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Thursday, July 30, 2009

शिक्षा के क्षेत्र में ओबामा की पहल

अमरीका में भारत और चीन से जाकर शिक्षा लेने वाले बच्चों की बहुत इज्जत है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि अमरीका की शिक्षा व्यवस्था इस तरह की बनाई जाएगी कि वह भारत और चीन की शिक्षा के स्तर से मुकाबला कर सके। सच्चाई यह है कि अमरीका में शिक्षा का स्तर बहुत ऊंचा है, वहां कोई समस्या नहीं है। मुसीबत यह है कि अमरीकी नौजवान शिक्षा के प्रति उतना गंभीर नहीं है जितना भारतीय और चीनी नौजवान है।

नई शिक्षा व्यवस्था शुरू करने से ओबामा की योजना है कि अधिक से अधिक अमरीकी नौजवान ग्रेजुएट स्तर की शिक्षा और काम करने की कुशलता सीखे। ओबामा की इस योजना को अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव नाम दिया गया है। उनकी कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा लोग सामुदायिक कालेजों में जायं और काम करने के लिए कुछ नई योग्यताएं हासिल करें। उस योजना में अगले दस वर्षों तक 12 अरब डॉलर खर्च किया जाएगा। इस धन की व्यवस्था उस सब्सिडी को काटकर की जाएगी जो अभी बैंकों और प्राइवेट वित्तीय संस्थानों दी जाती है जिससे वे मंहगी शिक्षा के लिए दिए जाने वाले कर्ज की ब्याज दर कम करने के लिए इस्तेमाल करते हैं।

सब्सिडी काटकर ओबामा ने यह ऐलान कर दिया है कि संपन्न वर्गों को ज्यादा सुविधा न देकर उनका प्रशासन अब आम आदमी की तरफ ज्यादा ध्यान देगा। बराक ओबामा का अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव एक महत्वपूर्ण योजना है। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद प्रेसिडेंट ट्रमैन ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण पहल की थी। उसके बाद से इतने बड़े पैमाने पर शिक्षा के क्षेत्र में कोई पहल नहीं हुई। दरअसल उच्च शिक्षा के लिए ओबामा की यह पहल बेरोजगारी की समस्या को हल करने की दिशा में दूरगामी और महत्वपूर्ण कदम है।

अमरीकी अर्थव्यवस्था के विकास के बाद ऐसा माहौल बन गया था कि हाई स्कूल तक की पढ़ाई करने के बाद बच्चे कोई न कोई नौकरी पा जाते थे। इसीलिए उच्च शिक्षा के लिए एशिया के देशों, खासकर भारत और चीन के बच्चों को फेलोशिप आदि देकर अमरीकी विश्वविद्यालयों में रिसर्च करने के लिए उत्साहित किया जाता था। नतीजा यह हुआ है कि निचले स्तर पर तो बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान काम कर रहा है लेकिन ऊपर के स्तर पर विदेशियों की संख्या ज्यादा है। ग्रेजुएशन इनीशिएटिव के माध्यम से ओबामा की कोशिश है कि बड़ी से बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान अच्छी शिक्षा लेकर नौकरियों की ऊपरी पायदान पर पहुंचे जिससे अमरीकी समाज और राष्ट्र का भला हो।

किसी भी राष्ट्र की तरक्की में शिक्षा के महत्व और उसकी मुख्य भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता भारत में पिछड़ेपन का मुख्य कारण शिक्षा की कमी ही थी। आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की दूर तक सोच सकने की क्षमता का ही नतीजा था कि उन्होंने बड़ी संख्या में विश्व स्तर के शिक्षा केंद्रों की स्थापना की। सामाजिक जीवन में सक्रिय लोगों को भी स्कूल कालेज खोलने की प्रेरणा दी। नतीजा यह हुआ कि बड़े पैमाने पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आजादी के बाद की गई पहल का नतीजा था कि देश के कई हिस्सों, खासकर दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई।

जब 1991 में डा. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया गया तो उन्होंने आर्थिक विकास को उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर डाल दिया। उन्होंने कहा कि नौजवानों में कौशल के विकास और अच्छी शिक्षा के बिना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता था। शिक्षा के महत्व को डा. मनमोहन सिंह से बेहतर कौन समझ सकता था। अविभाजित पंजाब के एक छोटे से गांव में पैदा हुए मनमोहन सिंह ने शिक्षा के बल पर ही समाज में इज्जत पाई थी और वर्तमान पद पर भी वे उच्च शिक्षा के बल पर पहुंचे है।

1991 में की गई उनकी शुरुआत का ही नतीजा है कि देश में शिक्षा संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। कुछ धूर्त किस्म के लोगों ने भी उच्च शिक्षा के केंद्र खोल कर कमाई शुरू कर दी है लेकिन समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा। बराक ओबामा भी शिक्षा के बल पर ही अपनी वर्तमान पोजीशन तक पहुंचे है। उन्हें भी मनमोहन सिंह की तरह ही शिक्षा का महत्व मालूम है। शायद इसीलिए शिक्षा व्यवस्था में सुधार के रास्ते वे अमरीकी समाज को तरक्की के रास्ते पर एक बार फिर से डालने की कोशिश कर रहे है।

धर्मनिरपेक्षता के शहंशाह की शान सलामत रहेगी

उदयन शर्मा होते तो आज 61 वर्ष के होते। कई साल पहले वे यह दुनिया छोड़कर चले गए थे। जल्दी चले गए। होते तो खुश होते, देखते कि सांप्रदायिक ताकतें चौतरफा मुंह की खा रही हैं। इनके खिलाफ उदयन ने हर मोर्चे पर लड़ाइयां लड़ी थीं, और हर बार जीत हासिल की थी। उनको भरोसा था कि हिटलर हो या अमरीकी क्लू क्लाक्स क्लान हो, फ्रांका हो या कोई भी घमंडी तानाशाह हो हारता जरूर है। लेकिन क्या संयोग कि जब पंडित जी ने यह दुनिया छोड़ी तो इस देश में सांप्रदायिक ताकतों की हैसियत बहुत बढ़ी हुई थी, दिल्ली के तख्त के फैसले नागपुर से हो रहे थे।

यह उदयन के दम की ही बात थी कि पूरे विश्वास के साथ बताते थे कि यह टेंपरेरी दौर है, खतम हो जायेगा। खत्म हो गयी सांप्रदायिक ताकतों के फैसला लेने की सियाह रात लेकिन वह आदमी जिंदा नहीं है जिसने इसकी भविष्यवाणी की थी। उदयन शर्मा बेजोड़ इंसान थे, उनकी तरह का दूसरा कोई नहीं। आज कई साल बाद उनकी याद में कलम उठी है इस गरीब की। अब तक हिम्मत नहीं पड़ती थी। पंडितजी के बारे में उनके जाने के बाद बहुत कुछ पढ़ता और सुनता रहा हूं। इतने चाहने वाले हैं उस आदमी के। सोचकर अच्छा लगता है। आलोक तोमर भी है और सलीम अख्तर सिद्घीकी भी। उदयन शंकर भी हैं तो ननकऊ मल्लाह भी। बड़े से बड़ा आदमी और मामूली से मामूली आदमी, हर वर्ग में उदयन के चाहने वाले हैं। सबके अपने अनुभव हैं। मैं उदयन के चाहने वालों में सबसे ज्यादा आलोक तोमर को पसंद करता हूं।

आलोक ने बचपन में अपने आदर्श के रूप में उदयन को चुन लिया था, गांव में शायद मिडिल स्कूल के छात्र के रूप में। बड़े होने पर जब लिखना शुरू किया तो भाषाई खनक वही उदयन शर्मा वाली थी। उदयन शंकर की दीवानगी का आलम यह था कि मां बाप के दिए गए नाम को बदल दिया और उदयन बन गए। संतोष नायर भी हैं। अगर आज पंडित जी जिंदा होते तो मैं उनको बताता कि जन्म जन्मांतर का संबंध होता है क्योंकि संतोष पता नहीं कितने जन्मों से उनका बेटा है। नाम बहुत हैं उदयन शर्मा को चाहने वालों के, चाहूं तो गिनाता रहूं और धार नहीं टूटेगी।उदयन शर्मा के बारे में कई जगह पढ़ा है कि वे पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं मानते थे, मिशन मानते थे। हो सकता है सही हो, बस मेरी गुजारिश यह है कि उदयन शर्मा के व्यक्तित्व की विवेचना करने के लिए पुराने व्याकरण से काम नहीं चलेगा। उनको समझने के लिए जीवनी लिखने के नए व्याकरण की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि उदयन का जीवन किसी भी सांचे में फिट नहीं होता।

उदयन शर्मा की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष पत्रकार के रूप में की जाती है। बात सच भी है लेकिन उनके घनिष्ठतम सहयोगी और मित्र ने उनको एक बार बताया था कि वे धर्मनिरपेक्ष नहीं, प्रो-मुस्लिम पत्रकार हैं। इतने करीबी ने कहा है तो ठीक ही होगा। उदयन शर्मा एक ऐसे इंसान थे जो अपनी लड़ाई हमेशा लड़ते रहते थे, कोई भी मौका चूकते नहीं थे। धर्मनिरपेक्षता उनकी सोच का बुनियादी आधार था, जिससे वे कभी हिले नहीं। जब भी मौका लगा सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त देने की कोशिश की। रविवार के संपादक का पद संभाला तो चुनौतियां बहुत बड़ी थीं। उनके मित्र और बड़े पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने वह जगह खाली की थी।

ज़ाहिर है कि पाठकों की उम्मीदें बड़ी थीं। उदयन ने उसे हासिल किया रविवार को बुलंदियों पर पहुंचाया। उनकी चुनौती को और भी कठिन कर दिया संघ परिवार के नेताओं ने। 1984 के चुनाव में शून्य पर पहुंच गई पार्टी, बीज़ेपी ने हिन्दुत्व का नारा बुलंद किया। केंद्र और लखनऊ में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन लीडरशिप ऐसी नहीं थी जोकि संघ के चक्रव्यूह की बारीकियां समझ सके। आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, बीजेपी आदि संगठन धर्मनिरपेक्ष राजनीति और जीवन मूल्यों पर चौतरफा हमला बोल रहे थे। कांग्रेस में अरुण नेहरू और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे भाजपाई सोच वाले लोग थे और राजीव गांधी से वही करवा रहे थे जो नागपुर की फरमाइश होती थी।

उदयन शर्मा की धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई राजनीति की इस दगाबाजी की वजह से और मुश्किल हो गयी थी। जब रविवार छोड़कर उन्होंने हिंदी संडे ऑबज़र्वर का काम शुरू किया तो विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन चुके थे, उनको बीजेपी का समर्थन हासिल था और उदयन शर्मा पर तरह तरह के दबाव पड़ रहे थे। लेकिन उदयन शर्मा कभी हारते नहीं थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह और लालकृष्ण आडवाणी की संयुक्त ताकत से लोहा लिया और वित्त मंत्रालय के बड़े अफसरों की गिड़गिड़ाहट की परवाह न करते हुए विश्व हिंदू परिषद के इनकम टैक्स मामले पर खबर छापी।

जब आडवाणी ने सोमनाथ से रथ लेकर अयोध्या की तरफ कूच किया तो लोगों को लगने लगा था कि अब आर.एस.एस. को रोका नहीं जा सकता। दंगों का सिलसिला शुरू हो चुका था पंडित जी के संडे आब्ज़र्वर में लगातार खबरें छपती रहीं और जब ज्यादातर लोग आडवाणी की जय जयकार कर रहे थे तो उदयन के अखबार में सुर्खी लगी 'रावण रथी विरथ रघुबीराÓ। और इसी विरथ रघुबीर के सनातन धर्मी भक्तों के पक्षधर उदयन शर्मा ने $कलम को आराम नहीं दिया। हमेशा कहते रहे कि इस देश का बहुसंख्यक हिंदू धर्मनिरपेक्ष है, और संघप्रेमी हिंदू बहुत कम हैं। उनको विश्वास था कि यह देश दंगाइयों की राजनीति को मुंहतोड़ जवाब देगा।

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दिन उदयन शर्मा बहुत निराश थे, दुखी थे। पी.वी. नरसिंहराव को गरिया रहे थे। उनको शिकायत थी कि नरसिंह राव ने आर.एस.एस. की मदद की थी। अर्जुन सिंह, मानव संसाधन विकास मंत्री थे, उदयन की कोशिश थी कि अर्जुन सिंह इस्तीफा दें और नरसिंहराव को पैदल करें, क्योंकि उनको तुरंत सजा दी जानी चाहिए। यह नहीं हो सका। लेकिन उदयन शर्मा रुके नहीं। फिर चल पड़े अपने लक्ष्य की ओर। बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद आर.एस.एस. वालों ने मुसलमानों को अपमानित करने की योजना पर काम शुरू कर दिया था।

पंडित जी ने महात्मा गांधी की समाधि पर रामधुन का आयोजन करवा कर सांप्रदायिकता का जवाब दिया। देश का बड़ा से बड़ा आदमी आया और मदर टेरेसा आईं। शबनम हाशमी ने सहमत की ओर से वहीं राजघाट पर नौजवानों को शपथ दिलाई कि सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग जारी रहेगी। इसके बाद पत्रकारिता, नौकरशाही और राजनीति में बैठे आर.एस.एस. के कारिंदों ने पंडित जी पर चौतरफा हमला बोला और उनको हाशिए पर लाने की कोशिश करते रहे। नफरत के सौदागरों के खिलाफ उदयन की लड़ाई कभी कमजोर नहीं पड़ी। अभिमन्यु को घेरकर मारने के बाद कौरव सेना विजयी नहीं होती, उसके बाद जयद्रथ वध होता है। आज जब सांप्रदायिकता के जयद्रथ का वध हो चुका है, कौरव सेना अपने घाव चाट रही है, उदयन शर्मा की बहुत याद आती है।

उदयन शर्मा ने पत्रकारिता की दुनियां में बुलंदियों पर झंडे गाड़े थे। डाकू फूलनदेवी का आतंक चंबल के बीहड़ों में फैल चुका था, अखबार वाले हिंदी फिल्मों की महिला डाकुओं की तर्ज पर फूलनदेवी को दस्यु सुंदरी लिखना शुरू कर चुके थे। उदयन शर्मा और फोटो पत्रकार जगदीश यादव ने बीहड़ों में फूलनदेवी को ढूंढ निकाला और उसकी तस्वीर रविवार में छाप दी। उसके बाद से फूलनदेवी के बारे में सही रिपोर्टिंग का सिलसिला शुरू हुआ। मुसलमानों के खिलाफ जब भी दंगाइयों के हमले हुए उदयन शर्मा हमेशा उनके पक्ष में खड़े रहे। दलितों के खिलाफ सवर्णों के आतंक की रिपोर्ट पाठ्यपुस्तकों का विषय बन चुकी है।

रिपोर्ट में ईमानदारी उदयन शर्मा का स्थाई भाव था।पत्रकारिता के टैलेंट की गजब की पहचान थी उदयन को। गली कूचों से लोगों को पकड़कर लाते थे और पत्रकार बना देते थे। किसी बैंक क्लर्क को तो किसी ट्यूटर को, किसी टाइपिस्ट को तो किसी मैनेजर को, सबको पत्रकार बना दिया। मेरे जैसे मामूली आदमी को संपादकीय लिखने वाला पत्रकार बना दिया। इस जमात के ज्यादातर लोग बाद में उनसे नाराज भी हुए लेकिन उस भले आदमी ने कभी किसी की मुखालिफत नहीं की। मैं भी नाराज हुआ था लेकिन मुझे पहले से भी अच्छी नौकरी दिलवा दी। मुझे पता ही नहीं था, 2005 में पता लगा कि उदयन की सिफारिश पर ही मुझे ब्यूरो चीफ बनाया गया था।

एक बार मुझसे कहा कि आर.एस.एस. के खिलाफ लिखने वाले हर आदमी को अपना दोस्त मानो उससे भाई की तरह व्यवहार करो क्योंकि असल में वही तुम्हारा हमसफर होगा। 1991 में कांग्रेस के टिकट पर वे लोकसभा का चुनाव लड़ गए थे, मध्यप्रदेश के भिंड चुनाव क्षेत्र से। सत्यदेव कटारे और रमाशंकर सिंह उनके सहयोगी थे लेकिन तमाम ऐसे लोग भी थे जो अंदर ही अंदर उनका विरोध कर रहे थे, उदयन शर्मा को सब कुछ मालूम था लेकिन किसी के खिलाफ कोई नाराजगी नहीं जाहिर की। राजीव गांधी खुद उनके चुनाव प्रचार में आए थे। पंडित जी चुनाव हार गए लेकिन भिंड नहीं हारे। जिन लोगों ने उनकी मुखालिफत की थी, वे भी दिल्ली आते थे तो वे खुद और उनकी पत्नी नीलिमा शर्मा, जो भी हो सकती थी, मदद करते थे। यह सिलसिला आज तक जारी है। उदयन शर्मा को एक मुहब्बत करने वाले इंसान के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

उनकी पत्नी नीलिमा जी, दोनों बेटे डेनिस और छोटू उनके सबसे करीबी दोस्त थे, इन लोगों से वे आदतन मुहब्बत करते थे। इसी भावना को बढ़ाते जाते थे जिसमें परिवार मित्र-मंडली, मुसलमान और धर्मनिरपेक्ष सोच का हर इंसान शामिल हो जाता था उनके लिए पत्रकारिता मिशन नहीं कर्तव्य था और उसको उन्होंने बहुत ही बहादुरी से निभाया। पंडित जी धार्मिक नहीं थे लेकिन परिवार के बड़ों के आगे उनका सिर झुकता था।

इस महापुरुष के आगे मेरे जैसे मामूली आदमी का सिर हमेशा झुका रहेगा। अपनी बात को बे लौस और साफ साफ कहना उनकी फितरत थी। अगर आज जिंदा होते तो बहुत खुश होते क्योंकि बीजेपी की मौजूदा हार में उनकी शुरू की गई उस लड़ाई का भी योगदान है जो उन्होंने लगभग निहत्थे लड़ा था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उनके दिल से जो कराह निकली थी, उसी का नतीजा है बीजेपी चुनाव तो हार ही गई है, विघटन के कगार पर भी खड़ी है।

Wednesday, July 29, 2009

सेक्स ट्रेड माफिया के निशाने पर भारत

समलैंगिकता पर शुरू हुई बहस एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है। दिल्ली से छपने वाले एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक अखबार ने इस मुद्दे पर पड़े मकडज़ाल को साफ करने की कोशिश की है। अखबार ने लिखा है कि किसी गैर सरक़ारी संगठन के कंधे पर बंदूक चलाने वाला कोई और नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सेक्स माफिया को कंट्रोल करने वाले व्यापारी बैठे हैं। उनके इस गोरखधंधे में दिल्ली और मुंबई में बैठे कुछ अति आधुनिकता का स्वांग भरने वाले फैशन परस्त लोग हैं। इस बिरादरी के लोग बड़े अखबारों और टी.वी. चैनलों में भी घुसपैठ कर चुके हैं।

अखबार के मुताबिक इस तरह के लोग आम तौर पर भाड़े के टट्टू टाइप लोग हैं। शायद इसीलिए जब दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आया तो सबसे पहले मीडिया वालों में से वह वर्ग सक्रिय हुआ जो पी.आर. एजेंसियों की कृपा से पहले से फिट किया जा चुका था। दिल्ली के जंतर मंतर पर दस-बीस लोग नाचते गाते इकट्ठा हुए। उनको कुछ टी.वी. चैनलों ने इस तरह पेश किया, मानो कोई बहुत बड़ी राजनीतिक घटना हो गई हो। एक अंग्रेजी अखबार की कवरेज देखकर तो लगता था कि देश ने किसी बहुत बड़ी लड़ाई में जीत हासिल की हो। साप्ताहिक पत्र के अनुसार मैक्सिको और मलयेशिया के बाद अब भारत निशाने पर है।

अंतर्राष्ट्रीय सेक्स व्यापार माफिया की कोशिश है कि भारत को सैक्स का हब बनाया जाय। इसीलिए समलैंगिकता पर हाईकोर्ट के फैसले को एक जीत के रूप में पेश किया जा रहा है। इन लोगों की कोशिश होगी कि आगे चलकर वेश्यावृत्ति को भी जायज घोषित करवा दिया जाय जिसके बाद से भारत को सैक्स पर्यटन का केंद्र बनाकर पूरी दुनिया के लोगों को यहां बुलाया जाय। अगर यह सच है तो यह बहुत ही खतरनाक है और सरकार, राजनीतिक दल, न्यायपालिका और आम आदमी को सावधान हो जाना चाहिए। एड्स की चपेट में पड़ चुकी दुनिया में अगर सेक्स माफिया के चक्कर में पड़कर भारत गाफिल पड़ गया तो देश तबाही की तरफ चल पड़ेगा। मामले की गंभीरता को देखते हुए न्यायपालिका ने तो पहल कर दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और हाईकोर्ट में मुकदमा दाखिल करने वाले एन.जी.ओ. से जवाब तलब कर लिया है। किसी ज्योतिषी की अपील पर मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 20 जुलाई की तारीख दी है। विचाराधीन मामले में समलैंगिक शादियों पर रोक लगाने के साथ साथ यह भी प्रार्थना की गई थी कि दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले पर भी रोक लगा दी जाय जिसके अनुसार भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) की धारा 377 को अपराध मानने से मना कर दिया गया है। सुनवाई के दौरान अपीलकर्ता के वकील ने बताया कि हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद समलैंगिक शादियों का दौर शुरू हो गया है जिस पर रोक लगाई जानी चाहिए।

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि हाईकोर्ट के आदेश में विवाह कानून बदलने जैसी तो कोई बात की नहीं गई है, इसलिए शादियों की बात का कोई मतलब नहीं है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि जल्दबाजी में फैसले पर रोक लगाना ठीक नहीं है। दस दिन में पूरी सुनवाई ही कर ली जाएगी। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि 377 के ज्यादातर मामले छोटे बच्चों के यौन शोषण से संबंधित होते हैं। उन्होंने अदालत में कहा कि पूरे कैरियर में उनके सामने 377 का ऐसा कोई मामला नहीं आया जिसमे ंकोई रज़ामंद वयस्क वादी या प्रतिवादी हो। इसका सीधा मतलब है कि समलैंगिता को अपराध की सूची से हटवाने वाले गिरोहों की कोशिश है कि छोटे बच्चों को सेक्स के गुलाम की तरह बेचने के उनके कारोबार की वजह से उन पर कोई आपराधिक मुकदमा न चले।

इस तरह की खबरें अकसर आती रहती हैं कि सेक्स व्यापार के धंधेबाजों ने गरीब मां बाप के बच्चों का अपहरण करवा कर या खरीद कर विदेश भेजने की कोशिश की। अगर समलैंगिकता अपराध नहीं रह रह जाएगा तो इस तरह के धंधेबाज, बच्चों को विदेश भेजने की कोशिश नहीं करेंगे। यहीं अपने देश में ही सेक्स टे्रड के अड्डे खुल जाएंगे। समलैंगिकता के मामले को दूसरी आज़ादी की तरह पेश करने वाले अज्ञानी नेताओं और बुद्घिजीवियों को फौरन संभल जाना चाहिए। पी.आर. एजेंसियों की मीडिया को प्रभावित कर सकने की ताकत का इस्तेमाल करके समलैंगिकता को जायज करार दिलवाने की कोशिश कर रहे माफिया की ताकत बहुत ज्यादा है।

इस माफिया ने पैसा तो कुछ चुनिंदा एनजीओ और लॉबी करने वालों को दिया होगा लेकिन मीडिया का इस्तेमाल करके इसे मानवाधिकार का मामला बनाने की कोशिश कर रहे हैं। एक बार अगर यह मानवाधिकार का मामला बन गया तो लॉबी करने वालों का एक नया वर्ग भी इससे जुड़ जाएगा जो बात को और पेचीदा बना देगा। देखा गया है कि कुछ नेता भी इस मामले में गोल मटोल बात कर रहे हैं, इन लोगों को फौरन संभल जाना चाहिए। अगर यह मुगालता है कि समलैंगिक लोगों की आबादी बहुत ज्यादा है तो उसे दुरुस्त कर लेने की जरूरत है। यह सब मीडिया में बैठे कुछ समलैगिक लोगों की बनाई कहानी है, इसको गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। सभी धर्मों के नेताओं ने इस मामले में अपनी राय दे दी है।

सबने एकमत से इसका विरोध किया है। सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट की 20 जुलाई की सुनवाई पर लगी हैं। सबको उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट, सेक्स टे्रड माफिया और उसके कारिंदे एन.जी.ओ. के खेल को खत्म करेगा और देश की मर्यादा पर आंच नहीं आने देगा।

ज़रदारी की पीड़ा

जब तक बिल्ली अपने खूनी पंजों से दूसरों को लहुलहान करती रही तब तक पाकिस्तानी शासक बड़ी ही स्पष्टता से इस सच्चाई को नकारते रहे कि इस खूनी बिल्ली से उनका कोई रिश्ता है और वो यह भी कहते रहे कि बिल्ली को पालने वाले तथा उसे दूध और गोश्त की आपूर्ति करने वालों को भी वो नहीं जानते लेकिन जब उस खूंखार बिल्ली ने उनके ही मुंह पर पंजे गड़ाने शुरु किए तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को भी कहना पड़ा कि 'हमारी बिल्ली हम ही से म्याऊं'।

कहने का तात्पर्य यह है कि जब सारी दुनिया चीख चीख कर कह रही थी कि पाकिस्तान आतंकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह बन गया है तो पाकिस्तान सरकार इन आरोपों को निराधार बताकर अपना दामन साफ बचाती रही जिसका दुष्परिणाम यह निकला कि पाकिस्तान के हालात अब इतने भयानक हो गए है कि जिनकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है। इसीलिए विगत दिन राष्टï्रपति आसिफ अली जरदारी को अपने निवास पर उच्च अधिकारियों व सेवानिवृत संघीय सचिवों की बैठक में बिना लाग लपेट के इस कड़वी सच्चाई को हलक से उतारकर यह स्वीकार करना पड़ा कि आतंकवादी पाकिस्तान में ही तैयार हो रहे है।

जरदारी का कहना है कि उनके देश ने ही आतंकवाद और कट्टरपंथ को पाल-पोस कर बड़ा किया है क्योंकि ऐसा करने के पीछे कोई तात्कालिक लाभ हासिल करना था। जरदारी का कहना है कि ऐसा भी नहीं है कि देश में आतंकवाद और कट्टरपंथ इस वजह से फला-फूला कि पाकिस्तान की राजनीतिक व प्रशासनिक ताकत कमजोर हुयी थी बल्कि कुछ राजनीतिक उद्देश्यों को तुरंत प्राप्त करने के लिए आतंकवाद को एक सशक्त हथियार के रूप में खड़ा करने की नीति अपनायी गयी। वही नीति अब पाकिस्तान की तबाही व बर्बादी का सबब बन रही है।

हालांकि जरदारी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि वो तत्कालिक लाभ क्या थे जिन्हें हासिल करने के लिए पाक शासकों को आतंकवाद का सहारा लेना पड़ा लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वो तात्कालिक लाभ भारत को कमज़ोर करना ही था। जहां तक भारत का सवाल है तो वो पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दंभ झेल रहा है और वो कहता रहा है कि कश्मीर में आतंकवाद के व्यापक प्रचार व प्रसार में सारा धन व बल पाकिस्तान की ज़मीन से ही मिल रहा है।

लेकिन पाकिस्तनी शासक जानबूझ कर इस सच्चाई पर पर्दा डालते रहे। मगर इस हकीकत से सारी दुनिया अच्छी तरह बाखबर थी! इसलिए जहां तक राष्टï्रपति जरदारी की बात है तो उन्होंने कोई बहुत बड़ा रहस्योदघाटन नहीं किया है बस एक सच्चाई को अपने मुंह से बयान कर सरकारी मुहर लगायी है। यद्यपि वो आतंकवाद के खिलाफ शुरु से ही बोलते रहे है लेकिन मुबंई हमलों के बाद सारी सच्चाई जानते हुए भी उनके विचार जिस तरह रोज़ रंग बदलकर सामने आए थे तो यही लगा था कि सच कहने से वो भी बच रहे हैं।

पर अब न जाने उन्हें यह साधूवाद अचानक कैसे प्राप्त हुआ कि एक ही झटके में उन्होंने अपने देश के पूर्व शासकों का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया। इसकी बड़ी वजह यही हो सकती है कि आज पाकिस्तान गृहयुद्घ के कगार पर है अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, प्रांतवाद व विभिन्न सम्प्रदायों के बीच वैमनस्य चरम पर है। एक ओर तालिबान व अलकायदा के गुर्गे अपने बनाए हुए 'इस्लाम' के अनुसार खून की होली खेल रहे है तो दूसरी ओर पूर्व राष्टï्रपति जनरल जियाउल हक के काल में सशस्त्र की गयी धार्मिक जमाअतें भी आतंक का खेल खेल रही है। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में शासन नाम की कोई चीज ही नहीं है।

इन हालात में राष्ट्रपति ज़रदारी की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है। पाकिस्तान विकास के मार्ग पर अग्रसर हो, आम जनता खुशहाल, हो, शांति व्यवस्था का वातावरण कायम हो यह भारत ओर पाकिस्तान दोनों के हित में है। लेकिन भारत की ओर से शांति व सहअस्तित्व के निरंतर प्रयासों के बावजूद पाकिस्तानी शासक 'कश्मीर' से बाहर ही निकलना नहीं चाहते पाकिस्तान के शासक अब तक भारत विरोधी रणनीति अपना ही देश पर शासन करते रहे हैं, अफगानिस्तान को रूस से मुक्त कराने केलिए अमेरिका से मिले धन व हथियार जनरल जियाउलहक ने धर्म व सम्प्रदायों के नाम उपजी कट्टर संस्थाओं में बांट कर तात्कालिक लाभ हासिल किया, वो खुद तो हवा में ही बिखर गए लेकिन देश को आतंक के जाल में फंसा गए।

