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Saturday, June 12, 2010

पाकिस्तान के एक इलाके पर तालिबानी कब्जा

शेष नारायण सिंह

एमनेस्टी इंटरनेशनल की नयी रिपोर्ट में बताया गया है कि पाकिस्तान में कुछ इलाके ऐसे हैं जहां पाकिस्तानी सरकार का कोई अधिकारी घुस नहीं सकता . यह इलाके वास्तव में तालिबानी कब्जे में हैं और वहां, मानवाधिकारों का दिन रात क़त्ल हो रहा है .इस इलाके के लोगों को किसी तरह की कानूनी सुरक्षा नहीं हासिल है और लोग तालिबानी आतंक के शिकार हो रहे हैं .पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के क्षेत्र में रहने वाले इन करीब चालीस लाख लोगों को पाकिस्तानी सरकार ने तालिबानियों के रहमो-करम पर छोड़ दिया है . इसके अलावा पाकिस्तान में करीब दस लाख ऐसे लोग हैं जो तालिबानी आतंक से तो आज़ाद हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उनकी समस्याओं को हल करने के लिए कोई कोशिश नहीं कर रही है और लोग भूखों मरने के लिए छोड़ दिए गए हैं . उन्हें मदद की अर्जेंट ज़रुरत है लेकिन पाकिस्तानी सरकार किसी भी पहल का जवाब नहीं दे रही है .एमनेस्टी इंटरनेशनल के सेक्रेटरी का दावा है कि अगर फ़ौरन कुछ न किया गया तो पाकिस्तानी सरकार की उपेक्षा के शिकार इन इंसानों को बचाया नहीं जा सकेगा.एमनेस्टी ने पाकिस्तान सरकार और तालिबान के नेताओं से अपील की है कि अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन करें और इन परेशान लोगों के मानवाधिकार से खिलवाड़ न करें.संगठन ने बताया है कि लड़ाकों और फौजियों के अलावा २००९ में इस क्षेत्र में करीब १३०० सिविलियन मारे गए थे. इस साल यह संख्या और भी बढ़ जाने की आशंका है .स्वात घाटी तालिबानी आतंक का सबसे मज़बूत ठिकाना है . वहां से भाग कर आये लोगों की शिकायत है कि पाकिस्तानी सरकार ने उनकी जिंदगियों को बेमतलब मान कर उन्हें पूरी तरह से भुला दिया है और अब तालिबानी चील कौवे उनको नोच रहे हैं .वहां स्कूलों में अब किताबें नहीं पढाई जातीं , तालिबान आतंकवादी उन स्कूलों में बाकायदा बंदूक चलाने की ट्रेनिंग देता है . आतंक फैलाने के अन्य तरीकों की शिक्षा भी इन्हीं स्कूलों में दी जा रही है.

