चुनौती मिल रही है. भगवान् राम के नाम पर राजनीति खेल कर सत्ता तक पंहुचने वाली बी जे पी के लिए और कोई तरकीब तलाशनी पड़ सकती है क्योंकि कांग्रेस की नयी लीडरशिप हिन्दू धर्म के प्रतीकों पर बी जे पी के एकाधिकार को मंज़ूर करने को तैयार नहीं है . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने साफ़ कहा है कि हिन्दू धर्म पर किसी राजनीतिक पार्टी के एकाधिकार के सिद्धांत को वे बिलकुल नहीं स्वीकार करते. लेकिन आर एस एस को भगवा या हिंदू धर्म का पर्याय वाची भी नहीं बनने दिया जाएगा . दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से भी कहा है कि भगवा रंग बहुत ही पवित्र रंग है और उसे किसी के पार्टी की संपत्ति मानने की बात का मैं विरोध करता हूँ . उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्था के बल पर मैं राजनीतिक फसल काटने के पक्ष में नहीं हूँ और न ही किसी पार्टी को यह अवसर देना चाहता हूँ . उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म पर हर हिन्दू का बराबर का अधिकार है और उसके नाम पर आर एस एस और बी जे पी वालों को राजनीति नहीं करने दी जायेगी . और अगर कांग्रेस अपनी इस योजना में सफल हो गयी तो और बी जे पी की उस कोशिश को जिसके तहत वह हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में अपने को स्लाट कर रही थी , नाकाम कर दिया तो इस देश की राजनीति का बहुत भला होगा

Thursday, September 2, 2010

हिन्दुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है ,हिन्दू धर्म एक महान धर्म

शेष नारायण सिंह

हिन्दुओं का ठेकेदार बनने की आर एस एस और उसके मातहत संगठनों की कोशिश को चुनौती मिल रही है. भगवान् राम के नाम पर राजनीति खेल कर सत्ता तक पंहुचने वाली बी जे पी के लिए और कोई तरकीब तलाशनी पड़ सकती है क्योंकि कांग्रेस की नयी लीडरशिप हिन्दू धर्म के प्रतीकों पर बी जे पी के एकाधिकार को मंज़ूर करने को तैयार नहीं है . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने साफ़ कहा है कि हिन्दू धर्म पर किसी राजनीतिक पार्टी के एकाधिकार के सिद्धांत को वे बिलकुल नहीं स्वीकार करते. दिग्विजय सिंह एक मंजे हुए राजनीतिक नेता हैं , इसलिए यह उम्मीद करना कि वे अपनी निजी राय बता रहे थे, ठीक नहीं होगा. यह उनकी पार्टी की ही राय है .दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से भी कहा और मुझे जोर देकर बताया कि भगवा रंग बहुत हे एपवित्र रंग है और उसे किसी के पार्टी की संपत्ति मानने की बात का मैं विरोध करता हूँ . उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्था के बल पर मैं राजनीतिक फसल काटने के पक्ष में नहीं हूँ और न ही किसी पार्टी को यह अवसर देना चाहता हूँ . उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म पर हर हिन्दू का बराबर का अधिकार है और उसके नाम पर आर एस एस और बी जे पी वालों को राजनीति नहीं करने दी जायेगी . दिग्विजय सिंह ने कहा कि हिन्दू महासभा के पूर्व अध्यक्ष , वी डी सावरकर ने हिन्दुत्व नाम की राजनीतिक विचारधारा की स्थापना की थी . जिसके बल पर वे राजनीतिक सपने देखते थे, अगर आर एस एस वाले चाहें तो उसको अपना सकते हैं , उन्होंने साफ़ कहा कि वे हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म और हिंदुत्व में फर्क है.

