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Friday, April 16, 2010

भिवंडी के पावरलूम कारखानों में बीमार हैं हज़ारों बुनकर

शेष नारायण सिंह

भिवंडी ,१६ अप्रैल /उत्तर प्रदेश से रोजी रोटी की तलाश में आये हुए मुंबई के पास के औद्योगिक नगर ,भिवंडी पंहुचे कपड़ा मजदूर आजकल बहुत बीमार हो रहे हैं. मार्च से जून तक के महीनों में यहाँ पावर लूम सेक्टर में काम करने वाले मजदूरों पर हर साल की तरह इस साल भी बीमारियों ने धावा बोल दिया है और हर गली से बीमार लोगों की आवाजें सुन ने को मिल जाती हैं .यह बीमारी इस लिए आती है कि शादी व्याह के चक्कर में बड़ी संख्या में मजदूर गाँव चले जाते हैं और मालिक उनकी जगह पर नए लोगों को भर्ती नहीं करते ,बल्कि डबल ड्यूटी का लालच देकर मजदूरों से २०-२० घंटे काम करवाते हैं . जिस से मजदूरी तो ज्यादा मिल जाती है लेकिन मजदूर का स्वास्थ्य बिलकुल बरबाद हो जाता है . भिवंडी में मजदूरों के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्था जन कल्याण समिति ने मांग की है कि मजदूरों की गरीबी का शोषण करने के उद्देश्य से डबल ड्यूटी का लालच देने वाले मिल मालिकों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए क्योंकि वे मानवाधिकारों का हनन कर रहे होते हैं ..

भिवंडी में उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में बुनकर, पावरलूम सेक्टर में काम करने आते हैं . उनमें से ज़्यादातर मुसलमान ही होते हैं . अपने गाँव की गरीबी और रोजगार के अवसर की कमी से परेशान यह लोग भाग कर भिवंडी आते हैं . भिवंडी से हर साल लाखों मजदूर शादी व्याह के सीज़न में अपने गाँव वापस चले जाते हैं और मिल मालिकों के सामने मजदूरों की कमी मे का संकट पैदा हो जाता है . इसके बाद मालिक लोग उन मजदूरों को डबल ड्यूटी और प्रति मीटर अधिक मजदूरी का लालच देकर उन से ही काम करवाते हैं .. आम तौर पर एक मजदूर ४ लूम चलाता है लेकिन आजकल उन्हने ६ से १२ लूम तक पर काम करने का मौक़ा मिलता है . ज़ाहिर है इस से मजदूरी ज्यादा मिल जाती है . डबल ड्यूटी में काम २० घंटे का हो जाता है . खाने पीने का कोई इंतज़ाम नहीं होता . शहर में मौजूद ढाबों पर खाना काने और दिन भर में बीसों चाय पीने से मजदूरों का शरीर इतना कमज़ोर हो जाता है कि मामूली बीमारी से भी लड़ पाने की उनकी क्षमता ख़त्म हो जाती है. इस साल अब तक कई लोग कमजोरी की वजह से अपनी जान गंवा चुके हैं.अब पुलिस ने उन मजदूरों को पकड़ना शुरू कर दिया है जो डबल ड्यूटी कर रहे हैं . लेकिन मिल मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . पिछले साल भी यही हुआ था .लेकिन मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी . इन कारखानों में काम करने लायक हालात तो कतई नहीं हैं. मालिक लोग मजदूरों के पीने के लिए पानी तक का इंतज़ाम नहीं करते . प्यास लगने पर यह मजदूर आस पास के सस्ते ढाबों या होटलों में जाकर पानी पीते हैं .

