Monday, July 27, 2009

ईरान की नई सरकार और ओबामा की मुश्किलें

ईरान के चुनावों के बाद पश्चिमी देशों की प्रेरणा से तेहरान की सड़कों पर शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन अब थम गया है लेकिन उसके प्रेरक तत्व अभी भी सक्रिय हैं।
जिन अमरीकी नीति निर्धारकों की शह पर जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने इराक पर हमला करने की बेवकूफी की थी, वे फिर सक्रिय हो गए हैं। इस बिरादरी के लोग अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा पर वैसा ही दबाव बना रहे हैं जैसा इन लोगों ने बुश जूनियर के ऊपर 2003 में बनाया था। इस गैंग के एक नेता हैं पॉल वुल्फोविज़।
इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के खिलाफ अमरीका में जो जनमत बना था और चारों तरफ से सद्दाम को हटाने की बात शुरू हो गई थी उस जनमत को तैयार करने वाले गिरोह के प्रमुख नेताओं में पॉल वुल्फोविज का नाम लिया जाता है। यह महानुभाव फिर सक्रिय हो गए हैं। यह लोग ईरान में सत्ता परिवर्तन की बात तो नहीं कर रहे हैं लेकिन ओबामा को कुछ कर गुजरने की प्रेरणा अवश्य दे रहे है।
वॉशिंगटन पोस्ट के अपने ताजा लेख में पॉल वुल्फोविज ने ओबामा को समझाने की कोशिश की है कि ईरान की सड़कों पर हुए प्रदर्शन में अमरीका को निष्क्रिय नहीं रहना चाहिए। उनका कहना है कि ओबामा को अपनी सारी ताकत ईरानी विपक्षियों के समर्थन में लगा देनी चाहिए। यह लोग ईरान के वर्तमान शासकों के बारे में वही राग अलाप रहे हैं, जो कभी सद्दाम हुसैन के लिए अलापते थे। पॉल वुल्फोविज टाइप लोग अमरीका में भी दंभी, अतिवादी और बदतमीज माने जाते हैं लेकिन अगर जॉर्ज डब्लू बुश जैसा अदूरदर्शी शासक हो तो यह लोग कहर बरपा करने की ताकत रखते हैं।
ओबामा के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां हैं। अपने आठ साल के राज में जॉर्ज डब्लू बुश ने लगभग मसखरे के रूप में काम किया। अमरीकी अर्थव्यवस्था को चौपट किया और पूरी दुनिया में अमरीकी कूटनीति को मजाक का विषय बना दिया। जिन लोगों ने बुश को अफगानिस्तान और इराक में फंसाया, वही अमरीकी विचारक फिर लाठी भांज रहे हैं। यह लोग मूल रूप से किसी न किसी लॉबी गु्रप के एजेंट होते हैं। पॉल वुल्फोविज के बारे में बताया गया है कि यह हथियार बनाने वाली कुछ कंपनियों के लिए सक्रिय लोगों के साथी हैं।
इनके उकसाने में आकर अगर ओबामा ने कोई ऐसा काम किया जिसमें ईरान से झगड़ा हो जाय तो अमरीका के लिए तो मुश्किल होगी ही, ओबामा भी भारी मुसीबत में पड़ जाएंगे। एक राष्ट्र के रूप में अमरीका का वही हाल होगा जो वियतनाम और इराक में हुआ था। ओबामा को बहुत सोच समझकर काम करना होगा क्योंकि ईरान की सरकार बहुत ही मजबूत सरकार है और अहमदीनेजाद को चुनौती देने वाले मीर हुसैन मौसवी बिलकुल अलग थलग पड़ गए हैं। मौसवी के अलावा ईरान की राजनीति का हर छोटा बड़ा आदमी सरकार के साथ है।
विलायत-ए-फकीह का इकबाल बुलंद है और ईरान के खिलाफ किसी भी पश्चिमी साजिश को नाकाम करने के लिए ईरान की जनता एकजुट खड़ी है। ईरान के पुननिर्वाचित राष्टï्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने ऐलानियां कहा है कि ईरान की नई सरकार पश्चिमी देशों की तरफ ज्यादा निर्णायक और सख्त रुख अख्तियार करेगी। इस बार अगर पश्चिमी देश किसी मुगालते का शिकार होकर कोई गलती करेंगे तो ईरानी राष्ट्र का जवाब बहुत माकूल होगा।
महमूद अहमदीनेजाद के फिर से राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अमरीका और ब्रिटेन ने लोकतंत्र के खून होने और चुनावों में हेराफेरी के नाम पर ईरान में एक आंदोलन खड़ा करने की तैयारी कर दी थी। मीर हुसैन मौसवी के नाम पर उनके कुछ चाहने वाले सड़कों पर आ गए। यू ट्यूब और ट्विटर की मदद से पूरी दुनिया को ईरान के अंदर बढ़ रहे तथाकथित असंतोष को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। लेकिन कोई आंदोलन बन नहीं सका। अब सब कुछ खत्म हो चुका है और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ब्राउन बहुत ज्यादा मुसीबत में हैं। ईरानी सत्ताधारी वर्ग ने उन्हें ही निशाने पर ले रखा है।
ओबामा पर हमले उतने तेज नहीं हैं जितना ब्राउन पर हैं। ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्ला अली खमनेई ने इन दोनों देशों को धमकाते हुए कहा है कि ईरान पिछले महीने की पश्चिमी देशों की करतूतों को कभी नहीं भूलेगा। उन्होंने कहा कि अमरीका और कुछ यूरोपीय देश ईरान के बारे में बेवकूफी की बातें कर रहे हैं। उनके आचरण से ऐसा लगता है कि उनकी मुसीबतें इराक और अफगानिस्तान में खत्म हो गई हैं, बस ईरान को दुरुस्त करना बाकी है।
ईरान के हमले ब्रिटेन पर ज्यादा तेज हैं। अयातोल्ला अली खमनेई ने ब्रिटेन को सबसे ज्यादा खतरनाक और धोखेबाज विदेशी ताकत बताया है। ब्रिटेन के दूतावास में तैनात दो खुफिया अफसरों को देश से निकाल दिया गया है और वहां काम करने वाले स्थानीय ईरानी नागरिकों से पूछताछ की जा रही है। ब्रिटेन को भी ईरान की ताकत का अंदाज लगने लगा है। मौसवी के समर्थकों को हवा देने के बाद ब्रिटेन इस चक्कर में है कि किसी तरह जान बचाई जाए क्योंकि अगर ईरान नाराज हो जाएगा तो ब्रिटेन की अर्थ व्यवस्था पर भी उलटा असर पड़ेगा।
शायद इसीलिए ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय से एक बयान जारी किया गया है जिसमें कहा गया कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री ईरान में मानवाधिकारों के उल्लंघन की वजह से नाराज नहीं है। उन्हें तो ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर एतराज है। अब तक के संकेतों से ऐसा लगता है कि ईरान ब्रिटेन को गंभीरता से नहीं ले रहा है और उसे अलग थलग करने के चक्कर में ही है।
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए प्रदर्शनों पर जो रुख अपनाया, उसे ईरान में पसंद नहीं किया गया। ओबामा और उनके बंदों को उम्मीद थी कि ईरान में जो राजनेता सत्ता से बाहर हैं, वे महमूद अहमदीनेजाद के खिलाफ शुरू हुए मौसवी के आंदोलन में शामिल हो जांएगे लेकिन ऐसा न हो सका। अमरीकी प्रशासन को ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अकबर हाशमी रफसंजानी से बड़ी उम्मीदें थीं। अमरीका को अंदाज था कि रफसंजानी सर्वोच्च नेता के खिलाफ किसी साजिश में शामिल हो जाएंगे लेकिन 28 जून को उन्होंने एक बयान दिया जिसके बाद अमरीकी रणनीतिकारों के होश उड़ गए।
उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद जो कुछ हुआ वह एक साजिश का नतीजा था। इस साजिश में वे लोग शामिल थे जो ईरान की जनता और सरकार के बीच फूट डालना चाहते है। इस तरह की साजिशें हमेशा ही नाकाम रही हैं और इस बार भी ईरानी अवाम ने किसी साजिश का शिकार न होकर बहादुरी का परिचय दिया है। रफसंजानी ने अयातोल्ला की तारीफ की और कहा कि उनके उम्दा नेतृत्व की वजह से चुनाव प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बढ़ा है।
रफसंजानी के अलावा विपक्ष के बाकी नेता भी सर्वोच्च नेता की इच्छा के अनुरूप महमूद अहमदीनेजाद के समर्थन में लामबंद है। विपक्षी नेता मोहसिन रेज़ाई, मजलिस के पूर्व अध्यक्ष नातेक नौरी जैसे लोग भी अब पश्चिमी साजिशों से वाकिफ है और नई ईरानी सरकार के साथ हैं। अमरीका और पश्चिमी देशों को उम्मीद थी मजलिस के अध्यक्ष, अली लारीजानी को अहमदीनेजाद के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है लेकिन उन उम्मीदों पर भी पानी फिर चुका है। लारीजानी अल्जीयर्स गए थे जहां इस्लामी देशों के संगठन का सम्मेलन था।
अपने भाषण में लारीजानी ने ओबामा को चेतावनी दी कि उन्हें पहले के अमरीकी राष्ट्रपतियों की तरह पश्चिमी एशिया के मामलों में बेवजह दखल नहीं देना चाहिए। उन्होंने कहा कि ओबामा को इस नीति को बदलना चाहिए जिससे इलाके में तो शांति स्थापित होगी ही, अमरीका भी चैन से रह सकेगा। नई राजनीतिक सच्चाई ऐसी है कि ओबामा के सामने कठिन फैसला लेने की चुनौती है। अपने पूर्ववर्ती बुश की तरह वे कोई बेवकूफी नहीं करना चाहते, लेकिन पॉल वुल्फोविज टाइप अमरीकी लॉबीबाजों का दबाव रोज ही बढ़ता जा रहा है।
हथियार निर्माताओं की तरफ से काम करने वाले ऐसे लोगों की अमरीका में एक बड़ी जमात है। शायद इन्हीं के चक्कर में ओबामा प्रशासन ने ईरानी शासन के खिलाफ शुरू हुए विरोध को हवा दी थी लेकिन लगता है बात बिगड़ चुकी है। काहिरा में मुसलमानों से अस्सलाम-अलैकुम कहकर मुखातिब होने वाले बराक ओबामा ने ईरान में बहुत कुछ खोया है। उस पर तुर्रा यह कि अमरीका की दखलंदाजी के कारण अहमदीनेजाद और अयातोल्ला के खिलाफ जो थोड़ा बहुत भी जनमत था भी, वह सब एकजुट हो गया है। ओबामा को अब ज्यादा ताकतवर ईरान से बातचीत करनी पड़ेगी ईरान के रिश्ते पड़ोसियों से भी बहुत अच्छे हैं।
तुर्की, अज़रबैजान, तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान अफगानिस्तान सब ईरान के साथ हैं। सीरिया, हिजबोल्ला और हमास भी ईरान के साथ पहले जैसे ही संबंध रख रहे हैं। चीन खुले आम ईरान की नई सरकार के साथ है। भारत भी ईरान से अच्छे रिश्तों का हमेशा पक्षधर रहा है और आगे तो दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंध और भी गहराने वाले है। सीरिया ने सऊदी अरब और अमरीका से कुछ बातचीत का सिलसिला शुरू किया था लेकिन कई अवसरों पर उसने साफ कर दिया है कि ईरान से रिश्तों की कीमत पर कोई नई दोस्ती नहीं की जाएगी। ऐसी हालात में अमरीकी कूटनीति का एक बार फिर इम्तहान होगा।
इस बार की मुश्किल यह है कि अमरीका के पास इस बार फेल होने का विकल्प नहीं है। ओबामा के लिए फैसला करना आसान नहीं है। अमरीका जनमत को गुमराह कर रहे दंभी और बदतमीज पत्रकारों और नेताओं का एक वर्ग है जो ओबामा को वही इराक वाली गलती करने के लिए ललकार रहा है। दूसरी तरफ उनकी अपनी समझदारी और पश्चिम एशिया की जमीनी सच्चाई की मांग है कि इराक और वियतनाम वाली गलती न की जाय। बहरहाल एक बात सच है कि अगर इस बार अमरीका ने पश्चिमी एशिया में कोई गलती की तो उसका भी वही हश्र होगा जो ब्रिटेन का हो चुका है।