पाकिस्तान को समझना चाहिए कि भारत के साथ अपने सामाजिक, व्यापारिक व सांस्कृतिक रिश्तों को मजबूत करके ही वो आगे बढ़ सकता है। इसलिए पाकिस्तान के पूर्व शासकों की गलतियों को सुधारने का अगर ज़रदारी में दम है तो वो आतंकवाद के खातमे के लिए आर-पार की लड़ायी के लिए उठ खड़े हों बशर्त सेना भी उनका साथ दे तो एक पाक साफ पाकिस्तान बनने में कोई ज्य़ादा समय नहीं लगेगा।

Tuesday, July 28, 2009

राजनीतिक बयानबाजी बनाम विकास का एजेंडा

उत्तरप्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने राज्य का बहुत नुकसान किया है। मुख्यमंत्री मायावती को उनके कर्तव्यों को याद दिलाने के लिए शुरू हुए जनता के आंदोलन को उन्होंने पटरी से उतार दिया है। राज्य में बढ़ रही बद अमनी और जंगलराज के खिलाफ जो टिप्पणी उन्होंने मुरादाबाद में की उसके पहले हिस्से के बाद ही अगर वे चुप हो जाती तो राज्य पर बड़ा उपकार होता लेकिन वे अपनी रौ में बह गईं और ऐसी बात कह दी जिसके लिए उन्हें सजा मिलनी चाहिए।

उनके बयान के बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, जेल में रखा और अब अदालत में उन पर मुकदमा चलाने की प्रकिया शुरू हो गई है। भारतीय दंड संहिता और दलित ऐक्ट के तहत उन पर मुकदमा चलाया जाएगा। उनकी आपत्तिजनक टिप्पणी से नाराज बसपा कार्यकर्ताओं ने उनका घर फूंक दिया, लूटपाट की और आपराधिक कार्य किया। पुलिस को उनके खिलाफ भी कार्रवाई करनी चाहिए। एफआईआर दर्ज हो गया है और मामला तफतीश की स्टेज पर है। इस बीच मायावती को कहीं से पता चला है कि रीता बहुगुणा जोशी के घर पर लूटपाट करने वाले लोग बसपाई नहीं, कांग्रेसी थे। अपनी तफतीश में पुलिस को मुख्यमंत्री के इस बयान को शामिल कर लेना चाहिए जिससे कि जांच में सुविधा मिलेगी।

आम आदमी की रुचि केवल इस बात में है कि जो भी अपराधी हो उस पर मुकदमा कायम हो और उसे सजा दी जाय। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि मायावती और रीता बहुगुणा के बीच वाक्युद्घ की राजनीति शुरु हो गई है। कांग्रेस की कोशिश है कि उत्तरप्रदेश में मायावती के विरोध की राजनीति के स्पेस पर कब्जा किया जाय। अगर कांग्रेस अपने आपको मायावती विरोधी स्पेस में स्थापित कर लेती है तो राज्य की सत्ता की वापसी में उसे बहुत फायदा होगा। अभी मायावती के विरोध का स्पेस मुलायम सिंह यादव के पास है।

इस बयानबाजी की राजनीति की मदद से उत्तरप्रदेश की सरकार को भी मौका मिल गया है कि राज्य में विकास और कुशासन के मामले में अलग थलग पड़ी बहुजन समाजपार्टी कांग्रेस के खिलाफ हल्ला गुल्ला करके बहस के दायरे से विकास के मसले को बाहर कर दे। पिछले कई महीनों से जागरूक जनमत और मीडिया के सहयोग से उत्तरप्रदेश की चर्चाओं में विकास एक प्रमुख विषय के रूप में उभरा था। इस संदर्भ में मायावती का योगदान भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने विकास की किसी भी पहल की बाट जोह रहे राज्य को मूर्तियों और स्मारकों से नवाजने का जो अभियान चलाया उसकी वजह से चारों तरफ से आवाज उठने लगी थी कि फिजूल खर्ची बनाम विकास पर बहस होनी चाहिए।

रीता बहुगुणा जोशी के गैर जिम्मेदार बयान की वजह से बहुजन समाजपार्टी ने बहस का स्तर और दिशा बदलने की कोशिश शुरू कर दी है। अगर मीडिया और जागरूक जनमत संभल न गया तो राज्य में विकास की संभावना पर फिर सवालिया निशान लग जाएगा। रीता बहुगुणा के बयान की वजह से यह अवसर सत्ता पक्ष के हाथ आया है और वे पूरी तरह से जुट गए हैं कि बहस विकास और सुशासन के दायरे से बाहर चली जाय।देखने में आ रहा है कि मीडिया भी बयानबाजी की राजनीति का माध्यम बन रहा है। अगर ऐसा हुआ तो बहुत बुरा होगा।

जहां तक मीडिया का सवाल है, उसका कर्तव्य है कि वह उत्तरप्रदेश सरकार को बताए कि मुरादाबाद में एक कांग्रेसी ने आपत्तिजनक बयान दिया, उसके खिलाफ जो भी कार्रवाई ठीक हो, की जाय। लखनऊ में उस कांग्रसी का घर जलाया गया घर जलाने वालों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए। यह दोनों ही घटनाएं निंदनीय हैं, और इनकी जांच कानून के दायरे में रहकर की जानी चाहिए, मुकदमा कायम करके न्याय का शासन स्थापित किया जाना चाहिए। यह काम यहीं खत्म हो जाता है, जहां तक सरकार का ताल्लुक है। इसके बाद सरकार को वह काम शुरू कर देना चाहिए जिसके लिए उसे जनता ने चुना है। वह काम है विकास, और सुशासन। मीडिया का भी यही दायित्व है कि वह राज्य सरकार को उसके कर्तव्यों की याद दिलाता रहे और आगजनी या अपमानजनक बयानबाजी के बहाने भटकने न दे।

कांग्रेस भी लोकसभा में सम्मानजनक सीटें हासिल करने के बाद उत्तरप्रदेश की अगली सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है और बहुजन समाज पार्टी की तो सरकार है ही।इस पृष्ठभूमि में उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री को डा. बी.आर. अंबेडकर के 1916 के उस पत्र की याद दिलाई जानी चाहिए जिसमें उन्होंने लिखा था कि किसी की मूर्ति लगाने से अच्छा है कि शिक्षा संस्थानों की स्थापना की जाय। अमरीका के कोलंबिया विश्वविद्यालय के छात्र अंबेडकर ने बॉम्बे क्रॉनिकल अखबार में चिठ्ठी लिखकर उस वक्त की बॉम्बे सरकार के उस प्रस्ताव की आलोचना की थी जिसके अनुसार बंबई नगर निगम के सामने 1915 में स्वर्गीय हुए फीरोज शाह मेहता की मूर्ति लगाने की बात की गई थी। डा. अंबेडकर की बात आज भी उतनी ही सच है।

उत्तरप्रदेश में शिक्षा का स्तर रोज ही गिर रहा है। यहां यह साफ करना जरूरी है कि इसके लिए केवल बहुजन समाजपार्टी को जिम्मेदार ठहराना गलत होगा। शिक्षा के स्तर में भारी गिरावट का सिलसिला 70 के दशक में ही शुरू हो गया था। इसके लिए कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी की सरकारें जिम्मेदार है। मायावती की मौजूदा सरकार के पास इसे दुरुस्त करने का मौका है लेकिन सरकार के करीब डेढ़ साल तो गुजर चुके हैं और इस दिशा में अभी कोई पहल नहीं हुई है। सरकार को इस दिशा में फौरन पहल करनी चाहिए। दूसरा क्षेत्र जिसमें सरकार को फौरन ध्यान देना चाहिए वह है खेती के विकास का।

राज्य का मुख्य धंधा खेती है। किसान त्राहि-त्राहि कर रहा है, न बिजली है, न पानी है, न बीज है और खाद के कारोबार पर कालाबाजारी करने वाले कुंडली मार कर बैठे हैं। यह राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है कि इन लोगों को दुरुस्त करे और अगर इन स्वार्थी लोगों को पता लग जाय कि राज्य सरकार का इरादा जनता का पक्षधर बनने का है तो अपने आप ही रास्ते पर आ जाएंगे। इसी तरह से जिसके घर में खेती की बुनियादी व्यवस्था ही न हो वह हवेली नहीं बनवाता। उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री को मूर्तियां स्थापित करके अमर होने के मोह से उबरना पड़ेगा। जितने खर्च में मूर्तियां लग रही हैं, उतने ही खर्च में अगर दलित महापुरुषों के नाम पर राज्य की हर कमिश्नरी में बड़े अस्पताल खोल दिए जाएं, डा. अंबेडकर और कांशीराम के नाम पर हर जिले में बिजली घर बना दिए जायं तो भावी पीढिय़ा भी उन्हें याद रखेंगी।

इसी तरह से अगर शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था को अनुशासन की सीमा में लाकर कम शुरू कर दिया जाय तो बहुत ही अच्छा होगा। इन्हीं प्राइमरी स्कूलों से पढ़कर राज्य में बड़े से बड़े विद्वान अफसर और वैज्ञानिक पैदा हुए हैं। अगर प्राइमरी शिक्षकों को उनकी ड्यूटी करने के लिए मुख्यमंत्री जी मजबूर कर सकें तो राज्य का भविष्य सुधर जाएगा।समता मूलक समाज की स्थापना में सबसे बड़ी बाधा जाति व्यवस्था है। डा. राम मनोहर लोहिया और डा. भीमराव अंबेडकर दोनों ही महापुरुषों ने इसके विनाश की बात की है।

पिछले 18 वर्षों से राज्य में ऐसी कोई सरकार नहीं बनी है जिसमें लोहिया और अंबेडकर के अनुयायी न रहे हों लेकिन न मुलायम सिंह ने जातिव्यवस्था खत्म करने की दिशा में कोई पहल की और न ही मायावती ने। सरकार को अपने बाकी बचे हुए वक्त में इस विषय पर भी ध्यान देना चाहिए। जरूरी है कि सरकार और बहुजन समाजपार्टी का एजेंडा विकास और सुशासन बनाए रखने में मीडिया और जागरूक जनमत के प्रतिनिधि सहयोग करें। रीता बहुगुणा जोशी के अभद्र बयान पर कार्रवाई करने के लिए नियम कानून हैं, उस पर राजनीतिक ताकत की बर्बादी नहीं होनी चाहिए। राज्य सरकार को विकास की डगर से विचलित नहीं होना चाहिए।

इंसाफ की राजनीति और बजट

1980 में केंद्रीय सरकारों ने सॉफ्ट हिंदुत्व को सरकारी नीतियों के केंद्र में रखना शुरू किया था। इंदिरा गांधी जवाहर लाल नेहरू की बेटी थीं, उनमें धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के संस्कार थे जिसका उन्होंने पालन भी किया लेकिन 1980 के चुनावों के पहले उनके पुत्र स्व. संजय गांधी हिंदुत्व की तरफ खिंचने लगे थे। आर.एस.एस. वालों ने भी कई बार इस तरह की बातें की थीं कि संजय गांधी से देश को उम्मीदें हैं। इसी सॉफ्ट हिंदुत्व के चक्कर में पंजाब में अकालियों को तबाह करने की योजना बनाई गई थी जिसमें जनरैल सिंह भिंडरावाले को आगे बढ़ाया गया था।

बताते हैं कि संजय गांधी ने अपनी मां को भी इसी लाइन पर डालने में सफलता हासिल की थी। बहरहाल 1980 के बाद से केंद्रीय बजट में अल्पसंख्यकों को दरकिनार करने का सिलसिला शुरू हुआ था। संजय गांधी को यह भी नाराजगी थी कि 1977 में मुसलमानों की मुखालिफत के कारण ही उनकी मां की सत्ता खत्म हो गई थी। इसी दौरान संघ की राजनीति के प्रेमी बहुत सारे लोग कांग्रेस में भरती हुए। अरुण नेहरू टाइप लोगों ने कांग्रेस पर कब्जा कर लिया और 1991 में तो बीजेपी के समर्थन वाली सरकार ही आ गई।

1980 के बाद ही बाबरी मस्जिद की शहादत और दीगर बहुत से मसलों के हवाले से मुसलमानों को सरकारी तौर पर अपमानित करने का सिलसिला चलता रहा। अब 29 साल बाद एक ऐसी सरकार आई है जो पिछली सरकारों की गलतियों को दुरुस्त करने की कोशिश कर रही है। आर.एस.एस. और उसके मातहत काम करने वालों की समझ में बात नहीं आ रही है। बहरहाल प्रणब मुखर्जी के इस बजट में ऐसे कुछ प्रावधान हैं जो अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के साथ हुए पिछले तीस साल के अन्याय को इंसाफ की शक्ल देने की कोशिश करते हैं। एक बात यहां स्पष्ट कर देना जरूरी है कि बजट में जो भी है वह मुसलमानों के प्रति एहसान नहीं है।

यह उस हक का एक मामूली हिस्सा है जो पिछले तीस वर्षों से केंद्रीय सरकारें छीनती रहीं है। प्रणब मुखर्जी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय के बजट में 74 प्रतिशत की बढ़ोतरी का ऐलान किया है। पिछले साल बजट में 1000 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई थी जो इस साल बढ़कर 1740 करोड़ कर दी गई है। इसके अलावा अल्पसंख्यक बहुल जिलों में प्राथमिकता के आधार पर बिजली, सड़क पानी आदि के विकास के लिए योजनाएं लाई जाएंगी। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के जरिए यू.पी.ए. सरकार ने अपनी मंशा का ऐलान मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में ही कर दिया था। इस बजट में उस मंशा को अमली जामा पहनाने की कोशिश की गई है।

मनमोहन सिंह ने बार बार कहा है कि तरक्की के लिए शिक्षा सबसे जरूरी हथियार है। उनका अपना जीवन भी शिक्षा के अच्छे अवसरों की वजह से दुरुस्त हुआ है। इसलिए अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाओं में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्व देने की बात कही जा रही थी, जो बजट के बाद एक गंभ़ीर प्रयास के रूप में नजर आने लगी है। अल्पसंख्यक बच्चों को इतनी छात्रवृत्तियां दी जाएंगी कि उनकी तालीम इसलिए न रुक जाय कि पैसे की कमी है। अल्पसंख्यकों की कुशलता के विकास के लिए भी बड़ी योजनाओं की बात की जा रही है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की केरल और बंगाल में कैंपस खोलने की योजनाओं की चर्चा बरसों से होती रही है।

