Wednesday, August 10, 2011
सुप्रीम कोर्ट का फरमान-फर्जी मुठभेड़ के गुनहगार पुलिस वालों को फांसी
शेष नारायण सिंह
सुप्रीम कोर्ट ने फर्जी मुठभेड़ के मामलों में बहुत ही सख्त रुख अपनाया है . राजस्थान के फर्जी मुठभेड़ के अक्टूबर २००६ के एक मामले की सुनवाई के दौरान माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में शामिल पुलिस वालों को फांसी दी जानी चाहिए . माननीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा कि अगर साधारण लोग कोई अपराध करते हैं तो उन्हें साधारण सज़ा दी जानी चाहिए लेकिन अगर वे लोग अपराध करते हैं जिन्हें अपराध रोकने की ज़िम्मेदारी दी गयी है तो उसे दुर्लभ से दुर्लभ अपराध मान कर उन्हें उसी हिसाब से सज़ा दी जानी चाहिए .राजस्थान के इस मामले में पुलिस के बहुत बड़े अधिकारी भी शामिल हैं .दारा सिंह नाम के एक व्यक्ति को पुलिस ने यह कह कर मार डाला था कि वह हिरासत से भाग रहा था . जबकि उस व्यक्ति की पत्नी ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने सोचे समझे षड्यंत्र के तहत उसकी हत्या की थी. बात सुप्रीम कोर्ट तक पंहुच गयी और देश की सर्वोच्च अदालत ने सख्ती का रुख अपनाया और सी बी आई को आदेश दिया कि मामले की फ़ौरन जांच की जाए. अदालत ने आदेश दिया कि राज्य के अतिरिक्त पुलिस निदेशक ए के जैन और अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक अरशद अली को भी गिरफ्तार करके उनसे पूछताछ की जाए. अभी सरकारी रिकार्ड में यह दोनों ही अफसर अपने को फरार दिखा रहे हैं .सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त टिप्पणी के बाद देश में फर्जी इनकाउंटर के मसले पर एक दिलचस्प बहस शुरू हो जायेगी . इन सवालों पर भी गौर करने की ज़रुरत है कि फर्जी मुठभेड़ के मामलों में फौरी इंसाफ़ के चक्कर में कीं निर्दोष न मारे जाएँ. आने वालो दिनों में इस बात पर भी बहस होगी कि न्याय प्रशासन में मौजूद कमजोरियों का लाभ उठा कर असली अपराधी निर्दोष लोगों को फंसाने में कामयाब न हो जाएँ.
इस बात में दो राय नहीं है कि आम आदमी को इंसाफ़ दिलवाने की कोशिश में पुलिस अपने अधिकारों का दरुपयोग करती रहती है.लेकिन फर्जी मुठभेड़ों के कुछ ऐसे मामले भी प्रकाश में आये हैं जो सभ्य समाज के माथे पर कलंक से कम नहीं हैं.इस सिलसिले में एक संगमील मामला मुंबई की एक लडकी इशरत जहां का था जिसे गुजरात पुलिस के बड़े अधिकारी डी जी वंजारा ने तथाकथित आतंकियों के साथ अहमदाबाद में जून २००५ में फर्जी मुठभेड़ में मार डाला था. इशरत जहां के घर वाले पुलिस की इस बात को मानने को तैयार नहीं थे कि उनकी लड़की आतंकवादी है . मामला अदालतों में गया और सिविल सोसाइटी के कुछ लोगों ने उनकी मदद की और जब सुप्रीम कोर्ट की नज़र पड़ी तब जाकर असली अपराधियों को पकड़ने की कोशिश शुरू हुई . न्याय के उनके युद्ध के दौरान इशरत जहां की मां , शमीमा कौसर को कुछ राहत मिली जब गुजरात सरकार के न्यायिक अधिकारी, एस पी तमांग की रिपोर्ट आई जिसमें उन्होंने साफ़ कह दिया कि इशरत जहां को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया था और उसमें उसी पुलिस अधिकारी, वंजारा का हाथ था जो कि इसी तरह के अन्य मामलों में शामिल पाया गया था. एस पी तमांग की रिपोर्ट