न्यायपालिका का इकबाल और बेलगाम मंत्री

मद्रास हाईकोर्ट के एक जज के पास किसी केंद्रीय मंत्री ने टेलीफोन करके जज साहब से एक विचाराधीन मुकदमे में अग्रिम जमानत देने की सिफारिश कर दी। माननीय न्यायाधीश ने मंत्री की इस हिम्मत पर अपनी नाराजगी जताई और भरी अदालत में ऐलान कर दिया कि आगे से इस तरह की दखलंदाजी हुई तो वे जरूरी कार्रवाई करेंगे। न्यायपालिका के कामकाज में मंत्रियों का दखल बहुत बुरी बात है। इससे लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं।
हर जागरूक नागरिक को इस तरह की घटनाओं का विरोध करना चाहिए। भारत के मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन ने भी केंद्रीय मंत्री के इस मूर्खतापूर्ण आचरण पर सख्त नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा कि हम इस तरह की किसी कोशिश को ठीक नहंी मानते। उन्होंने कहा कि ज्यादातर मंत्रियों को मालूम है कि न्यायपालिका का काम करने का तरीका क्या है और वे न्यायप्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करते लेकिन मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश से सिफारिश करने वाले मंत्री को शायद पता नहीं है। मुख्य न्यायाधीश महोदय का कहना है कि इस मामले में जो भी कार्रवाई होनी है, वह सरकार की तरफ से होगी।
जहां तक न्याय पालिका का सवाल है मद्रास हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति आर. रघुपति के कार्य की सराहना की जानी चाहिए और अन्य जजों को भी सरकारी दबाव की बात आते ही दोषी मंत्री को बेनकाब करना चाहिए। इस बीच बीजेपी वाले भी राजनीति करने का मौका देख इस विवाद में कूद पड़े हैं। बीजेपी की इस लठैती को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि न्यायपालिका को सम्मान देने का उनका रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है। नए कानून मंत्री, वीरप्पा मोइली का बयान महत्वपूर्ण है।
उन्होंने कहा कि मद्रास हाईकोर्ट के जज की कोर्ट में की गई टिप्पणी को गंभीरता से लिया जाएगा जो भी जरूरी होगा, नियम कानून के दायरे में रहते हुए सरकार वह कदम उठाएगी। विवाद के केंद्र में फर्जी मार्कशीट का एक मामला है। एक व्यक्ति ने मेडिकल कालेज में दाखिले के लिए अपने बेटे की मार्कशीट में हेराफेरी की थी। पुदुचेरी विश्वविद्यालय के एक क्लर्क और एक दलाल की मदद से उसने अपने बेटे की मार्कशीट में नंबर बढ़वा लिए थे जिसकी बिना पर लड़के को मेडिकल कालेज में एडमिशन मिल गया। मामले की जांच सीबीआई के पास पहुंची। सीबीआई ने बाप बेटे के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया।
इसी मामले की अग्रिम जमानत के लिए मद्रास हाईकोर्ट में जस्टिस आर. रघुपति के सामने अर्जी विचाराधीन है। न्याय के उच्चतम आदर्शों का पालन करते हुए माननीय न्यायाधीश ने अपना कर्तव्य विधिवत निभा दिया है। अब सरकार की जिम्मेदारी है कि अज्ञानी राजनेताओं को शासन करने के तमीज सिखाए और न्यायमूर्ति रघुपति पर दबाव डालने वाले मंत्री को ऐसा सबक सिखाए कि आने वाले वक्त में किसी मंत्री की हिम्मत न पड़े कि न्यायपालिका से पंगा ले। इस अवसर का इस्तेमाल मंत्रियों के अधिकार की सीमा के बारे में एक राष्टï्रीय बहस की शुरुआत करके भी किया जा सकता है।
आम तौर पर कम शिक्षित और अज्ञानी मंत्रियों को शपथ लेते ही यह मुगालता हो जाता है कि वह सम्राट हो गए हैं। उनके दिमाग में लोकशाही व्यवस्था में शासक का तसव्वुर एक ऐसे आदमी का होता है जो ब्रिटिश शासन के दौरान सामंतों का होता था। मंत्री को लगने लगता है कि वह राजा हो गया है और उसके भौगोलिक क्षेत्र में आने वाला हर व्यक्ति उसकी प्रजा है। यहीं से गलती शुरू होती है। वह स्थानीय प्रशासन, पुलिस, व्यापारी आदि पर धौंस मारने लगता है। हालांकि उसके पास यह अधिकार नहीं होता लेकिन हजारों वर्षों तक सामंती सोच के तहत रहे समाज के लोग इसे स्वीकार कर लेते हैं। यह दूसरी गलती है।
अगर जनता के लोगों को उनका अधिकार मालूम हो, वे जागरूक हों और लोकतंत्र में मंत्री के अधिकारों की जानकारी हो तो बात यहीं संभल सकती है। लेकिन ऐसा नहीं होता। नौकरशाही और पुलिस वाले भी मंत्री के धौंस को स्वीकार कर लेते हैं। इसके बाद मंत्री के दिमाग में सत्ता का मद चढऩे लगता है और वह एक मस्त हाथी की तरह आचरण करने लगता है। दुर्भाग्य यह है कि मीडिया में भी थोक के भाव चाटुकार भर गए हैं। मीडिया का वास्तविक काम सच्चाई को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना ही है लेकिन चापलूस टाइप पत्रकार मंत्रियों की जय जयकार करने लगते हैं।
इसके बाद मंत्री का दिमाग खराब हो जाता है तो वह अजीबोगरीब हरकतें करने लगता है। कहीं अपनी मूर्तियां लगवाता है, कहीं अपने को दुर्गा माता कहलवाता है, तो कहीं अपने नाम पर हनुमान चालीसा की तर्ज पर साहित्य की रचना करवाता है। सत्ता के मद में मतवाला यह हाथी हर उस मान्यता को रौंद देता है जिसकी गरिमा की रक्षा के लिए उसे नियुक्त किया गया है। यह मंत्री सार्वजनिक संपत्ति को अपनी मानता है, सरकारी खर्चे पर चमचों और रिश्तेदारों का मनोरंजन करता है और दुनिया की हर मंहगी चीज को अपने उपभोग की सामग्री मानता है।
रिश्वत और कमीशन को अपनी आमदनी में शुमार करता है और घूस का भावार्थ कमाई बताने लगता है। यह बीमारी छोड़ती तभी है जब मंत्री जनता की फटकार पाकर पैदल हो जाता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जरूरत इस बात की है कि मंत्री को सत्ता के मद में पागल होने के पहले ही लगाम लगा दी जाए। यह काम इस देश की मीडिया और जागरुक जनता ही कर सकती है। अच्छा संयोग है कि मद्रास हाईकोर्ट के मामले में दखलंदाजी के मामले के प्रकाश में आने पर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद पर विराजमान हैं।
वे काफी मजबूत नेता हैं, हालांकि सरकार उतनी निर्णायक नहीं है। विवादित मामले में मंत्री कौन है, यह जानकारी अभी सार्वजनिक नहीं हुई है। इसलिए जो भी मंत्री हो उसके खिलाफ ऐसी कार्रवाई की जानी चाहिए जिससे हुकूमत का इकबाल बुलंद हो, न्याय पालिका की अथॉरिटी को कमतर करने की कोशिश दुबारा कोई भी मंत्री न कर सके। यह हमारे विकासमान लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी है।

