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Sunday, December 1, 2013

अमरीका की नज़र में इरान की बढ़ती अहमियत से सउदी अरब बहुत परेशान है

  
शेष नारायण सिंह

कभी इरान के शाह पहलवी अमरीका के बहुत प्रिय  हुआ करते थे लेकिन जब उनकी ज्यादतियां सारी हदें पार कर गयीं तो इरान की अवाम ने पेरिस में रह रहे एक धार्मिक नेता अयातोल्ला खुमैनी के नेतृत्व में उनका तख़्त बदल दिया ताज बदल दिया और इस्लामी सरकार कायम कर दी. इरान में अपनी तरह की लोकशाही शुरू हो गयी और अमरीका और इरान में दूरियां बढ़ गयीं . एक मुकाम तो ऐसा भी आया जब अमरीका ने इरान पर सद्दाम हुसैन से हमला करवाया . यह पुरानी बात है .उसके बाद से दजला और फरात  नदियों में  बहुत पानी बह गया . सद्दाम हुसैन जो कभी अमरीका के सबसे करीबी भक्त हुआ करते थे , अमरीका की कृपा से मारे जा चुके हैं इराक में अब शिया मतावलंबी प्रधानमंत्री पदस्थ किया जा चुका है और अमरीका की समझ में पूरी तरह से आ गया है कि इरान से  पंगा लेना उसको बहुत महँगा पड़ सकता है . ऐसे महौल में अमरीका ने एडी चोटी  का जोर लगाकर इरान से दोस्ती की कोशिश शुरू कर दी है . परमाणु  हथियारों की अपनी दादागीरी की आदत से अमरीका को बहुत नुक्सान हुआ  है लेकिन  वह दुनिया के किसी मुल्क की परमाणु ताकत को वह अभी भी दबा देना चाहता है .अमरीका समेत सुरक्षा परिषद के सभी पाँचों स्थायी सदस्यों की इच्छा यही रहती है कि उनके अलावा और कोई भी परमाणु ताक़त न बने लेकिन उनकी चल नहीं रही है . इरान के मामले में भी एक बार यही हो रहा है लेकिन दुनिया की राजनीति के बदल रहे नए समीकारणों के चलते अब खेल बदल गया है . अब इरान को एक परमाणु शक्ति के रूप में स्वीकार करने के अलावा अमरीका के सामने और कोई रास्ता नहीं है .
इरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है .इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी  देश के हौसले को नहीं रोक पाईं . बहर हाल आखीर में उनकी समझ में आ गया कि इरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए ,उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए .
मौजूदा समझौते के बाद इरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा .दस्तावेज़ में लिखा  है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा . इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा . ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है .इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है . उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है .इसके बदले में  अमरीका ,फ्रांस ,चीनरूसजर्मनी और ब्रिटेन ने इरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें . इरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी . सुरक्षा परिषद में भी इरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा . ओबामा की सरकार भी  इरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई  गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता इरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं .

इजरायल इस नए कूटनीतिक विकास से सबसे ज़्यादा परेशान है .उसके ज़ाहिर से कारण है . अभी तक वह अमरीका के लठैत के रूप में पश्चिम एशिया में मनमानी करता रहा  है लेकिन सउदी अरब की परेशानी भी कम नहीं है . इरान के साथ अमरीका के रिश्ते ठीक होने का नतीजा यह होगा कि पश्चिम एशिया में अमरीका के सबसे भरोसेमंद अरब देश के रूप में पहचाने जाने वाले देश के रूप में साउदी हनक कम हो जायेगी . इरान की कोशिश यह भी चल रही है कि पश्चिम एशिया में शिया शासकों की संख्या बढ़ाई जाए . जबकि यह  रियाद को यह बिलकुल पसंद नहीं है . साउदी अरब  ने देखा है कि  किस तरह से २०१० के चुनाव के बाद भी इरान की मदद से इराक में शिया राष्ट्रपति बना रहा  गया . रियाद की परेशानी यह है कि अमरीकी सत्ता में उनके कोई लाबी ग्रुप नहीं हैं . इसलिए वह अमरीका की नीतियों को उ सत्रह से नहीं प्रभावित कर पाता जिस तरह से इजरायल कर लेता है .इसलिए इरान के साथ हुए अमरीका और अन्य ताक़तवर देशों के समझौते को समर्थन देने के अलावा साउदी अरब के पास कोई रास्ता नहीं था. साउदी अरब को डर है कि पश्चिम एशिया की राजनीति में उनकी घट रही ताक़त को और गति मिल जायेगी . उनके घोषित शत्रु इरान अब उनके आका अमरीका के करीब आ  जाएगा.  इरान ने अपनी ताक़त इराक और लेबनान में बढ़ा  ही  लिया है .सीरिया में भी बशर अल असद के साथ इरान के सम्बन्ध हैं और सुन्नियों के हमलों को रूस और इरान के बल पर लगातार नाकाम किया जा रहा है . साउदी अरब को उम्मीद थी कि वह सीरिया के खिलाफ भी फौजी ताक़त का इस्तेमाल करेगा .खासतौर से जब पिछले अगस्त में दमिश्क के पास एक आबादी पर सीरिया की सेना की तरफ से कथित रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की खबर आई थी . अगर ऐसा हुआ होता तो  बशर अल असद की सत्ता को हटाकर साउदी पसंद  का कोई शासक वहाँ बैठाया जा सकता था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा  ने दूसरा रास्ता चुन लिया. उन्होने रूस से समझौता कर लिया कि सीरिया अपने रासायनिक हथियारों को खत्म कर देगा . हालांकि इस समझौते को ओबामा की भारी कूटनीतिक सफलता माना गया लेकिन साउदी अरब को इस से बहुत निराशा हुई .

