Showing posts with label जवाहरलाल नेहरू. Show all posts
Showing posts with label जवाहरलाल नेहरू. Show all posts

Tuesday, May 28, 2013

नेहरू के बाद भारतीय नेतृत्व ने कश्मीर मुद्दे के हल के बजाय इसे बिगाड़ने की कोशिश की है

शेष नारायण सिंह 

49 साल पहले आज के ही दिन जवाहरलाल नेहरू ने अंतिम सांस ली थी. उनके जीवनकाल में और उनके बाद उनको बेकार साबित करने की बार बार कोशिश होती रही है लेकिन उनकी दूरदर्शिता के आलोचकों के नाम का उल्लेख करना भी उनको महत्व देना होगा क्योंकि वे लोग जवाहरलाल नेहरू के साथ अपने नाम को जोड़कर अपने को महान साबित करने की कोशिश करते रहते हैं . कश्मीर के मसले पर भारत में एक खास विचारधारा के लोग पानी पीकर भारत की आज़ादी के महान नायक को कोसते रहे हैं . उस विचारधारा वालों का नाम लेकर मैं उन लोगों को महत्त्व तो नहीं दे सकता लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि जवाहरलाल नेहरू की निंदा करने वाले इन राजनेताओं के पूर्वज आज़ादी की लड़ाई में भारत की जनता के साथ नहीं खड़े थे और इनका एक भी नेता 1920 से 1947 के बीच भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए जेल नहीं गया था .कश्मीर के मामले में 1947 में जो सफलता मिली थी वह भारत की कूटनीतिक और राजनीतिक सफलता की एक ज़ोरदार मिसाल है .मैंने इस विषय पर बार बार लिखा है . आज जवाहरलाल की पुण्यतिथि पर उनकी याद में मेरी विनम्र श्रद्धांजलि
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था. ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . 15 अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया.”पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की .” नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा
हरि सिंह- साभार कश्मीरी लाइफ डॉट नेट
हरि सिंह- साभार कश्मीरी लाइफ डॉट नेट
और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे .
बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाले कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर 1946 में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
कश्मीर का असल हीरो- शेख अब्दुल्ला
ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर 21 अक्टूबर1947 के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , ” कश्मीर मेरी जेब में है.”
कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है. इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा . कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तान और तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं.उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है. और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.
अकबर के दौर का कश्मीर
कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने 1568 में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब 361 साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर 1947 में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे.
शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोड़ो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोड़ो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे.
लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू.1 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गये .
क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन 26 अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा ‘” गेट आउट ” बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया. इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे 27 अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का मुद्दा
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर 1947 वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन1953 के बाद यह हालात भी बदल गए. बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा .
इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को 9 अगस्त 1953 के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दी थी.6 अप्रैल 1964 को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले 8 अगस्त 1953 तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और 27 मई 1964 के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे.
नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,वहां संविधान की धारा 356 और357 लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई.
कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था . यह देश का दुर्भाग्य है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे नेता आये जिन्होंने मामले को खराब करने में योगदान किया लेकिन हालात इतने भी खराब नहीं हैं कि अरुंधती राय जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने को नेहरू के स्तर का चिन्तक बताने का दुस्साहस करें.

