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Friday, November 4, 2011

क्य भ्रष्टाचार से जूझ रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है .

शेष नारायण सिंह
( इस लेख का संपादित संस्करण नवभारत टाइम्स में २-११-२०११ को छप चुका है )

अन्ना हजारे के साथियों ने दिल्ली से सटे महानगर गाज़ियाबाद में एक बैठक करके कहा है कि उनके संगठन में को समस्या नहीं है .जिस तरह से अब तक काम चलता रहा है,वैसे ही चलता रहेगा .गाज़ियाबाद की बैठक में सरकार पर आरोप भी लगाए गए कि वह अन्ना के साथियों को चुन चुन कर परेशान कर रही है .टीम अन्ना ने सरकार की नीयत पर सवाल उठाने के साथ साथ यह भी साफ़ कर दिया है कि सरकार के आरोपों की परवाह किये बिना उनका काम चलता रहेगा . किसी भी संगठन के लिए अपने आपको ,अपनी नीतियों को और अपने साथियों को सही ठहराना बिलकुल जायज़ काम है . उस से संगठन को मजबूती मिलती है. लेकिन जब किसी संगठन की सारी पूंजी ही उसकी ईमानदारी और पारदर्शिता हो तो उस संगठन को अपनी छवि को पाक साफ़ रखना बहुत ज़रूरी होता है . अन्ना की टीम के लिए भी यह ज़रूरी है कि वह अपने को अन्ना जैसा तो नहीं,उनसे थोडा कम ही सही लेकिन ईमानदार बनाए रखे .गाज़ियाबाद की बैठक के बाद अन्ना के साथियों ने अपने लोगों के खिलाफ हो रही चर्चाओं पर बात को स्पष्ट करने की बजाय उसको इग्नोर करने की कोशिश की. यह किसी राजनीतिक पार्टी या किसी अन्य संगठन के लिए तो सही रणनीति हो सकती है लेकिन जो संगठन समाज से भ्रष्टाचार ख़त्म करने की लड़ाई लड़ रहा हो के सबसे ज्यादा नुकसानदेह रोग से लड़ रहा हो उसे सीज़र की पत्नी की तरह शक़ के घेरे से बाहर होना चाहिए .

यहाँ यह समझ लेने की ज़रुरत है कि अन्ना के साथियों पर जो आरोप लगे हैं उनमें से कई भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आते हैं . यह कहकर कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है ,टीम अन्ना के लोग अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते. उन्हें तो यह साबित करना पडेगा कि आरोप गलत हैं और सरकार वाले उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं . देश को यह भी समझाना पड़ेगा कि सरकार बदले की भावना से काम कर रही है .जब तक आरोपों को ही गलत न साबित कर दिया जाए तब तक उनसे बचना संभव नहीं होगा. पिछले कुछ दिनों से अन्ना की टीम वालों के बारे में तरह तरह की बातें अखबारों में छप रही हैं . स्वामी अग्निवेश बहुत शुरू में मीडिया के हत्थे चढ़ गए थे , बाद में अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी भ्रष्ट आचरण की बहस की ज़द में आ गए. बाद में खबर आयी कि रामलीला मैदान में जो दान का धन इकठ्ठा हुआ था उसमें भी पारदर्शिता नहीं है . कुमार विश्वास नाम के एक सदस्य भी अपने कर्तव्य से विमुख हुए हैं . गाज़ियाबाद के किसी कालेज में पढ़ाते हैं जहां वे बहुत दिन से हाज़िर नहीं हुए. हालांकि कुमार विश्वास जी ने टीम अन्ना को बदल देने की बात करके बहस को एक नया आयाम देने की कोशिश कर दी है. इन विवादों में फंसे सभी लोगों ने अपने जवाब दे दिए हैं और उनको लगता है कि मामला ख़त्म हो गया . जो भी मामले मीडिया में चर्चा में हैं उनमें से अरविंद केजरीवाल वाले नौलखा मामले के अलावा किसी भी केस में सरकारी जांच नहीं हो रही है . ज़ाहिर है इन मुद्दों पर कोई फालो अप कार्रवाई नहीं होगी. लेकिन इन मुद्दों से यह तो साफ़ हो ही जाता है कि अन्ना के साथ लगे हुए लोग बहुत पाक साफ़ नहीं हैं . उन्होंने भी वे गलतियाँ की हैं जो साधारण लोग कर बैठते हैं .

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .१८५७ में इस देश के आम आदमी ने अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ लड़ने के मन बनाया था. उस लड़ाई में सभी तो नहीं शामिल हुए थे लेकिन मानसिक रूप से देश की अवाम अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार थी. सही लीडरशिप नहीं थी इसलिए उस दौर के आम आदमी का आज़ाद होने का सपना बिखर गया. दोबारा यह मौक़ा तुरंत नहीं आया. साठ साल के इंतज़ार के बाद यह मौक़ा फिर मिला जब अंग्रेजों का अत्याचार सभी सीमाएं लांघ चुका था .जलियाँवाला बाग़ में हुए अंग्रेज़ी सत्ता के बेशर्म प्रदर्शन के बाद पूरे देश में सत्ता के खिलाफ गुस्सा था. ठीक इसी वक़्त महात्मा गाँधी ने आम आदमी के गुस्से को एक दिशा दे दी.आम आदमी का वही गुस्सा बाद में आज़ादी की लड़ाई की शक्ल अख्तियार करने में कामयाब हुआ . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले २५ साल के संघर्ष के बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने हार मान ली और देश आज़ाद हो गया . उस राजनीतिक घटना के साठ साल बाद आज फिर इस देश का आम आदमी आर्थिक भ्रष्टाचार के आतंक के नीचे दब गया है . वह आर्थिक भ्रष्टाचार के निरंकुश तंत्र से आज़ादी चाहता है . आज देश में भ्रष्टाचार का आतंक ऐसा है कि चारों तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है , देश के गाँवों में और शहरों के गली कूचों में लोग भ्रष्टाचार की गर्मी में झुलस रहे हैं . शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. सूचना क्रान्ति के चलते पूरे देश में अन्ना की मुहिम का सन्देश पंहुच गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मसीहा मिल गया था . लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं .अब यह शंका पैदा होने लगी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शायद अब आगे नहीं चल पायेगी.

अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अप्रैल से अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले आठ महीने में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो नमें जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है