ने कोई नयी जांच नहीं की थी, उन्होंने तो बस उपलब्ध सामग्री और पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट के आधार पर सच्चाई को सामने ला दिया था. इशरत जहां के मामले में मीडिया के एक वर्ग की गैर जिम्मेदाराना सोच भी सामने आ गयी थी. अपनी बेटी की याद को बेदाग़ बनाने की उसकी मां की मुहिम को फिर भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था में विश्वास हो गया. हालांकि एस पी तमांग की रिपोर्ट आने के बाद इशरत जहां की माना शमीमा कौसर ने बहुत कोशिश की . निचली अदालतों से उसे कोई राहत नहीं मिली शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार की और देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला आया तब जाकर इशरत जहांइशरत जहां केस के फर्जी मुठभेड़ से सम्बंधित सारे मामले रोक दिए गए...इस स्टे के साथ ही मामले को जल्दी निपटाने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी है . एस पी तमांग की रिपोर्ट में तार्किक तरीके से उसी सामग्री की जांच की गयी थी जिसके आधार पर इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ के मामले को पुलिस अफसरों की बहादुरी के तौर पर पेश किया जा रहा था. तमांग की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि जिन अधिकारियों ने इशरत जहां को मार गिराया था उनको उम्मीद थी कि उनके उस कारनामे से मुख्य मंत्री बहुत खुश हो जायेंगें और उन्हें कुछ इनाम -अकराम देंगें . अफसरों की यह सोच ही देश की लोकशाही पर सबसे बड़ा खतरा है . जिस राज में अधिकारी यह सोचने लगे कि किसी बेक़सूर को मार डालने से मुख्य मंत्री खुश होगा , वहां आदिम राज्य की व्यवस्था कायम मानी जायेगी. यह ऐसी हालत है जिस पर सभ्य समाज के हर वर्ग को गौर करना पड़ेगा वरना देश की आज़ादी पर मंडरा रहा खतरा बहुत ही बढ़ जाएगा और एक मुकाम ऐसा भी आ सकता है जब सही और न्यायप्रिय लोग कमज़ोर पड़ जायेंगें . ज़ाहिर है ऐसी किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए सभी लोकतांत्रिक लोगों को तैयार रहना पड़ेगा. अगर ऐसा न हुआ तो सत्ता का बेजा इस्तेमाल करने वाले हमारी आज़ादी को तानाशाही में बदल देंगें . ऐसा न हो सके इसके लिए जनमत को तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा , लोकतंत्र के चारों स्तंभों , न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया को भी हमेशा सतर्क रहना पडेगा .
राजस्थान के मौजूदा मामले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस सी के प्रसाद की बेंच ने ने निचली अदालत के ११ अप्रैल के उस आदेश पर सख्त एतराज़ किया जिसमें नए सिरे से एफ आई आर लिखने का फैसला सुनाया गया था . सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब सी बी आई मामले की जांच कर रही थी तो नए एफ आई आर का कोई मतलब नहीं है.जबकि सी बी आई की जांच सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही शुरू की गयी थी. लेकिन यह उम्मीद करना भी असंभव है कि सुप्रीम कोर्ट हर मामले संज्ञान में लेगी. ज़रुरत इस बात की है कि देश का हर नागरिक अन्याय के खिलाफ हमेशा चौकन्ना रहे औअर अगर ज़रुरत पड़े तो आम आदमी लामबंद होकर न्याय के लिए आन्दोलन तक करने के लिए तैयार रहे.
