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Sunday, May 16, 2010

आर्थिक विकास के साथ साथ सामाजिक विकास भी ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

हमारे समाज में लोगों को अपने को सही और दूसरों को गलत मानने की बीमारी जोर पकडती जा रही है .शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर बदलाव हो रहे हैं . ग्रामीण इलाकों के लड़के लडकियां उच्च और प्रोफेशनल शिक्षा के ज़रिये सफलता हासिल करने की कोशिश में लगे हुए हैं . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों की लड़कियों को उनके माता पिता , दसवीं की पढ़ाई करने के लिए २ मील दूर नहीं जाने देते थे , उन इलाकों की लडकियां दिल्ली, पुणे, बंगलोर नोयडा ,ग्रेटर नोयडा में स्वतन्त्र रूप से रह रही हैं और शिक्षा हासिल कर रही हैं . उनके माता पिता को भी मालूम है कि बच्चे पढ़ लिख कर जीवन में कुछ हासिल करने लायक बन जायेंगें . लेकिन अभी भारत के मध्यवर्गीय समाज में यह जागरूकता नहीं है कि शिक्षा के विकास के बाद जब पश्चिमी देशों की तरह बच्चे आत्म निर्भर होंगें तो उनको अपनी निजी ज़िंदगी में भी स्पेस चाहिए . उनको अपनी ज़िंदगी के अहम फैसले खुद लेने कीआज़ादी उन्हें देनी पड़ेगी लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . ताज़ा मामला झारखण्ड की पत्रकार निरुपमा पाठक का है . उसके माता पिता ने उसे पत्रकारिता की शिक्षा के लिए दिल्ली भेजा, लड़की कुशाग्रबुद्धि की थी, उसने अपनी कोशिश से नौकरी हासिल की और अपनी भावी ज़िंदगी की तैयारियां करने लगी. अपने साथ पढने वाले एक लडके को पसंद किया और उसके साथ घर बसाने का सपना देखने लगी. जब वह घर से चली थी तो उसके माता पिता अपने दोस्तों के बीच हांकते थे कि उनकी बेटी बड़ी सफल है और वे उसकी इच्छा का हमेशा सम्मान करते हैं . लेकिन अब पता चला है कि वे तभी तक अपनी बच्ची की इज्ज़त करते थे जब तक वह उनकी हर बात मानती थी लेकिन जैसे ही उसने उनका हुक्म मानने से इनकार किया , उन्होंने उसे मार डाला . यह तो बस एक मामला है . ऐसे बहुत सारे मामले हैं .. इसके लिए बच्चों के माँ बाप को कसाई मान लेने से काम नहीं चलने वाला है . वास्तव में यह एक सामाजिक समस्या है . अभी लोग अपने पुराने सामाजिक मूल्यों के साथ जीवित रहना चाहते हैं . इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे नए मूल्यों को अपनाना नहीं चाहते . शायद वे चाहते हों लेकिन अभी पूंजीवादी रास्ते पर तो विकास आर्थिक क्षेत्र में पींगें मार रहा है लेकिन परिवार और समाज के स्तर पर किसी तरह का मानदंड विकसित नहीं हो रहा है . नतीजा यह हो रहा है कि पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में भारत के ग्रामीण समाज के लोग सामन्ती मूल्यों के साथ जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं . खाप पंचायतों के मामले को भी इसी सांचे में फिट करके समझा जा सकता है . सूचना क्रान्ति के चलते गाँव गाँव में लडके लड़कियां वह सब कुछ देख रहे हैं जो पश्चिम के पूंजीवादी समाजों में हो रहा है . वह यहाँ भी हो सकता है . दो नौजवान एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं लेकिन फिर उन्हें उसके आगे बढ़ने की अनुमति सामंती इंतज़ाम में नहीं मिल पाती . दिल्ली के पास के दादरी इलाके में यही हुआ. वहां पंचायत को इस बात पर एतराज़ था कि जिन दो गावों के लोग अपने को एक ही परिवार का मानते हैं और लडके लड़कियों के बीच भाई बहन का रिश्ता होता है , वे शादी कैसे कर सकते हैं . पुराने समय में तो यह व्यवस्था एक तरह से सुरक्षा की शील्ड थी लेकिन अब ज़माना बदल गया है .लड़कियों की सुरक्षा के और भी अच्छे तरीके विकसित हो गए हैं तो ऐसी हालत में इन मान्यताओं को बदला जा सकता है लेकिन पंचायत और और बिरादरी के लोग अड़े हुए हैं लिहाज़ा पुलिस की सुरक्षा में शादी विवाह संपन्न हो रहे हैं.

इसी तरह के बहुत सारे मामले हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भी सुने जाते हैं . दुर्भाग्य यह है कि सरकारें और दिल्ली में बैठे बुद्धिजीवी इसे कानून व्यवस्था की समस्या मानते हैं और नेता सच कहने से भागते हैं . वास्तव में यह सामाजिक विकास की समस्या है . इसको हल करने के लिए पुलिस वालों की नहीं , समाजशास्त्रियों की ज़रुरत है ,सामाजिक विघटन और संयुक्त परिवार के ख़त्म होने की बारीकियों की रोशनी में इन समस्याओं को समझने की ज़रुरत है . आर्थिक और औद्योगिक विकास के साथ साथ समाज और परिवार के जीवन मूल्यों के विकास के बिना यह समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहेंगी. इस काम को दुरुस्त करने के लिए जनमत बनाना पड़ेगा और जनमत बनाने वाले लोगों बुद्धिजीवियों , राजनेताओं और मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यह पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है .