कायर, अपराधी और निर्दयी पुलिस

गाजियाबाद के छात्र रणबीर को देहरादून पुलिस ने इनकाउंटर में मार डाला। पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद पता चला है कि लड़के को पुलिस ने प्वाइंट ब्लैंक रेंज से गोली मारी। पुलिस की बर्बरता की जब शुरुआती खबरें आने लगी थीं तो यही कहा जाता था कि ब्रिटिश राज की पुलिस लोकशाही में काम करने लायक नहीं है, इसे सेवा करने और सुरक्षा करने के लिए काम करने का प्रशिक्षण देना चाहिए। इसी तरह के और भी बहुत सारे तर्क दिए जाते थे।
लेकिन अब बात बहुत आगे निकल चुकी है। राजनीति के अपराधीकरण के बाद बहुत सारे पुलिस वालों ने ऐसे काम भी किए हैं जो बड़े बड़े अपराधियों को भी पीछे छोड़ जाने के लिए काफी है। इसलिए ब्रिटिश पुलिस बनाम लोकतांत्रिक पुलिस का तर्क बेमतलब है। कई राज्य सरकारों में ऐसे मंत्री हैं जो कई घृणित अपराधों के मुलजिम हैं, कई मंत्रियों पर हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार, आगजनी जैसे मुकदमे चल रहे हैं। लोकतंत्र में मंत्री ही सत्ता का मुखिया होता है, वही सरकार होता है।
अगर वह अपराधी है तो लोकतंत्र के तबाह होने के खतरे बढ़ जाते हैं। लोक प्रतिनिधित्व कानून और संविधान में ऐसे प्रावधान नहीं हैं कि किसी अपराधी को चुनाव लडऩे से रोका जा सके। बाद में कुछ संशोधन आदि करके बात को कुछ संभालने की कोशिश की गई है लेकिन वह अपराधियों को संसद या विधानसभा में पहुंचने से रोकने के लिए नाकाफी है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि अपराधी भी चुनाव लडऩे लगेगा। उनकी सोच थी कि अव्वल तो अपराधी चुनाव लडऩे की हिम्मत ही नहीं करेगा और अगर लड़ता भी है तो जनता उसे नकार देगी।
ऐसा हुआ नहीं। जातिपांत के दलदल में फंसे समाज में अपराधी स्वीकार्य होने लगा और एक समय तो ऐसा आया कि उत्तरप्रदेश विधानसभा में बड़ी संख्या में अपराधी पहुंचने लगे। जाहिर है कि प्रशासन का स्तर गिरना था, सो गिरा। लेकिन पुलिस को अपनी सेवा की शर्तों के हिसाब से काम करना चाहिए। जब पुलिस का अधिकारी नौकरी में आता है तो संविधान को पालन करने की शपथ लेता है किसी नेता की चापलूसी करने की शपथ नहीं लेता लेकिन नेताओं की हां में हां मिलाने वालों की पुलिस फोर्स में हो रही भरमार की वजह से देहरादून जैसी घटनाएं थोक में हो रही है जोकि अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आती हैं।
अपने देश, खासकर उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में पुलिस प्रशासन की हालत बहुत खराब है। राज्य में पुलिस की लीडरशिप बिलकुल कमजोर है। बड़े अफसर अपराध के कम करने के लिए दबाव तो बनाते हैं लेकिन इंगेजमेंट के नियमों का पालन नहीं करवाते। अपराधियों को खत्म करने के लिए फर्जी मुठभेड़ का सहारा लेते हैं। कुछ मामलों में तो अपराधियों से ही दूसरे अपराधी को मरवाते हैं। एक जो सबसे खराब बात सिस्टम में आ गई है कि अगर कोई अपराधी मारा जाता है तो आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की कल्चर के तहत अपराधी को मारने वाला प्रमोशन पा जाता है। कई बार उसे पुरस्कार भी मिल जाता है।
फर्जी मुठभेड़ के मामलों में सबसे ज्यादा योगदान प्रमोशन-एवार्ड कल्चर का है। इसके चलते चालू किस्म के पुलिस वाले जल्दबाजी में पड़कर निर्दोष लोगों को भी मार देते है। सबसे बड़ी जो गलती हो रही है, वह यह कि पुलिस वाले ठीक से मुखबिरों का विकास नहीं कर रहे है। निजी दुश्मनी के चलते कभी-कभी मुखबिर निर्दोष लोगों को मरवा देते हैं। जिले में तैनात पुलिस अधिकारियों को चाहिए कि मुखबिर व्यवस्था के विकास के लिए विभाग की तरफ से जो नियम बनाए गए हैं उसका पालन करवाएं। इनकाउंटर में भी रूल्स ऑफ इंगेजमेंट हैं। देहरादून में हुए रणबीर के $कत्ल में पुलिस प्रशासन की हर प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया है।
लड़के के शरीर पर 28 ऐसे घाव हैं जो उसके जिंदा रहते उसे पुलिस प्रताडऩा के दौरान दिए गए थे। लगता है कि किसी गलत मुखबिरी के चक्कर में रणबीर को पकड़ लिया गया था और जब उसको इतनी प्रताडऩा दी गई कि उसके बचने की उम्मीद नहीं रह गई तो उसे इनकाउंटर दिखाकर गोलियों से भून दिया गया। यह अक्षम्य अपराध है। इन पुलिस वालों से पूछा जाना चाहिए कि उनके अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार हो, तो उन्हें कैसा लगेगा।
देहरादून की घटना पुलिस प्रशासन की सरासर असफलता है और इसकी सभ्य समाज के लोगों को कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए और राज्य सरकार को चाहिए कि जिम्मेदार पुलिस वालों को दंडित करें और कमजोर अफसरों को हटाकर योग्य पुलिस वालों को तैनात करें। दंड भी ऐसा हो कि भविष्य में पुलिस वालों की हिम्मत न पड़े कि किसी निर्दोष बच्चे को बेरहमी से पीटें और उसकी जान ले लें।

