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Sunday, December 1, 2013

अमरीका की नज़र में इरान की बढ़ती अहमियत से सउदी अरब बहुत परेशान है

  
शेष नारायण सिंह

कभी इरान के शाह पहलवी अमरीका के बहुत प्रिय  हुआ करते थे लेकिन जब उनकी ज्यादतियां सारी हदें पार कर गयीं तो इरान की अवाम ने पेरिस में रह रहे एक धार्मिक नेता अयातोल्ला खुमैनी के नेतृत्व में उनका तख़्त बदल दिया ताज बदल दिया और इस्लामी सरकार कायम कर दी. इरान में अपनी तरह की लोकशाही शुरू हो गयी और अमरीका और इरान में दूरियां बढ़ गयीं . एक मुकाम तो ऐसा भी आया जब अमरीका ने इरान पर सद्दाम हुसैन से हमला करवाया . यह पुरानी बात है .उसके बाद से दजला और फरात  नदियों में  बहुत पानी बह गया . सद्दाम हुसैन जो कभी अमरीका के सबसे करीबी भक्त हुआ करते थे , अमरीका की कृपा से मारे जा चुके हैं इराक में अब शिया मतावलंबी प्रधानमंत्री पदस्थ किया जा चुका है और अमरीका की समझ में पूरी तरह से आ गया है कि इरान से  पंगा लेना उसको बहुत महँगा पड़ सकता है . ऐसे महौल में अमरीका ने एडी चोटी  का जोर लगाकर इरान से दोस्ती की कोशिश शुरू कर दी है . परमाणु  हथियारों की अपनी दादागीरी की आदत से अमरीका को बहुत नुक्सान हुआ  है लेकिन  वह दुनिया के किसी मुल्क की परमाणु ताकत को वह अभी भी दबा देना चाहता है .अमरीका समेत सुरक्षा परिषद के सभी पाँचों स्थायी सदस्यों की इच्छा यही रहती है कि उनके अलावा और कोई भी परमाणु ताक़त न बने लेकिन उनकी चल नहीं रही है . इरान के मामले में भी एक बार यही हो रहा है लेकिन दुनिया की राजनीति के बदल रहे नए समीकारणों के चलते अब खेल बदल गया है . अब इरान को एक परमाणु शक्ति के रूप में स्वीकार करने के अलावा अमरीका के सामने और कोई रास्ता नहीं है .
इरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है .इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी  देश के हौसले को नहीं रोक पाईं . बहर हाल आखीर में उनकी समझ में आ गया कि इरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए ,उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए .
मौजूदा समझौते के बाद इरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा .दस्तावेज़ में लिखा  है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा . इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा . ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है .इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है . उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है .इसके बदले में  अमरीका ,फ्रांस ,चीनरूसजर्मनी और ब्रिटेन ने इरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें . इरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी . सुरक्षा परिषद में भी इरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा . ओबामा की सरकार भी  इरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई  गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता इरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं .

इजरायल इस नए कूटनीतिक विकास से सबसे ज़्यादा परेशान है .उसके ज़ाहिर से कारण है . अभी तक वह अमरीका के लठैत के रूप में पश्चिम एशिया में मनमानी करता रहा  है लेकिन सउदी अरब की परेशानी भी कम नहीं है . इरान के साथ अमरीका के रिश्ते ठीक होने का नतीजा यह होगा कि पश्चिम एशिया में अमरीका के सबसे भरोसेमंद अरब देश के रूप में पहचाने जाने वाले देश के रूप में साउदी हनक कम हो जायेगी . इरान की कोशिश यह भी चल रही है कि पश्चिम एशिया में शिया शासकों की संख्या बढ़ाई जाए . जबकि यह  रियाद को यह बिलकुल पसंद नहीं है . साउदी अरब  ने देखा है कि  किस तरह से २०१० के चुनाव के बाद भी इरान की मदद से इराक में शिया राष्ट्रपति बना रहा  गया . रियाद की परेशानी यह है कि अमरीकी सत्ता में उनके कोई लाबी ग्रुप नहीं हैं . इसलिए वह अमरीका की नीतियों को उ सत्रह से नहीं प्रभावित कर पाता जिस तरह से इजरायल कर लेता है .इसलिए इरान के साथ हुए अमरीका और अन्य ताक़तवर देशों के समझौते को समर्थन देने के अलावा साउदी अरब के पास कोई रास्ता नहीं था. साउदी अरब को डर है कि पश्चिम एशिया की राजनीति में उनकी घट रही ताक़त को और गति मिल जायेगी . उनके घोषित शत्रु इरान अब उनके आका अमरीका के करीब आ  जाएगा.  इरान ने अपनी ताक़त इराक और लेबनान में बढ़ा  ही  लिया है .सीरिया में भी बशर अल असद के साथ इरान के सम्बन्ध हैं और सुन्नियों के हमलों को रूस और इरान के बल पर लगातार नाकाम किया जा रहा है . साउदी अरब को उम्मीद थी कि वह सीरिया के खिलाफ भी फौजी ताक़त का इस्तेमाल करेगा .खासतौर से जब पिछले अगस्त में दमिश्क के पास एक आबादी पर सीरिया की सेना की तरफ से कथित रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की खबर आई थी . अगर ऐसा हुआ होता तो  बशर अल असद की सत्ता को हटाकर साउदी पसंद  का कोई शासक वहाँ बैठाया जा सकता था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा  ने दूसरा रास्ता चुन लिया. उन्होने रूस से समझौता कर लिया कि सीरिया अपने रासायनिक हथियारों को खत्म कर देगा . हालांकि इस समझौते को ओबामा की भारी कूटनीतिक सफलता माना गया लेकिन साउदी अरब को इस से बहुत निराशा हुई .

