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Thursday, December 10, 2009

हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म को एक बताने की राजनीति

शेष नारायण सिंह

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के सत्रह साल पूरे हो गए. . इन सत्रह वर्षो में अपनी योजना के अनुसार हिन्दुववादी राजनीतिक ताक़तों ने सत्ता के हर तरह के सुख का आनंद ले लिया. पहले वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बनवाई, फिर पी वी नरसिंह राव को सत्ता में बने रहने दिया, हालांकि संघ की इतनी ताक़त थी कि जब चाहते उसे ज़मींदोज़ कर सकते थे लेकिन नरसिंह राव, संघ का ही कम कर रहे थे इसलिए उन्हें बना रहने दिया.. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी को गद्दी पर बैठाकर आर एस एस ने भारतीय गणतंत्र की संस्थाओं को ढहाने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया. शिक्षा के भगवाकरण का काम मुरली मनोहर जोशी को सौंपा और अन्य भरोसे के बन्दों को सही जगह पर लगा दिया . योजना यह थी कि सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और भ्रष्टाचार से मुक्ति जैसे कार्यों के ज़रिये जनता को अपने पक्ष में रखा जाएगा जिससे वह बार बार वोट देकर आर एस एस की पार्टी को सत्तासीन करती रहे . इसी सोच के तहत गुजरात की राज्य सरकार चलाने का मंसूबा बनाया गया था जो लगभग योजना के अनुसार चल रही है और किसी भी बहस में जब नरेन्द्र मोदी की साम्प्रादायिक राजनीति का सवाल उठाने की कोशिश की जाती है तो संघी चिन्तक और पत्रकार साफ़ कह देते हैं कि जनता ने मोदी को वोट देकर जिताया है और उन्हें अपनी राजनीतिक यानी हिन्दुत्ववादी योजना को लागू करने का अधिकार दिया है . आर एस एस वालों ने केंद्र सरकार के लिये भी ऐसा ही कुछ सोचा था लेकिन बात उलट गयी. केंद्र सरकार में सक्रिय बी जे पी वाले भ्रष्टाचार की उन बुलंदियों पर पंहुच गए जहां तक उनके पहले के कांग्रेसियों की जाने की हिम्मत नहीं पडी थी . बी जे पी अध्यक्ष , को टी वी के परदे पर घूस के रूपये झटकते पूरे देश ने देखा, मुंबई के एक धन्धेबाज़ भाजपाई ने तो ऐसे रिकॉर्ड बनाए जिसमें बोफोर्स की ६५ करोड़ की घूस की रक़म होटल के बैरे को दी जाने वाली टिप जैसी लगने लगी. दिल्ली में सत्ता के गलियारों में अक्सर चर्चा सुनी जाती थी कि तत्कालीन प्रधान मंत्री के एक दामादनुमा रिश्तेदार ने तो २० करोड़ के नीचे की रक़म कभी बतौर बयाना भी नहीं पकड़ी.मतलब यह कि बी जे पी की अगुवाई वाली अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भ्रष्टाचार की उदाहरण बन गयी और उसकी रिश्वत खोरी की कथाएं इतनी चलीं कि कांग्रेस के भ्रष्ट नेतागण महात्मा लगने लगे. कुल मिलाकर स्वच्छ और कुशल प्रशासन की आड़ में में संघी एजेंडा लागू करने के सपने हमेशा के लिए दफन हो गए. जैसा कि प्रकृति का नियम है कि काठ की हांडी एक बार से ज्यादा नहीं चढ़ सकती, इसलिए अब हिन्दुत्व को हिन्दू धर्मं बताकर सत्ता हड़पने की कोशिश ख़त्म हो चुकी है लेकिन किसी और राजनीतिक कार्यक्रम के अभाव में फिर से हिंदुत्व को जिंदा करने की कोशिश शुरू हो गयी है . नागपुर के सर्वाच्च अधिकारी ने इस आशय का नारा दे दिया है लेकिन इस बार खेल थोडा बदला हुआ है . अबकी मुसलमानों को भी साथ लेने की बात की जा रही है . मुसलमानों के धार्मिक नेताओं के दरवाज़े पर फेरी लगाई जा रही है और बताया जा रहा है कि भारत में रहने वाले सभी मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे... बाबरी मस्जिद की राजनीति के बाद अवाम की ऑंखें बहुत सारे मामलों में खुल गयी थीं . एक तो यही कि धर्म के नाम पर पैसा बटोरने वाला कभी भी ईमानदार नहीं रह सकता. आर एस एस का तो बहुत नुकसान हुआ, क्योंकि लोगों को समझ में आ गया कि राममंदिर के नाम पर किये गए आन्दोलन का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने के लिए करने वाले लोग धोखेबाज़ होते हैं . मुसलमानों में भी कुछ महत्वाकांक्षी लोग आगे आ गए थे . बाबरी मस्जिद की हिफाज़त के आन्दोलन में शामिल बहुत सारे मुस्लिम नेता ३-४ साल के अन्दर ही बहुत मालदार हो गए थे. कुछ लोग केंद्र और राज्यों में मंत्री बने और कुछ लोग राजदूत वगैरह बन गए. गरज यह कि जनता को अब सब कुछ मालूम पड़ चुका है और ऐसा लगता है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके धोखा देने वालों को वह बख्शने वाली नहीं है .. पिछले २३ वर्षों की राजनीति का यह एक बड़ा सबक रहेगा अगर जनता यह मान ले धर्म की बात करने वालों से धर्म की बात तो की जायेगी लेकिन अगर वे राजनीति की बात करने लगेंगें तो उनसे उसी तरह का बर्ताव किया जाएगा जिस तरह उत्तर प्रदेश की जनता ने बी जे पी से करना शुरू कर दिया है . अगर धर्मनिरपेक्षता की बहस को कुछ देर के लिए भूल भी जाएँ तो बाबरी मस्जिद के नाम पर धंधा करने वालों का जो हस्र हुआ उसे देख कर शायद भविष्य में शातिर से शातिर ठग भी धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने की हिम्मत नहीं करेगा. उस राजनीति में शामिल नेताओं ने पैसा-कौड़ी तो चाहे जितना बना लिया हो लेकिन उनकी विश्वसनीयता शून्य के आसपास ही मंडराती रहती है . शायद इसीलिए इस बार आर एस एस के मुखिया के बयानों में कुछ ट्विस्ट है . आजकल वे कहते पाए जा रहे हैं कि राममंदिर के लिए संतसमाज के आन्दोलन को वे समर्थन देंगें..यानी उन्हें भी इस बात का अंदाज़ लग गया है कि धर्म के नाम पर राजनीति करके सत्ता नहीं मिलने वाली है .बाबरी मस्जिद के खिलाफ जब आर एस एस ने आन्दोलन शुरू किया था तो सूचना की क्रान्ति नहीं आई थी . बहुत सारी बातें ऐसी भी लोगों ने सच मान ली थीं जो कि वास्तव में झूठ थीं लेकिन किसी मकसद को हासिल करने के लिए निहित स्वार्थ के लोग फैला रहे थे .अब ऐसा नहीं है . किसी भी नेता के लिए झूठ बोलकर पार पाना मुश्किल है क्योंकि चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल ऐसा नहीं होने देंगें . इसलिए ऐसा लगता है कि अब धार्मिक आधार पर राजनीतिक लाभ के लिए, आम आदमी को उकसाना उतना आसान नहीं होगा, जितना बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले था