पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले के एक बहुत छोटे से कस्बे खतौली में भी दंगा हो गया है .इसके पहले बरेली में हुआ था. ह्यद४एरबद में दंगा चल ही रहा है . इसी तरह से और भी इलाकों में छिटपुट घटनाएं हो रही हैं . अगर कहीं मामला थोडा और गरम हो जाए तो छोटी मोटी घटनाओं को दंगा बनने में देर नहीं लगती. .अब उत्तर भारत में मौसम भी गरम हो रहा है .ऐसे मौसम में मामूली विवाद भी बढ़ जाता है और अगर झगडा अलग अलग सम्प्रदाय के लोगों के बीच हो तो निहित स्वार्थ वाले उसे दंगे में बदल देते हैं .जब दंगा होता है तो चारों तरफ पागलपन का माहौल बन जाता है और सब अंधे हो जाते हैं . ज़ाहिर है कि समझदारी की बात कोई नहीं करता. दंगा वास्तव में सभ्य समाज पर कलंक है . सवाल यह पैदा होता है कि दंगे होते क्यों हैं .सीधा सा जवाब यह है कि राजनीति में सक्रिय लोग लोगों को बेचारा साबित करने के लिए दंगा करवाते हैं .अंग्रेजों ने जब 19२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन में देखा कि पूरा मुल्क गाँधी के साथ खड़ा है . हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रहे है तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रबंधकों को लगा कि अगर पूरा देश एक हो गया तो मुट्ठी भर अँगरेज़ भारत में राज नहीं कर सकेंगें . अंग्रेजों ने तय किया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फर्क डाले बिना भारत को गुलाम नहीं बनाया जा सकता. १९२० के बाद के भारत की राजनीति पर गौर करें तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि अंग्रेजों ने हर स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम विभेद की योजना बना दी थी. मुस्लिम लीग को फिर से महात्मा गाँधी से अलग किया, आर एस एस की स्थापना करवाई और वी डी सावरकर को खुला छोड़ दिया. सावरकार को ड्यूटी दी गयी कि वे हिन्दू मात्र को गाँधी से दूर ले जाएँ. इसी दौर में सावरकार ने अपनी किताब हिन्दुत्व लिखी जिसमें हिन्दू धर्म को राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की बात की गयी. अंग्रेजों के आशीर्वाद से पहला संगठित दंगा १९२७ में नागपुर में आयोजित किया गया जिसमें आर एस एस वालों ने प्रमुख भूमिका निभाई. सावरकार पूरी तरह से अंग्रेजों के सेवक बन ही चुके थे . जेल में वी. डी .सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर ३२७७८ के रूप में जाने जाते थे . उन्होंने अपने माफीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वे आगे से अंग्रेजों के हुक्म को मानकर ही काम करेंगें . सावरकर के भक्तों को लगता है कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी नहीं माँगी होगी. ऐसे शंकालु लोगों को चाहिए कि वे नैशनल आर्काइव्ज़ चले जाएँ, वहांसावरकर का माफीनामा बहुत ही संभाल कर रखा हुआ है और इतिहास के किसी भी शोधकर्ता के लिए वह उपलब्ध है . बहरहाल सच्चाई यह है कि आर एस एस उसके सहयोगी संगठन और मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति के झंडाबरदार ही दंगे करवाते हैं .
सवाल यह उठता है कि सभ्य समाज के लोग दंगा रोकने के लिए क्या काम करें . क्योंकि अब दंगे तो बार बार होंगें क्योंकि बी जे पी के नए अध्यक्ष ने तय कर लिया है कि हिन्दुत्व की बिसात पर ही अब उतर भारत में चुनाव लड़े जाने हैं . १९८४ में दो सीटें जीतने के बाद कोलकता में जब आर एस एस के आला नेताओं की बैठक हुई तो उसमें अटल बिहारी वाजपेयी को फटकार दिया गया था और उन्हें बता दिया गया था कि राग हिन्दुत्व ही चलेगा, गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. शहाबुद्दीन टाइप कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की .
सवाल यह उठता है कि दंगों को रोकने के लिएय धर्म निरपेक्ष बिरादरी को क्या करना चाहिए . संघ वाले तो अब दंगों के बाद के ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की योजना बना चुके हैं . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी डी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले आर एस एस वालों ने किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती आर एस एस की ही लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने के लिए संघ की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता है . बरेली, हैदराबाद और खतौली में तो दंगें हो गए अब आगे न होने पायें यही कोशिश करनी चाहिय .
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Friday, April 2, 2010
Friday, March 19, 2010
मुंबई हमलों के सरगना को बचाने में जुटे अमरीका और पाकिस्तान
शेष नारायण सिंह
अमरीकी नागरिक,डेविड कोलमैन हेडली ने २६ नवम्बर २००८ के दिन मुंबई के ताजमहल होटल और उसके आस पास हुए हमलों में अपने शामिल होने की बात स्वीकार करके यह बात साबित कर दिया है कि अमरीका अभी भारत को अपना शत्रु ही मानता है.यह बात ख़ास तौर से सच होती लगती है कि हेडली अमरीकी सरकार में नौकर है और पिछले कई महीने से अमरीकी की खुफिया एजेंसियां उसे बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं .मुंबई में हमला करने वाले आतंकवादियों की डिजाइन ऐसी थी कि भारत की व्यापारिक राजधानी को दहशत की ज़द में लिया जा सके. हमला लगभग उसी शैली का था जैसा अमरीका के वर्ड ट्रेड टावर पर किया गया था . बड़े पैमाने पर नुकसान करने की योजना के साथ किया गया मुंबई हमला आतंकवाद की बड़ी घटना है. लेकिन अब इसमें अमरीकी तार जुड़ गए हैं तो यह और बड़ी घटना मानी जायेगी. मुंबई हमले के शुरू के दौर में ही यह बात साफ़ हो गयी थी कि इतने बड़े पैमाने पर विनाश करने की योजना किसी मामूली दिमाग की उपज नहीं हो सकती .इसमें बड़े गैंग शामिल हैं , यह बात सब को मालूम थी . लेकिन भारत से दोस्ती की नयी पींगें बढ़ा रहे अमरीका की सरकार के लोग इसमें शामिल होंगें , यह शक आम तौर पर नहीं किया जा रहा था. अब जब धीरे धीरे सच्चाई सामने आ रही है तो पता लग रहा है कि अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धर्ता भारत को चैन से नहीं बैठने देना चाहते .
अमरीकी शहर, शिकागो की मुकामी आदालत में हेडली के इक़बालिया बयान का मतलब यह है कि उसने भारत के खिलाफ आतंकवादी साज़िश बनायी भी थी और उसे अंजाम तक पंहुचाया भी था. पूरा अमरीकी अमला उसे निश्चित मृत्युदंड से बचाने के काम में जुट गया है जिसका मतलब यह है कि वह अमरीकी सी आई ए के डर्टी ट्रिक विभाग का ख़ास बंदा है ..भारत पर दबाव बनानेकी गरज से किया गया यह हमला पकिस्तान की विदेश नीति को धार देने में कारगर साबित हुआ लेकिन अब लगता है कि अमरीकी विदेश नीति के योजना कारों की चाल भी यही थी कि भारत पर दबाव डाला जाए जिस से उसे पाकिस्तान के सामने थोडा झुकाया जा सके. लगता है कि अमरीकी और पाकिस्तानी विदेश नीति का वह लक्ष्य तो हासिल नहीं हो सका ,उलटे आतंकवाद के पक्षधर के रूप में पहचाने जाने के खतरे के बीच घिरे अमरीकी नीति नियामक मुसीबत में फंस गए लगते हैं. हेडली का बाप अमरीका का नागरिक बनने के पहले एक पाकिस्तानी अफसर रह चुका था . शुरू के दौर में अमरीका की कोशिश थी कि भारत पर हुए २६/११ के हमले को शुद्ध रूप से पाकिस्तानी कारस्तानी साबित करके पल्ला झाड लिया जाए लेकिन मीडिया में हेडली की पोल खुल जाने के बाद मामला अमरीकी हुकूमत की काबू के बाहर चला गया.अब इस बात में शक नहीं है कि मुंबई हमलों में अमरीकी खुफिया एजेंसियों का हाथ भी था. जहां तक पाकिस्तान के शामिल होने की बात है , उसमें तो कोई शक है ही नहीं .
भारत को कमज़ोर करने की अमरीकी डिजाइन को समझने के लिए समकालीन इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगें . दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब अमरीका एक मज़बूत देश होकर उभरा तो उसकी इच्छा थी कि वह एशिया के नवस्वतंत्र राष्ट्रों को अपने साथ ले लेगा. शीत युद्ध के बीज बोये जा चुके थे , पूरा विश्व दो खेमों में बँट रहा रहा था , कोई अमरीका के साथ जा रहा था ,तो कोई सोवियत रूस के साथ . अमरीकी विदेश नीति की कोशिश थी कि भारत को अपना साथी बना लिया जाए जिसका इस्तेमाल रूस और चीन के खिलाफ हो सकता था लेकिन अमरीका का दुर्भाग्य था कि उस वक़्त देश का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू के हाथ में था जो किसी भी अमरीकी राजनीतिक चिन्तक और दार्शनिक पर भारी पड़ते.. नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की बुनियाद रख दी और बड़ी संख्या में नवस्वतंत्र देशों को अमरीका के खेमे में जाने से रोक दिया .उसके बाद के अमरीकी प्रशासकों ने इस बात का बुरा माना और भारत से दुश्मनी साधना शुरू कर दिया . भारत हाथ नहीं आया तो उन लोगों ने भारत को भौगोलिक रूप से लिहाज़ से घेरने के चक्कर में पाकिस्तान को अपनी चेलाही में ले लिया .. उन दिनों आज का बांगला देश भी पकिस्तान का ही हिस्सा था . ज़ाहिर है भारत के दोनों तरफ अमरीका की हमदर्द फौजें तैनात थी लेकिन भारत की विदेश नीति और सीमाओं की रक्षा की नीति दुरुस्त थी और पाकिस्तान ने जितनी बार भी भारत पर हमला किया ,उसे मुंह की खानी पड़ी. १९६५ और १९७१ में भारत के खिलाफ पकिस्तान की लड़ाई में अमरीकी शह की मात्रा भी थी लेकिन हर बार पकिस्तान का ही नुकसान हुआ. सोवियत रूस के ढह जाने के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए .शीत युद्ध ख़त्म हो गया , अमरीका दुनिया का सबसे ताक़तवर देश बन गया . भारत की विदेश नीति ने भी हिचकोले खाए और दक्षिण पंथियों के प्रभाव में आकर वह भी धीरे धीरे अमरीकापरस्ती के रास्ते पर चल निकली . अफगानिस्तान के आतंक के केन्द्रों के तबाह करने के लिए एक बार फिर अमरीका पकिस्तान को धन दे रहा है लेकिन अब वह भारत से दोस्ती भी करना चाहता है . अफ़सोस की बात है कि इस दोस्ती में भी वह खेल शातिराना ही रख रहा है . भारत पर तरह तरह के दबाव बनाकर उसे कमज़ोर दोस्त बनाने की अमरीका की कोशिश को किसी भी हालत में सही नहीं ठहराया जा सकता.अगर अमरीका चाहता है कि भारत से अच्छे सम्बन्ध बनें तो उसे फ़ौरन हेडली को भारत के हवाले करना चाहिए क्योंकि उसने भारत पर हुए कई हमलों में अपने शामिल होने की बात को कुबूल किया है .वह वास्तव में भारत का दुश्मन है और उसे बचाने की कोशिश करके अमरीका भारत विरोधी काम कर रहा है. एक बार अगर हेडली भारत की जांच एजेंसियों के कब्जे में आ गया तो पाकिस्तानी सरकार और वहां की फौज को मुंबई हमलों का अपराधी साबित करना बहुत आसान हो जाएगा.
