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Monday, August 3, 2009

हिंदू धर्म और हिंदुत्व मे फर्क

हिंदू धर्म भारत का प्राचीन धर्म है। इसमें बहुत सारे संप्रदाय हैं। संप्रदायों को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको हिंदू कहता है लेकिन हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका प्रतिपादन 1924 में वीडी सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व में किया था। सावरकर इटली के उदार राष्ट्रवादी चिंतक माजिनी से बहुत प्रभावित हुए थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर ही उन्होंने हिंदुत्व का राजनीतिक अभियान का मंच बनाने की कोशिश की थी।

सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार -''हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं। धर्म और सांप्रदायिकता के सवाल पर कोई भी सार्थक बहस शुरू करने के पहले यह जरूरी है कि धर्म के स्वरूप और उसके दर्शन को समझने की कोशिश की जाये।

दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्घा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है।
इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिता, शील, सम्मान और आराधना का विषय है।

यह परिभाषाएं लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में कुछं ऐसे भी धर्म हैं जो सैद्घांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरूद्घ तर्क भी दिए गये हैं। बौद्घ धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्घांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।

इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को, प्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक, अदार्श विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियम, बौद्घों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्घांत या वैष्णवों, ईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। विश्वविख्यात दार्शनिक इमनुअल कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुन्ष्टि रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।

आस्था का विषय बुद्घि या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्घि के विपरीत हों, वे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति का जाता है। यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपका इसके लिए तैयार करते हैं।

इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगा, तब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैं, जिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैं, अनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।

लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों और कालों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। अध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता है, ऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकर, जिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्री, करुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।

सांसारिक सुखों के प्रति जो उदासीनता सन्तों में पाई जाती है उसे एक उदाहरण में समझा जा सकता है। छोटी बच्ची गुडिय़ा के गायब हो जाने पर दुखी होती है और मिल जाने पर खुश होती है। उसके माता पिता मुस्कुराते हैं और बच्ची के व्यवहार को नासमझी समझते हैं। उसी प्रकार सन्त भी आम आदमी के ईप्र्या, द्वेष, मान-अपमान संबंधी मापदंडों पर मुस्कुराते हैं और मानते हैं कि जीवन के उच्चतर मूल्यों को न समझ पाने के कारण व्यक्ति इस तरह का आचरण करता है। भौतिक उपलब्धियों के प्रति उदासीनता का यह भाव श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, चिन्तकों आदि में भी पाया जाता है।

लेकिन सन्त मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। अरण्यकांड के अंत मे गोस्वामी तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रद्घा, क्षमा, मैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। बौद्घ ग्रंथों में भी ब्रह्मï विहार को भिक्षुओं का स्वाभाविक गुण बताया गया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और सांसारिक भागों के प्रति उपेक्षा ही ब्रह्मï विहार हैं। किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त चरित्र ही है। इसीलिए हर धर्म के महान संतों ने मैत्री, करुणा और मुदिता का ही उपदेश दिया है। भारतीय संदर्भ में धर्म का विशेष अर्थ है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में मूल्य का प्रयोग नहीं हुआ है। मूल्य की बजाय पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया गया है।

चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम है मोक्ष। आमतौर पर 'धर्म शब्द का प्रयोग मोक्ष या पारलौकिक आनन्द प्राप्त करने के मार्ग के रूप में किया जाता है। लेकिन भारतीय परम्परा में धर्म और मोक्ष समानार्थी शब्द नहीं हैं। धर्म का अर्थ नैतिक आचरण के रूप में किया गया है, धर्म सम्मत अर्थ और काम ही पुरुषार्थ हैं। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है धारण करना। महाभारत में कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वही धर्म है।

यहां धर्म नैतिक चेतना या विवेक के अर्थ में प्रयोग किया गया है। वैसे भी भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग अधिकतर कर्तव्य के अर्थ में ही होता है। इसीलिए धर्म के दो प्रकार बताए गये हैं-विशेषधर्म और सामान्य धर्म। सामान्य धर्म मानव का स्वाभाविक धर्म है जबकि विशेष धर्म उसके विभिन्न सामाजिक सन्दर्भों में कर्तव्य है। सामान्य धर्म है-धृति:, क्षमा,यम, शौचम् अस्तेयम् इन्द्रिय निग्रह, धा,विद्या, सत्यम, आक्रोध। मतलब यह है कि धर्म इंसान के लिए बहुत जरूरी चीज है। सच्चा धर्म मनुष्य के चरित्र को उदात्त बनाता है और वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा को विकसित करता है। धर्म मनुष्यों को जोड़ता है, तोड़ता नहीं।