Saturday, January 8, 2011
दलित नेता और विद्रोही के संपादक सुधीर ढवले को पुलिस ने बिनायक सेन किया
महाराष्ट्र पुलिस ने भी छत्तीसगढ़ पुलिस की तरह गरीबों के अधिकार की लड़ाई लड़ने वालों की धरपकड़ शुरू कर दी है . इस सिलसिले में दलित अधिकारों के चैम्पियन और मराठी पत्रिका , 'विद्रोही ' के संपादक सुधीर ढवले को गोंदिया पुलिस ने देशद्रोह और अनलाफुल एक्टिविटीज़ प्रेवेंशन एक्ट की धारा १७,२० और ३० लगाकर गिरफ्तार कर लिया . उन पर आरोप है कि वे आतंकवादी काम के लिए धन जमा कर रहे थे. ,और किसी आतंकवादी संगठन के सदस्य थे. पुलिस ने उनको नक्सलवादी बताकर अपने काम को आसान करने की कोशिश भी कर ली है .अभी पिछले हफ्ते गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने महाराष्ट्र सरकार से आग्रह किया था कि नक्सलियों के खिलाफ अभियान को तेज़ किया जाए. सबको मालूम है कि जब पुलिस के ऊपर आला अफसरों का दबाव पड़ता है तो वे सबसे आसान पकड़ उन वामपंथियों को मानते हैं जो गरीब आदमियों के बीच काम कर रहे हों . छत्तीसगढ़ में डॉ बिनायक सेन ऐसे ही शिकार थे और अब महाराष्ट पुलिस ने वही कारनामा कर दिखाया है .सुधीर ढवले ने वर्धा में रविवार को अंबेडकर-फुले साहित्य सम्मलेन को संबोधित किया था और गिरफतारी के समय ट्रेन से वापस मुंबई जा रहे थे. उन्हें गिरफ्तार करके १२ जनवरी तक पुलिस हिरासत में रखा जाएगा.
गोंदिया की पुलिस ने दावा किया है कि कुछ लोगों ने उसे बता दिया था कि सुधीर ढवले किसी नक्सलवादी संगठन के राज्य स्तर के पदाधिकारी हैं . और उनके पास एक कम्प्युटर है जिसमें सारा नक्सलवादी साहित्य रखा हुआ है .सुधीर का कम्प्युटर भी पुलिस ने अपने कब्जे में ले लिया है . सुधीर की गिरफ्तारी को सभ्य समाज के लोग किसी भी विरोधी आवाज़ को कुचल देने की सरकारी साज़िश का हिस्सा मान रहे हैं सुधीर सुधीर ढवले कोई लल्लू पंजू सड़क छाप नेता नहीं है .महाराष्ट्र में दलित अधिकारों के लिए चल रहे आन्दोलन के चोटी के नेता हैं . महाराष्ट्र में जाति के विनाश के लिए चल रहे आन्दोलन में वे बहुत ही आदर के मुकाम पर विराजमान हैं . २००६ में जब खैरलांजी में दलितों की सामूहिक ह्त्या की गयी थी तो महाराष्ट्र के नौजवानों में बहुत गुस्सा था . उसके बाद ६ दिसंबर २००७ को डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण के दिन रिपब्लिकन जातीय अन्ताची चालवाल की स्थापना करके सुधीर ढवले ने जाति के विनाश के डॉ अंबेडकर के अभियान को आगे बढ़ाया था. यह आन्दोलन आज मुंबई में एक मज़बूत आन्दोलन है . इस बात में दो राय नहीं है कि वे सरकार के लिए असुविधाजनक हमेशा से ही रहे हैं . .महाराष्ट्र में चल रहे उस आन्दोलन की अगुवाई भी वे कर रहे थे जिसमें मुंबई और महाराष्ट्र के सभ्य समाज के लोग डॉ बिनायक सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ लामबंद हो गए थे. सुधीर की गिरफ्तारी के बाद मुंबई के संस्कृति कर्मियों के बीच बहुत गुस्सा है . फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने कहा कि सुधीर धावले बहुत ही भले आदमी है .उनको भी उसी तर्ज़ पर पकड़ा गया है जिस पर बिनायक सेन को पकड़ा गया था. फिल्मकार सागर सरहदी ने भी सुधीर ढवले के एगिराफ्तारी को गलत बताया है .