अमरीकी नागरिक,डेविड कोलमैन हेडली ने २६ नवम्बर २००८ के दिन मुंबई के ताजमहल होटल और उसके आस पास हुए हमलों में अपने शामिल होने की बात स्वीकार करके यह बात साबित कर दिया है कि अमरीका अभी भारत को अपना शत्रु ही मानता है.यह बात ख़ास तौर से सच होती लगती है कि हेडली अमरीकी सरकार में नौकर है और पिछले कई महीने से अमरीकी की खुफिया एजेंसियां उसे बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं .मुंबई में हमला करने वाले आतंकवादियों की डिजाइन ऐसी थी कि भारत की व्यापारिक राजधानी को दहशत की ज़द में लिया जा सके. हमला लगभग उसी शैली का था जैसा अमरीका के वर्ड ट्रेड टावर पर किया गया था . बड़े पैमाने पर नुकसान करने की योजना के साथ किया गया मुंबई हमला आतंकवाद की बड़ी घटना है. लेकिन अब इसमें अमरीकी तार जुड़ गए हैं तो यह और बड़ी घटना मानी जायेगी. मुंबई हमले के शुरू के दौर में ही यह बात साफ़ हो गयी थी कि इतने बड़े पैमाने पर विनाश करने की योजना किसी मामूली दिमाग की उपज नहीं हो सकती .इसमें बड़े गैंग शामिल हैं , यह बात सब को मालूम थी . लेकिन भारत से दोस्ती की नयी पींगें बढ़ा रहे अमरीका की सरकार के लोग इसमें शामिल होंगें , यह शक आम तौर पर नहीं किया जा रहा था. अब जब धीरे धीरे सच्चाई सामने आ रही है तो पता लग रहा है कि अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धर्ता भारत को चैन से नहीं बैठने देना चाहते .
अमरीकी शहर, शिकागो की मुकामी आदालत में हेडली के इक़बालिया बयान का मतलब यह है कि उसने भारत के खिलाफ आतंकवादी साज़िश बनायी भी थी और उसे अंजाम तक पंहुचाया भी था. पूरा अमरीकी अमला उसे निश्चित मृत्युदंड से बचाने के काम में जुट गया है जिसका मतलब यह है कि वह अमरीकी सी आई ए के डर्टी ट्रिक विभाग का ख़ास बंदा है ..भारत पर दबाव बनानेकी गरज से किया गया यह हमला पकिस्तान की विदेश नीति को धार देने में कारगर साबित हुआ लेकिन अब लगता है कि अमरीकी विदेश नीति के योजना कारों की चाल भी यही थी कि भारत पर दबाव डाला जाए जिस से उसे पाकिस्तान के सामने थोडा झुकाया जा सके. लगता है कि अमरीकी और पाकिस्तानी विदेश नीति का वह लक्ष्य तो हासिल नहीं हो सका ,उलटे आतंकवाद के पक्षधर के रूप में पहचाने जाने के खतरे के बीच घिरे अमरीकी नीति नियामक मुसीबत में फंस गए लगते हैं. हेडली का बाप अमरीका का नागरिक बनने के पहले एक पाकिस्तानी अफसर रह चुका था . शुरू के दौर में अमरीका की कोशिश थी कि भारत पर हुए २६/११ के हमले को शुद्ध रूप से पाकिस्तानी कारस्तानी साबित करके पल्ला झाड लिया जाए लेकिन मीडिया में हेडली की पोल खुल जाने के बाद मामला अमरीकी हुकूमत की काबू के बाहर चला गया.अब इस बात में शक नहीं है कि मुंबई हमलों में अमरीकी खुफिया एजेंसियों का हाथ भी था. जहां तक पाकिस्तान के शामिल होने की बात है , उसमें तो कोई शक है ही नहीं .
