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Friday, July 22, 2011

गीता के नाम पर शिक्षा को साम्प्रदायिक रंग दे रहे हैं बेल्लारी के नवाब

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक के एक मंत्री का बयान आया है कि कर्नाटक के स्कूलों में हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ गीता को जो नहीं स्वीकार करेगा उसे यह देश छोड़ देना चाहिए.कर्नाटक के सरकारी स्कूलों में गीता के अध्ययन को लगभग अनिवार्य कर दिया गया है . इसके बारे में जब शिक्षा विभाग के मंत्री ने बात की गयी तो उसने कहा कि गीता इस देश का महाकाव्य है और उसे भारत में रहने वाले हर व्यक्ति को सम्मान देना चाहिए . इस मंत्री को शायद पता नहीं है कि गीता महाकाव्य नहीं है , वह महाभारत महाकाव्य का एक अंश मात्र है .थोडा और घिरने पर मंत्री महोदय और बिखर गए. कहने लगे कि स्कूलों में चल रहा गीता वाला कार्यक्रम कोई सरकारी योजना नहीं है . उन्होंने जानकारी दी कि उत्तर कन्नडा जिले के सोंध स्वर्णावली मठ के ओर से वह कार्यक्रम चलाया जा रहा है . यानी राज्य के सरकारी स्कूलों में एक गैर सरकारी संस्था अपना कार्यक्रम चला रही है और राज्य सरकार का एक मंत्री उसकी पक्षधरता इस तरह से कर रहा है जिससे देश की बहुत बड़ी आबादी अपमानित महसूस कर सकती है . करनाटक के शिक्षा मंत्री के इस बयान से वह बात तो साफ़ हो ही जाती है जो वह कहना चाह रहा है लेकिन एक बात और साफ़ हो जाती है .वह यह कि कर्नाटक में जो समाज और स्कूली शिक्षा के साम्प्रदायीकरण का आभियान चल रहा है उसमें सरकार ऐसे लोगों को इस्तेमाल कर रही है जिन का सरकार से कोई लेना देना नहीं है .जब कभी सवाल उठेगा तो सरकार साफ़ मुकर जायेगी कि इस तरह का कोई अभियान कभी चला था. इस तरह की कारस्तानी का कोई आडिट आबजक्शन भी नहीं होता . इस मंत्री का बयान किसी ऐसे आदमी का बयान भी है जो गीता में दिए गये उपदेशों को बिलकुल नहीं समझता . गीता के अठारहों अध्यायों में कहीं भी ऐसा ज़िक्र नहीं है कि कहीं किसी ने ज़बरदस्ती की हो .सच्चाई यह है कि गीता का उपदेश ही दुर्योधन की ज़बरदस्ती के खिलाफ संघर्ष करने के लिए दिया गया था . गीताकार कृष्ण ने हमेशा किसी भी जोर ज़बरदस्ती का विरोध किया है . पूरी गीता में आपको कहीं कोई ऐसा सन्दर्भ नहीं मिलेगा जहां कृष्ण ने अर्जुन को कुछ भी करने का आदेश दिया हो . पूरी गीता में कृष्ण अर्जुन को समझा बुझाकर ही उन्हें युद्ध करने की प्रेरणा देना चाहते हैं .जबकि इस मंत्री के बयान से साफ़ है कि वह अगर ज़रुरत पड़ी तो जोर ज़बरदस्ती की बात भी कर सकता है . उसकी इस बयान बाज़ी की निंदा की जानी चाहिए . वैसे अगर ध्यान से देखा जाय तो वह मंत्री वही बातें कह रहा है जो आर एस एस की शाखाओं में सिखाया जाता है .यह भी सच है कि जो बातें शाखाओं में कही जाती हैं वे सार्वजनिक रूप से नहीं कही जातीं . हो सकता है उस मंत्री के आका लोग उसके इस बयान की वजह से उस पर कुछ अंकुश लगाने के बारे में भी सोचें . हर फासिस्ट संगठन यह सुनिश्चित करता है कि उसके अंदरखाने हुई बातों को सार्वजनिक न किया जाए. ऐसा ही आर एस एस में भी होता होगा. ज़ाहिर है संविधान की शपथ लेने वाले किसी मंत्री को संविधान के खिलाफ बयान देने का हक नहीं है . अगर वह ऐसा करता है तो उसे संविधान का अपमान करने का दोषी माना जाएगा .उस हालत में उसे मंत्री पद छोड़ना भी पड़ सकता है. बीजेपी ऐसा कोई रिस्क नहीं लेना चाहेगी. इसका मतलब यह हुआ कि उस मंत्री का बयान उसकी मूर्खता को रेखांकित भर करता है और कुछ नहीं .लेकिन उसके बयान से एक बात बहुत ही ज्यादा साफ़ हो गयी है कि कर्नाटक सरकार भी शिक्षा के साम्प्रदायीकरण की पूरी योजना बना चुकी है. बीजेपी या आर यस एस का हिन्दू धर्म के प्रचार प्रसार से कुछ भी लेना देना नहीं है . वे हिन्दू धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करने के अलावा और कुछ नहीं सोचते . लेकिन हिन्दू धर्म के जो ग्रन्थ हैं या जो महापुरुष हैं उनका राजनीतिक अभियान में इस्तेमाल करने की रणनीति पर काम करते हैं . इस काम को वे उत्तर प्रदेश में बखूबी कर चुके हैं . अयोध्या की बाबरी मस्जिद को आर एस एस ने बहुत ही योजनाबंद्ध तरीके से राम मंदिर घोषित कर दिया . उसके बाद भगवान् राम के व्यक्तित्व के इर्द गिर्द एक राजनीतिक तामझाम खड़ा किया . अपने सभी कार्यकर्ताओं को रामभक्त बना दिया और जब देश के बहुसंख्यक हिन्दू भगवान राम के नाम पर आर एस एस द्वारा शुरू किये गए संगठनों के प्रभाव में आ गए तो उनके वोट को बीजेपी की सत्ता हासिल करने की कोशिश के हवाले कर दिया .नतीजा सामने है . जहां बीजेपी दो सीटों में सिमट कर रह गयी थे उसी उत्तर प्रदेश के बल पर बीजेपी ने अपने आदमी को देश का प्रधान मंत्री बनवा दिया .कर्नाटक में गीता के साथ जोड़कर शुरू होने वाला अभियान भी इसी तरह की राजनीति को कार्यरूप देने की एक कोशिश मात्र है .

