Saturday, August 1, 2009

बलराज मधोक से एलके आडवाणी तक

आज की भारतीय जनता पार्टी अपने पूर्व अवतार में भारतीय जनसंघ नाम से जानी जाती थी। 60 के दशक में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद जब कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई तो जनसंघ एक महत्वपूर्ण पार्टी के रूप में उभरी। जनसंघ के बड़े नेता थे, प्रो. बलराज मधोक। 1967 में इनके नेतृत्व में ही जनसंघ ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था और उत्तर भारत में कांग्रेस के विकल्प के रूप में आगे बढ़ रही थी लेकिन 1971 के लोकसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से हार गई।

बलराज मधोक भी चुनाव हार गए, उनकी पार्टी में घमासान शुरू हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी नए नेता के रूप में उभरे और बलराज मधोक को जनसंघ से निकाल दिया। पार्टी से निकाले जाने के पहले बलराज मधोक ने 1971 के चुनावों की ऐसी व्याख्या की थी जिसे समकालीन राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी बहुत ही कुतूहल से याद करते है। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और उनकी पार्टी भारी बहुमत से विजयी रही। भारतीय जनसंघ को भारी नुकसान हुआ लेकिन मधोक हार मानने को तैयार नहीं थे।

उन्होंने एक आरोप लगाया कि चुनाव में प्रयोग हुए मतपत्रों में ऐसा केमिकल लगा दिया गया था जिसकी वजह से, वोट देते समय मतदाता चाहे जिस निशान पर मुहर लगाता था, मुहर की स्याही खिंचकर इंदिरा गांधी के चुनाव निशान गाय बछड़ा पर ही पहुंच जाती थी। इस तरह का काम कांग्रेस और चुनाव आयोग ने पूरे देश में करवा रखा था। बलराज मधोक ने कहा कि वास्तव में कांग्रेस चुनाव जीती नहीं है, केमिकल लगे मतपत्रों की हेराफेरी की वजह से कांग्रेस को बहुमत मिला है। मधोक के इस सिद्घांत को आम तौर पर हास्यास्पद माना गया।

इसके कुछ समय बाद ही उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। बैलट पेपर पर केमिकल की बात अब तक भारतीय राजनीति में चुटकुले के रूप में इस्तेमाल होती रही है। लोकसभा चुनाव 2009 के बाद भी कांग्रेस को सीटें उसकी उम्मीद से ज्यादा ही मिली हैं। बीजेपी के नेताओं की उम्मीद से तो दुगुनी ज्यादा सीटें कांग्रेस को मिली हैं। बीजेपी वाले चुनाव नतीजों के आने के बाद दंग रह गए। कुछ दिन तो शांत रहे लेकिन थोड़ा संभल जाने के बाद पार्टी के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया कि चुनाव में जो इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन इस्तेमाल की गई उसकी चिप के साथ बड़े पैमाने पर हेराफेरी की गई थी लिहाजा कांग्रेस को आराम से सरकार चलाने लायक बहुमत मिल गया और आडवाणी जी प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। उसके बाद तेलुगू देशम और राष्ट्रीय जनता दल ने भी यही बात कहना शुरू कर दिया।

ताजा खबर यह है कि दक्षिण मुंबई से शिवसेना के पराजित उम्मीदवार मोहन रावले ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है और प्रार्थना की है कि पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव रद्द कर दिया जाय। उनका कहना है कि ईवीएम से चुनाव करवाने में पूरी तरह से हेराफेरी की गई है। अपने चुनाव क्षेत्र के बारे में तो उन्होंने लगभग पूरी तरह से ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी पर भरोसा जताया है और वहां के चुनाव को रद्द करने की मांग की है। मानवीय व्यक्तित्व बहुत ही पेचीदा होता है। आम तौर पर सबको जीत की खुशी होती है और पराजय सबको तकलीफ पहुंचाती है। इंसान के व्यक्तित्व की ताकत की परीक्षा पराजय के बाद ही होती है।

मजबूत आदमी अपनी हार से खुश तो नहीं होता लेकिन हारने के बाद अपना संतुलन नहीं खोता। हार के बाद खंभा नोचने वालों को इंसानी बिरादरी में शामिल करना भी बहुत मुश्किल होता है। हार के बाद संतुलन खो बैठना कमजोर आदमी की निशानी है। ईवीएम के अभियान चलाने वाले नेताओं को पता होना चाहिए कि इन मशीनों का आविष्कार लोकतंत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। ईवीएम के खिलाफ आने के बाद बाहुबलियों और बदमाशों की बूथ कैप्चर करने की क्षमता लगभग पूरी तरह से काबू में आ गई है। बैलट पेपर के जमाने में इनकी ताकत बहुत बढ़ गई थी। बंडल के बंडल बैलट पेपर लेकर बदमाशों के कारिंदे बैठ जाते थे और मनपसंद उम्मीदवार को वोट देकर विजयी बना देते थे।

ईवीएम के लागू होने के बाद यह संभव नहीं है। मशीन को डिजाइन इस तरह से किया गया है कि एक वोट पूरी तरह से पड़ जाने के बाद ही अगला वोट डाला जा सकता है। ऐसी हालत में अगर पूरी व्यवस्था ही बूथ कैप्चर करना चाहे और किसी भी उम्मीदवार का एजेंट विरोध न करे तभी उन्हें सफलता मिलेगी। सबको मालूम है कि अस्सी के दशक में गुडों ने जब राजनीति में प्रवेश करना शुरू किया तब से जनता के वोट को लूटकर लोकतंत्र का मखौल उड़ाने का सिलसिला शुरू हुआ था, क्योंकि बूथ कैप्चर करने की क्षमता को राजनीतिक सद्गुण माना जाने लगा था। इसके चलते हर पार्टी ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था।

इस बार बहुत कम बाहुबली चुनाव जीतने में सफल हो सके। जानकार कहते हैं कि बदमाशों के चुनाव हारने में ईवीएम मशीन का भी बड़ा योगदान है। इसलिए इसको बंद करने की मांग करना ठीक नहीं है। अगर फिर बैलट पेपर के जरिए वोट पडऩे लगे तो देश अस्सी के उसी रक्त रंजित दशक की तरह अराजकता की तरफ बढ़ जाएगा। ई.वी.एम. के खिलाफ शुरू किए गए अभियान पर चुनाव आयोग को भी खासी नाराजगी है। चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने एक सेमिनार में कहा कि ई.वी.एम. लगभग फूल-प्रूफ है। इसकी किसी भी गड़बड़ी को कभी भी जांचा परखा जा सकता है। उन्होंने केन्या का उदाहरण दिया जहां चुनाव व्यवस्था बिल्कुल तबाह हो चुकी है, लोकतंत्र रसातल में पहुंचने वाला है।

श्री कुरैशी ने कहा कि केन्या के प्रबुद्घ लोगों ने यह सुझाव दिया कि भारत की तर्ज पर वहां भी ईवीएम का इस्तेमाल किया जाय और चुनाव प्रक्रिया में काम करने वाले अधिकारियों को भारत की मदद से टे्रनिंग दी जाय। इसके अलावा दुनिया के और कई देशों में भी भारतीय ई.वी.एम. मशीनों की तारीफ हो रही है। ज़ाहिर है प्रयोग सफल है और उसके आगे बढ़ते रहने की जरूरत है। ई.वी.एम. मशीनों का विरोध कर रही पराजित पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि चुनाव होता ही इसीलिए है कि कोई हारे और कोई जीते। जो लोग एक बार लोकसभा या विधानसभा चुनाव जीत जाते हैं उन्हें पता चल जाता है कि चुनाव जीतने के बाद सुख सुविधा और ताकत का अंबार लग जाता है। चुनाव हारने के बाद वह सब कुछ काफूर हो जाता है।

ज़ाहिर है कि पराजित व्यक्ति को पछतावा बहुत ज्यादा होता है लेकिन लोकतंत्र के हित में आदमी को धीरज से काम लेना चाहिए। अगर लोकतंत्र रहेगा तो सब कुछ रहेगा और मोहन रावले सहित बाकी लोगों को दुबारा चुनाव जीतने का मौका मिलेगा और अगर बैलट पेपर युग की फिर वापसी हो गई तो पूरी आशंका है कि अपराधियों और बाहुबलियों का लोकतंत्र पर कब्जा हो जाएगा और चुनाव प्रक्रिया पर भी खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। इसलिए राजनीतिक नेताओं को चाहिए कि लोकतंत्र के विकास के रास्ते में कांटे न बिछाएं।

Friday, July 31, 2009

बाबरी मस्जिद, सियासत और गुमनाम नेताबाबरी

बाबरी मस्जिद की शहादत के करीब साढ़े सोलह साल बाद मस्जिद के विध्वंस की साजिश रचने वालों के रोल की जांच करने के लिए बनाए गए लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट आई है। लिब्राहन आयोग को तीन महीने के अंदर अपनी जांच पूरी करने का आदेश हुआ था। उन्हें केवल साजिश के बारे में जांच करना था लेकिन मामला बढ़ता गया, और कमीशन के कार्यकाल में 48 बार बढ़ोतरी की गई। करीब 400 बार सुनवाई हुई और एक रिपोर्ट सामने आ गई।

रिपोर्ट के अंदर क्या है, यह अभी सार्वजनिक डोमेन में नहीं आया है लेकिन लाल बुझक्कड़ टाइप नेताओं और पत्रकारों ने रिपोर्ट के बारे में अंदर खाने की जानकारी पर बात करना शुरू कर दिया है। ऐसा नहीं लगता कि इस रिपोर्ट में ऐसा कोई रहस्य होगा जो जनता को नहीं मालूम है। समकालीन राजनीतिक इतिहास के मामूली से मामूली जानकार को भी मालूम होगा कि बाबरी मस्जिद की शहादत की साजिश में आर.एस.एस. और उसके बड़े कार्यकर्ताओं का हाथ था। लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार जैसे बहुत सारे संघी वफादार मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे और मस्जिद ढहाने वालों की हौसला अफजाई कर रहे थे।

जिस वक्त मस्जिद जमींदोज हुई उमा भारती की खुशियों का ठिकाना नहीं था और वे कूद कर मुरली मनोहर जोशी की गोद में बैठ गई थीं और हनुमान चालीसा पढऩे लगी थीं। ऐसी बहुत ही जानकारियां हैं जो पब्लिक को मालूम हैं। मसलन कल्याण सिंह और पी.वी. नरसिम्हाराव भी साजिश में शामिल थे, यह जानकारी जनता को है। पूरी उम्मीद है कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में यह सब कुछ होगा लेकिन बहुत सारी ऐसी बातें भी हैं जो कि लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट में कहीं नहीं होंगी। संविधान में पूजा स्थल को नुकसान पहुंचाने को अपराध माना गया है और भारतीय दंड संहिता में इस अपराध की सजा है।

अदालत में मुकदमा चल रहा है और शायद अपराधियों को माकूल सजा मिलेगी। लेकिन बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वालों ने बहुत सारे ऐसे अपराध किए हैं जिनकी सजा इंसानी अदालतें नहीं दे सकतीं। बाबरी मस्जिद को ढहाने वालों ने परवरदिगार की शान में गुस्ताखी की है, उसके बंदों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है। आर.एस.एस. से जुड़े जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को शहीद करने की साजिश रची, उनको न तो इतिहास कभी माफ करेगा और न ही राम उन्हें माफी देंगे। देश की हिंदू जनता की भावनाओं को भड़काने के लिए संघियों ने भगवान राम के नाम का इस्तेमाल किया। उन्हीं राम का जो सनातनधर्मी हिंदुओं के आराध्य देव हैं जिन्होंने कहा है कि 'पर पीड़ा सम नहिं अधमाईÓ। यानी दूसरे को तकलीफ देने से नीच कोई काम नहीं होता। राम के नाम पर रथ यात्रा निकालकर सीधे सादे हिंदू जनमानस को गुमराह करने का जो काम आडवाणी ने किया था जिसकी वजह से देश दंगों की आग में झोंक दिया गया था उसकी सजा आडवाणी को अब मिल रही है।