Sunday, April 11, 2010

भ्रष्टाचार और घूस के खिलाफ जन आन्दोलन की तैयारी

शेष नारायण सिंह

सारी दुनिया जानती है कि भ्रष्टाचार अपने देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है . लेकिन सबको यह भी मालूम है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना बहुत आसान नहीं है .सरकार ने बहुत सारे ऐसे विभाग बना रखे हैं जिनका काम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना है लेकिन देखा यह गया है कि भ्रष्टाचार को रोकने की कोशिश करने वाले विभागों के अफसर उसी भ्रष्टाचार के आशीर्वाद से बहुत ही संपन्न हो जाते हैं . सबसे दिलचस्प बात यह है कि लगभग सभी भ्रष्टाचारी अपनी अपनी छतों पर खड़े हो कर बांग देते रहते हैं कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना ज़रूरी है लेकिन उनकी पूरी कोशिश यही रहती है कि चोरी-बे ईमानी का धंधा चलता रहे .
एक बात और भी बहुत सच है कि सभी अफसर भ्रष्ट नहीं होते , कुछ बहुत ही ईमान दार होते हैं . उत्तर प्रदेश जैसे भ्रष्ट अफसर शाही वाले राज्य में भी कुछ ऐसे ईमानदार अफसर हैं कि कि वे दामन निचोड़ दें तो अमृत हो जाए . लेकिन वे संख्या में बहुत कम हैं लेकिन हैं ज़रूर . उत्तर प्रदेश के इन्हीं ईमानदार अफसरों ने अपने ही बीच के भ्रष्ट अफसरों की लिस्ट बनायी थी लेकिन कुछ कर नहीं सके क्योंकि उन्हीं भ्रष्टतम अफसरों में से कुछ तो मुख्य सचिव की गद्दी तक पंहुच गए.राज्य में भ्रष्टाचार कम करने की कोशिश कर रहे ऐसे ही एक अफसर , विजय शंकर पाण्डेय ने अपने एक ताज़ा लेख में लिखा है कि आई ए एस अफसर की संपत्ति के हर पैसे का हिसाब होना चाहिए . निजी जीवन में भी श्री पाण्डेय ईमान दार हैं . लेकिन कुछ नहीं कर पा रहे हैं . बहर हाल एक खुशी की खबर है कि कुछ अवकाश प्राप्त सिविल, पुलिस और न्यायपालिका के अधिकारियों ने एक नयी पहल शुरू की है जिसके तहत सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को ख़त्म करने में मदद मिलेगी. इन अधिकारियों ने एक सार्वजनिक अपील भी जारी की है और आम जनता से कहा है कि अगर सब चौकन्ना रहें तो अपने देश की संपत्ति को बे-ईमान अफसरों और नेताओं से बचाया जा सकता है . भारत के पूर्व मुख्य नायाधीश , जस्टिस आर सी लाहोटी, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिन्दोह, पूर्व सी ए जी वीके शुंगलू पूर्व पुलिस महानिदेशकों प्रकाश सिंह और जे एफ रिबेरो आदि ईमान दार लोगों की तरफ से जारी एक बयान में लोगों से अपील की गयी है कि बड़े आदमियों की बीच के भ्रष्टाचार को रोकने और भारत की चोरी की गयी सम्पदा को वापस लेने के लिए एक अभियान की ज़रुरत है .अपील में कहा गया है कि भारत सरकार के सर्वोच्च पदों पर रह चुके लोगों में इस बात पर एक राय है कि कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे को बहता है . और जब तक टाप पर बैठे लोगों को अपने काम में ईमानदारी से रहने को मजबूर नहीं किया जाएगा, इस देश का कोई भला नहीं हो सकता. भ्रष्टाचार इस देश में अपराध है . इसलिए भ्रष्ट और घूसखोर सरकारी अधिकारियों को गिरफ्तार करके जेल भेजना चाहिए . . बड़े पदों पर काम करने वाले लोगों को अपनी सारी