अपने बजट भाषण में इसके लिए धन का इंतजाम करके वित्त मंत्री ने अल्पसंख्यकों के भावनात्मक मुद्दों को भी महत्व दिया है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक वित्त एंव विकास निगम और मौलाना आज़ाद फाउंडेशन को और मजबूत किया जा रहा है। इस बजट की एक खास बात यह है कि यह कांग्रेस पार्टी की राजनीति को सरकार चलाने के लिए गंभीरता से आगे बढ़ाने का काम करता है। बजट के जरिए देश की आबादी के एक बड़े वर्ग को यह बताने की कोशिश की गई है कि यह देश सबका है।

अफसोस की बात यह है कि केंद्र सरकार की इंसाफ की डगर पर चलने की कोशिश को संघी राजनीति के कुछ कारिंदे तुष्टीकरण की नीति के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ इलाकों में जुलूस वगैरह भी निकालेे गए हैं और सरकार को मुसलमानों के खिलाफ काम करने की प्रेरणा देने की कोशिश की गई है। लेकिन लगता है कि केंद्र सरकार पर इसका कोई असर नहीं पडऩे वाला है, उसे संघी नेताओं की असुविधा पर मजा आ रहा है।

बजट 2009 कांग्रेस पार्टी की उस राजनीति की एक प्रक्रिया है जिसके तहत उसने मुसलमानों को अन्य पार्टियों से खींचकर अपनी तरफ लाने की कोशिश शुरू की थी। लोकसभा चुनाव 2009 में ही साफ संकेत मिलने लगे थे कि कांग्रेस पार्टी अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं है। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने वाली, शिलान्यास करवाने वाली और बाबरी मस्जिद की शहादत में जिम्मेदार पार्टी की अपनी छवि से बाहर निकलने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट मिलना बहुत बड़ी बात थी। कांग्रेस की कोशिश है कि उसे दुबारा अल्पसंख्यकों का विश्वास हासिल हो जैसे 1971 तक था।

इस मायने में मौजूदा बजट वित्त व्यवस्था के प्रबंध को दुरुस्त करने के साथ-साथ राजनीति को भी चाक चौबंद रखने में काम आयेगा। किसी भी राजनीति का उद्देश्य होता है कि वह अपने देश की अधिकतम जनता की महत्वांकाक्षा का वाहक बने। बीजेपी आदि जो पार्टियां हैं वे अल्पसंख्यकों को अपने दायरे से बाहर रखकर काम करना चाहती है। उनकी कोशिश रहती है कि सरकार मुसलमानों को औकातबोध कराने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम करे।

बीच में कुछ दिनों के लिए कांग्रेस में भी यह बात आ गई थी लेकिन अब लगता है कि माहौल बदल रहा है। सोनिया-मनमोहन की टीम मुसलमानों को साथ लेकर चलने की नीति पर काम कर रही है। कम से कम बजट 2009 से तो यह संदेश बहुत ही साफ तरीके से सामने आ रहा है।

Monday, July 27, 2009

ईरान की नई सरकार और ओबामा की मुश्किलें

ईरान के चुनावों के बाद पश्चिमी देशों की प्रेरणा से तेहरान की सड़कों पर शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन अब थम गया है लेकिन उसके प्रेरक तत्व अभी भी सक्रिय हैं।
जिन अमरीकी नीति निर्धारकों की शह पर जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने इराक पर हमला करने की बेवकूफी की थी, वे फिर सक्रिय हो गए हैं। इस बिरादरी के लोग अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा पर वैसा ही दबाव बना रहे हैं जैसा इन लोगों ने बुश जूनियर के ऊपर 2003 में बनाया था। इस गैंग के एक नेता हैं पॉल वुल्फोविज़।
इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के खिलाफ अमरीका में जो जनमत बना था और चारों तरफ से सद्दाम को हटाने की बात शुरू हो गई थी उस जनमत को तैयार करने वाले गिरोह के प्रमुख नेताओं में पॉल वुल्फोविज का नाम लिया जाता है। यह महानुभाव फिर सक्रिय हो गए हैं। यह लोग ईरान में सत्ता परिवर्तन की बात तो नहीं कर रहे हैं लेकिन ओबामा को कुछ कर गुजरने की प्रेरणा अवश्य दे रहे है।
वॉशिंगटन पोस्ट के अपने ताजा लेख में पॉल वुल्फोविज ने ओबामा को समझाने की कोशिश की है कि ईरान की सड़कों पर हुए प्रदर्शन में अमरीका को निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए। उनका कहना है कि ओबामा को अपनी सारी ताकत ईरानी विपक्षियों के समर्थन में लगा देनी चाहिए। यह लोग ईरान के वर्तमान शासकों के बारे में वही राग अलाप रहे हैं, जो कभी सद्दाम हुसैन के लिए अलापते थे। पॉल वुल्फोविज टाइप लोग अमरीका में भी दंभी, अतिवादी और बदतमीज माने जाते हैं लेकिन अगर जॉर्ज डब्लू बुश जैसा अदूरदर्शी शासक हो तो यह लोग कहर बरपा करने की ताकत रखते हैं।
ओबामा के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां हैं। अपने आठ साल के राज में जॉर्ज डब्लू बुश ने लगभग मसखरे के रूप में काम किया। अमरीकी अर्थव्यवस्था को चौपट किया और पूरी दुनिया में अमरीकी कूटनीति को मजाक का विषय बना दिया। जिन लोगों ने बुश को अफगानिस्तान और इराक में फंसाया, वही अमरीकी विचारक फिर लाठी भांज रहे हैं। यह लोग मूल रूप से किसी न किसी लॉबी गु्रप के एजेंट होते हैं। पॉल वुल्फोविज के बारे में बताया गया है कि यह हथियार बनाने वाली कुछ कंपनियों के लिए सक्रिय लोगों के साथी हैं।
इनके उकसाने में आकर अगर ओबामा ने कोई ऐसा काम किया जिसमें ईरान से झगड़ा हो जाय तो अमरीका के लिए तो मुश्किल होगी ही, ओबामा भी भारी मुसीबत में पड़ जाएंगे। एक राष्ट्र के रूप में अमरीका का वही हाल होगा जो वियतनाम और इराक में हुआ था। ओबामा को बहुत सोच समझकर काम करना होगा क्योंकि ईरान की सरकार बहुत ही मजबूत सरकार है और अहमदीनेजाद को चुनौती देने वाले मीर हुसैन मौसवी बिलकुल अलग थलग पड़ गए हैं। मौसवी के अलावा ईरान की राजनीति का हर छोटा बड़ा आदमी सरकार के साथ है।
विलायत-ए-फकीह का इकबाल बुलंद है और ईरान के खिलाफ किसी भी पश्चिमी साजिश को नाकाम करने के लिए ईरान की जनता एकजुट खड़ी है। ईरान के पुननिर्वाचित राष्टï्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने ऐलानियां कहा है कि ईरान की नई सरकार पश्चिमी देशों की तरफ ज्यादा निर्णायक और सख्त रुख अख्तियार करेगी। इस बार अगर पश्चिमी देश किसी मुगालते का शिकार होकर कोई गलती करेंगे तो ईरानी राष्ट्र का जवाब बहुत माकूल होगा।
महमूद अहमदीनेजाद के फिर से राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अमरीका और ब्रिटेन ने लोकतंत्र के खून होने और चुनावों में हेराफेरी के नाम पर ईरान में एक आंदोलन खड़ा करने की तैयारी कर दी थी। मीर हुसैन मौसवी के नाम पर उनके कुछ चाहने वाले सड़कों पर आ गए। यू ट्यूब और ट्विटर की मदद से पूरी दुनिया को ईरान के अंदर बढ़ रहे तथाकथित असंतोष को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। लेकिन कोई आंदोलन बन नहीं सका। अब सब कुछ खत्म हो चुका है और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ब्राउन बहुत ज्यादा मुसीबत में हैं। ईरानी सत्ताधारी वर्ग ने उन्हें ही निशाने पर ले रखा है।
ओबामा पर हमले उतने तेज नहीं हैं जितना ब्राउन पर हैं। ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्ला अली खमनेई ने इन दोनों देशों को धमकाते हुए कहा है कि ईरान पिछले महीने की पश्चिमी देशों की करतूतों को कभी नहीं भूलेगा। उन्होंने कहा कि अमरीका और कुछ यूरोपीय देश ईरान के बारे में बेवकूफी की बातें कर रहे हैं। उनके आचरण से ऐसा लगता है कि उनकी मुसीबतें इराक और अफगानिस्तान में खत्म हो गई हैं, बस ईरान को दुरुस्त करना बाकी है।
ईरान के हमले ब्रिटेन पर ज्यादा तेज हैं। अयातोल्ला अली खमनेई ने ब्रिटेन को सबसे ज्यादा खतरनाक और धोखेबाज विदेशी ताकत बताया है। ब्रिटेन के दूतावास में तैनात दो खुफिया अफसरों को देश से निकाल दिया गया है और वहां काम करने वाले स्थानीय ईरानी नागरिकों से पूछताछ की जा रही है। ब्रिटेन को भी ईरान की ताकत का अंदाज लगने लगा है। मौसवी के समर्थकों को हवा देने के बाद ब्रिटेन इस चक्कर में है कि किसी तरह जान बचाई जाए क्योंकि अगर ईरान नाराज हो जाएगा तो ब्रिटेन की अर्थ व्यवस्था पर भी उलटा असर पड़ेगा।
शायद इसीलिए ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय से एक बयान जारी किया गया है जिसमें कहा गया कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री ईरान में मानवाधिकारों के उल्लंघन की वजह से नाराज नहीं है। उन्हें तो ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर एतराज है। अब तक के संकेतों से ऐसा लगता है कि ईरान ब्रिटेन को गंभीरता से नहीं ले रहा है और उसे अलग थलग करने के चक्कर में ही है।
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए प्रदर्शनों पर जो रुख अपनाया, उसे ईरान में पसंद नहीं किया गया। ओबामा और उनके बंदों को उम्मीद थी कि ईरान में जो राजनेता सत्ता से बाहर हैं, वे महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए मौसवी के आंदोलन में शामिल हो जांएगे लेकिन ऐसा न हो सका। अमरीकी प्रशासन को ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अकबर हाशमी रफसंजानी से बड़ी उम्मीदें थीं। अमरीका को अंदाज था कि रफसंजानी सर्वोच्च नेता के खिलाफ किसी साजिश में शामिल हो जाएंगे लेकिन 28 जून को उन्होंने एक बयान दिया जिसके बाद अमरीकी रणनीतिकारों के होश उड़ गए।
उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद जो कुछ हुआ वह एक साजिश का नतीजा था। इस साजिश में वे लोग शामिल थे जो ईरान की जनता और सरकार के बीच फूट डालना चाहते है। इस तरह की साजिशें हमेशा ही नाकाम रही हैं और इस बार भी ईरानी अवाम ने किसी साजिश का शिकार न होकर बहादुरी का परिचय दिया है। रफसंजानी ने अयातोल्ला की तारीफ की और कहा कि उनके उम्दा नेतृत्व की वजह से चुनाव प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बढ़ा है।
रफसंजानी के अलावा विपक्ष के बाकी नेता भी सर्वोच्च नेता की इच्छा के अनुरूप महमूद अहमदीनेजाद के समर्थन में लामबंद है। विपक्षी नेता मोहसिन रेज़ाई, मजलिस के पूर्व अध्यक्ष नातेक नौरी जैसे लोग भी अब पश्चिमी साजिशों से वाकिफ है और नई ईरानी सरकार के साथ हैं। अमरीका और पश्चिमी देशों को उम्मीद थी मजलिस के अध्यक्ष, अली लारीजानी को अहमदीनेजाद के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है लेकिन उन उम्मीदों पर भी पानी फिर चुका है। लारीजानी अल्जीयर्स गए थे जहां इस्लामी देशों के संगठन का सम्मेलन था।
अपने भाषण में लारीजानी ने ओबामा को चेतावनी दी कि उन्हें पहले के अमरीकी राष्ट्रपतियों की तरह पश्चिमी एशिया के मामलों में बेवजह दखल नहीं देना चाहिए। उन्होंने कहा कि ओबामा को इस नीति को बदलना चाहिए जिससे इलाके में तो शांति स्थापित होगी ही, अमरीका भी चैन से रह सकेगा। नई राजनीतिक सच्चाई ऐसी है कि ओबामा के सामने कठिन फैसला लेने की चुनौती है। अपने पूर्ववर्ती बुश की तरह वे कोई बेवकूफी नहीं करना चाहते, लेकिन पॉल वुल्फोविज टाइप अमरीकी लॉबीबाजों का दबाव रोज ही बढ़ता जा रहा है।
हथियार निर्माताओं की तरफ से काम करने वाले ऐसे लोगों की अमरीका में एक बड़ी जमात है। शायद इन्हीं के चक्कर में ओबामा प्रशासन ने ईरानी शासन के खिलाफ शुरू हुए विरोध को हवा दी थी लेकिन लगता है बात बिगड़ चुकी है। काहिरा में मुसलमानों से अस्सलाम-अलैकुम कहकर मुखातिब होने वाले बराक ओबामा ने ईरान में बहुत कुछ खोया है। उस पर तुर्रा यह कि अमरीका की दखलंदाजी के कारण अहमदीनेजाद और अयातोल्ला के खिलाफ जो थोड़ा बहुत भी जनमत था भी, वह सब एकजुट हो गया है। ओबामा को अब ज्यादा ताकतवर ईरान से बातचीत करनी पड़ेगी ईरान के रिश्ते पड़ोसियों से भी बहुत अच्छे हैं।
तुर्की, अज़रबैजान, तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान अफगानिस्तान सब ईरान के साथ हैं। सीरिया, हिजबोल्ला और हमास भी ईरान के साथ पहले जैसे ही संबंध रख रहे हैं। चीन खुले आम ईरान की नई सरकार के साथ है। भारत भी ईरान से अच्छे रिश्तों का हमेशा पक्षधर रहा है और आगे तो दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंध और भी गहराने वाले है। सीरिया ने सऊदी अरब और अमरीका से कुछ बातचीत का सिलसिला शुरू किया था लेकिन कई अवसरों पर उसने साफ कर दिया है कि ईरान से रिश्तों की कीमत पर कोई नई दोस्ती नहीं की जाएगी। ऐसी हालात में अमरीकी कूटनीति का एक बार फिर इम्तहान होगा।
इस बार की मुश्किल यह है कि अमरीका के पास इस बार फेल होने का विकल्प नहीं है। ओबामा के लिए फैसला करना आसान नहीं है। अमरीका जनमत को गुमराह कर रहे दंभी और बदतमीज पत्रकारों और नेताओं का एक वर्ग है जो ओबामा को वही इराक वाली गलती करने के लिए ललकार रहा है। दूसरी तरफ उनकी अपनी समझदारी और पश्चिम एशिया की जमीनी सच्चाई की मांग है कि इराक और वियतनाम वाली गलती न की जाय। बहरहाल एक बात सच है कि अगर इस बार अमरीका ने पश्चिमी एशिया में कोई गलती की तो उसका भी वही हश्र होगा जो ब्रिटेन का हो चुका है।

