शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के पहले सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है .इस बार के चुनाव में सभी दलों को पता है कि सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है. शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक साबित करने के चक्कर हैं . जब टेलिविज़न की खबरों का ज़माना नहीं था तो एक ख़ास विचारधारा के लोग अफवाहों के सहारे चुनावों के ठीक पहले राज्य के कुछ मुसलिम बहुल इलाकों में साम्प्रदायिक दंगा करवा लेते थे और उनकी अपनी सीट साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नाम पर निकल जाती थी . लेकिन टी वी न्यूज़ की बहुत बड़े पैमाने पर मौजूदगी के चलते अब अफवाहों की बिना पर दंगा करवा पाना बहुत मुश्किल हो गया है . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार विचारधारा वाले तो अब मुसलमानों के ध्रुवीकरण की उम्मीद छोड़ चुके हैं . लेकिन बाकी तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमानों की असली शुभचिन्तक हैं . समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की प्रिय पार्टी के रूप में पेश किया जाता रहा है .इसमें सच्च्चाई भी थी. जब भी समाजवादी पार्टी को मौक़ा मिला उसने मुसलमानों के समाजिक और आर्थिक स्तर को सुधारने की कोशिश की . कभी राज्य में उर्दू को बढ़ावा दिया तो कभी पुलिस जैसी सरकारी नकारियों में मुसलमानों को बड़ी संख्या में भर्ती किया . लेकिन पिछले लोक सभा चुनावों के ठीक पहले बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सज़ा पा चुके नेता कल्याण सिंह को सम्मान सहित पार्टी में भर्ती करके समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को बहुत निराश किया था . उसका नतीजा भी लोकसभा चुनावों में सामने आ गया था . समाजवादी पार्टी २००४ में करीब ४० सीटें जीतकर लोक सभा पंहुची थी वहीं २००९ में बीस के आस पास रह गयी . हालांकि मुसलमानों ने पूरी तरह तो साथ नहीं छोड़ा था लेकिन कल्याण सिंह के प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी मुसलमानों की प्रिय पार्टी नहीं रह गयी थी. कल्याण सिंह के भर्ती होने के बाद पैदा हुई समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराज़गी को कांग्रेस ने अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी . कांग्रेस पार्टी को भी मुसलमानों के बीच ६ दिसंबर १९९२ के बाद पसंद नहीं किया जाता था . उसके कई कारण थे. सबसे बड़ा तो यही कि १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के लिए कांग्रेस पार्टी भी कम ज़िम्मेदार नहीं थी. ६ दिसंबर १९९२ के दिन दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा था ,पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह पर भरोसा किया था कि वे बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करेगें . अजीब बात है कि कांग्रेस ने कल्याण सिंह पर भरोसा किया जबकि हर सरकारी अफसर को मालूम था कि बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ करने की योजना बन चुकी थी और उस साज़िश में कल्याण सिंह बाकायदा शामिल थे . . कांग्रेस की इस मिलीभगत के कारण मुसलमानों और सेकुलर जमातों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था . लेकिन जब से राहुल गांधी ने मैदान लिया है उन्होंने मुसलमानों का भरोसा हासिल करने में थोड़ी बहुत सफलता हासिल की है .जानकार बाते हैं कि उनकी कोशिश का ही नतीजा था कि लोक सभा २००९ में कांग्रेस को बीस से ज्यादा सीटों पर सफलता मिली. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमानों की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमानों का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. अब सभी गैर बीजेपी पार्टियां रंगनाथ मिश्रा कमीशन की बात करने लगी हैं और उस तरफ कुछ काम भी हो रहा है . मसलन जब यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमानों का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई . जबकि सच्चाई यह है कि इस साढ़े चार प्रतिशत वाली बात से मुसलमानों का कोई भला नहीं होने वाला है . क्योंकि उनको इस साढ़े चार प्रतिशत के लिए सिख, ईसाई , जैन और बौध समाज से कम्पटीशन करना पडेगा. ज़ाहिर है यह सारा का सारा साढ़े चार प्रतिशत इन्हीं अल्पसंख्यक समुदायों के हिस्से में जाएगा जो शैक्षिक रूप से आगे हैं . लेकिन कांग्रेस के नेताओं के भाषणों के हवाले से बाद में सामाजिक न्याय की पक्षधर जमातें कांग्रेस को मजबूर कर सकती हैं कि वह शुद्ध रूप से मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों का कुछ प्रतिशत अलग से रिज़र्व कर दे .
बहरहाल अब एक बात साफ़ है कि पुराने तरीकों को इस्तेमाल करके अब मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाना थोडा मुश्किल होगा. मसलन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने अधिक संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को ज़ाहिर करने की कोशिश की है .कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को दिखाने की कोशिश की है . लेकिन मुसलिम नौजवानों का मौजूदा वर्ग इस बात से प्रभावित नहीं हो रहा है . वह सवाल पूछ रहा है कि कुछ संपन्न और ताक़तवर मुसलमानों को एम पी ,एम एल ए बनाकर कोई भी पार्टी आम मुसलमान को कैसे संतुष्ट कर सकती है . अब मुसलामान कुछ सत्ता प्रेमी मुसलमानों को मिली हुई इज़्ज़त से खुश होने को तैयार नहीं है . वह इंसाफ़ की मांग करने लगा है . उसे शिक्षा चाहिए , उसे सरकारी नौकरियों और निजी औद्योगिक क्षेत्र में अपना हक चाहिए . कुछ मुसलमानों के सामने टिकट की खैरात फेंक कर आम मुसलमान को संतुष्ट कर पाना अब नामुमकिन है . इसीलिये देखा यह जा रहा है कि सच्चर और रंगनाथ मिश्रा को जिस सम्मान की नज़र से मुस्लिम समाज में देखा जाता है ,वह इज्ज़त किसी भी मुस्लिम राजनेता को मयस्सर नहीं है .वैसे भी मुसलमान हर उस आदमी की इज़्ज़त करता है जो उसके लिए न्याय की बात करता अहै . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो भी मुसलमान राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेता है वह मुसलमानों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव २०१२ के पहले जो माहौल बन रहा है वह इस देश के आम मुसलमान के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होगा. मसलन कांग्रेस अपने साढ़े चार प्रतिशत के अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताने की कोशिश में जब नाकाम हो गयी तो अपने एक मुस्लिम मंत्री से बयान दिलवा दिया कि अब मुसलमानों को ९ प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. इस बात को मीडिया का इस्तेमाल करके गरमाने की कोशिश भी की जा रही है .. कांग्रेस की इस कोशिश को आम मुसलमान गंभीरता से ले रहा है . उधर समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के लिए १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन की बात करना शुरू कर दिया है . समाजवादी पार्टी की इस बात को चुनावी स्टंट ही माना जा रहा है . यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता इतनी ज्यादा है कि उनकी बात को लोग हल्का नहीं मानते,लेकिन लोगों को यह भी मालूम है कि फिलहाल मुसलमानों को १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन देना राजनीतिक रूप से किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं है .
इस चुनाव की एक और दिलचस्प बात यह है कि भावनात्मक मुद्दों को उठाने की कोई कोशिश काम नहीं आ रही है . कल्याण सिंह का हिन्दू हृदय सम्राट वाला चोला बिलकुल बेकार साबित हो रहा है . अपने इलाके में अपनी बिरादरी के कुछ लोगों के अलावा वह किसी के हृदय सम्राट नहीं बन पा रहे हैं .ज़ाहिर है वे चुनावों में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभा पायेगें .. बाबरी मस्जिद केस में उनकी सह अभियुक्त उमा भारती को भी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यू पी में अहम भूमिका देने की कोशिश की है लेकिन उनकी मौजूदगी भी कट्टर हिन्दूवादी वोटरों पर वह असर नहीं डाल पा रही है जो १९९२ के बाद के चुनावों में थी. यही हाल बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वाले मुसलमानों का भी है . उस वक़्त के ज़्यादातर नेता तो पता नहीं कहाँ चले गए हैं .. जो एकाध कहीं नज़र भी रहे हैं उनकी मुसलमानों की बीच कोई ख़ास औकात नहीं है ..दरअसल इस चुनाव में यह बात बिकुल साफ़ हो गयी है कि अब मुसलमान ज़ज़बाती मुद्दों को अपनाने को तैयार नहीं है. उसे तो इंसाफ़ चाहिए और अपना हक चाहिए . उसे विकास चाहिए और सामान अवसर चाहिए . अगर उत्तर प्रदेश का मुसलमान इस बार इन मुद्दों को चुनाव की मुख्य धारा बनाने में कामयाब हो गया तो देश का और मुसलमान का मुस्तकबिल अच्छा होगा अब सभी मानने लगे हैं कि मुसलमान जज्बाती होकर फैसला नहीं करने वाला है . वह किसी भी दंगाई की बात में नहीं आने वाला है . यह संकेत २००७ में ही मिलना शुरू हो गया था. जब २००७ के विधान सभा चुनाव के ठीक पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे कुछ होर्डिंग लगा दिए गए थे, सी डी बांटी गयी थी और मुसलमानों को और तरीकों से भड़काने की कोशिश की गयी थी तो मुसलमानों ने आम तौर पर उस कोशिश को नज़र अंदाज़ किया था. उसके बाद के किसी भी चुनाव में भड़काऊ बयान या चुनाव सामग्री का बाज़ार नहीं चल पाया .शायद इसीलिये मौजूदा चुनाव भी विकास के मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता नज़र आ रहा है . और सभी पार्टियों के मालूम है कि इस बार मुसलमानों की निर्णायक मदद के बिना सरकार नहीं बनने वाली है .