Thursday, October 8, 2009
सत्ता का खूंखार चेहरा और गरीब आदमी
झारखंड के पुलिस अधिकारी फ्रांसिस इदवार को उनके अपहर्ताओं ने निर्ममता पूर्वक मार डाला। फ्रांसिस एक मामूली आदमी थे और सरकारी नौकरी के सहारे अपने बच्चों का लालन पालन कर रहे थे। अपनी ड्यूटी करते हुए वे अपहरण का शिकार हो गए और अपनी जान गंवा बैठे। सरकारी तंत्र ने छूटते ही कह दिया कि माओवादियों ने उन्हें मार डाला है। टी.वी. चैनलों और अखबारों की खबरें भी यही बताती हैं।
हालांकि आज के जमाने में इस तरह के मामलों में सरकारों की विश्वसनीयता बहुत ही आदरणीय नहीं रह गयी है लेकिन सम्माननीय अखबारों ने भी इसे माओवादियों की करतूत बताया है इसलिए लगता है कि अति वामपंथी विचारधारा ने एक ऐसे आदमी की जान ले ली। एक टी.वी. चैनल में बहस करने आए वामपंथी लेखक और कार्यकर्ता गौतम नवलखा मानने को तैयार नहीं थे कि फ्रांसिस की बर्बर हत्या माओवादियों ने की होगी। उनको लगता था कि बिना तथ्यों की पूरी जानकारी हासिल किए इस विषय में कुछ भी कहना ठीक नहीं है।
यानी वे यह कहना चाह रहे थे कि हो सकता है कि माओवादियों को बदनाम करने के लिए किसी और ने फ्रांसिस को मार डाला हो। यह बात दूर की कौड़ी है हालांकि इस बात की संभावना से भी पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता। एक गौतम नवलखा की बात मानकर बाकी सारी दुनिया को झूठा ठहराना बहुत ही बेतुका राग है। सच्ची बात यह है कि मीडिया के पास इस तरह की वारदात के कारणों की जांच करने के तरीके होते है जिससे सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। यह जानकारी किसी भी अदालत में सबूत तो नहीं बनती लेकिन होती सही है।
इस आधार पर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि फ्रांसिस की हत्या माओवादियों ने ही की। फ्रांसिस की हत्या एक बहुत ही खतरनाक संकेत है। माओवादी राजनीति, निश्चित रूप से हिंसा का सहारा ले रही है। धनाढ्य वर्गों के हित पोषक भारत की राजनीतिक पार्टियां अपने वर्गों को लाभ पहुंचाने में जुटी हुई हैं। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि माओवादियों के लाल कॉरिडर में पडऩे वाले राज्यों में राज करने वाली सभी पार्टियों का वर्ग चरित्र वही है जो किसी भी सामंतवादी साम्राज्यवादी पार्टी की सोच का होता है।
इन सारे इलाकों में कही भी भूमि सुधार नहीं हुआ है, राजनीतिक नेता सामंतों की तरह का आचरण करते हैं और गरीब आदमियों के लिए आने वाली सभी स्कीमों का पैसा हड़प लेते है। निराश हताश गरीब आदमी दिग्भ्रमित वामपंथियों के चंगुल में फंस जाता है और वह हथियार उठा लेता है।
इस तरह सत्ता के दो दावेदारों के बीच में लड़ाई शुरू हो जाती है। सरकारी सत्ता पर काबिज भू-स्वामियों-पूंजीपतियों के सेवक राजनेता एक तरफ और माक्र्सवादी शब्दजाल इस्तेमाल करके अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे, कम्युनिस्ट विचारधारा से दिशाभ्रम की स्थिति में पहुंच चुके शातिर सत्ताकामी वामपंथी सरगनाओं की मंडली दूसरी तरफ। अजीब बात है कि इस खेल में मरने वाला हर आदमी गरीब है। चाहे वह माओवादियों की तरफ से हो या सरकार की तरफ से। पुलिस का इंस्पेक्टर फ्रांसिस बहुत ही मामूली आदमी था, अगर उसे सरकारी नौकरी न मिली होती तो वह शायद कहीं मजदूरी कर रहा होता।