कायर, अपराधी और निर्दयी पुलिस

गाजियाबाद के छात्र रणबीर को देहरादून पुलिस ने इनकाउंटर में मार डाला। पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद पता चला है कि लड़के को पुलिस ने प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी। पुलिस की बर्बरता की जब शुरुआती खबरें आने लगी थीं तो यही कहा जाता था कि ब्रिटिश राज की पुलिस लोकशाही में काम करने लायक नहीं है, इसे सेवा करने और सुरक्षा करने के लिए काम करने का प्रशिक्षण देना चाहिए। इसी तरह के और भी बहुत सारे तर्क दिए जाते थे।
लेकिन अब बात बहुत आगे निकल चुकी है। राजनीति के अपराधीकरण के बाद बहुत सारे पुलिस वालों ने ऐसे काम भी किए हैं जो बड़े बड़े अपराधियों को भी पीछे छोड़ जाने के लिए काफी है। इसलिए ब्रिटिश पुलिस बनाम लोकतांत्रिक पुलिस का तर्क बेमतलब है। कई राज्य सरकारों में ऐसे मंत्री हैं जो कई घृणित अपराधों के मुलजिम हैं, कई मंत्रियों पर हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार, आगजनी जैसे मुकदमे चल रहे हैं। लोकतंत्र में मंत्री ही सत्ता का मुखिया होता है, वही सरकार होता है।
अगर वह अपराधी है तो लोकतंत्र के तबाह होने के खतरे बढ़ जाते हैं। लोक प्रतिनिधित्व कानून और संविधान में ऐसे प्रावधान नहीं हैं कि किसी अपराधी को चुनाव लडऩे से रोका जा सके। बाद में कुछ संशोधन आदि करके बात को कुछ संभालने की कोशिश की गई है लेकिन वह अपराधियों को संसद या विधानसभा में पहुंचने से रोकने के लिए नाकाफी है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि अपराधी भी चुनाव लडऩे लगेगा। उनकी सोच थी कि अव्वल तो अपराधी चुनाव लडऩे की हिम्मत ही नहीं करेगा और अगर लड़ता भी है तो जनता उसे नकार देगी।
ऐसा हुआ नहीं। जातिपांत के दलदल में फंसे समाज में अपराधी स्वीकार्य होने लगा और एक समय तो ऐसा आया कि उत्तरप्रदेश विधानसभा में बड़ी संख्या में अपराधी पहुंचने लगे। जाहिर है कि प्रशासन का स्तर गिरना था, सो गिरा। लेकिन पुलिस को अपनी सेवा की शर्तों के हिसाब से काम करना चाहिए। जब पुलिस का अधिकारी नौकरी में आता है तो संविधान को पालन करने की शपथ लेता है किसी नेता की चापलूसी करने की शपथ नहीं लेता लेकिन नेताओं की हां में हां मिलाने वालों की पुलिस फोर्स में हो रही भरमार की वजह से देहरादून जैसी घटनाएं थोक में हो रही है जोकि अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आती हैं।
अपने देश, खासकर उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में पुलिस प्रशासन की हालत बहुत खराब है। राज्य में पुलिस की लीडरशिप बिलकुल कमजोर है। बड़े अफसर अपराध के कम करने के लिए दबाव तो बनाते हैं लेकिन इंगेजमेंट के नियमों का पालन नहीं करवाते। अपराधियों को खत्म करने के लिए फर्जी मुठभेड़ का सहारा लेते हैं। कुछ मामलों में तो अपराधियों से ही दूसरे अपराधी को मरवाते हैं। एक जो सबसे खराब बात सिस्टम में आ गई है कि अगर कोई अपराधी मारा जाता है तो आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की कल्चर के तहत अपराधी को मारने वाला प्रमोशन पा जाता है। कई बार उसे पुरस्कार भी मिल जाता है।
फर्जी मुठभेड़ के मामलों में सबसे ज्यादा योगदान प्रमोशन-एवार्ड कल्चर का है। इसके चलते चालू किस्म के पुलिस वाले जल्दबाजी में पड़कर निर्दोष लोगों को भी मार देते है। सबसे बड़ी जो गलती हो रही है, वह यह कि पुलिस वाले ठीक से मुखबिरों का विकास नहीं कर रहे है। निजी दुश्मनी के चलते कभी-कभी मुखबिर निर्दोष लोगों को मरवा देते हैं। जिले में तैनात पुलिस अधिकारियों को चाहिए कि मुखबिर व्यवस्था के विकास के लिए विभाग की तरफ से जो नियम बनाए गए हैं उसका पालन करवाएं। इनकाउंटर में भी रूल्स ऑफ इंगेजमेंट हैं। देहरादून में हुए रणबीर के $कत्ल में पुलिस प्रशासन की हर प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया है।
लड़के के शरीर पर 28 ऐसे घाव हैं जो उसके जिंदा रहते उसे पुलिस प्रताडऩा के दौरान दिए गए थे। लगता है कि किसी गलत मुखबिरी के चक्कर में रणबीर को पकड़ लिया गया था और जब उसको इतनी प्रताडऩा दी गई कि उसके बचने की उम्मीद नहीं रह गई तो उसे इनकाउंटर दिखाकर गोलियों से भून दिया गया। यह अक्षम्य अपराध है। इन पुलिस वालों से पूछा जाना चाहिए कि उनके अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार हो, तो उन्हें कैसा लगेगा।
देहरादून की घटना पुलिस प्रशासन की सरासर असफलता है और इसकी सभ्य समाज के लोगों को कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए और राज्य सरकार को चाहिए कि जिम्मेदार पुलिस वालों को दंडित करें और कमजोर अफसरों को हटाकर योग्य पुलिस वालों को तैनात करें। दंड भी ऐसा हो कि भविष्य में पुलिस वालों की हिम्मत न पड़े कि किसी निर्दोष बच्चे को बेरहमी से पीटें और उसकी जान ले लें।

भ्रष्टाचार खत्म किए बिना तरक्की नहीं

देश के हर क्षेत्र में तेजी से बदलाव की बयार बह रही है। लोकसभा चुनाव के बाद जो राजनीतिक संकेत आ रहे हैं उससे लगता है कि नई सरकार वह सब कुछ कर डालेगी, जो पिछली बार वाममोर्चा की वजह से नहीं हो पाया था। वाममोर्चे की पिछली पांच साल की राजनीति के चलते केंद्र सरकार को कुछ ऐसे फैसले करने से रोका जा सका जो अर्थ व्यवस्था की तबाह करने की क्षमता रखते थे। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य सक्षम अर्थशास्त्रियों के कारण ऐसा संभव हो सका।
पार्टी के बड़े नेता सीताराम येचुरी खुद एक अर्थशास्त्री हैं और उन्होंने अर्थशास्त्रियों की एक टीम जोड़ी है जिसमें अर्थशास्त्र के विद्वान शामिल हैं। इस बार मनमोहन-मांटेक की जोड़ी लगता है वे सारे फैसले कर लेगी जो सीताराम की टीम ने नहीं होने दिया था। कुछ लोग कह सकते हैं कि अगर इतने बढिय़ा लोग थे तो चुनाव मैदान में क्यों पिछड़ गए। इसका सीधा सा जवाब है कि वाममोर्चे का राजनीति विंग की कमान बहुत ही जिद्दी टाइप लोगों के हाथ में है जो अपनी बात को सही साबित करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
इसीलिए पार्टी को चुनाव में सफलता नहीं मिली और राजनीतिक हैसियत भी कम हुई है। इस स्थिति का फायदा नई सरकार के लोग इस बार उठाएंगे। इमकान है कि बजट में पूंजीपति वर्ग की वे मांगे पूरी कर दी जाएंगी जिन पर साढ़े चार साल तक वामपंथी लगाम लगी थी। मजदूरों की छंटनी वाला तथाकथित श्रमसुधार कानून भी पास कराया जा सकता है। वामपंथी नेताओं की समझ में शायद यह बात आने लगी है कि सरकार को गिराने की कोशिश में पार्टी के शीर्ष नेता की जिद को मानकर राजनीतिक गलती हुई थी। देखना यह है कि यह गलती ऐतिहासिक भूल का ओहदा हासिल करने में कितना वक्त लेती है।
कम्युनिस्टों के कंट्रोल से आजाद होकर नई सरकार ने कुछ अच्छे काम करने की योजना भी बनाई है। देश भर में सभी नागरिकों को पहचान-पत्र जारी करने की योजना ऐसी ही एक योजना है। इस काम के लिए निजी क्षेत्र की सबसे सफल कंपनी के उच्च अधिकारी नंदन नीलेकणी को बुलाकर प्रधानमंत्री ने साफ ऐलान कर दिया है कि जो भी नए पद सृजित किए जाएंगे वे सभी आई.ए.एस. बिरादरी की पिकनिक के लिए ही नहीं आरक्षित रहेंगे।
अब महत्वपूर्ण पदों पर गैर आई.ए.एस. लोगों को भी रखा जाएगा। आई.ए.एस. अफसरों को और भी चेतावनी दी जा रही है। मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने साफ घोषणा कर दी कि आई.ए.एस. अधिकारियों को शासक नहीं, सेवक के रूप में काम करना पड़ेगा। इससे भी बड़ी बात यह है कि मूल रूप से रिश्वत के प्रायोजक के रूप में कुख्यात नौकरशाही को अब भ्रष्टाचार के कैंसर से निजात पाना होगा। मसूरी में आई.ए.एस. अफसरों को राष्ट्रपति जी ने बताया कि लीक पर चलते हुए सांचाबद्घ सोच वाले अफसरों के लिए अब सिस्टम में जगह कम पड़ती जायेगी।
नौकरशाही को अब विकास के प्रेरक और प्रायोजक के रूप में काम करना पड़ेगा। श्रीमती पाटिल ने जब यह कहा कि सूचना का अधिकार कानून आ जाने के बाद हालात बदल गए हैं तो वे सूचना को दबाकर मनमानी करने वाली नौकरशाही के आइना दिखा रही थीं। अब जनता को सब कुछ पता चल जाता है लिहाजा आई.ए.एस. अफसरों की भलाई इसी में है कि भ्रष्टाचार का तंत्र खत्म करें। उन्होंने कहा कि सरकार ने फैसला किया है कि आम आदमी की जिंदगी में सकारात्मक परिवर्तन लाया जाएगा और सबको विकास के अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे।
सरकार ने आर्थिक और सामाजिक विकास का एक लक्ष्य निर्धारित किया है जो इंसाफ की बुनियाद पर हासिल किया जायेगा। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन अधिकारियों की जरूरत नहीं है जो लाल फीताशाही वाली सोच के अधीन रहकर काम करते हैं। हमें ऐसे अफसर चाहिए जो सीमा में रहकर आम आदमी के विकास के लिए नई नई तरकीबें ढूंढ सकें। अफसरों को अब लोगों के सेवक के रूप में काम करना पड़ेगा, शासक के रूप में नहीं है। इसके लिए मित्रता के माहौल में सबको साथ लेकर चलने की आदत डालना पड़ेगा।
राष्ट्रपति ने चेतावनी दी कि सबको पता है कि विकास कार्यों के लिए निर्धारित पैसा उन तक नहीं पहुंचता और वह सिस्टम से ही चोरी हो जाता है। यह बहुत ही गंभीर बात है। अफसरों को इस पर नियंत्रण रखना चाहिए। ज़ाहिर है राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अपना लिखा हुआ भाषण पढ़ रही थीं जो किसी नौकरशाह के परिश्रम का फल था, वरना यह कहना कि सिस्टम से चोरी हो रहे पैसे को बचाना आपका जिम्मा है, बिलकुल अजीब बात है। जब सारे देश को मालूम है कि सिस्टम से पैसा किस तरह से चोरी होता है तो क्या राष्ट्रपति महोदया को यह सच्चाई नहीं मालूम है।
जरूरत इस बात की है कि घूस के राक्षस को काबू में करने के लिए अब घुमाफिरा कर बात करने की जरूरत नहीं है, उस पर सामने से हमला करना होगा। इस बार सरकार यह भी नहीं कह सकती कि वामपंथियों का सहयोग नहीं मिल रहा है क्योंकि अब तो सरकार को समर्थन दे रही हर पार्टी कांग्रेस की हां में हां मिला रही है। और जब पश्चिमी पूंजीपति देशों की पसंद की आर्थिक नीतियां बनाई जा सकती हैं तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान क्यों नहीं चलाया जा सकता। यह किसी भी जिम्मेदार प्रशासन के अस्तित्व की जरूरी शर्त भी है।
पिछली सरकार में कम्युनिस्टों के अड़ंगे की बात करके बहुत कुछ बचत कर ली गई थी लेकिन इस बार कम्युनिस्ट नहीं हैं और अगर अफसरों के भ्रष्टाचार पर काबू पाने में आंशिक सफलता भी मिल गई तो सरकार अपना मकसद हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ सकेगी। यह अलग बात है कि सरकार के शीर्ष पर बैठे लोगों की विचारधारा ही ऐसी है कि विकास का पैमाना पूंजीपति वर्ग का विकास ही माना जाएगा। इस सिद्घांत के अनुसार जब औद्योगिक विकास से पूंजीपति वर्ग की सम्पन्ना बढ़ती हैं तो गरीब आदमी को कुछ न कुछ फायदा हो हो ही जाता है।
ज़ाहिर है कि शासक वर्ग की आर्थिक विचारधारा को तो बदला नहीं जा सकता लेकिन जो भी विचारधारा है उसके हिसाब से भी सफलता मिले तो राष्ट्रहित तो होगा ही। लेकिन अगर भ्रष्टाचार को कम करने में सफलता नहीं मिली तो केंद्र सरकार की भी वही दुर्दशा होगी जो उत्तरप्रदेश की मौजूदा सरकार की हो रही है।