भ्रष्टाचार खत्म किए बिना तरक्की नहीं

देश के हर क्षेत्र में तेजी से बदलाव की बयार बह रही है। लोकसभा चुनाव के बाद जो राजनीतिक संकेत आ रहे हैं उससे लगता है कि नई सरकार वह सब कुछ कर डालेगी, जो पिछली बार वाममोर्चा की वजह से नहीं हो पाया था। वाममोर्चे की पिछली पांच साल की राजनीति के चलते केंद्र सरकार को कुछ ऐसे फैसले करने से रोका जा सका जो अर्थ व्यवस्था की तबाह करने की क्षमता रखते थे। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य सक्षम अर्थशास्त्रियों के कारण ऐसा संभव हो सका।
पार्टी के बड़े नेता सीताराम येचुरी खुद एक अर्थशास्त्री हैं और उन्होंने अर्थशास्त्रियों की एक टीम जोड़ी है जिसमें अर्थशास्त्र के विद्वान शामिल हैं। इस बार मनमोहन-मांटेक की जोड़ी लगता है वे सारे फैसले कर लेगी जो सीताराम की टीम ने नहीं होने दिया था। कुछ लोग कह सकते हैं कि अगर इतने बढिय़ा लोग थे तो चुनाव मैदान में क्यों पिछड़ गए। इसका सीधा सा जवाब है कि वाममोर्चे का राजनीति विंग की कमान बहुत ही जिद्दी टाइप लोगों के हाथ में है जो अपनी बात को सही साबित करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
इसीलिए पार्टी को चुनाव में सफलता नहीं मिली और राजनीतिक हैसियत भी कम हुई है। इस स्थिति का फायदा नई सरकार के लोग इस बार उठाएंगे। इमकान है कि बजट में पूंजीपति वर्ग की वे मांगे पूरी कर दी जाएंगी जिन पर साढ़े चार साल तक वामपंथी लगाम लगी थी। मजदूरों की छंटनी वाला तथाकथित श्रमसुधार कानून भी पास कराया जा सकता है। वामपंथी नेताओं की समझ में शायद यह बात आने लगी है कि सरकार को गिराने की कोशिश में पार्टी के शीर्ष नेता की जिद को मानकर राजनीतिक गलती हुई थी। देखना यह है कि यह गलती ऐतिहासिक भूल का ओहदा हासिल करने में कितना वक्त लेती है।
कम्युनिस्टों के कंट्रोल से आजाद होकर नई सरकार ने कुछ अच्छे काम करने की योजना भी बनाई है। देश भर में सभी नागरिकों को पहचान-पत्र जारी करने की योजना ऐसी ही एक योजना है। इस काम के लिए निजी क्षेत्र की सबसे सफल कंपनी के उच्च अधिकारी नंदन नीलेकणी को बुलाकर प्रधानमंत्री ने साफ ऐलान कर दिया है कि जो भी नए पद सृजित किए जाएंगे वे सभी आई.ए.एस. बिरादरी की पिकनिक के लिए ही नहीं आरक्षित रहेंगे।
अब महत्वपूर्ण पदों पर गैर आई.ए.एस. लोगों को भी रखा जाएगा। आई.ए.एस. अफसरों को और भी चेतावनी दी जा रही है। मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने साफ घोषणा कर दी कि आई.ए.एस. अधिकारियों को शासक नहीं, सेवक के रूप में काम करना पड़ेगा। इससे भी बड़ी बात यह है कि मूल रूप से रिश्वत के प्रायोजक के रूप में कुख्यात नौकरशाही को अब भ्रष्टाचार के कैंसर से निजात पाना होगा। मसूरी में आई.ए.एस. अफसरों को राष्ट्रपति जी ने बताया कि लीक पर चलते हुए सांचाबद्घ सोच वाले अफसरों के लिए अब सिस्टम में जगह कम पड़ती जायेगी।
नौकरशाही को अब विकास के प्रेरक और प्रायोजक के रूप में काम करना पड़ेगा। श्रीमती पाटिल ने जब यह कहा कि सूचना का अधिकार कानून आ जाने के बाद हालात बदल गए हैं तो वे सूचना को दबाकर मनमानी करने वाली नौकरशाही के आइना दिखा रही थीं। अब जनता को सब कुछ पता चल जाता है लिहाजा आई.ए.एस. अफसरों की भलाई इसी में है कि भ्रष्टाचार का तंत्र खत्म करें। उन्होंने कहा कि सरकार ने फैसला किया है कि आम आदमी की जिंदगी में सकारात्मक परिवर्तन लाया जाएगा और सबको विकास के अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे।
सरकार ने आर्थिक और सामाजिक विकास का एक लक्ष्य निर्धारित किया है जो इंसाफ की बुनियाद पर हासिल किया जायेगा। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन अधिकारियों की जरूरत नहीं है जो लाल फीताशाही वाली सोच के अधीन रहकर काम करते हैं। हमें ऐसे अफसर चाहिए जो सीमा में रहकर आम आदमी के विकास के लिए नई नई तरकीबें ढूंढ सकें। अफसरों को अब लोगों के सेवक के रूप में काम करना पड़ेगा, शासक के रूप में नहीं है। इसके लिए मित्रता के माहौल में सबको साथ लेकर चलने की आदत डालना पड़ेगा।
राष्ट्रपति ने चेतावनी दी कि सबको पता है कि विकास कार्यों के लिए निर्धारित पैसा उन तक नहीं पहुंचता और वह सिस्टम से ही चोरी हो जाता है। यह बहुत ही गंभीर बात है। अफसरों को इस पर नियंत्रण रखना चाहिए। ज़ाहिर है राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल अपना लिखा हुआ भाषण पढ़ रही थीं जो किसी नौकरशाह के परिश्रम का फल था, वरना यह कहना कि सिस्टम से चोरी हो रहे पैसे को बचाना आपका जिम्मा है, बिलकुल अजीब बात है। जब सारे देश को मालूम है कि सिस्टम से पैसा किस तरह से चोरी होता है तो क्या राष्ट्रपति महोदया को यह सच्चाई नहीं मालूम है।
जरूरत इस बात की है कि घूस के राक्षस को काबू में करने के लिए अब घुमाफिरा कर बात करने की जरूरत नहीं है, उस पर सामने से हमला करना होगा। इस बार सरकार यह भी नहीं कह सकती कि वामपंथियों का सहयोग नहीं मिल रहा है क्योंकि अब तो सरकार को समर्थन दे रही हर पार्टी कांग्रेस की हां में हां मिला रही है। और जब पश्चिमी पूंजीपति देशों की पसंद की आर्थिक नीतियां बनाई जा सकती हैं तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान क्यों नहीं चलाया जा सकता। यह किसी भी जिम्मेदार प्रशासन के अस्तित्व की जरूरी शर्त भी है।
पिछली सरकार में कम्युनिस्टों के अड़ंगे की बात करके बहुत कुछ बचत कर ली गई थी लेकिन इस बार कम्युनिस्ट नहीं हैं और अगर अफसरों के भ्रष्टाचार पर काबू पाने में आंशिक सफलता भी मिल गई तो सरकार अपना मकसद हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ सकेगी। यह अलग बात है कि सरकार के शीर्ष पर बैठे लोगों की विचारधारा ही ऐसी है कि विकास का पैमाना पूंजीपति वर्ग का विकास ही माना जाएगा। इस सिद्घांत के अनुसार जब औद्योगिक विकास से पूंजीपति वर्ग की सम्पन्ना बढ़ती हैं तो गरीब आदमी को कुछ न कुछ फायदा हो हो ही जाता है।
ज़ाहिर है कि शासक वर्ग की आर्थिक विचारधारा को तो बदला नहीं जा सकता लेकिन जो भी विचारधारा है उसके हिसाब से भी सफलता मिले तो राष्ट्रहित तो होगा ही। लेकिन अगर भ्रष्टाचार को कम करने में सफलता नहीं मिली तो केंद्र सरकार की भी वही दुर्दशा होगी जो उत्तरप्रदेश की मौजूदा सरकार की हो रही है।

