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Thursday, November 12, 2009

दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते

शेष नारायण सिंह

कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .

वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..

उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.

Wednesday, July 29, 2009

लालू की घेराबंदी और ममता का श्वेतपत्र

रेल बजट के दिन से ही बिहार के नेता लालू प्रसाद पर राजनीतिक मुसीबतों के आने का खतरा शुरू हो गया हैं। राज्यसभा में भाजपा संसदीय दल के नेता अरुण जेटली ने रेल मंत्रालय को एक ऐसे मंत्रालय के रूप में पेश किया जो अपने काम के अलावा पूरी दुनिया के काम करता रहता है। मेडिकल कालेज खोलना, अखबार निकालना कुछ ऐसे काम हैं जो रेल मंत्रालय की मुख्य प्राथमिकता नहीं है लेकिन सरकार उसी पर ध्यान ज्यादा दे रही है।

रेल सुरक्षा और यात्री सुविधा जैसे जरूरी काम रेल मंत्रालय की मुख्य सूची से हट गए हैं। उन्होंने रेलमंत्री का मजाक उड़ाते हुए कहा कि वासुमती मंदिर ट्रस्ट को अधिग्रहीत कर के उसके अखब़ार निकालने की योजना का रेल मंत्रालय से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। रेल बजट के दिन दिए जाने वाले रेलमंत्री के भाषण पर समाजवादी पार्टी के प्रोफेसर राम गोपाल यादव ने बहुत ही गंभीर टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि रेलमंत्री के रूप में लालू प्रसाद यादव ने कुछ घोषणाएं की थीं जो अब रिकार्ड में नहीं हैं।

उपसभापति ने कहा कि यह मामला दूसरे सदन का है लिहाजा वे उस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते लेकिन इस बात की गंभीरता के मद्देनजर इसकी जांच की प्रक्रिया शुरू कराई जाएगी। रामगोपाल यादव ने सरकार पर और भी गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव ने अपने बजट भाषण में मैनपुरी होते हुए एक रेलवे लाइन की बात की थी। उनके भाषण का वह हिस्सा रिकॉर्ड में नहीं है। उन्होंने कहा कि भाषण की सी.डी. उपलब्ध है। उसको दिखाकर वे अपनी बात को सिद्घ करेंगे और सरकार से जवाब मांगेगे।

प्रो. यादव ने आरोप लगाया कि रेलमंत्री के भाषण को सरकार गंभीरता से नहीं लेती। उनका आरोप है कि रेलमंत्री के रूप में माधवराव सिंधिया ने बजट भाषण के दौरान जो वायदे किए थे, उनको भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। बाद के भाषणों का भी वही हश्र हुआ कुछ ऐसी योजनाओं पर भी अभी काम शुरू नहीं हुआ है जिनका उदघाटन तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। प्रो. यादव ने सुझाव दिया कि रेल मंत्रालय को चाहिए कि वह बजट भाषणों के दौरान पहले के मंत्रियों के वायदों को पूरा करने की एक योजना बनाए।

अगर अधूरी पड़ी परियोजनाओं को पूरा करने पर ही ध्यान रखा जाय तो देश का बहुत भला होगा। लालू प्रसाद की मित्र पार्टी के नेता की ओर से की गई इस टिप्पणी का मतलब बहुत ही गंभीर है। यह इस बात का भी संकेत है कि राजद के अध्यक्ष बहुत तेजी से मित्र खो रहे हैं। रेलमंत्री ममता बनर्जी के भाषण के दौरान लालू पर हुए कटाक्ष राजद सुप्रीमो के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं थे। उसी भाषण में उन्होंने लालू प्रसाद के ऊपर रेल प्रशासन को ठीक से न चलाने का भी संकेत दिया था।

उनका आरोप था कि अंतरिम बजट के दौरान जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उनको हासिल कर पाना संभव है नहीं है लिहाजा ममता के बजट में लक्ष्यों में संशोधन किए जा रहे हैं। यह बहुत ही गंभीर बात है क्योंकि यह अंतरिम बजट पेश करने वाले की राजनीतिक क्षमता पर टिप्पणी भी है। लेकिन लालू प्रसाद के लिए इससे भी गंभीर बात यह है कि ममता बनर्जी ने घोषणा कर दी कि रेलमंत्रालय के पिछले पांच साल के कामकाज पर एक श्वेतपत्र लाया जायेगा।

ममता बनर्जी के रेल भाषण में कही गईं बहुत सी बातें पूरी नहीं हो पाएंगी इसमें दो राय नहीं है। अब तक यह बात सभी जानते थे लेकिन मंगलवार के दिन राज्यसभा में प्रो. रामगोपाल यादव की घोषणा, कि रेलमंत्री के भाषण के कुछ अंशों को रिकार्ड से गायब कर दिया गया है, बहुत ही गंभीर है। श्वेत पत्र में इस बात पर भी चर्चा हो सकती है जो लालू के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा करेगी। एक बात और महत्वपूर्ण है कि बजट भाषण की बाकी बातें भले भूल जायं लेकिन लालू को नुकसान पहुंचाने की गरज से उनके बारे में प्रस्तावित श्वेत पत्र के मामले में कोई चूक नहीं होगी।

लालू की पोल खोलने के लिए व्याकुल रेल मंत्रालय के कुछ अफसर इस बात को ठंडे बस्ते में कभी नहीं जाने देगे। जब भी कभी श्वेतपत्र आएगा लालू यादव की कार्यशैली पर एक बार चर्चा अवश्य होगी जोकि लगभग निश्चित रूप से राजनीतिक नुकसान पहुंचाएगी। लालू के आजकल के आचरण को देखकर भी लगने लगा है कि वे आजकल झल्लाए हुए हैं। बजट भाषण के दौरान ममता बनर्जी को भी उन्होंने कई बार टोकने की कोशिश की जिसका ममता पर तो कोई खास असर नहीं पड़ा लेकिन लालू प्रसाद की झुंझलाहट बढ़ाने में सहायक रहा।

लोकसभा में फिर लालू प्रसाद की झल्लाहट नजर आई। सदन में प्रश्नकाल के दौरान अध्यक्ष ने नक्सल हिंसा के बारे में लालू प्रसाद को पूरक प्रश्न पूछने की अनुमति दी। उठकर उन्होंने नक्सल समस्या पर भाषण देना शुरू कर दिया। जब अध्यक्ष ने उन्हें चेताया कि वे अपना प्रश्न पूछें तो लालू जी नाराज हो गए और अध्यक्ष पर ही आरोप जड़ दिया कि हम जानते हैं कि आप हमें नहीं बोलने देंगी। झल्लाहट लालू प्रसाद के व्यक्तित्व का हिस्सा कभी नहीं रहा। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी वे संतुलित रहते हैं लेकिन आजकल उनके व्यक्तित्व का यह नया स्वरूप देखकर लगता है कि उनको अंदाज है कि कांग्रेस उनके आगे के राजनीतिक सफर को मुश्किल करने की मंसूबाबंदी कर चुकी है।

ममता बनर्जी का प्रस्तावित श्वेत पत्र लालू को मुश्किल में डाल सकता है। इस बारीकी को समझने के लिए लोकसभा चुनाव 2009 की कुछ झलकियों पर नजर डालना पड़ेगा। चुनाव के पहले लालू प्रसाद अकसर कहा करते थे कि उनके बिना कोई सरकार नहीं बनेगी। बातों बातों में वे कांग्रेस की खिल्ली भी उड़ाया करते थे। उसी दौर में एक बार मीडिया से मुखातिब प्रणब मुखर्जी ने कह दिया था कि केंद्र सरकार में लालू की भूमिका बहुत पक्की नहीं है, यहां तक कि उनकी अपनी कुर्सी की भी बहुत संभावना अधिक नहीं होगी।