प्रधानमंत्री बनने के अपने सपने को पूरा करने के उद्देश्य से आडवाणी ने पिछले बीस वर्षों में जो दुश्मनी का माहौल बनाया उसकी सजा उनको अब मिली है, जब प्रधानमंत्री पद का सपना एक खौ$फनाक ख्वाब बन गया है। बाबरी मस्जिद के खिलाफ चले आंदोलन में विनय कटियार, उमा भारती, साध्वी रितंभरा, नृत्य गोपाल दास, अशोक सिंहल जैसे लोगों ने बार-बार आम आदमी को भड़काने का काम किया था। इन लोगों की सबसे बड़ी सजा यही है कि आज इनकी किसी बात पर कोई भी हिंदू विश्वास नहीं करता। कांग्रेस में भी वीर बहादुर सिंह, अरुण नेहरू, बूटा सिंह आदि ने बढ़ चढ़कर सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति की थी। यह सारे लोग या तो हाशिए पर हैं या कहीं नहीं हैं। पी.वी. नरसिम्हाराव के बारे में भी यही कहा जाता है कि वे साजिश में शामिल थे और जिस गुमनामी में उन्होंने बाकी जिंदगी काटी, वह उस नीली छतरी वाले की बे आवाज़ लाठी की मार का ही नतीजा था।

दुनिया के मालिक और उसके घर को सियासत का हिस्सा बनाने वालों को भी उसी बे आवाज लाठी की मार पड़ चुकी है। कहां हैं शहाबुद्दीन और उनके वे साथी जो अवामी और धार्मिक मसलों पर तानाशाही रवैय्या रखते थे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के ज्यादातर नेता आज गुमनामी की जिंदगी बिता रहे हैं हालांकि उन्होंने सियासी बुलंदी हासिल करने के लिए एक ऐतिहासिक मस्जिद के इर्द-गिर्द अपने तिकड़म का ताना बना बुना था। मुसलमानों के स्वयंभू नेता बनने के चक्कर में इन तथाकथित नेताओं ने उन हिंदुओं को भी नाराज करने की कोशिश की थी जो मुसलमानों के दोस्त हैं। शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने इस देश के धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को यह तौफीक दी कि वे आर.एस.एस. के जाल बट्टïे में नहीं फंसे वरना शहाबुद्दीन टाइप लोगों ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए जिम्मेदार हर राजनेता को उसी मालिक की लाठी ने ठिकाने लगा दिया है जिसमें कोई आवाज नहीं होती। जहां तक लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट का सवाल है, राजनीतिक समीकरणों पर उसका असर पड़ेगा। बीजेपी वाले चिल्ला रहे हैं कि ऐसे वक्त पर रिपोर्ट आई है जिसका उनकी अंदरूनी लड़ाई पर नकारात्मक असर पड़ेगा।

आरोप लगाए जा रहे है कि कांग्रेस लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट की टाइमिंग को राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहती है। कोई इन हिंदुत्वबाज़ों से पूछे कि आपने भी तो बाबरी मस्जिद के नाम पर सियासत की थी, हिंदुओं के आराध्य देवता, भगवान राम को चुनाव में वोट बटोरने के लिए इस्तेमाल किया था, वोट हासिल करने के नाम पर हर शहर में दंगे फैलाए थे, अयोध्या से लौट रहे रामभक्तों को गोधरा में रेलगाड़ी के डिब्बे में साजिश का शिकार बनाकर, गुजरात में दुश्मनी का ज़हर बोया था और गुजरात भर में मुसलमानों को मोदी की सरकार के हमलों का शिकार बनाया था। सच्चाई यह है कि बाबरी मस्जिद अयोध्या में चार सौ साल से मौजूद थी, लेकिन उसके नाम पर सियासत का सिलसिला 1948 से शुरू हुआ जो मस्जिद की शहादत के बाद भी जारी है। आज बीजेपी को शिकायत है कि कांग्रेस सियासत कर रही है, जबकि बीजेपी भी लगातार सियासत करती रही है।

1984 में लोकसभा की मात्र दो सीटें हासिल करने वाली बीजेपी ने केन्द्र की सत्ता तक पहुंचने की जो भी ऊर्जा हासिल की, वो बाबरी मस्जिद की सियासत से ही हासिल की थी। अब बीजेपी तबाही की तरफ बढ़ रही है जो उसके पुराने पापों का फल है। वैसे भी काठ की हांडी और धोखेबाजी की राजनीति बार-बार नहीं सफल होती, इसे बीजेपी से बेहतर कोई नहीं जानता।

न्यायपालिका का इकबाल और बेलगाम मंत्री

मद्रास हाईकोर्ट के एक जज के पास किसी केंद्रीय मंत्री ने टेलीफोन करके जज साहब से एक विचाराधीन मुकदमे में अग्रिम जमानत देने की सिफारिश कर दी। माननीय न्यायाधीश ने मंत्री की इस हिम्मत पर अपनी नाराजगी जताई और भरी अदालत में ऐलान कर दिया कि आगे से इस तरह की दखलंदाजी हुई तो वे जरूरी कार्रवाई करेंगे। न्यायपालिका के कामकाज में मंत्रियों का दखल बहुत बुरी बात है।

इससे लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं। हर जागरूक नागरिक को इस तरह की घटनाओं का विरोध करना चाहिए। भारत के मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन ने भी केंद्रीय मंत्री के इस मूर्खतापूर्ण आचरण पर सख्त नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा कि हम इस तरह की किसी कोशिश को ठीक नहंी मानते। उन्होंने कहा कि ज्यादातर मंत्रियों को मालूम है कि न्यायपालिका का काम करने का तरीका क्या है और वे न्यायप्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करते लेकिन मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश से सिफारिश करने वाले मंत्री को शायद पता नहीं है। मुख्य न्यायाधीश महोदय का कहना है कि इस मामले में जो भी कार्रवाई होनी है, वह सरकार की तरफ से होगी।

जहां तक न्याय पालिका का सवाल है मद्रास हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति आर. रघुपति के कार्य की सराहना की जानी चाहिए और अन्य जजों को भी सरकारी दबाव की बात आते ही दोषी मंत्री को बेनकाब करना चाहिए। इस बीच बीजेपी वाले भी राजनीति करने का मौका देख इस विवाद में कूद पड़े हैं। बीजेपी की इस लठैती को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि न्यायपालिका को सम्मान देने का उनका रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है। नए कानून मंत्री, वीरप्पा मोइली का बयान महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि मद्रास हाईकोर्ट के जज की कोर्ट में की गई टिप्पणी को गंभीरता से लिया जाएगा जो भी जरूरी होगा, नियम कानून के दायरे में रहते हुए सरकार वह कदम उठाएगी। विवाद के केंद्र में फर्जी मार्कशीट का एक मामला है।

एक व्यक्ति ने मेडिकल कालेज में दाखिले के लिए अपने बेटे की मार्कशीट में हेराफेरी की थी। पुदुचेरी विश्वविद्यालय के एक क्लर्क और एक दलाल की मदद से उसने अपने बेटे की मार्कशीट में नंबर बढ़वा लिए थे जिसकी बिना पर लड़के को मेडिकल कालेज में एडमिशन मिल गया। मामले की जांच सीबीआई के पास पहुंची। सीबीआई ने बाप बेटे के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। इसी मामले की अग्रिम जमानत के लिए मद्रास हाईकोर्ट में जस्टिस आर. रघुपति के सामने अर्जी विचाराधीन है। न्याय के उच्चतम आदर्शों का पालन करते हुए माननीय न्यायाधीश ने अपना कर्तव्य विधिवत निभा दिया है। अब सरकार की जिम्मेदारी है कि अज्ञानी राजनेताओं को शासन करने के तमीज सिखाए और न्यायमूर्ति रघुपति पर दबाव डालने वाले मंत्री को ऐसा सबक सिखाए कि आने वाले वक्त में किसी मंत्री की हिम्मत न पड़े कि न्यायपालिका से पंगा ले। इस अवसर का इस्तेमाल मंत्रियों के अधिकार की सीमा के बारे में एक बहस की शुरुआत करके भी किया जा सकता है। आम तौर पर कम शिक्षित और अज्ञानी मंत्रियों को शपथ लेते ही यह मुगालता हो जाता है कि वह सम्राट हो गए हैं। उनके दिमाग में लोकशाही व्यवस्था में शासक का तसव्वुर एक ऐसे आदमी का होता है जो ब्रिटिश शासन के दौरान सामंतों का होता था। मंत्री को लगने लगता है कि वह राजा हो गया है और उसके भौगोलिक क्षेत्र में आने वाला हर व्यक्ति उसकी प्रजा है।

यहीं से गलती शुरू होती है। वह स्थानीय प्रशासन, पुलिस, व्यापारी आदि पर धौंस मारने लगता है। हालांकि उसके पास यह अधिकार नहीं होता लेकिन हजारों वर्षों तक सामंती सोच के तहत रहे समाज के लोग इसे स्वीकार कर लेते हैं। यह दूसरी गलती है। अगर जनता के लोगों को उनका अधिकार मालूम हो, वे जागरूक हों और लोकतंत्र में मंत्री के अधिकारों की जानकारी हो तो बात यहीं संभल सकती है। लेकिन ऐसा नहीं होता। नौकरशाही और पुलिस वाले भी मंत्री के धौंस को स्वीकार कर लेते हैं। इसके बाद मंत्री के दिमाग में सत्ता का मद चढऩे लगता है और वह एक मस्त हाथी की तरह आचरण करने लगता है। दुर्भाग्य यह है कि मीडिया में भी थोक के भाव चाटुकार भर गए हैं। मीडिया का वास्तविक काम सच्चाई को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना ही है लेकिन चापलूस टाइप पत्रकार मंत्रियों की जय जयकार करने लगते हैं। इसके बाद मंत्री का दिमाग खराब हो जाता है तो वह अजीबोगरीब हरकतें करने लगता है। कहीं अपनी मूर्तियां लगवाता है, कहीं अपने को दुर्गा माता कहलवाता है, तो कहीं अपने नाम पर हनुमान चालीसा की तर्ज पर साहित्य की रचना करवाता है। सत्ता के मद में मतवाला यह हाथी हर उस मान्यता को रौंद देता है जिसकी गरिमा की रक्षा के लिए उसे नियुक्त किया गया है।

यह मंत्री सार्वजनिक संपत्ति को अपनी मानता है, सरकारी खर्चे पर चमचों और रिश्तेदारों का मनोरंजन करता है और दुनिया की हर मंहगी चीज को अपने उपभोग की सामग्री मानता है। रिश्वत और कमीशन को अपनी आमदनी में शुमार करता है और घूस का भावार्थ कमाई बताने लगता है। यह बीमारी छोड़ती तभी है जब मंत्री जनता की फटकार पाकर पैदल हो जाता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जरूरत इस बात की है कि मंत्री को सत्ता के मद में पागल होने के पहले ही लगाम लगा दी जाए। यह काम इस देश की मीडिया और जागरुक जनता ही कर सकती है। अच्छा संयोग है कि मद्रास हाईकोर्ट के मामले में दखलंदाजी के मामले के प्रकाश में आने पर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद पर विराजमान हैं।

वे काफी मजबूत नेता हैं, हालांकि सरकार उतनी निर्णायक नहीं है। विवादित मामले में मंत्री कौन है, यह जानकारी अभी सार्वजनिक नहीं हुई है। इसलिए जो भी मंत्री हो उसके खिलाफ ऐसी कार्रवाई की जानी चाहिए जिससे हुकूमत का इकबाल बुलंद हो, न्याय पालिका की अथॉरिटी को कमतर करने की कोशिश दुबारा कोई भी मंत्री न कर सके। यह हमारे विकासमान लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी है।