प्रथम पुरुषार्थ के रूप में धर्म नैतिकता है और चौथे पुरुषार्थ, मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। इसीलिए नैतिक आचरण या धर्म आचरण का पालन न करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। हमने देखा कि भारतीय परम्परा के अनुसार धर्म पूरी तरह से जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करता है जबकि सम्प्रदाय का एक सीमित क्षेत्र है। संस्कृत कोश के अनुसार सम्प्रदाय का अर्थ है-धर्म (मोक्ष) शिक्षा की विशेष पद्घति। औक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार मज़हब का अर्थ है-वह धार्मिक ग्रुप या वर्ग जो मुख्य परम्परा से हटकर हो। सवाल यह है कि विभिन्न सम्प्रदाय पैदा क्यों और कैसे होते हैं। ऐसा लगता है कि सभी लोग धर्म के उदात्त स्वरूप को समझ नहीं पाते हैं जिस अहंकार से मुक्ति धर्म साधना की मुख्य शर्त होती है, उसी के वशीभूत होकर अपने-अपने ढंग से धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या करने लगते हैं।

दार्शनिक मतभेद के कारण भी अलग-अलग सम्प्रदायों का उदय होता है। उपनिषदों में अनुभूतिजन्य सत्य का वर्णन किया गया है। इन अनुभूतियों की व्याख्या उद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्घाद्वैत आदि दार्शनिक दृष्टिïयों से की गयी है। सत्य की अनुभूति के लिए इन सम्प्रदायों में अलग-अलग पद्घति बताई गयी है। लेकिन जो बात सबसे अहम है, वह यह है कि सभी सम्प्रदायों में साधना की पद्घति की विभिन्नता तो है लेकिन नैतिक आचरण के मामले पर लगभग पूरी तरह से एक रूपता है। परेशानी तब होती है जब विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी इस एकरूपता का कम महत्व देकर, भिन्नता पर ही फोकस कर लेते हैं और अपनी सांप्रदायिक मान्यता को सबसे ऊपर मानने लगते हैं।

यहां समझने की बात यह है कि अपने सम्प्रदाय को सबसे बड़ा मानने में वे अहंकार की शरण जाते हैं और हमने इस की शुरूआत में ही बता दिया है कि धार्मिक साधना की पहली शर्त ही अहंकार का खात्मा है। जब व्यक्ति या सम्प्रदाय अहंकारी हो जाता है तो संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। जाहिर है कि अहंकारी व्यक्ति सांप्रदायिक तो हो सकता है, धार्मिक कतई नहीं हो सकता। संकुचित दृष्टि के कारण सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होता है। लोग लक्ष्य को भूल जाते हैं और सत्य तक पहुंचने के रास्ते को ही महत्व देने लगते हैं और यही सांप्रदायिक आचरण है।

कभी-कभी स्वार्थी और चालक लोग भी साधारण लोगों को सांप्रदायिक श्रेष्ठता के नाम पर ठगते हैं। एक खास किस्म की पूजा पद्घति, कर्मकांड आदि के चक्कर में सादा दिल इंसान फंसता जाता है। समाज में दंगे फसाद इसे संकीर्ण स्वार्थ के कारण होते हैं। जो सत्ता सारी सृष्टि में व्याप्त है, उसे हम मंदिरों और गिरिजाघरों में सीमित कर देते हैं और इंसान को बांट देते हैं।धर्म का लक्ष्य सन्त चरित्र है, दम्भी, लोभी और भोगी गुरू नहीं सत्य तो एक ही है उसकी प्राप्ति के उपाय अनेक हो सकते हैं और अगर मकसद को भूलकर उस तक पहुंचने के साधन पर लड़ाई भिड़ाई हो जाए तो हम लक्ष्यहीन हो जाएंगी और दिग्भ्रम की स्थिति पद होगी। और इसी हालत का फायदा उठाकर हर धर्म का कठमुल्ला और धार्मिक विद्वेष की राजनीति की रोटी खाने वाला नेता सांप्रदायिक दंगे कराएगा, समाज को बांटेगा और धार्मिकता के लक्ष्य में अडंगा खड़ा करेगा।