अमरीका की कथित शह से पश्चिम एशिया और इत्तर अफ्रीका में लोकतंत्र की आवाजें जब जोर पकड़ने लगीं तो साउदी हुक्मरान बहुत चिंतित हुए .इसी प्रक्रिया में उनका सबसे करीबी अरब दोस्त होस्नी मुबारक हटा दिया गया और बहरीन में भी सुन्नी शासक के खिलाफ जब लोकतंत्र वाले जुलूस निकलने लगे तो साउदी अरब वालों को लगा कि उस आभियान को भी इरान का सहयोग हासिल है . बहरीन का शासक सुन्नी है लेकिन वहाँ भी आबादी का बहुमत वाला हिस्सा शिया समुदाय वालों का है .
कुल मिलाकर साउदी अरब को इस बात से नाराज़गी तो है कि अमरीका इरान की तरफ खिंच रहा  है लेकिन जानकारों को मालूम है कि अमरीका अभी साउदी अरब से रिश्ते खराब नहीं कर सकता . खादी के देशों में अमरीकी हितों के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में रियाद की हैसियत अभी कायम है और आने वाले बहुत दिनों तक उसके कमज़ोर होने की कोई संभावना नहीं है .लेकिन अमरीका भी खाड़ी के देशों में साउदी अरब के विकल्प की तलाश कर रहा  है . इराक में सत्ता परिवरतन के साथ उनको उम्मीद थे एकी वहाँ एक ऐसा साथी मिल जाएगा जो पुराने सद्दाम हुसैन की तरह काम करेगा लेकिन वाहन बहुमत की सत्ता आ गयी और बहुमत वहाँ शियाओं का है . नतीजा यह  हुआ कि  वहाँ का शासक इरान के ज़्यादा  करीब चला गया . अमरीका को खाड़ी के धार्मिक संप्रदायों की उठा पटक में कोई रूचि नहीं है .उसे तो वहाँ ऐसे राजनीतिक हालात चाहिए जिससे उसकी मौजूदगी औउर ताकत मजबूती के साथ जमी रहे . सबको मालूम है कि किसी भी कूटनीतिक चाल का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हित को मुक़म्मल तौर पर पक्का करना होता है .इसलिए अमरीका इस इलाके में साउदी अरब के ऊपर निर्भरता कम करने के लिए इरान को साथ लेने की नीति पर काम कर रहा  है . यह शुरुआत है . साउदी अरब को मालूम है कि  ओबामा अब खाड़ी के देशों की राजनीति पर उतना ध्यान नहीं देगें क्योंकि अब चीन के आस पास के देश उनकी प्राथमिकता सूची में ज़्यादा ऊपर आ गए हैं .
इस सबके बावजूद भी साउदी अरब और अमरीका के बीच बहुत कुछ साझा  है .दोनों ही देश पश्चिम एशिया में अल कायदा और इरान की बढती ताकत से परेशान हैं . अमरीका को लाभ यह है  कि वह इरान से दोस्ती करके  अपनी कूटनीतिक चमक को मज़बूत कर सकता है लेकिन यह रियाद वालों को बिलकुल सही नहीं लगता . उनके पास अमरीका के अलावा क्सिई उअर से मदद की उम्मीद भी नहीं है और संभावना भी नहीं है . बीच में साउदी शासकों ने यूरोपियन  यूनियन से दोस्ती बढाने की कोशिश की थी लेकिन वे बेचारे तो अमरीका की ही मदद के याचक  हैं . रूस और चीन भी अमरीका का विकल्प नहीं बन सकते इसलिए न चाहते हुए भी साउदी अरब को अमरीका का साथी बने रहने में भलाई नज़र आती है . लेकिन एक बात साफ़ है कि इरान से जिनेवा में हुए इस समझौते के बाद  खाड़ी की राजनीति में मौलिक बदलाव आने वाला है . यह भी तय है कि पिछले कई दशकों से अमरीकी राजनीति की गलतियों के चलते पश्चिम एशिया में जो संघर्ष के हालत पैदा हो गए थे अब उनमें भी बदलाव होना तय है . हो सकता है कि इसका श्रेय  बराक ओबामा के खाते में जाय और उनकी वह वाही हो लेकिन मध्यपूर्व में अमरीका के सबसे बड़े सहयोगी के रूप में साउदी अरब की हैसियत कम होने के दिन बहुत करीब आ गए हैं .

Sunday, June 20, 2010

पाकिस्तान-चीन परमाणु समझौता -दुनिया को ब्लैकमेल करने की कोशिश

(मूल लेख दैनिक जागरण में छपा है )