Thursday, July 30, 2009

शिक्षा के क्षेत्र में ओबामा की पहल

अमरीका में भारत और चीन से जाकर शिक्षा लेने वाले बच्चों की बहुत इज्जत है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि अमरीका की शिक्षा व्यवस्था इस तरह की बनाई जाएगी कि वह भारत और चीन की शिक्षा के स्तर से मुकाबला कर सके। सच्चाई यह है कि अमरीका में शिक्षा का स्तर बहुत ऊंचा है, वहां कोई समस्या नहीं है। मुसीबत यह है कि अमरीकी नौजवान शिक्षा के प्रति उतना गंभीर नहीं है जितना भारतीय और चीनी नौजवान है।

नई शिक्षा व्यवस्था शुरू करने से ओबामा की योजना है कि अधिक से अधिक अमरीकी नौजवान ग्रेजुएट स्तर की शिक्षा और काम करने की कुशलता सीखे। ओबामा की इस योजना को अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव नाम दिया गया है। उनकी कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा लोग सामुदायिक कालेजों में जायं और काम करने के लिए कुछ नई योग्यताएं हासिल करें। उस योजना में अगले दस वर्षों तक 12 अरब डॉलर खर्च किया जाएगा। इस धन की व्यवस्था उस सब्सिडी को काटकर की जाएगी जो अभी बैंकों और प्राइवेट वित्तीय संस्थानों दी जाती है जिससे वे मंहगी शिक्षा के लिए दिए जाने वाले कर्ज की ब्याज दर कम करने के लिए इस्तेमाल करते हैं।

सब्सिडी काटकर ओबामा ने यह ऐलान कर दिया है कि संपन्न वर्गों को ज्यादा सुविधा न देकर उनका प्रशासन अब आम आदमी की तरफ ज्यादा ध्यान देगा। बराक ओबामा का अमेरिकन ग्रेजुएशन इनीशिएटिव एक महत्वपूर्ण योजना है। द्वितीय विश्व युद्घ के बाद प्रेसिडेंट ट्रमैन ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण पहल की थी। उसके बाद से इतने बड़े पैमाने पर शिक्षा के क्षेत्र में कोई पहल नहीं हुई। दरअसल उच्च शिक्षा के लिए ओबामा की यह पहल बेरोजगारी की समस्या को हल करने की दिशा में दूरगामी और महत्वपूर्ण कदम है।

अमरीकी अर्थव्यवस्था के विकास के बाद ऐसा माहौल बन गया था कि हाई स्कूल तक की पढ़ाई करने के बाद बच्चे कोई न कोई नौकरी पा जाते थे। इसीलिए उच्च शिक्षा के लिए एशिया के देशों, खासकर भारत और चीन के बच्चों को फेलोशिप आदि देकर अमरीकी विश्वविद्यालयों में रिसर्च करने के लिए उत्साहित किया जाता था। नतीजा यह हुआ है कि निचले स्तर पर तो बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान काम कर रहा है लेकिन ऊपर के स्तर पर विदेशियों की संख्या ज्यादा है। ग्रेजुएशन इनीशिएटिव के माध्यम से ओबामा की कोशिश है कि बड़ी से बड़ी संख्या में अमरीकी नौजवान अच्छी शिक्षा लेकर नौकरियों की ऊपरी पायदान पर पहुंचे जिससे अमरीकी समाज और राष्ट्र का भला हो।

किसी भी राष्ट्र की तरक्की में शिक्षा के महत्व और उसकी मुख्य भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता भारत में पिछड़ेपन का मुख्य कारण शिक्षा की कमी ही थी। आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की दूर तक सोच सकने की क्षमता का ही नतीजा था कि उन्होंने बड़ी संख्या में विश्व स्तर के शिक्षा केंद्रों की स्थापना की। सामाजिक जीवन में सक्रिय लोगों को भी स्कूल कालेज खोलने की प्रेरणा दी। नतीजा यह हुआ कि बड़े पैमाने पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आजादी के बाद की गई पहल का नतीजा था कि देश के कई हिस्सों, खासकर दक्षिण भारत में बड़ी संख्या में प्राइवेट शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई।

जब 1991 में डा. मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया गया तो उन्होंने आर्थिक विकास को उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर डाल दिया। उन्होंने कहा कि नौजवानों में कौशल के विकास और अच्छी शिक्षा के बिना कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता था। शिक्षा के महत्व को डा. मनमोहन सिंह से बेहतर कौन समझ सकता था। अविभाजित पंजाब के एक छोटे से गांव में पैदा हुए मनमोहन सिंह ने शिक्षा के बल पर ही समाज में इज्जत पाई थी और वर्तमान पद पर भी वे उच्च शिक्षा के बल पर पहुंचे है।

1991 में की गई उनकी शुरुआत का ही नतीजा है कि देश में शिक्षा संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। कुछ धूर्त किस्म के लोगों ने भी उच्च शिक्षा के केंद्र खोल कर कमाई शुरू कर दी है लेकिन समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा। बराक ओबामा भी शिक्षा के बल पर ही अपनी वर्तमान पोजीशन तक पहुंचे है। उन्हें भी मनमोहन सिंह की तरह ही शिक्षा का महत्व मालूम है। शायद इसीलिए शिक्षा व्यवस्था में सुधार के रास्ते वे अमरीकी समाज को तरक्की के रास्ते पर एक बार फिर से डालने की कोशिश कर रहे है।

सीपीएम से दूर भागता मध्यवर्ग

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने केरल के मुख्यमंत्री वी एस अच्युतानंदन को पोलिट ब्यूरो से निकाल दिया है। उन्हें पार्टी के राज्य सचिव पिनयारी विजयन के विरोध के कारण जाना पड़ा। जबसे विजयन के ऊपर भ्रष्टाचार का मामला चला अच्युतानंदन के लिए बहुत मुश्किल पेश आ रही थी। वी एस अच्युतानंदन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक हैं।

1964 में उस वक्त की भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दो टुकड़े हो गए थे। कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारिक नेतृत्व का विश्वास था कि देश उस वक्त नैशनल डेमाक्रेटिक रिवोल्यूशन के दौर से गुजर रहा है और उस वक्त की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी साम्राज्यवाद से मोर्चा ले रही है, इसलिए कांग्रेस की थोड़ी बहुत आलोचना करके उसका सहयोग किया जाना चाहिए। इसके विपरीत पार्टी के एक बड़े वर्ग का मत इससे अलग था। दूसरे वर्ग की समझ थी कि देश उस वक्त पीपुल्स डेमाक्रेटिक रिवोल्यूशन के दौर से गुजर रहा था। उस वक्त की सरकार का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी कर रही थी।

कांग्रेस एक बुर्जुवा जमींदार वर्ग की पार्टी थी। सरकार के असली मालिक एकाधिकार पूंजीपति थे और कांग्रेस सरकार का नियंत्रण साम्राज्यवादी ताकतों के हाथ में था। इसलिए कांग्रेस के साथ किसी तरह का सहयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसे वर्ग शत्रु की श्रेणी में ही रखा जाना चाहिए। तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी की नेशनल कौंसिल के नेता विचाराधारा के इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर बंटे हुए थे। 1964 में नेशनल कौंसिल की जिस बैठक में इस विषय पर बहस चल रही थी, उसमें देश के लगभग सभी बड़े वामपंथी नेता थे।

जब बातचीत के रास्ते एकमत से फैसला नहीं हो सका तो अधिकारिक लाइन के विरोध में 32 सदस्यों ने नेशनल कौंसिल की बैठक से वाक आउट किया। जो सदस्य वाक आउट करके बाहर आए वे एक नई पार्टी के संस्थापक बने और उस पार्टी का नाम रखा गया, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी)। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतागण तो कांग्रेस के सहयोगी हो गए क्योंकि वे कांग्रेस के माध्यम से साम्राज्यवाद से लडऩा चाहते थे। दूसरी तरफ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के खिलाफ सरकार की सारी ताकत झोंक दी गई।

सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया, उनके ऊपर देशद्रोही होने तक के आरोप लगाए गए लेकिन वे 32 कम्युनिस्ट नेता अपने निश्चय पर डटे रहे। उन नेताओं में प्रमुख थे ए.के. गोपालन, ज्योति बसु, हरिकिशन सिंह सुरजीत, प्रमोद दासगुप्ता, ई एम एस, नंबू दिरीपाद, बीटी रणदिवे, पी. सुंदरैया, एम बासवपुनैया, वी एस अच्युतानंदन आदि। आंध्र प्रदेश के तेनाली में पार्टी कार्यकर्ताओं का सम्मेलन करके एक पार्टी की कांग्रेस का अधिवेशन बुलाया गया। सीपीएम का इसी अधिवेशन में जन्म हुआ और अप्रैल में नैशनल कौंसिल से वाक आउट करने वाले वे 32 नेता माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक माने गए।

उन संस्थापकों में दो को छोड़कर लगभग सभी की मृत्यु हो चुकी है। ज्योति बसु और वी एस अच्युतानंदन जीवित हैं। उन्हीं वी एस अच्युतानंदन को दिल्ली में 12 जुलाई को खत्म हुई सीपीएम की केंद्रीय कमेटी ने पोलिट ब्यूरो से निकाल दिया। उन्हें राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में काम करने से नहीं रोका जाएगा उन पर आरोप है कि उन्होंने पार्टी का अनुशासन तोड़ा है। क्योंकि उन्होंने पार्टी के राज्य सचिव पिनरायी विजयन के एसएनसी-लावलिन भ्रष्टाचार मामले में उनका बचाव नहीं किया। पिनरायी विजयन पर सीबीआई आरोप है कि 1996-98 के दौरान जब वे राज्य के बिजली मंत्री थे तो उन्होंने बिजली घरों की मरम्मत के मामले में ठेकेदार कंपनी से रिश्वत लिया था।

इसी मामले में सीबीआई उन पर मुकदमा चला रही है। सीपीएम की केंद्रीय कमेटी विजयन पर चलाए जा रहे भ्रष्टाचार के मामले को राजनीतिक मानती है। उसका कहना है कि इसका राजनीतिक रूप से मुकाबला किया जाना चाहिए। पिनरायी विजयन के इस कथित भ्रष्टï आचरण के बारे में वी एस अच्युतानंदन का कहना था कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले व्यक्ति को ईमानदार होना चाहिए और लोगों को लगे भी कि वह ईमानदार है। पिनरायी विजयन के प्रति इस रवैय्ये के चलते अच्युतानंदन को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।

इस फैसले के बाद केरल में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं में जबरदस्त गुस्सा फूट पड़ा, जगह-जगह विजयन के पुतले जलाए गए, पार्टी के सर्वोच्च अधिकारी प्रकाश करात के खिलाफ नारे लगाए गए और अन्य तरीकों से वामपंथी कार्यकर्ताओं ने अपने गम और गुस्से का इज़हार किया। पिनरायी विजयन के गांव में भी बहुत बड़ी संख्या में पार्टी कार्यकर्ता जुटे और केंद्रीय नेतृत्व को फजीहत किया। बाद में विजयन के खिलाफ जुलूस निकाला। वी एस अच्युतानंदन के खिलाफ हुई माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की कार्रवाई से केरल ही नहीं पूरे देश का मध्य वर्ग हतप्रभ है। उसे लगता है कि एक ईमानदार आदमी को उसकी ईमानदारी की सजा दी गई है।