ज़ाहिर है धर्म को सम्प्रदाय मानने की गलती से ही संघर्ष और दंगे फसाद के हालात पैदा होते हैं और अगर हमारी आजादी की लड़ाई के असली मकसद को हासिल करना है तो उदारवादी राजनीति के नेताओं को चाहिए वे आम आदमी को धर्म के असली अर्थ के बारे में जानकारी देने का अभियान चलाएं और लोगों को जागरूक करें। ऐसा करने से आजादी की लड़ाई का एक अहम लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।

Tuesday, July 28, 2009

इंसाफ की राजनीति और बजट

1980 में केंद्रीय सरकारों ने सॉफ्ट हिंदुत्व को सरकारी नीतियों के केंद्र में रखना शुरू किया था। इंदिरा गांधी जवाहर लाल नेहरू की बेटी थीं, उनमें धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के संस्कार थे जिसका उन्होंने पालन भी किया लेकिन 1980 के चुनावों के पहले उनके पुत्र स्व. संजय गांधी हिंदुत्व की तरफ खिंचने लगे थे। आर.एस.एस. वालों ने भी कई बार इस तरह की बातें की थीं कि संजय गांधी से देश को उम्मीदें हैं। इसी सॉफ्ट हिंदुत्व के चक्कर में पंजाब में अकालियों को तबाह करने की योजना बनाई गई थी जिसमें जनरैल सिंह भिंडरावाले को आगे बढ़ाया गया था।

बताते हैं कि संजय गांधी ने अपनी मां को भी इसी लाइन पर डालने में सफलता हासिल की थी। बहरहाल 1980 के बाद से केंद्रीय बजट में अल्पसंख्यकों को दरकिनार करने का सिलसिला शुरू हुआ था। संजय गांधी को यह भी नाराजगी थी कि 1977 में मुसलमानों की मुखालिफत के कारण ही उनकी मां की सत्ता खत्म हो गई थी। इसी दौरान संघ की राजनीति के प्रेमी बहुत सारे लोग कांग्रेस में भरती हुए। अरुण नेहरू टाइप लोगों ने कांग्रेस पर कब्जा कर लिया और 1991 में तो बीजेपी के समर्थन वाली सरकार ही आ गई।

1980 के बाद ही बाबरी मस्जिद की शहादत और दीगर बहुत से मसलों के हवाले से मुसलमानों को सरकारी तौर पर अपमानित करने का सिलसिला चलता रहा। अब 29 साल बाद एक ऐसी सरकार आई है जो पिछली सरकारों की गलतियों को दुरुस्त करने की कोशिश कर रही है। आर.एस.एस. और उसके मातहत काम करने वालों की समझ में बात नहीं आ रही है। बहरहाल प्रणब मुखर्जी के इस बजट में ऐसे कुछ प्रावधान हैं जो अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के साथ हुए पिछले तीस साल के अन्याय को इंसाफ की शक्ल देने की कोशिश करते हैं। एक बात यहां स्पष्ट कर देना जरूरी है कि बजट में जो भी है वह मुसलमानों के प्रति एहसान नहीं है।

यह उस हक का एक मामूली हिस्सा है जो पिछले तीस वर्षों से केंद्रीय सरकारें छीनती रहीं है। प्रणब मुखर्जी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय के बजट में 74 प्रतिशत की बढ़ोतरी का ऐलान किया है। पिछले साल बजट में 1000 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई थी जो इस साल बढ़कर 1740 करोड़ कर दी गई है। इसके अलावा अल्पसंख्यक बहुल जिलों में प्राथमिकता के आधार पर बिजली, सड़क पानी आदि के विकास के लिए योजनाएं लाई जाएंगी। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के जरिए यू.पी.ए. सरकार ने अपनी मंशा का ऐलान मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में ही कर दिया था। इस बजट में उस मंशा को अमली जामा पहनाने की कोशिश की गई है।

