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Monday, May 27, 2013

सामंती समाज के परिवर्तन के संक्रमण के दौर में हुई थी मेरी शादी




शेष नारायण सिंह

३९ साल पहले मेरे पिताजी एक बारात लेकर जौनपुर जिले के टिकरी कलां गाँव के ठाकुर फ़तेह बहादुर सिंह के दरवाज़े गए थे और मेरी शादी हो गयी थी. जब मेरी शादी हुई तो  मैं कादीपुर के डिग्री कालेज में लेक्चरर था. अगले दिन हम अपने गाँव चले आये थे. मेरी माँ ने बताया था कि दुलहिन बहुत खूबसूरत है , बहुत गुनी है इसलिए मुझे उसको मानना जानना चाहिए . और साहेब हमने मानना जानना  शुरू  कर दिया . आज उनतालीस साल बाद लगता है कि माँ ने ठीक कहा था. क्योंकि बाद में गाँव वालों ने भी बताया कि कोटे की दुलहिन सबसे नीक है , या कि इतनी खूबसूरत दुलहिन साढ़े चारौ में कभी नहीं आयी . कोट का मतलब अवध में मामूली ज़मीन्दार का घर होता था यह कोर्ट का बिगड़ा हुआ रूप है . ज़मींदारी के ज़माने में इसी  दरवाज़े पर शायद गाँव या आस पास के गाँवों के लोगों के फैसले होते रहे होंगे . साढ़े चारौ का  मतलब यह है १८५८ में जिन दुनियापति सिंह को मकसूदन की जमीन्दारी अंग्रेजों की कृपा से मिली थी ,उनके चार बेटे थे. उनके जाने के बाद उनके तीन बेटों को ज़मीन में जो हिस्सा मिला होगा उन तीनों के बड़े भाई को हरेक भाई के हिस्से का डेढ़ गुना मिला होगा . इस तरह से साढ़े चार हिस्से  हो गए.
शादी के पहले मेरे गुरु डॉ अरुण कुमार सिंह ने कहा था कि फालिंग इन लव शादी के बाद भी हो सकता है जो जब मैंने अपने पिता जी से शादी के लिए हाँ कहा था तो मैंने फैसला कर लिया था कि शादी के बाद अपनी पत्नी से मुहब्बत तो करना ही है . आज मैं उनसे जो तीन बच्चों की माँ, चार बच्चों की  बड़ी अम्मा, सात बच्चों की मामी,एक बच्चे की नानी और एक बच्चे की दादी हैं , फुल मुहब्बत करता हूँ .
मुराद यह है कि कि सामंती सोच के हर पैमाने पर मेरी शादी सही बैठती है . मैं अपनी पत्नी की शकल देखने में शादी के अगले दिन कामयाब हुआ क्योंकि जब दुलहिन घर आयी तो मेरी छोटी बहिन ने  घूंघट उठा कर दिखा दिया था. मैंने अपनी माँ की आज्ञा मानकर अपनी पत्नी को मानना जानना शुरू कर दिया था .यानी माताजी के हुक्म से प्यार करना शुरू किया था . इस सामंती सोच से निकल कर हम दोनों आज बहुत ही आधुनिक बच्चों के माता पिता कहे जाते हैं . मेरी पत्नी ने बहुत शुरू में मुझे बता दिया था कि हम जो हैं वह तो हैं ही अब हमें अपने सपनों को बच्चों की  बुलंदी में देखना चाहिए . यह बात उन्होंने शादी के दिन नहीं कही थी , जब  हमारा बेटा पैदा हो गया था  तब यह बात  हुई थी. १९८० के बाद से हम दिल्ली में रहने लगे थे , उसके बाद हमें अपनी शादी की सालगिरह याद दिलाई जाती  रही. जहां तक मुझे याद है कि  तब से आज तक शादी की हर वर्ष गाँठ पर मैंने अपनी पत्नी को कोई न कोई उपहार ज़रूर दिया है . किसी साल बड़ी बेटी के लिए उसकी पसंद का फ्राक , किसी साल छोटी बेटी के लिए  उसके पसंद का पेन्सिल बाक्स , और किसी साल इन दोनों लड़कियों के बड़े भाई के लिए साइकिल . किसी साल घर के  लिए कोई बर्तनों का सेट तो किसी साल घर के लिए इन्वर्टर . किसी साल घर के लिए एसी . ज़रूरी नहीं कि यह सारे सामान शादी की सालगिरह के दिन ही  खरीद लिए जाएँ , २७ मई को तो बस वादा किया जाता था . बाद में किसी दिन जब पैसा होता था, सामान खरीद लिया जाता था.
बाद  के वर्षों में बातें आसान  होती गयीं और अब जब सारे बच्चे  अपने घरों में हैं अपनी गृहस्थी चला रहे हैं तो समस्या होने लगी है . अब मुझे २७ मई को अपनी पत्नी के लिए ऐसा गिफ्ट खरीदना है जो केवल उनके इस्तेमाल के लिए हो . हमारे सबसे प्रिय मित्रों ने ऐसी सलाह दी है लेकिन अजीब लग रहा है क्योंकि हमने कभी अपने लिए कुछ किया ही नहीं है . हमारी दुनिया बच्चों की खुशी के बाहर देखी ही नहीं गयी है . इस साल से मैं कोशिश शुरू कर रहा हूँ कि अपनी पत्नी को अपनी प्रेमिका मानना शुरू करूं. लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि गिफ्ट क्या  दूं. एक मित्र ने कहा है कि फूल दे दूं . इंदु को लगता है कि इस गर्मी में फूल खरीदना बेवकूफी की बात है .इसलिए अभी आइडियाज़ पर काम चल रहा है . हो सकता है कि शाम तक फिर कोई घर गृहस्थी के सामान पर ही जाकर रुक जाय क्योंकि  हमारे घर में जितनी भी शहरी जीवन में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें हैं वे हमारी शादी की साल गिरह के दिन  ही खरीदी गयी हैं . मेरी बड़ी बेटी ने २७ मई शुरू होते ही रात १२ बजकर एक मिनट पर हमें बधाई दे दी है. हम लोगों की इच्छा है कि जब हमारी शादी के चालीस साल पूरे हों तो हमारे तीनों बच्चे और उनके बच्चे  इकठ्ठा हों और हमें वे ही बताएं कि मेरी माता जी ने १९७४ में मुझे जो बताया था वह कितना सही था यानी  उनकी अम्मा ,दादी या नानी कितनी अच्छी हैं . लेकिन लगता है कि यह सपना पूरा नहीं हो पायेगा क्योंकि कोई मुंबई में है , कोई नार्वे में और कोई दिल्ली में .सब का इकठ्ठा होना बहुत आसान नहीं है .लेकिन सपने देखने में क्या बुराई है . आज हमारे बच्चे जो भी हासिल कर सके हैं उसमें उनकी माँ और मेरी प्रियतमा के वे सपने हैं जो उन्होंने तब देखे थे जब यह भी नहीं पक्का रहता था कि अगले दिन भोजन कहाँ से आएगा.
मेरी माँ की इच्छा थी कि उनकी बड़ी पुत्रवधू उनका सारा चार्ज ले ले . सो उनकी दुलहिन ने चार्ज ले लिया . और मैं पूरी ज़िंदगी के लिए उनकी बहू की खिदमत में तैनात कर दिया गया .उनके चार्ज लेने के बाद से मेरी तबियत हमेशा झन्न रही .मेरी बहनें ,मेरे भाई ,मेरे भांजे , भांजियां सब उनको ही जानते हैं . मेरी भूमिका केवल उस आदमी की है जो कोटे की दुलहिन का पति है  राजन. लालन ,निशा ,प्रतिमा ,डब्बू की मामी का फरमाबरदार है, बिट्टू, राहुल, पिंकी और उज्जवल की बड़ी अम्मा से डरता है , पप्पू, गुड्डी और टीनी की अम्मा का पति है और जिसके ऊपर सूबेदार सिंह अपनी भौजी के मार्फत दबाव डलवाकर कुछ भी करवा सकते हैं . बहरहाल  आज हमारी शादी की साल गिरह है इस अवसर पर अपने खानदान वालों की सामंती सोच पर ज्यादा चर्चा करना ठीक नहीं होगा. बस मैं खुश हूँ कि मेरी पत्नी आज बहुत खुश हैं


Saturday, October 16, 2010

बिहार की चुनावी राजनीति में परिवर्तन की दस्तक

शेष नारायण सिंह

बिहार चुनाव में एक और आयाम जुड़ गया है . बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने बुधवार को अपना पहला चुनावी दौरा करके यह साबित कर दिया है कि वे बिहार को अपनी पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं में बहुत ऊपर रख कर चल रही हैं . इसके बाद भी मायावती बिहार में चुनाव प्रचार करने जायेगीं और हर दौर के पहले कुछ चुनिन्दा विधानसभा क्षेत्रों में लोगों से वोट मागेगीं. पिछले दिनों बिहार में हुए उपचुनाव में उनकी पार्टी को एक सीट मिली थी . ज़ाहिर है कि राज्य में उनकी विचारधारा की स्वीकार्यता है. उनकी कोशिश है कि इस राजनीतिक स्थिति को चुनावी सफलता की कसौटी पर कसा जाय. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक साख बिहार के मतदाताओं के एक वर्ग में सौ फीसदी है . उत्तर प्रदेश में इस प्रयोग के राजनीतिक नतीजे सब के सामने हैं . इसलिए बिहार में मायावती के राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से बहुत सारे सपनों के धूल में मिल जाने की आशंका है . उनके दखल का फौरी नुकसान तो रामविलास पासवान को होगा क्योंकि रामविलास पासवान हालांकि अपने को दलित नेता कहते हैं लेकिन मायावती के टक्कर में उनकी वोट बटोरने की योग्यता का मीलों तक कहीं पता नहीं चलेगा . जिन वोटों के बल पर रामविलास पासवान ने बिहार में अपनी राजनीतिक हैसियत बनायी थी , उन वोटों में अब उनकी साख नहीं है . बिहार पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि राज्य के दलितों में उनके विकल्प की तलाश गंभीरता से शुरू हो गयी है . बिहार के मौजूदा राजनीतिक क्षितिज पर कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो शोषित पीड़ित वर्गों में विश्वास जगा सके .शायद इसीलिये गरीब आदमियों का एक वर्ग कांग्रेस की तरफ झुकता नज़र आ रहा था लेकिन मायावाती के प्रवेश के बाद सब कुछ बदल सकता है. मुसलमानों में भी नीतीश कुमार की बी जे पी से मुहब्बत को लेकर बहुत ऊहापोह के हालात हैं . बी जे पी के खूंखार छवि के नेताओं , नरेंद्र मोदी और वरुण गाँधी के खिलाफ खड़े होने का अभिनय करके नीतीश कुमार ने मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की है लेकिन वह प्रयास सफल होता नज़र नहीं आ रहा है . अब तक मुसलमान का झुकाव कांग्रेस की तरफ था लेकिन ३० सितम्बर को बाबरी मस्जिद के टाइटिल के फैसले के बाद सब कुछ बदल रहा है . हालांकि फैसला हाई कोर्ट का है लेकिन आम मुसलमान को शक़ हो गया है कि इसमें कांग्रेस का हाथ है . इसलिये कांग्रेस की तरफ उसके झुकाव में बहुत पक्के तौर पर कमी आई है . अब वह बी जे पी और उसके दोस्तों को हराने के लिए वैकल्पिक राजनीतिक समीकरण की तलाश कर रहा है . ऐसी हालत में उसे मायावती सूट करती हैं क्योंकि वरुण गांधी छाप खूंखार आतंकी राजनीति को मायावाती ने काबू करके दिखाया है . मुसलमानों के हाथ काट लेने वाले उनके भाषण के बाद मायावती ने उनको जेल में ठूंस दिया था और तब छोड़ा था जब गुप्त तरीके से जुगाड़ की राजनीति खेली गयी थी और वरुण गांधी को हड़का दिया था कि अगर दुबारा गैरजिम्मेदार भाषण करोगे तो रासुका लगा देगें. उसके बाद वरुण गांधी को सारी शेखी भूल गयी थी. ज़ाहिर है नीतीश के ज़बानी जमा खर्च की तुलना में वरुण गाँधी टाइप खूंखार भाषणबाज़ लोगों को काबू में करने का मायावती का तरीका लोगों को ज्यादा पसंद आता है . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि नीतीश के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रहे मुस्लिम राजनीति के नेताओं को कांग्रेस और नीतीश की तुलना में मायावती की राजनीति ज्यादा पसंद आयेगी. ऐसी स्थिति में बिहार में मायावती की राजनीतिक इंट्री बहुत ही दूरगामी राजनीतिक परिणामों को जन्म दे सकती है . बिहार की मौजूदा राजनीतिक पार्टियों से ऊब चुका दलित-पीड़ित तबका अगर मायावाती के रूप में अपने मसीहा को देखना शुरू कर देगा तो बिहार के राजनीतिक समीकरणों में बुनियादी बद्लाव आ जाये़या .

बिहार में मायावती के प्रवेश के बाद बहुत सारे राजनेताओं के भविष्य की इबारत भी बदल जायेगी . सबसे ज्यादा असर तो कांग्रेस के महामंत्री, राहुल गांधी की राजनीतिक क्षमता पर पडेगा . उन्होंने बिहार में बहुत सारा समय लगाया है . उनका निशाना नौजवान और मुसलमान हैं . जहां तक नौजवानों का सवाल है ,वे पूरे देश की तरह बिहार में भी जातियों में बँटे हैं . इसलिए वहां वोट की तलाश करना बेमतलब है. मुसलानों के बीच कांग्रेस के प्रति कुछ आकर्षण देखा गया था लेकिन अब मायावती के आ जाने के बाद समीकरण निश्चित रूप से बदल जायेगें. उत्तर प्रदेश में उन्होंने बहुत गंभीर तरीके से मुसलमानों को साथ लेने की राजनीति का सबूत दिया है .उनकी पार्टी ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया था .लोकसभा और विधानसभा में बड़ी संख्या में मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुने भी गए हैं. वरुण गांधी के साथ उनकी सरकार ने जैसा व्यवहार किया था, मुस्लिम इलाकों में उसकी बहुत इज्ज़त है . ज़ाहिर है कि मायावाती बिहार में मुसलमानों को अपनी राजनीति की तरफ खींच सकने की क्षमता रखती हैं . उनके साथ दलित वोट अपने आप खिंचे चले आते हैं . मुस्लिम-यादव वोट की राजनीति करके लालू प्रसाद यादव ने बिहार में पंद्रह साल तक राज किया था . अगर दलित और मुसलमान मिल गए तो मायावती बिहार की सरकार में प्रभावी दखल रख सकती हैं. उनकी उम्मीदवारों की सूची देखने से लगता है कि उन्होंने जीत सकने लायक ही लोगों को टिकट दिया है . अगर उम्मीदवार अपनी जाति का वोट लेने में कामयाब हो गया तो मायावती के करिश्मा की वजह से मिलने वाला दलित और मुस्लिम वोट उसे विधानसभा तक पंहुचा देगा . अभी यह सारी बातें राजनीतिक विश्लेषण के स्तर पर हैं लेकिन आने वाले वक़्त में उम्मीद की जानी चाहिये कि बिहार की चुनावी राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन की दस्तक पड़ रही है