शिक्षा को साम्प्रदायिक करना आर एस एस की राजनीतिक का एक प्रमुख एजेंडा है . जानकार बताते हैं कि कर्नाटक में गीता के सहारे हिन्दुओं को एकमुश्त करने की योजना बन चुकी है . स्कूलों में यह अभियान चलाया जा रहा है . उत्तर प्रदेश में शिक्षा में ज़हर घोलने के लिए दूसरा तरीका अपनाया गया था. वहां के प्राइमरी स्कूलों को पहले ध्वस्त किया गया. १९६७ में जब सरकार में बीजेपी के पूर्व अवतार जनसंघ की भागीदारी हुई तो सबसे पहले योजनाबद्ध तरीके से राज्य के प्रैंरों स्कूलों को बेकार करने की रण नीति पर काम शुरू हुआ. इस योजना को १९७७ में आर एस एस वालों ने और आगे बढ़ाया . आर एस एस के एक विभाग का ज़िम्मा है कि वह दूर देहातों और क़स्बों में सरस्वती शिशु मंदिर नाम से प्राइमरी और मिडिल स्कूल खोलता है . ज्यों ज्यों प्राइमरी स्कूलों के दुर्दशा होती रही, उन इलाकों में सरस्वती शिशु मंदिर खुलते रहे. सरस्वती शिशु मंदिर वास्तव में निजी क्षेत्र के स्कूल होते हैं .इनमें सरकारी नियम कानून या पाठ्यक्रम नहीं चलते. इसलिए आर एस एस की शाखाओं में चलने वाली शिक्षा छोटे छोटे बच्चों को दी जाने लगी . छोटी उम्र में दी गयी शिक्षा कभी नहीं भूलती. जब कल्याण सिंह मुख्य मंत्री बने तो बहुत बड़े पैमाने पर सरस्वती शिशु मंदिर खोल दिए गए . आज उत्तर प्रदेश में जो चारों तरफ साम्प्रदायिक माहौल नज़र आता है उसके पीछे इन्हीं सरस्वती शिशु मंदिरों की शिक्षा का हाथ है . लगता है कि शिक्षा के साम्प्रदायीकरण के लिए कर्नाटक में गीता जैसे धर्मग्रन्थ चुना गया है . जो भी हो सभ्य समाज के लोगों को चाहिए कि करनाटक सरकार की इस कोशिश को बेनकाब करने का अभियान चलायें .

