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Thursday, June 13, 2013

नार्वे पहला स्वतन्त्र देश जहां महिलाओं को मताधिकार मिला.



शेष नारायण सिंह


नार्वे में महिलाओं को मताधिकार मिलने की शताब्दी  वर्ष के  जश्न मनाये  जा  रहे हैं .आजकल वहाँ महिला मताधिकार सप्ताह के उत्सव चल  रहे हैं . भारत के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद भी कुछ कार्यक्रमों में शामिल होने वाले हैं . आजकल वे नार्वे की सरकारी यात्रा पर हैं .इस साल नार्वे में चुनाव भी होने वाले हैं . सरकार की कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस साल मतदान करें  . इस साल नार्वे की राजधानी ओस्लो में १४ नवंबर को महिला सशक्तीकरण और समानता के विषय पर अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन का आयोजन किया गया है . इस मौके पर वहाँ  दुनिया भर के राजनेता और महिलाओं के अधिकार के लिए संघर्ष करने वाले लोगों का जमावड़ा होने वाला है .
आज नार्वे महिलाओं के अधिकार के एक अहम केन्द्र के रूप में जाना जाता है लेकिन यह दर्ज़ा उनको यूं ही नहीं मिल गया .आज से ठीक एक सौ साल पहले ११ जून १९१३ को जब उस वक़्त की नार्वे की सरकार ने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया तो वह दुनिया के उन देशों में शामिल हो गया जहां  महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला था . इसके पहले  न्यूजीलैंड में  १८९३ में , आस्ट्रेलिया में १९०२ में और फिनलैंड में १९०६ में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिल चुका था लेकिन यह तीनों ही देश स्वतन्त्र देश नहीं थे . नार्वे पहला स्वतन्त्र देश है जहां संविधान के अनुसार महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला. लोकशाही के इतिहास में यह एक बहुत ही अहम संगमील है . नार्वे का संविधान १८१४ में बना था और उस संविधान के लागू होने के करीब सौ साल बाद नार्वे के राजनेताओं की समझ में आया कि महिलाओं को भी राजकाज में शामिल  किया जाना चाहिए . हालांकि सौ साल लगे लेकिन बाकी दुनिया के हिसाब से १९१३ का यह फैसला एक क्रांतिकारी क़दम था. जब १८१४ में नार्वे का संविधान बना तो उसमें प्रावधान था कि जनप्रतिनधियों को राजकाज में शामिल किया जाएगा . इस संविधान को बनाने के लिए १७९१ के फ्रांसीसी संविधान और १७८७ के अमरीकी संविधान से प्रेरणा ली गयी . नार्वे में शुरू में उन लोगों को वोट देने का अधिकार था जो या तो सरकारी नौकारियों में थे या ज़मींदार थे. वे लोग जिनके पास ज़मीन नहीं थी उनको वोट देने का अधिकार नहीं था . हर वर्ग की महिलाओं को वोट की प्रक्रिया से बाहर रखा गया था .लेकिन १८९८ में सभी पुरुषों को वोट देने का अधिकार मिल गया . हालांकि उस वक़्त के हिसाब से यह बहुत ही क्रांतिकारी क़दम था . यूरोप के बाकी देशों में  तो यह भी नसीब नहीं था. और जब १९१३ में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिल गया तो नार्वे यूरोप में लोकतंत्र का सबसे प्रमुख केन्द्र बन गया .