जिन्हें पता है वे जानते हैं कि केरल के मुख्यमंत्री देश के सबसे ईमानदार मुख्य मंत्रियों में से एक हैं, फिर भी उन्हें भ्रष्टाचार के एक अभियुक्त के खिलाफ पोजीशन लेने के लिए दंडित होना पड़ा। कुछ वामपंथी बुद्घिजीवियों का कहना है कि केरल के मुख्यमंत्री के खिलाफ की गई सीपीएम की कार्रवाई लगभग उसी तर्ज पर है जिसमें लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया था। पार्टी के आला अफसर ने तो केरल के मामले में भी पोलिट ब्यूरो और मुख्यमंत्री पद दोनों से वीएस अच्युतानंदन को हटाने का सुझाव दिया था लेकिन बड़ी संख्या में केंद्रीय कमेटी सदस्यों ने उनका विरोध किया और उन्हें मानना पड़ा।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में जारी उथल पुथल के लिए आमतौर पर वर्तमान महासचिव प्रकाश करात को जिम्मेदार माना जा रहा है। जानकार बताते हैं कि सीपीएम का इस बार जैसा कमजोर चुनावी प्रदर्शन कभी नहीं रहा। 1964 में कांग्रेस सरकार ने पार्टी के सभी बड़े नेताओं को जेल में बंद कर दिया था लेकिन जब 1965 में केरल में चुनाव हुए तो सीपीएम सबसे बड़ी पार्टी बनकर आई क्योंकि पार्टी के शीर्ष नेताओं की विश्वसनीयता पर कभी सवाल नहीं उठा था। मौजूदा नेतृत्व के कार्यभार संभालने के बाद हुए पहले लोकसभा चुनाव में पार्टी की ताकत आधे से भी कम हो गई है।

केरल में तो बुरी तरह से हार चुके हैं, बंगाल में भी प्रणब मुखर्जी, ममता बनर्जी की टीम कम्युनिस्ट राज अंत करने की मंसूबाबंदी कर चुकी है। इस सबके पीछे नेतृत्व की हठधर्मिता कहीं न कहीं जरूर है वरना एक समय था जब कम्युनिस्ट पार्टी के नेता मध्य वर्ग के एक बड़े तबके के हीरो हुआ करते थे। सोमनाथ चटर्जी को अपमानित करके बंगाली मध्य वर्ग को पार्टी ने जबरदस्त चोट दी थी, नतीजा लोकसभा चुनावों में हार के रूप में सामने आया। अब केरल के सबसे आदरणीय दलित नेता को अपमानित करके माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने बड़ा खतरा लिया है। वक्त ही बताएगा कि पार्टी के मौजूदा महासचिव, पार्टी को कहां तक ले जाते हैं।

धर्मनिरपेक्षता के शहंशाह की शान सलामत रहेगी

उदयन शर्मा होते तो आज 61 वर्ष के होते। कई साल पहले वे यह दुनिया छोड़कर चले गए थे। जल्दी चले गए। होते तो खुश होते, देखते कि सांप्रदायिक ताकतें चौतरफा मुंह की खा रही हैं। इनके खिलाफ उदयन ने हर मोर्चे पर लड़ाइयां लड़ी थीं, और हर बार जीत हासिल की थी। उनको भरोसा था कि हिटलर हो या अमरीकी क्लू क्लाक्स क्लान हो, फ्रांका हो या कोई भी घमंडी तानाशाह हो हारता जरूर है। लेकिन क्या संयोग कि जब पंडित जी ने यह दुनिया छोड़ी तो इस देश में सांप्रदायिक ताकतों की हैसियत बहुत बढ़ी हुई थी, दिल्ली के तख्त के फैसले नागपुर से हो रहे थे।

यह उदयन के दम की ही बात थी कि पूरे विश्वास के साथ बताते थे कि यह टेंपरेरी दौर है, खतम हो जायेगा। खत्म हो गयी सांप्रदायिक ताकतों के फैसला लेने की सियाह रात लेकिन वह आदमी जिंदा नहीं है जिसने इसकी भविष्यवाणी की थी। उदयन शर्मा बेजोड़ इंसान थे, उनकी तरह का दूसरा कोई नहीं। आज कई साल बाद उनकी याद में कलम उठी है इस गरीब की। अब तक हिम्मत नहीं पड़ती थी। पंडितजी के बारे में उनके जाने के बाद बहुत कुछ पढ़ता और सुनता रहा हूं। इतने चाहने वाले हैं उस आदमी के। सोचकर अच्छा लगता है। आलोक तोमर भी है और सलीम अख्तर सिद्घीकी भी। उदयन शंकर भी हैं तो ननकऊ मल्लाह भी। बड़े से बड़ा आदमी और मामूली से मामूली आदमी, हर वर्ग में उदयन के चाहने वाले हैं। सबके अपने अनुभव हैं। मैं उदयन के चाहने वालों में सबसे ज्यादा आलोक तोमर को पसंद करता हूं।

आलोक ने बचपन में अपने आदर्श के रूप में उदयन को चुन लिया था, गांव में शायद मिडिल स्कूल के छात्र के रूप में। बड़े होने पर जब लिखना शुरू किया तो भाषाई खनक वही उदयन शर्मा वाली थी। उदयन शंकर की दीवानगी का आलम यह था कि मां बाप के दिए गए नाम को बदल दिया और उदयन बन गए। संतोष नायर भी हैं। अगर आज पंडित जी जिंदा होते तो मैं उनको बताता कि जन्म जन्मांतर का संबंध होता है क्योंकि संतोष पता नहीं कितने जन्मों से उनका बेटा है। नाम बहुत हैं उदयन शर्मा को चाहने वालों के, चाहूं तो गिनाता रहूं और धार नहीं टूटेगी।उदयन शर्मा के बारे में कई जगह पढ़ा है कि वे पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं मानते थे, मिशन मानते थे। हो सकता है सही हो, बस मेरी गुजारिश यह है कि उदयन शर्मा के व्यक्तित्व की विवेचना करने के लिए पुराने व्याकरण से काम नहीं चलेगा। उनको समझने के लिए जीवनी लिखने के नए व्याकरण की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि उदयन का जीवन किसी भी सांचे में फिट नहीं होता।

उदयन शर्मा की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष पत्रकार के रूप में की जाती है। बात सच भी है लेकिन उनके घनिष्ठतम सहयोगी और मित्र ने उनको एक बार बताया था कि वे धर्मनिरपेक्ष नहीं, प्रो-मुस्लिम पत्रकार हैं। इतने करीबी ने कहा है तो ठीक ही होगा। उदयन शर्मा एक ऐसे इंसान थे जो अपनी लड़ाई हमेशा लड़ते रहते थे, कोई भी मौका चूकते नहीं थे। धर्मनिरपेक्षता उनकी सोच का बुनियादी आधार था, जिससे वे कभी हिले नहीं। जब भी मौका लगा सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त देने की कोशिश की। रविवार के संपादक का पद संभाला तो चुनौतियां बहुत बड़ी थीं। उनके मित्र और बड़े पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने वह जगह खाली की थी।

ज़ाहिर है कि पाठकों की उम्मीदें बड़ी थीं। उदयन ने उसे हासिल किया रविवार को बुलंदियों पर पहुंचाया। उनकी चुनौती को और भी कठिन कर दिया संघ परिवार के नेताओं ने। 1984 के चुनाव में शून्य पर पहुंच गई पार्टी, बीज़ेपी ने हिन्दुत्व का नारा बुलंद किया। केंद्र और लखनऊ में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन लीडरशिप ऐसी नहीं थी जोकि संघ के चक्रव्यूह की बारीकियां समझ सके। आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, बीजेपी आदि संगठन धर्मनिरपेक्ष राजनीति और जीवन मूल्यों पर चौतरफा हमला बोल रहे थे। कांग्रेस में अरुण नेहरू और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे भाजपाई सोच वाले लोग थे और राजीव गांधी से वही करवा रहे थे जो नागपुर की फरमाइश होती थी।

उदयन शर्मा की धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई राजनीति की इस दगाबाजी की वजह से और मुश्किल हो गयी थी। जब रविवार छोड़कर उन्होंने हिंदी संडे ऑबज़र्वर का काम शुरू किया तो विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन चुके थे, उनको बीजेपी का समर्थन हासिल था और उदयन शर्मा पर तरह तरह के दबाव पड़ रहे थे। लेकिन उदयन शर्मा कभी हारते नहीं थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह और लालकृष्ण आडवाणी की संयुक्त ताकत से लोहा लिया और वित्त मंत्रालय के बड़े अफसरों की गिड़गिड़ाहट की परवाह न करते हुए विश्व हिंदू परिषद के इनकम टैक्स मामले पर खबर छापी।

जब आडवाणी ने सोमनाथ से रथ लेकर अयोध्या की तरफ कूच किया तो लोगों को लगने लगा था कि अब आर.एस.एस. को रोका नहीं जा सकता। दंगों का सिलसिला शुरू हो चुका था पंडित जी के संडे आब्ज़र्वर में लगातार खबरें छपती रहीं और जब ज्यादातर लोग आडवाणी की जय जयकार कर रहे थे तो उदयन के अखबार में सुर्खी लगी 'रावण रथी विरथ रघुबीराÓ। और इसी विरथ रघुबीर के सनातन धर्मी भक्तों के पक्षधर उदयन शर्मा ने $कलम को आराम नहीं दिया। हमेशा कहते रहे कि इस देश का बहुसंख्यक हिंदू धर्मनिरपेक्ष है, और संघप्रेमी हिंदू बहुत कम हैं। उनको विश्वास था कि यह देश दंगाइयों की राजनीति को मुंहतोड़ जवाब देगा।

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दिन उदयन शर्मा बहुत निराश थे, दुखी थे। पी.वी. नरसिंहराव को गरिया रहे थे। उनको शिकायत थी कि नरसिंह राव ने आर.एस.एस. की मदद की थी। अर्जुन सिंह, मानव संसाधन विकास मंत्री थे, उदयन की कोशिश थी कि अर्जुन सिंह इस्तीफा दें और नरसिंहराव को पैदल करें, क्योंकि उनको तुरंत सजा दी जानी चाहिए। यह नहीं हो सका। लेकिन उदयन शर्मा रुके नहीं। फिर चल पड़े अपने लक्ष्य की ओर। बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद आर.एस.एस. वालों ने मुसलमानों को अपमानित करने की योजना पर काम शुरू कर दिया था।

पंडित जी ने महात्मा गांधी की समाधि पर रामधुन का आयोजन करवा कर सांप्रदायिकता का जवाब दिया। देश का बड़ा से बड़ा आदमी आया और मदर टेरेसा आईं। शबनम हाशमी ने सहमत की ओर से वहीं राजघाट पर नौजवानों को शपथ दिलाई कि सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग जारी रहेगी। इसके बाद पत्रकारिता, नौकरशाही और राजनीति में बैठे आर.एस.एस. के कारिंदों ने पंडित जी पर चौतरफा हमला बोला और उनको हाशिए पर लाने की कोशिश करते रहे। नफरत के सौदागरों के खिलाफ उदयन की लड़ाई कभी कमजोर नहीं पड़ी। अभिमन्यु को घेरकर मारने के बाद कौरव सेना विजयी नहीं होती, उसके बाद जयद्रथ वध होता है। आज जब सांप्रदायिकता के जयद्रथ का वध हो चुका है, कौरव सेना अपने घाव चाट रही है, उदयन शर्मा की बहुत याद आती है।

उदयन शर्मा ने पत्रकारिता की दुनियां में बुलंदियों पर झंडे गाड़े थे। डाकू फूलनदेवी का आतंक चंबल के बीहड़ों में फैल चुका था, अखबार वाले हिंदी फिल्मों की महिला डाकुओं की तर्ज पर फूलनदेवी को दस्यु सुंदरी लिखना शुरू कर चुके थे। उदयन शर्मा और फोटो पत्रकार जगदीश यादव ने बीहड़ों में फूलनदेवी को ढूंढ निकाला और उसकी तस्वीर रविवार में छाप दी। उसके बाद से फूलनदेवी के बारे में सही रिपोर्टिंग का सिलसिला शुरू हुआ। मुसलमानों के खिलाफ जब भी दंगाइयों के हमले हुए उदयन शर्मा हमेशा उनके पक्ष में खड़े रहे। दलितों के खिलाफ सवर्णों के आतंक की रिपोर्ट पाठ्यपुस्तकों का विषय बन चुकी है।

