Thursday, November 12, 2009

दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते

शेष नारायण सिंह

कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .

वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..

उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.

1 comment:

  1. मगर देखने-समझने वाली बात यह है कि इन चुनावों में जनता कहां थी या है।

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