१९१३ में महिलाओं को वोट देने  का फैसला कोई एक दिन में नहीं हुआ . उसके लिए २८ साल तक संघर्ष चला था . जब सरकार ने १९१३ में महिलाओं को अधिकार देने का फैसला किया .उस संघर्ष  की नेता जीना क्रोग ने कहा था कि उन्हें  उम्मीद तो थी कि उनके संघर्ष के बाद कुछ सकारात्मक होगा लेकिन उनको भी उम्मीद नहीं थी कि जीत इतनी निर्णायक होगी क्योंकि उस फैसले के बाद सभी महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिल गया था. जब महिलाओं के मताधिकार के लिए बहस हो रही थी तो वही तर्क दिए गए थे जो हर पुरुषप्रधान समाज में दिए जाते हैं .नार्वे की संसद के उस दौर के कई सदस्यों ने कहा कि अगर महिलाओं को वोट देने का अधिकार दे दिया गया तो पारिवारिक जीवन तबाह हो जाएगा.  चर्च की ओर से सबसे ज्यादा एतराज़ उठ रहा था , धार्मिक नेता कह रहे थे कि  राज करना पुरुषों का काम है और अगर महिलओं को राज करने वालों को चुनने का अधिकार दे दिया गया तो बहुत गलत होगा . महिलाओं को पुरुषों का काम नहीं करना चाहिए और पुरुषों को महिलाओं का काम नहीं करना चाहिए . इन दकियानूसी तर्कों के बीच संघर्ष भी चलता रहा और १९१३ आते आते राजनीतिक दलों पर  इतना  दबाव पड़ा कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपने चुनावी वायदों में महिलाओं के मताधिकार की बात को प्रमुखता से शामिल किया .जब मई १९१३ में इस मुद्दे पर बहस शुरू हुई तो किसी भी राजनीतिक पार्टी ने विरोध नहीं किया .एक बार  जब वोट देने का अधिकार मिल गया तो महिलाओं को  वहाँ की संसद की सदस्य बनाने की कोशिश भी शुरू हो गयी. और १९२२ में  पहली बार किसी महिला को नार्वे एक सर्वोच्च पंचायत में  शामिल होने का मौक़ा मिला. 

Saturday, November 3, 2012

जब तक समाज महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा नहीं देगा तब तक राष्ट्र की तरक्की नामुमकिन है.




शेष नारायण सिंह 

नरेंद्र मोदी ने हिमाचल प्रदेश में एक चुनाव सभा में केंद्रीय मंत्री  शशि थरूर की पत्नी के बारे में एक अभद्र टिप्पणी कर दी. मीडिया में हल्ला मच गया और उनकी इस टिप्पणी के लिए माफी मांगने की मांग उठने लगी.  जो लोग नरेंद्र मोदी को जानते हैं उनको पता है कि गुजरात के मुख्य मंत्री अपने किसी काम को गलत नहीं मानते और किसी भी गलत काम के करने के बाद माफी नहीं मांगते.२००२ में उनकी सरकार के रहते गुजरात में जो नर संहार हुआ था,उसके लिए उन्होंने कभी कोई अफ़सोस नहीं जताया. देश की निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उनके काम पर टीका टिप्पणी हो रही है , कई मामलों में तो उनके खास साथियों के खिलाफ फैसले भी आ चुके हैं लेकिन नरेंद्र मोदी के चेहरे पर कभी शिकन तक नहीं आयी. गुजरात के २००२ के नर संहार में बहुत सी महिलाओं के साथ बलात्कार भी हुआ था, नरेंद्र मोदी के एक समर्थक ने  टेलिविज़न के कैमरे के सामने स्वीकार किया था कि उसने किस तरह से एक गर्भवती महिला के पेट पर तलवार से वार किया था और पेट में पल रहा उसका बच्चा  बाहर आ गया था . गुजरात २००२ में बहुत सी महिलाओं की हत्या हुयी थी, बहुत सी बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ था और बहुत सी लडकियों को अपमानित किया गया था .उस  वाकये  पर भी नरेंद्र मोदी ने कोई माफी नहीं माँगी . उलटे उनकी सरकार के मंत्री और गुजरात बीजेपी के कुछ नेता उस जघन्य कांड की भी सफाई देते फिर रहे थे . इसलिए मोदी जी से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे महिलाओं के प्रति कही गयी ऐसी किसी अपमान जनक बात के  लिए माफी मांग लेगें. मोदी के कई समर्थक हिमाचल प्रदेश की अभद्र टिप्पणी वाली घटना के बाद से ही टेलिविज़न चैनलों पर कहते  पाए जा रहे हैं कि मोदी जी अपने शब्दों को खूब नाप तौल कर  ही बोलते हैं. यानी यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनके मुंह से यह बात गलती से निकल गयी. नरेंद्र मोदी उस असहनशील भारतीय समाज की पैदाइश हैं  जिसमें महिलाओं को सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता है .