पाकिस्तान के पिछले साठ साल के इतिहास पर नज़र डालें तो अंदाज़ लग जायेगा कि गलत राजनीतिक फैसलों का क्या नतीजा होता है.पाकिस्तान की स्थापना के साथ ही यह पक्का पता लग गया था कि एक ऐतिहासिक और भौगोलिक अजूबा पैदा हो गया है .मौलाना आज़ाद ने विभाजन के वक़्त ही बता दिया था कि यह मुल्क जिन्नाह के जीवन काल तक ही चल पायेगा . उसके बाद इसके टुकड़े होने से कोई नहीं रोक सकता. इसीलिये जब जनरल अय्यूब ने पाकिस्तान को फौजी तानाशाही के बूटों तले रौंदने का फैसला किया तो तस्वीर साफ़ होने लगी थी. तानाशाही से अपने को अलग करने की कोशिश कर रहे पूर्वी बंगाल की जनता ने अपने आपको पाकिस्तान से अलग कर लिया . अब बाकी बचे पाकिस्तान में तबाही का माहौल है . १९७१ में अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और पाकिस्तानी हुक्मरान , याहया खां और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने भारत के खिलाफ एक हज़ार साल तक की लड़ाई की मंसूबाबंदी की थी. . वे दोनों तो ज़बानी जमा खर्च से आगे नहीं बढ़ सके लेकिन उनके उत्तराधिकारी जनरल जिया-उल-हक ने इस धमकी को अंजाम तक पंहुचाने की कोशिश की. उन्होंने अमरीकी पैसे की मदद से भारत में आतंकवाद के ज़रिये हमले करना शुरू कर दिया .इसके लिए उन्होंने पाकिस्तानी फौज का इस्तेमाल किया और तरह तरह के आतंकवादी संगठन खड़े कर दिए .पहले भारत के राज्य ,पंजाब में दहशतगर्दी का काम शुरू करवाया . उनके मरने के बाद वे ही दहशतगर्द कश्मीर में सक्रिय हो गए लेकिन भारत की ताक़त के सामने पाकिस्तान की सारी तरकीबें फेल हो गयीं और जो आतंकवादी संगठन भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए बनाये गए थे ,आज वही पाकिस्तानी राष्ट्र को तबाह करने पर आमादा हैं . यह तालिबान वगैरह उसी आतंकवादी फलसफे को लागू करने के लिए सक्रिय हैं . बस फर्क यह है कि अब निशाने पर पाकिस्तान है . और पाकिस्तान का एक बड़ा इलाका वहां के असली शासक , फौज से नाराज़ है . बलूचों के सरदार अकबर खां बुग्ती को जिस बेरहमी से जनरल मुशर्रफ ने मारा था उसकी वजह से बलूचिस्तान अब पाकिस्तान से अलग होना चाहता है . अलग सिंध की मांग पाकिस्तान से भी पुरानी है , वह भी बिलकुल आन्दोलन की शक्ल अख्तियार करने के लिए तैयार है . पख्तून पहले से ही अफगानिस्तान से ज्यादा बिरादराना महसूस करते हैं . हमारे खान अब्दुल गफ्फार खां ही काबुल में दफनाये गए थे . दर असल यह उनकी आख़िरी इच्छा थी. तो वह इलाका भी भावनात्मक रूप से कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन सका . जो हमारे रिश्तेदार विभाजन के बाद वहां जाकर बसे हैं , उनको भी पंजाबी प्रभाव वाली फौज अभी मोहाजिर की कहती है . यानी वह भी अभी भारत के उन इलाकों को ही अपना घर मानते हैं जहां उनके पुरखों की हड्डियां दफन हैं . केवल पंजाब है जो अपने को पाकिस्तान कहलाने में गर्व महसूस करता है .
इस पृष्ठभूमि में यह बिलकुल साफ़ है कि पाकिस्तान के एकता का कोई केस नहीं है . लेकिन अजीब बात है कि सबसे पहले पाकिस्तानी राजनीतिक और फौजी हुक्मरान के हाथ से वे इलाके निकल रहे हैं जिनके बारे में आम तौर पर बात ही नहीं की जाती थी. अगर स्वात घाटी और उसके आस पास के इलाके में पाकिस्तान फ़ौरन अपना इकबाल बुलंद नहीं करता तो तालिबान के कब्जे में एक बड़ा भौगोलिक भूभाग आ जायेगा जिसके बाद पाकिस्तान को खंड खंड होने कोई नहीं बचा सकता .

Sunday, May 30, 2010

मंसूर सईद साठ के दशक के नौजवानों के हीरो थे

शेष नारायण सिंह

भाई मंसूर नहीं रहे. पाकिस्तान के शहर कराची में मंसूर सईद का इंतकाल हो गया. मौलाना अहमद सईद का एक पोता और चला गया .मृत्यु के समय मंसूर सईद की उम्र 68 साल थी . वे जियों टी वी में बहुत ऊंचे पद पर थे. उनकी पत्नी आबिदा , कराची में एक मशहूर स्कूल की संस्थापक और प्रिंसिपल हैं , उनकी बड़ी बेटी सानिया सईद पाकिस्तान की बहुत मशहूर एंकर और एक्टर है. पाकिस्तानी टेलीविज़न देखने वाला हर शख्श उन्हें पहचानता है . बेटा अहमर सईद पाकिस्तान की अंडर 19 टीम का कप्तान रह चुका है . फिलहाल ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में क्रिकेट खेलने के अलावा मीडिया से भी जुड़ा हुआ है .

१९७१ के बाद से भाई मंसूर पाकिस्तान चले गए थे और वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था.
जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे , मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था की आखरी दिल्ली वाला चला गया , उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.

भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. उन्होंने दिल्ली के जामिया स्कूल और एंग्लो-अरबिक स्कूल में शुरुआती तालीम पायी ,दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज और दिल्ली कॉलेज से BA और MA किया . कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े , . उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया , जो बहुत बार खेला गया .अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं . लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता , शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे , Yes, Sean Connery tries to look like me .

वे सन १९७१ में अपनी दोस्त आबिदा हाशमी से मिलने पकिस्तान गए और शादी करके वहीं बस गए. आबिदा के पिता,अनीस हाशमी कराची में रहते थे. और पाकिस्तान में जम्हूरियत की बहाली के बड़े पैरोकार थे . वे रावलपिंडी साज़िश केस में फैज़ के साथ जेल में रह चुके थे और पाकिस्तान सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे .१९७१ के युद्ध के कारण मंसूर सईद का भारत वापस आना संभव नहीं हो पाया . बाद में बंगलादेश बन जाने के बाद दोनों मुल्कों के बीच तनाव बढ़ गया और भाई मंसूर को मजबूरन वहीं रहना पड़ा . मंसूर सईद ने वहां की कम्युनिस्ट तहरीक का हिस्सा बनने का फैसला कर लिया . अपनी मृत्यु के समय वे पकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का हिस्सा थे.

