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Saturday, October 13, 2012

अगर ३० जनवरी '४८ को महात्मा गांधी की हत्या न हुयी होती तो लोहिया उनकी विरासत के वारिस होते



शेष नारायण  सिंह 

30 जनवरी के दिन दिल्ली के बिडला  हाउस में महात्मा गांधी की  हत्या करके  नाथूराम  गोडसे ने केवल  महात्मा गाँधी की ही हत्या नहीं की थी .उसने एक आज़ाद देश के सपने के भविष्य को भी मार डाला था.  शासक वर्गो के शोषण के दर्शनशास्त्र के  प्रतिनिधि नाथूराम ने उसी हत्या के साथ अन्य बहुत सी विचारधाराओं की हत्या कर दी थी। महात्मा गाँधी को पढने वाला कोई भी आदमी बता देगा की महात्मा जी ने कांग्रेस के आर्थिक  विकास के उस माडल को नहीं स्वीकार किया था जिसे स्वतन्त्र भारत के लिए जवाहर लाल नेहरू और उनकी सरकार वाले लागू करना  चाहते थे। महात्मा गाँधी ने साफ़ बता दिया था की वे गाँव  को विकास की इकाई बनाने के पक्षधर थे लेकिन  जवाहर लाल नेहरू की अगुवाई को वाली कांग्रेस के नेताओं के दिमाग में औद्योगीकरण के रास्ते देश के आर्थिक विकास करने के सपने पल रहे थे . गांधी जी ने इस विषय पर बहुत विस्तार से लिखा है . उनकी मूल किताब हिंद स्वराज में तो यह बात साफ़ साफ़ लिखी ही है बाद के ग्रंथोंमें भी गाँव को  विकास की यूनिट बनाने की बात बार बार कही गयी है . आज़ादी की  लड़ाई तक यानी 1946 तक महात्मा गांधी की हर बात मानने वाले जवाहर लाल नेहरू ने महात्मा जी की आर्थिक विकास की सोच को नकारना शुरू कर दिया था। भारत के आख़िरी आदमी के विकास की पक्ष धर गांधी की राजनीति से इसी दौर में जवाहर लाल नेहरू की विचारधारा ने दूरी बनानी शुरू कर दी थी। कांग्रेस का प्रभावशाली तबका  भी इस मामले में नेहरू के साथ था . गांधी जी एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस को खत्म करके बाकी राजनीतिक जमातों को चुनावी मैदान में बराबरी देना चाहते थे  . लेकिन उस वक़्त तक कांग्रेस में सबसे अधिक प्रभाव शाली हो चुके सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू ने इस बात को सिरे से खारिज कर दिया था। आर्थिक विकास  की उनकी सोच को भी सही ठहराने  वाला कोई भी आदमी जवाहर लाल की पहली मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं था।  गांधी जी इस बात से संतुष्ट नहीं थे। उधर  मुहम्मद अली जिन्नाह की जिद के चलते   मुसलमानों के  ज़मींदारों ने पूरे देश में दंगे भड़काने की साज़िश पर अमल करना शुरू कर दिया था। . 1946 के बाद से ही हर उस मूल्य को दफ़न किया जा रहा था जिसको  आधार बनाकर आजादी की लड़ाई लड़ी गयी थी। आज़ादी के आन्दोलन के इथोस को कांग्रेस को लोग भूल चुके थे और अगर भूले नहीं थे तो उसे इतिहास के कूड़ेदान के हवाले करने की पूरी तैयारी कर चुके थे। 