अमरीका की कथित शह से पश्चिम एशिया और इत्तर अफ्रीका में लोकतंत्र की आवाजें जब जोर पकड़ने लगीं तो साउदी हुक्मरान बहुत चिंतित हुए .इसी प्रक्रिया में उनका सबसे करीबी अरब दोस्त होस्नी मुबारक हटा दिया गया और बहरीन में भी सुन्नी शासक के खिलाफ जब लोकतंत्र वाले जुलूस निकलने लगे तो साउदी अरब वालों को लगा कि उस आभियान को भी इरान का सहयोग हासिल है . बहरीन का शासक सुन्नी है लेकिन वहाँ भी आबादी का बहुमत वाला हिस्सा शिया समुदाय वालों का है .
कुल मिलाकर साउदी अरब को इस बात से नाराज़गी तो है कि अमरीका इरान की तरफ खिंच रहा  है लेकिन जानकारों को मालूम है कि अमरीका अभी साउदी अरब से रिश्ते खराब नहीं कर सकता . खादी के देशों में अमरीकी हितों के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में रियाद की हैसियत अभी कायम है और आने वाले बहुत दिनों तक उसके कमज़ोर होने की कोई संभावना नहीं है .लेकिन अमरीका भी खाड़ी के देशों में साउदी अरब के विकल्प की तलाश कर रहा  है . इराक में सत्ता परिवरतन के साथ उनको उम्मीद थे एकी वहाँ एक ऐसा साथी मिल जाएगा जो पुराने सद्दाम हुसैन की तरह काम करेगा लेकिन वाहन बहुमत की सत्ता आ गयी और बहुमत वहाँ शियाओं का है . नतीजा यह  हुआ कि  वहाँ का शासक इरान के ज़्यादा  करीब चला गया . अमरीका को खाड़ी के धार्मिक संप्रदायों की उठा पटक में कोई रूचि नहीं है .उसे तो वहाँ ऐसे राजनीतिक हालात चाहिए जिससे उसकी मौजूदगी औउर ताकत मजबूती के साथ जमी रहे . सबको मालूम है कि किसी भी कूटनीतिक चाल का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हित को मुक़म्मल तौर पर पक्का करना होता है .इसलिए अमरीका इस इलाके में साउदी अरब के ऊपर निर्भरता कम करने के लिए इरान को साथ लेने की नीति पर काम कर रहा  है . यह शुरुआत है . साउदी अरब को मालूम है कि  ओबामा अब खाड़ी के देशों की राजनीति पर उतना ध्यान नहीं देगें क्योंकि अब चीन के आस पास के देश उनकी प्राथमिकता सूची में ज़्यादा ऊपर आ गए हैं .
इस सबके बावजूद भी साउदी अरब और अमरीका के बीच बहुत कुछ साझा  है .दोनों ही देश पश्चिम एशिया में अल कायदा और इरान की बढती ताकत से परेशान हैं . अमरीका को लाभ यह है  कि वह इरान से दोस्ती करके  अपनी कूटनीतिक चमक को मज़बूत कर सकता है लेकिन यह रियाद वालों को बिलकुल सही नहीं लगता . उनके पास अमरीका के अलावा क्सिई उअर से मदद की उम्मीद भी नहीं है और संभावना भी नहीं है . बीच में साउदी शासकों ने यूरोपियन  यूनियन से दोस्ती बढाने की कोशिश की थी लेकिन वे बेचारे तो अमरीका की ही मदद के याचक  हैं . रूस और चीन भी अमरीका का विकल्प नहीं बन सकते इसलिए न चाहते हुए भी साउदी अरब को अमरीका का साथी बने रहने में भलाई नज़र आती है . लेकिन एक बात साफ़ है कि इरान से जिनेवा में हुए इस समझौते के बाद  खाड़ी की राजनीति में मौलिक बदलाव आने वाला है . यह भी तय है कि पिछले कई दशकों से अमरीकी राजनीति की गलतियों के चलते पश्चिम एशिया में जो संघर्ष के हालत पैदा हो गए थे अब उनमें भी बदलाव होना तय है . हो सकता है कि इसका श्रेय  बराक ओबामा के खाते में जाय और उनकी वह वाही हो लेकिन मध्यपूर्व में अमरीका के सबसे बड़े सहयोगी के रूप में साउदी अरब की हैसियत कम होने के दिन बहुत करीब आ गए हैं .