मनमोहन सिंह ने बार बार कहा है कि तरक्की के लिए शिक्षा सबसे जरूरी हथियार है। उनका अपना जीवन भी शिक्षा के अच्छे अवसरों की वजह से दुरुस्त हुआ है। इसलिए अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाओं में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्व देने की बात कही जा रही थी, जो बजट के बाद एक गंभ़ीर प्रयास के रूप में नजर आने लगी है। अल्पसंख्यक बच्चों को इतनी छात्रवृत्तियां दी जाएंगी कि उनकी तालीम इसलिए न रुक जाय कि पैसे की कमी है। अल्पसंख्यकों की कुशलता के विकास के लिए भी बड़ी योजनाओं की बात की जा रही है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की केरल और बंगाल में कैंपस खोलने की योजनाओं की चर्चा बरसों से होती रही है।

अपने बजट भाषण में इसके लिए धन का इंतजाम करके वित्त मंत्री ने अल्पसंख्यकों के भावनात्मक मुद्दों को भी महत्व दिया है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक वित्त एंव विकास निगम और मौलाना आज़ाद फाउंडेशन को और मजबूत किया जा रहा है। इस बजट की एक खास बात यह है कि यह कांग्रेस पार्टी की राजनीति को सरकार चलाने के लिए गंभीरता से आगे बढ़ाने का काम करता है। बजट के जरिए देश की आबादी के एक बड़े वर्ग को यह बताने की कोशिश की गई है कि यह देश सबका है।

अफसोस की बात यह है कि केंद्र सरकार की इंसाफ की डगर पर चलने की कोशिश को संघी राजनीति के कुछ कारिंदे तुष्टीकरण की नीति के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ इलाकों में जुलूस वगैरह भी निकालेे गए हैं और सरकार को मुसलमानों के खिलाफ काम करने की प्रेरणा देने की कोशिश की गई है। लेकिन लगता है कि केंद्र सरकार पर इसका कोई असर नहीं पडऩे वाला है, उसे संघी नेताओं की असुविधा पर मजा आ रहा है।

बजट 2009 कांग्रेस पार्टी की उस राजनीति की एक प्रक्रिया है जिसके तहत उसने मुसलमानों को अन्य पार्टियों से खींचकर अपनी तरफ लाने की कोशिश शुरू की थी। लोकसभा चुनाव 2009 में ही साफ संकेत मिलने लगे थे कि कांग्रेस पार्टी अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं है। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने वाली, शिलान्यास करवाने वाली और बाबरी मस्जिद की शहादत में जिम्मेदार पार्टी की अपनी छवि से बाहर निकलने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट मिलना बहुत बड़ी बात थी। कांग्रेस की कोशिश है कि उसे दुबारा अल्पसंख्यकों का विश्वास हासिल हो जैसे 1971 तक था।

इस मायने में मौजूदा बजट वित्त व्यवस्था के प्रबंध को दुरुस्त करने के साथ-साथ राजनीति को भी चाक चौबंद रखने में काम आयेगा। किसी भी राजनीति का उद्देश्य होता है कि वह अपने देश की अधिकतम जनता की महत्वांकाक्षा का वाहक बने। बीजेपी आदि जो पार्टियां हैं वे अल्पसंख्यकों को अपने दायरे से बाहर रखकर काम करना चाहती है। उनकी कोशिश रहती है कि सरकार मुसलमानों को औकातबोध कराने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम करे।

बीच में कुछ दिनों के लिए कांग्रेस में भी यह बात आ गई थी लेकिन अब लगता है कि माहौल बदल रहा है। सोनिया-मनमोहन की टीम मुसलमानों को साथ लेकर चलने की नीति पर काम कर रही है। कम से कम बजट 2009 से तो यह संदेश बहुत ही साफ तरीके से सामने आ रहा है।