इस पृष्ठभूमि में जिन लोगों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई थी ,महात्मा गांधी उन लोगों पर बहुत भरोसा कर रहे थे .इनमें से एक डॉ राम मनोहर लोहिया थे  . अगस्त क्रान्ति के दौरान डॉ. लोहिया के काम से महात्मा गांधी अत्यंत प्रभावित हुए थे। उसके पहले  डॉ. लोहिया के कई लेख, महात्मा गांधी के अखबार 'हरिजन' में प्रकाशित भी हो चुके थे। गोवा के मामले पर उनका साथ महात्मा गांधी को छोड़कर और किसी बड़े नेता ने नहीं दिया।
स्वतंत्रता के बाद नेहरू सरकार की नीतियां गांधी के विचारों से प्रतिकूल थीं। डॉ. लोहिया का समाजवाद गांधी की विचारधारा के अत्यन्त निकट था। नेहरू सरकार की दशा-दिशा के कारण महात्मा गांधी का नेहरू से मोहभंग हो रहा था और लोहिया की तरफ रूझान बढ़ रहा था। आज़ादी के बाद देश साम्प्रदायिकता के संकट में फंस गया तो शांति और सद्भाव कायम करने में डॉ. लोहिया ने गांधी का सहयोग किया। इस प्रकार वे  गांधीजी के करीब  क़रीब आ गये थे। इतने क़रीब की गांधी ने जब लोहिया से कहा कि जो चीज़ आम आदमी के लिए उपलब्ध नहीं उसका उपभोग तुम्हें भी नहीं करना चाहिए और सिगरेट त्याग देना चाहिए तो लोहिया ने तुरन्त उनकी बात मान ली।   महात्मा जी से लोहिया के विचार इतने मिल रहे थे कि लगता था कि आज़ादी के बाद लोहिया ही गांधी की राजनीति के वारिस बनेगें .ऐसा सन्दर्भ देखने को मिला लगता है कि आज़ादी के  बाद की भारत की  राजनीति पर  फिर से विचार की ज़रूरत  जितनी आज है उतनी कभी नहीं थी    .भारतीय पक्ष नाम के एक कोष में    लिखा  है  की 28 जनवरी1948 को गांधी ने लोहिया से कहा, मुझे तुमसे कुछ विषयों पर विस्तार में बात करनी है। इसलिये आज तुम मेरे शयनकक्ष में सो जाओ। सुबह तड़के हम लोग बातचीत करेंगे। लोहिया गांधी के बगल में सो गये। उन्होंने सोचा कि जब बापू जागेंगे, तब वे जगा लेंगे और बातचीत हो जाएगी। लेकिन जब लोहिया की आँख खुली तो गाँधी जी बिस्तर पर नहीं थे। बाद में जब डॉ. लोहिया गांधी से मिले तब गांधी ने कहा, "तुम गहरी नींद में थे। मैंने तुम्हें जगाना ठीक नहीं समझा। खैर कोई बात नहीं। कल शाम तुम मुझसे मिलो। कल निश्चित रूप से मैं कांग्रेस और तुम्हारी पार्टी के बारे में बात करूँगा। कल आख़िरी फैसला होगा।" यानी २९  जनवरी के दिन डॉ लोहिया उन्हें वादा करके आये कि 30 तारीख को बात करने के  लिए आ जायेगें  .