Friday, November 29, 2013

इरान के साथ परमाणु समझौता पश्चिम एशिया की शांति की तरफ एक अहम क़दम है



शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया के कुछ देशों की तरह इरान को भी काबू में करने की अमरीकी विदेशनीति की योजना को अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अलविदा कह दिया है और इरान के साथ परमाणु मसले पर जिनेवा में सुरक्षा परिषद के सभी स्थायी सदस्यों और जर्मनी के विदेश मंत्रियों के बीच एक समझौता हो गया है .रविवार आधी रात के बात सभी संबद्ध पक्षों ने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया .अमरीका ,फ्रांस,चीन रूस,ब्रिटेन और जर्मनी के साथ इरान के  इस समझौते ने पश्चिम एशिया की राजनीति को एक नई राह पर डाल दिया है . अमरीका की सरकार और समाज में मौजूद इजरायल के एजेंट और तेल अवीव की इजरायली सरकार इस डील से बहुत नाराज़ हैं .जबकि इरान की सरकार ने इस सौदे का स्वागत किया है .इरान की ओर से बातचीत में शामिल उनके विदेशमंत्री , मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने कहा कि इस समझौते के बाद एक ऐसी समस्या से जान छुड़ाने का मौक़ा मिलेगा जिसमें पड़ना ही नहीं चाहिए था. समझौते  के बारे में तरह तरह की व्याख्याएं की जा रही हैं लेकिन सच्ची बात यह है कि जहां इरान की नीयत पर अमरीका सहित उसके समर्थक देश वर्षों से शक करते रहे हैं ,आज उनके बीच एक समझौता हो गया है . समझौते के बाद इरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा कि इस समझौते में इरान के परमाणु संवर्धन कार्यक्रम जारी रखने के अधिकार को मान्यता  दी गयी है .उन्होंने कहा कि जिसको जो जी चाहे मतलब निकालने दीजिए लेकिन समझौते में साफ़ लिखा  है कि इरान का परमाणु संवर्धन कार्यक्रम चलता रहेगा लेकिन अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी ने कहा कि कि ऐसा नहीं हैं .इरान के परमाणु कार्यक्रम को बतौर अधिकार मान्यता नहीं दी गयी है .उनको आपसी बातचीत के बाद ही परमाणु कार्यक्रम जारी रखने का अधिकार है . जिनेवा में जिस समझौते पर दस्तखत हुए हैं वह अंतरिम समझौता  है जो जून तक के लिए मान्य है . इस बीच अमरीका और उसके साथियों को इरान के साथ एक स्थायी इंतजाम करना पडेगा .अगर ज़रूरी हुआ तो मौजूदा समझौते  को कुछ और समय दिया जा सकता है .बहरहाल अमरीका और इरान दोनों ही देशों को अपने लोगों के बीच समझौते तो स्वीकार्य बनाना है इसलिए उसकी अपने हिसाब से राजनीतिक व्याख्या की जाएगी. बाकी दुनिया को इसमें केवल यह रूचि है कि अमरीकी जिद के चलते जो तनाव की स्थिति बनी हुई थी फिलहाल उस पर एक विराम लग गया है .और शान्ति की संभावना बढ़ गयी है .अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा का दावा है कि इस समझौते के बाद दुनिया अधिक सुरक्षित हो जायेगी .अब इस बात की जांच की जा सकती है कि इरान का परमाणु कार्यक्रम  शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही जारी रख सकेगा ,उससे हथियार नहीं बनाए जा सकेगें .