Sunday, July 26, 2009

बटला हाउस चुनावी नहीं इंसानी मुद्दा

जामिया मिल्लिया इसलामिया के करीब बटला हाउस का इलाका पिछले साल चर्चा में आ गया जब दिल्ली पुलिस ने दावा किया कि वहां एक घर में छुपे हुए आतंकवादियों को पुलिस ने घेर लिया, दो लडक़ों को मार गिराया और बाकी भाग निकले। इस कथित मुठभेड़ में पुलिस का एक इंस्पेक्टर भी मारा गया। परिस्थितियां ऐसी थीं कि पुलिस की बात पर सहसा विश्वास नहीं हुआ। मारे गए लडक़े उत्तरप्रदेश के आज़म गढ़ जिले के थे और उनके रिश्तेदारों के अनुसार वे दिल्ली में पढ़ाई करने आए थे।
हर मुसलमान को आतंकवादी करार देने के लिए व्याकुल बीजेपी इस कांड को मुद्दा बनाने में जुट गई और दिल्ली पुलिस के उस इंस्पेक्टर को हिंदुत्व का हीरो बनाने की कोशिश शुरू कर दी जिसे बीजेपी का कोई नेता जानता तक नहीं था। बीजेपी की इस कोशिश को लगाम तब लगी जब इंस्पेक्टर के परिवार वालों ने बी जे पी इन कोशिशों को $गलत बताया लेकिन राजनीति चलती रही। आज़मगढ़ के मूल निवासी और समाजवादी पार्टी के महासचिव, अमर सिंह ने भी रुचि लेना शुरू कर दिया। जब बटला हाउस गए तो लोगों ने उनसे जो बताया उससे वे चिंतित हुए। दूध का दूध और पानी का पानी कर देने की गरज़ से घटना की न्यायिक जांच की मांग कर दी।

उन्होंने यह भी कहा कि यह इसलिए ज़रूरी है कि ओखला, आज़मगढ़ और पूरे देश के अल्प संख्यकों में यह भरोसा पैदा करना ज़रूरी है कि उनके साथ न्याय हो रहा है। सारी दुनिया के संघी, अमर सिंह पर टूट पड़े और उनको बिलकुल घेर लिया। हिन्दुओं के दुश्मन के रूप में पेश करने की कोशिश की और एक पुलिस ज्यादती की घटना को हिंदू बनाम मुसलमान रंग देने की कोशिश की। अमर सिंह ने सफाई दी कि वह बटला हाउस के इनकांउन्टर को अभी फर्जी नहीं बता रहे हैं। लेकिन उस वारदात की वजह से अल्पसंख्यकों में जो असुरक्षा का भाव आया है, उसे कम करने की कोशिश की जानी चाहिए। अमर सिंह ने साफ किया कि बीजेपी के नेताओं के आरोप बेबुनियाद है कि वे वोट बैंक राजनीतिक कर रहे हैं।

उनका कहना था कि आज़मगढ़ के दो नौजवानों और पुलिस के एक अफसर की हत्या के बारे में पुलिस द्वारा दी जा रही कहानी किसी के गले के नीचे नहीं उतर रही है और न्याय का तकाजा है कि इस मामले की न्यायिक जांच की जाय। इसके बाद हुए दिल्ली के विधानसभा चुनाव में अमर सिंह ने अपने इस रुख पर वोट लेने की कोशिश नहीं की ओर साफ कर दिया कि बटला हाउस मामले पर उनका रुख इंसानी फर्ज था, वोट बैंक राजनीति नहीं। संघी राजनीति में किसी भी मुद्दे को तब तक जिंदा रखा जाता है जब तक उसमें जान रहे। दिल्ली के सत्ता के गलियारों और मीडिया के दफ्तरों में आजकल बटला हाउस के हत्याकांड को हलका करने की कोशिश चल रही है। इस मामले में कांग्रेस और भाजपा प्रेमी पत्रकार एकजुट हैं।

एक बड़े अखबार में ख़बर छप गई है कि जामिया नगर और ओखला के इला$के में रहने वाले मुसलमानों के लिए बटला हाउस कोई मुद्दा नहीं है, उन्हें तो बिजली, सडक़ पानी के मुद्दो को ध्यान में रखकर वोट देना है। इस तरह का रुख मानवीय संवेदनाओं के साथ छिछोरापन है और इस पर रोक लगनी चाहिए। निर्दोष मुसलमानों को मारकर बिजली, सडक़ और पानी की रिश्वत देने की कोशिश हर स्तर पर विरोध होना चाहिए।

