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Saturday, May 19, 2012

भोपाल के दर्द को १९८९ में बेच लिया था दिल्ली दरबार के कारिंदों ने




शेष नारायण सिंह 

भारत के इतिहास  में अस्सी के दशक को एक ऐसे कालखंड के रूप में याद किया जाएगा जिसमें आजादी की लड़ाई के मुख्य मूल्यों और मान्यताओं को  तिलांजलि देने का काम शुरू हो गया था. धर्मनिरपेक्ष राजनीति और सामाजिक बराबरी का लक्ष्य हासिल करना  स्वतंत्रता संगाम का स्थायी भाव था .१९२० से १९४७ तक चली आज़ादी की लड़ाई में हर मोड़ पर इस बुनियादी समझदारी को देखा  सकता था. इस दौर में देश के आम आदमी को विदेशी सत्ता के खिलाफ उठ खड़े होने की प्रेरणा महात्मा गाँधी ने दी थी. भारत का आम आदमी महात्मा गांधी के साथ था .इस आन्दोलन की राजनीति के वाहक के रूप में कांग्रेस पार्टी ने इस देश की जनता को नेतृत्व दिया था. आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी तो चले गए थे लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने पूंजी के सामाजिक  नियंत्रण और सोशलिस्टिक पैटर्न आफ सोसाइटी की राजनीति के ज़रिये धर्म निरपेक्षता और सामाजिक समरसता के सिद्धांत को जारी रखने का काम किया था. 
आज़ादी के बाद इस देश में ऐसी बहुत सारी राजनीतिक जमातें खडी हो गयी थीं जिनके नेता आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजों के साथ थे.  जवाहर लाल नेहरू के जाने के बाद कुछ चापलूस टाइप कांग्रेसियों ने उनकी बेटी को प्रधानमंत्री बनवा दिया और उसी के बाद देश की  राजनीति में सांप्रदायिक ताक़तों को इज्ज़त मिलनी शुरू हो गयी . १९७५ में जब इंदिरा गांधी ने अपने छोटे  बेटे को सरकार और कांग्रेस की सत्ता सौंपने की कोशिश शुरू की तब तक अपने देश की  राजनीति में राजनीतिक शुचिता को अलविदा कह दिया गया था . इंदिरा गाँधी ने साफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने का  फैसला किया . उनके इस प्रोजेक्ट  का ही नतीजा था कि पंजाब में सिखों को अलग थलग करने की कोशिश  हुई.  उसी दौर में राजनीति में कमीशनखोरी को डंके की चोट पर प्रवेश दे दिया गया . इंदिरा जी के परिवार के ही एक  सदस्य को रायबरेली की उस सीट से सांसद  चुना गया जिसे उन्होंने खुद खाली किया था . इन महानुभाव ने पहले उनके बड़े छोटे  और उसकी अकाल मृत्यु के बाद इंदिरा जी के बड़े  बेटे के ज़रिये  राजनीतिक फैसलों को व्यापार से  जोड़  दिया. हर राजनीतिक फैसले से कमीशन को जोड़ दिया गया. इसी दौर में कुछ निहायत ही गैरराजनीतिक टाइप लोग दिल्ली दरबार के फैसले  लेने लगे.,इसी दौर में ६५ करोड़ की दलाली वाला बोफर्स हुआ  जो कि बाद के सत्ताधीशों के लिए घूसखोरी का व्याकरण बना . इसी दौर में अपने ही देश में दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक  हादसा हुआ .अमरीकी कंपनी यूनियन  कार्बाइड की भोपाल यूनिट में ज़हरीली गैस लीक हुई जिसके कारण भोपाल शहर में हज़ारों  लोग मारे गए और लाखों लोग उसके शिकार हुए . भोपाल गैस काण्ड के बाद अपने  देश में अमरीका की तर्ज़ पर एन जी ओ वालों ने काम करना शुरू  किया  और उन्हीं एन जी ओ वालों के  कारण भोपाल  के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल  सका.
भोपाल के पीड़ितों  की मदद करने  के नाम पर लोगों ने अपने कैरियर बनाए , भोपाल की पीड़ितों  के संघर्ष में भाग लेने के लिए विदेशों से सीधे या परोक्ष रूप से धन की वसूली की,,भोपाल के गैस पीड़ितों की बीमारियों तकलीफों ,उनके अनुभवों , उनकी उम्मीदों ,उनकी निराशाओं  तक को अंतरराष्ट्रीय मंचों और सेमिनारों में बाकायदा  ठेला लगाकर बेचा गया .सरकारी अफसरों ,राजनेताओं ,वकीलों , एन जी ओ  वाले लोगों यहाँ तक  कि अदालतों ने भी भोपाल के लोगों की  मुसीबतों की कीमत पर मालपुआ  उड़ाया . १९८९ में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में ४७ करोड़ डालर वाला सेटिलमेंट आया था. कुछ बहुत ही ईमानदार लोगों ने उस फैसले को चुनौती दी थी. लेकिन उनको पता भी नहीं चला और दिल्ली में आपरेट करने वाले कुछ अंतरराष्ट्रीय धंधेबाजों  ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ चल रहे संघर्ष को को-आप्ट कर लिया.  १९८९ में आये इस फैसले और उसके खिलाफ दिल्ली में चल रहे  संघर्ष में शामिल कुछ ईमानदार और कुछ बेईमान लोगों के काम के इर्द गिर्द लिखी गयी एक किताब बाज़ार में आई है . नामी पत्रकार अंजली देशपांडे ने बहुत ही कुशलता से  उस दौर में दिल्ली में सक्रिय कुछ युवतियों की ज़िंदगी के हवाले से उस वक़्त के राजनीतिक  के सन्दर्भ का इस्तेमाल करते हुए एक कहानी बयान की है . मूल रूप से भोपाल की त्रासदी के  बारे में लिखी गयी यह किताब उपन्यास है लेकिन इसे मैं उपन्यास नहीं कहूँगा . जिन लोगों ने उस दौर में भोपाल और उसके नागरिकों के दर्द को दिल्ली के सेमिनार सर्किट में देखा सुना है उनको इस किताब में लिखी गयी बातें एक रिपोर्ताज जैसी लगेगीं.  इस किताब के कुछ जुमले ऐसे हैं जो उन लोगों को सार्वकालीन सच्चाई लगेगें जिन्होंने दिल्ली  के दरबारों में भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द का सौदा होते देखा  है.इस किताब की ख़ास बात यह है कि हमारे समय की तेज़ तर्रार पत्रकार अंजली देशपांडे ने सच्चाई को बयान करने के लिए कई पात्रों को निमित्त बनाया है . हालांकि किताब का कथानक भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द को पायेदार चुनौती देने की कोशिश के बारे में है लेकिन साथ साथ  सरकार , न्यायपालिका , राजनेता, मौक़ापरस्त बुद्दिजीवियों और व्यापारियों को आइना दिखा रही औरतों की अपनी ज़िंदगी की दुविधाओं के ज़रिये मेरे जैसे कन्फ्यूज़ लोगों को औरत  की इज्ज़त करने की तमीज  सिखाने का प्रोजेक्ट भी इस किताब में मूल कथानक के समानांतर चलता  रहता है . नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों के पुरुष वर्चस्ववादी समाज में मौजूद उन लोगों को भी औकातबोध कराने का काम भी इस किताब में  बखूबी किया गया है जो औरत की शक्ति को कमतर करके देखते हैं . दिल्ली की भोगवादी संस्कृति में सत्तासीन अफसर की कामवासना का शिकार हो रही औरत भी अपनी पहचान के प्रति सजग रह सकती है और अपने फैसले खुद ले सकती है , यह बात अंजली ने बहुत ही साधारण तरीके से समझा दी है . अक्सर देखा गया है कि औरत के अधिकार की बात करते हुए  वैज्ञानिक समझ वाला पुरुष भी  गार्जियन बनने की कोशिश करने लगता है . इस किताब की औरतों को देख कर लगता है कि उन लोगों की सोच पर भी लगाम लगाने का काम अंजली देशपांडे ने बखूबी किया है .