Friday, May 13, 2011

शिक्षा के बिना मुसलमानों का पिछड़ापन ख़त्म नहीं होगा

शेष नारायण सिंह

ओसामा बिन लादेन के मर जाने के बाद पूरी दुनिया से तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं .अमरीका में वहां के राष्ट्रपति की लोकप्रियता में ११ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है,यूरोप वाले पाकिस्तान को घेरने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तानी फौज और आई एस आई के चेहरे खिसियाहट में तरह तरह के रंग बदल रहे हैं , पाकिस्तानी हुकूमत की बेचारगी छुपाये नहीं छुप रही है , पाकिस्तानी अवाम को साफ लगने लगा है कि भारत से पाकिस्तानी शासकों ने जिस तरह की दुश्मनी कर रखी है ,उसके नतीजे बहुत भयानक हो सकते हैं.आग में घी डालते हुए भारत के सेना प्रमुख ने बयान दे दिया है कि भारतीय सेना अमरीकी कार्रवाई जैसे आपरेशन को अंजाम दे सकती है .आतंक के कारोबार में लगे पाकिस्तानी नेता सडकों पर रो रहे हैं और अपने लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि उनके तरीके को लोग क्यों सही मानें . जब उनके सबसे बड़े आका को ही उसके घर में घुसकर अमरीकी मार सकते हैं तो यह बेचारे किस खेल की मूली हैं .पाकिस्तान में आतंकवादी संगठनों ने कोशिश शुरू कर दिया है कि ओसामा बिन लादेन की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़कर एकजुटता की कोशिश की जाए . पता नहीं किस तरह यह लोग ओसामा बिन लादेन को मुसलमानों की अस्मिता से जोड़ेगें जबकि उसकी आतंक की राजनीति से मरने वालों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . ओसामा के सहयोगी संगठनों ने बेनजीर भुट्टो सहित जितने भी पाकिस्तानियों को मारा है वे सब मुसलमान थे . पाकिस्तान में उनके सहयोगी मुल्ला उमर और उनकी संस्था तालिबान ने जितने लोगों को मारा वे सब मुसलमान थे . भारत में भी उनके सहयोगी संगठनों की हिंसा के शिकार हुए लोगों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . लेकिन एक और अजीब बात सामने आ रही है . भारत में भी भावनाओं को उभारने के लिए कुछ लोग सक्रिय हो गए हैं . इसमें दो तरह के लोग हैं . एक तो वे धार्मिक नेता हैं जो चाहते हैं कि मुसलमान हमेशा पिछड़ा ही रहे. मुसलमानों के पिछड़े रहने में राजनेताओं का भी स्वार्थ रहता है . शायद इसीलिए वोट याचकों का एक वर्ग भी ओसामा की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़ने की कोशिश कर रहा है . जबकि आम मुसलमान के सामने जिस तरह की समस्याएं हैं, उनकी तरफ इन में से किसी का ध्यान नहीं जा रहा है . या अगर जा रहा है तो उस समस्याओं को टाल देने की रणनीति के तहत ओसामा जैसे नान इशू को हवा देने की कोशिश की जा रही है . मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है . सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. सवाल उठता है कि मुसलमानों के खैरख्वाह नेता लोग तालीम की बात को क्यों नहीं अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते ? सच्चाई यह है कि इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है . दक्षिण भारत में सरकारी सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है .एक उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार, सियासत के मालिकों ने एक स्कीम शुरू की . उन्होंने देखा कि उनके अखबार के दफ्तर में सुबह कोई काम नहीं होता . उन्होंने गरीब मुसलमानों के बच्चो के लिए मुफ्त कोचिंग शुरू करने का फैसला किया . कुछ ही वर्षों में नतीजे साफ़ नज़र आने लगे . एक बातचीत में पता चला कि शहर के एक गरीब ऑटोरिक्शा चालक की तीन बेटियाँ देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज, आई आई टी में पढ़ रही हैं . हैदराबाद में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं . इसी अखबार की पहल पर ही केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पार लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . राज्यसभा के उपाध्यक्ष ,के रहमान खान ने एक दिन बताया कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में बंगलोर शहर में मुसलमानों का को कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे. उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर कौम से अपील की. इन लोगों को अब तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद मिली. करनाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.