कांग्रेस पार्टी में इस ताज़ा सोच पर काम होना शुरू हो गया है . मुंबई में एक गैर राजनीतिक सभा में दिग्विजय सिंह दिन भर बैठे रहे जिसमें वे खुद केसरिया साफा बंधे हुए थे . अखिल भारतीय क्षत्रिय फेडरेशन के दूसरे सम्मलेन में उन्होंने छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप की वीरता का गुणगान किया और दावा किया कि वे खुद क्षत्रिय हैं और अपने महान पूर्वज क्षत्रियों का सम्मान काना उनका बहुत ही पवित्र कर्त्तव्य है . दिग्विजय सिंह का यह पैंतरा संघ की राजनीति की चूल ढीली करने की हैसियत रखता है .मुंबई में अगर कांग्रेस का एक बड़ा नेता डंके की चोट पर शिवाजी के सम्मान में भाषण दे रहा है कि तो शिवाजी का वारिस बनकर राजनीतिक दुकानदारी करने वालों के लिए मुश्किल खडी हो सकती है . संघी राजनीति की अजीब मुश्किल है . उनके पास बीसवीं सदी में तो कोई ऐसा हीरो था नहीं जो आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुआ हो . या उनके किसी नेता को आज़ादी के लिए लड़ते हुए एक दिन के लिए भी जेल जाना पड़ा हो . इसलिए यह लोग ऐतिहासिक महापुरुषों से अपने आपको जोड़ कर उनका वारिस बनने की बात करते रहते हैं . महाराणा प्रताप और शिवाजी की वंदना संघी राजनीति की इसी मजबूरी के चलते की जाती है . यह कोशिश इन लोगों ने 1986 के बाद जोर शोर से शुरू कर दी थी .हिन्दुत्व वादियों को अस्सी के दशक में सफलता इसलिए मिली कि उस वक़्त की बड़ी पार्टियों ने राम जन्मभूमि की इनकी राजनीति का विरोध बहुत ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से किया . उत्तर प्रदेश और केंद्र में बहुत मजबूती के साथ राजनीति के शिखर पर बैठी कांग्रेस ने भी संघ परिवार , ख़ास कर विश्व हिन्दू परिषद् को राम के नाम पर एकाधिकार के खेल में वाक ओवर दे दिया. शायद ऐसा इसलिए हुआ कि उस वक़्त के कांग्रेस के मुखिया राजीव गांधी के पास योग्य सलाहकारों की कमी थी. अरुण नेहरू, अरुण सिंह टाइप लोग उनके सलाहकार थे , जिन बेचारों को राजनीति की बारीकियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. नतीजा यह हुआ कि तीन चौथाई बहुमत वाली कांग्रेस चुनाव हार गयी और दो सीट जीतकर आई बी जे पी ने दिल्ली में विश्वनाथ प्रताप सिंह की कठपुतली सरकार बनवा दी. फिर तो आर एस एस की हिंदुत्व का ठेकेदार बनने की कोशिश शुरू हो गयी और कांग्रेस और बाकी राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता, राम का नाम आते ही बी जे पी का ज़िक्र करने लगे. और बी जे पी को भगवान राम की पार्टी बनने का मौक़ा मिल गया . यह काम बी जे पी और उसके मालिक आर एस एस की मर्जी के हिसाब से हो रहा था यही उनकी योजना थी .जिसका फायदा बी जे पी को हुआ . लेकिन अब सोनिया गांधी के राज में कांग्रेस में ज़्यादातर फैसले सोच विचार कर लिए जा रहे हैं . राजीव गांधी की तरह दोस्तों की बात को राष्टीय राजनीति पर नहीं थोपा जा रहा है. जिसका नतीजा यह है कि एक सोची समझी रण नीति के तहत बी जे पी ,शिव सेना और बाकी साम्प्रदायिक पार्टियों को उनके साम्प्रदायिक रंग में रंगे मुहावरों से खारिज किया जा रहा है . और अगर कांग्रेस अपनी इस योजना में सफल हो गयी तो और बी जे पी की उस कोशिश को जिसके तहत वह हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में अपने को स्लाट कर रही थी , नाकाम कर दिया तो इस देश की राजनीति का भला तो होगा ही, आर एस एस को नए सिरे से महापुरुषों की खोज करनी पड़ेगी