भोपाल के बाद और पी वी नरसिंह राव के पहले भारतीय राजनीति पूंजीवादी  दर्शन की शरण में जाने के लिए जिस तरह की कशमकश  से गुज़र रही थी उसकी भी दस्तक , इम्पीचमेंट नाम की इस अंग्रेज़ी किताब में सुनी जा सकती है . आज एन जी ओ वाले इतने ताक़तवर हो गए हैं कि वे संसद को  भी चुनौती देने लगे हैं .लेकिन अस्सी के दशक  में वे ऐलानियाँ बाज़ार में आने में डरते थे और परदे के पीछे से काम करते थे .इस कथानक में जो आदमी शुरू से ही भोपाल के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए सक्रिय है वह दिल्ली में पाए जाने वाले दलाली संस्कृति का  ख़ास नमूना है . वह कुछ ईमानदार  लोगों को इकठ्ठा करता है , उनको बुनियादी समर्थन देता है लेकिन आखिर में पता लगता है कि बाकी लोग तो न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन वह न्याय की लड़ाई लड़ाने के धंधा कर रहा  था. आज तो ऐलानियाँ फोर्ड फाउंडेशन  से भारी रक़म लेकर एन जी ओ  वाले  संसद  को चुनौती देने के लिए चारों तरफ ताल ठोंकते नज़र आ जायेगें लेकिन  उन दिनों अमरीकी संस्थाओं से पैसा लेना और उसको स्वीकार करना बिलकुल असंभव था . खासकर अगर उस पैसे का इस्तेमाल  भोपाल जैसी त्रासदी के खिलाफ न्याय लेने के लिए किया जा रहा हो. लेकिन पैसा लिया गया और पवित्र अन्तः करण से लड़ाई लड़ रही औरतों को आखिर में साफ़ लग गया कि आन्दोलन वासत्व में शुरू से  ही सरकारी एजेंटों के हाथ में था और  ईमानदारी से न्याय की लड़ाई लड़ रही लडकियां केवल उसी पूंजीवादी लक्ष्य को हासिल करने के लिए औज़ार  बनायी गयी थीं . उनके कारण ही सुप्रीम  कोर्ट और सरकार की मिलीभगत को दी जा रही चुनौती को विश्वसनीय बनाया जा सका. भोपाल के हादसे से भी बड़ा हादसा दिल्ली के दरबारों में हुआ था जब सत्ता में शामिल सभी लोग मिल कर यूनियन कार्बाइड के कारिंदे बन गए थे . पूरी किताब पढ़ जाने के बाद यह बात बहुत ही साफ़  तरीके से सामने आ जाती है .