Sunday, August 16, 2009

हमारी माटी में त्रिपाठी जैसे भी

6 दिसंबर 1992 के दिन जब आरएसएस की साजिश के चलते अयोध्या की ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था तो उसके मलबे के नीचे बहुत कुछ दब गया था। सुप्रीम कोर्ट का उत्तर प्रदेश सरकार के ऊपर से विश्वास चकनाचूर हो गया था, इंसानी रिश्तों के अर्थ बदलने लगे थे और पहली बार दंगा गांवों में फैल गया था।

हिंदुत्व के नाम पर आतंक की खेती करने वाली जमातों की पूरी कोशिश थी कि इस देश में मुसलमानों को अपमानित किया जाय उनकी देश प्रेम की भावना पर सवाल उठाया जाय। हर शहर में मुसलमान को घेरने की कोशिश की जा रही थी। मुंबई शहर में शिव सेना की वजह से मुसलमानों को बहुत मुश्किलें पेश आईं, बहुत सारे घर जला दिए गए, लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। बहुत सारे मामलों में तो मरे हुए लोगों की लाशें गायब कर दी गईं। दंगाइयों को मालूम था कि अगर मृतक की लाश गायब कर दी जाय तो उसके आश्रितों को मुआवज़ा नहीं मिलता।

बंबई दंगों में मारे गए बहुत से लोगों की लाशें भी नहीं मिली थीं। कहीं-कहीं तो पूरे परिवार तबाह हो गए थे और बच्चे अनाथ हो गए थे। बंबई और अन्य शहरों के दंगाइयों के खिलाफ पूरे देश में धर्मनिरपेक्ष सोच के लोग लामबंद हो गए थे। दंगा करने वालों के खिलाफ एक मौन आक्रोश था लेकिन नागरिकों का एक वर्ग ऐसा भी था जिनका आक्रोश मुखर था। बंबई में धर्मनिरपेक्ष बुद्घिजीवियों की खासी बड़ी संख्या है। असगर अली इंजीनियर राम पुनियानी, शबाना आजमी, सुमा जोसन, शुक्ला सेन कुछ ऐसे नाम हैं जो दंगे के खिलाफ जनमत बनाने में जुट गए। चिंतित नागरिकों की जमात में एक ऐसा आदमी था जो सरकारी अफसर था, दंगा पीडि़तों की मदद करना उसकी सरकारी ड्यूटी थी। वह भी दंगाइयों के हौसलों के सामने अपने आपको असहाय महसूस कर रहा था।

मुंबई दंगों के बाद किसी नेता की हिम्मत नहीं थी कि पीडि़तों के इलाकों में शक्ल दिखाने जा सके। सबको मालूम था कि उस वक्त की कांग्रेसी सरकार के दंगाइयों के नेता से बहुत अच्छे संबंध थे। सरकार की ध्वस्त हो चुकी साख के बीच किसी सरकारी अफसर का वहां पहुंचना और पीडि़त लोगों का विश्वास हासिल कर पाना बहुत ही कठिन काम था। ऐसे माहौल में महाराष्ट्र में तैनात आईएएस अधिकारी सतीश त्रिपाठी ने जब दंगा पीडि़त इलाकों का दौरा किया तो सन्न रह गए थे। दंगाइयों ने जिस तरह से मुसलमानों को तबाह किया था उसके बारे में सोच कर आज भी वे सिहर उठते हैं। त्रिपाठी ने देखा कि सरकारी कायदे कानून ऐसे हैं जिनकी सीमा में रहकर पीडि़तों की मदद नहीं की जा सकती।