इंसाफ़ की इस लड़ाई में इस बार उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .मुसलमानों की संख्या के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां उनकी मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौत सीटें पड़ती हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है जहां मुसलमानों के वोट के लिए तीन अहम पार्टियां जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहां यह वोटर इंसाफ़ की जद्दो जहद में एक ज़बरदस्त भूमिका निभा सकते हैं . ऐसा लगता है अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के जज़्बात को भड़का कार राजनीति करना मुश्किल होगा. अब राजनीतिक पार्टियों को असली मुद्दों को संबोधित करना पडेगा.
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Monday, January 23, 2012
Sunday, May 16, 2010
आर्थिक विकास के साथ साथ सामाजिक विकास भी ज़रूरी
शेष नारायण सिंह
हमारे समाज में लोगों को अपने को सही और दूसरों को गलत मानने की बीमारी जोर पकडती जा रही है .शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर बदलाव हो रहे हैं . ग्रामीण इलाकों के लड़के लडकियां उच्च और प्रोफेशनल शिक्षा के ज़रिये सफलता हासिल करने की कोशिश में लगे हुए हैं . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों की लड़कियों को उनके माता पिता , दसवीं की पढ़ाई करने के लिए २ मील दूर नहीं जाने देते थे , उन इलाकों की लडकियां दिल्ली, पुणे, बंगलोर नोयडा ,ग्रेटर नोयडा में स्वतन्त्र रूप से रह रही हैं और शिक्षा हासिल कर रही हैं . उनके माता पिता को भी मालूम है कि बच्चे पढ़ लिख कर जीवन में कुछ हासिल करने लायक बन जायेंगें . लेकिन अभी भारत के मध्यवर्गीय समाज में यह जागरूकता नहीं है कि शिक्षा के विकास के बाद जब पश्चिमी देशों की तरह बच्चे आत्म निर्भर होंगें तो उनको अपनी निजी ज़िंदगी में भी स्पेस चाहिए . उनको अपनी ज़िंदगी के अहम फैसले खुद लेने कीआज़ादी उन्हें देनी पड़ेगी लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . ताज़ा मामला झारखण्ड की पत्रकार निरुपमा पाठक का है . उसके माता पिता ने उसे पत्रकारिता की शिक्षा के लिए दिल्ली भेजा, लड़की कुशाग्रबुद्धि की थी, उसने अपनी कोशिश से नौकरी हासिल की और अपनी भावी ज़िंदगी की तैयारियां करने लगी. अपने साथ पढने वाले एक लडके को पसंद किया और उसके साथ घर बसाने का सपना देखने लगी. जब वह घर से चली थी तो उसके माता पिता अपने दोस्तों के बीच हांकते थे कि उनकी बेटी बड़ी सफल है और वे उसकी इच्छा का हमेशा सम्मान करते हैं . लेकिन अब पता चला है कि वे तभी तक अपनी बच्ची की इज्ज़त करते थे जब तक वह उनकी हर बात मानती थी लेकिन जैसे ही उसने उनका हुक्म मानने से इनकार किया , उन्होंने उसे मार डाला . यह तो बस एक मामला है . ऐसे बहुत सारे मामले हैं .. इसके लिए बच्चों के माँ बाप को कसाई मान लेने से काम नहीं चलने वाला है . वास्तव में यह एक सामाजिक समस्या है . अभी लोग अपने पुराने सामाजिक मूल्यों के साथ जीवित रहना चाहते हैं . इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे नए मूल्यों को अपनाना नहीं चाहते . शायद वे चाहते हों लेकिन अभी पूंजीवादी रास्ते पर तो विकास आर्थिक क्षेत्र में पींगें मार रहा है लेकिन परिवार और समाज के स्तर पर किसी तरह का मानदंड विकसित नहीं हो रहा है . नतीजा यह हो रहा है कि पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में भारत के ग्रामीण समाज के लोग सामन्ती मूल्यों के साथ जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं . खाप पंचायतों के मामले को भी इसी सांचे में फिट करके समझा जा सकता है . सूचना क्रान्ति के चलते गाँव गाँव में लडके लड़कियां वह सब कुछ देख रहे हैं जो पश्चिम के पूंजीवादी समाजों में हो रहा है . वह यहाँ भी हो सकता है . दो नौजवान एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं लेकिन फिर उन्हें उसके आगे बढ़ने की अनुमति सामंती इंतज़ाम में नहीं मिल पाती . दिल्ली के पास के दादरी इलाके में यही हुआ. वहां पंचायत को इस बात पर एतराज़ था कि जिन दो गावों के लोग अपने को एक ही परिवार का मानते हैं और लडके लड़कियों के बीच भाई बहन का रिश्ता होता है , वे शादी कैसे कर सकते हैं . पुराने समय में तो यह व्यवस्था एक तरह से सुरक्षा की शील्ड थी लेकिन अब ज़माना बदल गया है .लड़कियों की सुरक्षा के और भी अच्छे तरीके विकसित हो गए हैं तो ऐसी हालत में इन मान्यताओं को बदला जा सकता है लेकिन पंचायत और और बिरादरी के लोग अड़े हुए हैं लिहाज़ा पुलिस की सुरक्षा में शादी विवाह संपन्न हो रहे हैं.
इसी तरह के बहुत सारे मामले हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भी सुने जाते हैं . दुर्भाग्य यह है कि सरकारें और दिल्ली में बैठे बुद्धिजीवी इसे कानून व्यवस्था की समस्या मानते हैं और नेता सच कहने से भागते हैं . वास्तव में यह सामाजिक विकास की समस्या है . इसको हल करने के लिए पुलिस वालों की नहीं , समाजशास्त्रियों की ज़रुरत है ,सामाजिक विघटन और संयुक्त परिवार के ख़त्म होने की बारीकियों की रोशनी में इन समस्याओं को समझने की ज़रुरत है . आर्थिक और औद्योगिक विकास के साथ साथ समाज और परिवार के जीवन मूल्यों के विकास के बिना यह समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहेंगी. इस काम को दुरुस्त करने के लिए जनमत बनाना पड़ेगा और जनमत बनाने वाले लोगों बुद्धिजीवियों , राजनेताओं और मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यह पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है .