लेकिन नरेंद्र मोदी की ५० करोड वाली टिप्पणी को अलग थलग राय के रूप में देखने की भी ज़रूरत नहीं है .आज़ादी के ६५ साल बाद भी हम एक राष्ट्र के रूप में भी समाज की तरक्की के बारे में गाफिल हैं . नरेंद्र मोदी से महिलाओं के प्रति सम्मान की उम्मीद करने का  कोई मतलब नहीं है. शायद यह उनकी प्रकृति नहीं है .लेकिन एक समाज के रूप में हम क्या  महिलाओं और पुरुषों की बराबरी के बारे में संविधान में कही  गयी बातों को राजनीतिक बिरादरी में लागू कर पा रहे हैं. कांग्रेस के नेता और  हरियाणा के मुख्य मंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कुछ दिन पहले खाप पंचायतों के  उस हुक्म को सही ठहरा दिया था  जिसमें महिलाओं को पुरुषों  की गुलाम का दर्ज़ा देने की साज़िश की बू आ रही थी. हरियाणा के ही पूर्व मुख्य मंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने लड़कियों की कम उम्र में शादी के कुछ  खापों के सुझाव को सही बताया था.ऐसे ही अनगिनत मामले हैं जहां नेताओं ने महिलाओं के प्रति अभद्र टिप्पणी की  और उसके बाद उसे ठीक करने की ज़रूरत नहीं समझी, कोई माफी नहीं माँगी. इस तरह के  तत्व मीडिया में भी मौजूद हैं . एक बड़े मीडिया ग्रुप के एक बड़े  संपादक की रिकार्ड की गयी एक टेलीफोन वार्ता में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हवाले से एक बहुत ही अभद्र  टिप्पणी की  गयी थी. बाद में उनके  ग्रुप के मालिक ने बात को संभालने की कोशिश तो की लेकिन कहीं भी कोई माफी नहीं माँगी गयी , कोई अफ़सोस  नहीं जताया गया . शिक्षा संस्थाओं में इस तरह की  घटनाएं रोज ही होती रहती हैं.राजनीति को कैरियर बनाने वाले नेता इस तरह की वारदात रोज ही  करते रहते हैं . इस तरह के कई नेता तो आजकल भी जेलों की हवा खा रहे हैं . उनके नाम लेकर उन्हें महत्व देना ठीक नहीं है.

 नरेंद्र मोदी की अभद्र टिप्पणी को और भी  अन्य नेताओं के साथ जोड़कर नरेंद्र मोदी की अमर्यादित बात को हल्का करना उद्देश्य नहीं  है . ऐसा लगता है कि  इस देश के पुरुषों में माचो कल्चर का अनुसरण करने  का फैशन है . जिसके चलते लड़कियों को अपमानित करने की बातें  होती हैं . इन नेताओं को दुरुस्त करने का तो शायद यही तरीका  है कि इनको संविधान के अनुसार  काम करने के लिए मजबूर कर दिया जाए. संविधान में जहां मौलिक अधिकारों का उल्लेख  किया गया  है ,वहीं अनुच्छेद १४  में लिखा है कि राज्य ,भारत के   किसी भी इलाके में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा. अनुच्छेद १५ में बात को और साफ़ कर दिया गया है जहां लिखा है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म,मूलवंश, जाति , लिंग ,जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा. सवाल उठता है कि क्या इसी संविधान की  शपथ ले चुके किसी मोदी या  किसी हुड्डा को इस संविधान  का पालन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता . हमें एक राष्ट्र के रूप में इन नेताओं के इस आचरण पर चिंतित होना चाहिए और इन्हें सभ्य आचरण करने के लिए मजबूर करने के उपाय करने चाहिए .