ममता की रेल

तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने रेलमंत्री की हैसियत से अपना पहला रेल बजट अपनी जनवादी छवि के अनुरुप ही पेश किया है। जिसका निश्चित रूप से स्वागत किया जाना चाहिए। भारतीय रेल देश का सबसे बड़ा रेल तंत्र है जो एक प्रबंधन के अंतर्गत काम करता है। उसका सामाजिक दायित्व भी व्यापक है क्योंकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक रेल संचालन के माध्यम से देश को एक सूत्र में बांधे रखने की बड़ी जिम्मेदारी भी भारतीय रेल पर है।
प्रतिदिन लाखों लोगों का आवागमन इसी रेल पर निर्भर है। रेलमंत्री का अपने बजटीय भाषण में यह कहना कतई न्यायोचित है कि जिस तरह लोकतंत्र में सबको वोट देने का अधिकार है उसी तरह विकास का अधिकार भी आम इंसान को मिलना चाहिए। गठबंधन सरकारों में रेल मंत्रालय अधिकतर घटक दलों के पास ही रहा है। केन्द्र में यूपीए की विगत सरकार में रेलमंत्री का पद राजद नेता लालू प्रसाद यादव के पास रहा।
उन्होंने पांच वर्ष के कार्यकाल में भारतीय रेल की कायापलट करने में काफी नाम कमाया और घाटे में चल रहे रेलवे को बड़े मुनाफे में बदला, जिसकी प्रशंसा विदेशों में भी हुयी और विभिन्न देशों के प्रतिनिधिमंडल लालू यादव से प्रबंधन के गुर सीखने भी भारत आए। इसलिए बात अगर रेलवे के आर्थिक विकास की आएगी तो उसका श्रेय लालू यादव अवश्य ही लेगे। पूर्व रेलमंत्री लालू यादव भी खुद को गरीबों का मसीहा कहते थे इसलिए उन्होंने अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में रेल किरायों में वृद्घि नहीं होने दी।
अब इन हालात में ममता बनर्जी के सामने रेल बजट को एक नए रूप में पेश करने की बड़ी चुनौती थी। ममता के बजट में भी रेल किरायों में कोई वृद्घि नहीं की गयी है इसीके साथ व्यापक घोषणाएं भी है और लोकलुभावन वायदे भी। लेकिन ममता का सारा ध्यान यात्री सुविधाओं के ऊपर है, अगर इस दिशा में अपनी कार्यशैली के अनुसार वो व्यापक और कारगर कदम उठाती हैं तो निश्चित रूप से इसे आम आदमी का बजट कहा जाएगा। दअसल अब तक होता ये रहा है कि रेलमंत्री अपने बजट में लंबी चौड़ी घोषणाएं कर देते है और नई-नई रेलगाडिय़ां भी चला दी जाती है।
लेकिन इसके विपरीत रेलों में जन सुविधाओं का निरंतर हृास होता जा रहा है। रेलवे के सामने सबसे बड़ी चुनौती सुरक्षित यात्रा प्रदान करने की है। विगत वर्षो में रेलगाडिय़ां व रेल परिसरों में हत्या, बलात्कार, लूटपाट, निर्बल यात्रियों को चलती गाड़ी से बाहर फेंकने, उनके सामान की झपटमारी जैसी घटनाओं ने जहां यात्रियों को भयभीत किया वहीं रेलवे प्रबंधन को भी हिलाकर रख दिया। इसलिए रेल किराया नहीं बढ़ा, अच्छी बात है, मगर इससे अधिक महत्वपूर्ण बात सुरक्षित यात्रा की है जिस पर आम व खास दोनों की ही नज़र है।
देश की आबादी का बड़ा हिस्सा एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश रोजी रोटी की खातिर कमाने के लिए जाता है और वो अपनी कमाई का बाकी हिस्सा सुरक्षित अपने प्रदेश लेकर लोट जाए तो इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है। रेलगाडिय़ो में बढ़ते अपराध और वर्दीधारियों द्वारा सामान तलाशी के नाम पर यात्रियों से अवैध वसूली और न देने की सूरत में उन्हें गाड़ी से उतार देने की क्रूरतम वारदात आए दिन खबरों में रहती है, निश्चित रूप से ये स्थिति अत्यंत दुखदायी हैं।
लेकिन खेदजनक पहलू यह है कि सुरक्षित यात्रा पर अभी तक रेलवे द्वारा गंभीर और सार्थक प्रयास नहीं किए गए, प्राय: इस की जिम्मेदारी राज्यों पर डालकर रेलमंत्री अपना पल्ला झाड़ते रहे है। वर्ष 2005-08 तक रेल यात्राओं के दौरान 859 हत्याएं, बलात्कार की 137 तथा डकैती की 462 घटनाएं हुयी। लूटपाट की 1200 और नशाखोरी की 2100 से अधिक घटनाएं हुयी। सामान चोरी व अन्य अपराधों के 60 हज़ार से अधिक मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा छिटपुट घटनाओं की गिनती ही क्या? ममता बनर्जी की रेल मंत्रालय की चाहत पुरानी है जो अब पूरी हो गयी है इसलिए आम जनता भी ये जानने और अनुभव करने की इच्छुक है कि आखिर एनडीए के कार्यकाल में ममता बनर्जी रेल मंत्रालय लेने पर क्यों अड़ गयी थी और वो मुराद अब यूपीए शासन में पूरी हो गयी है तो वो क्या खास करके दिखाएंगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ममता बनर्जी पं. बंगाल की ज़मीन से जुड़ी हुयी जुझारू नेता है, जो ईमानदार भी हैं और कर्मठ भी है। 1970 में एक युवा महिला के रूप में कांग्रेस पार्टी से अपना राजनीतिक कैरियर शुरू करने वाली ममता बनर्जी 1984 के संसदीय चुनाव में सीपीएम के बड़े नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर संसद में पहुंचने वाली सबसे कम उम्र की सांसद बनी थीं। उसके बाद वो पांचवी बार दक्षिण कोलकता से संसद पहुंची है।
1997 में रेलवे बजट में बंगाल की उपेक्षा करने के कारण रेल बजट प्रस्तुत कर रहे रेलमंत्री रामविलास पासवान पर गुस्से में वो अपनी शाल फेंक चुकी है इसीलिए अपने रेल बजट में उन्होंने देश के सभी अंचलों का विशेष ध्यान रखा है। युवाओं की राजनीति में बढ़ती भागीदारी और पं. बंगाल में विधानसभा चुनावों को सामने रखकर उन्होंने एक युवा रेलगाड़ी चलाने की घोषणा भी की है। 1500 रुपये मासिक आय वालों के लिए 'इज्जत' नामक स्कीम के साथ 25 रुपये का मासिक सीजन टिकट भी उनके जन बजट की विशेषता है।
ममता ने रेल यात्री सुविधाओं, आरक्षण की समस्याओं, रेल में जनता भोजन, व सफाई व्यवस्था में सुधार पर अत्यधिक ज़ोर दिया है। यह तमाम समस्याएं है जिनका समाधान अगर कारगर ढंग से हो जाए तो निश्चित रूप से ममता बनर्जी की जय-जयकार होगी क्योंकि आम आदमी सुविधापूर्वक व सुरक्षित तरीके से यात्रा चाहता है। लेकिन उसकी इन मूल समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। गाडियां बढ़ें या न बढ़ें लेकिन जनता को वाजिब सुविधा तो मिलना ही चाहिए। अब देखना यह है कि ममता बनर्जी अपनी घोषणाओं पर कितना खरा उतरती है।

Sunday, July 26, 2009

चुनाव आयोग पर हमला नहीं

मायावती ने एक बार फिर चुनाव आयोग को अपने ग़ुस्से का निशाना बनाया है। उनका आरोप है कि मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला और चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के इशारे पर काम कर रहे हैं। नवीन चावला ने साफ़ कर दिया है कि मायावती के इन बयानों के गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है।

उन्होंने कहा कि सही काम करने की चुनाव आयोग की मंशा पर उंगली उठाना ठीक नहीं है। नवीन चावला ने यह भी कहा कि 2007 के विधानसभा चुनावों के बाद मायावती इतना अभिभूत हो गई थीं कि रविवार के दिन चुनाव आयोग के दफ्तर में आईं और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए धन्यवाद दिया था।दरअसल चुनाव आयोग का ताज़ा आदेश मायावती को बुरा लगा है।

जौनपुर जि़ले में एक दलित उम्मीदवार की हत्या हो गई थी। मायावती जी के पुलिस विभाग ने जांच की और पाया कि उम्मीदवार ने आत्मा हत्या की थी। उधर उम्मीदवार के परिवार वालों और उम्मीदवार की पार्टी के राष्ट्ररीय अध्यक्ष का आरोप था कि बहुजन समाज पार्टी के बाहुबली उम्मीदवार ने पुलिस और स्थानीय प्रशासन का इस्तेमाल करके पहले तो उम्मीदवार को डराने धमकाने की कोशिश की और नाम वापसी के लिए दबाव डाला।

जब वह राज़ी नहीं हुआ तो उसकी हत्या करवा दी गई और आतंक फैलाने के उद्देश्य से लाश को पेड़ पर लटका दिया। अब आयोप के सही साबित होने की संभावना बहुत कम है क्योंकि उत्तर प्रदेश पुलिस के एक मुख्य अधिकारी ने खुद जांच कर के मामले को र$फा दफ ा कर दिया है लेकिन चुनाव आयोग ने इस बात को नोटिस किया कि जि़ले के जि़लाधीश और पुलिस अधीक्षक शक के दायरे में हैं, लिहाज़ा निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए उनको हटाया जाना ज़रूरी है।

मायावती जी को यह बात बिलकुल पसंद नहीं आई कि कोई उनकी मर्जी के खिला$फ कुछ करे। खास तौर पर अपने खास अधिकारियों की रक्षा करने के लिए व हरदम तैयार रहती हैं। ऐसी हालत में जब चुनाव आयोग के सर्वोच्च अधिकारी ने ऐसा कोई फैसला सुना दिया जो उनके अफसरों को प्रभावित करता है तो तुरंत प्रेस कांफ्रेंस करके उन्होंने हमला बोल दिया। यह अलग बात है कि उनके बयान का कोई असर नहीं हुआ। देश के विकासमान लोकतंत्र के लिए यह ज़रूरी है कि संवैधानिक संस्थाओं की इज्जत करने की परंपरा को बल दिया जाए। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट ऐसी संस्थाएं हैं जिन पर देश के लोकतंत्र को संभालने का जि़म्मा है।

ऐसी संस्थाओं पर बिना सोचे समझे गैर जि़म्मेदार तरीके से हमला नहीं किया जाना चाहिए। मायावती ने एक और सनसनीख़ेज़ खुलासा किया है। उनका कहना है कि कुछ विपक्षी राजनीतिक पार्टियां उनकी हत्या करवाना चाहती हैं। यदि उन्हें कुछ हो गया तो उसकी जि़म्मेदार विपक्षी पार्टियां होगी। यह बात भी अजीब है कि देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री इतना डर कर काम कर रही हैं। अगर वास्तव में उन्हें कोई ख़तरा है तो उनको चाहिए कि अपनी सुरक्षा की व्यवस्था और मज़बूत कर लें। आखिर सब कुछ उनके नियंत्रण में है लेकिन अगर वह ख़ुद ही अपने भय का प्रचार करेंगी तो राज्य की जनता अपनी सुरक्षा के प्रति कैसे आश्वस्त होगी।

क्या शरीफ हो गए वरुण?

बीसदिन जेल में रहने के बाद वापस लौटे वरुण गांधी ने आगे से अहिंसा के रास्ते पर चलने का $फैसला किया है। पीलीभीत में पर्चा दाखि़ल करने गए वरुण गांधी ने कहा कि अब अहिंसा ही उनका धर्म है। भारतीय परंपरा में प्रायश्चित्त का बहुत महत्व है क्योंकि प्रायश्चित्त करने वाला अपने पुराने पाप से छुट्टïी पा जाता है। अभी एक महीने से थोड़ा ज्यादा वक़्त हुआ जब वरुण गांधी लोगों के हाथ काटने पर आमादा थे।

लेकिन अब वे अहिंसा की बात कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि 20 दिन में ही यह क्रांतिकारी सुधार कैसे आ गया। पीलीभीत की सभा में वरुण गांधी ने कहा था कि उनके जेल जाने के बाद उनकी मां बहुत रोईं। बेटे के जेल जाने से बहुत दुखी थीं। हो सकता है कि अपनी मां के आंसुओं को देखकर वरुण गांधी ने बर्बरता की जि़न्दगी तर्क करने का फै़सला कर लिया हो। लेकिन मां के आंसुओं में भी उनकी व्यापारिक बुद्घि उनके साथ रही। उन्होंने पीलीभीत की जनता से अपील कर डाली की उनकी माता जी के आंसुओं के बदले उन्हें लोकसभा सदस्य बनाकर भेज दें।

यहां यह सवाल पूछना ज़रूरी है कि उनकी माता और पिता के दंभ और जि़द के चलते जिन हज़ारों लोगों को इमरजेंसी में जेल भेजा गया, उनके आंसुओं की भी कोई $कीमत है क्या? वरुण गांधी के अहिंसक होने की बात पर विश्वास करने के कोई ख़ास कारण तो नहीं हैं, लेकिन अगर मान भी लिया जाय तो इस बात की पूरी संभावना है कि एटा जेल में मच्छरों ने भी वरुण को हृदय परिवर्तन के लिए बाध्य किया हो। जानकार बताते हैं कि वरुण गांधी और उनकी माता जी की मूल योजना यह थी कि पीलीभीत में उनकी गिरफ्तारी होगी और अगले दिन ज़मानत हो जाएगी।

जेल यात्रा का तमगा लेकर वरुण गांधी बी जे पी के पोस्टर बालक बनकर चल पड़ेंगे, प्रचार अभियान में और चुनाव ख़त्म होने तक हीरो बन जायेंगे। उनको क्या पता था कि मायावती उनको जेल में ठूंस देगी और ऐसी धाराओं में जिनमें ज़मानत ही नहीं होती। यह तो शायद मच्छरों और उनकी माता जी के आंसुओं का असर था कि बेचारे वरुण ने बार बार मा$फी मांगी और जेल से जान बचाकर भागे। सुप्रीम कोर्ट में मा$फी मांगने के बाद वरुण गांधी को एटा और पीलीभीत में भी माफ़ी मांगनी पड़ी तब जाकर कहीं खुली हवा में सांस ले सके।तीसरी बात जो एक बर्बर राजनेता को अहिंसक बना सकती है वह है कि उसके जेल जाने के पहले के कारनामों के प्रायोजकों का रवैया।

आर एस एस और बी जे पी वाले वरुण गांधी को नरेंद्र मोदी और प्रवीन टोगडिय़ा की श्रेणी का नेता बनाना चाहते थे लेकिन जब संघ परिवार ने देखा कि वरुण तो अब लंबे वक्त के लिए अंदर गए तो उन लोगों ने पल्ला झाड़ लिया। इस बात से भी मां बेटे दुखी बताए जाते हैं। जो भी हो अगर अपने को अहिंसक बताकर वे लोगों को गाफिल करने की साजि़श नहीं कर रहे हैं तो उनके लिए अच्छी बात है। और अगर ऐसा होता है तो उनकी मां के आंसू और मच्छरों का ही योगदान एक हिंसक व्यक्ति को अहिंसा के रास्ते पर जाने के बारे में महत्वपूर्ण होगा।

शेखचिल्ली के वारिस

अगर शेखचिल्ली जिंदा होते तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना गुरू मान लेते। सोनिया गांधी गुजरात के चुनावी दौरे पर जाने वाली हैं और नरेंद्र मोदी ने उन्हें चेतावनी दी है कि गुजरात संभलकर आएं। गोया गुजरात मोदी साहब की जागीर है और अगर कोई वहां जाता है तो उसे मोदी से अनुमति लेनी होगी।