संपत्ति का हिसाब देना चाहिए और उसे सार्वजनिक करना चाहिए . इन बड़े अधिकारियों ने साफ़ कहा है कि भ्रष्ट सरकारी अफसर अक्सर बच जाते हैं क्योंकि उन्हें सज़ा देने की जिनकी ज़िम्मेदारी होती है , वही भ्रष्ट होते हैं .. इन लोगों को ज़बरदस्त सज़ा दी जानी चाहिए. . घूस की कमाई का करीब सत्तर लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है, उसको वापस लाने की कोशिश की जानी चाहिए . अगार विदेश में जमा किया गया इन बेईमानों का पैसा वापस लाया गया तो अपने देश की गरीबी हमेशा के लिए हट जायेगी. अपील में कहा गया है कि मौजूदा सिस्टम बिलकुल बेकार हो चुका है . क्योंकि भ्रष्टाचार से लड़ने की अपनी विश्वसनीयता गंवा चुका है . . जिन लोगों को ज़िम्मेदारी के पदों पर बैठाया गया है ,उनमें बहुत सारे लोग भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं के सामने गिडगिडाने लगते हैं . यह बिलकुल गलत बात है . इस पर भी रोक लगानी चाहिए . भ्रष्टाचार और अपराध के बीच बहुत ही गहरा सम्बन्ध है . और दोनों ही एक दूसरे को बढ़ावा देते हैं . इन दोनों के घाल मेल की वजह से ही फासिज्म का जन्म होता है जिसमें लोक तंत्र को पूरी तरह से दफ़न कर देने की ताक़त होती है .. इन ईमानदार अफसरों का कहना है कि अगर अपने मुल्क में लोक तंत्र को जिंदा रखना है कि भ्रष्टाचार को जड़ से तबाह करना होगा.
लेकिन यह इतना आसान नहीं है . सभी जानते हैं कि घूस और भ्रष्टाचार में शामिल ज़्यादातर लोग बहुत ही ताक़त वर लोग हैं . उन्हें उनकी जगहों से बे दखल कर पाना आसान नहीं होगा. लेकिन अपील में कहा गया है कि भ्रष्टाचार में शामिल लोगों को पकड़ने और उन्हें जेल भेजने के लिए एक आन्दोलन की ज़रुरत है. ज़रुरत इस बात की भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुहिम में शामिल हों और सवाल पूछें. . इन पूर्व अधिकारियों ने एक वेबसाईट भी बनाया है जिसमें आन्दोलन की रूप रेखा बतायी गयी है . इन लोगों ने बहुत सारे लेख भी छापे हैं जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लड़ाई को मज़बूत करने की अपील की गयी है . ऐसा ही एक लेख उत्तर प्रदेश के कद्दावर अफसर विजय शंकर पाण्डेय का है जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत दिनों से एक मुहिम चला रखी है . सवाल पैदा होता है कि क्या श्री पाण्डेय जैसा अफसर अपने आस पास नज़र डालने पर सब कुछ बहुत ही ईमानदारी से भरा हुआ पाता है . क्या उन्होंने अपने दफतर या बगल वाले कमरे में चल रहे बे ईमानी की सौदों पर कभी नज़र डाली है . सही बात यह है कि जब तक केवल बातों बातों में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जायेगी तब तक कुछ नहीं होगा . इस आन्दोअल्न को अगर तेज़ करना है कि तो घूस के पैसे को तिरस्कार की नज़र से देखना पड़ेगा . क्योंकि सारी मुसीबत की जड़ यही है कि चोर, बे-ईमान और घूसखोर अफसर और नेता रिश्वत के बल पर समाज में सम्मान पाते रहते हैं . उत्तर प्रदेश सरकार में बहुत बड़े पद पर बैठे श्री पाण्डेय के लिए यह बहुत ज़रूरी है . क्योंकि उनकी निजी ईमानदारी बेमिसाल है लेकिन जब तक सिस्टम में ईमनदारी नहीं होगी समाज का भला नहीं होगा.