लेकिन ज्यों ही सत्ता के प्रतिष्ठानों के संचालक पकड़े जाते हैं तो तूफान मच जाता है। माओवादियों का यह नया खूंखार रूप उनके बड़े नेताओं कोबाद गांधी और छत्रधर महतो के पकड़े जाने के बाद ही समाने आया है। इसके बाद हुकूमतों को भी माओवादियों के बहाने आदिवासी इलाकों में आम आदमी को घेरकर मारने का मौका मिल जायेगा। यह बात सबको मालूम है कि इस खूनी खेल में कोई बड़ा आदमी नहीं मारा जायेगा।
आदिवासी इलाकों में चल रहे नए खून खराबे में एक नया आयाम भी जुड़ रहा है। बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा अनमोल है और अब उस पर बहुराष्टï्रीय कंपनियों की नजर लगी हुई है। इस बात की पूरी संभावना है कि इन इलाकों में चल रहे ताजा खून खराबे में इस साम्राज्यवादी खेल का भी कुछ योगदान हो। जहां तक सरकारों का प्रश्न है, वे तो पूंजीपति वर्ग की भलाई के लिए ही सत्ता में हैं, उन्हें सत्ता पर स्थापित करने में थैलीशाहों की चमक के योगदान की भी चर्चाएं होती रहती हैं, इस बात की भी पूरी आशंका है कि माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व में भी कुछ ऐसे लोग हों जो पूंजीपति वर्ग का खेल जमाने में मदद कर रहे हों।
इस तरह की बात हर उस इलाके में हो चुकी है। जहां खनिज संपदा होती है पेट्रोल के इस्तेमाल के पहले अरब का इलाका एक ऐसा क्षेत्र था जहां कभी किसी की नजर नहीं जाती थी। समुद्र के रास्ते संपन्न इलाकों की खोज में निकलने वाले यूरोपीय यात्री पश्चिम एशिया के इस इलाके पर नजर ही नहीं डालते थे, सीधे भारत की तरफ बढ़ते थे, जहां की संपन्नता का तिलिस्म उनको खींचता रहता था।
लेकिन पेट्रोल और अन्य हाइड्रोकार्बन पदार्थों के ऊर्जा के मुख्य स्रोत के विकसित होने के बाद पश्चिम एशिया में साम्राज्यवादियों के हित साधन के रास्ते पैदा किए गए और आज पेट्रोलियम पदार्थों से संपन्न यह इलाका पूंजीपति साम्राज्यवादी शक्तियों की बर्बरता का केंद्र बना हुआ है। वहां रहने वाले लोगों को हर तरह के खूनी खेल का नतीजा झेलना पड़ रहा है।
भारत में नये विकसित हो रहे लाल कॉरिडर के क्षेत्र भी खनिज संपदा से लैस हैं। वहां पर राज करने वाली पार्टियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधन करने में कोई संकोच नहीं होगा। इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन क्षेत्रों की तबाही में माओवादी भी किन्हीं निहित स्वार्थों के कारिंदे हों। इसलिए सिविल सोसाइटी को चौकन्ना रहना पड़ेगा कि साम्राज्यवादियों के हितों की साधना के चक्कर में कहीं भारत का एक बड़ा हिस्सा विवादों के घेरे में न आ जाय और अवाम की पहले से ही मुश्किल जिंदगी और मुश्किल न हो जाय।
Monday, July 27, 2009
कायर, अपराधी और निर्दयी पुलिस
लेकिन अब बात बहुत आगे निकल चुकी है। राजनीति के अपराधीकरण के बाद बहुत सारे पुलिस वालों ने ऐसे काम भी किए हैं जो बड़े बड़े अपराधियों को भी पीछे छोड़ जाने के लिए काफी है। इसलिए ब्रिटिश पुलिस बनाम लोकतांत्रिक पुलिस का तर्क बेमतलब है। कई राज्य सरकारों में ऐसे मंत्री हैं जो कई घृणित अपराधों के मुलजिम हैं, कई मंत्रियों पर हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार, आगजनी जैसे मुकदमे चल रहे हैं। लोकतंत्र में मंत्री ही सत्ता का मुखिया होता है, वही सरकार होता है।