उन्होंने एक गैर सरकारी संगठन बनाकर लोगों की मदद करने का फैसला किया और 'सेतु' नाम का संगठन बनाया। दंगे में मारे गए जिन लोगों की लाशों को गायब कर दिया था या जिनका अपहरण करके कहीं और ले जाकर मारा गया था और शव ठिकाने लगा दिया गया था उनके परिवार वालों को मदद दिलवाने के लिए सतीश त्रिपाठी ने दिल्ली तक लड़ाई लड़ी। उन्होंने सरकारी मशीनरी का पीडि़तों के पक्ष में इस्तेमाल करने का फैसला किया। साथ ही अपने स्वयंसेवी संगठन को भी सक्रिय कर दिया। उनके संगठन ने दंगों में अनाथ हुए 92 बच्चों की पढ़ाई लिखाई का जिम्मा लिया।

इनमें से कई बच्चे तो आत्मनिर्भर हो चुके हैं, अपनी रोजी रोटी कमा रहे हैं। बाकी पढ़ रहे हैं और आगे चलकर उनके भी कामकाज में लग जाने की संभावना है। सतीश त्रिपाठी अब सरकारी सेवा से रिटायर हो चुके हैं। सांप्रदायिक सद्भाव के बारे में उनकी सोच अन्य लोगों के लिए उदाहरण बन सकती है। मूलरूप से उत्तर प्रदेश के देवरिया के रहने वाले सतीश त्रिपाठी ने कलकत्ता विश्व विद्यालय से शिक्षा ग्रहण करके आईएएस में प्रवेश किया था। 37 साल की सेवा के बाद सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं अब वह काम पूरी मेहनत से कर रहे हैं जो वे हमेशा से ही करना चाहते थे। अब वे पूरा समय मुसलमानों की पक्षधरता में लगाते हैं।

दिसंबर 1992 के बाद जब सारी दुनिया बदल गई थी तो बहुत सारे लोगों की शख्सियत की पहचान हुई। बाद में उन्होंने महाराष्ट्र के औरंगाबाद और मालेगांव के पीडि़तों के साथ खड़े होकर उनकी मदद की, लापता लोगों को तलाशने में सरकारी ताकत का इस्तेमाल किया। सतीश त्रिपाठी की संस्था सेतु का सांप्रदायिक सदभाव का रिकॉर्ड अनुकरणीय है। इसीलिए उनकी संस्था को सन 2007 का राष्टï्रीय सांप्रदायिक सदभावना पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार केंद्र सरकार की तरफ से सांप्रदायिकता के खिलाफ काम करने वालों को दिया जाता है। आजकल श्री त्रिपाठी मदरसों में पढऩे वाले गरीब मसुलमानों के बच्चों की शिक्षा के लिए काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में मदरसों की व्यवस्था बहुत ही अव्यवस्थित है। जो भी बच्चे वहां भरती होते हैं, उसमें मुश्किल से दो तीन फीसद बच्चे ही धार्मिक विषयों की उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं और समाज में सम्मानित होते हैं।

लेकिन 95 फीसद बच्चे मदरसे में चार पांच साल बिताकर ही वापस आ जाते हैं। तब तक उनकी उम्र 13-14 साल की हो चुकी होती है। ज़ाहिर है वे नए सिरे से पढ़ाई नहीं शुरू कर सकते और शिक्षा के अभाव में सही रोजगार नहीं मिलता। सतीश त्रिपाठी ने ऐसी स्कीम बनाई है कि इन बच्चों को उनके मदरसों में ही सर्वशिक्षा अभियान की योजना के तहत दीनी तालीम के अलावा अन्य विषयों की भी शिक्षा दी जाय। जब यह बच्चे मदरसों से निकलते हैं तो उनके पास पांचवी या छठवीं पास का ट्रांसफर सर्टिफिकेट होता है जो सरकार की ओर से मान्यता प्राप्त होता है और जिसकी बिना पर उन्हें छठवीं या सातवीं क्लास में प्रवेश मिल जाता है। इस तरीके से वे अपनी ही आयु वर्ग के बच्चों के साथ उच्च शिक्षा हासिल कर सकते हैं।