अपने देश में पिछले २० वर्षों में घूसखोरी को सम्मान का दर्जा मिल गया है . वरना यहाँ पर दस हज़ार रूपये का घूस लेने के अपराध में जवाहर लाल नेहरू ने , अपने एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया था . लेकिन इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं . इसी देश में जैन हवाला काण्ड हुआ था जिसमें सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता शामिल थे . स्वर्गीय मधु लिमये अपनी मृत्यु के पहले इस बात को लेकर बहुत दुखी रहा करते थे . सरकारी कंपनियों में विनिवेश के नाम पर जो घूसखोरी इस देश में हुई है उसे पूरे देश जानता है . उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव के यहाँ से २५० करोड़ रूपये ज़ब्त किये गए थे . इस तरह के हज़ारों मामले हैं जिन पर लगाम लगाए बिना भ्रष्टाचार को खत्म कर सकना असंभव है . इस लिए पूर्व सरकारी अधिकारियों की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और मीडिया समेत सभी ऐसे लोगों को सामने आना चाहिए जो पब्लिक ओपीनियन को दिशा देते हैं ताकि अपने देश और अपने लोक तंत्र को बचाया जा सके.

Monday, April 5, 2010

मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश

शेष नारायण सिंह

बड़े जोर शोर से प्रचार करने के बाद भी ,मुंबई में महेश दत्तानी के नाटक 'सारा' के खिलाफ तोड़ फोड़ करने के अपने फैसले को शिव सेना लागू नहीं कर सकी. और जब पुलिस ने माहौल बहुत ही गरम कर दिया तो शिव सेना के एक छुट भैया नेता ने घोषणा कर दी कि पार्टी ने विरोध करने के अपने फैसले को स्थगित कर दिया है . यह अलग बात है कि जब यह बयान आया तो थियेटर पर विरोध करने गए दो चार शिव सैनिक पिट कर वापस आ चुके थे .और पुलिस बाकी लोगों को धमका रही थी. बान्द्रा के एक नामी थियेटर में नाटक के प्रदर्शन की घोषणा के बाद शिव सेना ने अपने पुराने तरीकों का इस्तेमाल करते हुए नाटक के प्रदर्शन के दौरान तोड़ फोड़ की धमकी देकर अपने वसूली के धंधे को परवान चढाने की कोशिश की थी लेकिन पुलिस की सख्ती के आगे उनकी एक न चली और भागना पड़ा . उनका विरोध नाटक के पाकिस्तानी होने के कारण था. जब की सच्चाई है है कि नाटक भारतीय था,अलबत्ता उसमें मुख्य करेक्टर पाकिस्तानी शायर 'सारा शगुफ्ता ' के जीवन पर आधारित था .
शिव सेना के पुराने वक्तों में उनकी धमकी के बाद किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह कोई नाटक या सिनेमा प्रदर्शित करे. लेकिन अब शिव सेना की धमकियों को मुंबई की कलाकार बिरादरी ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया है. इस घटना से एक बात और साफ़ हो गयी है कि शिव सेना के लोग बिना कुछ जाने समझे दौड़ पड़ते हैं . वास्तव में यह नाटक पकिस्तान के समाज को एक बहुत ही घटिया रोशनी में पेश करता है जिस से .कायदे से शिव सेना को खुश होना चाहिए लेकिन अगर इतनी समझ होती तो शिव सैनिक क्यों बनते

नाटक 'सारा' औरत होने की सच्चाई को परत दर परत खोलता है . शाहिद अनवर के इस नाटक में पाकिस्तानी शायरा 'सारा शगुफ्ता' की ज़िंदगी के अंतर विरोधों को प्रस्तुत किया गया है ..लेकिन बात को इतने सलीके से कहा गया है कि यह पूरी दुनिया की औरत की मजबूरी का एक दस्तावेज़ बन गया है . १४ साल की उम्र में अपने से कई साल बड़े अधेड़ से शादी करने और ३ बच्चे पैदा करने के बीच सारा शगुफ्ता जिस नरक से गुज़र रही थीं, उसे इस प्रस्तुति में बहुत ही बेबाक तरीके से पेश किया गया है.उसके बाद उनकी बाकी तीन शादियों को भी एक मजबूर औरत के मज़बूत हो रहे हौसलों की रोशनी में पेश किया गया है .उनके अपने बच्चे उनसे छीनने की कोशिश की गयी . आरोप लगा कि वे बदचलन थीं . उन्होंने अदालत में स्वीकार कर लिया कि वे बद चलन थीं और वे तीनों बच्चे उनके तो थे लेकिन उनके शौहर के नहीं थे .अदालत ने बच्चों की कस्टडी सारा के हवाले कर दिया .और फिर एक बार यतीम होने का अहसास उन्होंने बहुत करीब से देखा क्योंकि अपने ११ भाई बहनों के साथ सारा भी यतीम थीं ,हालांकि उनका बाप जिंदा था. पाकिस्तानी समाज में औरत की दुर्दशा को रेखांकित करने की यह कोशिश बात को बिलकुल नारे की शक्ल में कह देती है.

'मोनोलाग' शैली में प्रस्तुत किये गए नाटक सारा शगुफ्ता का सबसे सशक्त पक्ष है उसके संवाद जिसे अभिनेत्री, सीमा आजमी ने बहुत ही खूब सूरत तरीके से पेश किया. जब सीमा कहती हैं कि ' मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश 'तो लगता है कि काश हर औरत इसी तरह उठ खडी होती तो दुनिया बदल जाती. २९ साल की उम्र में सारा शगुफ्ता ने खुदकुशी की . इसके पहले भी वे ४ बार खुदखुशी की कोशिश कर चुकी थीं लेकिन नाकामयाब रही थीं . इस बीच उन्हें ४ बार शादियाँ करनी पड़ी.. पागलखाने गयीं और वहां देखा कि जो औरतें वहां दाखिल की गयी हैं उनमें से कोई भी पागल नहीं है . सबके घर वालों ने उन्हें जायदाद हड़पने के लिए पागल करार देकर अफसरों को घूस दे कर वहाँ भर्ती करवा दिया है .कुछ दिन बाद जब पागल खाने से उनकी रिहाई हुई तो वे बहुत रोयीं क्योंकि पहली बार कुछ ऐसे इंसानों से बिछुड़ रही थीं जिन्हें वे सही में मुहब्बत करने लगी थी.
सारा शगुफ्ता की भारत की नामी साहित्यकार, अमृता प्रीतम से दोस्ती थी. हालांकि उम्र में बहुत फर्क था लेकिन औरत होने का एहसास उनको उन्हीं जमातों में खड़ाकर देता था जिसमें अमृता जैसी महिलायें खडी थी, यहाँ का खुलापन देख कर उन्हें लगा कि काश उनका अपन बदन ही उनका अपना वतन होता. लेकिन जब दिल्ली में कुछ दिन रह चुकीं तो उन्हें साफ़ नज़र आने लगा कि यहाँ भी मर्दवादी सोच के लोग औरत को उसी तरह देखते हैं जैसे उनके अपने पकिस्तान में . उन्होंने अपने आप से बार बार सवाल किया कि लोग अकेली औरत से इतना डरते क्यों हैं औरत की वफादारी पर शक़ क्यों करते हैं ,वफादारी की गलियों में आज भी कुतिया कम और कुत्ता ज़्यादा इज्ज़त क्यों पाता है . सारा शगुफ्ता ने लिखा है कि वे सवाल की गहराई तक नहीं जाना चाहतीं क्योंकि कहीं फ़रिश्ते लपेट में ना आ जाएँ.

मुंबई के मानिक सभागृह में प्रस्तुत यह नाटक एक प्रयोग था . महेश दत्तानी का निदेशन बेहतरीन है और सीमा आजमी की अभिनय क्षमता ऐसी बांकी कि कुछ देर बाद ऐसा लगने लगा कि स्टेज पर सीमा नहीं , सारा शगुफ्ता ही खडी हैं .

Friday, April 2, 2010

दंगें फैलाने वालों को नाकाम करो

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले के एक बहुत छोटे से कस्बे खतौली में भी दंगा हो गया है .इसके पहले बरेली में हुआ था. ह्यद४एरबद में दंगा चल ही रहा है . इसी तरह से और भी इलाकों में छिटपुट घटनाएं हो रही हैं . अगर कहीं मामला थोडा और गरम हो जाए तो छोटी मोटी घटनाओं को दंगा बनने में देर नहीं लगती. .अब उत्तर भारत में मौसम भी गरम हो रहा है .ऐसे मौसम में मामूली विवाद भी बढ़ जाता है और अगर झगडा अलग अलग सम्प्रदाय के लोगों के बीच हो तो निहित स्वार्थ वाले उसे दंगे में बदल देते हैं .जब दंगा होता है तो चारों तरफ पागलपन का माहौल बन जाता है और सब अंधे हो जाते हैं . ज़ाहिर है कि समझदारी की बात कोई नहीं करता. दंगा वास्तव में सभ्य समाज पर कलंक है . सवाल यह पैदा होता है कि दंगे होते क्यों हैं .सीधा सा जवाब यह है कि राजनीति में सक्रिय लोग लोगों को बेचारा साबित करने के लिए दंगा करवाते हैं .अंग्रेजों ने जब 19२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन में देखा कि पूरा मुल्क गाँधी के साथ खड़ा है . हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रहे है तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रबंधकों को लगा कि अगर पूरा देश एक हो गया तो मुट्ठी भर अँगरेज़ भारत में राज नहीं कर सकेंगें . अंग्रेजों ने तय किया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फर्क डाले बिना भारत को गुलाम नहीं बनाया जा सकता. १९२० के बाद के भारत की राजनीति पर गौर करें तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि अंग्रेजों ने हर स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम विभेद की योजना बना दी थी. मुस्लिम लीग को फिर से महात्मा गाँधी से अलग किया, आर एस एस की स्थापना करवाई और वी डी सावरकर को खुला छोड़ दिया. सावरकार को ड्यूटी दी गयी कि वे हिन्दू मात्र को गाँधी से दूर ले जाएँ. इसी दौर में सावरकार ने अपनी किताब हिन्दुत्व लिखी जिसमें हिन्दू धर्म को राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की बात की गयी. अंग्रेजों के आशीर्वाद से पहला संगठित दंगा १९२७ में नागपुर में आयोजित किया गया जिसमें आर एस एस वालों ने प्रमुख भूमिका निभाई. सावरकार पूरी तरह से अंग्रेजों के सेवक बन ही चुके थे . जेल में वी. डी .सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर ३२७७८ के रूप में जाने जाते थे . उन्होंने अपने माफीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वे आगे से अंग्रेजों के हुक्म को मानकर ही काम करेंगें . सावरकर के भक्तों को लगता है कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी नहीं माँगी होगी. ऐसे शंकालु लोगों को चाहिए कि वे नैशनल आर्काइव्ज़ चले जाएँ, वहांसावरकर का माफीनामा बहुत ही संभाल कर रखा हुआ है और इतिहास के किसी भी शोधकर्ता के लिए वह उपलब्ध है . बहरहाल सच्चाई यह है कि आर एस एस उसके सहयोगी संगठन और मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति के झंडाबरदार ही दंगे करवाते हैं .