Tuesday, November 15, 2011

क्या नेहरू के नाम पर यू पी में कांग्रेस की डूबती नैया पार होगी

शेष नारायण सिंह

कांग्रेस के सरताज राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू के चुनाव क्षेत्र ,फूलपुर से उत्तरप्रदेश विधान सभा के २०१२ के चुनाव अभियान की शुरुआत कर चुके हैं . अपने पिताजी के नाना से अपने नाम को जोड़ने के चक्कर में राहुल गांधी, जवाहरलाल नेहरू की विरासत को केवल अपने परिवार तक सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं . यह सच नहीं है. जवाहरलाल नेहरू को इंदिरा गाँधी के पिता के रूप में ही प्रस्तुत करना देश की आज़ादी की लड़ाई के संघर्ष के साथ मजाक है . यह भी वैसी ही कोशिश है जिसके तहत एक राजनीतिक पार्टी के लोग हर गलती के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराते पाए जाए हैं . आजकल तो इस प्रजाति के लोग अखबारों में भी खासी संख्या में पंहुच गए हैं और वे कहते रहते हैं कि कश्मीर समस्या सहित देश की सभी बड़ी समस्याएं नेहरू की देन हैं . समकालीन इतिहास की इससे बड़ी अज्ञानतापूर्ण समझ हो ही नहीं सकती. सच्ची बात यह है कि अगर महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने राजनीतिक बुलंदी न दिखाई होती तो राजा हरि सिंह और मुहम्मद अली जिन्ना ने तो जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिला ही दिया था. लेकिन सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला की संयुक्त कोशिश का नतीजा था कि कश्मीर आज भारत का हिस्सा है .समकालीन इतिहास के इस सच को जनता तक पंहुचाने का काम किसी राजनीतिक विश्लेशक का नहीं है . यह काम तो कांग्रेस पार्टी का है लेकिन उसने सच्चाई को पब्लिक डोमेन में लाने का काम कभी नहीं किया . नतीजा यह है कि आज की पीढी के एक बहुत बड़े वर्ग को अब भी यही बताया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू ने देश को कमज़ोर किया . शायद इसका करण यह है कि कांग्रेस पार्टी वाले नेहरू के वंशजों की जय जय कार में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें नेहरू की विरासत को याद करने का मौक़ा ही नहीं मिल रहा है .आज कांग्रेसी नेता यह कोशिश करते देखे जा रहे हैं कि राहुल गांधी भी उतने ही दूरदर्शी नेता हैं ,जितने कि जवाहरलाल नेहरू थे.. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू का वंशज होकर कोई उन जैसा नहीं बन जाता . कल्पना कीजिये कि अगर जवाहरलाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री की प्रधानमंत्री के रूप में असमय मृत्यु न हो गयी होती और उस दौर के कांग्रेसी चापलूस, जिसमें कामराज सर्वोपरि थे, ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री न बनवा दिया होता तो आज राहुल गांधी और वरुण गांधी जैसे अजूबे कहाँ होते. वास्तव में राहुल गांधी और वरुण गांधी टाइप नेताओं को अपने आप को जवाहरलाल नेहरू का वारिस कहना ही नहीं चाहिए . में यह सब तो इंदिरा गाँधी के वारिस हैं . वही इंदिरा गाँधी जिन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए लोकतंत्र का सर्वनाश करने की गरज से इमरजेंसी लगाई थी, विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया था, प्रेस का गला घोंट दिया था और इस देश के लगभग सभी नेताओं को यह प्रोत्साहन दिया था कि वे अपने वंशजों को राजनीति में बढ़ावा दें और जनता के धन की लूट के अभियान में शामिल हों. आज हर पार्टी का नेता अपने बच्चों को राजनीति में शामिल करवा रहा है और उनको भी वैसी ही चोरी करने की प्रेरणा दे रहा है जिसके चलते वह खुद करोडपति या अरबपति बन गया है.
बहरहाल अब कोई जवाहरलाल नेहरू का अभिनय करना चाहे तो उसे कोई रोक नहीं सकता है इसलिए आज फूलपुर में राहुल गांधी का भाषण उसी तर्ज़ पर हो गया जैसा फिल्म्स डिवीज़न के आर्काइव्ज़ में जवाहरलाल नेहरू का भाषण देखा जाता है . लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू इसलिए जीत जाते थे कि उनको कहीं से भी मज़बूत विरोध नहीं मिल रहा था. एक बार तो उनके खिलाफ स्वामी करपात्री जी लड़े थे और एकाध बार स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने उन्हें चुनौती दी थी. जवाहरलाल नेहरू देश को प्रगति के रास्ते पर ले जा रहे थे तो सभी चाहते थे कि उन्हें कोई चुनावी चुनौती न मिले . लेकिन जब उन्हें चुनौती मिली तो जीत बहुत आसान नहीं रह गयी थी. १९६२ के चुनाव में फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ सोशलिस्ट पार्टी से डॉ. राम मनोहर लोहिया उम्मीदवार थे . डॉ लोहिया भी आज़ादी के लड़ाई के महान नेता थे. कांग्रेस से अलग होने के पहले वे नेहरू के समाजवादी विचारों के बड़े समर्थक रह चुके थे. बाद में भी एक डेमोक्रेट के रूप में वे नेहरू जी की बहुत इज्ज़त करते थे . लेकिन जब आज़ादी के एक दशक बाद यह साफ़ हो गया कि जवाहरलाल नेहरू भी समाजवादी कवर के अंदर देश में पूंजीवादी निजाम कायम कर रहे हैं तो डॉ लोहिया ने जवाहरलाल को आगाह किया था . तब तक जवाहरलाल पूरी तरह से नौकरशाही और पुरातनपंथी लोगों से घिर चुके थे. नतीजा यह हुआ कि डॉ राम मनोहर लोहिया ने फूलपुर चुनाव में पर्चा दाखिल कर दिया . ऐसा लगता है कि डॉ लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू को हराना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्होंने फूलपुर चुनाव क्षेत्र में केवल दो सभाएं कीं . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने बताया था कि जहां भी डॉ लोहिया गए और उन्होंने नेहरू की अगुवाई वाली सरकार की कमियाँ गिनाई तो जनता की समझ में बात आ गयी. जनेश्वर मिश्रा का कहना था कि जिन इलाकों में लोहिया ने सभाएं की थीं वहां नेहरू को बहुत कम वोट मिले थे. मसलन कोटवा नाम के पोलिंग स्टेशन पर डॉ लोहिया को ७५० वोट मिले थे तो जवाहरलाल नेहरू के नाम पर केवल २ वोट पड़े थे. इसी तरह से हरिसेन गंज में लोहिया को ३७५ वोट मिले तो जवाहरलाल को ३ वोट मिले.राहुल गांधी और उनकी मंडली के लोगों को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि जवाहर लाल नेहरू की तरह चुनाव लड़ने का अभिनय करके बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है . उत्तर प्रदेश या देश के किसी भी हिस्से में जवाहरलाल नेहरू की तरह सफल होने के लिए राजनीतिक छुटपन से बाहर निकलना होगा और देश की समस्यायों को सही सन्दर्भ में समझना होगा . अगर ऐसा न हुआ तो जवाहरलाल नेहरू की बेटी का पौत्र बनकर राजनीतिक सफलता हासिल कर पाना आसान नहीं होगा .