सतीश त्रिपाठी का यह काम आने वाली नस्लों को इज्ज़त से रोटी कमाने और सम्मान से जिंदा रहने का मौका देता है। इस तरह से शिक्षित नागरिक मदरसा की शिक्षा के कारण अच्छी उर्दू के जानकार होंगे। इनको धार्मिक मामलों की समझ होगी और नौकरी के लिए ज़रूरी शिक्षा भी उनके पास होगी जिसकी वजह से उन्हें समाज में सम्मान मिलेगा। समाज को सतीश त्रिपाठी जैसे लोगों पर गर्व करना चाहिए।

Thursday, July 30, 2009

शिक्षा के क्षेत्र में ओबामा की पहल

अमरीका में भारत और चीन से जाकर शिक्षा लेने वाले बच्चों की बहुत इज्जत है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि अमरीका की शिक्षा व्यवस्था इस तरह की बनाई जाएगी कि वह भारत और चीन की शिक्षा के स्तर से मुकाबला कर सके। सच्चाई यह है कि अमरीका में शिक्षा का स्तर बहुत ऊंचा है, वहां कोई समस्या नहीं है। मुसीबत यह है कि अमरीकी नौजवान शिक्षा के प्रति उतना गंभीर नहीं है जितना भारतीय और चीनी नौजवान है।

नई शिक्षा व्यवस्था शुरू करने से ओबामा की योजना है कि अधिक से अधिक अमरीकी नौजवान ग्रेजुएट स्तर की शिक्षा और काम करने की कुशलता सीखे। ओबामा की इस योजना को अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव नाम दिया गया है। उनकी कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा लोग सामुदायिक कालेजों में जायं और काम करने के लिए कुछ नई योग्यताएं हासिल करें। उस योजना में अगले दस वर्षों तक 12 अरब डॉलर खर्च किया जाएगा। इस धन की व्यवस्था उस सब्सिडी को काटकर की जाएगी जो अभी बैंकों और प्राइवेट वित्तीय संस्थानों दी जाती है जिससे वे मंहगी शिक्षा के लिए दिए जाने वाले कर्ज की ब्याज दर कम करने के लिए इस्तेमाल करते हैं।

सब्सिडी काटकर ओबामा ने यह ऐलान कर दिया है कि संपन्न वर्गों को ज्यादा सुविधा न देकर उनका प्रशासन अब आम आदमी की तरफ ज्यादा ध्यान देगा। बराक ओबामा का अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव एक महत्वपूर्ण योजना है। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद प्रेसिडेंट ट्रमैन ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण पहल की थी। उसके बाद से इतने बड़े पैमाने पर शिक्षा के क्षेत्र में कोई पहल नहीं हुई। दरअसल उच्च शिक्षा के लिए ओबामा की यह पहल बेरोजगारी की समस्या को हल करने की दिशा में दूरगामी और महत्वपूर्ण कदम है।

अमरीकी अर्थव्यवस्था के विकास के बाद ऐसा माहौल बन गया था कि हाई स्कूल तक की पढ़ाई करने के बाद बच्चे कोई न कोई नौकरी पा जाते थे। इसीलिए उच्च शिक्षा के लिए एशिया के देशों, खासकर भारत और चीन के बच्चों को फेलोशिप आदि देकर अमरीकी विश्वविद्यालयों में रिसर्च करने के लिए उत्साहित किया जाता था। नतीजा यह हुआ है कि निचले स्तर पर तो बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान काम कर रहा है लेकिन ऊपर के स्तर पर विदेशियों की संख्या ज्यादा है। ग्रेजुएशन इनीशिएटिव के माध्यम से ओबामा की कोशिश है कि बड़ी से बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान अच्छी शिक्षा लेकर नौकरियों की ऊपरी पायदान पर पहुंचे जिससे अमरीकी समाज और राष्ट्र का भला हो।

किसी भी राष्ट्र की तरक्की में शिक्षा के महत्व और उसकी मुख्य भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता भारत में पिछड़ेपन का मुख्य कारण शिक्षा की कमी ही थी। आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की दूर तक सोच सकने की क्षमता का ही नतीजा था कि उन्होंने बड़ी संख्या में विश्व स्तर के शिक्षा केंद्रों की स्थापना की। सामाजिक जीवन में सक्रिय लोगों को भी स्कूल कालेज खोलने की प्रेरणा दी। नतीजा यह हुआ कि बड़े पैमाने पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आजादी के बाद की गई पहल का नतीजा था कि देश के कई हिस्सों, खासकर दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई।