लालू प्रसाद ने इस बात का बुरा माना था और सोनिया गांधी से शिकायत की थी। संयेाग की बात कि लालू का वही राजनीतिक भविष्य हुआ जिसकी प्रणब मुखर्जी ने संभावना जताई थी। सभी जानते हैं कि ममता बनर्जी और प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक संबंध आजकल बहुत ही ठीक हैं इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के बंगाल स्कूल के नेता मिलकर लालू यादव को औकात बोध का ककहरा पढ़ा रहे हो और उनको एहसास करा रहे हों कि सत्ता पाने पर भी अपनी सीमाओं की पहचान रखना भलमन साहत का लक्षण तो है ही, अच्छी राजनीति का बुनियादी सिद्घांत भी है।

Monday, July 27, 2009

ममता की रेल

तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने रेलमंत्री की हैसियत से अपना पहला रेल बजट अपनी जनवादी छवि के अनुरुप ही पेश किया है। जिसका निश्चित रूप से स्वागत किया जाना चाहिए। भारतीय रेल देश का सबसे बड़ा रेल तंत्र है जो एक प्रबंधन के अंतर्गत काम करता है। उसका सामाजिक दायित्व भी व्यापक है क्योंकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक रेल संचालन के माध्यम से देश को एक सूत्र में बांधे रखने की बड़ी जिम्मेदारी भी भारतीय रेल पर है।
प्रतिदिन लाखों लोगों का आवागमन इसी रेल पर निर्भर है। रेलमंत्री का अपने बजटीय भाषण में यह कहना कतई न्यायोचित है कि जिस तरह लोकतंत्र में सबको वोट देने का अधिकार है उसी तरह विकास का अधिकार भी आम इंसान को मिलना चाहिए। गठबंधन सरकारों में रेल मंत्रालय अधिकतर घटक दलों के पास ही रहा है। केन्द्र में यूपीए की विगत सरकार में रेलमंत्री का पद राजद नेता लालू प्रसाद यादव के पास रहा।
उन्होंने पांच वर्ष के कार्यकाल में भारतीय रेल की कायापलट करने में काफी नाम कमाया और घाटे में चल रहे रेलवे को बड़े मुनाफे में बदला, जिसकी प्रशंसा विदेशों में भी हुयी और विभिन्न देशों के प्रतिनिधिमंडल लालू यादव से प्रबंधन के गुर सीखने भी भारत आए। इसलिए बात अगर रेलवे के आर्थिक विकास की आएगी तो उसका श्रेय लालू यादव अवश्य ही लेगे। पूर्व रेलमंत्री लालू यादव भी खुद को गरीबों का मसीहा कहते थे इसलिए उन्होंने अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में रेल किरायों में वृद्घि नहीं होने दी।
अब इन हालात में ममता बनर्जी के सामने रेल बजट को एक नए रूप में पेश करने की बड़ी चुनौती थी। ममता के बजट में भी रेल किरायों में कोई वृद्घि नहीं की गयी है इसीके साथ व्यापक घोषणाएं भी है और लोकलुभावन वायदे भी। लेकिन ममता का सारा ध्यान यात्री सुविधाओं के ऊपर है, अगर इस दिशा में अपनी कार्यशैली के अनुसार वो व्यापक और कारगर कदम उठाती हैं तो निश्चित रूप से इसे आम आदमी का बजट कहा जाएगा। दअसल अब तक होता ये रहा है कि रेलमंत्री अपने बजट में लंबी चौड़ी घोषणाएं कर देते है और नई-नई रेलगाडिय़ां भी चला दी जाती है।
लेकिन इसके विपरीत रेलों में जन सुविधाओं का निरंतर हृास होता जा रहा है। रेलवे के सामने सबसे बड़ी चुनौती सुरक्षित यात्रा प्रदान करने की है। विगत वर्षो में रेलगाडिय़ां व रेल परिसरों में हत्या, बलात्कार, लूटपाट, निर्बल यात्रियों को चलती गाड़ी से बाहर फेंकने, उनके सामान की झपटमारी जैसी घटनाओं ने जहां यात्रियों को भयभीत किया वहीं रेलवे प्रबंधन को भी हिलाकर रख दिया। इसलिए रेल किराया नहीं बढ़ा, अच्छी बात है, मगर इससे अधिक महत्वपूर्ण बात सुरक्षित यात्रा की है जिस पर आम व खास दोनों की ही नज़र है।