सवाल यह उठता है कि सभ्य समाज के लोग दंगा रोकने के लिए क्या काम करें . क्योंकि अब दंगे तो बार बार होंगें क्योंकि बी जे पी के नए अध्यक्ष ने तय कर लिया है कि हिन्दुत्व की बिसात पर ही अब उतर भारत में चुनाव लड़े जाने हैं . १९८४ में दो सीटें जीतने के बाद कोलकता में जब आर एस एस के आला नेताओं की बैठक हुई तो उसमें अटल बिहारी वाजपेयी को फटकार दिया गया था और उन्हें बता दिया गया था कि राग हिन्दुत्व ही चलेगा, गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. शहाबुद्दीन टाइप कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की .

सवाल यह उठता है कि दंगों को रोकने के लिएय धर्म निरपेक्ष बिरादरी को क्या करना चाहिए . संघ वाले तो अब दंगों के बाद के ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की योजना बना चुके हैं . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी डी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले आर एस एस वालों ने किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती आर एस एस की ही लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने के लिए संघ की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता है . बरेली, हैदराबाद और खतौली में तो दंगें हो गए अब आगे न होने पायें यही कोशिश करनी चाहिय .

Monday, March 29, 2010

मोदी से एस आई टी की पूछ ताछ के पीछे क्या है ?

शेष नारायण सिंह

नरेंद्र मोदी से आठ घंटे चली पूछताछ के बाद कुछ लोग बहुत खुश हैं कि अब मोदी को २००२ के गुजरात नरसंहार के लिए उनके किये की सज़ा दिलाई जा सकेगी. जांच के लिए पेश होने के बाद जब मोदी बाहर निकले तो उन्होंने कहा कि उन्हें अपने महान देश की न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है और उनके साथ भी न्याय होगा.यह बात सभी कहते हैं और यह सच भी है . मोदी का गुनाह ऐसा है जिसे वे सभी लोग अच्छी तरह से जानते हैं जिन्हें उस दौर में गुजरात का नरसंहार देखने या उसे कवर करने का मौका लगा था .लेकिन सच्चाई यह है कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है . कुछ जानकार तो यह कहते पाए गए हैं कि यह सारा आडम्बर मोदी को पाक-साफ घोषित करने की एक साज़िश है . बड़े नेताओं के खिलाफ राजनीतिक मजबूरी के कारण शुरू किये गए मामलों में अब तक किसी के दण्डित होने की जानकारी नहीं है .राजनीति में बड़ा पद पाने वाले बहुत सारे लोगों के ऊपर मुक़दमें चले लेकिन लगभग सभी बरी हो गए. इमरजेंसी के तुरंत बाद जिस तरह से सबूत मिलना शुरू हुए, सबको लगने लगा था कि इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी, जगमोहन, विद्या चरण शुक्ल, ओम मेहता, बंसी लाल, नारायण दत्त तिवारी जैसे सैकड़ों नेताओं और अफसरों को कानून की जंजीर पहना दी जायेगी. लेकिन कुछ नहीं हुआ. बाद में बोफोर्स तोप का सौदा हुआ जिसमें भी राजनीति के बड़े लोगों का नाम आया था लेकिन कुछ नहीं हुआ. पी वी नरसिंह राव जब प्रधान मंत्री थे तो तरह तरह के हेरा फेरी और ठगी के मामले उन पर दर्ज हुए लेकिन कुछ नहीं हुआ . जार्ज फर्नांडीज़ , बंगारू लक्ष्मण आदि को तहलका मामले में घूस का शिकार होते पूरी दुनिया ने देखा . जांच में कुछ नहीं निकला . जैन हवाला काण्ड में देश की सुरक्षा से समझौता किया गया था . और उसमें लाल कृष्ण आडवानी,शरद यादव, सीता राम केसरी, सतीश शर्मा, अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान जैसे गैर कम्म्युनिस्ट पार्टियों के बहुत सारे नेता शामिल थे .लेकिन किसी के ऊपर चार्ज शीट तक दाखिल नहीं हुई अटल बिहारी वाजपयी के करीबी रिश्तेदार , भट्टाचार्य नाम के एक सज्जन थे , देश को लूट कर रख दिया लेकिन कहीं हुछ नहीं हुआ . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में लाल कृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी उमा भारती, विनय कटियार आदि के खिलाफ संगीन आरोप हैं लेकिन सब मस्त हैं . प्रमोद महाजन और अरुण शोरी के ऊपर सरकारी कंपनियों को औने पौने दाम पर बेचने का आरोप लगा लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. लालू प्रसाद, राबडी देवी, जगन्नाथ मिश्र, शिबू सोरेन,मायावती, मुलायम सिंह यादव आदि के ऊपर गंभीर आर्थिक अपराधों के आरोप हैं और सब के सब निश्चिन्त हैं . सब को मालूम है कि सब ठीक हो जाएगा, कहीं कुछ नहीं होने वाला नहीं है .