Friday, April 2, 2010

दंगें फैलाने वालों को नाकाम करो

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले के एक बहुत छोटे से कस्बे खतौली में भी दंगा हो गया है .इसके पहले बरेली में हुआ था. ह्यद४एरबद में दंगा चल ही रहा है . इसी तरह से और भी इलाकों में छिटपुट घटनाएं हो रही हैं . अगर कहीं मामला थोडा और गरम हो जाए तो छोटी मोटी घटनाओं को दंगा बनने में देर नहीं लगती. .अब उत्तर भारत में मौसम भी गरम हो रहा है .ऐसे मौसम में मामूली विवाद भी बढ़ जाता है और अगर झगडा अलग अलग सम्प्रदाय के लोगों के बीच हो तो निहित स्वार्थ वाले उसे दंगे में बदल देते हैं .जब दंगा होता है तो चारों तरफ पागलपन का माहौल बन जाता है और सब अंधे हो जाते हैं . ज़ाहिर है कि समझदारी की बात कोई नहीं करता. दंगा वास्तव में सभ्य समाज पर कलंक है . सवाल यह पैदा होता है कि दंगे होते क्यों हैं .सीधा सा जवाब यह है कि राजनीति में सक्रिय लोग लोगों को बेचारा साबित करने के लिए दंगा करवाते हैं .अंग्रेजों ने जब 19२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन में देखा कि पूरा मुल्क गाँधी के साथ खड़ा है . हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रहे है तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रबंधकों को लगा कि अगर पूरा देश एक हो गया तो मुट्ठी भर अँगरेज़ भारत में राज नहीं कर सकेंगें . अंग्रेजों ने तय किया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फर्क डाले बिना भारत को गुलाम नहीं बनाया जा सकता. १९२० के बाद के भारत की राजनीति पर गौर करें तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि अंग्रेजों ने हर स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम विभेद की योजना बना दी थी. मुस्लिम लीग को फिर से महात्मा गाँधी से अलग किया, आर एस एस की स्थापना करवाई और वी डी सावरकर को खुला छोड़ दिया. सावरकार को ड्यूटी दी गयी कि वे हिन्दू मात्र को गाँधी से दूर ले जाएँ. इसी दौर में सावरकार ने अपनी किताब हिन्दुत्व लिखी जिसमें हिन्दू धर्म को राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की बात की गयी. अंग्रेजों के आशीर्वाद से पहला संगठित दंगा १९२७ में नागपुर में आयोजित किया गया जिसमें आर एस एस वालों ने प्रमुख भूमिका निभाई. सावरकार पूरी तरह से अंग्रेजों के सेवक बन ही चुके थे . जेल में वी. डी .सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर ३२७७८ के रूप में जाने जाते थे . उन्होंने अपने माफीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वे आगे से अंग्रेजों के हुक्म को मानकर ही काम करेंगें . सावरकर के भक्तों को लगता है कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी नहीं माँगी होगी. ऐसे शंकालु लोगों को चाहिए कि वे नैशनल आर्काइव्ज़ चले जाएँ, वहांसावरकर का माफीनामा बहुत ही संभाल कर रखा हुआ है और इतिहास के किसी भी शोधकर्ता के लिए वह उपलब्ध है . बहरहाल सच्चाई यह है कि आर एस एस उसके सहयोगी संगठन और मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति के झंडाबरदार ही दंगे करवाते हैं .


सवाल यह उठता है कि सभ्य समाज के लोग दंगा रोकने के लिए क्या काम करें . क्योंकि अब दंगे तो बार बार होंगें क्योंकि बी जे पी के नए अध्यक्ष ने तय कर लिया है कि हिन्दुत्व की बिसात पर ही अब उतर भारत में चुनाव लड़े जाने हैं . १९८४ में दो सीटें जीतने के बाद कोलकता में जब आर एस एस के आला नेताओं की बैठक हुई तो उसमें अटल बिहारी वाजपेयी को फटकार दिया गया था और उन्हें बता दिया गया था कि राग हिन्दुत्व ही चलेगा, गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. शहाबुद्दीन टाइप कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की .