स्थापित सत्ता किस तरह  ईमानदार लोगों का शोषण  करती  है उसको भी समझा जा सकता है .दिल्ली में कुछ लोग ऐसे हैं जो हर सेमिनार में मिल जाते हैं . वे अपने आप को  सम्मानित व्यक्ति कहलवाते हैं . हर तरह के अन्याय के खिलाफ बयान देते है और  बाद में अन्यायी से मिल जाते हैं . १९८९ में सुप्रीम कोर्ट  की निगरानी में हुए सेटिलमेंट के बाद यह लोग भी सक्रिय हो गए थे और उनके खोखलेपन को भी समझने का मौक़ा यह किताब देती है .किसी भी न्याय की लड़ाई में किस तरह से अवसरवादियों की यह प्रजाति घुस लेती है ,उसका भी अंदाज़ १९८९ की इन  घटनाओं से साफ़ लग जाता है . सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निराश दिल्ली में सक्रिय न्याय की योद्धा औरतों ने जब उन जजों के इम्पीचमेंट यानी महाभियोग की बात की .तो उसको खारिज  करवाने के लिए स्थापित  सत्ता ने जो  तर्क दिए वह भी पूंजीवादी संस्कृति में मौजूद दलाली के जीनोम को रेखांकित कर देती है  उन तर्कों को काट  पाना आसान नहीं है .किताब के एक चरित्र हैं कानून के शिक्षक ,प्रोफ़ेसर थापर . वे सवाल पूछते हैं कि  किस पर महाभियोग चलेगा उन नेताओं और अफसरों पर जिनको कार्बाइड ने भारी रक़म दी ? क्या आपको मालूम है कितने नेताओं की पत्नियां न्यू यार्क में खरीदारी करने गयी थीं और उनका सारा भुगतान कार्बाइड ने किया था ? क्या आप उन सभी अफसरों पर महाभियोग चलायेगें  जो भोपाल की कार्बाइड फैक्टरी में जांच करने गए थे और लौट कर बताया कि सब कुछ ठीक है  या उन डाक्टरों पर जिन्होंने सिद्धांत बघारा कि भोपाल में गैस से कोई  नहीं मरा था , बल्कि मरने वाले वे लोग हैं जो बीमार थे या वैसे भी मरने वाले थे.  या उन अर्थशास्त्रियों पर  अभियोग चलायेगें   जो  कहते हैं कि कार्बाइड जैसे उद्योगों की हमें बहुत ज़रुरत है क्योंकि उसी से तरक्की होती है . 
भोपाल के   हादसे के बाद उस सहारा पर मौत की छाया पड़ गयी  थी लेकिन जिस तरह से दिल्ली के गिद्धों ने  उस हादसे को अपनी आमदनी का साधन बनाया वह  अंजली देशपांडे की किताब में बहुत ही शानदार तरीके से सामने आया  है .