शेष नारायण सिंह


बीजिंग से मिल रही ख़बरों के अनुसार चीन ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ब्लैकमेल करने के लिए पाकिस्तान के साथ परमाणु समझौता करने की चाल चलने का मन बना लिया है . पाकिस्तान की जो आर्थिक हालात हैं उसमें उसे किसी परमाणु समझौते की नहीं राजनीतिक स्थिरता की ज़रुरत है लेकिन फौजी जनरलों के हुक्म के गुलाम राष्ट्रपति ज़रदारी और प्रधानमंत्री गीलानी से सही तरह से राज चलाने की उम्मीद करना भी बेमतलब है . चीन और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौते की सम्भावना बहुत ज्यादा बढ़ गयी है . चीन के नए व्यवहार से लगता है कि वह भारत के साथ वही पचास के दशक वाला खेल खेलने वाला है . पिछले साल भारत और चीन के संबंधों में एक बार फिर सुधार आना शुरू हुआ था जब दिसंबर में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह और चीनी प्रधान मंत्री वेन जिबाओ जलवायु सम्मलेन में मिले थे. उसके बाद भारत की राष्ट्रपति , प्रतिभा पाटिल चीन की यात्रा पर भी हो आयीं. दोनों ही पक्षों से अच्छी अच्छी बातें हो रही हैं . हालांकि तर्ज हिन्दी-चीनी भाई-भाई वाला तो नहीं है लेकिन सुधार के लक्षण साफ़ नज़र आ रहे हैं . वैसे भी नए भूराजनीतिक माहौल में चीन और भारत को मालूम है कि आपस में दोस्ती के संकेत देने पड़ेगें . लेकिन एक नयी कूटनीतिक चाल करवट लेती नज़र आने लगी है . चीन की तरफ से ऐसी खबरें आ रही हैं कि वह पाकिस्तान से वैसी ही परमाणु संधि करना चाह रहा है जैसी भारत और अमरीका के बीच हुई है. पाकिस्तान बहुत दिनों से अमरीका पर दबाव डाल रहा है कि अमरीका उसके साथ भी भारत की तरह का समझौता करे. पाकिस्तान को मुगालता है कि वह चीन की तरफ परमाणु दोस्ती का हाथ बढ़ा कर अमरीका को ब्लैकमेल कर सकता है लेकिन अब तक मिले संकेतों से साफ़ लगता है कि अमरीकी विदेश विभाग पाकिस्तान के सामने ब्लैकमेल होने को तैयार नहीं है . अमरीका जानता है कि पाकिस्तान के रोज़मर्रा के खर्च भी उसकी मदद के बिना नहीं चल सकते. और चीन या अन्य किसी देश की यह मंशा नहीं है कि वह पाकिस्तानी हुक्मरान की रोटी पानी का खर्च दे . इस लिए पाकिस्तान और चीन की परमाणु कूटनीति की भनक लगने के बाद अमरीकी सेना और विदेश नीति के मझोले दर्जे के अधिकारियों ने पाकिस्तान के सर्वोच्च अधिकारियों को बता दिया है कि अगर चीन से परमाणु समझौता किया तो ठीक नहीं होगा . ज़ाहिर है कि पाकिस्तान के लिए चीन से दोस्ती बढ़ा कर भारत को चिढाने में तो कोई ख़ास परेशानी नहीं होगी लेकिन पाकिस्तान को मालूम है कि अमरीका से पंगा लेना उसकी औकात के बाहर है .. हालांकि चीन को मज़ा आ रहा है कि वह पाकिस्तान के बहाने अमरीका और भारत दोनों को ही परेशानी में डालने की स्थिति में है . चीनी राजनयिक जानते हैं कि अगर पाकिस्तान ने चीन से परमाणु समझौता कर लिया तो अमरीका की जनता पाकिस्तान को मिलने वाली अमरीकी सहायता को जारी नहीं रखने देगी. इस से पाकिस्तान को परेशानी होगी और वह चीन पर पहले से भी ज्यादा निर्भर हो जाएगा . उस स्थिति में पाक्सितान का इस्तेमाल भारत को बन्दर घुडकी देने के लिए और भी बेहतर तरीके से किया जा सकेगा.
चीन की यात्रा पर गए पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष , जनरल परवेज़ अशफाक कियानी ने सारी ताक़त लगा दी है कि उनकी इस यात्रा के दौरान ही पाक-चीन परमाणु समझौते की घोषणा हो जाए लेकिन लगता है कि अमरीका के दबाव के चलते ,चीन इस घोषणा को कुछ वक़्त के लिए स्थगित कर सकता है . पिछले कुछ हफ़्तों से चीन की राजधानी से इस तरह के संकेत मिलने शुरू हुए हैं .कि वह पाकिस्तान को भारत से बराबर साबित करने की कोशिश में पाकिस्तान से परमाणु समझौता कर सकता है .लेकिन भारत सरकार ने भी चीन को आगाह कर दिया है कि अगर वह पाकिस्तान से परमाणु समझौता करता है तो दोनों देशों के सुधर रहे रिश्तों पर उलटा असर पड़ सकता है . . इस बात के भी ज़ोरदार संकेत हैं कि चीन अब भारत से रिश्तों को सुधारने की कोशिश कर रहा है.विदेश मंत्रालय में सर्वोच्च स्तर पर ऐसे लोग विद्यामान हैं जो चीन को अच्छी तरह से समझते हैं , विदेश सचिव निरुपमा राव और उनके पूर्व वर्ती शिव शंकर मेनन चीनी मामलों के अच्छे जानकार माने जाते हैं . ज़ाहिर है चीन से रिश्ते सुधारने की पहल के पीछे खूब सोची विचारी नीति काम कर रही है लेकिन चीन से आ रहे संकेतों के मद्दे-नज़र यह ख़तरा तो बना ही हुआ है कि चीन पाकिस्तान को इस्तेमाल करने की अपनी रणनीति में परमाणु आयाम भी जोड़ देगा. चीन की इस नीति को गम्भीरता से लेने की ज़रूरत इसलिए भी है कि चीन के परमाणु ऊर्जा विभाग और पाकिस्तान के परमाणु ऊर्जा आयोग के बीच सारी बात चीत हो चुकी है . आर्थिक और व्यापारिक पहलू पर गौर किया जा चुका है . अब राजनीतिक हरी झंडी का इंतज़ार है . जो दोनों देशों एक सरकारों के सर्वोच्च स्तर पर तय होना है .जहां तक पाकिस्तान का सवाल है उनका सर्वोच्च राजनीतिक और सैनिक अधिकारी जनरल कियानी ही हैं . ज़रदारी और गीलानी को वैसे भी जनरल कियानी की मर्जी के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं है लेकिन चीन में भारत और अमरीकी रिश्तों पर पड़ने वाले नफ़ा -नुकसान का जायज़ा लिया जा रहा है और उसके बाद ही कोई फैसला होगा. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वहां कूटनीतिक प्रशासन के जानकार बिलकुल नहीं है . वहां फौज की मर्जी ही चलती है