इस समझौते से भारत को भी कुछ उम्मीदें हैं . सरकारी तौर पर बताया  गया है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अज़ीज़ और इरान के विदेश मंत्री मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ के बीच तेहरान में हुई बात चीत से पता चला है कि इरान से पाकिस्तान के रास्ते भारत आने वाले पाइपलाइन के प्रोजेक्ट पर फ़ौरन काम शुरू हो जाएगा . अमरीकी अड़चन के कारण इसपर काम नहीं हो रहा था. इस पाइपलाइन से इरान के पेट्रोलियम उत्पाद  भारत पंहुचने में सुविधा होगी और भारत को बहुत बड़ी बचत होगी. पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था को भी बहुत मदद मिलेगी .हालांकि पाकिस्तान के पास पाइपलाइन बनाने के लिए धन की कमी है और उसने इरान से दो अरब अमरीकी डालर का कर्ज माँगा है लेकिन एक बार राजनीतिक परेशानियों के हट जाने के बाद यह समस्या भी आसान हो जायेगी .
इरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है .अब अमरीका और उसके साथी देशों की समझ में आ गया है  कि इरान को दौन्दियाया नहीं जा सकता और शान्ति की तरफ केवल कूटनीतिक बातचीत के सहारे ही  चला जा सकता  है . इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी के देश के हौसले को नहीं रोक पाईं . बहर हाल आखीर में उनकी समझ में आ  गया कि इरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए ,उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए . अब अमरीका और उसके साथी देशों की कोशिश यही होनी चाहिए कि इस अंतरिम समझौते को स्थायी रूप देने के उपाय करें . हालांकि यह बहुत आसान नहीं होगा . सभी देश इस  चक्कर में हैं कि इरान से रास्ता खुलने के बाद ज्यादा से ज्यादा लाभ लिया जाये होगा लेकिन फिलहाल तो अमरीका को उस धन को इरान को वापस देना है जो उसने पाबंदियों के बहाने दुनिया के कई देशों की बैंकों में ज़ब्त करवा रखा है .
मौजूदा समझौते के बाद इरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा .दस्तावेज़ में लिखा  है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा . इरान की इस बात को संपन्न देश नज़रंदाज़ नहीं कर सके कि संपन्न दुनिया में बिजली की बड़ी ज़रूरत परमाणु संयत्रों से ही पूरी की जाती है और  समझौते में शामिल सभी देशो के अलावा अर्जेंटीना,ब्राजील, भारत,जापान ,नीदरलैंड्स ,उत्तरी कोरिया ,इजरायल और पाकिस्तान के पास भी पार्माणु संवर्धन के कार्यक्रम चल रहे  हैं . इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा . ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है .इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है . उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है .इसके बदले में  अमरीका ,फ्रांस ,चीन, रूस, जर्मनी और ब्रिटेन ने इरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें . इरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी . सुरक्षा परिषद में भी इरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा . ओबामा की सरकार भी  इरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई  गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता इरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं .अमरीका में कुछ लोग यह दावा कर रहे हैं कि पाबंदियों के चलते ही इरान की हुकूमत बातचीत करने पर राजी हुई है लेकिन उनकी बात बिलकुल गलत है . इरान ने अपनी शर्तों पर बातचीत का रुख अपनाया है . जिस परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए सारी पाबंदियां लगाई जा  रही थीं वह अब पूरा सफल  कार्यक्रम  है और नए समझौते में उसको बाकायदा मान्यता दी गयी है .