रिपोर्ट में ईमानदारी उदयन शर्मा का स्थाई भाव था।पत्रकारिता के टैलेंट की गजब की पहचान थी उदयन को। गली कूचों से लोगों को पकड़कर लाते थे और पत्रकार बना देते थे। किसी बैंक क्लर्क को तो किसी ट्यूटर को, किसी टाइपिस्ट को तो किसी मैनेजर को, सबको पत्रकार बना दिया। मेरे जैसे मामूली आदमी को संपादकीय लिखने वाला पत्रकार बना दिया। इस जमात के ज्यादातर लोग बाद में उनसे नाराज भी हुए लेकिन उस भले आदमी ने कभी किसी की मुखालिफत नहीं की। मैं भी नाराज हुआ था लेकिन मुझे पहले से भी अच्छी नौकरी दिलवा दी। मुझे पता ही नहीं था, 2005 में पता लगा कि उदयन की सिफारिश पर ही मुझे ब्यूरो चीफ बनाया गया था।

एक बार मुझसे कहा कि आर.एस.एस. के खिलाफ लिखने वाले हर आदमी को अपना दोस्त मानो उससे भाई की तरह व्यवहार करो क्योंकि असल में वही तुम्हारा हमसफर होगा। 1991 में कांग्रेस के टिकट पर वे लोकसभा का चुनाव लड़ गए थे, मध्यप्रदेश के भिंड चुनाव क्षेत्र से। सत्यदेव कटारे और रमाशंकर सिंह उनके सहयोगी थे लेकिन तमाम ऐसे लोग भी थे जो अंदर ही अंदर उनका विरोध कर रहे थे, उदयन शर्मा को सब कुछ मालूम था लेकिन किसी के खिलाफ कोई नाराजगी नहीं जाहिर की। राजीव गांधी खुद उनके चुनाव प्रचार में आए थे। पंडित जी चुनाव हार गए लेकिन भिंड नहीं हारे। जिन लोगों ने उनकी मुखालिफत की थी, वे भी दिल्ली आते थे तो वे खुद और उनकी पत्नी नीलिमा शर्मा, जो भी हो सकती थी, मदद करते थे। यह सिलसिला आज तक जारी है। उदयन शर्मा को एक मुहब्बत करने वाले इंसान के रूप में हमेशा याद किया जाएगा।

उनकी पत्नी नीलिमा जी, दोनों बेटे डेनिस और छोटू उनके सबसे करीबी दोस्त थे, इन लोगों से वे आदतन मुहब्बत करते थे। इसी भावना को बढ़ाते जाते थे जिसमें परिवार मित्र-मंडली, मुसलमान और धर्मनिरपेक्ष सोच का हर इंसान शामिल हो जाता था उनके लिए पत्रकारिता मिशन नहीं कर्तव्य था और उसको उन्होंने बहुत ही बहादुरी से निभाया। पंडित जी धार्मिक नहीं थे लेकिन परिवार के बड़ों के आगे उनका सिर झुकता था।

इस महापुरुष के आगे मेरे जैसे मामूली आदमी का सिर हमेशा झुका रहेगा। अपनी बात को बे लौस और साफ साफ कहना उनकी फितरत थी। अगर आज जिंदा होते तो बहुत खुश होते क्योंकि बीजेपी की मौजूदा हार में उनकी शुरू की गई उस लड़ाई का भी योगदान है जो उन्होंने लगभग निहत्थे लड़ा था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उनके दिल से जो कराह निकली थी, उसी का नतीजा है बीजेपी चुनाव तो हार ही गई है, विघटन के कगार पर भी खड़ी है।

Wednesday, July 29, 2009

सेक्स ट्रेड माफिया के निशाने पर भारत

समलैंगिकता पर शुरू हुई बहस एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है। दिल्ली से छपने वाले एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक अखबार ने इस मुद्दे पर पड़े मकडज़ाल को साफ करने की कोशिश की है। अखबार ने लिखा है कि किसी गैर सरक़ारी संगठन के कंधे पर बंदूक चलाने वाला कोई और नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सेक्स माफिया को कंट्रोल करने वाले व्यापारी बैठे हैं। उनके इस गोरखधंधे में दिल्ली और मुंबई में बैठे कुछ अति आधुनिकता का स्वांग भरने वाले फैशन परस्त लोग हैं। इस बिरादरी के लोग बड़े अखबारों और टी.वी. चैनलों में भी घुसपैठ कर चुके हैं।

अखबार के मुताबिक इस तरह के लोग आम तौर पर भाड़े के टट्टू टाइप लोग हैं। शायद इसीलिए जब दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आया तो सबसे पहले मीडिया वालों में से वह वर्ग सक्रिय हुआ जो पी.आर. एजेंसियों की कृपा से पहले से फिट किया जा चुका था। दिल्ली के जंतर मंतर पर दस-बीस लोग नाचते गाते इकट्ठा हुए। उनको कुछ टी.वी. चैनलों ने इस तरह पेश किया, मानो कोई बहुत बड़ी राजनीतिक घटना हो गई हो। एक अंग्रेजी अखबार की कवरेज देखकर तो लगता था कि देश ने किसी बहुत बड़ी लड़ाई में जीत हासिल की हो। साप्ताहिक पत्र के अनुसार मैक्सिको और मलयेशिया के बाद अब भारत निशाने पर है।

अंतर्राष्ट्रीय सेक्स व्यापार माफिया की कोशिश है कि भारत को सैक्स का हब बनाया जाय। इसीलिए समलैंगिकता पर हाईकोर्ट के फैसले को एक जीत के रूप में पेश किया जा रहा है। इन लोगों की कोशिश होगी कि आगे चलकर वेश्यावृत्ति को भी जायज घोषित करवा दिया जाय जिसके बाद से भारत को सैक्स पर्यटन का केंद्र बनाकर पूरी दुनिया के लोगों को यहां बुलाया जाय। अगर यह सच है तो यह बहुत ही खतरनाक है और सरकार, राजनीतिक दल, न्यायपालिका और आम आदमी को सावधान हो जाना चाहिए। एड्स की चपेट में पड़ चुकी दुनिया में अगर सेक्स माफिया के चक्कर में पड़कर भारत गाफिल पड़ गया तो देश तबाही की तरफ चल पड़ेगा। मामले की गंभीरता को देखते हुए न्यायपालिका ने तो पहल कर दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और हाईकोर्ट में मुकदमा दाखिल करने वाले एन.जी.ओ. से जवाब तलब कर लिया है। किसी ज्योतिषी की अपील पर मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने 20 जुलाई की तारीख दी है। विचाराधीन मामले में समलैंगिक शादियों पर रोक लगाने के साथ साथ यह भी प्रार्थना की गई थी कि दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले पर भी रोक लगा दी जाय जिसके अनुसार भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) की धारा 377 को अपराध मानने से मना कर दिया गया है। सुनवाई के दौरान अपीलकर्ता के वकील ने बताया कि हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद समलैंगिक शादियों का दौर शुरू हो गया है जिस पर रोक लगाई जानी चाहिए।

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि हाईकोर्ट के आदेश में विवाह कानून बदलने जैसी तो कोई बात की नहीं गई है, इसलिए शादियों की बात का कोई मतलब नहीं है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि जल्दबाजी में फैसले पर रोक लगाना ठीक नहीं है। दस दिन में पूरी सुनवाई ही कर ली जाएगी। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि 377 के ज्यादातर मामले छोटे बच्चों के यौन शोषण से संबंधित होते हैं। उन्होंने अदालत में कहा कि पूरे कैरियर में उनके सामने 377 का ऐसा कोई मामला नहीं आया जिसमे ंकोई रज़ामंद वयस्क वादी या प्रतिवादी हो। इसका सीधा मतलब है कि समलैंगिता को अपराध की सूची से हटवाने वाले गिरोहों की कोशिश है कि छोटे बच्चों को सेक्स के गुलाम की तरह बेचने के उनके कारोबार की वजह से उन पर कोई आपराधिक मुकदमा न चले।

इस तरह की खबरें अकसर आती रहती हैं कि सेक्स व्यापार के धंधेबाजों ने गरीब मां बाप के बच्चों का अपहरण करवा कर या खरीद कर विदेश भेजने की कोशिश की। अगर समलैंगिकता अपराध नहीं रह रह जाएगा तो इस तरह के धंधेबाज, बच्चों को विदेश भेजने की कोशिश नहीं करेंगे। यहीं अपने देश में ही सेक्स टे्रड के अड्डे खुल जाएंगे। समलैंगिकता के मामले को दूसरी आज़ादी की तरह पेश करने वाले अज्ञानी नेताओं और बुद्घिजीवियों को फौरन संभल जाना चाहिए। पी.आर. एजेंसियों की मीडिया को प्रभावित कर सकने की ताकत का इस्तेमाल करके समलैंगिकता को जायज करार दिलवाने की कोशिश कर रहे माफिया की ताकत बहुत ज्यादा है।

इस माफिया ने पैसा तो कुछ चुनिंदा एनजीओ और लॉबी करने वालों को दिया होगा लेकिन मीडिया का इस्तेमाल करके इसे मानवाधिकार का मामला बनाने की कोशिश कर रहे हैं। एक बार अगर यह मानवाधिकार का मामला बन गया तो लॉबी करने वालों का एक नया वर्ग भी इससे जुड़ जाएगा जो बात को और पेचीदा बना देगा। देखा गया है कि कुछ नेता भी इस मामले में गोल मटोल बात कर रहे हैं, इन लोगों को फौरन संभल जाना चाहिए। अगर यह मुगालता है कि समलैंगिक लोगों की आबादी बहुत ज्यादा है तो उसे दुरुस्त कर लेने की जरूरत है। यह सब मीडिया में बैठे कुछ समलैगिक लोगों की बनाई कहानी है, इसको गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। सभी धर्मों के नेताओं ने इस मामले में अपनी राय दे दी है।

सबने एकमत से इसका विरोध किया है। सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट की 20 जुलाई की सुनवाई पर लगी हैं। सबको उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट, सेक्स टे्रड माफिया और उसके कारिंदे एन.जी.ओ. के खेल को खत्म करेगा और देश की मर्यादा पर आंच नहीं आने देगा।

ज़रदारी की पीड़ा

जब तक बिल्ली अपने खूनी पंजों से दूसरों को लहुलहान करती रही तब तक पाकिस्तानी शासक बड़ी ही स्पष्टता से इस सच्चाई को नकारते रहे कि इस खूनी बिल्ली से उनका कोई रिश्ता है और वो यह भी कहते रहे कि बिल्ली को पालने वाले तथा उसे दूध और गोश्त की आपूर्ति करने वालों को भी वो नहीं जानते लेकिन जब उस खूंखार बिल्ली ने उनके ही मुंह पर पंजे गड़ाने शुरु किए तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को भी कहना पड़ा कि 'हमारी बिल्ली हम ही से म्याऊं'।

कहने का तात्पर्य यह है कि जब सारी दुनिया चीख चीख कर कह रही थी कि पाकिस्तान आतंकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह बन गया है तो पाकिस्तान सरकार इन आरोपों को निराधार बताकर अपना दामन साफ बचाती रही जिसका दुष्परिणाम यह निकला कि पाकिस्तान के हालात अब इतने भयानक हो गए है कि जिनकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है। इसीलिए विगत दिन राष्टï्रपति आसिफ अली जरदारी को अपने निवास पर उच्च अधिकारियों व सेवानिवृत संघीय सचिवों की बैठक में बिना लाग लपेट के इस कड़वी सच्चाई को हलक से उतारकर यह स्वीकार करना पड़ा कि आतंकवादी पाकिस्तान में ही तैयार हो रहे है।