Sunday, January 30, 2011

अंत में उनका शरीर मंदिर बन गया था .

शेष नारायण सिंह

आज से ठीक तिरसठ साल पहले एक धार्मिक आतंकवादी की गोलियों से महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी थी. कुछ लोगों को उनकी हत्या के आरोप में सज़ा भी हुई लेकिन साज़िश की परतों से पर्दा कभी नहीं उठ सका . खुद महात्मा जी अपनी हत्या से लापरवाह थे. जब २० जनवरी को उसी गिरोह ने उन्हें मारने की कोशिश की जिसने ३० जनवरी को असल में मारा तो सरकार चौकन्नी हो गयी थी लेकिन महत्मा गाँधी ने सुरक्षा का कोई भारी बंदोबस्त नहीं होने दिया . ऐसा लगता था कि महात्मा गाँधी इसी तरह की मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे.इंसानी मुहब्बत के लिए आख़िरी साँसे लेना उनका सपना भी था. जब १९२६ में एक धार्मिक उन्मादी ने स्वामी श्रद्धानंद जी महराज को मार डाला तो गाँधी जी को तकलीफ तो बहुत हुई लेकिन उन्होंने उनके मृत्यु के दूसरे पक्ष को देखा. २४ दिसंबर १९२६ को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी की बैठक में गाँधी जी ने कहा कि " स्वामी श्रद्धानंद जी की मृत्यु मेरे लिए असहनीय है .लेकिन मेरा दिल शोक माने से साफ़ इनकार कर रहा है. उलटे यह प्रार्थना कर रहा है कि हम सबको इसी तरह की मौत मिले.( कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी अंक ३२ ) .अपनी खुद की मृत्यु के कुछ दिन पहले पाकिस्तान से आये कुछ शरणार्थियों के सामने उन्होंने सवाल किया था " क्या बेहतर है ? अपने होंठों पर ईश्वर का नाम लेते हुए अपने विश्वास के लिए मर जाना या बीमारी , फालिज या वृद्धावस्था का शिकार होकर मरना . जहां तक मेरा सवाल है मैं तो पहली वाली मौत का ही वरण करूंगा " ( प्यारेलाल के संस्मरण )
महात्मा जी की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू का वह भाषण तो दुनिया जानती है जो उन्होंने रेडियो पर देश वासियों को संबोधित करते हुए दिया था . उसी भाषण में उन्होंने कहा था कि हमारी ज़िंदगी से प्रकाश चला गया है . लेकिन उन्होंने हरिजन ( १५ फरवरी १९४८ ) में जो लिखा ,वह महात्मा जी को सही श्रद्धांजलि है . लिखते हैं कि ' उम्र बढ़ने के साथ साथ ऐसा लगता था कि उनका शरीर उनकी शक्तिशाली आत्मा का वाहन हो गया था,. उनको देखने या सुनने के वक़्त उनके शरीर का ध्यान ही नहीं रहता था , लगता था कि जहां वे बैठे होते थे ,वह जगह एक मंदिर बन गयी है '