Wednesday, December 9, 2009

भारत-रूस परमाणु समझौता--अमरीकी ब्लैकमेल से छुटकारा

शेष नारायण सिंह

भारत और रूस के बीच परमाणु समझौता हो गया है. इस समझौते में बहुत सारी शर्तें नहीं हैं सीधे सीधे दोस्तों के बीच होने वाली समझदारी जैसी बात की गयी है . अमरीका से हुए परमाणु समझौते में जहां भारत को पूरी तरह से झुकाने की बात की गयी थी , हाइड एक्ट लगाया गया था, १२३ समझौता किया गया था . अमरीकी राजनीति का हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा , भारत को परमाणु सहायता के बारे में उपदेश देता फिरता था. लगभग हर अमरीकी बयान में यह बात छुपी रहती थी कि अगर कभी फिर परमाणु परीक्षण कर लिया तो सब कुछ बर्बाद करके रख देंगें. कुल मिलाकर ऐसा माहौल तैयार कर लिया गया था कि लगता था कि भारत के साथ परमाणु समझौता करके अमरीका ने बहुत बड़ा एहसान किया है . लेकिन रूस के समझौते में ऐसी कोई बात नहीं है . अमरीकी समझौते में जहां जहां कोई कसर रख ली गई थी, उसे रूसी परमाणु समझौता भर देता है और एक तरह से यह मुकम्मल इंतज़ाम कर दिया गया है कि भारत को अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए अब यूरेनियम की सप्लाई के लिये किसी का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा. रूस ने कह दिया है कि जब भी जितनी भी युरेनियम की ज़रुरत हो , रूस देगा.