पहले वास्तविकता पर गौर कर लेना चाहिए। नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हैं और जिस सोनिया गांधी के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, उनके खिलाफ मोदी की पार्टी पिछले दस वर्षों से नफरत की राजनीति कर रही है। जिस प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के राष्टï्रीय नेता, लालकृष्ण आडवाणी गली-गली घूम रहे हैं, उसी प्रधानमंत्री पद को सोनिया गांधी ने स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। 2004 के चुनावों में बीजेपी और उसके साथ सत्ता का सुख भोग रही पार्टियों ने सारी ताकत झोंक दी थी लेकिन सोनिया गांधी की पार्टी ने केन्द्र में सरकार बना ली थी। यह साफ कर देना जरूरी है कि सोनिया गांधी या उनकी पार्टी दूध के धुले नहीं हैं। पंजाब, असम और तमिलनाडु में आतंकवाद को बढ़ावा देने में उनकी पार्टी और उनके परिवार का योगदान कम नहीं है।

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय, केंद्र में उनकी पार्टी की सरकार थी, प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेस का कब्ज़ा था, लेकिन उत्तरप्रदेश के उस वक्त के भाजपाई मुख्यमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट को अंधेरे में रखकर बाबरी मसजिद ढहा दी। देश में भ्रष्टाचार की जो परंपरा है उसमें कांग्रेसी नेता भी भाजपा के नेताओं से कम नहीं है। इस सबके बावजूद भी राजनीतिक रूप से मोदी की वह औकात नहीं है कि वह सोनिया गांधी को धमकाएं। मोदी और उनकी पार्टी के ऊपर दंगों को भड़काने वाली पार्टी होने का आरोप लगता रहा है। देश में 1927 के नागपुर दंगे के बाद हुए ज्यादातर दंगों में आरएसएस के लोग शामिल रहे हैं। गुजरात में 2002 में जो कारनामा मोदी ने किया, उसकी वजह से दुनिया भर के सामने भारत का सिर नीचा हो गया और जब मोदी पर बड़बोलेपन का दौरा पड़ता है तो वह सब कुछ भूल जाते हैं।

जिस विकास की बात मोदी कर रहे है वह गुजरात में हमेशा से ही रहा है। गुजरात के नेताओं हितेंद्र देसाई और मोरारजी देसाई के समय में गुजरात में जो विकास हुआ था, मोदी का विकास उसके सामने कुछ नहीं है। लेकिन सोनिया गांधी को दी गई नरेंद्र मोदी की धमकी को गंभीरता से लेने की जरूरत है। सोनिया की प्रस्तावित यात्रा के नतीजों से मोदी डर गए हैं और आशंका यह है कि वे सोनिया गांधी की सभा में अपने कुछ लोगों को भेजकर सवाल पूछने के बहाने उत्पात करने को कह सकते है। इसलिए कांग्रेस, सोनिया गांधी और केंद्र सरकार को चौकन्ना रहने की जरूरत है। मोदी एक बहुत ही शातिर दिमाग के मालिक हैं और वह कोई भी शरारत करवा सकते है।

आने वाले वक़्त की परेशानी

राज्य में उच्च शिक्षा पर अनिश्चितता हावी होती जा रही है। सरकार हालात से वाकिफ होने के बावजूद इस मामले में लापरवाही बरत रही है। इससे छात्र-छात्राओं के भविष्य पर सवालिया निशान लग रहा है। राजधानी दून समेत राज्य के बड़े हिस्से में उच्च, व्यावसायिक व रोजगारपरक शिक्षा से जुड़े निजी, सरकारी व सहायताप्राप्त अशासकीय शिक्षण संस्थाएं नए संकट से जूझ रही हैं।

इसकी वजह गढ़वाल विवि के केंद्रीय विवि बनने के बाद उससे जुड़े करीब पौने दो सौ से ज्यादा शिक्षण संस्थाओं को अगले सत्र में संबद्धता के मामले में स्थिति का खुलासा नहीं होना है। विवि प्रशासन ने तमाम संस्थानों को पत्र जारी कर अगले सत्र में प्रवेश रोकने को कहा है।

इस मुद्दे पर नीति निर्धारण नहीं किया गया है। विवि प्रशासन जानता है कि शिक्षण संस्थाओं ने मौजूदा रवैया अगले सत्र में जारी रखा तो उसके समक्ष भी परेशानी खड़ी हो सकती है। केंद्रीय विवि को स्तरीय उच्च शिक्षण संस्थान के तौर पर देखा जाता है। यह माना भी जा रहा है कि गढ़वाल विवि की कार्यप्रणाली में अब बदलाव आएगा।

हालांकि, केंद्रीय विवि की घोषणा के बाद ही उसके एक्ट में इस सत्र में तमाम संस्थानों की संबद्धता जारी रखी गई है पर भविष्य में बड़ी तादाद में इन संस्थानों को विवि अपने साथ रखेगा, ऐसी उम्मीद कम ही है। शासन के आला अफसरों और उच्च शिक्षा मंत्रालय की कमान संभाल रहे मुख्यमंत्री का इन हालात से परिचित होना लाजिमी है।

इसके बावजूद समय रहते इस दिशा में कदम नहीं उठाने से हालत और बिगडऩे के आसार हैं। यही नहीं, गुणवत्ता को विवि अब ज्यादा देर तक नजरअंदाज नहीं कर सकेगा, यह पैरामेडिकल शिक्षण संस्थानों के मामले में अपनाए गए रवैये से भी साफ हो गया है।

मानकों का पालन नहीं करने वाले संस्थानों के प्रवेश फार्म आखिरी तारीख बीतने के बाद भी स्वीकार नहीं किए गए हैं। चुनाव के मौके पर नीतिगत फैसले नहीं लेने की बाध्यता सरकार भले ही महसूस करे पर सैकड़ों छात्र-छात्राओं को अपना भविष्य अंधकारमय नजर आना लाजिमी है।

कालाधन राजनीति और भाजपा

विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने की बीजेपी की कोशिशों और उस पर इतना हल्ला गुल्ला करने के कारण लालकृष्ण आडवाणी पर सरकार की ओर से प्रतिक्रिया आई है जो चौंकाने वाली है। गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने कहा है कि श्री आडवाणी को मालूम है कि केंद्र सरकार पिछले कुछ वर्षों से स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के कालेधन को वापस लाने की कोशिश कर रही है। ऐसी हालत में बीजेपी नेता का इस मामले पर इतना हल्ला गुल्ला मचाना समझ में नहीं आता पी.चिदंबरम पहले वित्तमंत्री रह चुके हैं और इस मामले पर उनके बयान पर भरोसा किया जाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि श्री आडवाणी इस मामले में बार-बार बयान देकर कुछ और लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि वे उन लोगों को सावधान करना चाहते हैं जिनका पैसा स्विस बैंकों में जमा है। चिदंबरम ने कहा कि विदेशों से कालधन वापस लाने की दिशा में सरकार काफी हद तक सफलता हासिल कर चुकी है। चोरी से जमा किए गए धन को वापस लाने की कोशिश गुप्त तरीके से की जानी चाहिए। गृहमंत्री को शक है कि इतने शोर गुल के बाद वे लोग अपना पैसा कहीं और व्यवस्थित कर देंगे। गृहमंत्री के खुलासे के बाद इस बात पर नए सिरे से विचार होना चाहिए। जहां तक बीजेपी और उनके नेताओं की बात है, उसमें भष्ट लोगों की खासी बड़ी संख्या है।

बीजेपी की जब केंद्र में सरकार थी, उस दौरान पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को रिश्वत लेते पूरी दुनिया ने टेलीविजन के पर्दे पर देखा था। जानकार बताते है कि उस वक्त के सत्ता पक्ष के कुछ लोगों की रिश्वत खोरी की जानकारी सबको थी और वह पैसा नंबर दो का था तो देश के बैंकों में तो जमा नहीं होगा लिहाजा वह भी किसी ऐसे मुल्क में जमा होगा। जहां कालेधन की इज्जत होगी। गृहमंत्री ने जो बात कही है उससे शक हो रहा है कि प्रधानमंत्री पद के भाजपाई दावेदार उन अपने सभी राजनीतिक और उघोगपति साथियों को बता देना चाहते हैं कि भाइयों सावधान सरकार कालेधन पर हमला बोलने वाली है।

क्योंकि एक बात तो पक्की है कि बीजेपी को मालूम है कि 16 मई के दिन उनके हाथ निराशा ही लगने वाली है और आडवाणी किसी कीमत पर प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। ऐसी हालत में अभी से अपने साथियों को चौकन्ना करके बीजेपी नेतृत्व उन लोगों के उपचार का जवाब दे रहा है जो उनको समय-समय पर मदद करते रहते है। बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के कार्यकाल में रक्षा सौदों में भी बड़ी दलाली के मामले का पर्दाफाश हुआ था जब तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस के घर में रक्षा सौदों की दलाली की कई परतें खुली थी और उसका भी झांडा टीवी स्क्रीन पर ही फूटा था रक्षा सौदों की दलाली का पैसा भी स्विस बैकों में ही जमा होता है। यानी काले धन को विदेशों में जमा करने वालों के लिए आडवाणी का हल्ला गुल्ला एक तोहफे से कम नहीं है।

एक और ऐतिहासिक भूल

केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी की वाम मोर्चा की नीति कुतूहल का विषय तो तब से ही थी, जब प्रकाश करात ने इसकी घोषणा की थी। 2004 में कांग्रेस ने वामपंथी दलों के सहयोग से केंद्र में सरकार बनाने का फैसला किया था, तभी से जानकारों को विश्वास था कि सरकार के चार सला पूरा होने के बाद ही समर्थन वापसी हो जायेगी।

इस सोच का आधार यह था कि बाहर से रहकर समर्थन दे रही पार्टी चुनाव में जाने के पहले कांग्रेस से झगड़ा करके कांग्रेस पार्टी के उन कामों से पल्ला झाड़ लेगी जो अलोक प्रिय होंगे और उन कामों के लिए क्रेडिट लेगी जिनसे चुनावी फायदा होगा, जो जनहित में होंगी। आजकल वामपंथी पार्टियों के प्रवक्ता चारों तरफ यह कहते फिर रहे हैं कि देश की अर्थ व्यवस्था को तबाह होने से कम्युनिस्टों ने बचाया। उनका दावा है कि मनमोहन सिंह सरकार तो ऐसी नीतियां बनाने और लागू करने की फिराक में थी जो देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अमरीकियों का मोहताज बना देतीं और उनका विरोध परमाणु संधि से था, जिसके कारण उन्होंने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

सब जानते है कि यह बहाना है क्योंकि अगर समर्थन वापसी का यही कारण है तो जब परमाणु समझौते की बात शुरू हुई, यह काम तभी हो जाना चाहिए था। दरअसल समर्थन वापसी की कुछ गुत्थियां अब सुलझने लगी हैं। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े लेकिन बरखास्त नेता सोमनाथ चटर्जी ने कहा है कि उन्होंने माकपा नेत्तत्व को समझाने की कोशिश की थी और आगाह किया था कि 1996 वाली गलती की तरह फिर ऐतिहासिक भूल न करें। 1996 में गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने का काम माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योति बसु को मिल रहा था, लेकिन माकपा की केंद्रीय कमेटी ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया और एच. डी. देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन गए।

सोमनाथ चटर्जी ने दावा किया है कि उन्होंने माकपा के नेताओं को समझाया था कि परमाणु समझौते के खिलाफ अपना रूख ज्यों का त्यों रखो- देश की जनता को अपनी बात से अवगत कराओ लेकिन समर्थन वापस मत लो। सोमनाथ चटर्जी का कहना है कि समर्थन वापसी से वही ताकते मजबूत होंगी जिनके खिलाफ हम जीवन भर संघर्ष करते रहे हैं। लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा और अपनी जिद पर आमादा वामपंथी नेतृत्व ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। नतीजा सामने है एक सरकार सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थी, उसके सामने अस्त्तित्व का संकट पैदा हो गया। आज वामपंथी पार्टियां चुनाव मैदान में हैं अब तक के संकेतों से साफ है कि लोकसभा में वामपंथी सदस्यों की जो संख्या थी, इस बार उससे कम होगीं यानी सरकार से समर्थन वापसी से जिस राजनीतिक फायदे की उम्मीद थी, वह नहीं हुई उल्टे घाटा होने का खतरा पैदा हो गया है।

Friday, June 26, 2009

कांग्रेस और राजनीतिक आत्महत्या की प्रवृत्ति

1989 के चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स तोप दलाली केस को चुनावी मुद्दा बनाने में सफलता हासिल की थी। नतीजा यह हुआ कि वे विपक्ष की मदद से प्रधानमंत्री बन गए। उनको कांग्रेस विरोधी सभी महत्वपूर्ण पार्टियों का समर्थन मिला था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने वी पी सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दिया था।

चुनाव प्रचार के दौरान वीपी सिंह ने दावा किया था कि 100 दिन के अंदर बोफोर्स दलाली केस के अभियुक्तों की शिनाख़्त हो जाएगी और दलाली की रकम प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा हो जाएगी। लेकिन कुछ नहीं हुआ। पिछले बीस वर्षो से कई सरकारें आती जाती रहीं लेकिन बोफोर्स का मद्दा ज्यों का त्यों है। जहां तक बोफोर्स दलाली की बात है, आम धारणा है कि इटली के व्यापारी ओतावियो क्वात्रोची ने दलाली ली थी और उनके राजीव गांधी के सुसराल वालों से बहुत अच्छे संबंध थे। यानी ठीकरा राजीव गांधी के परिवार के सिर पर फोड़ा जा सकता है।

बोफोर्स दलाली केस पिछले बीस वर्षो से बीजेपी के नेताओं का बहुत ही प्रिय विषय रहा है। इस चाबुक का इस्तेमाल करके बीजेपी वाले राजीव गांधी की पत्नी और बच्चों को डराते रहते हैं और इस मुद्दे का यही इस्तेमाल है। इस बार भी यह मुद्दा चुनाव प्रचार के मध्य में एक बार फिर उठ गया है। ताज्जुब यह है कि सरकार की तरफ से इसे उठाया गया है। कुछ लोगों को शक है कि कांग्रेस के अंदर ही नेताओं का एक गुट है जो सोनिया गांधी को चेतावनी देना चाह रहा है कि अगर उन्होंने इस गुट को हाशिए पर लाने की कोशिश की तो नतीजा ठीक नहीं होगा।

जाहिर है कि कांग्रेस नेतृत्व जानबूझ कर तो इस मामले को ऐन चुनाव प्रचार के सीजन में सामने नहीं लाना चाहेगा। और अगर कांग्रेस के नेतृत्व ने सोची समझी राजनीति के तहत इस मामले को आगे करने की कोशिश की है, तो इसमे कोई शक नहीं कि कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक हत्या करने की इच्छा बहुत ही प्रबल है। जहां तक चुनाव नतीजों की बात है, बोफोर्स केस की अब यह औक़ात नहीं है कि वह उसे प्रभावित कर सके। 1987-88 में जब यह मामला सामने आया था, तो 65 करोड़ रूपये की दलाली बड़ी रकम माना जाता था लेकिन पिछले बीस वर्षो मे सत्ताधारी पार्टियों के नेताओं की दलाली के जो कारनामे सामने आए हैं, उसके सामने 65 करोड़ की कोई अहमियत नहीं रह गई है।