Friday, June 25, 2010

प्रतिष्ठित अखबार द हिन्दू और जन पक्षधरता की पत्रकारिता

शेष नारायण सिंह

अंग्रेज़ी के अखबार द हिन्दू ने खोजी और जन पक्षधरता की पत्रकारिता का एक नया कारनामा अंजाम दिया है . अखबार ने छाप दिया है कि भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ जो अन्याय हुआ है उसके लिए कांग्रेस और भी जे पी के नेता बराबर के ज़िम्मेदार हैं .भोपाल काण्ड के वक़्त यूनियन कार्बाइड कंपनी के अध्यक्ष , वारेन एंडरसन के मामले में एक नया आयाम सामने आ गया है . बी जे पी वाले भोपाल के बहाने एक और बोफोर्स की तलाश में हैं. सारी ज़िम्मेदारी राजीव गाँधी के मत्थे मढ़ देने के चक्कर में हैं जिस से सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को रक्षात्मक मुद्रा में लाया जा सके . लेकिन अब खेल बदल गया है . अब पता चाल है कि पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता, अरुण जेटली जब कानून मंत्री थे तो उन्होंने भी एंडरसन के बारे में वही कहा था जो कहने के आरोप में बी जे पी वाले कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं . आज देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार में छप गया है कि २५ सितम्बर को २००१ को कानून मंत्री के रूप में अरुण जेटली ने फ़ाइल में लिखा था कि एंडरसन को वापस बुला कर उन पर मुक़दमा चलाने का केस बहुत कमज़ोर है . जब यह नोट अरुण जेटली ने लिखा उस वक़्त उनके ऊपर कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री पद की ज़िम्मेदारी थी . यही नहीं उस वक़्त देश के अटार्नी जनरल के पद पर देश के सर्वोच्च योग्यता वाले एक वकील, सोली सोराबजी विद्यमान थे. सोराबजी ने अपनी राय में लिखा था कि अब तक जुटाया गया साक्ष्य ऐसा नहीं है जिसके बल पर अमरीकी अदालतों में मामला जीता जा सके. अरुण जेटली के नोट में जो लिखा है उससे एंडरसन बिलकुल पाक साफ़ इंसान के रूप में सामने आता है . ज़ाहिर है आज बी जे पी राजीव गांधी के खिलाफ जो केस बना रही है , उसकी वह राय तब नहीं थी जब वह सरकार में थी. अरुण जेटली ने सरकारी फ़ाइल में लिखा है कि यह कोई मामला ही नहीं है कि मिस्टर एंडरसन ने कोई ऐसा काम किया जिस से गैस लीक हुई और जान माल की भारी क्षति हुई . श्री जेटली ने लिखा है कि कहीं भी कोई सबूत नहीं है कि मिस्टर एंडरसन को मालूम था कि प्लांट की डिजाइन में कहीं कोई दोष है या कहीं भी सुरक्षा की बुनियादी ज़रूरतों से समझौता किया गया है. कानून मंत्री, अरुण जेटली कहते हैं कि सारा मामला इस अवधारणा पर आधारित है कि कंपनी के अध्यक्ष होने के नाते एंडरसन को मालूम होना चाहिए कि उनकी भोपाल यूनिट में क्या गड़बड़ियां हैं . श्री जेटली के नोट में साफ़ लिखा है कि इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि अमरीका में मौजूद मुख्य कंपनी के अध्यक्ष ने भोपाल की फैक्टरी के रोज़ के काम काज में दखल दिया. उन्होंने कहा कि हालांकि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन अगर मामले को आगे तक ले जाने की पालिसी बनायी जाती है तो केस दायर किया जा सकता है . ज़ाहिर हैं उस वक़्त की सरकार ने कानून के विद्वान् अपने मंत्री, अरुण जेटली की राय को जान लेने के बाद मामले को आगे नहीं बढ़ाया .