अगर वह अपराधी है तो लोकतंत्र के तबाह होने के खतरे बढ़ जाते हैं। लोक प्रतिनिधित्व कानून और संविधान में ऐसे प्रावधान नहीं हैं कि किसी अपराधी को चुनाव लडऩे से रोका जा सके। बाद में कुछ संशोधन आदि करके बात को कुछ संभालने की कोशिश की गई है लेकिन वह अपराधियों को संसद या विधानसभा में पहुंचने से रोकने के लिए नाकाफी है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि अपराधी भी चुनाव लडऩे लगेगा। उनकी सोच थी कि अव्वल तो अपराधी चुनाव लडऩे की हिम्मत ही नहीं करेगा और अगर लड़ता भी है तो जनता उसे नकार देगी।
ऐसा हुआ नहीं। जातिपांत के दलदल में फंसे समाज में अपराधी स्वीकार्य होने लगा और एक समय तो ऐसा आया कि उत्तरप्रदेश विधानसभा में बड़ी संख्या में अपराधी पहुंचने लगे। जाहिर है कि प्रशासन का स्तर गिरना था, सो गिरा। लेकिन पुलिस को अपनी सेवा की शर्तों के हिसाब से काम करना चाहिए। जब पुलिस का अधिकारी नौकरी में आता है तो संविधान को पालन करने की शपथ लेता है किसी नेता की चापलूसी करने की शपथ नहीं लेता लेकिन नेताओं की हां में हां मिलाने वालों की पुलिस फोर्स में हो रही भरमार की वजह से देहरादून जैसी घटनाएं थोक में हो रही है जोकि अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आती हैं।
अपने देश, खासकर उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में पुलिस प्रशासन की हालत बहुत खराब है। राज्य में पुलिस की लीडरशिप बिलकुल कमजोर है। बड़े अफसर अपराध के कम करने के लिए दबाव तो बनाते हैं लेकिन इंगेजमेंट के नियमों का पालन नहीं करवाते। अपराधियों को खत्म करने के लिए फर्जी मुठभेड़ का सहारा लेते हैं। कुछ मामलों में तो अपराधियों से ही दूसरे अपराधी को मरवाते हैं। एक जो सबसे खराब बात सिस्टम में आ गई है कि अगर कोई अपराधी मारा जाता है तो आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की कल्चर के तहत अपराधी को मारने वाला प्रमोशन पा जाता है। कई बार उसे पुरस्कार भी मिल जाता है।
फर्जी मुठभेड़ के मामलों में सबसे ज्यादा योगदान प्रमोशन-एवार्ड कल्चर का है। इसके चलते चालू किस्म के पुलिस वाले जल्दबाजी में पड़कर निर्दोष लोगों को भी मार देते है। सबसे बड़ी जो गलती हो रही है, वह यह कि पुलिस वाले ठीक से मुखबिरों का विकास नहीं कर रहे है। निजी दुश्मनी के चलते कभी-कभी मुखबिर निर्दोष लोगों को मरवा देते हैं। जिले में तैनात पुलिस अधिकारियों को चाहिए कि मुखबिर व्यवस्था के विकास के लिए विभाग की तरफ से जो नियम बनाए गए हैं उसका पालन करवाएं। इनकाउंटर में भी रूल्स ऑफ इंगेजमेंट हैं। देहरादून में हुए रणबीर के $कत्ल में पुलिस प्रशासन की हर प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया है।
लड़के के शरीर पर 28 ऐसे घाव हैं जो उसके जिंदा रहते उसे पुलिस प्रताडऩा के दौरान दिए गए थे। लगता है कि किसी गलत मुखबिरी के चक्कर में रणबीर को पकड़ लिया गया था और जब उसको इतनी प्रताडऩा दी गई कि उसके बचने की उम्मीद नहीं रह गई तो उसे इनकाउंटर दिखाकर गोलियों से भून दिया गया। यह अक्षम्य अपराध है। इन पुलिस वालों से पूछा जाना चाहिए कि उनके अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार हो, तो उन्हें कैसा लगेगा।
देहरादून की घटना पुलिस प्रशासन की सरासर असफलता है और इसकी सभ्य समाज के लोगों को कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए और राज्य सरकार को चाहिए कि जिम्मेदार पुलिस वालों को दंडित करें और कमजोर अफसरों को हटाकर योग्य पुलिस वालों को तैनात करें। दंड भी ऐसा हो कि भविष्य में पुलिस वालों की हिम्मत न पड़े कि किसी निर्दोष बच्चे को बेरहमी से पीटें और उसकी जान ले लें।