रूस भारत का दुर्दिन का साथी रहा है . .जो दुर्दिन का साथी होता है वही असली मित्र होता है .सोवियत रूस भारत का ऐसा ही साथी हुआ करता था.जब १९७१ में पाकिस्तान की दोस्ती के चक्कर में अमरीकी राष्ट्रपति कूटनीतिक मूर्खताओं के कीर्तिमान बना रहे थे और भारत को परमाणु हमले की धमकी तक दे रहे थे ,उस वक़्त सोवियत रूस की सरकार भारत के साथ चट्टान की तरह खडी थी. भारत के रक्षा तंत्र के विकास में सोवियत रूस का सबसे ज्यादा योगदान है .इसीलिये भारत में रूस की दोस्ती को बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . सोवियंत रूस के टूटने के बाद मास्को में जो लोग सत्ता में आये, वे कुछ वर्ष तो भ्रमित रहे लेकिन अब उनकी दिशा तय हो चुकी है . बदली हालात में भी भारत और रूस की दोस्ती बहुत ही मह्त्वपूर्ण है. रूस से अपनी दोस्ती को संभालने के लिये भारत की तरफ से भी कोशिश की जाती है . भारत के प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह की रूस की दो दिन की यात्रा को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. दोनों देशों के बीच साल में एक बार शिखर स्तर पर मुलाक़ात होती है . वर्तमान यात्रा उसी शिखर सम्मलेन के सिलसिले का हिस्सा थी. .इस यात्रा में रक्षा समझौते को फिर से ताज़ा किया गया है , मल्टीपुल ट्रांसपोर्ट विमान और सांस्कृतिक आदान प्रदान के समझौतों के अलावा अपनेपन की अनुभूति को और पुख्ता करने का काम भी किया गया है...
रूस और भारत के बीच गहरी दोस्ती के चलते दोनों देशों के बीच बड़े नेताओं की आवाजाही लगी ही रहती है . इस साल भी भारत से कई बड़े नेता रूस गए और वहां से भी राजनीतिक स्तर पर बड़े पैमाने पर लोग आये. भारत की राष्ट्रपति, प्रतिभा पाटिल तो वहां इस वर्ष गयी ही थीं, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री , और वाणिज्य मंत्री भी इसी साल रूस की यात्रा पर हो आये हैं ..इस अवसर पर जारी संयुक्त घोषणा पत्र में वे सारी बातें शामिल हैं जिनसे दोनों देशों के बीच और बेहतर सम्बन्ध बनाने में मदद मिलेगी. ..लेकिन सबसे महत्वपूर्ण समझौता , परमाणु करार को ही माना जाएगा . बाकी समझौते तो रूस के साथ होने ही थे. लेकिन परमाणु करार में भारत को अपने बराबर हैसियत देकर रूस ने सही अर्थों में दोस्ती निभाई है .. इसी तरह के परमाणु समझौते को कर के अमरीका ने भारत को इतना मजबूर और बेचारा बना दिया था कि उसे अपनी घरेलू राजनीति में बहुत ज्यादा मुश्किलें पेश आई थी . सरकार में सहयोग दे रही वामपंथी पार्टियों ने मनमोहन सिंह को बहुत ही नचाया था और जब समर्थन वापस ले लिया तो नया समर्थन जुटाने के लिए कांग्रेस को नाकों चने चबाने पड़े थे... . रूस से हुये समझौते के बाद अब मनमोहन सिंह की सरकार को घरेलू राजनीति में भी ताकत मिलेगी. विश्वमंच पर भी भारत को अपने कूटनीतिक लक्ष्य हासिल करने में आसानी होगी. भारत के राजनयिकों की बड़ी इच्छा है कि उन्हें भी परमाणु हथियार संपन्न देशों का रुतबा मिले.. इस समझौते के बाद अमरीका समेत बाकी विकसित देशों पर दबाव पड़ेगा कि भारत को अपमानित करने की कोशिश न करें और अपनी बिरादरी में शामिल कर लें .सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के मामले में भी इस से फायदा हो सकता है... जहां तक इस समझौते के व्यापारिक महत्व का सवाल है , भारत के साथ साथ रूस को भी भारी फायदा होगा, उसके उद्योगों को ताक़त मिलेगी. . वैसे यह बात अमरीका के बारे में भी सच है लेकिन अमरीकी मानसिकता वही सुपर पावर वाली है इसलिए वे अगर अपने लाभ के लिए भी कोई सौदा करते हैं तो दूसरे पक्ष के ऊपर एहसान लादने से बाज़ नहीं आते. इस लिए रूस का समझौता अब भारत को अमरीकी ब्लैकमेल से भी निजात दिलाएगा