जरदारी का कहना है कि उनके देश ने ही आतंकवाद और कट्टरपंथ को पाल-पोस कर बड़ा किया है क्योंकि ऐसा करने के पीछे कोई तात्कालिक लाभ हासिल करना था। जरदारी का कहना है कि ऐसा भी नहीं है कि देश में आतंकवाद और कट्टरपंथ इस वजह से फला-फूला कि पाकिस्तान की राजनीतिक व प्रशासनिक ताकत कमजोर हुयी थी बल्कि कुछ राजनीतिक उद्देश्यों को तुरंत प्राप्त करने के लिए आतंकवाद को एक सशक्त हथियार के रूप में खड़ा करने की नीति अपनायी गयी। वही नीति अब पाकिस्तान की तबाही व बर्बादी का सबब बन रही है।

हालांकि जरदारी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि वो तत्कालिक लाभ क्या थे जिन्हें हासिल करने के लिए पाक शासकों को आतंकवाद का सहारा लेना पड़ा लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वो तात्कालिक लाभ भारत को कमज़ोर करना ही था। जहां तक भारत का सवाल है तो वो पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का दंभ झेल रहा है और वो कहता रहा है कि कश्मीर में आतंकवाद के व्यापक प्रचार व प्रसार में सारा धन व बल पाकिस्तान की ज़मीन से ही मिल रहा है।

लेकिन पाकिस्तनी शासक जानबूझ कर इस सच्चाई पर पर्दा डालते रहे। मगर इस हकीकत से सारी दुनिया अच्छी तरह बाखबर थी! इसलिए जहां तक राष्टï्रपति जरदारी की बात है तो उन्होंने कोई बहुत बड़ा रहस्योदघाटन नहीं किया है बस एक सच्चाई को अपने मुंह से बयान कर सरकारी मुहर लगायी है। यद्यपि वो आतंकवाद के खिलाफ शुरु से ही बोलते रहे है लेकिन मुबंई हमलों के बाद सारी सच्चाई जानते हुए भी उनके विचार जिस तरह रोज़ रंग बदलकर सामने आए थे तो यही लगा था कि सच कहने से वो भी बच रहे हैं।

पर अब न जाने उन्हें यह साधूवाद अचानक कैसे प्राप्त हुआ कि एक ही झटके में उन्होंने अपने देश के पूर्व शासकों का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया। इसकी बड़ी वजह यही हो सकती है कि आज पाकिस्तान गृहयुद्घ के कगार पर है अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है, प्रांतवाद व विभिन्न सम्प्रदायों के बीच वैमनस्य चरम पर है। एक ओर तालिबान व अलकायदा के गुर्गे अपने बनाए हुए 'इस्लाम' के अनुसार खून की होली खेल रहे है तो दूसरी ओर पूर्व राष्टï्रपति जनरल जियाउल हक के काल में सशस्त्र की गयी धार्मिक जमाअतें भी आतंक का खेल खेल रही है। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में शासन नाम की कोई चीज ही नहीं है।

इन हालात में राष्ट्रपति ज़रदारी की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है। पाकिस्तान विकास के मार्ग पर अग्रसर हो, आम जनता खुशहाल, हो, शांति व्यवस्था का वातावरण कायम हो यह भारत ओर पाकिस्तान दोनों के हित में है। लेकिन भारत की ओर से शांति व सहअस्तित्व के निरंतर प्रयासों के बावजूद पाकिस्तानी शासक 'कश्मीर' से बाहर ही निकलना नहीं चाहते पाकिस्तान के शासक अब तक भारत विरोधी रणनीति अपना ही देश पर शासन करते रहे हैं, अफगानिस्तान को रूस से मुक्त कराने केलिए अमेरिका से मिले धन व हथियार जनरल जियाउलहक ने धर्म व सम्प्रदायों के नाम उपजी कट्टर संस्थाओं में बांट कर तात्कालिक लाभ हासिल किया, वो खुद तो हवा में ही बिखर गए लेकिन देश को आतंक के जाल में फंसा गए।

पाकिस्तान को समझना चाहिए कि भारत के साथ अपने सामाजिक, व्यापारिक व सांस्कृतिक रिश्तों को मजबूत करके ही वो आगे बढ़ सकता है। इसलिए पाकिस्तान के पूर्व शासकों की गलतियों को सुधारने का अगर ज़रदारी में दम है तो वो आतंकवाद के खातमे के लिए आर-पार की लड़ायी के लिए उठ खड़े हों बशर्त सेना भी उनका साथ दे तो एक पाक साफ पाकिस्तान बनने में कोई ज्य़ादा समय नहीं लगेगा।

लालू की घेराबंदी और ममता का श्वेतपत्र

रेल बजट के दिन से ही बिहार के नेता लालू प्रसाद पर राजनीतिक मुसीबतों के आने का खतरा शुरू हो गया हैं। राज्यसभा में भाजपा संसदीय दल के नेता अरुण जेटली ने रेल मंत्रालय को एक ऐसे मंत्रालय के रूप में पेश किया जो अपने काम के अलावा पूरी दुनिया के काम करता रहता है। मेडिकल कालेज खोलना, अखबार निकालना कुछ ऐसे काम हैं जो रेल मंत्रालय की मुख्य प्राथमिकता नहीं है लेकिन सरकार उसी पर ध्यान ज्यादा दे रही है।

रेल सुरक्षा और यात्री सुविधा जैसे जरूरी काम रेल मंत्रालय की मुख्य सूची से हट गए हैं। उन्होंने रेलमंत्री का मजाक उड़ाते हुए कहा कि वासुमती मंदिर ट्रस्ट को अधिग्रहीत कर के उसके अखब़ार निकालने की योजना का रेल मंत्रालय से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। रेल बजट के दिन दिए जाने वाले रेलमंत्री के भाषण पर समाजवादी पार्टी के प्रोफेसर राम गोपाल यादव ने बहुत ही गंभीर टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि रेलमंत्री के रूप में लालू प्रसाद यादव ने कुछ घोषणाएं की थीं जो अब रिकार्ड में नहीं हैं।

उपसभापति ने कहा कि यह मामला दूसरे सदन का है लिहाजा वे उस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते लेकिन इस बात की गंभीरता के मद्देनजर इसकी जांच की प्रक्रिया शुरू कराई जाएगी। रामगोपाल यादव ने सरकार पर और भी गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि लालू प्रसाद यादव ने अपने बजट भाषण में मैनपुरी होते हुए एक रेलवे लाइन की बात की थी। उनके भाषण का वह हिस्सा रिकॉर्ड में नहीं है। उन्होंने कहा कि भाषण की सी.डी. उपलब्ध है। उसको दिखाकर वे अपनी बात को सिद्घ करेंगे और सरकार से जवाब मांगेगे।

प्रो. यादव ने आरोप लगाया कि रेलमंत्री के भाषण को सरकार गंभीरता से नहीं लेती। उनका आरोप है कि रेलमंत्री के रूप में माधवराव सिंधिया ने बजट भाषण के दौरान जो वायदे किए थे, उनको भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। बाद के भाषणों का भी वही हश्र हुआ कुछ ऐसी योजनाओं पर भी अभी काम शुरू नहीं हुआ है जिनका उदघाटन तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। प्रो. यादव ने सुझाव दिया कि रेल मंत्रालय को चाहिए कि वह बजट भाषणों के दौरान पहले के मंत्रियों के वायदों को पूरा करने की एक योजना बनाए।

अगर अधूरी पड़ी परियोजनाओं को पूरा करने पर ही ध्यान रखा जाय तो देश का बहुत भला होगा। लालू प्रसाद की मित्र पार्टी के नेता की ओर से की गई इस टिप्पणी का मतलब बहुत ही गंभीर है। यह इस बात का भी संकेत है कि राजद के अध्यक्ष बहुत तेजी से मित्र खो रहे हैं। रेलमंत्री ममता बनर्जी के भाषण के दौरान लालू पर हुए कटाक्ष राजद सुप्रीमो के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं थे। उसी भाषण में उन्होंने लालू प्रसाद के ऊपर रेल प्रशासन को ठीक से न चलाने का भी संकेत दिया था।

उनका आरोप था कि अंतरिम बजट के दौरान जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उनको हासिल कर पाना संभव है नहीं है लिहाजा ममता के बजट में लक्ष्यों में संशोधन किए जा रहे हैं। यह बहुत ही गंभीर बात है क्योंकि यह अंतरिम बजट पेश करने वाले की राजनीतिक क्षमता पर टिप्पणी भी है। लेकिन लालू प्रसाद के लिए इससे भी गंभीर बात यह है कि ममता बनर्जी ने घोषणा कर दी कि रेलमंत्रालय के पिछले पांच साल के कामकाज पर एक श्वेतपत्र लाया जायेगा।

ममता बनर्जी के रेल भाषण में कही गईं बहुत सी बातें पूरी नहीं हो पाएंगी इसमें दो राय नहीं है। अब तक यह बात सभी जानते थे लेकिन मंगलवार के दिन राज्यसभा में प्रो. रामगोपाल यादव की घोषणा, कि रेलमंत्री के भाषण के कुछ अंशों को रिकार्ड से गायब कर दिया गया है, बहुत ही गंभीर है। श्वेत पत्र में इस बात पर भी चर्चा हो सकती है जो लालू के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा करेगी। एक बात और महत्वपूर्ण है कि बजट भाषण की बाकी बातें भले भूल जायं लेकिन लालू को नुकसान पहुंचाने की गरज से उनके बारे में प्रस्तावित श्वेत पत्र के मामले में कोई चूक नहीं होगी।

लालू की पोल खोलने के लिए व्याकुल रेल मंत्रालय के कुछ अफसर इस बात को ठंडे बस्ते में कभी नहीं जाने देगे। जब भी कभी श्वेतपत्र आएगा लालू यादव की कार्यशैली पर एक बार चर्चा अवश्य होगी जोकि लगभग निश्चित रूप से राजनीतिक नुकसान पहुंचाएगी। लालू के आजकल के आचरण को देखकर भी लगने लगा है कि वे आजकल झल्लाए हुए हैं। बजट भाषण के दौरान ममता बनर्जी को भी उन्होंने कई बार टोकने की कोशिश की जिसका ममता पर तो कोई खास असर नहीं पड़ा लेकिन लालू प्रसाद की झुंझलाहट बढ़ाने में सहायक रहा।

लोकसभा में फिर लालू प्रसाद की झल्लाहट नजर आई। सदन में प्रश्नकाल के दौरान अध्यक्ष ने नक्सल हिंसा के बारे में लालू प्रसाद को पूरक प्रश्न पूछने की अनुमति दी। उठकर उन्होंने नक्सल समस्या पर भाषण देना शुरू कर दिया। जब अध्यक्ष ने उन्हें चेताया कि वे अपना प्रश्न पूछें तो लालू जी नाराज हो गए और अध्यक्ष पर ही आरोप जड़ दिया कि हम जानते हैं कि आप हमें नहीं बोलने देंगी। झल्लाहट लालू प्रसाद के व्यक्तित्व का हिस्सा कभी नहीं रहा। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी वे संतुलित रहते हैं लेकिन आजकल उनके व्यक्तित्व का यह नया स्वरूप देखकर लगता है कि उनको अंदाज है कि कांग्रेस उनके आगे के राजनीतिक सफर को मुश्किल करने की मंसूबाबंदी कर चुकी है।

ममता बनर्जी का प्रस्तावित श्वेत पत्र लालू को मुश्किल में डाल सकता है। इस बारीकी को समझने के लिए लोकसभा चुनाव 2009 की कुछ झलकियों पर नजर डालना पड़ेगा। चुनाव के पहले लालू प्रसाद अकसर कहा करते थे कि उनके बिना कोई सरकार नहीं बनेगी। बातों बातों में वे कांग्रेस की खिल्ली भी उड़ाया करते थे। उसी दौर में एक बार मीडिया से मुखातिब प्रणब मुखर्जी ने कह दिया था कि केंद्र सरकार में लालू की भूमिका बहुत पक्की नहीं है, यहां तक कि उनकी अपनी कुर्सी की भी बहुत संभावना अधिक नहीं होगी।