अमरीका में इस समझौते के खिलाफ इजरायली लाबी की तरफ से किलेबंदी  शुरू हो गयी है . लेकिन  राष्ट्रपति बराक ओबामा भी उनको सस्ते नहीं छोड़ रहे हैं . उन्होंने कहा कि बड़ी बड़ी बातें करना राजनीतिक लिहाज़ से तो ठीक लग सकता है लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा के मुद्दे पर अमरीकी कांग्रेस और सेनेट के नेताओं को ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए .उन्होने कहा कि कूटनीतिक तरीकों से दुनिया की  सुरक्षा का बंदोबस्त करने की कोशिश को खत्म नहीं किया जाना चाहिए . अमरीका में हथियारों और इजरायली लाबी के लोगों की कोशिश है कि पश्चिम एशिया में शान्ति न पैदा हो लेकिन ओबामा की सरकार भी इस बात पर आमादा है कि शान्ति हर कीमत पर लानी है . अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी  भी समझौते के लिए जिनेवा में मौजूद थे और अब वे वाशिंगटन में हैं और अमरीकी संसद के सदस्यों से बातचीत का सिलसिला शुरू कर चुके हैं . छुट्टियों के बाद ९ दिसंबर को कांग्रेस का सत्र फिर से शुरू होगा और उसी दिन से ओबामा सरकार के अधिकारी काम पर लग जायेगें .इस समझौते के रास्ते में सबसे बड़ा अडंगा अमेरिकन इजरायल पब्लिक अफेयर्स कमेटी  नाम की इजरायली लाबी, की तरफ से आने वाला है . यह अमरीका में इजरायली हितों की सबसे ताक़तवर लाबी है . अब इनको यह तो मालूम ही है कि बराक ओबामा जब समझौता कर आये हैं तो उसको पलटा तो नहीं  जा सकता लेकिन यह ज़रूर निश्चित किया जा सकता है कि उसमें भारी अडचने पैदा की जाएँ . इस काम पर  यह लाबी लग चुकी है और कोशिश की जा रही है कि संसद की तरफ से ऐसी शर्तें लगवा  दें कि बात गड़बड़ा जाये. लेकिन अमरीकी सरकार इस लाबी को भी औकात  बताने के मूड में है .बराक ओबामा भी कुछ ऐसा कर गुजरना चाहते हैं जिस से  उनको आने वाली सदियों में याद किया जाए . वे अमरीकी लाबी समूहों को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं क्योंकि उनको अब फिर से राष्ट्रपति पद के चुनाव का मैदान में नहीं उतरना है. इसलिए वे इस लाबी की उन कोशिशों को धता बता रहे हैं जिसमें मांग की जा रही है कि अगर इरान की तरफ से समझौते की शर्तों को लागू करने में कोई ढील बरती गयी तो और भी सख्त पाबंदियां लगा दी जाएँ .लेकिन ओबामा की सरकार का मानना है कि अब तक पाबंदियां लगाकर देख लिया है .आने वाले वक़्त में भी पाबंदियों के नतीजे शान्ति और सुरक्षा के हित में  नहीं होंगें .
अब समझौता हो गया है और सब को अपने हिसाब से अपनी जनता को समझाना है . इरान के नेता कह रहे हैं कि इस से तेल के निर्यात का मौक़ा मिलेगा और ज़ब्त धन वापस मिलेगा .जबकि साउदी अरब की सरकार ने उम्मीद जताई है कि अभी तो यह शुरुआत है , बाद में इरान के परमाणु कार्यक्रम को काबू में किया जा  सकेगा .बहरहाल एक अहम समझौता हो गया है और अब सुरक्षा और शान्ति का व्याकरण में एक नई इबारत लिख दी गयी  है .
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Thursday, November 11, 2010

ओबामा की यात्रा के बाद हालात बदल जायेगें

शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है)