मौजूदा सरकार की भी यही राय है . उन्हें भी मालूम है कि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन बी जे पी की ओर से मीडिया के ज़रिये शुरू किये गए अभियान से संभावित राजनीतिक नुकसान के डर से यू पी ए सरकार भी मामले चलाने का स्वांग करने के पक्ष में लगते हैं .वैसे भी बी जे पी ने इस मामले को अपनी टाप प्रायरिटी पर डाल दिया है . पता चला है कि संसद के मानसून सत्र में वे इस मामले पर भारी ताक़त के साथ जुटने वाले हैं . अब यह देखना दिलचस्प होगा कि एंडरसन के केस में राजीव गाँधी, अर्जुन सिंह वगैरह के साथ क्या अरुण जेटली को भी कटघरे में रखने की कोशिश की जायेगी क्योंकि अगर कांग्रेस ज़िम्मेदार है तो ठीक वही ज़िम्मेदारी अरुण जेटली पर भी बनती है .सरकार में मंत्री के रूप में तो अरुण जेटली ने बयान दिया ही था, निजी हैसियत में भी उन्होंने यूनियन कार्बाइड खरीदने वाली वाली कंपनी डाव केमिकल्स को कानूनी सलाह दी थी कि डाव को भोपाल गैस लीक मामले के किसी भी सिविल या क्रिमनल मुक़दमे में ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता..यह सलाह अरुण जेटली ने २००६ में दी थी जाब वे डाव केमिकल्स के एडवोकेट थे.

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राजनीतिक फायदे के लिए बी जे पी वाले भोपाल के पीड़ितों को राहत देने के काम में हाथ डालते हैं कि नहीं . इस में दो राय नहीं है कि १९८४ से लेकर अब तक जितनी भी सरकारें दिल्ली और भोपाल में आई हैं वे सब भोपाल के गैस पीड़ितों के गुनहगार हैं . लेकिन सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी कांगेस की है . अब यह साफ़ हो गया है कि बी जेपी का सबसे मज़बूत नेता भी उसमें शामिल था. अब यह भी पता है कि अमरीका परस्ती की अपनी नीति के कारण न तो , बी जे पी और न ही कांग्रेस भोपाल के पीड़ितों का पक्ष लेगी . ऐसी हालत में मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि वह दोषियों को सामने लाये और सार्वजनिक रूप से कायल करे. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने बिगुल बजा दिया है , बाकी मीडिया संगठनों को भी कांग्रेस और बी जे पी के दोषी नेताओं के एकार्तूतों को सार्वजनिक डोमेन में लाने में मदद करनी चाहिये .

Thursday, June 17, 2010

फिर पूछें कि मौत का सौदागर कौन है

शेष नारायण सिंह


(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )

दिसंबर १९८४ में हुए भोपाल गैस हादसे का विवाद एक बार फिर जिंदा हो गया है . राजीव गाँधी का नाम आते ही बी जे पी को लगने लगा है कि शायद बोफर्स टाइप कुछ काम बन जाए और राजनीतिक फसल में मुनाफ़ा हो . उधर दिल्ली में बैठे कांग्रेस के ज़रुरत से ज्यादा वफादार लोग राजीव के नाम को बचाने के चक्कर में उल जलूल बयान दे रहे हैं . जिन्होंने भोपाल की उस खूंखार रात को देखा है उनके लिए भोपाल गैस त्रासदी के किसी अपराधी को माफ़ कर् पाना मुश्किल है . अब भोपाल गैस काण्ड पर विधिवत राजनीति शुरू हो गयी है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन राजनीतिक किलेबंदी के चक्कर में मुद्दे से जनमत का ध्यान हटाने की कोशिश को भी बात को को हड़प लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. मुद्दा यह है कि भोपाल के इतने बड़े मामले को जिन लोगों ने मामूली कानून व्यवस्था के मामले की तरह पेश किया , वे ज़िम्मेदार हैं और उन्हें सवालों के घेरे में लिया जाना चाहिए . हादसा जिस दिन हुआ उस दिन मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ,अर्जुन सिंह थे , उनकी जो भी ज़िम्मेदारी हो उसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिये. उन पर आरोप है कि उन्होंने युनियन कार्बाइड के मुखिया को देश से भाग जाने में मदद की. लेकिन इस मामले में इस से बहुत बड़े बड़े घपले हुए हैं . उन पर भी नज़र डाली जानी चाहिए और सब को कटघरे में लाया जाना चाहिए जिस से भविष्य में कोई भी नेता या अधिकारी इस तरह के काम करने से डरे . भोपाल गैस काण्ड में बहुत सारे आयाम हैं. यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि दंड संहिता की धाराओं को हल्का किसने किया , लोगों के पुनर्वास के काम में ढिलाई किसने बरती , एक अभियुक्त को तत्कालीन गृह मंत्री और राष्ट्रपति के पास कौन लेकर गया और क्यों यह मुलाक़ात करवाई गयी. उस वक़्त के ताक़तवर लोगों की क्या भूमिका थी . यह सब ऐसे सवाल हैं जिनकी जांच करने से आगे की बात साफ़ करने में मदद मिलेगी. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती. दिसंबर ८४ से लेकर आजतक इस मामले में बहुत सारे लोग आये हैं. उसमें भोपाल के जिला प्रशासन के वे अधिकारी हैं जिन्होंने मामले को हल्का किया . इसमें पुलिस का रोल है , मुकामी न्यायपालिका का रोल हैं , मुकामी नेताओं का रोल है. सब की पड़ताल की जानी चाहिए . और इस तरह से अर्जुन सिंह के बाद जो लोग भी मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री हुए हों सबसे पूछ ताछ की जानी चाहिए . अगर ऐसा हुआ तो पिछले २५ वर्षों के हर मुख्य मंत्री की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी तय की जा सकेगी और आने वाले दौर में मुख्य मंत्री मनमानीकरने से बाज़ आयेगें. हाँ अगर कांग्रेस के उस वक़्त के मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री को सूली पर चढ़ाना है तो मीडिया में जिस तरह का काम चल रहा है , उसे जारी रखा जा सकता है लेकिन अगर सही बात को सामने लाना है तो मीडिया के लिए भी लाजिम है कि वह सारी बातों को बहस के घेरे में लाये और बात को आगे बढाए. भारत के कानून ऐसे हैं कि वह यह सुनिश्चित करने के अवसर देते हैं कि किसी के साथ अन्याय न हो . इसके लिए कभी भी किसी मुक़दमे में दुबारा जांच की जा सकती है . इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि क्या अर्जुन सिंह के बाद से लेकर अब तक किसी मुख्य मंत्री ने जांच के बारे में कोई जानकारी ली क्योंकि जनता के प्रतिनधि के रूप में चुने गए हर मुख्यमंत्री का यह कि वह जनता के हितों के कस्टोडियन के रूप में काम करे.इसलिए यह ज़रूरी है कि कि दिग्विजय सिंह , मोतीलाल वोरा, उमा भारती , कैलाश जोशी. सुन्दर लाल पटवा ,राजीव गाँधी, वी पी सिंह , पी वी नरसिंह राव, एच डी देवेगोड़ा, अटल बिहारी वाजपेयी, और मनमोहन सिंह की भूमिका की भी जांच कर लेनी छाहिये . मीडिया को भी चौकन्ना रहने की ज़रुरत है कि वह बी जे पी की ओर से एजेंडा फिक्स कर रहे लोगों की बात को भी ध्यान में रखें लेकिन बी जे पी वालों को बचाने की कोशिशों का भी पर्दा फाश करें. ताज़ा खबर यह है कि मौत के सौदागर वाली बहस भी शुरू हो गयी है . और गुजरात २००२ के लिए ज़िम्मेदार नेता ने पूछना शुरू कर दिया है कि मौत का सौदागर कौन है . उन नेता जी को भी यह बताने की ज़रुरत है कि मौत का सौदागर वह होता है जो अपनी निगरानी में हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतारे . वे खुद तय कर लें कि उस सांचे में कौन फिट बैठता है.

Sunday, August 9, 2009

बाल की खाल

भोपाल के सुरेश नंदमेहर एक मामूली चर्मकार हैं। अन्याय सहना उनकी फितरत में नहीं है और इसी फितरत के चलते उन्होंने पानी में आग लगाने जैसा काम करने निकल पड़े हैं।

चर्मकार समाज की मांग को लेकर २७ दिनों तक भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर धरने पर बैठे सुरेश को जब अखबारों में पर्याप्त जगह नहीं मिली तो उन्होंने मन में ठान लिया कि अब वे अखबारों में अपनी खबर छपवाने के लिए नहीं जाएंगे बल्कि अपना अखबार निकालेंगे जो उनके समाज की आवाज उठाने में आगे रहेगा।

इस तरह एक अखबार का जन्म हुआ और नाम रखा गया 'बाल की खाल'। आगे पढें...