लोहिया 30 जनवरी1948 को गांधी से बातचीत करने के लिए टैक्सी से बिड़ला भवन की तरफ बढ़े ही थे कि तभी उन्हें गांधी की शहादत की खबर मिली। एक ठोस योजना की भ्रूण हत्या हो गयी। बापू अपनी शहादत से पहले अपने आख़िरी वसीयतनामे में कांग्रेस को भंग करने की अनिवार्यता सिद्ध कर चुके थे। उस समय उन्होंनें ऐसा स्पष्ट संकेत दिया था कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान अनेकानेक उद्देश्यों के निमित्त गठित विविध रचनात्मक कार्य संस्थाओं को एकसूत्र में पिरोकर शीघ्र ही एक नया राष्ट्रव्यापी लोक संगठन खड़ा किया जायेगा। डॉ. लोहिया की उसमें विशेष भूमिका होगी। इस प्रकार बनने वाले शक्तिपुंज से बापू आज़ादी की अधूरी जंग के निर्णायक बिन्दु तक पहुंचाना चाहते थे।
डॉ लोहिया  के जीवन इस पक्ष  के बारे में जानकारी की  कमी है . ज़ाहिर है की अब इस विषय पर भी सोचविचार  की  जानी चाहिए कि अगर महात्मा जी और लोहिया की वह  मुलाक़ात हो गयी होती तो हमारे देश का इतिहास बिलकुल अलग होता.इस बात की पूरी संभावना है कि महात्मा गांधी की राजनीति और उसमें होने वाले संघर्ष के असली वाहक डॉ राम मनोहर लोहिया  ही होते.लेकिन वह मुलाक़ात नहीं हो सकी और कांग्रेस से अलग होकर डॉ लोहिया और उनके साथियों ने जो राजनीतिक रास्ता चुना वह समाजवाद का था. आज़ादी के बाद  के लोहिया के सारे काम पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि उनकी मान्यताएं भी लगभग  वही थीं जिनके लिए महात्मा गाँधी ने आजीवन संघर्ष किया . जब कांग्रेस के सत्ताधीशों से महात्मा गांधी निराश हो गए थे तो उनको लगा था कि डॉ राम मनोहर लोहिया ही उनकी राजनीतिक सोच के हिसाब से आज़ाद भारत के भविष्य को डिजाइन कर सकते हैं .लेकिन नियति को कुछ और मंज़ूर था.
१९४७ के बाद की जो कांग्रेस है उसमें महात्मा गांधी की राजनीति का कोई पुछत्तर नहीं नज़र आता .महात्मा गांधी ने छुआछूत को खत्म करने के लिए आज़ादी के आंदोलन को एक  हथियार माना था लेकिन १९४७ के बाद हम साफ़ देखते हैं कि  डॉ बी आर आंबेडकर की दलितों के लिए आरक्षण की योजना  को संविधान में डालने के अलावा कुछ नहीं हुआ. हाँ यह भी सच है कि जवाहरलाल नेहरू ने आंबेडकर की संवैधानिक सोच का समर्थन किया .लेकिन इस सीन से कांग्रेसी नदारद थे .  सरकारी तौर पर  जाति आधारित छुआछूत को मिटाने और सामाजिक समरसता की स्थापना का  कोई प्रयास नज़र नहीं आता. गांधी के नाम पर अपना कारोबार चलाने वाली कुछ संस्थाओं ने मंदिर आदि में प्रवेश जैसी कुछ सांकेतिक कार्यवाही की लेकिन कहीं भी गंभीर राजनीतिक क़दम नहीं उठाये गए. 
महात्मा गांधी ने साफ कहा था कि कल कारखानों के मालिक उद्योगपति का रोल एक  ट्रस्टी का होगा लेकिन जिस तरह की औद्योगिक नीति बनी , सार्वजनिक संपत्ति की मिलकियत के जो नियम बने उसमें महात्मा गांधी कहीं दूर दूर तक नज़र नहीं आते.सारा का सारा कंट्रोल पूंजीपति के हाथ में दे दिया गया . मजदूरों के कल्याण के लिए जो नीतियां बनीं उसमें भी उद्योगपति का पलड़ा भारी कर दिया गया.अपने देश की श्रम नीतियां मजदूरों के शोषण का हथियार बनीं .महात्मा जी  का सबसे प्रिय विषय था , ग्रामीण भारत का समुचित विकास लेकिन कृषि नीतियां ऐसी बनायी गयीं जिसमें कहीं भी गाँव में रहने वाले किसान की भलाई का कोई स्थान नहीं था. इस देश में शुरू से  ही खेती को  उस रास्ते पर विकसित किया गया जिसके बाद किसान का रोल राष्ट्रीय विकास में केवल मतदाता का होकर रह गया . इस देश में नेहरू के वारिसों ने जिस तरह की कृषि नीति को महत्व दिया उसमें किसान को केवल उतना ही सुविधा दी जाती है जिक्से बाद वह शहरी आबादी के लिए भोजन का इंतज़ाम करता रहे , और सत्ताधारी पार्टी को वोट देता रहे. 