सवाल यह उठता है कि दंगों को रोकने के लिएय धर्म निरपेक्ष बिरादरी को क्या करना चाहिए . संघ वाले तो अब दंगों के बाद के ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की योजना बना चुके हैं . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी डी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले आर एस एस वालों ने किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती आर एस एस की ही लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने के लिए संघ की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता है . बरेली, हैदराबाद और खतौली में तो दंगें हो गए अब आगे न होने पायें यही कोशिश करनी चाहिय .

Thursday, December 10, 2009

हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म को एक बताने की राजनीति

शेष नारायण सिंह

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के सत्रह साल पूरे हो गए. . इन सत्रह वर्षो में अपनी योजना के अनुसार हिन्दुववादी राजनीतिक ताक़तों ने सत्ता के हर तरह के सुख का आनंद ले लिया. पहले वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बनवाई, फिर पी वी नरसिंह राव को सत्ता में बने रहने दिया, हालांकि संघ की इतनी ताक़त थी कि जब चाहते उसे ज़मींदोज़ कर सकते थे लेकिन नरसिंह राव, संघ का ही कम कर रहे थे इसलिए उन्हें बना रहने दिया.. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी को गद्दी पर बैठाकर आर एस एस ने भारतीय गणतंत्र की संस्थाओं को ढहाने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया. शिक्षा के भगवाकरण का काम मुरली मनोहर जोशी को सौंपा और अन्य भरोसे के बन्दों को सही जगह पर लगा दिया . योजना यह थी कि सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और भ्रष्टाचार से मुक्ति जैसे कार्यों के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में रखा जाएगा जिससे वह बार बार वोट देकर आर एस एस की पार्टी को सत्तासीन करती रहे . इसी सोच के तहत गुजरात की राज्य सरकार चलाने का मंसूबा बनाया गया था जो लगभग योजना के अनुसार चल रही है और किसी भी बहस में जब नरेन्द्र मोदी की साम्प्रादायिक राजनीति का सवाल उठाने की कोशिश की जाती है तो संघी चिन्तक और पत्रकार साफ़ कह देते हैं कि जनता ने मोदी को वोट देकर जिताया है और उन्हें अपनी राजनीतिक यानी हिन्दुत्ववादी योजना को लागू करने का अधिकार दिया है . आर एस एस वालों ने केंद्र सरकार के लिये भी ऐसा ही कुछ सोचा था लेकिन बात उलट गयी. केंद्र सरकार में सक्रिय बी जे पी वाले भ्रष्टाचार की उन बुलंदियों पर पंहुच गए जहां तक उनके पहले के कांग्रेसियों की जाने की हिम्मत नहीं पडी थी . बी जे पी अध्यक्ष , को टी वी के परदे पर घूस के रूपये झटकते पूरे देश ने देखा, मुंबई के एक धन्धेबाज़ भाजपाई ने तो ऐसे रिकॉर्ड बनाए जिसमें बोफोर्स की ६५ करोड़ की घूस की रक़म होटल के बैरे को दी जाने वाली टिप जैसी लगने लगी. दिल्ली में सत्ता के गलियारों में अक्सर चर्चा सुनी जाती थी कि तत्कालीन प्रधान मंत्री के एक दामादनुमा रिश्तेदार ने तो २० करोड़ के नीचे की रक़म कभी बतौर बयाना भी नहीं पकड़ी.