पाकिस्तान जाने के पहले भाई मंसूर दिल्ली में नौजवानों की एक पूरी पीढी के हीरो थे. दिल्ली में जब साठ के दशक में छात्रों में वामपंथी राजनीति की समझ का सिलसिला शुरू हुआ तो भाई मंसूर उन प्रगतिशील छात्रों की अगली कतार में थे. उनके दो भाई सुहेल हाशमी और सफ़दर हाशमी बाद के वामपंथी आन्दोलन में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं . सफ़दर की तो कुछ राजनीतिक बदमाशों ने हत्या कर दी थी और सुहेल आज भी वैज्ञानिक सोच और दिल्ली की विरासत के बड़े जानकार माने जाते हैं . मंसूर की चचेरी बहन शबनम हाशमी ने पूरे देश में शोषित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई छेड़ रखी है . और धर्म निरपेक्षता के आन्दोलन की बड़ी नेता हैं .
भाई मंसूर की कमी दिल्ली में बहुत से परिवारों में महसूस की जायेगी . उनका जाना हमारी पीढी के लोगों के लिए निजी नुकसान है , सरहद के इस पार भी और उस पार भी .

Thursday, May 27, 2010

हाफ़िज़ सईद पाकिस्तानी फौज़ का भाग्यविधाता है

(दैनिक जागरण से साभार )

शेष नारायण सिंह

मुंबई हमलों के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने रिहा कर दिया है . अदालत ने कहा कि सरकार हाफ़िज़ सईद के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं पेश कर सकी है इस लिए उसे हिरासत में रखने का कोई आधार नहीं है . पाकिस्तानी सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आत्नक का जो भी इंतज़ाम है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . और वह से पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . . यह बेचारे तो अमरीका से लोक तंत्र बहाली के नाम पर पैसा ऐंठने के लिए बैठाए गए हैं . वहां सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. फौज और आईएसआई में कोई फर्क नहीं है. सब मिलकर काम करते हैं और पाकिस्तान की गरीब जनता के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हैं .हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश भी करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके होंगें . और वे हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.


यानी अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है उनकी फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है उनकी फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है और उसे करना भी चाहिए क्योंकि अब तक तो पाकिस्तानी आतंक का सबसे बड़ा नुकसान भारत ही झेल रहा है लेकिन अमरीका पर भी अब पाकिस्तानी आतंकवादियों की टेढ़ी नज़र है क्योंकि पिछले दिनों टाइम्स स्क्वायर में बम विस्फोट करने की कोशिश में जो आदमी पकड़ा गया है वह पूरी तरह से पाकिस्तानी फौज की पैदाइश है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पाल रहे पकिस्तान को अमरीका सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. इसके लिए दान करने वाले देशों को अपना इन्स्पेक्टर तैनात करने के बारे में भी सोचना चाहिए ..अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं

ऐसी हालात में आतंकवाद के सबसे बड़े माहिर, हाफिज़ सईद पर कार्रवाई करने की उम्मीद करना भी बेकार की बात है जब तक उस व्यवस्था पर लगाम न लगाई जाए जो उसे चला रही है. और उस व्यवस्था का नाम है पाकिस्तानी फौज और आई एस आई .पाकिस्तान से आतंकवाद का ताम झाम हटाने के लिए फौज को कमज़ोर करना पड़ेगा और यह काम केवल भारत का ज़िम्मा नहीं है. पाकिस्तानी आतंकवाद का नुकसान सबसे ज्यादा भारत को हो रहा है, इसमें कोई शक नहीं है लेकिन अब तो अमरीका भी उसी कतार में खड़ा हो गया है जिसमें पाकिस्तान की ज़मीन से शुरू होने वाले आतंक को भोग रहे भारत और अफगानिस्तान खड़े हैं .. इस लिए सबको मिलकर पाकिस्तानी फौज को तमीज सिखानी होगी. क्योंकि ज़रदारी या गिलानी तो मुखौटा हैं . असली खेल की चाभी फौज और आई एस आई के पास ही है . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ साई दक कुछ नहीं बिगड़ेगा . यहाँ यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हाफ़िज़ सईद की ताक़त के सामने पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट भी कोई हैसियत नहीं है .