अपनी मृत्यु के दिन भी महात्मा गाँधी ने भारत के लोगों के लिए दिन भर काम किया था . लेकिन एक धर्माध आतंकी ने उन्हें मार डाला .

Wednesday, December 1, 2010

काकटेल सर्किट के एक बुद्धिजीवी के जवाहरलाल नेहरू के बराबर बनने के सपने

शेष नारायण सिंह

बचपन में एक कहानी सुनी थी . एक बार जवाहरलाल नेहरू मानसिक रोगों के एक अस्पताल के मुआइने पर गए . वहां के एक मरीज़ ने पूछा कि आप कौन हैं भाई . नेहरू ने कहा कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूँ . वह मरीज़ हंसा और बोला कि बेटा धीरे धीरे ठीक हो जाओगे . जब मैं भर्ती हुआ था , तो मैं भी अपने आपको जवाहरलाल नेहरू ही समझता था. अब ठीक हूँ . दिल्ली में पिछले दिनों ऐसा की एक ही दृश्य नज़र आया . जब सामाजिक कार्यकर्ता , अरुंधती रॉय ने अपनी तुलना जवाहरलाल नेहरू से कर दी. अरुंधती जी ने कश्मीर पर कोई बयान दिया और कुछ लोगों को लगा कि उन्होंने जो बयान दिया है उसमें देशद्रोह की मात्रा बहुत ज्यादा है . दिल्ली में हर समय में कुछ ऐसे बुद्धिजीवी सक्रिय रहते हैं जो कुछ उल जलूल कह कर ख़बरों में बने रहना चाहते हैं . अरुंधती राय उसी श्रेणी की बुद्धिजीवी हैं . उनके बारे में कहा जाता है कि गद्य बहुत अच्छा लिखती हैं . दिल्ली के काकटेल सर्किट में उनके बहुत सारे प्रशंसक हैं इसलिए जो कुछ भी वे कहती हैं उसे एक वर्ग के लोग बहुत पसंद करते हैं लेकिन सच्ची बात यह है कि उनको इतिहास के बारे में जो भी जानकारी है उसमें बहुत कुछ जोड़े जाने की ज़रुरत है . आजकल थोड़ी घबराई हुई हैं क्योंकि उनके ऊपर अगर देशद्रोह का मुक़दमा चला तो उन्हें जेल में रहना पड़ेगा जहां उनके प्रशंसक नहीं रहते .अपने बचाव में उन्होंने जो ताज़ा राग अलापा है वह बहुत ही अज्ञान से भरा है . फरमाती हैं कि जो बयान उन्होंने दिया है , वैसा ही बयान जवाहरलाल नेहरू भी दिया करते थे . यानी वे यह कहना चाहती हैं कि वे कुछ गलत नहीं कह रही हैं . उनके ऊपर मुक़दमा दायर करना वैसा ही होगा जैसे जवाहरलाल नेहरू के ऊपर मरणोपरांत मुक़दमा चलाया जाय. अपने बचाव में वे नेहरू की सन्दर्भ को इस्तेमाल करके यह साबित कर दे रही हैं कि उनको इतिहास की जानकारी बिल्कुल नहीं है. सच्चाई यह है कि सितम्बर १९४७ में जब जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत में अपने राज्य के विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया था तो पूरा राज्य शेख अब्दुल्ला के साथ था . और जम्मू-कश्मीर का हर नागरिक भारत के साथ विलय का पक्षधर था . महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने ही जोर दिया था कि राज्य की जनता की राय लेना ज़रूरी है लेकिन जिस पाकिस्तान के लिए अरुंधती राय लाठी भांज रही हैं , वह जनता की राय लेने के खिलाफ था . पाकिस्तान ने हर मोर्चे पर पाकिस्तानी जनता की बात को न मानने का खेल रचा था . लेकिन ६३ साल पहले की और आज की स्थिति में बहुत फर्क है . अब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में अपने एजेंट छोड़ रखे हैं जिन्होंने वहां पर माहौल को बिलकुल बिगाड़ रखा है .बहुत बड़े पैमाने पर पाकिस्तानी घुसपैठ हुई है . इसलिए पाकिस्तानी सेना की मर्जी से वहां जनमत संग्रह कराने की बात करना बेवकूफी होगी. ऐसी हालत में साफ़ समझा जा सकता है कि अपने आपको जवाहरलाल नेहरू की बात से जोड़ कर अरुंधती रॉय अपने अज्ञान का ही परिचय दे रही हैं .

देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिएकश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.

ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टोबर १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , " कश्मीर मेरी जेब में है."

कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है . इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा .. कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तान और तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं .उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है . और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.

कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादीकी जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.

कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने मेंबहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .

कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था . यह देश का दुर्भाग्य है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे नेता आये जिन्होंने मामले को खराब करने में योगदान किया लेकिन हालात इतने भी खराब नहीं हैं कि अरुंधती राय जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने को नेहरू के स्तर का चिन्तक बताने का दुस्साहस करें .

Thursday, September 16, 2010

कश्मीर समस्या का हल सोनिया गाँधी के रास्ते ही संभव है

शेष नारायण सिंह

जम्मू-कश्मीर के संकट में सभी राजनीतिक दलों को शामिल करने की गरज से प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए . कश्मीर की समस्या पिछले ६३ वर्षों से भारत के लिए मुसीबत बनी हुई है . उसका हल निकालना इसलिए बहुत मुश्किल है कि उसमें शुरू से ही पाकिस्तानी पेंच फंसी हुई है बल्कि यह कहना ठीक होगा कि कश्मीर समस्या है ही पाकिस्तान की वजह से . मुल्क के बँटवारे के बाद पता नहीं किस पिनक में पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल , मुहम्मद अली जिन्ना कश्मीर को अपना मान बैठे थे. उसी चक्कर में वे कश्मीर के उस वक़्त के राजा को पट्टी पढ़ाते रहे . लेकिन धीरज नाम की चीज़ तो जिन्ना को छू नहीं गयी थी इसलिए राजा की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बिना उन्होंने कुछ कबायलियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भेज दिया . राजा घबडा गया और उसने सरदार पटेल के सामने आकर भारत के साथ विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिया. बाद में भारत ने पाकिस्तानी सेना को मय कबायलियों के खदेड़ा लेकिन जिन हिस्सों पर यह कबायली क़ब्ज़ा कर चुके थे , वह विवादित हो गया . आज भी कश्मीर के मुज़फराबाद सहित कुछ इलाकों पर पाकिस्तानी क़ब्ज़ा है . कश्मीर समस्या में दिनोंदिन पेंच फंसती गयी और अब हालत यह है कि कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ जिस मुकाम पर है, वह भारत की एकता के लिए चुनौती बन चुका है . सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में जो हालात हैं , उसे अब न तो पाकिस्तान काबू कर सकता है और न ही वहां पाकिस्तानी पैसे से काम कर रहे अलगाववादी . अब लड़ाई में वह आबादी शामिल हो चुकी है जो पैदा ही आतंकवाद के माहौल में हुई और बचपन से उसने वही देखा है . अब इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर उनसे बात करने की ज़रुरत है .
प्रधानमंत्री के दफ्तर से बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक में भी यही बात उभर कर सामने आई है . तय किया गया कि सभी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेजा जाएगा जो वहां के सभी पक्षों से बात करेगा और लौटकर केंद्र सरकार को रिपोर्ट देगा . उसी के आधार पर अगली कार्रवाई का रास्ता तय किया जाएगा. कश्मीर की हालात पर विचार करते समय राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की सीमा से बाहर नहीं आ पाते . सच्ची बात यह है कि कश्मीर की समस्या की जड़ में ही राजनीतिक लोगों का राजनीतिक स्वार्थ रहा है . १९४७ में कश्मीर की राजा की जेब में एक राजनीतिक पार्टी हुआ करती थी . नाम था प्रजा परिषद् . राजा इस पार्टी का इस्तेमाल , रियासत के लोकप्रिय नेता , शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के खिलाफ किया करते थे. यह पार्टी राजा के हुक्म की इतनी बड़ी गुलाम थी कि जब राजा ने पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय करने का मंसूबा बनाया तो यह पार्टी उसके लिए भी राजी हो गयी थी. बाद में प्रजा परिषद का आर एस एस के मातहत काम करने वाली पार्टी, भारतीय जनसंघ के साथ हो विलय गया था . इन्हीं प्रजा परिषद् वालों के कहने पर ही जन संघ के उस वक़्त के नेता, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शेख के खिलाफ अभियान चलाया था . ऐसे ही एक अभियान के दौरान जब वे कश्मीर गए तो उनकी मौत हो गयी. बाद में शेख के बडबोलेपन की वजह से जवाहरलाल नेहरू ने उनकी सरकार को बर्खास्त किया और उन्हें जेल में डाला . डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी वाले आज भी अपने स्वर्गीय नेता के गैरजिम्मेदार आचरण से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . प्रधानमंत्री की बैठक में भी बी जे पी के अध्यक्ष के साथ आडवानी गुट के जो नेता शामिल हुए उनकी राय यही थी कि कश्मीर की हालात का फायदा उठा कर बाकी देश में वोट जीते जाएँ . बहरहाल इस बैठक में सोनिया गांधी ने जो कुछ भी कहा , उसके बाद सभी पार्टियों से ज़िम्मेदार राजनीतिक आचरण की उम्मीद की जानी चाहिये.