ममता की रेल

तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने रेलमंत्री की हैसियत से अपना पहला रेल बजट अपनी जनवादी छवि के अनुरुप ही पेश किया है। जिसका निश्चित रूप से स्वागत किया जाना चाहिए। भारतीय रेल देश का सबसे बड़ा रेल तंत्र है जो एक प्रबंधन के अंतर्गत काम करता है। उसका सामाजिक दायित्व भी व्यापक है क्योंकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक रेल संचालन के माध्यम से देश को एक सूत्र में बांधे रखने की बड़ी जिम्मेदारी भी भारतीय रेल पर है।
प्रतिदिन लाखों लोगों का आवागमन इसी रेल पर निर्भर है। रेलमंत्री का अपने बजटीय भाषण में यह कहना कतई न्यायोचित है कि जिस तरह लोकतंत्र में सबको वोट देने का अधिकार है उसी तरह विकास का अधिकार भी आम इंसान को मिलना चाहिए। गठबंधन सरकारों में रेल मंत्रालय अधिकतर घटक दलों के पास ही रहा है। केन्द्र में यूपीए की विगत सरकार में रेलमंत्री का पद राजद नेता लालू प्रसाद यादव के पास रहा।
उन्होंने पांच वर्ष के कार्यकाल में भारतीय रेल की कायापलट करने में काफी नाम कमाया और घाटे में चल रहे रेलवे को बड़े मुनाफे में बदला, जिसकी प्रशंसा विदेशों में भी हुयी और विभिन्न देशों के प्रतिनिधिमंडल लालू यादव से प्रबंधन के गुर सीखने भी भारत आए। इसलिए बात अगर रेलवे के आर्थिक विकास की आएगी तो उसका श्रेय लालू यादव अवश्य ही लेगे। पूर्व रेलमंत्री लालू यादव भी खुद को गरीबों का मसीहा कहते थे इसलिए उन्होंने अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में रेल किरायों में वृद्घि नहीं होने दी।
अब इन हालात में ममता बनर्जी के सामने रेल बजट को एक नए रूप में पेश करने की बड़ी चुनौती थी। ममता के बजट में भी रेल किरायों में कोई वृद्घि नहीं की गयी है इसीके साथ व्यापक घोषणाएं भी है और लोकलुभावन वायदे भी। लेकिन ममता का सारा ध्यान यात्री सुविधाओं के ऊपर है, अगर इस दिशा में अपनी कार्यशैली के अनुसार वो व्यापक और कारगर कदम उठाती हैं तो निश्चित रूप से इसे आम आदमी का बजट कहा जाएगा। दअसल अब तक होता ये रहा है कि रेलमंत्री अपने बजट में लंबी चौड़ी घोषणाएं कर देते है और नई-नई रेलगाडिय़ां भी चला दी जाती है।
लेकिन इसके विपरीत रेलों में जन सुविधाओं का निरंतर हृास होता जा रहा है। रेलवे के सामने सबसे बड़ी चुनौती सुरक्षित यात्रा प्रदान करने की है। विगत वर्षो में रेलगाडिय़ां व रेल परिसरों में हत्या, बलात्कार, लूटपाट, निर्बल यात्रियों को चलती गाड़ी से बाहर फेंकने, उनके सामान की झपटमारी जैसी घटनाओं ने जहां यात्रियों को भयभीत किया वहीं रेलवे प्रबंधन को भी हिलाकर रख दिया। इसलिए रेल किराया नहीं बढ़ा, अच्छी बात है, मगर इससे अधिक महत्वपूर्ण बात सुरक्षित यात्रा की है जिस पर आम व खास दोनों की ही नज़र है।
देश की आबादी का बड़ा हिस्सा एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश रोजी रोटी की खातिर कमाने के लिए जाता है और वो अपनी कमाई का बाकी हिस्सा सुरक्षित अपने प्रदेश लेकर लोट जाए तो इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है। रेलगाडिय़ो में बढ़ते अपराध और वर्दीधारियों द्वारा सामान तलाशी के नाम पर यात्रियों से अवैध वसूली और न देने की सूरत में उन्हें गाड़ी से उतार देने की क्रूरतम वारदात आए दिन खबरों में रहती है, निश्चित रूप से ये स्थिति अत्यंत दुखदायी हैं।
लेकिन खेदजनक पहलू यह है कि सुरक्षित यात्रा पर अभी तक रेलवे द्वारा गंभीर और सार्थक प्रयास नहीं किए गए, प्राय: इस की जिम्मेदारी राज्यों पर डालकर रेलमंत्री अपना पल्ला झाड़ते रहे है। वर्ष 2005-08 तक रेल यात्राओं के दौरान 859 हत्याएं, बलात्कार की 137 तथा डकैती की 462 घटनाएं हुयी। लूटपाट की 1200 और नशाखोरी की 2100 से अधिक घटनाएं हुयी। सामान चोरी व अन्य अपराधों के 60 हज़ार से अधिक मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा छिटपुट घटनाओं की गिनती ही क्या? ममता बनर्जी की रेल मंत्रालय की चाहत पुरानी है जो अब पूरी हो गयी है इसलिए आम जनता भी ये जानने और अनुभव करने की इच्छुक है कि आखिर एनडीए के कार्यकाल में ममता बनर्जी रेल मंत्रालय लेने पर क्यों अड़ गयी थी और वो मुराद अब यूपीए शासन में पूरी हो गयी है तो वो क्या खास करके दिखाएंगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ममता बनर्जी पं. बंगाल की ज़मीन से जुड़ी हुयी जुझारू नेता है, जो ईमानदार भी हैं और कर्मठ भी है। 1970 में एक युवा महिला के रूप में कांग्रेस पार्टी से अपना राजनीतिक कैरियर शुरू करने वाली ममता बनर्जी 1984 के संसदीय चुनाव में सीपीएम के बड़े नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर संसद में पहुंचने वाली सबसे कम उम्र की सांसद बनी थीं। उसके बाद वो पांचवी बार दक्षिण कोलकता से संसद पहुंची है।
1997 में रेलवे बजट में बंगाल की उपेक्षा करने के कारण रेल बजट प्रस्तुत कर रहे रेलमंत्री रामविलास पासवान पर गुस्से में वो अपनी शाल फेंक चुकी है इसीलिए अपने रेल बजट में उन्होंने देश के सभी अंचलों का विशेष ध्यान रखा है। युवाओं की राजनीति में बढ़ती भागीदारी और पं. बंगाल में विधानसभा चुनावों को सामने रखकर उन्होंने एक युवा रेलगाड़ी चलाने की घोषणा भी की है। 1500 रुपये मासिक आय वालों के लिए 'इज्जत' नामक स्कीम के साथ 25 रुपये का मासिक सीजन टिकट भी उनके जन बजट की विशेषता है।
ममता ने रेल यात्री सुविधाओं, आरक्षण की समस्याओं, रेल में जनता भोजन, व सफाई व्यवस्था में सुधार पर अत्यधिक ज़ोर दिया है। यह तमाम समस्याएं है जिनका समाधान अगर कारगर ढंग से हो जाए तो निश्चित रूप से ममता बनर्जी की जय-जयकार होगी क्योंकि आम आदमी सुविधापूर्वक व सुरक्षित तरीके से यात्रा चाहता है। लेकिन उसकी इन मूल समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। गाडियां बढ़ें या न बढ़ें लेकिन जनता को वाजिब सुविधा तो मिलना ही चाहिए। अब देखना यह है कि ममता बनर्जी अपनी घोषणाओं पर कितना खरा उतरती है।

बाबरी मस्जिद, सियासत और गुमनाम नेता

बाबरी मस्जिद की शहादत के करीब साढ़े सोलह साल बाद मस्जिद के विध्वंस की साजिश रचने वालों के रोल की जांच करने के लिए बनाए गए लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट आई है। लिब्राहन आयोग को तीन महीने के अंदर अपनी जांच पूरी करने का आदेश हुआ था। उन्हें केवल साजिश के बारे में जांच करना था लेकिन मामला बढ़ता गया, और कमीशन के कार्यकाल में 48 बार बढ़ोतरी की गई। करीब 400 बार सुनवाई हुई और एक रिपोर्ट सामने आ गई।
रिपोर्ट के अंदर क्या है, यह अभी सार्वजनिक डोमेन में नहीं आया है लेकिन लाल बुझक्कड़ टाइप नेताओं और पत्रकारों ने रिपोर्ट के बारे में अंदर खाने की जानकारी पर बात करना शुरू कर दिया है। ऐसा नहीं लगता कि इस रिपोर्ट में ऐसा कोई रहस्य होगा जो जनता को नहीं मालूम है। समकालीन राजनीतिक इतिहास के मामूली से मामूली जानकार को भी मालूम होगा कि बाबरी मस्जिद की शहादत की साजिश में आर.एस.एस. और उसके बड़े कार्यकर्ताओं का हाथ था।
लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार जैसे बहुत सारे संघी वफादार मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे और मस्जिद ढहाने वालों की हौसला अफजाई कर रहे थे। जिस वक्त मस्जिद जमींदोज हुई उमा भारती की खुशियों का ठिकाना नहीं था और वे कूद कर मुरली मनोहर जोशी की गोद में बैठ गई थीं और हनुमान चालीसा पढऩे लगी थीं। ऐसी बहुत ही जानकारियां हैं जो पब्लिक को मालूम हैं। मसलन कल्याण सिंह और पी.वी. नरसिम्हाराव भी साजिश में शामिल थे, यह जानकारी जनता को है। पूरी उम्मीद है कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में यह सब कुछ होगा लेकिन बहुत सारी ऐसी बातें भी हैं जो कि लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट में कहीं नहीं होंगी।
संविधान में पूजा स्थल को नुकसान पहुंचाने को अपराध माना गया है और भारतीय दंड संहिता में इस अपराध की सजा है। अदालत में मुकदमा चल रहा है और शायद अपराधियों को माकूल सजा मिलेगी। लेकिन बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वालों ने बहुत सारे ऐसे अपराध किए हैं जिनकी सजा इंसानी अदालतें नहीं दे सकतीं। बाबरी मस्जिद को ढहाने वालों ने परवरदिगार की शान में गुस्ताखी की है, उसके बंदों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है। आर.एस.एस. से जुड़े जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को शहीद करने की साजिश रची, उनको न तो इतिहास कभी माफ करेगा और न ही राम उन्हें माफी देंगे।
देश की हिंदू जनता की भावनाओं को भड़काने के लिए संघियों ने भगवान राम के नाम का इस्तेमाल किया। उन्हीं राम का जो सनातनधर्मी हिंदुओं के आराध्य देव हैं जिन्होंने कहा है कि 'पर पीड़ा सम नहिं अधमाईÓ। यानी दूसरे को तकलीफ देने से नीच कोई काम नहीं होता। राम के नाम पर रथ यात्रा निकालकर सीधे सादे हिंदू जनमानस को गुमराह करने का जो काम आडवाणी ने किया था जिसकी वजह से देश दंगों की आग में झोंक दिया गया था उसकी सजा आडवाणी को अब मिल रही है। प्रधानमंत्री बनने के अपने सपने को पूरा करने के उद्देश्य से आडवाणी ने पिछले बीस वर्षों में जो दुश्मनी का माहौल बनाया उसकी सजा उनको अब मिली है, जब प्रधानमंत्री पद का सपना एक खौफनाक ख्वाब बन गया है।
बाबरी मस्जिद के खिलाफ चले आंदोलन में विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी रितंभरा, नृत्य गोपाल दास, अशोक सिंहल जैसे लोगों ने बार-बार आम आदमी को भड़काने का काम किया था। इन लोगों की सबसे बड़ी सजा यही है कि आज इनकी किसी बात पर कोई भी हिंदू विश्वास नहीं करता। कांग्रेस में भी वीर बहादुर सिंह, अरुण नेहरू, बूटा सिंह आदि ने बढ़ चढ़कर सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति की थी। यह सारे लोग या तो हाशिए पर हैं या कहीं नहीं हैं। पी.वी. नरसिम्हाराव के बारे में भी यही कहा जाता है कि वे साजिश में शामिल थे और जिस गुमनामी में उन्होंने बाकी जिंदगी काटी, वह उस नीली छतरी वाले की बे आवाज़ लाठी की मार का ही नतीजा था। दुनिया के मालिक और उसके घर को सियासत का हिस्सा बनाने वालों को भी उसी बे आवाज लाठी की मार पड़ चुकी है। कहां हैं शहाबुद्दीन और उनके वे साथी जो अवामी और धार्मिक मसलों पर तानाशाही रवैय्या रखते थे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के ज्यादातर नेता आज गुमनामी की जिंदगी बिता रहे हैं हालांकि उन्होंने सियासी बुलंदी हासिल करने के लिए एक ऐतिहासिक मस्जिद के इर्द-गिर्द अपने तिकड़म का ताना बना बुना था।
मुसलमानों के स्वयंभू नेता बनने के चक्कर में इन तथाकथित नेताओं ने उन हिंदुओं को भी नाराज करने की कोशिश की थी जो मुसलमानों के दोस्त हैं। शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने इस देश के धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को यह तौफीक दी कि वे आर.एस.एस. के जाल बट्टे में नहीं फंसे वरना शहाबुद्दीन टाइप लोगों ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार हर राजनेता को उसी मालिक की लाठी ने ठिकाने लगा दिया है जिसमें कोई आवाज नहीं होती। जहां तक लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट का सवाल है, राजनीतिक समीकरणों पर उसका असर पड़ेगा। बीजेपी वाले चिल्ला रहे हैं कि ऐसे वक्त पर रिपोर्ट आई है जिसका उनकी अंदरूनी लड़ाई पर नकारात्मक असर पड़ेगा। आरोप लगाए जा रहे है कि कांग्रेस लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट की टाइमिंग को राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहती है। कोई इन हिंदुत्वबाज़ों से पूछे कि आपने भी तो बाबरी मस्जिद के नाम पर सियासत की थी, हिंदुओं के आराध्य देवता, भगवान राम को चुनाव में वोट बटोरने के लिए इस्तेमाल किया था, वोट हासिल करने के नाम पर हर शहर में दंगे फैलाए थे, अयोध्या से लौट रहे रामभक्तों को गोधरा में रेलगाड़ी के डिब्बे में साजिश का शिकार बनाकर, गुजरात में दुश्मनी का ज़हर बोया था और गुजरात भर में मुसलमानों को मोदी की सरकार के हमलों का शिकार बनाया था।
सच्चाई यह है कि बाबरी मस्जिद अयोध्या में चार सौ साल से मौजूद थी, लेकिन उसके नाम पर सियासत का सिलसिला 1948 से शुरू हुआ जो मस्जिद की शहादत के बाद भी जारी है। आज बीजेपी को शिकायत है कि कांग्रेस सियासत कर रही है, जबकि बीजेपी भी लगातार सियासत करती रही है। 1984 में लोकसभा की मात्र दो सीटें हासिल करने वाली बीजेपी ने केन्द्र की सत्ता तक पहुंचने की जो भी ऊर्जा हासिल की, वो बाबरी मस्जिद की सियासत से ही हासिल की थी। अब बीजेपी तबाही की तरफ बढ़ रही है जो उसके पुराने पापों का फल है। वैसे भी काठ की हांडी और धोखेबाजी की राजनीति बार-बार नहीं सफल होती, इसे बीजेपी से बेहतर कोई नहीं जानता।