इरान के खिलाफ भारत को इस्तेमाल करने की अमरीकी मंशा अभी ख़त्म नहीं हो रही है . लगभग पूरी भारत यात्रा के दौरान भारत के पसंद की बातें करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ,बराक ओबामा ने इरान के बारे में बात करके भारत को छेड़ने की कोशिश की. हालांकि इस बात में दो राय नहीं है कि अब अमरीका भारत के ज़्यादा करीब है लेकिन कई हलकों में अमरीकी नीति के इस ताज़ा झुकाव को नापसंद भी किया जा रहा है . उसी वर्ग को संतुष्ट करने के लिए शायद इरान का उल्लेख संसद के भाषण में किया गया .ज़ाहिर है इजरायल और पश्चिम एशिया की कुछ राजधानियों में इरान के विरोध को अच्छा माना जाता है . लगता है कि इरान के बारे में बात करते हुए ओबामा उसी वर्ग को संबोधित कर रहे थे. यह अलग बात है कि बहुत सारी अमरीकी कोशिशों को भारत ने टाल दिया है जिन में इरान से रिश्ते ख़त्म करने की अपील की गयी थी . इसलिए एक भाषण में इरान का उल्लेख करके भारत को अमरीकी विदेश नीति का पक्ष धर बनाना न तो अमरीकी राष्ट्रपति का इरादा रहा होगा और न ही उन्हें उम्मीद रही होगी कि भारत इरान के खिलाफ जाकर अमरीका से दोस्ती करना चाहेगा. इरान भारत का दोस्त है . अमरीकी हुक्म के गुलाम और इरान के सम्राट, शाह रजा पहलवी को जब वहां की जनता ने हटाने का फैसला किया था तो भारत ने उस क्रान्ति की मदद की थी. उस वक़्त भी अमरीका शाह का मददगार था लेकिन इरानी अवाम ने उसकी परवाह नहीं की थी . भारत ने भी अमरीकी नीति के खिलाफ शाह का विरोध किया था . उसके बाद से ही अमरीका ण एइआन के खिलाफ तलवार भांजना शुरू कर दिया था. लेकिन भारत कभी इरान के खिलाफ नहीं गया . इस सन्दर्भ में ओबामा के संसद वाले भाषण से कुछ भी बदलने वाला नहीं है . जहां तक भारत के सम्बन्ध है उसे मालूम है कि भारत की दोस्ती अब अमरीका के लिए भी महत्वपूर्ण है. एशिया की राजनीति में चीन के बढ़ रहे दबदबे को अब दक्षिण कोरिया या जापान से बैलेंस नहीं किया जा सकता . जहां तक चीन का सवाल है , उसकी ताक़त एशिया और अफ्रीका में साफ़ नज़र आने लगी है . पाकिस्तान, उत्तर कोरिया , म्यांमार, नेपाल आदि देशों में उसका असर इतना ज़्यादा है कि वह भारत को भी परेशान कर सकता है . ऐसी हालत में भारत की तरफ बढे हुए अमरीकी हाथ दोनों ही देशों के राष्ट्रीय हित में हैं और भारत को मालूम है कि इरान के मामले में अमरीका उस पर ज़्यादा दबाव डाल पाने की स्थिति में नहीं है. तेल के खेल में भी इरान से दोस्ती भारत के राष्ट्रहित को साध सकती है और सबसे ज़रूरी बात यह है कि जब भी अमरीका भारत पर दबाव डालने की कोशिश करेगा , इरान कूटनीतिक सेफ्टी वाल्व की तरह भारत को मजबूती देगा.
इरान के बारे में अमरीकी राष्ट्रपति के दृष्टिकोण को संसद के भाषण में शायद इसलिए डाल दिया गया था कि ओबामा की नज़र अपने घरेलू श्रोताओं पर रही होगी लेकिन कुल मिलाकर भारत-अमरीकी संबंधों में ओबामा की यात्रा की वजह से जो परिवर्तन हुआ है उसका असर दक्षिण एशिया की सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में भी अहम है . दक्षिण एशिया की राजनीति में भारत और अमरीका परम्परागत विरोधी रहे हैं . यह पहली बार हो रहा है अमरीका भारत का साथी बन कर काम करने की सोच रहा है . इस की वजह से अमरीका के परम्परागत साथियों को तकलीफ होना स्वाभाविक है लेकिन यह भारत के हित में है कि वह दक्षिण और उत्तर-पश्चिम एशिया में बढ़ रहे आतंकवाद के खतरे को कम करने के लिए अमरीका की मदद करे. चाहे पाकिस्तानी आतंकवाद हो या भारत में जोर मार रहा माओवादी आतंकवाद , ख़तरा दोनों से ही भारत को है. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है , उसकी फौज़ के मुखिया जनरल कयानी लश्कर-ए-तैयाबा के ख़ास हिमायती हैं और उनके मन में बंगलादेश में १९७१ में हुई पाकिस्तानी फौज़ की धुनाई का बदल लेने की आग हरदम जलती रहती है लेकिन भारत और अमरीका अगर गंभीरता से काम करें तो पाकिस्तान में मौजूद भले आदमियों की बहुत बड़ी संख्या लोकशाही के पक्ष में खडी हो सकती है . अगर ऐसा हुआ तो दक्षिण एशिया में स्थिरता का माहौल बनेगा और आतंकवाद कमज़ोर होगा.
भारत और अमरीका के बीच सहयोग बढ़ने का एक फायदा यह भी हो सकता है कि हिंद महासागर के क्षेत्र में झगड़े कम करने के भारत के मूल सिद्धांत को ताक़त मिलेगी . इस बात में दो राय नहीं है कि इस इलाके में बराक ओबामा की यात्रा के बाद हालत वही नहीं रहेगें .