जहां तक नेताओं की बात है उनको तो काबू में करने के लिए सरकारी दंड विधान जैसी किसी बात को आगे किया जा सकता है. हो सकता है कि ऐसा संभव हो जाय कि कानून में कोई परिवर्तन कर दिया जाए और महिलाओं के प्रति अभद्रता करने वालों को किसी भी राजनीतिक पद के अयोग्य करार दे दिया जाए. या ऐसी ही कोई और सख्ती कर दी जाए  . सरकारी पद गंवाने  का डर अगर नेताओं के  दिमाग में डाल दिया जाए तो वे तो सुधर  जायगें . लेकिन एक समाज के रूप में देश के बहुत बड़े पुरुष वर्ग में महिलाओं के प्रति अपमान का जो भाव है उसको ठीक करने के लिए क्या क़दम उठाये जाने चाहिए.इस सवाल का जवाब तलाश करना ज़रूरी है . पूरे समाज को जब तक यह अहसास नहीं होगा कि स्त्री और पुरुष के अधिकारों में  समानता है तब तक कुछ भी बदलने वाला नहीं है.हम जानते हैं कि इसी देश में सती प्रथा भी थी और जौहर भी होता था  . महिलाओं के प्रति आचरण की जितनी  बातें पब्लिक डोमेन में आ रही हैं  उससे तो लगता है कि अपना देश एक बार फिर उसी सती और जौहर युग की तरफ बढ़ रहा है . अपनी पसंद के जीवन साथी चुनने के बाद दिल्ली के आस पास के  गाँवों में लड़कियों को क़त्ल करने वालों के जघन्य अपराध को कुछ  वर्गों में आनर किलिंग का नाम देने की कोशिश भी की जा रही  है . एक बात और भी समझ में आती है . उत्तर भारत में महिलाओं के प्रति जिस तरह का व्यवहार देखने को मिलता है ,देश के अन्य भागों में वैसा नहीं है. इसकी भी पड़ताल  की जानी चाहिए  .लगता है कि शिक्षा की कमी के  कारण ही महिलाओं के प्रति अपमान का माहौल बन रहा है . जहाँ शिक्षा  है वहाँ महिलाओं की इज्ज़त अपेक्षाकृत ज्यादा है.


महाराष्ट्र  में लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण माना जाता है . १८४८ में ही ज्योतिबा फुले ने दलित लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोलकर इस क्रांति का ऐलान कर दिया था . और आज भी महाराष्ट्र में लड़कियों की इज्ज़त अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है. बीच में मराठी मानूस के नारे के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद लुम्पन लड़कों पर जोर ज्यादा दिया जाने लगा और पिछले ५० साल में महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा पर  उतना ध्यान नहीं दिया गया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान दिया गया था . लड़कियों की शिक्षा में आयी कमी को पूरा करने के लिए महाराष्ट्र में  सरकारी तौर  पर एक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत प्रचार किया जा रहा है कि अगर लडकी शिक्षित होगी , तभी प्रगति होगी.इस अभियान का फर्क भी पड़ना शुरू हो गया है. यह मानी हुई बात है कि तरक्की के लिए शिक्षा की ज़रुरत है. और परिवार की तरक्की तभी होगी  जब माँ सही तरीके से शिक्षित होगी.यह बात उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश  के  उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे  अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये  जाते हैं . 
इसलिए यह ज़रूरी है कि देश में लड़कियों की शिक्षा और अधिकारिता का एक अभियान चलाया जाए तभी कोई राजनीतिक नेता किसी भी महिला की  शान में अभद्र टिप्पणी करने से डरेगा . सभी धर्मों में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया  गया है .इसलिए धार्मिक कारणों से भी शिक्षा का विरोध नहीं किया जाना चाहिए .शिक्षा ,खासकर लड़कियों की शिक्षा के ज़रिये ही समाज भी सभ्यता की उन सीमाओं में रहने की क्षमता  हासिल करेगा जिसके कारण  पश्चिमी  देशों  और समाजों  ने  तरक्की की है .क्योंकि इस बात में दो राय नहीं है कि जब तक देश और समाज महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा नहीं देगा  राष्ट्र की तरक्की नामुमकिन है.