Sunday, July 26, 2009

चुनाव आयोग पर हमला नहीं

मायावती ने एक बार फिर चुनाव आयोग को अपने ग़ुस्से का निशाना बनाया है। उनका आरोप है कि मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला और चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के इशारे पर काम कर रहे हैं। नवीन चावला ने साफ़ कर दिया है कि मायावती के इन बयानों के गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है।

उन्होंने कहा कि सही काम करने की चुनाव आयोग की मंशा पर उंगली उठाना ठीक नहीं है। नवीन चावला ने यह भी कहा कि 2007 के विधानसभा चुनावों के बाद मायावती इतना अभिभूत हो गई थीं कि रविवार के दिन चुनाव आयोग के दफ्तर में आईं और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए धन्यवाद दिया था।दरअसल चुनाव आयोग का ताज़ा आदेश मायावती को बुरा लगा है।

जौनपुर जि़ले में एक दलित उम्मीदवार की हत्या हो गई थी। मायावती जी के पुलिस विभाग ने जांच की और पाया कि उम्मीदवार ने आत्मा हत्या की थी। उधर उम्मीदवार के परिवार वालों और उम्मीदवार की पार्टी के राष्ट्ररीय अध्यक्ष का आरोप था कि बहुजन समाज पार्टी के बाहुबली उम्मीदवार ने पुलिस और स्थानीय प्रशासन का इस्तेमाल करके पहले तो उम्मीदवार को डराने धमकाने की कोशिश की और नाम वापसी के लिए दबाव डाला।

जब वह राज़ी नहीं हुआ तो उसकी हत्या करवा दी गई और आतंक फैलाने के उद्देश्य से लाश को पेड़ पर लटका दिया। अब आयोप के सही साबित होने की संभावना बहुत कम है क्योंकि उत्तर प्रदेश पुलिस के एक मुख्य अधिकारी ने खुद जांच कर के मामले को र$फा दफ ा कर दिया है लेकिन चुनाव आयोग ने इस बात को नोटिस किया कि जि़ले के जि़लाधीश और पुलिस अधीक्षक शक के दायरे में हैं, लिहाज़ा निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए उनको हटाया जाना ज़रूरी है।

मायावती जी को यह बात बिलकुल पसंद नहीं आई कि कोई उनकी मर्जी के खिला$फ कुछ करे। खास तौर पर अपने खास अधिकारियों की रक्षा करने के लिए व हरदम तैयार रहती हैं। ऐसी हालत में जब चुनाव आयोग के सर्वोच्च अधिकारी ने ऐसा कोई फैसला सुना दिया जो उनके अफसरों को प्रभावित करता है तो तुरंत प्रेस कांफ्रेंस करके उन्होंने हमला बोल दिया। यह अलग बात है कि उनके बयान का कोई असर नहीं हुआ। देश के विकासमान लोकतंत्र के लिए यह ज़रूरी है कि संवैधानिक संस्थाओं की इज्जत करने की परंपरा को बल दिया जाए। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट ऐसी संस्थाएं हैं जिन पर देश के लोकतंत्र को संभालने का जि़म्मा है।

ऐसी संस्थाओं पर बिना सोचे समझे गैर जि़म्मेदार तरीके से हमला नहीं किया जाना चाहिए। मायावती ने एक और सनसनीख़ेज़ खुलासा किया है। उनका कहना है कि कुछ विपक्षी राजनीतिक पार्टियां उनकी हत्या करवाना चाहती हैं। यदि उन्हें कुछ हो गया तो उसकी जि़म्मेदार विपक्षी पार्टियां होगी। यह बात भी अजीब है कि देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री इतना डर कर काम कर रही हैं। अगर वास्तव में उन्हें कोई ख़तरा है तो उनको चाहिए कि अपनी सुरक्षा की व्यवस्था और मज़बूत कर लें। आखिर सब कुछ उनके नियंत्रण में है लेकिन अगर वह ख़ुद ही अपने भय का प्रचार करेंगी तो राज्य की जनता अपनी सुरक्षा के प्रति कैसे आश्वस्त होगी।

अलविदा, इकबाल बानो

मशहूर गायिका, इकबाल बानो, नहीं रहीं। दिल्ली घराने की गायिका इकबाल बानो 1952 में पाकिस्तान चली गई थीं। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उन्हें दिल्ली घराने के उस्ताद चाँद खां से मिली थी। ठुमरी और दादरा की गायकी में इकबाल बानो उन बुलंदियों पर पहुंच गई थीं जहां रसूलन बाई, ज़ोहराबाई अंबालेवाली और अख़तरी बाई फैज़ाबादी विराजवती थीं। 1952 में शादी करके पाकिस्तान जाने के पहले आकाशवाणी में भी गायिका के रूप में काम कर चुकी थीं। पाकिस्तान जाने के बाद उन्होंने रेडियो पाकिस्तान से रिश्ता बनाया और पाकिस्तान में कई पीढिय़ों की प्रिय कलाकार रहीं।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की गज़लों की सबसे बेहतरीन गायिका के रूप में उनकी पहचान होती है। पाकिस्तानी राजनीति में एक ऐसा भी मुकाम आया जब इकबाल बानो की आवाज़ तानाशाही के विरुद्घ उठ रही सबसे बुलंद आवाज़ मानी जाने लगी। और तानाशाही के दौर में फैज़ की मशहूर नज्म 'हम देखेगे की पंक्तियां ' सब ताज उछाले जाएंगे सब तख्त गिराए जाएंगे को करीब एक लाख लोगों की भीड़ के सामने इकबाल बानो ने गाया तो पूरी भीड़ उठ खड़ी हुई थीं और एक स्वर में सबने कहा था 'हम देखेंगे। पाकिस्तान में इकबाल बानो ने फिल्मी संगीत की दुनिया में भी एक हैसियत बना ली थी।