1989 में जब वीपी सिंह और भारतीय जनता पार्टी ने बोफोर्स को चुनावी मुद्दा बनाया था तो बीजेपी भी अपेक्षाकृत ईमानदार पार्टी मानी जाती थी और वीपी सिंह की तो ईमानदार नेता की छवि थी ही। लेकिन आज बीस साल बाद जब बीजेपी के नेताओं की दलाली की कहानियां सुनाई पड़ती हैं तो लगता है कि उनकी घूस लेने की क्षमता बहुत बड़ी है। एक पूर्व प्रधानमंत्री के तथाकथित दामाद और एक स्वर्गीय भाजपाई मंत्री और तिकड़म बाज़ के दलाली संबंधी कारनामों के सामने बोफोर्स दलाली की र$कम फुटकर पैसे की हैसियत रखती है।

इसलिए बीजेपी में यह राजनीतिक ता$कत नहीं है कि वह बोफोर्स या किसी भी दलाली के सौदे को चुनावी मुद्दा बना सके। बीजेपी के अपने दलाली के कारनामे ऐसे हैं कि जिस के सामने बोफोर्स दलाली मामला एक दम बौना लगेगा। हां इस मुद्दे का इस्तेमाल बीजेपी वाले अखबारों और टीवी चैनलों में भगवा पत्रकारों के सहयोग से हड़बोंग मचाने में कर सकते हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, इस के नेता इस मामले को वर्तमान चुनाव के अंत तक टाल सकते थे लेकिन उन्होंने राजनीतिक आत्महत्या करने का फैसला किया। वैसे भी इस देश में राजनीतिक आत्माहत्या करने की कोई पाबंदी नहीं है।

राजनीति और हवाई नेता

संजय दत्त को समाजवादी पार्टी ने महासचिव बना दिया। समाजवादी पार्टी को इस देश में समाजवादी आंदोलन और लोहिया की विरासत का ट्रस्टी माना जाता है। संयुक्त समाजवादी पार्टी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी या अन्य समाजवादी धाराओं के लोग पूरे देश में कहीं न कहीं बिखरे पड़े हैं। कुछ लोग हाशिए पर आ गये हैं। तो बाकी लोग कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों की शरण में हैं।

कुछ लोगों ने अपनी राजनीतिक पार्टियां बना रखी हैं। और मौका मिलते ही सत्ता के रथ पर सवार हो जाते हैं। समाजवादी पार्टी के नेता भी इसी ताक में रहते हैं, लेकिन अभी उत्तर प्रदेश के गांवों में कुछ ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ काम किया था और आम आदमी की पक्षधरण के संघर्ष में शामिल हुए थे, जुलूस निकाला था। और लाठियां खाईं थी। हर उस सरकार को निकम्मी घोषित किया था जो रोटी रोज़ी नहीं दे सकती थी।

उसी समाजवादी पार्टी में मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर चले आ रहे हैं। इस बात पर कोई एतराज नहीं हो सकता। लेकिन राजनीतिक पार्टी के संचालन में जिस तरह की अफरातफरी का माहौल समाजवादी पार्टी में शुरू किया किया है, उस पर आश्चर्य होता है।राजनीति फर्म को समाज की सामूहिक सोच और मनीषा का संगम माना जाता है।

विद्वान मानते हैं कि राजनीति अधिकतम संख्या जनता की वैध महत्तवाकांक्षाओं को पूरा करने का ही नाम है और वैध महत्वाकांक्षाओं का वाहक बने। इन्हीं महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किए गए संघर्ष के दौरान उसी जनता के बीच से राजनीतिक पार्टियों के नेता उभरते हैं मुलायम सिंह यादव, जनेश्वर मिश्र, राम गोपाल यादव, लालू यादव, नीतिश कुमार, वृंदा करात, करूणानिधि शरद पवार, बुद्घदेव भट्टाचार्य आदि ऐसे ही लोग हैं, लेकिन जब ऊपर पहुंच चुके नेताओं की व्यक्तिग कुछ और आशिर्वाद लेकर पैराशूट के जरिए, आम कार्यकर्ता के सिर पर नेता उतार दिए जाते हैं तो पार्टी का जनाधार प्रभावित होता है।

और पार्टी की हैसियत रोज-ब-रोज कम होती जाती है। कांग्रेस पार्टी का पिछले 30 साल का इतिहास इस तथ्य को विधिवत स्पष्टï कर देता है। संजय गांधी के दौर में उपर फट्ट लोगों को भर्ती करने का सिलसिला शुरू हुआ और राजीव गांधी ने दून स्कूल के अपने साथियों से कांग्रेस को भर दिया और वही लोग देश के भाग्य विधाता बन गए। नतीजा दुनिया के सामने हैं। अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के बल पर चार सौ के आसपास सीट पाने वाले राजीव गांधी पांच साल के अंदर कांग्रेस की हार के जिम्मेदार बने। कांग्रेस पार्टी का जनाधार तितर-बितर हो गया और तबसे आज तक संभल नहीं सकी।

2004 के चुनावों के पहले भारतीय ने भी हवाई नेताओं को बड़े पैमाने पर भरती किया था और उनका भी वही हाल हो रहा है। जो कांग्रेस का हुआ था। आम कार्यकर्ता जो निराश हुआ तो थामे नहीं थम रहा है। और अब समाजवादी पार्टी भी उसी ढर्रे पर चल निकली है। अपनी पार्टी के रामपुर के बड़े नेता आजम खां की मर्जी के खिलाफ जिसे पार्टी चुनाव लड़ा रही है, उसके भी आम कार्यकर्ता तो कभी नहीं कहा जा सकता। संजय दत्त भी इसी श्रेणी में आते हैं। अजीब बात यह है कि समाजवादी पार्टी जैसा जमीन से जुड़ा संगठन संजय दत्त की आपराधिक पृष्ठभूमि को धमकाकर दबाने की कोशिश कर रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ शक का माहौल पैदा किया जा रहा है। और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ लामबंदी की कोशिश की जा रही है। इस सबसे ज्यादा मुश्किल यह है कि इस तरह के संकेत देने की कोशिश हो रही है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कांग्रेस के दबाव में आया है। वरना संजय दत्त लखनऊ से उम्मीदवार रहते। और जैसे सुप्रीम कोर्ट को ही चिढ़ाने के लिए फैसले के अगले दिन ही संजय दत्त को पार्टी को महासचिव बना दिया गया। समझ में नहीं आता ऐसी हड़बड़ी क्यों है।

आखिर संजयदत्त कोई दूध के धुले तो हैं नहीं। जिस तरह के आरोप उनपर लगे हैं और अदालत ने उन्हें सज़ा दी है, वह कोई साधारण सज़ा तो है नहीं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि जिद में कोई काम करने के पहले समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के जनाधार खिसकने की कहानी पर गौर कर ले। जल्दबाजी और जिद में किए गए फैसले कभी भी अपने हित में नहीं होते।

अदालत का फैसला

उच्चतम न्यायालय के निर्णय से अभिनेता संजय दत्त के नेता बनने की उम्मीदों पर जिस तरह पानी फिरा उसका यदि कोई सकारात्मक पक्ष है तो सिर्फ यह कि अब उन अनेक आपराधिक इतिहास वाले बाहुबलियों को अदालत का दरवाजा खटखटाने की हिम्मत नहीं पड़ेगी जो अपनी सजा निलंबित कराने का तानाबाना बुन रहे थे।

इसके लिए वे क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू के मामले को एक नजीर की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। यदि संजय दत्त को चुनाव लडऩे की अनुमति मिल जाती तो शायद बाहुबलियों की जमात भी अपने लिए ऐसी ही सुविधा की मांग करती। इस पर संतोष जताया जा सकता है कि अब ऐसा नहीं होगा, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि संजय दत्त की आशाओं पर जो तुषारापात हुआ उसके लिए उनके कथित गंभीर अपराध के साथ-साथ वह न्यायिक तंत्र भी जिम्मेदार है जिसने उनसे संबंधित मामले का निपटारा करने में इतना अधिक समय ले लिया।

उन्हें 1993 के मुंबई बम विस्फोट कांड में 2007 में यानी 14 वर्ष बाद सजा सुनाई जा सकी। इस सजा के खिलाफ संजय दत्त की अपील उच्चतम न्यायालय में अभी लंबित है। यदि इस अपील का निपटारा हो गया होता तो यह स्वत: स्पष्ट हो जाता कि वह चुनाव लडऩे के पात्र हैं अथवा नहीं? संजय दत्त को टाडा कोर्ट ने छह वर्ष की सजा सुनाई है। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत दो या इससे अधिक वर्ष की कैद के सजायाफ्ता व्यक्ति के चुनाव में खड़े होने पर रोक का प्रावधान है, लेकिन अभी तो इसका निर्धारण होना शेष है कि संजय दत्त इतनी सजा पाने के हकदार हैं या नहीं?

जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि संजय दत्त आदतन अपराधी नहीं हैं उसी तरह टाडा अदालत भी इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि उनका अपराध अमानवीय एवं समाज को क्षति पहुंचाने वाला नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसका कोई भी लाभ उन्हें नहीं मिल सका। संजय दत्त इस आधार पर स्वयं को दिलासा दे सकते हैं कि उनके राजनीति में सक्रिय होने की संभावनाएं अभी भी बरकरार हैं।

फिलहाल यह कहना कठिन है कि टाडा कोर्ट की सजा के खिलाफ की गई संजय दत्त की अपील पर उच्चतम न्यायालय किस निष्कर्ष पर पहुंचता है, लेकिन यदि वह यह पाता है कि 18 माह की जो सजा वह भुगत चुके हैं वह पर्याप्त है तो फिर यह एक तरह की नाइंसाफी होगी। यह कहना आसान है कि संजय दत्त थोड़ा और इंतजार करें तथा कानून को अपना काम करने दें, लेकिन ध्यान रहे कि वह पिछले 14 वर्षो से यही कर रहे हैं।

नि:संदेह कानून अपनी तरह से अपना रास्ता तय करता है, लेकिन जब उसका रास्ता अनावश्यक रूप से लंबा नजर आने लगे तो फिर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यह न्याय तंत्र के सुगम और सक्रिय न होने का ही परिणाम है कि संजय दत्त आदतन अपराधी न होते हुए भी प्रतीक्षा करने के लिए विवश हैं। यह विवशता तो उनके समक्ष होनी चाहिए जो आदतन अपराधी हैं। यह निराशाजनक है कि अनेक आदतन अपराधी न केवल चुनाव लडऩे, बल्कि विधानमंडलों तक पहुंचने में भी सफल हैं। नि: संदेह ऐसा नहीं होना चाहिए।

अब ठोस मुद्दों पर वोट

लोकसभा पहले चरण के चुनाव के बाद चुनाव प्रचार के तरी$के में कुछ बदलाव नज़र आ रहा है। जातियों में बंटे समाज में कुछ परिवरर्तन के संकेत नजर आ रहे हैं। बिहार में नेता और केंद्र में रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव के भाषणों का रूख बदला हुआ है। पिछले 20 वर्षो से मुसलमानों के समर्थन के बल पर राजनीति में सफल रहे लालू प्रसाद यादव की चिंता का रंग बदल गया है।

अब तक लालू यह मान बैठे थे कि मुसलमानों के वोट पर उनका एकाधिकार है लेकिन 16 अप्रैल को जब पहले दौर के वोट पड़े और जो संकेत मिले, उससे लालू यादव यादव परेशान हो गए। केंद्र में अपनी साथी पार्टी, कांग्रेस को बिहार में तीन सीटें देकर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को उसकी औक़ात बताने की कोशिश की थी लेकिन कांग्रेस ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर लालू-राम विकास की राजनीति को ज़बरदस्त झटका दिया है। पहले दौर में मुसलमानों ने कई क्षेत्रों में कांग्रेस को वोट दिया, उनका तर्क है कि लालू यादव अब तक केवल भावनत्तमक अपील के सहारे मुसलमानों का समर्थन लेते रहे हैं, मुसलिम समाज के विकास के लिए कुछ नहीं किया।

ज़ाहिर है कि विकास की दिशा में कोई ठोस काम न किया जाए तो बहुत दिन तक किसी को भी साथ नहीं रखा जा सकता। उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों का वोट महत्तवपूर्ण है और अधिकतर सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। यहां मुसलमानों का वोट आमतौर पर पिछले बीस वर्षो से मुलायम सिंह यादव को मिलता रहा है। इसके ठोस कारण हैं। भावनातमक स्तर पर भी मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह की इज़्ज़त है। आज भी 1990 मेें बाबरी मस्जिद की हिफाज़त की मुलायम सिंह सरकार की कोशिश को न केवल मुसलमान बल्कि पूरी दुनिया के सही सोच वाले लोग सम्मान से याद करते हैं। लेकिन उसके बाद भी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में सरकार चलाने का मौ$का मिला तो उन्होंने मुसलमानों के हित में काम दिया।

आर्थिक क्षेत्र में विकास की कोशिश मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में बेहतर अवसर की कोशिश कुछ ऐसे काम हैं, जिन की वजह से मुसलमान आज मुलायम सिंह के साथ हैं। वर्तमान लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को मदद करने से धर्मनिरपेक्ष ता$कतों को मज़बूती मिलने के आसार हैं मुसलमान वहां कांग्रेस के साथ हैं। मुलायम सिंह यादव ने ऐसी परिस्थितियां भी पैदा कीं हैं जहां उनका उम्मीदवार कमज़ोर है, वहां कांग्रेस को मज़बूत करने का संकेत साफ नज़र आता है। उत्तर प्रदेश की गाजि़याबाद सीट पर तो लगता है कि मुलायम सिंह की कोशिश के नतीजे में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह चुनाव हार जाएंगे।

मुसलमानों में मुलायम सिंह की लोकप्रियता को कमज़ोर करने की कोशिश चल रही है। मायावती ने राज्य में मुसलमानों को उम्मीदवार बनाकर धर्मनिरपेक्ष ताकतों को अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश की है। मुलायम सिंह के पुराने साथी और रामपुर के विधायक आज़म ख़ान भी आजकल रामपुर के कांग्रेस उम्मीदवार की मदद में लगे हैं। मुलायम सिंह इससे बहुत नाराज़ हैं। समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश स्तर के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया है कि आज़म खान अभी तक कांग्रेस की सेवा में थे अब बीजेपी से भी संपर्क में हैं। बहर हाल सचाई यह है कि मुसलमानों में भावनात्मक अपीलों के अलावा ठोस मुद्दों पर राजनीतिक $फैसले लेने की बात ज़ोर पकड़ चुकी है और बीजेपी के साथियों को हराने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।