जब 1991 में डा. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया गया तो उन्होंने आर्थिक विकास को उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर डाल दिया। उन्होंने कहा कि नौजवानों में कौशल के विकास और अच्छी शिक्षा के बिना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता था। शिक्षा के महत्व को डा. मनमोहन सिंह से बेहतर कौन समझ सकता था। अविभाजित पंजाब के एक छोटे से गांव में पैदा हुए मनमोहन सिंह ने शिक्षा के बल पर ही समाज में इज्जत पाई थी और वर्तमान पद पर भी वे उच्च शिक्षा के बल पर पहुंचे है।

1991 में की गई उनकी शुरुआत का ही नतीजा है कि देश में शिक्षा संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। कुछ धूर्त किस्म के लोगों ने भी उच्च शिक्षा के केंद्र खोल कर कमाई शुरू कर दी है लेकिन समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा। बराक ओबामा भी शिक्षा के बल पर ही अपनी वर्तमान पोजीशन तक पहुंचे है। उन्हें भी मनमोहन सिंह की तरह ही शिक्षा का महत्व मालूम है। शायद इसीलिए शिक्षा व्यवस्था में सुधार के रास्ते वे अमरीकी समाज को तरक्की के रास्ते पर एक बार फिर से डालने की कोशिश कर रहे है।

Sunday, July 26, 2009

आने वाले वक़्त की परेशानी

राज्य में उच्च शिक्षा पर अनिश्चितता हावी होती जा रही है। सरकार हालात से वाकिफ होने के बावजूद इस मामले में लापरवाही बरत रही है। इससे छात्र-छात्राओं के भविष्य पर सवालिया निशान लग रहा है। राजधानी दून समेत राज्य के बड़े हिस्से में उच्च, व्यावसायिक व रोजगारपरक शिक्षा से जुड़े निजी, सरकारी व सहायताप्राप्त अशासकीय शिक्षण संस्थाएं नए संकट से जूझ रही हैं।

इसकी वजह गढ़वाल विवि के केंद्रीय विवि बनने के बाद उससे जुड़े करीब पौने दो सौ से ज्यादा शिक्षण संस्थाओं को अगले सत्र में संबद्धता के मामले में स्थिति का खुलासा नहीं होना है। विवि प्रशासन ने तमाम संस्थानों को पत्र जारी कर अगले सत्र में प्रवेश रोकने को कहा है।

इस मुद्दे पर नीति निर्धारण नहीं किया गया है। विवि प्रशासन जानता है कि शिक्षण संस्थाओं ने मौजूदा रवैया अगले सत्र में जारी रखा तो उसके समक्ष भी परेशानी खड़ी हो सकती है। केंद्रीय विवि को स्तरीय उच्च शिक्षण संस्थान के तौर पर देखा जाता है। यह माना भी जा रहा है कि गढ़वाल विवि की कार्यप्रणाली में अब बदलाव आएगा।

हालांकि, केंद्रीय विवि की घोषणा के बाद ही उसके एक्ट में इस सत्र में तमाम संस्थानों की संबद्धता जारी रखी गई है पर भविष्य में बड़ी तादाद में इन संस्थानों को विवि अपने साथ रखेगा, ऐसी उम्मीद कम ही है। शासन के आला अफसरों और उच्च शिक्षा मंत्रालय की कमान संभाल रहे मुख्यमंत्री का इन हालात से परिचित होना लाजिमी है।

इसके बावजूद समय रहते इस दिशा में कदम नहीं उठाने से हालत और बिगडऩे के आसार हैं। यही नहीं, गुणवत्ता को विवि अब ज्यादा देर तक नजरअंदाज नहीं कर सकेगा, यह पैरामेडिकल शिक्षण संस्थानों के मामले में अपनाए गए रवैये से भी साफ हो गया है।

मानकों का पालन नहीं करने वाले संस्थानों के प्रवेश फार्म आखिरी तारीख बीतने के बाद भी स्वीकार नहीं किए गए हैं। चुनाव के मौके पर नीतिगत फैसले नहीं लेने की बाध्यता सरकार भले ही महसूस करे पर सैकड़ों छात्र-छात्राओं को अपना भविष्य अंधकारमय नजर आना लाजिमी है।