कश्मीर के बारे में विचार करते वक़्त जो सबसे ज़रूरी बात ध्यान में रखने की है, वह कश्मीर की विशेष राजनीतिक परिस्थितियाँ हैं. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद दिल्ली के अदूरदर्शी नेताओं ने कश्मीर की जनता - कश्मीरी पंडित और मुसलमान - दोनों की भावनाओं के साथ खूब खिलवाड़ किया है . उस से बाहर आने की ज़रुरत है . इसलिए ज़रूरी है कि सर्वदलीय बैठक में कही गयी सोनिया गांधी की बातों को गंभीरता से लें और उन्हीं बातों को आदर्श मान कर कश्मीर समस्या के हल के लिए आगे बढे. सोनिया गांधी ने बैठक में कहा कि राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को भुलाकर हिंसा और तकलीफ के ज़हरीले घुमावदार रास्ते को दरकिनार करके कश्मीर में जो इंसानियत रहती है उसके घावों पर बातचीत का मलहम लगाएं. उन्होंने कहा कि ऐसे संवाद को कायम करने के लिए कश्मीरी अवाम की जायज़ महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखना ज़रूरी होगा. यहाँ यह भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले लोगों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि सोनिया गांधी आज की तारीख में इस देश की सबसे बड़ी नेता हैं और उनके प्रति नफरत का ज़हर फैलाने से बाज़ आना चाहिए . अगर बी जे पी की बड़ी नेता, सुषमा स्वराज कह सकती हैं कि उन्हें राजीव गाँधी की समाधि पर पुष्प चढाने में कोई दिक्कत नहीं है तो छुटभैये नेताओं को इस सच्चाई को समझ में लेने में ज्यादा मुश्किल पेश नहीं आनी चाहिए . इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बुधवार को हुई सर्वदलीय बैठक के बाद सोनिया गांधी का क़द बहुत बड़ा हो गया है लिहाज़ा बी जे पी के छोटे नेताओं को चाहिए कि उन्हें देश का नेता स्वीकार कर लें . बी जे पी आलाकमान उस रास्ते पर पहले ही चल चुका है .