लालू प्रसाद ने इस बात का बुरा माना था और सोनिया गांधी से शिकायत की थी। संयेाग की बात कि लालू का वही राजनीतिक भविष्य हुआ जिसकी प्रणब मुखर्जी ने संभावना जताई थी। सभी जानते हैं कि ममता बनर्जी और प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक संबंध आजकल बहुत ही ठीक हैं इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के बंगाल स्कूल के नेता मिलकर लालू यादव को औकात बोध का ककहरा पढ़ा रहे हो और उनको एहसास करा रहे हों कि सत्ता पाने पर भी अपनी सीमाओं की पहचान रखना भलमन साहत का लक्षण तो है ही, अच्छी राजनीति का बुनियादी सिद्घांत भी है।

Tuesday, July 28, 2009

राजनीतिक बयानबाजी बनाम विकास का एजेंडा

उत्तरप्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने राज्य का बहुत नुकसान किया है। मुख्यमंत्री मायावती को उनके कर्तव्यों को याद दिलाने के लिए शुरू हुए जनता के आंदोलन को उन्होंने पटरी से उतार दिया है। राज्य में बढ़ रही बद अमनी और जंगलराज के खिलाफ जो टिप्पणी उन्होंने मुरादाबाद में की उसके पहले हिस्से के बाद ही अगर वे चुप हो जाती तो राज्य पर बड़ा उपकार होता लेकिन वे अपनी रौ में बह गईं और ऐसी बात कह दी जिसके लिए उन्हें सजा मिलनी चाहिए।

उनके बयान के बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, जेल में रखा और अब अदालत में उन पर मुकदमा चलाने की प्रकिया शुरू हो गई है। भारतीय दंड संहिता और दलित ऐक्ट के तहत उन पर मुकदमा चलाया जाएगा। उनकी आपत्तिजनक टिप्पणी से नाराज बसपा कार्यकर्ताओं ने उनका घर फूंक दिया, लूटपाट की और आपराधिक कार्य किया। पुलिस को उनके खिलाफ भी कार्रवाई करनी चाहिए। एफआईआर दर्ज हो गया है और मामला तफतीश की स्टेज पर है। इस बीच मायावती को कहीं से पता चला है कि रीता बहुगुणा जोशी के घर पर लूटपाट करने वाले लोग बसपाई नहीं, कांग्रेसी थे। अपनी तफतीश में पुलिस को मुख्यमंत्री के इस बयान को शामिल कर लेना चाहिए जिससे कि जांच में सुविधा मिलेगी।

आम आदमी की रुचि केवल इस बात में है कि जो भी अपराधी हो उस पर मुकदमा कायम हो और उसे सजा दी जाय। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि मायावती और रीता बहुगुणा के बीच वाक्युद्घ की राजनीति शुरु हो गई है। कांग्रेस की कोशिश है कि उत्तरप्रदेश में मायावती के विरोध की राजनीति के स्पेस पर कब्जा किया जाय। अगर कांग्रेस अपने आपको मायावती विरोधी स्पेस में स्थापित कर लेती है तो राज्य की सत्ता की वापसी में उसे बहुत फायदा होगा। अभी मायावती के विरोध का स्पेस मुलायम सिंह यादव के पास है।

इस बयानबाजी की राजनीति की मदद से उत्तरप्रदेश की सरकार को भी मौका मिल गया है कि राज्य में विकास और कुशासन के मामले में अलग थलग पड़ी बहुजन समाजपार्टी कांग्रेस के खिलाफ हल्ला गुल्ला करके बहस के दायरे से विकास के मसले को बाहर कर दे। पिछले कई महीनों से जागरूक जनमत और मीडिया के सहयोग से उत्तरप्रदेश की चर्चाओं में विकास एक प्रमुख विषय के रूप में उभरा था। इस संदर्भ में मायावती का योगदान भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने विकास की किसी भी पहल की बाट जोह रहे राज्य को मूर्तियों और स्मारकों से नवाजने का जो अभियान चलाया उसकी वजह से चारों तरफ से आवाज उठने लगी थी कि फिजूल खर्ची बनाम विकास पर बहस होनी चाहिए।

रीता बहुगुणा जोशी के गैर जिम्मेदार बयान की वजह से बहुजन समाजपार्टी ने बहस का स्तर और दिशा बदलने की कोशिश शुरू कर दी है। अगर मीडिया और जागरूक जनमत संभल न गया तो राज्य में विकास की संभावना पर फिर सवालिया निशान लग जाएगा। रीता बहुगुणा के बयान की वजह से यह अवसर सत्ता पक्ष के हाथ आया है और वे पूरी तरह से जुट गए हैं कि बहस विकास और सुशासन के दायरे से बाहर चली जाय।देखने में आ रहा है कि मीडिया भी बयानबाजी की राजनीति का माध्यम बन रहा है। अगर ऐसा हुआ तो बहुत बुरा होगा।

जहां तक मीडिया का सवाल है, उसका कर्तव्य है कि वह उत्तरप्रदेश सरकार को बताए कि मुरादाबाद में एक कांग्रेसी ने आपत्तिजनक बयान दिया, उसके खिलाफ जो भी कार्रवाई ठीक हो, की जाय। लखनऊ में उस कांग्रसी का घर जलाया गया घर जलाने वालों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए। यह दोनों ही घटनाएं निंदनीय हैं, और इनकी जांच कानून के दायरे में रहकर की जानी चाहिए, मुकदमा कायम करके न्याय का शासन स्थापित किया जाना चाहिए। यह काम यहीं खत्म हो जाता है, जहां तक सरकार का ताल्लुक है। इसके बाद सरकार को वह काम शुरू कर देना चाहिए जिसके लिए उसे जनता ने चुना है। वह काम है विकास, और सुशासन। मीडिया का भी यही दायित्व है कि वह राज्य सरकार को उसके कर्तव्यों की याद दिलाता रहे और आगजनी या अपमानजनक बयानबाजी के बहाने भटकने न दे।

कांग्रेस भी लोकसभा में सम्मानजनक सीटें हासिल करने के बाद उत्तरप्रदेश की अगली सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है और बहुजन समाज पार्टी की तो सरकार है ही।इस पृष्ठभूमि में उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री को डा. बी.आर. अंबेडकर के 1916 के उस पत्र की याद दिलाई जानी चाहिए जिसमें उन्होंने लिखा था कि किसी की मूर्ति लगाने से अच्छा है कि शिक्षा संस्थानों की स्थापना की जाय। अमरीका के कोलंबिया विश्वविद्यालय के छात्र अंबेडकर ने बॉम्बे क्रॉनिकल अखबार में चिठ्ठी लिखकर उस वक्त की बॉम्बे सरकार के उस प्रस्ताव की आलोचना की थी जिसके अनुसार बंबई नगर निगम के सामने 1915 में स्वर्गीय हुए फीरोज शाह मेहता की मूर्ति लगाने की बात की गई थी। डा. अंबेडकर की बात आज भी उतनी ही सच है।

उत्तरप्रदेश में शिक्षा का स्तर रोज ही गिर रहा है। यहां यह साफ करना जरूरी है कि इसके लिए केवल बहुजन समाजपार्टी को जिम्मेदार ठहराना गलत होगा। शिक्षा के स्तर में भारी गिरावट का सिलसिला 70 के दशक में ही शुरू हो गया था। इसके लिए कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी की सरकारें जिम्मेदार है। मायावती की मौजूदा सरकार के पास इसे दुरुस्त करने का मौका है लेकिन सरकार के करीब डेढ़ साल तो गुजर चुके हैं और इस दिशा में अभी कोई पहल नहीं हुई है। सरकार को इस दिशा में फौरन पहल करनी चाहिए। दूसरा क्षेत्र जिसमें सरकार को फौरन ध्यान देना चाहिए वह है खेती के विकास का।

राज्य का मुख्य धंधा खेती है। किसान त्राहि-त्राहि कर रहा है, न बिजली है, न पानी है, न बीज है और खाद के कारोबार पर कालाबाजारी करने वाले कुंडली मार कर बैठे हैं। यह राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है कि इन लोगों को दुरुस्त करे और अगर इन स्वार्थी लोगों को पता लग जाय कि राज्य सरकार का इरादा जनता का पक्षधर बनने का है तो अपने आप ही रास्ते पर आ जाएंगे। इसी तरह से जिसके घर में खेती की बुनियादी व्यवस्था ही न हो वह हवेली नहीं बनवाता। उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री को मूर्तियां स्थापित करके अमर होने के मोह से उबरना पड़ेगा। जितने खर्च में मूर्तियां लग रही हैं, उतने ही खर्च में अगर दलित महापुरुषों के नाम पर राज्य की हर कमिश्नरी में बड़े अस्पताल खोल दिए जाएं, डा. अंबेडकर और कांशीराम के नाम पर हर जिले में बिजली घर बना दिए जायं तो भावी पीढिय़ा भी उन्हें याद रखेंगी।

इसी तरह से अगर शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था को अनुशासन की सीमा में लाकर कम शुरू कर दिया जाय तो बहुत ही अच्छा होगा। इन्हीं प्राइमरी स्कूलों से पढ़कर राज्य में बड़े से बड़े विद्वान अफसर और वैज्ञानिक पैदा हुए हैं। अगर प्राइमरी शिक्षकों को उनकी ड्यूटी करने के लिए मुख्यमंत्री जी मजबूर कर सकें तो राज्य का भविष्य सुधर जाएगा।समता मूलक समाज की स्थापना में सबसे बड़ी बाधा जाति व्यवस्था है। डा. राम मनोहर लोहिया और डा. भीमराव अंबेडकर दोनों ही महापुरुषों ने इसके विनाश की बात की है।

पिछले 18 वर्षों से राज्य में ऐसी कोई सरकार नहीं बनी है जिसमें लोहिया और अंबेडकर के अनुयायी न रहे हों लेकिन न मुलायम सिंह ने जातिव्यवस्था खत्म करने की दिशा में कोई पहल की और न ही मायावती ने। सरकार को अपने बाकी बचे हुए वक्त में इस विषय पर भी ध्यान देना चाहिए। जरूरी है कि सरकार और बहुजन समाजपार्टी का एजेंडा विकास और सुशासन बनाए रखने में मीडिया और जागरूक जनमत के प्रतिनिधि सहयोग करें। रीता बहुगुणा जोशी के अभद्र बयान पर कार्रवाई करने के लिए नियम कानून हैं, उस पर राजनीतिक ताकत की बर्बादी नहीं होनी चाहिए। राज्य सरकार को विकास की डगर से विचलित नहीं होना चाहिए।

इंसाफ की राजनीति और बजट

1980 में केंद्रीय सरकारों ने सॉफ्ट हिंदुत्व को सरकारी नीतियों के केंद्र में रखना शुरू किया था। इंदिरा गांधी जवाहर लाल नेहरू की बेटी थीं, उनमें धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के संस्कार थे जिसका उन्होंने पालन भी किया लेकिन 1980 के चुनावों के पहले उनके पुत्र स्व. संजय गांधी हिंदुत्व की तरफ खिंचने लगे थे। आर.एस.एस. वालों ने भी कई बार इस तरह की बातें की थीं कि संजय गांधी से देश को उम्मीदें हैं। इसी सॉफ्ट हिंदुत्व के चक्कर में पंजाब में अकालियों को तबाह करने की योजना बनाई गई थी जिसमें जनरैल सिंह भिंडरावाले को आगे बढ़ाया गया था।