मतलब यह कि बी जे पी की अगुवाई वाली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भ्रष्टाचार की उदाहरण बन गयी और उसकी रिश्वत खोरी की कथाएं इतनी चलीं कि कांग्रेस के भ्रष्ट नेतागण महात्मा लगने लगे. कुल मिलाकर स्वच्छ और कुशल प्रशासन की आड़ में में संघी एजेंडा लागू करने के सपने हमेशा के लिए दफन हो गए. जैसा कि प्रकृति का नियम है कि काठ की हांडी एक बार से ज्यादा नहीं चढ़ सकती, इसलिए अब हिन्दुत्व को हिन्दू धर्मं बताकर सत्ता हड़पने की कोशिश ख़त्म हो चुकी है लेकिन किसी और राजनीतिक कार्यक्रम के अभाव में फिर से हिंदुत्व को जिंदा करने की कोशिश शुरू हो गयी है . नागपुर के सर्वाच्च अधिकारी ने इस आशय का नारा दे दिया है लेकिन इस बार खेल थोडा बदला हुआ है . अबकी मुसलमानों को भी साथ लेने की बात की जा रही है . मुसलमानों के धार्मिक नेताओं के दरवाज़े पर फेरी लगाई जा रही है और बताया जा रहा है कि भारत में रहने वाले सभी मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे... बाबरी मस्जिद की राजनीति के बाद अवाम की ऑंखें बहुत सारे मामलों में खुल गयी थीं . एक तो यही कि धर्म के नाम पर पैसा बटोरने वाला कभी भी ईमानदार नहीं रह सकता. आर एस एस का तो बहुत नुकसान हुआ, क्योंकि लोगों को समझ में आ गया कि राममंदिर के नाम पर किये गए आन्दोलन का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने के लिए करने वाले लोग धोखेबाज़ होते हैं . मुसलमानों में भी कुछ महत्वाकांक्षी लोग आगे आ गए थे . बाबरी मस्जिद की हिफाज़त के आन्दोलन में शामिल बहुत सारे मुस्लिम नेता ३-४ साल के अन्दर ही बहुत मालदार हो गए थे. कुछ लोग केंद्र और राज्यों में मंत्री बने और कुछ लोग राजदूत वगैरह बन गए. गरज यह कि जनता को अब सब कुछ मालूम पड़ चुका है और ऐसा लगता है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके धोखा देने वालों को वह बख्शने वाली नहीं है .. पिछले २३ वर्षों की राजनीति का यह एक बड़ा सबक रहेगा अगर जनता यह मान ले धर्म की बात करने वालों से धर्म की बात तो की जायेगी लेकिन अगर वे राजनीति की बात करने लगेंगें तो उनसे उसी तरह का बर्ताव किया जाएगा जिस तरह उत्तर प्रदेश की जनता ने बी जे पी से करना शुरू कर दिया है . अगर धर्मनिरपेक्षता की बहस को कुछ देर के लिए भूल भी जाएँ तो बाबरी मस्जिद के नाम पर धंधा करने वालों का जो हस्र हुआ उसे देख कर शायद भविष्य में शातिर से शातिर ठग भी धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने की हिम्मत नहीं करेगा. उस राजनीति में शामिल नेताओं ने पैसा-कौड़ी तो चाहे जितना बना लिया हो लेकिन उनकी विश्वसनीयता शून्य के आसपास ही मंडराती रहती है . शायद इसीलिए इस बार आर एस एस के मुखिया के बयानों में कुछ ट्विस्ट है . आजकल वे कहते पाए जा रहे हैं कि राममंदिर के लिए संतसमाज के आन्दोलन को वे समर्थन देंगें..यानी उन्हें भी इस बात का अंदाज़ लग गया है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके सत्ता नहीं मिलने वाली है .बाबरी मस्जिद के खिलाफ जब आर एस एस ने आन्दोलन शुरू किया था तो सूचना की क्रान्ति नहीं आई थी . बहुत सारी बातें ऐसी भी लोगों ने सच मान ली थीं जो कि वास्तव में झूठ थीं लेकिन किसी मकसद को हासिल करने के लिए निहित स्वार्थ के लोग फैला रहे थे .अब ऐसा नहीं है . किसी भी नेता के लिए झूठ बोलकर पार पाना मुश्किल है क्योंकि चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल ऐसा नहीं होने देंगें . इसलिए ऐसा लगता है कि अब धार्मिक आधार पर राजनीतिक लाभ के लिए, आम आदमी को उकसाना उतना आसान नहीं होगा, जितना बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले था