शेष नारायण सिंह
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा के लिए हुए चुनाव नतीजे आ जाने के बाद ऐलान किया कि यह जीत बिहार की जनता की है . यह अलग बात है कि उनके साथ चुनाव लड़ने वाली बीजेपी इसे अपनी जीत मान रही है . और एन डी ए की नीतियों का डंका पीट रही है लेकिन सच्चाई नीतीश कुमार के बयान से साफ़ नज़र आ रही है . राजनीति के जानकार कहते हैं कि यह जीत न तो जे डी यू की है और न ही एन डी ए की , यह साफ़तौर पर नीतीश कुमार की जीत है . उनके साथ जो भी खड़ा था वह जीत गया .चाहे वह बीजेपी जैसी पार्टी ही क्यों न हो . एक और सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए . वह यह कि खुद नीतीश कुमार को भी नहीं अंदाज़ था कि बिहार की जनता उनके साथ इतने बड़े पैमाने पर जुड़ चुकी है . अगर ऐसा होता तो इस बात की पूरी संभावना है कि बीजेपी से ऊब चुके नीतीश कुमार चुनाव के पहले अकेले ही जाने का फैसला कर लेते और दिल्ली से ले कर पटना तक नीतीश की जीत को अपनी जीत बता रही बीजेपी भी उसी हस्र को पंहुच गयी होती जिसको, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान और कांग्रेस के लोग पंहुचे हैं . बिहार के चुनावों में पासवान की तरफ से प्रेस मैनेज कर रहे एक श्रीमानजी से जब पूछा गया था कि क्या राम विलास जी की पार्टी को कुछ सम्मानजनक सीटें मिल जायेगीं ,तो उन्होंने लगभग नाराज़ होते हुए कह दिया था कि २४ नवम्बर को गिनती के बाद देखिएगा, लालू जी के साथ मिलकर पासवान जी सरकार बनायेगें . उसी तरह , लालू भी मुगालते में थे. शायद इसीलिये उन्होंने नतीजों को विस्मयकारी बताया . कांग्रेस के लोग भी राहुल गाँधी की सभाओं में आ रहे लोगों की संख्या को वास्तविक मान रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि इस बार कांग्रेस की किस्मत सुधरेगी. लेकिन नतीजे आने के बाद बिलकुल साफ़ हो गया है कि सब लोग मुगालते में थे . किसी को भनक भी नहीं थी कि जनता क्या फैसला करने वाली है. जनता ने फैसला सुना दिया है और उसने नीतीश कुमार की हर बात का विश्वास किया है .फैसला इस बात का ऐलान है कि बिहार के लोग नीतीश के साथ हैं .
अपनी आदत के मुताबिक नीतीश कुमार ने जनता के फैसले को सिर झुका कर स्वीकार किया है और साफ़ कहा है कि उनके पास जादू की कोई छडी नहीं है जिसको घुमा कर वे हालात को तुरंत बदल दें लेकिन लोगों के लिए काम करने की इच्छाशक्ति है . यही बात सबसे अहम है . किसी के पास जादू की छडी नहीं होती लेकिन कुछ लोग बातें बड़ी बड़ी करते हैं . मौजूदा बिहार का सौभाग्य है कि वहां आज के युग में नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति मौजूद है लेकिन राज्य की बदकिसमती यह है कि उसके नेताओं में नीतीश कुमार के अलावा ज़्यादातर ऐसे हैं जो बातें बड़ी बड़ी कर रहे हैं . लालू प्रसाद ने जिस तरह से चुनावी नतीजों पर प्रतिक्रिया दी है वह निराशाजनक है , बीजेपी ने जिस तरह से जीत का दावा करना शुरू किया है वह भी बहुत ही अजीब है . यह किसी पार्टी की जीत नहीं है ,यह शुद्ध रूप से नीतीश कुमार की जीत है . और यह अंतिम सत्य है .
बिहार विधान सभा के लिए हुए २०१० के चुनावों के भारतीय राजनीति में बहुत सारी पुरानी मान्यताओं के खँडहर ढह जायेगें . सबसे बड़ा किला तो जातिवाद का ढह गया है . लालू प्रसाद और राम विलास पासवान ने तय कर लिया था उनकी अपनी जातियों के वोट के साथ जब मुसलमानों का वोट मिला दिया जाएगा तो बिहार में एक अजेय गठबंधन बन जाएगा . लेकिन ऐसा कहीं कुछ नहीं हुआ . उनके अपने सबसे प्रिय लोग चुनाव हार गए. राम विलास पासवान के दो भाई चुनाव हार गए . लालू प्रसाद की पत्नी दो सीटों से चुनाव हार गयीं . जाति के गणित के हिसाब से बहुत ही भरोसेमंद सीटों पर चुनाव लड़ रहे इन लोगों की हार जहां जाति के किले को नेस्तनाबूद करती है , वहीं राजनीति में घुस चुके परिवारबाद के सांप को भी पूरी तरह से कुचल देने की शुरुआत कर चुकी है . पूरे देश में और लगभग हर पार्टी में परिवारवाद का ज़हर फैल चुका है . इस चुनाव ने यह साफ़ संकेत दे दिया है कि अपने परिवार के बाहर देखना लोकतांत्रिक राजनीति का ज़रूरी हिस्सा है और बाकी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को भी अपने परिवार के बाहर टैलेंट तलाशने की कोशिश करनी चाहिए . यह चुनाव साम्प्रदायिक ताक़तों की भी हार है .अपने देश में साम्प्रदायिक वहशत के पर्याय बन चुके , नरेंद्र मोदी को जिस तरह से नीतीश कुमार ने बिहार आने से रोका , वह सेकुलर जमातों को अच्छा लगा और इन चुनावों में सेकुलर बिरादरी को महसूस हो गया कि सत्ता की राजनीति के मजबूरी में भले ही नीतीश कुमार बीजेपी को ढो रहे हैं लेकिन मूल रूप से वे बीजेपी-आर एस एस की साम्प्रदायिक राजनीति के पक्षधर नहीं हैं . शायद इसी समझ का नतीजा है कि इस बार मुसलमानों ने बड़ी संख्या नीतीश कुमार की बात का विश्वास किया और उनके उम्मीदवारों को जिताया . बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद एक और ज़बरदस्त सन्देश आया है . इस बार अवाम ने गुंडों को नकार दिया है .हाँ ,एकाध गुंडे जो नीतीश कुमार के साथ थे वे जीत गए हैं .लेकिन नीतीश कुमार के पिछले पांच साल के गुंडा विनाश के प्रोजेक्ट को जिन लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है अब हुकूमत में गुंडों का दखल बहुत कम हो जाएगा . नीतीश कुमार के सत्ता में आने के पहले के पंद्रह वर्षों में जिस तरह से बिहार में गुंडा राज कायम हुआ था और अपहरण एक उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका था, उसके हवाले से देखने पर साफ़ समझ में आ जाएगा कि गुंडा लालू प्रसाद के परिवार के राज में प्रशासन का स्थायी हिस्सा बन चुका था. पिछले पांच वर्षों में नीतीश ने उसे बहुत कमज़ोर कर दिया .जिसकी वजह से ही इस बार बड़े बड़े गुंडे और उनेक घर वाले चुनाव हार गए हैं. बिहार में नीतीश के राज में गुंडों का आतंक घटा है .
बीजेपी वाले नीतीश की जीत को गुजरात में नरेंद्र मोदी की जीत के सांचे में रखकर देखने के चक्कर में हैं .कई नेता यह कहते पाए जा रहे हैं कि कि एन डी ए का नारा विकास है और वे लोग नीतीश कुमार को भी अपने बन्दे के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं . लेकिन बात इतनी आसान नहीं है . एक तो तथाकथित एन डी ए का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है. गुजरात में भी नहीं . वहां शुद्ध रूप से मोदी के ब्रैंड की राजनीति चल रही है जिसका लक्ष्य हिन्दूराज कायम करना है . २००२ में शुरू करके पिछले गुजरात विधान सभा चुनाओं तक गुजरात के मुसलमानों में मोदी ने इतना आतंक फैला दिया था कि मुसलमान वहां दहशत में है और कई इलाकों में तो वह दर के मारे नरेंद्र मोदी के उम्मीदवारों को वोट भी दे रहा है . गुजरात में मुसलमान अब दबा कुचला वर्ग है और कोई भी राजनीतिक जमात उसके लिए किसी तरह की कोई लड़ाई लड़ सकने की स्थिति में नहीं है . इसके साथ साथ मोदी ने राज्य के औद्योगिक विकास को सरकारी तौर पर प्राथमिकता की सूची में डाल दिया है जिस से साम्प्रदायिक हो चुके समाज को संतुष्ट किया जा रहा है . गुजरात में भी बीजेपी या एन डी ए का कुछ नहीं है , वह नरेंद्र मोदी छाप राजनीति है जो मोदी को सरकार में बनाए हुए है . अपने आप को लूप में रखने के चक्कर में बीजेपी गुजरात से बिहार की तुलना करने की जो जल्दबाजी कर रही है ,उस से बचने की ज़रूरत है . बिहार में नीतीश की जो जीत है उसका गुजरात से कोई लेना देना नहीं है . हाँ अगर कोई बात तलाशी जा सकती है तो वह यह है कि बिहार में नरेंद्र मोदी को फटकार दिया गया था और नरेंद्र मोदी को डांट डपट कर नीतीश ने बिहार में एक बड़े वर्ग को अपने साथ कर लिया था .
बिहार ने एक बार फिर देश की राजनीति को दिशा दी है . इस बार वहां न तो जातिवाद चला और न ही परिवारवाद . अपने असफल बच्चों को राजनीति में उतारने की नेताओं की कोशिश को भी ज़बरदस्त झटका लगा है . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी राज्यों में भी जातिवाद और परिवारवाद को इसी तरह का झटका लगेगा. इस बार एक और दिलचस्प बात हुई है . बीजेपी के बावजूद मुसलमानों ने नीतीश कुमार का विश्वास किया और लालू प्रसाद के मुसलमानों के रहनुमा बनने के मुगालते को ठीक किया. बाबरी मस्जिद के फैसले के बाद कांग्रेस से दूर खिंच रहे मुसलमान ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर नीयत में ईमानदारी नहीं है तो वह बीजेपी के साथी नीतीश को तो वोट दे सकता है लेकिन अंदर ही अन्दर की दगाबाजी उसे बर्दाश्त नहीं है
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Thursday, November 25, 2010
Monday, October 25, 2010
बिहार में बदमाशी की राजनीति के खात्मे की शुरुआत
शेष नारायण सिंह
बिहार विधानसभा के लिए दूसरे दौर का मतदान पूरा हो गया . अभी चार दौर बाकी हैं . बिहार-2010 का चुनाव ऐतिहासिक माना जाएगा क्योंकि परम्परागत बिहारी मजबूती के सामने मुकामी गुंडे और माओवादी गुंडे नरम पड़ गए. जनता का राज कायम होने की दिशा में बिहार में यह पहला क़दम है . जनता ने पहली बार अपने आपको अधिकार देने का फैसला किया है. आज़ादी के बाद बिहार में नेताओं की जिस जमात ने काम संभाला उनमें से लगभग सभी सामंती सोच के लोग थे. और भी कारण रहे होगें लेकिन थे लेकिन वहां आज़ादी के बाद सामंतवाद का कुछ नहीं बिगड़ा. जो लोग ज़मींदार थे वे ही सत्ता में शामिल हो गए. हद तो तब हो गयी जब वहां ज़मींदारी उन्मूलन के लिए कोई प्रयास नहीं किये गए. नतीजा यह हुआ कि बिहार में कोई भी मिडिल क्लास नहीं बन पाया . बिहार में या तो बहुत ही संपन्न ज़मींदार थे और या बहुत गरीब लोग जो मूल रूप से ज़मींदारों की ज़मीन पर काम करने वाले खेतिहर मजदूर थे . साठ के दशक में जब गरीबों के बच्चे स्कूल जाने लगे तो शोषित पीड़ित लोग भी राजनीति में आये. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद राज्य में नौजवान नेताओं का जो नया वर्ग सामने आया ,उसमें बड़ी संख्या में पिछड़े और दलित थे. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद , राम विलास पासवान जैसे लोग राजनीति की शासकवर्गी धारा में शामिल हुए लेकिन शामिल होने के साथ साथ वे रास्ता भूल गए. दलितों वंचितों को अधिकार दिलाने के लिए किसी मौलिक संघर्ष की योजना पर इन लोगों ने विचार ही नहीं किया.. इन्होने वहीं जीवनशैली अपना ली जो बड़ी जातियों के सामंती सोच वाले नेताओं ने अपना रखी थी . डॉ राम मनोहर लोहिया की मृत्यु हो चुकी थी, जयप्रकाश बूढ़े हो चले थे और कर्पूरी टाकुर और भोला पासवान शास्त्री का जीवन इन नौरईस नेताओं को प्रभावित नहीं करता था . इन लोगों ने राजा की तरह ज़िन्दगी जीने के चक्कर में समतामूलक समाज की राजनीतिक लड़ाई को छोड़ दिया और दिल्ली में कहीं विश्वनाथ प्रताप सिंह तो कहीं सोनिया गांधी के दरबार के मुसाहिब हो गए . कुल मिलाकर इन्होने अपना सब कुछ अच्छे खाने और अच्छे कपडे के लिए दांव पर लगा दिया . जबकि इन्हें सभी दलितों-वंचितों के लिए उसी तरह की जीवन शैली का प्रबंध करने के लिए संघर्ष करना चाहिए था जैसी इन्होने अपने लिए तलाश ली थी. बहरहाल सत्तर के दशक में जे पी के आन्दोलन के बाद जो संभावना बनी थी उसे पिछड़े वर्गों के नेताओं ने ख़त्म कर दिया . अस्सी और नब्बे का दशक पूरी तरह से दलितों और पिछड़ों के नेताओं की उस विफलता की कहानी बयान करता है जिसमें वे भी सामंतों के साथ सुर में सुर मिला रहे थे. गरीबों के बहुत सारे बच्चे दिशा भूल चुके माओवादियों के जाल में फंस रहे थे और राज्य फिर तबाही की तरफ बढ़ रहा था . विचारधारा से शून्य जिन नेताओं ने बिहार पर राज किया उन्होंने गुंडों को इतनी इज्ज़त दे दी कि बिहार में जीना दूभर हो गया. बहुत बड़ी संख्या में लोग बिहार छोड़कर भागने लगे . मजदूर भी और पैसे वालों के बच्चे भी . शायद राज्य छोड़ कर बाहर गये लोगों ने अपने नए ठिकाने वाले राज्य से बिहार की तुलना की होगी और राजनीतिक ताक़त के मह्त्व को समझा होगा जिसके चलते आज बिहार में गुंडे बैकफुट पर हैं , उनको समर्थन देने वाले नेता अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं , माओवादियों की हैसियत सड़क छाप बदमाशों की रह गयी है , उनके किसी भी आवाहन को जनता टाल देती है.राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री भी अपराधियों के संरक्षक रह चुके हैं और गुजरात नरसंहार के खलनायकों के साथ कभी उनका बहुत याराना था .लेकिन आजकल असामाजिक तत्वों से बचकर रहते हैं.लालू के पंद्रह साल के राज से त्रस्त जनता उनको गंभीरता से ले रही है . हो सकता है कि उनकी किस्मत में ही बिहार को कुशासन से मुक्त कराना लिखा हो . बहरहाल दो दौर के मतदान बाद साफ़ संकेत मिल रहा है कि अब बिहार में बदमाशी और सामंती सोच वालों की राजनीति आख़री साँसे ले रही है
बिहार विधानसभा के लिए दूसरे दौर का मतदान पूरा हो गया . अभी चार दौर बाकी हैं . बिहार-2010 का चुनाव ऐतिहासिक माना जाएगा क्योंकि परम्परागत बिहारी मजबूती के सामने मुकामी गुंडे और माओवादी गुंडे नरम पड़ गए. जनता का राज कायम होने की दिशा में बिहार में यह पहला क़दम है . जनता ने पहली बार अपने आपको अधिकार देने का फैसला किया है. आज़ादी के बाद बिहार में नेताओं की जिस जमात ने काम संभाला उनमें से लगभग सभी सामंती सोच के लोग थे. और भी कारण रहे होगें लेकिन थे लेकिन वहां आज़ादी के बाद सामंतवाद का कुछ नहीं बिगड़ा. जो लोग ज़मींदार थे वे ही सत्ता में शामिल हो गए. हद तो तब हो गयी जब वहां ज़मींदारी उन्मूलन के लिए कोई प्रयास नहीं किये गए. नतीजा यह हुआ कि बिहार में कोई भी मिडिल क्लास नहीं बन पाया . बिहार में या तो बहुत ही संपन्न ज़मींदार थे और या बहुत गरीब लोग जो मूल रूप से ज़मींदारों की ज़मीन पर काम करने वाले खेतिहर मजदूर थे . साठ के दशक में जब गरीबों के बच्चे स्कूल जाने लगे तो शोषित पीड़ित लोग भी राजनीति में आये. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद राज्य में नौजवान नेताओं का जो नया वर्ग सामने आया ,उसमें बड़ी संख्या में पिछड़े और दलित थे. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद , राम विलास पासवान जैसे लोग राजनीति की शासकवर्गी धारा में शामिल हुए लेकिन शामिल होने के साथ साथ वे रास्ता भूल गए. दलितों वंचितों को अधिकार दिलाने के लिए किसी मौलिक संघर्ष की योजना पर इन लोगों ने विचार ही नहीं किया.. इन्होने वहीं जीवनशैली अपना ली जो बड़ी जातियों के सामंती सोच वाले नेताओं ने अपना रखी थी . डॉ राम मनोहर लोहिया की मृत्यु हो चुकी थी, जयप्रकाश बूढ़े हो चले थे और कर्पूरी टाकुर और भोला पासवान शास्त्री का जीवन इन नौरईस नेताओं को प्रभावित नहीं करता था . इन लोगों ने राजा की तरह ज़िन्दगी जीने के चक्कर में समतामूलक समाज की राजनीतिक लड़ाई को छोड़ दिया और दिल्ली में कहीं विश्वनाथ प्रताप सिंह तो कहीं सोनिया गांधी के दरबार के मुसाहिब हो गए . कुल मिलाकर इन्होने अपना सब कुछ अच्छे खाने और अच्छे कपडे के लिए दांव पर लगा दिया . जबकि इन्हें सभी दलितों-वंचितों के लिए उसी तरह की जीवन शैली का प्रबंध करने के लिए संघर्ष करना चाहिए था जैसी इन्होने अपने लिए तलाश ली थी. बहरहाल सत्तर के दशक में जे पी के आन्दोलन के बाद जो संभावना बनी थी उसे पिछड़े वर्गों के नेताओं ने ख़त्म कर दिया . अस्सी और नब्बे का दशक पूरी तरह से दलितों और पिछड़ों के नेताओं की उस विफलता की कहानी बयान करता है जिसमें वे भी सामंतों के साथ सुर में सुर मिला रहे थे. गरीबों के बहुत सारे बच्चे दिशा भूल चुके माओवादियों के जाल में फंस रहे थे और राज्य फिर तबाही की तरफ बढ़ रहा था . विचारधारा से शून्य जिन नेताओं ने बिहार पर राज किया उन्होंने गुंडों को इतनी इज्ज़त दे दी कि बिहार में जीना दूभर हो गया. बहुत बड़ी संख्या में लोग बिहार छोड़कर भागने लगे . मजदूर भी और पैसे वालों के बच्चे भी . शायद राज्य छोड़ कर बाहर गये लोगों ने अपने नए ठिकाने वाले राज्य से बिहार की तुलना की होगी और राजनीतिक ताक़त के मह्त्व को समझा होगा जिसके चलते आज बिहार में गुंडे बैकफुट पर हैं , उनको समर्थन देने वाले नेता अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं , माओवादियों की हैसियत सड़क छाप बदमाशों की रह गयी है , उनके किसी भी आवाहन को जनता टाल देती है.राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री भी अपराधियों के संरक्षक रह चुके हैं और गुजरात नरसंहार के खलनायकों के साथ कभी उनका बहुत याराना था .लेकिन आजकल असामाजिक तत्वों से बचकर रहते हैं.लालू के पंद्रह साल के राज से त्रस्त जनता उनको गंभीरता से ले रही है . हो सकता है कि उनकी किस्मत में ही बिहार को कुशासन से मुक्त कराना लिखा हो . बहरहाल दो दौर के मतदान बाद साफ़ संकेत मिल रहा है कि अब बिहार में बदमाशी और सामंती सोच वालों की राजनीति आख़री साँसे ले रही है
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Saturday, October 16, 2010
बिहार की चुनावी राजनीति में परिवर्तन की दस्तक
शेष नारायण सिंह
बिहार चुनाव में एक और आयाम जुड़ गया है . बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने बुधवार को अपना पहला चुनावी दौरा करके यह साबित कर दिया है कि वे बिहार को अपनी पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं में बहुत ऊपर रख कर चल रही हैं . इसके बाद भी मायावती बिहार में चुनाव प्रचार करने जायेगीं और हर दौर के पहले कुछ चुनिन्दा विधानसभा क्षेत्रों में लोगों से वोट मागेगीं. पिछले दिनों बिहार में हुए उपचुनाव में उनकी पार्टी को एक सीट मिली थी . ज़ाहिर है कि राज्य में उनकी विचारधारा की स्वीकार्यता है. उनकी कोशिश है कि इस राजनीतिक स्थिति को चुनावी सफलता की कसौटी पर कसा जाय. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक साख बिहार के मतदाताओं के एक वर्ग में सौ फीसदी है . उत्तर प्रदेश में इस प्रयोग के राजनीतिक नतीजे सब के सामने हैं . इसलिए बिहार में मायावती के राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से बहुत सारे सपनों के धूल में मिल जाने की आशंका है . उनके दखल का फौरी नुकसान तो रामविलास पासवान को होगा क्योंकि रामविलास पासवान हालांकि अपने को दलित नेता कहते हैं लेकिन मायावती के टक्कर में उनकी वोट बटोरने की योग्यता का मीलों तक कहीं पता नहीं चलेगा . जिन वोटों के बल पर रामविलास पासवान ने बिहार में अपनी राजनीतिक हैसियत बनायी थी , उन वोटों में अब उनकी साख नहीं है . बिहार पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि राज्य के दलितों में उनके विकल्प की तलाश गंभीरता से शुरू हो गयी है . बिहार के मौजूदा राजनीतिक क्षितिज पर कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो शोषित पीड़ित वर्गों में विश्वास जगा सके .शायद इसीलिये गरीब आदमियों का एक वर्ग कांग्रेस की तरफ झुकता नज़र आ रहा था लेकिन मायावाती के प्रवेश के बाद सब कुछ बदल सकता है. मुसलमानों में भी नीतीश कुमार की बी जे पी से मुहब्बत को लेकर बहुत ऊहापोह के हालात हैं . बी जे पी के खूंखार छवि के नेताओं , नरेंद्र मोदी और वरुण गाँधी के खिलाफ खड़े होने का अभिनय करके नीतीश कुमार ने मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की है लेकिन वह प्रयास सफल होता नज़र नहीं आ रहा है . अब तक मुसलमान का झुकाव कांग्रेस की तरफ था लेकिन ३० सितम्बर को बाबरी मस्जिद के टाइटिल के फैसले के बाद सब कुछ बदल रहा है . हालांकि फैसला हाई कोर्ट का है लेकिन आम मुसलमान को शक़ हो गया है कि इसमें कांग्रेस का हाथ है . इसलिये कांग्रेस की तरफ उसके झुकाव में बहुत पक्के तौर पर कमी आई है . अब वह बी जे पी और उसके दोस्तों को हराने के लिए वैकल्पिक राजनीतिक समीकरण की तलाश कर रहा है . ऐसी हालत में उसे मायावती सूट करती हैं क्योंकि वरुण गांधी छाप खूंखार आतंकी राजनीति को मायावाती ने काबू करके दिखाया है . मुसलमानों के हाथ काट लेने वाले उनके भाषण के बाद मायावती ने उनको जेल में ठूंस दिया था और तब छोड़ा था जब गुप्त तरीके से जुगाड़ की राजनीति खेली गयी थी और वरुण गांधी को हड़का दिया था कि अगर दुबारा गैरजिम्मेदार भाषण करोगे तो रासुका लगा देगें. उसके बाद वरुण गांधी को सारी शेखी भूल गयी थी. ज़ाहिर है नीतीश के ज़बानी जमा खर्च की तुलना में वरुण गाँधी टाइप खूंखार भाषणबाज़ लोगों को काबू में करने का मायावती का तरीका लोगों को ज्यादा पसंद आता है . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि नीतीश के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रहे मुस्लिम राजनीति के नेताओं को कांग्रेस और नीतीश की तुलना में मायावती की राजनीति ज्यादा पसंद आयेगी. ऐसी स्थिति में बिहार में मायावती की राजनीतिक इंट्री बहुत ही दूरगामी राजनीतिक परिणामों को जन्म दे सकती है . बिहार की मौजूदा राजनीतिक पार्टियों से ऊब चुका दलित-पीड़ित तबका अगर मायावाती के रूप में अपने मसीहा को देखना शुरू कर देगा तो बिहार के राजनीतिक समीकरणों में बुनियादी बद्लाव आ जाये़या .
बिहार में मायावती के प्रवेश के बाद बहुत सारे राजनेताओं के भविष्य की इबारत भी बदल जायेगी . सबसे ज्यादा असर तो कांग्रेस के महामंत्री, राहुल गांधी की राजनीतिक क्षमता पर पडेगा . उन्होंने बिहार में बहुत सारा समय लगाया है . उनका निशाना नौजवान और मुसलमान हैं . जहां तक नौजवानों का सवाल है ,वे पूरे देश की तरह बिहार में भी जातियों में बँटे हैं . इसलिए वहां वोट की तलाश करना बेमतलब है. मुसलानों के बीच कांग्रेस के प्रति कुछ आकर्षण देखा गया था लेकिन अब मायावती के आ जाने के बाद समीकरण निश्चित रूप से बदल जायेगें. उत्तर प्रदेश में उन्होंने बहुत गंभीर तरीके से मुसलमानों को साथ लेने की राजनीति का सबूत दिया है .उनकी पार्टी ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया था .लोकसभा और विधानसभा में बड़ी संख्या में मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुने भी गए हैं. वरुण गांधी के साथ उनकी सरकार ने जैसा व्यवहार किया था, मुस्लिम इलाकों में उसकी बहुत इज्ज़त है . ज़ाहिर है कि मायावाती बिहार में मुसलमानों को अपनी राजनीति की तरफ खींच सकने की क्षमता रखती हैं . उनके साथ दलित वोट अपने आप खिंचे चले आते हैं . मुस्लिम-यादव वोट की राजनीति करके लालू प्रसाद यादव ने बिहार में पंद्रह साल तक राज किया था . अगर दलित और मुसलमान मिल गए तो मायावती बिहार की सरकार में प्रभावी दखल रख सकती हैं. उनकी उम्मीदवारों की सूची देखने से लगता है कि उन्होंने जीत सकने लायक ही लोगों को टिकट दिया है . अगर उम्मीदवार अपनी जाति का वोट लेने में कामयाब हो गया तो मायावती के करिश्मा की वजह से मिलने वाला दलित और मुस्लिम वोट उसे विधानसभा तक पंहुचा देगा . अभी यह सारी बातें राजनीतिक विश्लेषण के स्तर पर हैं लेकिन आने वाले वक़्त में उम्मीद की जानी चाहिये कि बिहार की चुनावी राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन की दस्तक पड़ रही है
बिहार चुनाव में एक और आयाम जुड़ गया है . बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने बुधवार को अपना पहला चुनावी दौरा करके यह साबित कर दिया है कि वे बिहार को अपनी पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं में बहुत ऊपर रख कर चल रही हैं . इसके बाद भी मायावती बिहार में चुनाव प्रचार करने जायेगीं और हर दौर के पहले कुछ चुनिन्दा विधानसभा क्षेत्रों में लोगों से वोट मागेगीं. पिछले दिनों बिहार में हुए उपचुनाव में उनकी पार्टी को एक सीट मिली थी . ज़ाहिर है कि राज्य में उनकी विचारधारा की स्वीकार्यता है. उनकी कोशिश है कि इस राजनीतिक स्थिति को चुनावी सफलता की कसौटी पर कसा जाय. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक साख बिहार के मतदाताओं के एक वर्ग में सौ फीसदी है . उत्तर प्रदेश में इस प्रयोग के राजनीतिक नतीजे सब के सामने हैं . इसलिए बिहार में मायावती के राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से बहुत सारे सपनों के धूल में मिल जाने की आशंका है . उनके दखल का फौरी नुकसान तो रामविलास पासवान को होगा क्योंकि रामविलास पासवान हालांकि अपने को दलित नेता कहते हैं लेकिन मायावती के टक्कर में उनकी वोट बटोरने की योग्यता का मीलों तक कहीं पता नहीं चलेगा . जिन वोटों के बल पर रामविलास पासवान ने बिहार में अपनी राजनीतिक हैसियत बनायी थी , उन वोटों में अब उनकी साख नहीं है . बिहार पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि राज्य के दलितों में उनके विकल्प की तलाश गंभीरता से शुरू हो गयी है . बिहार के मौजूदा राजनीतिक क्षितिज पर कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो शोषित पीड़ित वर्गों में विश्वास जगा सके .शायद इसीलिये गरीब आदमियों का एक वर्ग कांग्रेस की तरफ झुकता नज़र आ रहा था लेकिन मायावाती के प्रवेश के बाद सब कुछ बदल सकता है. मुसलमानों में भी नीतीश कुमार की बी जे पी से मुहब्बत को लेकर बहुत ऊहापोह के हालात हैं . बी जे पी के खूंखार छवि के नेताओं , नरेंद्र मोदी और वरुण गाँधी के खिलाफ खड़े होने का अभिनय करके नीतीश कुमार ने मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की है लेकिन वह प्रयास सफल होता नज़र नहीं आ रहा है . अब तक मुसलमान का झुकाव कांग्रेस की तरफ था लेकिन ३० सितम्बर को बाबरी मस्जिद के टाइटिल के फैसले के बाद सब कुछ बदल रहा है . हालांकि फैसला हाई कोर्ट का है लेकिन आम मुसलमान को शक़ हो गया है कि इसमें कांग्रेस का हाथ है . इसलिये कांग्रेस की तरफ उसके झुकाव में बहुत पक्के तौर पर कमी आई है . अब वह बी जे पी और उसके दोस्तों को हराने के लिए वैकल्पिक राजनीतिक समीकरण की तलाश कर रहा है . ऐसी हालत में उसे मायावती सूट करती हैं क्योंकि वरुण गांधी छाप खूंखार आतंकी राजनीति को मायावाती ने काबू करके दिखाया है . मुसलमानों के हाथ काट लेने वाले उनके भाषण के बाद मायावती ने उनको जेल में ठूंस दिया था और तब छोड़ा था जब गुप्त तरीके से जुगाड़ की राजनीति खेली गयी थी और वरुण गांधी को हड़का दिया था कि अगर दुबारा गैरजिम्मेदार भाषण करोगे तो रासुका लगा देगें. उसके बाद वरुण गांधी को सारी शेखी भूल गयी थी. ज़ाहिर है नीतीश के ज़बानी जमा खर्च की तुलना में वरुण गाँधी टाइप खूंखार भाषणबाज़ लोगों को काबू में करने का मायावती का तरीका लोगों को ज्यादा पसंद आता है . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि नीतीश के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रहे मुस्लिम राजनीति के नेताओं को कांग्रेस और नीतीश की तुलना में मायावती की राजनीति ज्यादा पसंद आयेगी. ऐसी स्थिति में बिहार में मायावती की राजनीतिक इंट्री बहुत ही दूरगामी राजनीतिक परिणामों को जन्म दे सकती है . बिहार की मौजूदा राजनीतिक पार्टियों से ऊब चुका दलित-पीड़ित तबका अगर मायावाती के रूप में अपने मसीहा को देखना शुरू कर देगा तो बिहार के राजनीतिक समीकरणों में बुनियादी बद्लाव आ जाये़या .
बिहार में मायावती के प्रवेश के बाद बहुत सारे राजनेताओं के भविष्य की इबारत भी बदल जायेगी . सबसे ज्यादा असर तो कांग्रेस के महामंत्री, राहुल गांधी की राजनीतिक क्षमता पर पडेगा . उन्होंने बिहार में बहुत सारा समय लगाया है . उनका निशाना नौजवान और मुसलमान हैं . जहां तक नौजवानों का सवाल है ,वे पूरे देश की तरह बिहार में भी जातियों में बँटे हैं . इसलिए वहां वोट की तलाश करना बेमतलब है. मुसलानों के बीच कांग्रेस के प्रति कुछ आकर्षण देखा गया था लेकिन अब मायावती के आ जाने के बाद समीकरण निश्चित रूप से बदल जायेगें. उत्तर प्रदेश में उन्होंने बहुत गंभीर तरीके से मुसलमानों को साथ लेने की राजनीति का सबूत दिया है .उनकी पार्टी ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया था .लोकसभा और विधानसभा में बड़ी संख्या में मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुने भी गए हैं. वरुण गांधी के साथ उनकी सरकार ने जैसा व्यवहार किया था, मुस्लिम इलाकों में उसकी बहुत इज्ज़त है . ज़ाहिर है कि मायावाती बिहार में मुसलमानों को अपनी राजनीति की तरफ खींच सकने की क्षमता रखती हैं . उनके साथ दलित वोट अपने आप खिंचे चले आते हैं . मुस्लिम-यादव वोट की राजनीति करके लालू प्रसाद यादव ने बिहार में पंद्रह साल तक राज किया था . अगर दलित और मुसलमान मिल गए तो मायावती बिहार की सरकार में प्रभावी दखल रख सकती हैं. उनकी उम्मीदवारों की सूची देखने से लगता है कि उन्होंने जीत सकने लायक ही लोगों को टिकट दिया है . अगर उम्मीदवार अपनी जाति का वोट लेने में कामयाब हो गया तो मायावती के करिश्मा की वजह से मिलने वाला दलित और मुस्लिम वोट उसे विधानसभा तक पंहुचा देगा . अभी यह सारी बातें राजनीतिक विश्लेषण के स्तर पर हैं लेकिन आने वाले वक़्त में उम्मीद की जानी चाहिये कि बिहार की चुनावी राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन की दस्तक पड़ रही है
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शेष नारायण सिंह
Friday, June 25, 2010
मुसलमानों के वोट के चक्कर में बिहार के नेता क्या कर रहे हैं
शेष नारायण सिंह
गुजरात के मुख्य मंत्री , नरेंद्र मोदी को फटकार कर देश में कहीं भी धर्म निरपेक्ष जमातों की सहानुभूति बटोरी जा सकती है . गुजरात २००२ नर संहार के खलनायक को दुनिया में कहीं भी इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जता. अमरीका और यूरोप के ज़्यादातर देशों ने उनकी वीजा की दरखास्त को यह कह कर ठुकरा दिया है कि वे इतने खूंखार आदमी को अपने देश में आने की इजाज़त नहीं दे सकते. मुसलमान तो पूरे भारत में नरेंद्र मोदी को कातिल मानता है . जिन लोगों को २००२ में नरेंद्र मोदी की निगरानी में क़त्ल किया गया था ,उनमें बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के उन मूल निवासियों की थी जो रोजी रोटी की तलाश में गुजरात के शहरों में जाकर बस गए थे. शायद इसीलिये नरेंद्र मोदी की मुखालिफात करना उत्तर प्रदेश और बिहार में जीत का नुस्खा माना जाता है . अगर किसी के ऊपर यह आरोप साबित हो गया कि वह नरेंद्र मोदी का दोस्त है तो उसके वोटों की संख्या में भारी कमी हो जाती है . जानकार बताते हैं कि नरेंद्र मोदी के साथ अपनी फोटो के प्रचारित होने पर, बिहार के मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार का गुस्सा इस पृष्ठभूमि में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है . दुनिया जानती है कि नीतीश कुमार बिहार के मुख्य मंत्री बी जे पी की कृपा से बने हैं और आज भी अगर बी जे पी उनकी सरकार से समर्थन वापस ले ले तो पैदल हो जायेंगें . राजनीति की मामूली समझ वाला भी जानता है कि बी जे पी का सबसे मज़बूत नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी ही है . इसलिए नरेंद्र मोदी के विरोध के बाद किसी के लिए भी बी जे पी की मदद से हुकूमत करना असंभव है लेकिन नीतीश कुमार बने हुए हैं और राज कर रहे हैं . ज़ाहिर है बी जे पी और जे डी ( यू) के नेता एक ऐसी कुश्ती लड़ रहे हैं जिसमें शुरू में ही समझौता हो गया है कि वास्तव में कुश्ती नहीं लड़ना है , केवल अभिनय करना है . यह अभिनय सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है . इसके दो उद्देश्य हैं . एक तो यह कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ जो लोग भी हैं उनके घावों पर मरहम लगाकर उनके वोट को बटोर जाए और दूसरा यह कि हिंद्दुत्ववादी सोच के लोगों को नरेंद्र मोदी के हवाले से बी जे पी के साथ लामबंद किया जाए. यहाँ यह गौरतलब है कि नीतीश कुमार की पार्टी और नरेंद्र मोदी की पार्टी किसी पक्ष का कोई असली नुकसान नहीं कर रही है. केवल विधान सभा चुनावों के वोटों के लिए सभी पक्ष काम कर रहे हैं .
इस तरह नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के वोट अभियान में ताज़ा एपिसोड भी जुड़ गया है . बिहार पुलिस के कुछ पुलिस वाले गुजरात गए थे जहां वे कथित रूप से यह जांच करने वाले थे कि नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार की फोटो जारी करने वाली एजेंसी ने किसके हुक्म से यह काम किया था लेकिन अभियुक्तों या सम्बंधित पुलिस अधिकारियों के पास तो खबर बाद में पंहुची, मीडिया को पहले पता चल गया . जिसके बाद बी जे पी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू सीधे शरद यादव के पास पंहुच गए और इस से पहले कि सम्बंधित एजेंसी वाले के ऊपर कोई केस बन जाए, मामले को दबा दिया गया लेकिन इसका राजनीतिक फायदा जितना मिल सकता था, मिल गया . मुसलमानों और धर्म निरपेक्ष जमातों को पता चल गया कि नीतीश कुमार पूरे मन से मोदी की मुखालफत कर रहे हैं .जबकि नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों का कहीं कोई नुकसान भी नहीं हुआ . इस बात का भी खूब जोर शोर से अखबारों में प्रचार किया जा रहा है कि बी जी पी वाले नीतीश कुमार से बहुत नाराज़ हैं और सरकार से समर्थन वापस भी लेना चाहते हैं . . समर्थन वापसी का कोई मतलब नहीण है उस से बिहार सरकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्यों कि अब तो चुनाव की ही तैयारी चल रही है .४ महीने मेंचुनाव है .
कुल मिला कर बिहार की ताज़ा राजनीतिक हालात पर गौर करें तो साफ़ लगता है कि मामला शुद्ध रूप से मुसलमानों के वोट को अपने पक्ष में मोड़ने से सम्बंधित है . नीतीश ने बिहार में व्याप्त अराजकता को कंट्रोल किया है इस लिए मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका उनको समर्थन देना चाहता है . अति पिछड़ों यानी यादव विरोधी पिछड़ों में भी नीतीश ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक पैठ बनायी है . जे डी यू के वर्गचरित्र के हिसाब से सवर्णों का एक वर्ग भी उनके साथ है . इस में अगर मुसलमानों के वोट भी जुड़ जाएँ तो बिहार की राजनीति में यह एक अजेय फार्मूला है . आखिर लालू प्रसाद ने वहां एम वाई यानी मुस्लिम -यादव दोस्ती की राजनीति करके कई साल तक राज किया है . इस लिए बिहार की राजनीति के किसी खिलाड़ी को मुसलमानों के वोट का महत्व समझाना वैसे ही है जैसे चिड़िया के बच्चे को उड़ना सिखाना .बिहार में लालू यादव मुसलमानों के वोट के मुख्य दावेदार माने जाते हैं . लेकिन अपने शासन के दौरान उन्होंने मुसलमानों के कल्याण के लिए कोई ख़ास काम नहीं किया .पिछले ३ -४ वर्षों से कांग्रेस नेता , राहुल गाँधी मुसलमानों से संपर्क में हैं .शायद इसी वजह से उत्तर भारत में मुस्लिम समुदाय में कांग्रेस की लोक प्रियता भी बढ़ रही है . बिहार में मुस्लिम वोटों की दावेदारी में कांगेस का भी नाम आने लगा है . हालांकि कांग्रेस के पास अपना कोई बुनियादी वोट बैंक नहीं है लेकिन उसके लिए पूरी कोशिश चल रही है . बिहार प्रदेश की इन्चार्जी से हटाये जाने के पहले जगदीश टाइटलर ने भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी से घंटों बात की थी और उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश की थी . ज़ाहिर है कि मनोज तिवारी आज के सूचना क्रान्ति के ज़माने के बड़े नाम हैं और उनके साथ आने से कांग्रेस को उनकी बिरादरी के वोट तो मिलेगें ही, राज्य के बड़ी संख्या में नौजवान भी साथ आयेंगें .अगर इस वोट बैंक में मुसलमान जोड़ दिए जाएँ तो यह भी एक जिताऊ गठजोड़ बन सकता है . बताते हैं कि मनोज तिवारी ने इस लिए मना कर दिया कि वे अमर सिंह के बिना किसी पार्टी में नहीं जाना चाहते .अभी तक फिलहाल कांग्रेस में अमर सिंह के खिलाफ माहौल है लेकिन कल किसने देखा है. वैसे भी अमर सिंह अपने राज्य में अपनी राजनीतिक मौजूदगी का एहसास प्रभाव शाली तरीके करवा रहे हैं . समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद हाशिये पर आ गए अमर सिंह ने डुमरिया गंज उपचुनाव में अपनी पुरानी पार्टी के उम्मीदवार को पीस पार्टी नाम की एक नयी पार्टी को समर्थन दे कर शिकस्त दी है. डुमरिया गंज उपचुनाव में मुलायम सिंह के इस पूर्व सहयोगी ने दो बातें साबित की हैं . एक तो यह कि अमर सिंह अभी हार मानने को तैयार नहीं हैं और दूसरा कि वह मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में किसी से कमज़ोर नहीं हैं. अगर कांग्रेस पार्टी बिहार के समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए अमर सिंह के साथ उनके भीड़ जुटाऊ साथियों को साथ लेने का फैसला कर लेगी तो खेल बदल सकता है.
इस बात में कोई शक़ नहीं कि बिहार की राजनीति में बी जे पी के साथ की वजह से मुसलमानों में अछूत बन चुके नीतीश कुमार की मस्लिम वोट बैंक की दावेदारी के खेल में धमाकेदार वापसी हुई है . जिसके बाद बाकी दावेदार हतप्रभ हैं . क्योंकि आम तौर पार ज़ज्बाती मानसिकता के मुसलमानों के लिए मोदी की मुखालिफत को सम्मान की नज़र से देखा जाता है . लेकिन इस वापसी की वजह से बाकी दावेदारों में खलबली मच गयी है . हालांकि इस बात की पूरी संभावना है कि धर्म निरपेक्ष वोटों के स्पेस में सेंध लगाने के लिए ही नीतीश और बी जे पी ने यह नूरा कुश्ती लड़ी है लेकिन मामला बहस के दायरे में तो आ ही गया है . इसका फायदा नीतीश के अब तक के साथी नरेंद्र मोदी की पार्टी वालों को भी होगा क्योंकि मुसलमानों के पारंपरिक विरोधी वोटों के स्पेस में उनका कंट्रोल मज़बूत होगा . वैसे भी उन्हें मुसलमान न तो वोट देते हैं और न ही वे उसकी उम्मीद करते हैं . मुस्लिम वोटों की इस दौड़ में एक और महत्व पूर्ण राजनेता , राम विलास पासवान भी पिछड़ते नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी मुसलमानों के लिए बहुत काम किया है. बहुत सारे मुसलमानों को उन्होंने इज्ज़त दी है और उनके फायदे के लिए काम किया है. यहाँ तक की अमरीका तक में दलित-मुस्लिम सम्मलेन कर चुके हैं लेकिन आजकल वे हाशिये पर हैं. इस देश का मुसलमान राजनीतिक रूप से इतना सजग है कि वह उसी को वोट देना पसंद करता हैजो नरेंद्र मोदी की पार्टी को हराए . इस मामले में राम विलास पासवान खरे नहीं उतरते. वैसे भी वे बी जे पी के साथ सरकार में रह चुके हैं . ज़ाहिर है कि अगले ४ महीने में पटना की गद्दी के लिए लड़ाई तेज़ होगी और उसमें वे सारे गड़े मुर्दे उखाड़े जायेंगें जिसमें बिहार के राजनेताओं के बी जे पी प्रेम की कहानियां मुख्य रूप से बतायी जायेंगीं. इस किस्सागोई में नीतीश तो मुस्लिम विरोधी साबित हो ही जायेगें , राम विलास भी फंस सकते हैं क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी के किसी पूर्व मातहत को अपना शुभ चिन्तक मानने में मुसलमान को दिक्क़त होगी . कुल मिला कर अभी तस्वीर साफ़ नहीं है लेकिन मुस्लिम समर्थन के प्रमुख दावेदार लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के बीच फैसला होने की उम्मीद है. जो भी अपनी रणनीति सही तरीके से बनाएगा, जीत उसी की होगी. जहां तक नीतीश का प्रश्न है अगर उन्हें साफ़ अंदाज़ लग गया कि मोदी का विरोध करने से कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा है तो वे फिर शरद यादव को आगे करके बी जे पी के दरवाज़े पंहुच जायेंगें ..
गुजरात के मुख्य मंत्री , नरेंद्र मोदी को फटकार कर देश में कहीं भी धर्म निरपेक्ष जमातों की सहानुभूति बटोरी जा सकती है . गुजरात २००२ नर संहार के खलनायक को दुनिया में कहीं भी इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जता. अमरीका और यूरोप के ज़्यादातर देशों ने उनकी वीजा की दरखास्त को यह कह कर ठुकरा दिया है कि वे इतने खूंखार आदमी को अपने देश में आने की इजाज़त नहीं दे सकते. मुसलमान तो पूरे भारत में नरेंद्र मोदी को कातिल मानता है . जिन लोगों को २००२ में नरेंद्र मोदी की निगरानी में क़त्ल किया गया था ,उनमें बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के उन मूल निवासियों की थी जो रोजी रोटी की तलाश में गुजरात के शहरों में जाकर बस गए थे. शायद इसीलिये नरेंद्र मोदी की मुखालिफात करना उत्तर प्रदेश और बिहार में जीत का नुस्खा माना जाता है . अगर किसी के ऊपर यह आरोप साबित हो गया कि वह नरेंद्र मोदी का दोस्त है तो उसके वोटों की संख्या में भारी कमी हो जाती है . जानकार बताते हैं कि नरेंद्र मोदी के साथ अपनी फोटो के प्रचारित होने पर, बिहार के मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार का गुस्सा इस पृष्ठभूमि में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है . दुनिया जानती है कि नीतीश कुमार बिहार के मुख्य मंत्री बी जे पी की कृपा से बने हैं और आज भी अगर बी जे पी उनकी सरकार से समर्थन वापस ले ले तो पैदल हो जायेंगें . राजनीति की मामूली समझ वाला भी जानता है कि बी जे पी का सबसे मज़बूत नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी ही है . इसलिए नरेंद्र मोदी के विरोध के बाद किसी के लिए भी बी जे पी की मदद से हुकूमत करना असंभव है लेकिन नीतीश कुमार बने हुए हैं और राज कर रहे हैं . ज़ाहिर है बी जे पी और जे डी ( यू) के नेता एक ऐसी कुश्ती लड़ रहे हैं जिसमें शुरू में ही समझौता हो गया है कि वास्तव में कुश्ती नहीं लड़ना है , केवल अभिनय करना है . यह अभिनय सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है . इसके दो उद्देश्य हैं . एक तो यह कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ जो लोग भी हैं उनके घावों पर मरहम लगाकर उनके वोट को बटोर जाए और दूसरा यह कि हिंद्दुत्ववादी सोच के लोगों को नरेंद्र मोदी के हवाले से बी जे पी के साथ लामबंद किया जाए. यहाँ यह गौरतलब है कि नीतीश कुमार की पार्टी और नरेंद्र मोदी की पार्टी किसी पक्ष का कोई असली नुकसान नहीं कर रही है. केवल विधान सभा चुनावों के वोटों के लिए सभी पक्ष काम कर रहे हैं .
इस तरह नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के वोट अभियान में ताज़ा एपिसोड भी जुड़ गया है . बिहार पुलिस के कुछ पुलिस वाले गुजरात गए थे जहां वे कथित रूप से यह जांच करने वाले थे कि नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार की फोटो जारी करने वाली एजेंसी ने किसके हुक्म से यह काम किया था लेकिन अभियुक्तों या सम्बंधित पुलिस अधिकारियों के पास तो खबर बाद में पंहुची, मीडिया को पहले पता चल गया . जिसके बाद बी जे पी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू सीधे शरद यादव के पास पंहुच गए और इस से पहले कि सम्बंधित एजेंसी वाले के ऊपर कोई केस बन जाए, मामले को दबा दिया गया लेकिन इसका राजनीतिक फायदा जितना मिल सकता था, मिल गया . मुसलमानों और धर्म निरपेक्ष जमातों को पता चल गया कि नीतीश कुमार पूरे मन से मोदी की मुखालफत कर रहे हैं .जबकि नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों का कहीं कोई नुकसान भी नहीं हुआ . इस बात का भी खूब जोर शोर से अखबारों में प्रचार किया जा रहा है कि बी जी पी वाले नीतीश कुमार से बहुत नाराज़ हैं और सरकार से समर्थन वापस भी लेना चाहते हैं . . समर्थन वापसी का कोई मतलब नहीण है उस से बिहार सरकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्यों कि अब तो चुनाव की ही तैयारी चल रही है .४ महीने मेंचुनाव है .
कुल मिला कर बिहार की ताज़ा राजनीतिक हालात पर गौर करें तो साफ़ लगता है कि मामला शुद्ध रूप से मुसलमानों के वोट को अपने पक्ष में मोड़ने से सम्बंधित है . नीतीश ने बिहार में व्याप्त अराजकता को कंट्रोल किया है इस लिए मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका उनको समर्थन देना चाहता है . अति पिछड़ों यानी यादव विरोधी पिछड़ों में भी नीतीश ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक पैठ बनायी है . जे डी यू के वर्गचरित्र के हिसाब से सवर्णों का एक वर्ग भी उनके साथ है . इस में अगर मुसलमानों के वोट भी जुड़ जाएँ तो बिहार की राजनीति में यह एक अजेय फार्मूला है . आखिर लालू प्रसाद ने वहां एम वाई यानी मुस्लिम -यादव दोस्ती की राजनीति करके कई साल तक राज किया है . इस लिए बिहार की राजनीति के किसी खिलाड़ी को मुसलमानों के वोट का महत्व समझाना वैसे ही है जैसे चिड़िया के बच्चे को उड़ना सिखाना .बिहार में लालू यादव मुसलमानों के वोट के मुख्य दावेदार माने जाते हैं . लेकिन अपने शासन के दौरान उन्होंने मुसलमानों के कल्याण के लिए कोई ख़ास काम नहीं किया .पिछले ३ -४ वर्षों से कांग्रेस नेता , राहुल गाँधी मुसलमानों से संपर्क में हैं .शायद इसी वजह से उत्तर भारत में मुस्लिम समुदाय में कांग्रेस की लोक प्रियता भी बढ़ रही है . बिहार में मुस्लिम वोटों की दावेदारी में कांगेस का भी नाम आने लगा है . हालांकि कांग्रेस के पास अपना कोई बुनियादी वोट बैंक नहीं है लेकिन उसके लिए पूरी कोशिश चल रही है . बिहार प्रदेश की इन्चार्जी से हटाये जाने के पहले जगदीश टाइटलर ने भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी से घंटों बात की थी और उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश की थी . ज़ाहिर है कि मनोज तिवारी आज के सूचना क्रान्ति के ज़माने के बड़े नाम हैं और उनके साथ आने से कांग्रेस को उनकी बिरादरी के वोट तो मिलेगें ही, राज्य के बड़ी संख्या में नौजवान भी साथ आयेंगें .अगर इस वोट बैंक में मुसलमान जोड़ दिए जाएँ तो यह भी एक जिताऊ गठजोड़ बन सकता है . बताते हैं कि मनोज तिवारी ने इस लिए मना कर दिया कि वे अमर सिंह के बिना किसी पार्टी में नहीं जाना चाहते .अभी तक फिलहाल कांग्रेस में अमर सिंह के खिलाफ माहौल है लेकिन कल किसने देखा है. वैसे भी अमर सिंह अपने राज्य में अपनी राजनीतिक मौजूदगी का एहसास प्रभाव शाली तरीके करवा रहे हैं . समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद हाशिये पर आ गए अमर सिंह ने डुमरिया गंज उपचुनाव में अपनी पुरानी पार्टी के उम्मीदवार को पीस पार्टी नाम की एक नयी पार्टी को समर्थन दे कर शिकस्त दी है. डुमरिया गंज उपचुनाव में मुलायम सिंह के इस पूर्व सहयोगी ने दो बातें साबित की हैं . एक तो यह कि अमर सिंह अभी हार मानने को तैयार नहीं हैं और दूसरा कि वह मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में किसी से कमज़ोर नहीं हैं. अगर कांग्रेस पार्टी बिहार के समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए अमर सिंह के साथ उनके भीड़ जुटाऊ साथियों को साथ लेने का फैसला कर लेगी तो खेल बदल सकता है.
इस बात में कोई शक़ नहीं कि बिहार की राजनीति में बी जे पी के साथ की वजह से मुसलमानों में अछूत बन चुके नीतीश कुमार की मस्लिम वोट बैंक की दावेदारी के खेल में धमाकेदार वापसी हुई है . जिसके बाद बाकी दावेदार हतप्रभ हैं . क्योंकि आम तौर पार ज़ज्बाती मानसिकता के मुसलमानों के लिए मोदी की मुखालिफत को सम्मान की नज़र से देखा जाता है . लेकिन इस वापसी की वजह से बाकी दावेदारों में खलबली मच गयी है . हालांकि इस बात की पूरी संभावना है कि धर्म निरपेक्ष वोटों के स्पेस में सेंध लगाने के लिए ही नीतीश और बी जे पी ने यह नूरा कुश्ती लड़ी है लेकिन मामला बहस के दायरे में तो आ ही गया है . इसका फायदा नीतीश के अब तक के साथी नरेंद्र मोदी की पार्टी वालों को भी होगा क्योंकि मुसलमानों के पारंपरिक विरोधी वोटों के स्पेस में उनका कंट्रोल मज़बूत होगा . वैसे भी उन्हें मुसलमान न तो वोट देते हैं और न ही वे उसकी उम्मीद करते हैं . मुस्लिम वोटों की इस दौड़ में एक और महत्व पूर्ण राजनेता , राम विलास पासवान भी पिछड़ते नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी मुसलमानों के लिए बहुत काम किया है. बहुत सारे मुसलमानों को उन्होंने इज्ज़त दी है और उनके फायदे के लिए काम किया है. यहाँ तक की अमरीका तक में दलित-मुस्लिम सम्मलेन कर चुके हैं लेकिन आजकल वे हाशिये पर हैं. इस देश का मुसलमान राजनीतिक रूप से इतना सजग है कि वह उसी को वोट देना पसंद करता हैजो नरेंद्र मोदी की पार्टी को हराए . इस मामले में राम विलास पासवान खरे नहीं उतरते. वैसे भी वे बी जे पी के साथ सरकार में रह चुके हैं . ज़ाहिर है कि अगले ४ महीने में पटना की गद्दी के लिए लड़ाई तेज़ होगी और उसमें वे सारे गड़े मुर्दे उखाड़े जायेंगें जिसमें बिहार के राजनेताओं के बी जे पी प्रेम की कहानियां मुख्य रूप से बतायी जायेंगीं. इस किस्सागोई में नीतीश तो मुस्लिम विरोधी साबित हो ही जायेगें , राम विलास भी फंस सकते हैं क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी के किसी पूर्व मातहत को अपना शुभ चिन्तक मानने में मुसलमान को दिक्क़त होगी . कुल मिला कर अभी तस्वीर साफ़ नहीं है लेकिन मुस्लिम समर्थन के प्रमुख दावेदार लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के बीच फैसला होने की उम्मीद है. जो भी अपनी रणनीति सही तरीके से बनाएगा, जीत उसी की होगी. जहां तक नीतीश का प्रश्न है अगर उन्हें साफ़ अंदाज़ लग गया कि मोदी का विरोध करने से कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा है तो वे फिर शरद यादव को आगे करके बी जे पी के दरवाज़े पंहुच जायेंगें ..
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