Friday, June 26, 2009

अब ठोस मुद्दों पर वोट

लोकसभा पहले चरण के चुनाव के बाद चुनाव प्रचार के तरी$के में कुछ बदलाव नज़र आ रहा है। जातियों में बंटे समाज में कुछ परिवरर्तन के संकेत नजर आ रहे हैं। बिहार में नेता और केंद्र में रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव के भाषणों का रूख बदला हुआ है। पिछले 20 वर्षो से मुसलमानों के समर्थन के बल पर राजनीति में सफल रहे लालू प्रसाद यादव की चिंता का रंग बदल गया है।

अब तक लालू यह मान बैठे थे कि मुसलमानों के वोट पर उनका एकाधिकार है लेकिन 16 अप्रैल को जब पहले दौर के वोट पड़े और जो संकेत मिले, उससे लालू यादव यादव परेशान हो गए। केंद्र में अपनी साथी पार्टी, कांग्रेस को बिहार में तीन सीटें देकर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को उसकी औक़ात बताने की कोशिश की थी लेकिन कांग्रेस ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर लालू-राम विकास की राजनीति को ज़बरदस्त झटका दिया है। पहले दौर में मुसलमानों ने कई क्षेत्रों में कांग्रेस को वोट दिया, उनका तर्क है कि लालू यादव अब तक केवल भावनत्तमक अपील के सहारे मुसलमानों का समर्थन लेते रहे हैं, मुसलिम समाज के विकास के लिए कुछ नहीं किया।

ज़ाहिर है कि विकास की दिशा में कोई ठोस काम न किया जाए तो बहुत दिन तक किसी को भी साथ नहीं रखा जा सकता। उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों का वोट महत्तवपूर्ण है और अधिकतर सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। यहां मुसलमानों का वोट आमतौर पर पिछले बीस वर्षो से मुलायम सिंह यादव को मिलता रहा है। इसके ठोस कारण हैं। भावनातमक स्तर पर भी मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह की इज़्ज़त है। आज भी 1990 मेें बाबरी मस्जिद की हिफाज़त की मुलायम सिंह सरकार की कोशिश को न केवल मुसलमान बल्कि पूरी दुनिया के सही सोच वाले लोग सम्मान से याद करते हैं। लेकिन उसके बाद भी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में सरकार चलाने का मौ$का मिला तो उन्होंने मुसलमानों के हित में काम दिया।

आर्थिक क्षेत्र में विकास की कोशिश मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में बेहतर अवसर की कोशिश कुछ ऐसे काम हैं, जिन की वजह से मुसलमान आज मुलायम सिंह के साथ हैं। वर्तमान लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को मदद करने से धर्मनिरपेक्ष ता$कतों को मज़बूती मिलने के आसार हैं मुसलमान वहां कांग्रेस के साथ हैं। मुलायम सिंह यादव ने ऐसी परिस्थितियां भी पैदा कीं हैं जहां उनका उम्मीदवार कमज़ोर है, वहां कांग्रेस को मज़बूत करने का संकेत साफ नज़र आता है। उत्तर प्रदेश की गाजि़याबाद सीट पर तो लगता है कि मुलायम सिंह की कोशिश के नतीजे में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह चुनाव हार जाएंगे।

मुसलमानों में मुलायम सिंह की लोकप्रियता को कमज़ोर करने की कोशिश चल रही है। मायावती ने राज्य में मुसलमानों को उम्मीदवार बनाकर धर्मनिरपेक्ष ताकतों को अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश की है। मुलायम सिंह के पुराने साथी और रामपुर के विधायक आज़म ख़ान भी आजकल रामपुर के कांग्रेस उम्मीदवार की मदद में लगे हैं। मुलायम सिंह इससे बहुत नाराज़ हैं। समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश स्तर के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया है कि आज़म खान अभी तक कांग्रेस की सेवा में थे अब बीजेपी से भी संपर्क में हैं। बहर हाल सचाई यह है कि मुसलमानों में भावनात्मक अपीलों के अलावा ठोस मुद्दों पर राजनीतिक $फैसले लेने की बात ज़ोर पकड़ चुकी है और बीजेपी के साथियों को हराने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।