पाकिस्तान में पचास के दशक की नामी फिल्मों गुमनाम, कातिल, इंतक़ाम, सरफरोश और नागिन में गाए गए उनके गीत अमर संगीत की श्रेणी में गिने जाते हैं।पाकिस्तानी अवाम के साथ इकबाल बानो उस दौर में खड़ी हो गईं जब वहां जनरल जियाउलहक की हुकूमत थी। फौजी तानाशाही के बूटों तले रौंदी जा रही पाकिस्तानी जनता को इकबाल बानो की आवाज में एक बड़ा सहारा मिला जब उन्होंने 1981 में फैज की गजलें और नजमें गाना शुरू किया और तानाशाही के खिलाफ शुरू हुए प्रतिरोध को आवाज दी।

यह वह दौर था जब जनरल जिय़ा ने हर उस इंसान को वतन छोडऩे को मजबूर कर दिया था, जो इंसाफ पसंद था। फैज़ अहमद फैज खुद बेरूत में निर्वासित जीवन बिता रहे थे। पाकिस्तान में गजल गायकी को बुलंदियों पर पहुंचाने वाली इकबाल बानों का भारत, खासकर दिल्ली से बहुत गहरा संबंध था। उन्होंने यहीं तालीम पाई, यहीं उनका बचपन बीता और दिल्ली की आबो हवा ने इस महान गायिका को अपने आपको संवारने में मदद की। दिल्ली की इस बेटी के चले जाने पर उनके वतन पाकिस्तान में तो उन्हें याद किया ही जाएगा लेकिन उनके मायके और बचपन के शहर दिल्ली में भी बहुत सारे लोगों को तकलीफ़ होगी जो उनके प्रशंसक थे या उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानते थे।

क्या शरीफ हो गए वरुण?

बीसदिन जेल में रहने के बाद वापस लौटे वरुण गांधी ने आगे से अहिंसा के रास्ते पर चलने का $फैसला किया है। पीलीभीत में पर्चा दाखि़ल करने गए वरुण गांधी ने कहा कि अब अहिंसा ही उनका धर्म है। भारतीय परंपरा में प्रायश्चित्त का बहुत महत्व है क्योंकि प्रायश्चित्त करने वाला अपने पुराने पाप से छुट्टïी पा जाता है। अभी एक महीने से थोड़ा ज्यादा वक़्त हुआ जब वरुण गांधी लोगों के हाथ काटने पर आमादा थे।

लेकिन अब वे अहिंसा की बात कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि 20 दिन में ही यह क्रांतिकारी सुधार कैसे आ गया। पीलीभीत की सभा में वरुण गांधी ने कहा था कि उनके जेल जाने के बाद उनकी मां बहुत रोईं। बेटे के जेल जाने से बहुत दुखी थीं। हो सकता है कि अपनी मां के आंसुओं को देखकर वरुण गांधी ने बर्बरता की जि़न्दगी तर्क करने का फै़सला कर लिया हो। लेकिन मां के आंसुओं में भी उनकी व्यापारिक बुद्घि उनके साथ रही। उन्होंने पीलीभीत की जनता से अपील कर डाली की उनकी माता जी के आंसुओं के बदले उन्हें लोकसभा सदस्य बनाकर भेज दें।

यहां यह सवाल पूछना ज़रूरी है कि उनकी माता और पिता के दंभ और जि़द के चलते जिन हज़ारों लोगों को इमरजेंसी में जेल भेजा गया, उनके आंसुओं की भी कोई $कीमत है क्या? वरुण गांधी के अहिंसक होने की बात पर विश्वास करने के कोई ख़ास कारण तो नहीं हैं, लेकिन अगर मान भी लिया जाय तो इस बात की पूरी संभावना है कि एटा जेल में मच्छरों ने भी वरुण को हृदय परिवर्तन के लिए बाध्य किया हो। जानकार बताते हैं कि वरुण गांधी और उनकी माता जी की मूल योजना यह थी कि पीलीभीत में उनकी गिरफ्तारी होगी और अगले दिन ज़मानत हो जाएगी।

जेल यात्रा का तमगा लेकर वरुण गांधी बी जे पी के पोस्टर बालक बनकर चल पड़ेंगे, प्रचार अभियान में और चुनाव ख़त्म होने तक हीरो बन जायेंगे। उनको क्या पता था कि मायावती उनको जेल में ठूंस देगी और ऐसी धाराओं में जिनमें ज़मानत ही नहीं होती। यह तो शायद मच्छरों और उनकी माता जी के आंसुओं का असर था कि बेचारे वरुण ने बार बार मा$फी मांगी और जेल से जान बचाकर भागे। सुप्रीम कोर्ट में मा$फी मांगने के बाद वरुण गांधी को एटा और पीलीभीत में भी माफ़ी मांगनी पड़ी तब जाकर कहीं खुली हवा में सांस ले सके।तीसरी बात जो एक बर्बर राजनेता को अहिंसक बना सकती है वह है कि उसके जेल जाने के पहले के कारनामों के प्रायोजकों का रवैया।

आर एस एस और बी जे पी वाले वरुण गांधी को नरेंद्र मोदी और प्रवीन टोगडिय़ा की श्रेणी का नेता बनाना चाहते थे लेकिन जब संघ परिवार ने देखा कि वरुण तो अब लंबे वक्त के लिए अंदर गए तो उन लोगों ने पल्ला झाड़ लिया। इस बात से भी मां बेटे दुखी बताए जाते हैं। जो भी हो अगर अपने को अहिंसक बताकर वे लोगों को गाफिल करने की साजि़श नहीं कर रहे हैं तो उनके लिए अच्छी बात है। और अगर ऐसा होता है तो उनकी मां के आंसू और मच्छरों का ही योगदान एक हिंसक व्यक्ति को अहिंसा के रास्ते पर जाने के बारे में महत्वपूर्ण होगा।

शेखचिल्ली के वारिस

अगर शेखचिल्ली जिंदा होते तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना गुरू मान लेते। सोनिया गांधी गुजरात के चुनावी दौरे पर जाने वाली हैं और नरेंद्र मोदी ने उन्हें चेतावनी दी है कि गुजरात संभलकर आएं। गोया गुजरात मोदी साहब की जागीर है और अगर कोई वहां जाता है तो उसे मोदी से अनुमति लेनी होगी।

पहले वास्तविकता पर गौर कर लेना चाहिए। नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हैं और जिस सोनिया गांधी के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, उनके खिलाफ मोदी की पार्टी पिछले दस वर्षों से नफरत की राजनीति कर रही है। जिस प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के राष्टï्रीय नेता, लालकृष्ण आडवाणी गली-गली घूम रहे हैं, उसी प्रधानमंत्री पद को सोनिया गांधी ने स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। 2004 के चुनावों में बीजेपी और उसके साथ सत्ता का सुख भोग रही पार्टियों ने सारी ताकत झोंक दी थी लेकिन सोनिया गांधी की पार्टी ने केन्द्र में सरकार बना ली थी। यह साफ कर देना जरूरी है कि सोनिया गांधी या उनकी पार्टी दूध के धुले नहीं हैं। पंजाब, असम और तमिलनाडु में आतंकवाद को बढ़ावा देने में उनकी पार्टी और उनके परिवार का योगदान कम नहीं है।

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय, केंद्र में उनकी पार्टी की सरकार थी, प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेस का कब्ज़ा था, लेकिन उत्तरप्रदेश के उस वक्त के भाजपाई मुख्यमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट को अंधेरे में रखकर बाबरी मसजिद ढहा दी। देश में भ्रष्टाचार की जो परंपरा है उसमें कांग्रेसी नेता भी भाजपा के नेताओं से कम नहीं है। इस सबके बावजूद भी राजनीतिक रूप से मोदी की वह औकात नहीं है कि वह सोनिया गांधी को धमकाएं। मोदी और उनकी पार्टी के ऊपर दंगों को भड़काने वाली पार्टी होने का आरोप लगता रहा है। देश में 1927 के नागपुर दंगे के बाद हुए ज्यादातर दंगों में आरएसएस के लोग शामिल रहे हैं। गुजरात में 2002 में जो कारनामा मोदी ने किया, उसकी वजह से दुनिया भर के सामने भारत का सिर नीचा हो गया और जब मोदी पर बड़बोलेपन का दौरा पड़ता है तो वह सब कुछ भूल जाते हैं।

जिस विकास की बात मोदी कर रहे है वह गुजरात में हमेशा से ही रहा है। गुजरात के नेताओं हितेंद्र देसाई और मोरारजी देसाई के समय में गुजरात में जो विकास हुआ था, मोदी का विकास उसके सामने कुछ नहीं है। लेकिन सोनिया गांधी को दी गई नरेंद्र मोदी की धमकी को गंभीरता से लेने की जरूरत है। सोनिया की प्रस्तावित यात्रा के नतीजों से मोदी डर गए हैं और आशंका यह है कि वे सोनिया गांधी की सभा में अपने कुछ लोगों को भेजकर सवाल पूछने के बहाने उत्पात करने को कह सकते है। इसलिए कांग्रेस, सोनिया गांधी और केंद्र सरकार को चौकन्ना रहने की जरूरत है। मोदी एक बहुत ही शातिर दिमाग के मालिक हैं और वह कोई भी शरारत करवा सकते है।

