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Tuesday, March 15, 2011

दो तिहाई दलित बच्चे दसवीं क्लास के पहले ही स्कूल छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं .

शेष नारायण सिंह

दलितों को शिक्षित करने की दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है .संविधान में व्यवस्था है कि दलित भारतीयों के लिए सकारात्मक हस्तक्षेप के ज़रिये समता मूलक समाज की स्थापना की जायेगी. उसके लिए १९५० में संविधान के लागू होने के साथ ही यह सुनिश्व्चित कर दिया गया था कि राजनीतिक नेतृत्व अगर दलितों के विकास के लिए कोई योजनायें बनाना चाहे तो उसमें किसी तरह की कानूनी अड़चन न आये . लेकिन संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा के क्षेत्र में बाकी लोगों के बराबर करने के लिए कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया गया है . सबको मालूम है कि सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार शिक्षा ही है . जिन समाजों में भी बराबरी का माहौल बना है उसमें दलित और शोषित वर्गों को शिक्षित करना सबसे बड़ा हथियार रहा है लेकिन भारत सरकार और मुख्य रूप से केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस सरकार ने दलितों को शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर उठाने की दिशा में कोई राजनीतिक क़दम नहीं उठाया है . उनकी जो भी कोशिश रही है वह केवल खानापूर्ति की रही है . ऐसा लगता है कि १९५० से अब तक कांग्रेस ने दलितों को वोट देने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझा . शायद इसीलिये दलितों के वैकल्पिक राजनीतिक नेतृत्व के विकास की आवश्यकता समझी गयी और कुछ हद तक यह काम संभव भी हुआ. दक्षिण में तो यह राजनीतिक नेतृत्व आज़ादी के करीब २० साल बाद ही प्रभावी होने लगा था लेकिन उत्तर में अभी यह बहुत कमज़ोर है . उत्तर प्रदेश में एक विकल्प उभर रहा है लेकिन उसमें भी शासक वर्गों की सामंती सोच के आधार पर ही दलितों के विकास की राजनीति की जा रही है क्योंकि नौकरशाही पर अभी निहित स्वार्थ ही हावी हैं . कई बार तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक पार्टियां जब भी दलितों के विकास के लिए कोई काम करती हैं तो यह उम्मीद करती हैं कि दलितों के हित के बारे में सोचने वाली जमातें उनका एहसान मानें . कारण जो भी हों दलितों को शक्तिशाली बनाने के लिए जो सबसे ज़रूरी हथियार शिक्षा का है उस तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की पंहुच अभी सीमित है . पिछले हफ्ते लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया कि स्कूलों में पहली से दसवीं क्लास तक की पढाई करने जाने वाले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की कुल संख्या में से बहुत बड़ी तादाद में बच्चे पढाई बीच में ही छोड़ देते हैं . यह आंकड़े हैरतअंगेज़ हैं और हमारे राजनीतिक नेताओं की नीयत पर ही सवाल उठा देते हैं . सरकारी तौर पर बताया गया है कि दसवीं तक की शिक्षा पूरी करने के पहले अनुसूचित जातियों के बच्चों का ड्राप रेट डरावना है . २००६-०७ में करीब ६९ प्रतिशत अनुसूचित जातियों के बच्चों ने पढाई छोड़ दी थी. जबकि २००८-०९ में इस वर्ग के ६६.५६ प्रतिशत बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया था . अनुसूचित जनजातियों के सन्दर्भ में यह आंकड़े और भी अधिक चिंताजनक हैं . २००६-०७ में अनुसूचित जनजातियों के ७८ प्रतिशत से ज्यादा बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया था जबकि २००८-०८ में यह ड्राप रेट २ प्रतिशत नीचे जाकर लगभग ७६ प्रतिशत रह गया था. यह आंकड़े बहुत ही निराशा पैदा करते हैं . अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की इतनी बड़ी संख्या का बीच में ही स्कूल छोड़ देना बहुत ही खराब बात है . ज़ाहिर है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नौकरशाही के बे परवाह रवैय्ये के कारण ही यह हालात पैदा हुए हैं और इन पर फ़ौरन रोक लागने की ज़रुरत है .
केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा विभाग की ओर से सरकारी तौर पर दिए गए इन आंकड़ों में कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की कई नीतियों का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि इन नीतियों के कारण दलितों के शैक्षिक विकास को रफ़्तार मिलेगी . सरकार ने दावा किया है कि सर्व शिक्षा अभियान नाम की जो योजना है वह समता मूलक समाज की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी .लोकसभा को सरकार ने बताया कि सर्व शिक्षा अभियान ने समानता आधारित दृष्टिकोण अपनाया है जो शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों तथा समाज के लाभवंचित वर्गों की आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित करता है ..समाज के लाभवंचित वर्गों की शिक्षा सम्बंधित सरोकार ,सर्व शिक्षा अभियान योजना में अन्तर्निहित है.. यह सरकारी भाषा है जिसमें बिना कोई भी पक्की बात बताये सच्चाई को कवर कर दिया जाता है . लेकिन सच्चाई यह है कि सर्व शिक्षा अभियान का जो मौजूदा स्वरुप है वह पूरी तरह से राज्यों में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को आर्थिक लाभ पंहुचाने की योजना बन कर रह गया है . सरकार ने दावा किया है कि निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ ,सर्व शिक्षा आभियान , मध्याह्न भोजन योजना ,कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना ,राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान का उद्देश्य स्कूलों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों श्रेणियों के छात्रों सहित सभी वर्ग के छात्रों के नामांकन में वृद्धि करवाना है . सरकारी भाषा में कही गयी इस बात में लगभग घोषित कर दिया गया है कि दलित बच्चों का स्कूलों में नामांकन करवाना ही सरकार का उद्देश्य है .उनकी पढाई को पूरा करवाने के लिए सरकार कोई भी उपाय नहीं करना चाहती .ज़मीनी सच्चाई यह है कि इन योजनाओं के नाम पर जनता का धन तो बहुत बड़े पैमाने पर लग रहा है लेकिन बीच में निहित स्वार्थ वालों की ज़बरदस्त मौजूदगी के चलते यह योजनायें अपना मकसद हासिल करने से कोसों दूर हैं

Wednesday, March 10, 2010

मौजूदा बिल महिलाओं के एक बड़े वर्ग को मुख्यधारा से अलग करने का निमित्त

शेष नारायण सिंह

बी जे पी के खेल में सभी फंस गए. महिला आरक्षण की बहस को शुरू ही उलटे तरीके से किया गया. महिला आरक्षण बिल को समझने के लिए मैं अपने गाँव जाना चाहूंगा.. मेरे गाँव में दलित भी हैं, पिछड़े और सवर्ण भी. बगल के गाँव में मुसलमान हैं .बचपन से लेकर अब तक मैंने हर तरह की सामाजिक सोच देखी है . जब मैंने समझना शुरू किया,मेरे गाँव में सब गरीब थे . आज भी कोई बहुत धनी नहीं हैं . मेरे पिता खुद एक ठाकुर ज़मींदार थे लेकिन १९५२ के बाद वे भी बहुत गरीब हो गए थे लेकिन गाँव के सवर्ण अपने को दलितों, मुसलमानों और अन्य पिछड़ी जातियों से ऊंचा मानते थे . दलितों और मुसलमानों के प्रति उन दिनों जो सोच थी, आज तक वही है ,. मेरे गाँव में मेरी उम्र के कुछ लोगों ने मुझे मेरे पिता जी से पिटवाने की कोशिश की थी जब मैंने ९० के दशक की शुरुआत में डॉ अंबेडकर के निर्वाण के दिन जाति के विनाश पर बाबा साहेब के तर्क का समर्थन करने वाला लेख लिख दिया था. .यह वही लोग हैं जो गाँव के दलितों के बच्चों को स्कूल जाने से रोकते थे . मेरे गाँव में मेरे पिता जी से दो एक साल उम्र में छोटे,दलित जाति के रामदास जी थे . मुझसे उन्होंने पूछा कि क्या हमारे बच्चों की भी तरक्की हो सकती है . मैंने कहा कि अगर आप अपने बच्चों को पढ़ा दें तो कोई नहीं रोक सकता . यह बात उन्होंने कुछ लोगों को बता दी. तब से ही मेरे खिलाफ मेरे गाँव में माहौल है .. दलितों के कुछ बच्चे पढ़ लिख गए. कुछ डाक खाने में चिट्ठीरसा हो गए, कुछ और छोटी मोटी सरकारी नौकरियों में चले गए. जबकि ठाकुरों के दसवीं फेल बच्चे खाली घूम रहे हैं . सवर्ण मानसिकता के लोग गाँव के ठाकुरों के पिछड़ेपन के लिए दलितों की शिक्षा को ज़िम्मेदार बताते हैं .. मेरे गाँव को देख कर लगता है की गरीबी अपने आप में एक जाति है. जिस बिल को राज्यसभा में पास करवाया गया है वह निश्चित रूप से एक इलीट कोशिश है . जिसका मकसद गरीब से गरीब लोगों को देश के फैसलों से बाहर रखना है .ज़ाहिर है इस तरह की स्थिति से बी जे पी जैसी पार्टियों का ही फायदा होगा क्योंकि उनके साथ न तो मुसलमान हैं और न ही दबे कुचले लोग .संसद और विधान सभाओं मेंअगर इनकी संख्या कम कर दी जाए तो बी जे पी अपना वह एजेंडा लागू करने में सफल रहेगी जिसमें मुसलमान, दलित और पिछड़ों को १९४७ के पहले की स्थिति में रखने की योजना है . कांग्रेस भी कहे कुछ भी, करती वही है जो सामंती, संपन्न , पूंजीवादी सोच की मांग होती है . इन लोगों को नहीं मालूम की दिल्ली शहर के अन्दर ही मुसलमानों और दलितों की बच्चियों को शिक्षा के अवसर नहीं उपलब्ध हैं . . इन लोगों को यह भी नहीं मालूम नहीं कि असली गावों में रहने वाले लोगों को जब तक शिक्षा के सही अवसर नहीं दिए जाते तब तक उन दबे कुचले परिवारों की महिलाओं से संभ्रांत परिवारों की महिलाओं के मुकाबले खड़े होकर जीतने की उम्मीद करना एक सपना है . इस लिए मुस्लिम, दलित और पिछड़ी जातियों और गरीब सवर्णों के परिवारों की महिलाओं को राजनीति की मुख्यधारा से अलग करने वाले बिल का समर्थन उसी हालत में किया जाना चाहिए जब वह आधी आबादी के पूरे हिस्से के हित में हो. मौजूदा बिल महिलाओं के एक बड़े वर्ग को मुख्य धारा से अलग करने का निमित्त है और इसे इसके इस स्वरुप में समर्थन देना ठीक नहीं है .

Thursday, November 12, 2009

दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते

शेष नारायण सिंह

कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .

वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..

उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.

