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Wednesday, October 21, 2009

मुलगी शिकली , प्रगति झाली

स्वाति मुंबई की एक उच्च मध्यवर्गीय सोसाइटी में घरों में काम करती है . दो बच्चियों की माँ है. हाड तोड़ मेहनत करती है . महाराष्ट्र के किसी ग्रामीण इलाके से आकर मुंबई में रहती है . उसकी कोशिश है कि उसकी बच्चियों का भविष्य बेहतर हो और उन्हें अपनी माँ की तरह पूरी मेहनत के बदले कम पैसों में काम करने के लिए मजबूर न होना पड़े . स्वाति को इस मकसद को हासिल करने के तरीके भी मालूम हैं . उसे मालूम है कि उच्च शिक्षा के बल पर उसकी बच्चियां अच्छी जिन्दगी जी सकेंगीं. इससे लिए वह स्कूल की फीस बढ़ने के साथ साथ और मेहनत करने लगती है. , नए घर पकड़ लेती है. महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा साधन माना जाता है . १८४८ में ही ज्योतिबा फुले ने दलित लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोलकर इस क्रांति का ऐलान कर दिया था . और आज भी महाराष्ट्र में लड़कियों की इज्ज़त अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है. बीच में मराठी मानूस के नारे के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद लुम्पन लड़कों पर जोर ज्यादा दिया जाने लगा और पिछले ५० साल में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान दिया गया था और जिसकी बुनियाद महात्मा फुले ने १८४८ में ही रख दी थी. . बहर हाल बच्चियों की शिक्षा को नज़र अंदाज़ करने के नतीजे महाराष्ट्र के नेताओं की समझ में आने लगे हैं . आज राज्य की राजधानी , मुंबई में यहाँ के स्थानीय लोगों की हैसियत बहुत ही कम हो गयी है. राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ होने के बावजूद मराठी मानूस मुंबई के उच्च वर्ग में शामिल नहीं है . कई चिंतकों से बात चीत करने पर पता चला कि इस हालत के लिए शिक्षा की कमी सबसे ज्यादा जिम्मेदार है .देर से ही, सही लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज ने पहल करना शुरू कर दिया है . सरकारी तौर पर एक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत प्रचार किया जा रहा है कि अगर लडकी शिक्षित होगी , तभी प्रगति होगी.इस अभियान का फर्क भी पड़ना शुरू हो गया है. यह मानी हुई बात है कि तरक्की के लिए शिक्षा की ज़रुरत है. और परिवार की तरक्की तभी होगी जब मान सही तरीके से शिक्षित होगी.

यह बात उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश के उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये जाते हैं . इन् इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की बात तो और भी चिंता पैदा करने वाली है. हज़रत मुहम्मद ने फरमाया था कि शिक्षा इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है. आपने कहा था कि अगर इल्म के लिए उन्हें चीन भी जाना पड़े तो कोई परेशानी वाली बात नहीं है. इसका मतलब यह है कि मुसलमान को शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है. कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज्यादा पिछडे हुए हैं . उनके इस पिछडेपन का एक बड़ा कारण यह है कि इन इलाकों में मुसलमानों की लड़कियों की शिक्षा का कोई इन्तेजाम नहीं है. जो बात समझ में नहीं आती , वह यह कि जब पैगम्बर साहेब ने ही तालीम पर सबसे ज्यादा जोर दिया था तो उनके बताये रास्ते पर चलने वाले शिक्षा के क्षेत्र में इतना पिछड़ क्यों गए. सब को मालूम है कि अगर लडकियां शिक्षित नहीं होंगी तो आने वाली नस्लें शिक्षा से वंचित ही रह जाएँगीं, इस लिए मुसलमानों के सामाजिक और धार्मिक नेताओं को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करें जिस के बाद उनकी अपनी बच्चियां अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें.अभी पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में यह बात सामने आई कि मुसलमानों में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं हो रही है. बड़े पत्रकार विनोद मेहता ने तो यहाँ तक कह दिया है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद , मुसलमानों ने आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के लिए कोई भी अहम् पहल नहीं की है. राजनीतिक सामाजिक नेता और लेखक आरिफ मुहम्मद खान के एक ताजे लेख से पता चलता है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक और क्रांतिकारी शिक्षाविद , सर सैय्यद अहमद खान को भी उस वक़्त के धार्मिक नेताओं ने खुशी से स्वीकार नहीं किया था . इस लिए मुसलमानों और समाज की तरक्की के लिए ज़रूरी है कि अर्जेंट आधार पर लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज और काम के नेता ज़रूरी पहल करें वरना खतरा यह है कि बहुत देर हो जायेगी. जहां तक समाज के सहयोग की बात है उसकी उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा की क्रान्ति के सूत्रधार ज्योतिबा फुले को भी उनके पिता जी ने घर से निकाल दिया था जब उन्होंने १८४८ में दलित लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला था. आज के समाज, खासकर मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों को आगे आने की ज़रुरत है जो सर सैय्यद की तरह आगे आयें और समाज को परिवर्तन की राह पर डालने की कोशिश करें

Saturday, August 8, 2009

ग़रीब लड़की चोरी नहीं करती...

देवरिया जिले के किसी गांव में बिट्‌टन नाम की एक लड़की रहती है, गरीब है, दलित है और मेहनत मजूरी करके दो जून की रोटी का इंतजाम करती है। गांव में ही कोई राय साहब रहते हैं उनका भरा-पूरा परिवार है, ग्रामीण हिसाब से संपन्न हैं और बिट्‌टन की गरीबी पर भारी पड़ते हैं। बिट्‌टन इन्हीं राय साहब के घर मजदूरी करती थी, घर का काम टहल करती थी, जूठा खाती थी, पुराने कपड़े पाकर धन्य हो जाती थी और राय साहब के घर की नौकरानी होने की वजह से अपने आस-पड़ोस में भी उसकी हनक थी।

यह सब खत्म हो गया क्योंकि बिट्‌टन पर चोरी का आरोप लगाकर राय साहब और उनके घर वालों से बिट्‌टन को पीटा, उसके शरीर के नाजुक अंगों में लोहे की गर्म सलाखों से निशान लगा दिए और बिट्‌टन की जिंदगी तबाह कर दी। बिट्‌टन की उम्र यही कोई 15-16 साल होगी। पूरी संभावना है कि बिट्‌टन की नानी 1947 के बाद पैदा हुई हो, यानी आज़ाद भारत मे जन्म लेने वाले गरीब दलितों की तीसरी पीढ़ी को भी इस देश का दबंग वर्ग लोहे की रॉड से दागता है और आजादी की लड़ाई में शामिल हर महापुरुष की विरासत को मुंह चिढ़ाता है।

कैसे होता है यह सब, खासकर उत्तरप्रदेश में जहां दलित की एक बेटी राज कर रही है, राज्य से गुंडो का सर्वनाश करने का बीड़ा उठाकर सत्ता में आई है और दलितों को आत्मसम्मान से जिंदा रहने का अधिकार देना उसकी राजनीति का बुनियादी आधार है?????

बिट्टन को असहाय किसने बनाया? आजादी के बासठ साल बाद भी बिट्‌टन पर ही चोरी का इल्जाम क्यों लगता है, जबकि इस बात की पूरी संभावना है कि राय साहब के घर में चोरी उनके परिवार के ही किसी व्यक्ति ने की हो, या उनकी पत्नी ने ही की हो, कथित रूप से जिनका मंगलसूत्र चोरी हुआ है। लेकिन संभ्रांत मानसिकता के दल-दल में फंसा हुआ प्रशासन, पुलिस, समाज यह मान ही नहीं सकता कि राय साहब का कोई संपन्न रिश्तेदार चोरी कर सकता है। चोरी करे या ना करे इलजाम तो बिट्टन पर ही लगेगा। इसलिए नहीं कि वह गरीब है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी रक्षा में खड़ी नहीं हो सकती।

बिट्‌टन को इतना असहाय किसने बनाया। सीधा सा जवाब है-अगर आजादी के बाद पैदा हुई बिट्‌टन की नानी ने गांव के पास के प्राइमरी स्कूल में जाकर शिक्षा ले ली होती तो पूरी संभावना है कि बिट्‌‌टन की मां किसी सरकारी नौकरी में होती और बिट्टन आज एक पढ़ी-लिखी लड़की होगी और किसी भी राक्षसनुमा राय साहब के यहां मजूरी न कर रही होती। बिट्टन की दुर्दशा पर आज क्रोध, निराशा, हताशा और पछतावा सब कुछ है।

जब आजादी के बाद सबको शिक्षा देने का इंतजाम कर दिया गया था तो बिट्टन की नानी के हाथ से तख्ती किसने छीन ली, क्यों हमारे देश में गरीबी और बदहाली को जिंदा रखने की राजनीति खेली जा रही है। सामाजिक बराबरी से परहेज यह मामला उत्तरप्रदेश का है लेकिन मायावती को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना गलत होगा, कायरता होगी। जरूरत इस बात की है कि यह समझा जाए आजादी मिलने के तीन पीढ़ियों बाद तक लोग क्यों गुलामी की जिंदगी बसर करने पर मजबूर क्यों हैं। जब महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भीमराव अंबेडकर और राममनोहर लोहिया ने समतामूलक, छुआछूत विहीन समाज की बात की थी तो उनके अनुयायियों ने आजादी के बाद उनकी राजनीतिक सोच को कार्यरूप में क्यों नहीं बदला।

शुरू के बीस साल उत्तरप्रदेश में गांधी नेहरू की पार्टी का राज रहा। बाद में भी कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में पंद्रह साल राज किया। गांधी ने कहा था कि छुआछूत को समाज से मिटाना होगा, जाति के आधार पर शोषण के निजाम को खत्म करना होगा। महात्मा जी ने जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात तो नहीं की थी लेकिन जाति को शोषण का आधार बनाने की हर स्तर पर मुखालफत की थी। सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के अलावा किसी कांग्रेसी ने कोई योजना चलाने की नहीं सोची। उल्टे इंदिरा गांधी के बाद के कांग्रेसियों ने ब्रिटिश हुकूमत के गुलाम राजाओं महाराजाओं को इतनी अहमियत दी कि कभी-कभी तो लगने लगा कि ब्रिटिश हुकूमत फिर लौट आई है।

डा.राम मनोहर लोहिया ने साफ कहा था कि जातिप्रथा का विनाश किया जाना चाहिए इसके लिए उन्होंने अपने सभी शिष्यों से कहा था कि सोचने या भाषण देने से जातिप्रथा समाप्त नहीं होगी। उसके लिए अंर्तजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना होगा और छुआछूत को मिटाना होगा। जातिवाद की दलदललोहिया के चेलों में जिन लोगों ने राज किया उनमें प्रमुख हैं, कर्पूरी ठाकुर, लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार। इन लोगों ने क्या कभी भी अपने राज्य में सह विवाह और सह भोजन की बात की? क्या कभी इन्होंने सरकारी नीतियों में कोई ऐसी राजनीतिक लाइन डालने की कोशिश की जिससे जाति प्रथा का जहर खत्म हो।

पिछले चालीस साल के राजनीतिक इतिहास पर गौर करें तो कहीं भी इस तरह की राजनीतिक सोच के बारे में जानकारी होने तक का पता नहीं लगता। डा.अंबेडकर का तो पूरा राजनीतिक दर्शन ही जाति के विकास के सिद्घांत पर आधारित है। उनका कहना था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, सामाजिक बराबरी का सपना पूरा नहीं होगा। पिछले पंद्रह साल से उत्तरप्रदेश की राजनीति में दखल रखने वाली मायावती ने एक बार भी डा.अंबेडकर के इस सपने को पूरा करने की कोशिश क्यों नहीं की, यह पहेली समझ पाना थोड़ा मुश्किल जरूर है, असंभव नहीं। लगता है कि सभी पार्टियों के बड़े नेता किसी न किसी जाति के मतदाताओं को अपना खास समर्थक मानते हैं और उस जाति की पहचान से छेड़छाड़ नहीं करना चाहते शायद इसीलिए गांधी, लोहिया और अंबेडकर के बताए रास्ते में चलने के बजाय जातिवाद के दलदल में फंसते गए।

लोकसभा चुनाव 2009 से कुछ संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि जातियां किसी भी पार्टी के साथ अब बहुत दिन तक चिपकी रहने वाली नहीं हैं। मसलन दलितों ने उत्तरप्रदेश में कई क्षेत्रों में मायावती के उम्मीदवार को हराने की कोशिश की। उत्तरप्रदेश के बाहर तो मायावती को दलित वोट लगभग न के बराबर मिला। बाकी दलों का भी यही हाल है। जाति को राजनीति का आधार बनाने वाली पार्टियों को आने वाले चुनावों में और तरीकों पर गौर करना होगा।

इसलिए उम्मीद बंधती है कि जाति को समाप्त करने की राजनीतिक आवश्यकता पर इनका ध्यान जायेगा और जाति का विनाश एक वास्तविकता की शक्ल अख्तियार करेगा। ऐसी हालत में सामाजिक और आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा और कोई बिट्‌टन इसलिए नहीं अपमानित होगी कि वह दलित है।