बटला हाउस चुनावी नहीं इंसानी मुद्दा

जामिया मिल्लिया इसलामिया के करीब बटला हाउस का इलाका पिछले साल चर्चा में आ गया जब दिल्ली पुलिस ने दावा किया कि वहां एक घर में छुपे हुए आतंकवादियों को पुलिस ने घेर लिया, दो लडक़ों को मार गिराया और बाकी भाग निकले। इस कथित मुठभेड़ में पुलिस का एक इंस्पेक्टर भी मारा गया। परिस्थितियां ऐसी थीं कि पुलिस की बात पर सहसा विश्वास नहीं हुआ। मारे गए लडक़े उत्तरप्रदेश के आज़म गढ़ जिले के थे और उनके रिश्तेदारों के अनुसार वे दिल्ली में पढ़ाई करने आए थे।
हर मुसलमान को आतंकवादी करार देने के लिए व्याकुल बीजेपी इस कांड को मुद्दा बनाने में जुट गई और दिल्ली पुलिस के उस इंस्पेक्टर को हिंदुत्व का हीरो बनाने की कोशिश शुरू कर दी जिसे बीजेपी का कोई नेता जानता तक नहीं था। बीजेपी की इस कोशिश को लगाम तब लगी जब इंस्पेक्टर के परिवार वालों ने बी जे पी इन कोशिशों को $गलत बताया लेकिन राजनीति चलती रही। आज़मगढ़ के मूल निवासी और समाजवादी पार्टी के महासचिव, अमर सिंह ने भी रुचि लेना शुरू कर दिया। जब बटला हाउस गए तो लोगों ने उनसे जो बताया उससे वे चिंतित हुए। दूध का दूध और पानी का पानी कर देने की गरज़ से घटना की न्यायिक जांच की मांग कर दी।

उन्होंने यह भी कहा कि यह इसलिए ज़रूरी है कि ओखला, आज़मगढ़ और पूरे देश के अल्प संख्यकों में यह भरोसा पैदा करना ज़रूरी है कि उनके साथ न्याय हो रहा है। सारी दुनिया के संघी, अमर सिंह पर टूट पड़े और उनको बिलकुल घेर लिया। हिन्दुओं के दुश्मन के रूप में पेश करने की कोशिश की और एक पुलिस ज्यादती की घटना को हिंदू बनाम मुसलमान रंग देने की कोशिश की। अमर सिंह ने सफाई दी कि वह बटला हाउस के इनकांउन्टर को अभी फर्जी नहीं बता रहे हैं। लेकिन उस वारदात की वजह से अल्पसंख्यकों में जो असुरक्षा का भाव आया है, उसे कम करने की कोशिश की जानी चाहिए। अमर सिंह ने साफ किया कि बीजेपी के नेताओं के आरोप बेबुनियाद है कि वे वोट बैंक राजनीतिक कर रहे हैं।

उनका कहना था कि आज़मगढ़ के दो नौजवानों और पुलिस के एक अफसर की हत्या के बारे में पुलिस द्वारा दी जा रही कहानी किसी के गले के नीचे नहीं उतर रही है और न्याय का तकाजा है कि इस मामले की न्यायिक जांच की जाय। इसके बाद हुए दिल्ली के विधानसभा चुनाव में अमर सिंह ने अपने इस रुख पर वोट लेने की कोशिश नहीं की ओर साफ कर दिया कि बटला हाउस मामले पर उनका रुख इंसानी फर्ज था, वोट बैंक राजनीति नहीं। संघी राजनीति में किसी भी मुद्दे को तब तक जिंदा रखा जाता है जब तक उसमें जान रहे। दिल्ली के सत्ता के गलियारों और मीडिया के दफ्तरों में आजकल बटला हाउस के हत्याकांड को हलका करने की कोशिश चल रही है। इस मामले में कांग्रेस और भाजपा प्रेमी पत्रकार एकजुट हैं।

एक बड़े अखबार में ख़बर छप गई है कि जामिया नगर और ओखला के इला$के में रहने वाले मुसलमानों के लिए बटला हाउस कोई मुद्दा नहीं है, उन्हें तो बिजली, सडक़ पानी के मुद्दो को ध्यान में रखकर वोट देना है। इस तरह का रुख मानवीय संवेदनाओं के साथ छिछोरापन है और इस पर रोक लगनी चाहिए। निर्दोष मुसलमानों को मारकर बिजली, सडक़ और पानी की रिश्वत देने की कोशिश हर स्तर पर विरोध होना चाहिए।

प्रधानमंत्री कौन? मोदी या आडवाणी

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी बहुत बुरे फंस गये हैं। पिछले पांच साल से मनमोहन सिंह को कमजोर और अपने को बहुत भारी सूरमा बताने वाले प्रधानमंत्री इन वेटिंग बेचारे अपनों की नजर में ही गिर गए हैं। कांग्रेस और मनमोहन सिंह पर अपनी कल्पना शक्ति की ताकत के आधार पर तरह-तरह के आरोपों से विभूषित कर रहे, आडवाणी पर पिछले एक महीने से कांग्रेस ने हमले तेज कर दिए।

कांग्रेसी हमलों की खासियत यह थी, कि वह सचाई पर आधारित थे। कंदहार में आडवाणी की पार्टी की सरकार का शर्मनाक कारनामा, संसद पर हुआ आतंकी हमला और लाल किले पर हुए हमले पर जब कांग्रेसी नेताओं ने विस्तार से चर्चा करनी शुरू की तो आडवाणी और उनकी पार्टी के सामने बगलें झांकने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। मीडिया में नौकरी करने वाले संघ के कार्यकर्ताओं तक के लिए मुश्किल पैदा हो गयी कि आडवाणी जैसे कमजोर आदमी का पक्ष कैसे लिया जाय। मजबूत नेता के रूप में आडवाणी की पेश करने के चक्कर में जो अरबों रूपए विज्ञापनों पर खर्च किये गए हैं उस पर पानी फिर गया।

सचाई यह है कि कांग्रेसी हमलों को मीडिया ने जिस तरह की कवरेज दी, उससे आडवाणी का व्यक्ति एक बहुत ही कमजोर आदमी के रूप में उभर कर आई। और उनको फोकस में रखकर चुनाव अभियान चलाने की बीजेपी कोशिश ज़मींदोज़ हो गई। इस सचाई का इमकान होने के बाद बीजेपी के चुनाव प्रबंधकों में हडक़ंप मच गया। बीजेपी के प्रचार की कमान का संचालन कर रहे तथाकथित वार रूम की ओर से काफी सोच विचार के बाद नया शिगूफा डिजाइन किया गया और मोदी के नाम को आगे करने की कवायद शुरू हो गई।

काफी सोच विचार के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम आगे बढ़ाया गया। हालांकि उसके साथ यह भी कहा जा रहा है कि आडवाणी के बाद मोदी प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार होंगे। बीजेपी के अधिकारिक प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने दिल्ली में पत्रकारों को बताया कि मोदी में प्रधानमंत्री पद बनने के सारे गुण हैं और आडवाणी के बाद पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने पर विचार कर सकती है। यहां यह बात अपने आप में हास्यास्पद है कि जिस पार्टी का जनाधार लगातार गिर रहा है और जिसे 16 मई के दिन 100 की संख्या पार करना पहाड़ हो जायेगा, वह प्रधानमंत्री पद पर आडवाणी को बैठाने के बाद मोदी को लादने की योजना बना रही है।

अजीब बात यह है कि चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री पद के अगले दावेदार की चर्चा क्यों शुरू कर दी गई। इस बात पर गौर करने पर बीजेपी की उस मानसिकता के बारे में जानकारी मिल जायेगी, जिसे हारे हुए इंसान की मानसिकता के नाम से जाना जाता है। दो दौर के चुनावों के बाद जो संकेत आ रहे हैं, उससे अंदाज लग गया है कि बीजेपी की सीटें घट रही हैं। एक हताश सेना की तरह बीजेपी ने लड़ाई के दौरान सिपहसालार बदलने की कोशिश की है। बाकी कोई मुद्दा तो चला नहीं, मंहगाई, आतंकवाद जैसे मुद्दों को चलने की कोशिश तो बीजेपी ने की लेकिन इन दोनों के घेरे में वे ही फंस गए।

मालेगांव के आतंकवादी हमले के लिए बीजेपी के ही सदस्य पकड़ लिए गए। आतंकवाद से लडऩे की बीजेपी की क्षमता की भी धज्जियां उड़ गईं जब कंदहार का अपमान, संसद का हमला और लाल किले का हमला सीधे-सीधे आडवाणी के गले की माला बन गया। बीजेपी मैनेजमेंट ने आडवाणी से जान छुड़ाना ही बेहतर समझा और मोदी को आगे कर दिया। रणनीति में इस बदलाव का सीधा असर लालकृष्ण आडवाणी पर भी पड़ा और वे पिछले दो दिनों से कहते पाए जा रहे हैं कि इस चुनाव के बाद सन्यास ले लूंगा।