महात्मा गांधी ने कहा था कि पंचायतों का रोल भारत के ग्रामीण जीवन में सबसे ज्यादा होना चाहिए . लेकिन सरकार ने ऐसी नीतियों बनाईं कि आज देश में वकीलों और उनके दलालों का एक बहुत बड़ा नेटवर्क तैयार हो गया  है . ग्रामीण भारत में ऐसा कोई  परिवार नहीं बचा है जिसने कोर्ट के फेरी न लगायी हो . ज़ाहिर है कि महात्मा गांधी एक हार सपने को सत्ताधारी दलों ने नाकाम किया है .
ऐसा लगता है कि अगर २९ जनवरी १९४८ की सुबह  डॉ लोहिया और महात्मा गांधी की बातचीत  हो गयी होती तो शायद डॉ लोहिया कुजात गांधीवादी न होते। वे ही महात्मा गांधी के असली वारिस होते . बहुत बाद में उन्होंने सरकारी और मठी गांधीवादियों से परेशान होकर अपने आपको और अपने साथियों को कुजात गांधीवादी कह दिया था लेकिन अगर गांधी जी ने उनको कांग्रेस से अपनी निराशा से विधिवत परिचित करा दिया  होता तो इस बात में दो राय नहीं होनी चाहिए कि  डॉ राम मनोहर लोहिया ने  महात्मा जी  की  इच्छा को पूरा किया होता और महात्मा गांधी की विरासत को कांग्रेस और कांग्रेसी सत्ता की फाइलों में गुम होने से बचा लिया होता

Tuesday, May 29, 2012

क्या सोनिया गाँधी पूर्वोत्तर क्षेत्र में आतंक का ख़ात्मा चाहती हैं ?




शेष नारायण  सिंह 

 कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने अपने असम के दौरे के दौरान दावा किया है कि केंद्र की यू पी ए और असम की कांग्रेसी सरकार की कोशिश से उस  इलाके में आतंकवाद कमज़ोर पड़ा  है . बातचीत के ज़रिये समस्या को हल करने की नीति की उन्होंने तारीफ़ की और कहा कि यू पी ए और कांग्रेस की इसी नीति के कारण  कई आतंकवादी सगठनों ने आतंकवाद को तिलांजलि देने का फैसला किया है . उन्होंने भरोसा जताया कि आतंकवादी संगठनों के लोगों को विश्वास हो जाएगा कि आतंक का रास्ता सही नहीं है .वे  आगे  आयेगें और  शान्ति की प्रक्रिया में शामिल हो जायेगें.सोनिया गाँधी असम की कांग्रेसी सरकार के एक साल पूरा होने की खुशी में आयोजित एक सभा में भाषण कर रही थीं. दिल्ली में भी कांग्रेसी  मीडिया विभाग अपनी  अध्यक्ष की सफल असम यात्रा की तारीफ़ करते नहीं अघा रहा है . उनके साहस को ख़ास तौर से बताया जा रहा है कि बम विस्फोट के बाद भी उन्होंने अपने कार्यक्रम  में कोई परिवर्तन नहीं किया .
सोनिया गांधी का यह दावा सही नहीं है कि यू पी ए की केंद्र सरकार भी उत्तर पूर्वी भारत में आतंकवाद को ख़त्म करने की कोशिश कर रही है . जब से पूर्वोत्तर भारत में आतंकवादी गतिविधियाँ शुरू हुई हैं , हर मंच पर सरकार और  राजनीतिक पार्टियों ने दावा किया है कि अगर  उस इलाके का सही विकास किया गया होता तो आतंकवादियों को मौक़ा ही न मिलता कि वे उस इलाके के नाराज़ लोगों को साथ ले सकें .  पूर्वोतर भारत  के  विकास के लिए बहुत सारी योजनायें चलायी गयीं लेकिन केंद्र सरकार की गैरजिम्मेदारी का नतीजा है कि कोई भी योजना सही तरीके से लागू नहीं की गयी.  यह भी तर्क बार बार दिया गया है कि  आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए विकास की योजनाओं  को  समयबद्ध तरीके से लागू किया जाना चाहिए .
 सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास के लिए गंभीर ही नहीं है. संसद के बजट सत्र में पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास मंत्रालय के काम काज के बारे में संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट आई है जिसमें साफ़ लिखा है कि   क्षेत्र के  विकास के लिए प्रकृति ने बहुत सारी सम्पदा उपलब्ध कराई है लेकिन सरकार उनका सही इस्तेमाल नहीं कर पा रही है .पूर्वोत्तर भारत के इलाकों  पानी से पैदा होने वाली बिजली के सबसे बड़े  स्रोत हैं. उसके  लिए केंद्र सरकार ने बहुत सारी योजनायें भी बनायी हैं लेकिन  केंद्र सरकार के अधिकारी इस इलाके की योजनाओं के  सन्दर्भ में पूरी तरह से लापरवाह हैं. और क्षमता  का सही विकास नहीं किया जा रहा है . जिन योजनाओं को पूरा किया जाना  है ,मार्च २०१२ तक उनकी क्षमता का ९३ प्रतिशत पूरी  तरह से अनछुआ था. यह रिपोर्ट मई में संसद में रखी गयी थी. 
अपने देश में संसद की स्थायी समितियां संसदीय लोकतंत्र की बहुत ही  ताक़तवर संस्थाएं हैं . लेकिन केंद्र सरकार के अफसर गृह मंत्रालय के काम काज के लिए बनी हुई संसद की स्थायी समिति केंद्र सरकार के अफसर गंभीरता से नहीं ले रहे हैं . इसी कमेटी के एक सदस्य ने कहा कि अगर  यू पी ए की अध्यक्ष  पूर्वोत्तर भारत की समस्याओं  को  वास्तव में हल  करने का माहौल  बनाना  चाहती हैं तो उन्हें चाहिए कि अपनी सरकार के मंत्रियों से कहें कि वे केंद्र सरकार के अफसरों को संसदीय समितियों को सम्मान देने का का तरीका सिखाएं . 
कमेटी की  रिपोर्ट में लिखा है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास के लिए २०१२-१३ के लिए अनुदान की मांग को लेकर जब चर्चा हो रही थी केंद्र सरकार के अफसरों ने  सरकार की बात रखने के लिए  उपयुक्त और ज़िम्मेदार अफसर तक नहीं भेजा. ११  अप्रैल  २०१२ की  बैठक को रद्द करना पड़ा क्योंकि कुछ मंत्रालयों और विभागों ने अपने अफसर ही नहीं भेजे जबकि कुछ अन्य विभागों ने बहुत ही जूनियर अफसरों को भेज दिया जो सही जवाब नहीं दे सके.बैठक  में जो अफसर हाज़िर भी हुए वे बिना किसी तैयारी  के आये थे . कमेटी ने इस बात का बहुत बुरा माना और जब रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखी गयी तो इस बात को रिपोर्ट की प्रस्तावना में ही लिख दिया .कमेटी के अध्यक्ष ने कैबिनेट सेक्रेटरी को  चिट्ठी लख कर उनसे कहा कि केंद्र सरकार के इस गैरजिम्मेदार रवैये को ठीक करने के लिए उपाय करें.कमेटी  ने चेतावनी  दी है कि इस तरह की स्थिति दुबारा नहीं पैदा होनी चाहिए .
इस कमेटी के अध्यक्ष  राज्य सभा के सदस्य वेंकैया नायडू हैं जबकि इसके सदस्यों में लाल  कृष्ण आडवानी,बाबू लाल मरांडी,नीरज शेखर ,जनार्दन रेड्डी ,डी राजा और तारिक अनवर  आदि महत्वपूर्ण नेता शामिल हैं . ज़ाहिर है कि पूर्वोत्तर के विकास को अपनी प्राथमिकता बताने वाली यू पी ए को केंद्र सरकार के अफसरों पर भी ध्यान देना चाहिए .