Wednesday, October 21, 2009

मुलगी शिकली , प्रगति झाली

स्वाति मुंबई की एक उच्च मध्यवर्गीय सोसाइटी में घरों में काम करती है . दो बच्चियों की माँ है. हाड तोड़ मेहनत करती है . महाराष्ट्र के किसी ग्रामीण इलाके से आकर मुंबई में रहती है . उसकी कोशिश है कि उसकी बच्चियों का भविष्य बेहतर हो और उन्हें अपनी माँ की तरह पूरी मेहनत के बदले कम पैसों में काम करने के लिए मजबूर न होना पड़े . स्वाति को इस मकसद को हासिल करने के तरीके भी मालूम हैं . उसे मालूम है कि उच्च शिक्षा के बल पर उसकी बच्चियां अच्छी जिन्दगी जी सकेंगीं. इससे लिए वह स्कूल की फीस बढ़ने के साथ साथ और मेहनत करने लगती है. , नए घर पकड़ लेती है. महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा साधन माना जाता है . १८४८ में ही ज्योतिबा फुले ने दलित लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोलकर इस क्रांति का ऐलान कर दिया था . और आज भी महाराष्ट्र में लड़कियों की इज्ज़त अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है. बीच में मराठी मानूस के नारे के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद लुम्पन लड़कों पर जोर ज्यादा दिया जाने लगा और पिछले ५० साल में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान दिया गया था और जिसकी बुनियाद महात्मा फुले ने १८४८ में ही रख दी थी. . बहर हाल बच्चियों की शिक्षा को नज़र अंदाज़ करने के नतीजे महाराष्ट्र के नेताओं की समझ में आने लगे हैं . आज राज्य की राजधानी , मुंबई में यहाँ के स्थानीय लोगों की हैसियत बहुत ही कम हो गयी है. राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ होने के बावजूद मराठी मानूस मुंबई के उच्च वर्ग में शामिल नहीं है . कई चिंतकों से बात चीत करने पर पता चला कि इस हालत के लिए शिक्षा की कमी सबसे ज्यादा जिम्मेदार है .देर से ही, सही लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज ने पहल करना शुरू कर दिया है . सरकारी तौर पर एक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत प्रचार किया जा रहा है कि अगर लडकी शिक्षित होगी , तभी प्रगति होगी.इस अभियान का फर्क भी पड़ना शुरू हो गया है. यह मानी हुई बात है कि तरक्की के लिए शिक्षा की ज़रुरत है. और परिवार की तरक्की तभी होगी जब मान सही तरीके से शिक्षित होगी.

यह बात उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश के उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये जाते हैं . इन् इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की बात तो और भी चिंता पैदा करने वाली है. हज़रत मुहम्मद ने फरमाया था कि शिक्षा इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है. आपने कहा था कि अगर इल्म के लिए उन्हें चीन भी जाना पड़े तो कोई परेशानी वाली बात नहीं है. इसका मतलब यह है कि मुसलमान को शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है. कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज्यादा पिछडे हुए हैं . उनके इस पिछडेपन का एक बड़ा कारण यह है कि इन इलाकों में मुसलमानों की लड़कियों की शिक्षा का कोई इन्तेजाम नहीं है. जो बात समझ में नहीं आती , वह यह कि जब पैगम्बर साहेब ने ही तालीम पर सबसे ज्यादा जोर दिया था तो उनके बताये रास्ते पर चलने वाले शिक्षा के क्षेत्र में इतना पिछड़ क्यों गए. सब को मालूम है कि अगर लडकियां शिक्षित नहीं होंगी तो आने वाली नस्लें शिक्षा से वंचित ही रह जाएँगीं, इस लिए मुसलमानों के सामाजिक और धार्मिक नेताओं को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करें जिस के बाद उनकी अपनी बच्चियां अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें.अभी पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में यह बात सामने आई कि मुसलमानों में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं हो रही है. बड़े पत्रकार विनोद मेहता ने तो यहाँ तक कह दिया है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद , मुसलमानों ने आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के लिए कोई भी अहम् पहल नहीं की है. राजनीतिक सामाजिक नेता और लेखक आरिफ मुहम्मद खान के एक ताजे लेख से पता चलता है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक और क्रांतिकारी शिक्षाविद , सर सैय्यद अहमद खान को भी उस वक़्त के धार्मिक नेताओं ने खुशी से स्वीकार नहीं किया था . इस लिए मुसलमानों और समाज की तरक्की के लिए ज़रूरी है कि अर्जेंट आधार पर लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज और काम के नेता ज़रूरी पहल करें वरना खतरा यह है कि बहुत देर हो जायेगी. जहां तक समाज के सहयोग की बात है उसकी उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा की क्रान्ति के सूत्रधार ज्योतिबा फुले को भी उनके पिता जी ने घर से निकाल दिया था जब उन्होंने १८४८ में दलित लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला था. आज के समाज, खासकर मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों को आगे आने की ज़रुरत है जो सर सैय्यद की तरह आगे आयें और समाज को परिवर्तन की राह पर डालने की कोशिश करें

Saturday, August 8, 2009

ग़रीब लड़की चोरी नहीं करती...

देवरिया जिले के किसी गांव में बिट्‌टन नाम की एक लड़की रहती है, गरीब है, दलित है और मेहनत मजूरी करके दो जून की रोटी का इंतजाम करती है। गांव में ही कोई राय साहब रहते हैं उनका भरा-पूरा परिवार है, ग्रामीण हिसाब से संपन्न हैं और बिट्‌टन की गरीबी पर भारी पड़ते हैं। बिट्‌टन इन्हीं राय साहब के घर मजदूरी करती थी, घर का काम टहल करती थी, जूठा खाती थी, पुराने कपड़े पाकर धन्य हो जाती थी और राय साहब के घर की नौकरानी होने की वजह से अपने आस-पड़ोस में भी उसकी हनक थी।

यह सब खत्म हो गया क्योंकि बिट्‌टन पर चोरी का आरोप लगाकर राय साहब और उनके घर वालों से बिट्‌टन को पीटा, उसके शरीर के नाजुक अंगों में लोहे की गर्म सलाखों से निशान लगा दिए और बिट्‌टन की जिंदगी तबाह कर दी। बिट्‌टन की उम्र यही कोई 15-16 साल होगी। पूरी संभावना है कि बिट्‌टन की नानी 1947 के बाद पैदा हुई हो, यानी आज़ाद भारत मे जन्म लेने वाले गरीब दलितों की तीसरी पीढ़ी को भी इस देश का दबंग वर्ग लोहे की रॉड से दागता है और आजादी की लड़ाई में शामिल हर महापुरुष की विरासत को मुंह चिढ़ाता है।

कैसे होता है यह सब, खासकर उत्तरप्रदेश में जहां दलित की एक बेटी राज कर रही है, राज्य से गुंडो का सर्वनाश करने का बीड़ा उठाकर सत्ता में आई है और दलितों को आत्मसम्मान से जिंदा रहने का अधिकार देना उसकी राजनीति का बुनियादी आधार है?????

बिट्टन को असहाय किसने बनाया? आजादी के बासठ साल बाद भी बिट्‌टन पर ही चोरी का इल्जाम क्यों लगता है, जबकि इस बात की पूरी संभावना है कि राय साहब के घर में चोरी उनके परिवार के ही किसी व्यक्ति ने की हो, या उनकी पत्नी ने ही की हो, कथित रूप से जिनका मंगलसूत्र चोरी हुआ है। लेकिन संभ्रांत मानसिकता के दल-दल में फंसा हुआ प्रशासन, पुलिस, समाज यह मान ही नहीं सकता कि राय साहब का कोई संपन्न रिश्तेदार चोरी कर सकता है। चोरी करे या ना करे इलजाम तो बिट्टन पर ही लगेगा। इसलिए नहीं कि वह गरीब है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी रक्षा में खड़ी नहीं हो सकती।

बिट्‌टन को इतना असहाय किसने बनाया। सीधा सा जवाब है-अगर आजादी के बाद पैदा हुई बिट्‌टन की नानी ने गांव के पास के प्राइमरी स्कूल में जाकर शिक्षा ले ली होती तो पूरी संभावना है कि बिट्‌‌टन की मां किसी सरकारी नौकरी में होती और बिट्टन आज एक पढ़ी-लिखी लड़की होगी और किसी भी राक्षसनुमा राय साहब के यहां मजूरी न कर रही होती। बिट्टन की दुर्दशा पर आज क्रोध, निराशा, हताशा और पछतावा सब कुछ है।

जब आजादी के बाद सबको शिक्षा देने का इंतजाम कर दिया गया था तो बिट्टन की नानी के हाथ से तख्ती किसने छीन ली, क्यों हमारे देश में गरीबी और बदहाली को जिंदा रखने की राजनीति खेली जा रही है। सामाजिक बराबरी से परहेज यह मामला उत्तरप्रदेश का है लेकिन मायावती को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना गलत होगा, कायरता होगी। जरूरत इस बात की है कि यह समझा जाए आजादी मिलने के तीन पीढ़ियों बाद तक लोग क्यों गुलामी की जिंदगी बसर करने पर मजबूर क्यों हैं। जब महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भीमराव अंबेडकर और राममनोहर लोहिया ने समतामूलक, छुआछूत विहीन समाज की बात की थी तो उनके अनुयायियों ने आजादी के बाद उनकी राजनीतिक सोच को कार्यरूप में क्यों नहीं बदला।

शुरू के बीस साल उत्तरप्रदेश में गांधी नेहरू की पार्टी का राज रहा। बाद में भी कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में पंद्रह साल राज किया। गांधी ने कहा था कि छुआछूत को समाज से मिटाना होगा, जाति के आधार पर शोषण के निजाम को खत्म करना होगा। महात्मा जी ने जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात तो नहीं की थी लेकिन जाति को शोषण का आधार बनाने की हर स्तर पर मुखालफत की थी। सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के अलावा किसी कांग्रेसी ने कोई योजना चलाने की नहीं सोची। उल्टे इंदिरा गांधी के बाद के कांग्रेसियों ने ब्रिटिश हुकूमत के गुलाम राजाओं महाराजाओं को इतनी अहमियत दी कि कभी-कभी तो लगने लगा कि ब्रिटिश हुकूमत फिर लौट आई है।

डा.राम मनोहर लोहिया ने साफ कहा था कि जातिप्रथा का विनाश किया जाना चाहिए इसके लिए उन्होंने अपने सभी शिष्यों से कहा था कि सोचने या भाषण देने से जातिप्रथा समाप्त नहीं होगी। उसके लिए अंर्तजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना होगा और छुआछूत को मिटाना होगा। जातिवाद की दलदललोहिया के चेलों में जिन लोगों ने राज किया उनमें प्रमुख हैं, कर्पूरी ठाकुर, लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार। इन लोगों ने क्या कभी भी अपने राज्य में सह विवाह और सह भोजन की बात की? क्या कभी इन्होंने सरकारी नीतियों में कोई ऐसी राजनीतिक लाइन डालने की कोशिश की जिससे जाति प्रथा का जहर खत्म हो।

पिछले चालीस साल के राजनीतिक इतिहास पर गौर करें तो कहीं भी इस तरह की राजनीतिक सोच के बारे में जानकारी होने तक का पता नहीं लगता। डा.अंबेडकर का तो पूरा राजनीतिक दर्शन ही जाति के विकास के सिद्घांत पर आधारित है। उनका कहना था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, सामाजिक बराबरी का सपना पूरा नहीं होगा। पिछले पंद्रह साल से उत्तरप्रदेश की राजनीति में दखल रखने वाली मायावती ने एक बार भी डा.अंबेडकर के इस सपने को पूरा करने की कोशिश क्यों नहीं की, यह पहेली समझ पाना थोड़ा मुश्किल जरूर है, असंभव नहीं। लगता है कि सभी पार्टियों के बड़े नेता किसी न किसी जाति के मतदाताओं को अपना खास समर्थक मानते हैं और उस जाति की पहचान से छेड़छाड़ नहीं करना चाहते शायद इसीलिए गांधी, लोहिया और अंबेडकर के बताए रास्ते में चलने के बजाय जातिवाद के दलदल में फंसते गए।

लोकसभा चुनाव 2009 से कुछ संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि जातियां किसी भी पार्टी के साथ अब बहुत दिन तक चिपकी रहने वाली नहीं हैं। मसलन दलितों ने उत्तरप्रदेश में कई क्षेत्रों में मायावती के उम्मीदवार को हराने की कोशिश की। उत्तरप्रदेश के बाहर तो मायावती को दलित वोट लगभग न के बराबर मिला। बाकी दलों का भी यही हाल है। जाति को राजनीति का आधार बनाने वाली पार्टियों को आने वाले चुनावों में और तरीकों पर गौर करना होगा।

इसलिए उम्मीद बंधती है कि जाति को समाप्त करने की राजनीतिक आवश्यकता पर इनका ध्यान जायेगा और जाति का विनाश एक वास्तविकता की शक्ल अख्तियार करेगा। ऐसी हालत में सामाजिक और आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा और कोई बिट्‌टन इसलिए नहीं अपमानित होगी कि वह दलित है।