भारत को कमज़ोर करने की अमरीकी डिजाइन को समझने के लिए समकालीन इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगें . दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब अमरीका एक मज़बूत देश होकर उभरा तो उसकी इच्छा थी कि वह एशिया के नवस्वतंत्र राष्ट्रों को अपने साथ ले लेगा. शीत युद्ध के बीज बोये जा चुके थे , पूरा विश्व दो खेमों में बँट रहा रहा था , कोई अमरीका के साथ जा रहा था ,तो कोई सोवियत रूस के साथ . अमरीकी विदेश नीति की कोशिश थी कि भारत को अपना साथी बना लिया जाए जिसका इस्तेमाल रूस और चीन के खिलाफ हो सकता था लेकिन अमरीका का दुर्भाग्य था कि उस वक़्त देश का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू के हाथ में था जो किसी भी अमरीकी राजनीतिक चिन्तक और दार्शनिक पर भारी पड़ते.. नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की बुनियाद रख दी और बड़ी संख्या में नवस्वतंत्र देशों को अमरीका के खेमे में जाने से रोक दिया .उसके बाद के अमरीकी प्रशासकों ने इस बात का बुरा माना और भारत से दुश्मनी साधना शुरू कर दिया . भारत हाथ नहीं आया तो उन लोगों ने भारत को भौगोलिक रूप से लिहाज़ से घेरने के चक्कर में पाकिस्तान को अपनी चेलाही में ले लिया .. उन दिनों आज का बांगला देश भी पकिस्तान का ही हिस्सा था . ज़ाहिर है भारत के दोनों तरफ अमरीका की हमदर्द फौजें तैनात थी लेकिन भारत की विदेश नीति और सीमाओं की रक्षा की नीति दुरुस्त थी और पाकिस्तान ने जितनी बार भी भारत पर हमला किया ,उसे मुंह की खानी पड़ी. १९६५ और १९७१ में भारत के खिलाफ पकिस्तान की लड़ाई में अमरीकी शह की मात्रा भी थी लेकिन हर बार पकिस्तान का ही नुकसान हुआ. सोवियत रूस के ढह जाने के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए .शीत युद्ध ख़त्म हो गया , अमरीका दुनिया का सबसे ताक़तवर देश बन गया . भारत की विदेश नीति ने भी हिचकोले खाए और दक्षिण पंथियों के प्रभाव में आकर वह भी धीरे धीरे अमरीकापरस्ती के रास्ते पर चल निकली . अफगानिस्तान के आतंक के केन्द्रों के तबाह करने के लिए एक बार फिर अमरीका पकिस्तान को धन दे रहा है लेकिन अब वह भारत से दोस्ती भी करना चाहता है . अफ़सोस की बात है कि इस दोस्ती में भी वह खेल शातिराना ही रख रहा है . भारत पर तरह तरह के दबाव बनाकर उसे कमज़ोर दोस्त बनाने की अमरीका की कोशिश को किसी भी हालत में सही नहीं ठहराया जा सकता.अगर अमरीका चाहता है कि भारत से अच्छे सम्बन्ध बनें तो उसे फ़ौरन हेडली को भारत के हवाले करना चाहिए क्योंकि उसने भारत पर हुए कई हमलों में अपने शामिल होने की बात को कुबूल किया है .वह वास्तव में भारत का दुश्मन है और उसे बचाने की कोशिश करके अमरीका भारत विरोधी काम कर रहा है. एक बार अगर हेडली भारत की जांच एजेंसियों के कब्जे में आ गया तो पाकिस्तानी सरकार और वहां की फौज को मुंबई हमलों का अपराधी साबित करना बहुत आसान हो जाएगा.
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