बताते हैं कि संजय गांधी ने अपनी मां को भी इसी लाइन पर डालने में सफलता हासिल की थी। बहरहाल 1980 के बाद से केंद्रीय बजट में अल्पसंख्यकों को दरकिनार करने का सिलसिला शुरू हुआ था। संजय गांधी को यह भी नाराजगी थी कि 1977 में मुसलमानों की मुखालिफत के कारण ही उनकी मां की सत्ता खत्म हो गई थी। इसी दौरान संघ की राजनीति के प्रेमी बहुत सारे लोग कांग्रेस में भरती हुए। अरुण नेहरू टाइप लोगों ने कांग्रेस पर कब्जा कर लिया और 1991 में तो बीजेपी के समर्थन वाली सरकार ही आ गई।

1980 के बाद ही बाबरी मस्जिद की शहादत और दीगर बहुत से मसलों के हवाले से मुसलमानों को सरकारी तौर पर अपमानित करने का सिलसिला चलता रहा। अब 29 साल बाद एक ऐसी सरकार आई है जो पिछली सरकारों की गलतियों को दुरुस्त करने की कोशिश कर रही है। आर.एस.एस. और उसके मातहत काम करने वालों की समझ में बात नहीं आ रही है। बहरहाल प्रणब मुखर्जी के इस बजट में ऐसे कुछ प्रावधान हैं जो अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के साथ हुए पिछले तीस साल के अन्याय को इंसाफ की शक्ल देने की कोशिश करते हैं। एक बात यहां स्पष्ट कर देना जरूरी है कि बजट में जो भी है वह मुसलमानों के प्रति एहसान नहीं है।

यह उस हक का एक मामूली हिस्सा है जो पिछले तीस वर्षों से केंद्रीय सरकारें छीनती रहीं है। प्रणब मुखर्जी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय के बजट में 74 प्रतिशत की बढ़ोतरी का ऐलान किया है। पिछले साल बजट में 1000 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई थी जो इस साल बढ़कर 1740 करोड़ कर दी गई है। इसके अलावा अल्पसंख्यक बहुल जिलों में प्राथमिकता के आधार पर बिजली, सड़क पानी आदि के विकास के लिए योजनाएं लाई जाएंगी। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के जरिए यू.पी.ए. सरकार ने अपनी मंशा का ऐलान मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में ही कर दिया था। इस बजट में उस मंशा को अमली जामा पहनाने की कोशिश की गई है।

मनमोहन सिंह ने बार बार कहा है कि तरक्की के लिए शिक्षा सबसे जरूरी हथियार है। उनका अपना जीवन भी शिक्षा के अच्छे अवसरों की वजह से दुरुस्त हुआ है। इसलिए अल्पसंख्यकों के कल्याण की योजनाओं में शिक्षा को बहुत ज्यादा महत्व देने की बात कही जा रही थी, जो बजट के बाद एक गंभ़ीर प्रयास के रूप में नजर आने लगी है। अल्पसंख्यक बच्चों को इतनी छात्रवृत्तियां दी जाएंगी कि उनकी तालीम इसलिए न रुक जाय कि पैसे की कमी है। अल्पसंख्यकों की कुशलता के विकास के लिए भी बड़ी योजनाओं की बात की जा रही है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की केरल और बंगाल में कैंपस खोलने की योजनाओं की चर्चा बरसों से होती रही है।

अपने बजट भाषण में इसके लिए धन का इंतजाम करके वित्त मंत्री ने अल्पसंख्यकों के भावनात्मक मुद्दों को भी महत्व दिया है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक वित्त एंव विकास निगम और मौलाना आज़ाद फाउंडेशन को और मजबूत किया जा रहा है। इस बजट की एक खास बात यह है कि यह कांग्रेस पार्टी की राजनीति को सरकार चलाने के लिए गंभीरता से आगे बढ़ाने का काम करता है। बजट के जरिए देश की आबादी के एक बड़े वर्ग को यह बताने की कोशिश की गई है कि यह देश सबका है।

अफसोस की बात यह है कि केंद्र सरकार की इंसाफ की डगर पर चलने की कोशिश को संघी राजनीति के कुछ कारिंदे तुष्टीकरण की नीति के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ इलाकों में जुलूस वगैरह भी निकालेे गए हैं और सरकार को मुसलमानों के खिलाफ काम करने की प्रेरणा देने की कोशिश की गई है। लेकिन लगता है कि केंद्र सरकार पर इसका कोई असर नहीं पडऩे वाला है, उसे संघी नेताओं की असुविधा पर मजा आ रहा है।

बजट 2009 कांग्रेस पार्टी की उस राजनीति की एक प्रक्रिया है जिसके तहत उसने मुसलमानों को अन्य पार्टियों से खींचकर अपनी तरफ लाने की कोशिश शुरू की थी। लोकसभा चुनाव 2009 में ही साफ संकेत मिलने लगे थे कि कांग्रेस पार्टी अब मुसलमानों के लिए अछूत नहीं है। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने वाली, शिलान्यास करवाने वाली और बाबरी मस्जिद की शहादत में जिम्मेदार पार्टी की अपनी छवि से बाहर निकलने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट मिलना बहुत बड़ी बात थी। कांग्रेस की कोशिश है कि उसे दुबारा अल्पसंख्यकों का विश्वास हासिल हो जैसे 1971 तक था।

इस मायने में मौजूदा बजट वित्त व्यवस्था के प्रबंध को दुरुस्त करने के साथ-साथ राजनीति को भी चाक चौबंद रखने में काम आयेगा। किसी भी राजनीति का उद्देश्य होता है कि वह अपने देश की अधिकतम जनता की महत्वांकाक्षा का वाहक बने। बीजेपी आदि जो पार्टियां हैं वे अल्पसंख्यकों को अपने दायरे से बाहर रखकर काम करना चाहती है। उनकी कोशिश रहती है कि सरकार मुसलमानों को औकातबोध कराने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम करे।

बीच में कुछ दिनों के लिए कांग्रेस में भी यह बात आ गई थी लेकिन अब लगता है कि माहौल बदल रहा है। सोनिया-मनमोहन की टीम मुसलमानों को साथ लेकर चलने की नीति पर काम कर रही है। कम से कम बजट 2009 से तो यह संदेश बहुत ही साफ तरीके से सामने आ रहा है।

अमेरिका के लिए भारत बना खास

अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिटन जब तीन दिन की यात्रा पर चीन गयी तो भारत में चिंता की जा रही थी कि नये अमेरिकी हुकमरान की प्राथमिकताएं बदल रही है। चीन को भारत से ज्य़ादा महत्व दिया जा रहा है। लेकिन पांच दिन की भारत यात्रा पर आकर हिलेरी क्लिंटन ने ये बात साफ कर दी है कि भारत अभी भी अमेरिका की नज़र में महत्वपूर्ण देश है।


दुरस्त माहौल की शुरुआत

क्लिटन की यात्रा से साफ हो गया है कि अमेरिका भारत से हर तरह की दोस्ती का रिश्ता रखना चाहता है। भारत और अमेरिका की संभावना के बीच, आज की तारीख़ में सबसे अहम मुद्दा परमाणु समझौता है। हिलेरी क्लिंटन की यात्रा से एक बात बिल्कुल साफ हो गयी है कि परमाणु समझौता और उससे जुड़े मसले में अब किसी तरह की बहस की दरकार नहीं रखते। दोनों ही देशों के बीच पूरी तरह से समझदारी का माहौल है। हिलेरी क्लिंटन की ये यात्रा एक तरह से माहौल दुरुस्त करने की यात्रा थी। यहां आकर उन्होंने देश के बड़े उद्योगपतियों से मुलाकात की उसी होटल में विश्राम किया जिस पर 26/11 के दिन आतंकवादी हमला हुआ था।


उनकी यात्रा शुरू होने के पहले ही पाकिस्तान की सरकार ने स्वीकार कर लिया कि मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में उसके नागरिकों का हाथ था। जाहिर है पाकिस्तान की हुकूमत ने ये कदम अमेरिकी दबाव में ही उठाया है। विदेशमंत्री हिलेरी ने इस बात को भी जोर-शोर से मीडिया को बतलाया कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के शुरू होने के बाद भारत के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह पहले शासनाध्यक्ष होगें जो अमेरिका की यात्रा करेगें अपने दिल्ली प्रवास के दौरान, हिलेरी क्लिंटन ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हर इंसान से मुलाकात की।


परमाणु मुद्दे पर बात साफ

विदेशमंत्री एसएम कृष्णा और वे अब हर साल मिला करेगे। अपने कार्यकाल में वो कम से कम दो बार और भारत यात्रा पर आयेगी। परमाणु मुद्दे पर सारी बात साफ कर ली गयी है, खासकर जो दुविधा की स्थिति जी-8 सम्मेलन के बाद पैदा हो गयी थी। इस तरह से अमेरिकी विदेश मंत्री की यात्रा को दोनों देशों की कूटनीतिक संभावनाओं में एक खास मुकाम माना जा रहा है। विदेश मंत्री हिलेरी की इस यात्रा से एक और संदेश बहुत साफ नजर आ रहा है।


अपने देश में कुछ रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है, जो अपने को कूटनीति का सर्वज्ञ मानते है, इनमें से कुछ विदेश मंत्रालय की नौकरी में थे, तो कुछ रक्षा मंत्रालय की नौकरी में। बड़ी संख्या में टेलीविजन चैनलों के खबर के कारोबार में घुस जाने की वजह से इन लोगों का ज्ञान प्रवाहित होता रहता है। सच्ची बात ये है कि ये पुराने सरकारी कर्मचारी ये तो जान सकते है कि किसी कूटनीति समझौता का मतलब क्या है, लेकिन इन्हें ये नहीं पता होता कि राजनीतिक स्तर पर क्या सोचा जा रहा है। इसलिए ये लोग जब संभावनाओं की अभिव्यक्ति करते है, तो सब गड़बड़ हो जाता है।


इन बेचारों की ट्रेनिंग ऐसी नहीं होती कि ये लीक से हटकर सोच सके। इसलिए ये हर परिस्थिति की उल्टी सीधी अभिव्यक्ति करते है। आजकल भी इन लोगों का प्रवचन टीवी चैनलों पर चल रहा है। अमेरिका और भारत की संभावना की बारीकियों को समझने के लिए इन विद्वानों से बचकर रहना होगा। मौजूदा भारत-अमेरिकी संबंधों की सच्चाई यह है कि अमेरिका अब भारत को पाकिस्तान के बराबर का देश नहीं मानता और पाकिस्तान की परवाह किये बिना भारत के साथ संबंध रखना चाहता है।

आपसी हित के लिए संबंध

पाकिस्तान अमेरिका पर निर्भर एक देश है अगर अमेरिका नाराज़ हो जाएं तो पाकिस्तान मुसीबत में पड़ सकता है क्योंकि उसका खर्चा-पानी अमेरिका की मदद से ही चल रहा है। लेकिन भारत के साथ अमेरिका के संबंध आपसी हित की बुनियाद पर आधारित है। शायद इसलिए अमेरिकी कूटनीति की कोशिश है कि भारत के साथ सामरिक रिश्ते बनाएं। इस वक्त देश में ऐसी सरकार है जो अमेरिका से अच्छा रिश्ता बनाने के लिए कुछ भी कर सकती है इसके पहले की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार तो अमेरिका की बहुत बड़ी समर्थक थी।

वामपंथी पार्टी आजकल अपने अंदरूनी लड़ाई के चलते ही परेशान है इसलिए भारत अमेरिका सामरिक रिश्तों ने बहुत आगे तक बढ़ जाने की आशंका है। ये देश की आत्मनिर्भरता और सम्मान के लिए ठीक नहीं होगा। अगर ये हो गया तो ख़तरा है कि अमेरिकी फौज के जनरल भारत के राष्ट्रपति से भी उसी तरह बात करने लगेंगे जिस तरह वे पाकिस्तान राष्ट्रपति मुर्शरफ और जरदारी के साथ करते है। पूरी कोशिश की जानी चाहिए कि भारत और अमेरिका के बीच कोई सामरिक समझौता न हो जाए।