हमारे समाज में लोगों को अपने को सही और दूसरों को गलत मानने की बीमारी जोर पकडती जा रही है .शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर बदलाव हो रहे हैं . ग्रामीण इलाकों के लड़के लडकियां उच्च और प्रोफेशनल शिक्षा के ज़रिये सफलता हासिल करने की कोशिश में लगे हुए हैं . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों की लड़कियों को उनके माता पिता , दसवीं की पढ़ाई करने के लिए २ मील दूर नहीं जाने देते थे , उन इलाकों की लडकियां दिल्ली, पुणे, बंगलोर नोयडा ,ग्रेटर नोयडा में स्वतन्त्र रूप से रह रही हैं और शिक्षा हासिल कर रही हैं . उनके माता पिता को भी मालूम है कि बच्चे पढ़ लिख कर जीवन में कुछ हासिल करने लायक बन जायेंगें . लेकिन अभी भारत के मध्यवर्गीय समाज में यह जागरूकता नहीं है कि शिक्षा के विकास के बाद जब पश्चिमी देशों की तरह बच्चे आत्म निर्भर होंगें तो उनको अपनी निजी ज़िंदगी में भी स्पेस चाहिए . उनको अपनी ज़िंदगी के अहम फैसले खुद लेने कीआज़ादी उन्हें देनी पड़ेगी लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . ताज़ा मामला झारखण्ड की पत्रकार निरुपमा पाठक का है . उसके माता पिता ने उसे पत्रकारिता की शिक्षा के लिए दिल्ली भेजा, लड़की कुशाग्रबुद्धि की थी, उसने अपनी कोशिश से नौकरी हासिल की और अपनी भावी ज़िंदगी की तैयारियां करने लगी. अपने साथ पढने वाले एक लडके को पसंद किया और उसके साथ घर बसाने का सपना देखने लगी. जब वह घर से चली थी तो उसके माता पिता अपने दोस्तों के बीच हांकते थे कि उनकी बेटी बड़ी सफल है और वे उसकी इच्छा का हमेशा सम्मान करते हैं . लेकिन अब पता चला है कि वे तभी तक अपनी बच्ची की इज्ज़त करते थे जब तक वह उनकी हर बात मानती थी लेकिन जैसे ही उसने उनका हुक्म मानने से इनकार किया , उन्होंने उसे मार डाला . यह तो बस एक मामला है . ऐसे बहुत सारे मामले हैं .. इसके लिए बच्चों के माँ बाप को कसाई मान लेने से काम नहीं चलने वाला है . वास्तव में यह एक सामाजिक समस्या है . अभी लोग अपने पुराने सामाजिक मूल्यों के साथ जीवित रहना चाहते हैं . इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे नए मूल्यों को अपनाना नहीं चाहते . शायद वे चाहते हों लेकिन अभी पूंजीवादी रास्ते पर तो विकास आर्थिक क्षेत्र में पींगें मार रहा है लेकिन परिवार और समाज के स्तर पर किसी तरह का मानदंड विकसित नहीं हो रहा है . नतीजा यह हो रहा है कि पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में भारत के ग्रामीण समाज के लोग सामन्ती मूल्यों के साथ जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं . खाप पंचायतों के मामले को भी इसी सांचे में फिट करके समझा जा सकता है . सूचना क्रान्ति के चलते गाँव गाँव में लडके लड़कियां वह सब कुछ देख रहे हैं जो पश्चिम के पूंजीवादी समाजों में हो रहा है . वह यहाँ भी हो सकता है . दो नौजवान एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं लेकिन फिर उन्हें उसके आगे बढ़ने की अनुमति सामंती इंतज़ाम में नहीं मिल पाती . दिल्ली के पास के दादरी इलाके में यही हुआ. वहां पंचायत को इस बात पर एतराज़ था कि जिन दो गावों के लोग अपने को एक ही परिवार का मानते हैं और लडके लड़कियों के बीच भाई बहन का रिश्ता होता है , वे शादी कैसे कर सकते हैं . पुराने समय में तो यह व्यवस्था एक तरह से सुरक्षा की शील्ड थी लेकिन अब ज़माना बदल गया है .लड़कियों की सुरक्षा के और भी अच्छे तरीके विकसित हो गए हैं तो ऐसी हालत में इन मान्यताओं को बदला जा सकता है लेकिन पंचायत और और बिरादरी के लोग अड़े हुए हैं लिहाज़ा पुलिस की सुरक्षा में शादी विवाह संपन्न हो रहे हैं.
इसी तरह के बहुत सारे मामले हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भी सुने जाते हैं . दुर्भाग्य यह है कि सरकारें और दिल्ली में बैठे बुद्धिजीवी इसे कानून व्यवस्था की समस्या मानते हैं और नेता सच कहने से भागते हैं . वास्तव में यह सामाजिक विकास की समस्या है . इसको हल करने के लिए पुलिस वालों की नहीं , समाजशास्त्रियों की ज़रुरत है ,सामाजिक विघटन और संयुक्त परिवार के ख़त्म होने की बारीकियों की रोशनी में इन समस्याओं को समझने की ज़रुरत है . आर्थिक और औद्योगिक विकास के साथ साथ समाज और परिवार के जीवन मूल्यों के विकास के बिना यह समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहेंगी. इस काम को दुरुस्त करने के लिए जनमत बनाना पड़ेगा और जनमत बनाने वाले लोगों बुद्धिजीवियों , राजनेताओं और मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यह पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है .
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