देश की आबादी का बड़ा हिस्सा एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश रोजी रोटी की खातिर कमाने के लिए जाता है और वो अपनी कमाई का बाकी हिस्सा सुरक्षित अपने प्रदेश लेकर लोट जाए तो इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है। रेलगाडिय़ो में बढ़ते अपराध और वर्दीधारियों द्वारा सामान तलाशी के नाम पर यात्रियों से अवैध वसूली और न देने की सूरत में उन्हें गाड़ी से उतार देने की क्रूरतम वारदात आए दिन खबरों में रहती है, निश्चित रूप से ये स्थिति अत्यंत दुखदायी हैं।
लेकिन खेदजनक पहलू यह है कि सुरक्षित यात्रा पर अभी तक रेलवे द्वारा गंभीर और सार्थक प्रयास नहीं किए गए, प्राय: इस की जिम्मेदारी राज्यों पर डालकर रेलमंत्री अपना पल्ला झाड़ते रहे है। वर्ष 2005-08 तक रेल यात्राओं के दौरान 859 हत्याएं, बलात्कार की 137 तथा डकैती की 462 घटनाएं हुयी। लूटपाट की 1200 और नशाखोरी की 2100 से अधिक घटनाएं हुयी। सामान चोरी व अन्य अपराधों के 60 हज़ार से अधिक मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा छिटपुट घटनाओं की गिनती ही क्या? ममता बनर्जी की रेल मंत्रालय की चाहत पुरानी है जो अब पूरी हो गयी है इसलिए आम जनता भी ये जानने और अनुभव करने की इच्छुक है कि आखिर एनडीए के कार्यकाल में ममता बनर्जी रेल मंत्रालय लेने पर क्यों अड़ गयी थी और वो मुराद अब यूपीए शासन में पूरी हो गयी है तो वो क्या खास करके दिखाएंगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ममता बनर्जी पं. बंगाल की ज़मीन से जुड़ी हुयी जुझारू नेता है, जो ईमानदार भी हैं और कर्मठ भी है। 1970 में एक युवा महिला के रूप में कांग्रेस पार्टी से अपना राजनीतिक कैरियर शुरू करने वाली ममता बनर्जी 1984 के संसदीय चुनाव में सीपीएम के बड़े नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर संसद में पहुंचने वाली सबसे कम उम्र की सांसद बनी थीं। उसके बाद वो पांचवी बार दक्षिण कोलकता से संसद पहुंची है।
1997 में रेलवे बजट में बंगाल की उपेक्षा करने के कारण रेल बजट प्रस्तुत कर रहे रेलमंत्री रामविलास पासवान पर गुस्से में वो अपनी शाल फेंक चुकी है इसीलिए अपने रेल बजट में उन्होंने देश के सभी अंचलों का विशेष ध्यान रखा है। युवाओं की राजनीति में बढ़ती भागीदारी और पं. बंगाल में विधानसभा चुनावों को सामने रखकर उन्होंने एक युवा रेलगाड़ी चलाने की घोषणा भी की है। 1500 रुपये मासिक आय वालों के लिए 'इज्जत' नामक स्कीम के साथ 25 रुपये का मासिक सीजन टिकट भी उनके जन बजट की विशेषता है।
ममता ने रेल यात्री सुविधाओं, आरक्षण की समस्याओं, रेल में जनता भोजन, व सफाई व्यवस्था में सुधार पर अत्यधिक ज़ोर दिया है। यह तमाम समस्याएं है जिनका समाधान अगर कारगर ढंग से हो जाए तो निश्चित रूप से ममता बनर्जी की जय-जयकार होगी क्योंकि आम आदमी सुविधापूर्वक व सुरक्षित तरीके से यात्रा चाहता है। लेकिन उसकी इन मूल समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। गाडियां बढ़ें या न बढ़ें लेकिन जनता को वाजिब सुविधा तो मिलना ही चाहिए। अब देखना यह है कि ममता बनर्जी अपनी घोषणाओं पर कितना खरा उतरती है।