इसलिए इस बात में कोई शक़ नहीं हिया कि मोदी का कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं है . अगर उन लोगों की बात को मान लिया जाए कि मोदी को क्लीन चिट देने के लिए उनसे कड़ाई से पूछताछ का स्वांग किया गया तो बात बहुत ही आसान हो जाती है लेकिन अगर इस बात को न भी माना जाए और यह विश्वास किया जाए कि माननीय सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही जांच में किसी की हिम्मत हेरा फेरी करने की नहीं है तो भी मोदी जैसे ताक़तवर नेता के खिलाफ आरोप साबित कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा. हमारी न्याय व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है , ईमानदार गवाह . हमने देखा है कि मुकामी गुंडों को सज़ा इस लिए नहीं हो पाती कि उनके खिलाफ गवाह नहीं मिलते. तो मोदी जैसे सत्ताधीश के खिलाफ कहाँ से गवाह आ जाएंगें . दुनिया जानती है कि फरवरी २००२ में किस तरह से गुजरात के कुछ शहरों में खून खराबा हुआ था और किस तरह मुसलमानों को चुन चुन कर मारा गया था . लेकिन मोदी न केवल खुले आम घूम रहे हैं बल्कि चुनाव भी जीत रहे हैं .. ज़ाहिर है कि सिस्टम में कहीं कोई खोट है जिसके चलते सत्ता के पदों पर बैठे राजनेता बरी हो जाते हैं . और जब किसी नेता पर बुरा वक़्त आता है तो बाकी लोग ,जो राज नेता, फंसे हुए नेता के खिलाफ रहते हैं , वे भी साथ साथ खड़े हो जाते हैं . ठीक वैसे है जैसे मौसेरे भाइयों के बीच होता है .जब एक भाई फंसता है तो उसका मौसेरा भाई उसे बचाने आ जाता है . मौसेरे भाइयों की यह मुहब्बत अपने देश की बहुत सारी कहावतों में भी संभाल कर रखी हुई है . वरना वली गुजरती की मज़ार को ज़मींदोज़ करने वाले को तो सज़ा कभी की मिल गयी होती .

इस लिए मोदी या किसी नेता के अपराधों के लिए उस से पूछ ताछ तक तो हो सकती है लेकिन उसे सज़ा नहीं दी जा सकती . अगर मोदी के अपराध की सज़ा उनको मिल गयी तो देश की जनता को भरोसा हो जाएगा कि कानून का राज सब पर चलता है वरना अभी तक तो लोग यही मानते हैं कि कानून की ताक़त को नेता लोग अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं .

Sunday, March 28, 2010

झूठ बोलने वालों को अब काला कौव्वा नहीं काटता

शेष नारायण सिंह

कहावत है कि जो झूठ बोलता है उसे कौव्वा काट लेता है .. लगता है यह बात बहुत पुरानी हो गयी.क्योंकि आजकल तो बहुत सारे नेता दिन रात झूठ बोलते हैं और उन्हें कोई कौवा नहीं काटता.. बी जे पी के नेता .लाल कृष्ण आडवानी ने बार बार दावा किया है कि वे कभी झूठ नहीं बोलते .. जानकार कहते हैं कि उनके बयानों में कई कई अर्थों को आत्मसात कर लेने की क्षमता होती है , लगता है कि अपने इस कौशल की वजह से ही माननीय आडवानी जी इस बार झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं .. ६ दिसंबर ,१९९२ के दिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्होंने सार्वजनिक बयान दिया था कि वह उनके जीवन का सबसे दुःख भरा दिन था. आज तक माना जा रहा था कि यह पूरी तरह से सच है . लेकिन अब एक बार फिर आडवाणी की गलतबयानी के पुख्ता सबूत सार्वजनिक मंच पर फेंक दिए गए हैं. ६ दिसंबर १९९२ के दिन आडवाणी की व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए तैनात आई पी एस अफसर अंजू गुप्ता ने सी बी आई कोर्ट में बयान दिया है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आडवाणी बहुत खुश थे .. ज़ाहिर हैं एक आई पी एस अफसर की बात को गंभीरता से लेना पड़ेगा क्योंकि उसने बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के और अपनी ड्यूटी निभाने के लिए ही कोर्ट में बयान दिया है . उसने शपथ ली है कि वह झूठ नहीं बोलेगी तो उसकी बात का विश्वास किया जाना चाहिए.. इस अफसर के बयान ने एक बार फिर आडवाणी को झूठ बोलने वाला नेता साबित कर दिया है . क्योंकि ६ दिसंबर १९९२२ के दिन आडवाणी के पास दुखी होने की फुर्सत ही नहीं थी, वह तो उनके जीवन का खुशी से भरा एक दिन था.

अंजू गुप्ता ने अपने बयान में बताया कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले आडवाणी ने एक भड़काऊ भाषण दिया . बयान में है कि आडवाणी बहुत उत्साहित थे . उन्होंने कारसेवकों को उत्साह से भर दिया , उन्होंने कहा कि भव्य राम मंदिर उसी २.७७ एकड़ ज़मीन पर बनेगा जहां बाबरी मस्जिद मौजूद थी. आडवाणी ने उस दिन फैजाबाद जिले के पुलिस कप्तान और जिलाधिकारी को तलब किया और उनसे भी बात चीत की. जिस मंच पर आडवाणी के साथ मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा आदि नेता मौजूद थे ,उस पर भी हर्ष और उल्लास का माहौल था. जब बाबरी मस्जिद के गुम्बद गिरने लगे तो मंच पर मौजूद नेता एक दूसरे को बधाई दे रहे थे. उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा गले मिलीं और खुशी का इज़हार किया.इन लोगों ने आडवाणी , जोशी और पूर्व पुलिस महानिदेशक , श्रीश चंद दीक्षित को भी गले मिलकर बधाई दी. श्रीश चंद दीक्षित ने वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को धन्यवाद दिया कि उन लोगों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस में कोई अड़चन नहीं डाली.

बी जे पी के वे नेता जो बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने वाले केस में पकडे गए हैं ,वे पिछले १८ वर्षों से कह रहे हैं कि मस्जिद की तबाही में उनका कोई योगदान नहीं है ,अब झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं. मस्जिद के खिलाफ चले आन्दोलन में और उसके बाद राजनीतिक लाभ के लिए तो यह नेता शेखी बघारते रहे हैं लेकिन कानूनी मंचों पर तैयार किया गया बयान देते रहे हैं . अंजू गुप्ता की गवाही के बाद इन नेताओं के लिए मुश्किल पैदा हो गयी है . क्योंकि आपराधिक काम में अगर इन लोगों की साज़िश साबित हो जायेगी तो सबको इतने वर्षों की सज़ा होगी तो यह लोग चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिए जायेंगें . इस वक़्त बाबरी मस्जिद विध्वंस केस के अभियुक्त बी जे पी नेताओं को जो डर है वह इसी संभावना की गंभीरता को लेकर है..एक वक़्त था जब इन्हीं बी जे पी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में लोग थे . आज आलम यह है कि आम जनता का तो सवाल ही नहीं, इनकी अपनी पार्टी के नेता चाहते हैं कि यह लोग चुनाव के मैदान से बाहर हों तो आसानी होगी. ज़ाहिर है कि चुनाव की राजनीति से बाहर होने पर हर नेता को तकलीफ होगी. क्योंकि ज़्यादातर नेता चुनाव के ज़रिये ही अपने आप को सम्मान दिला सकते हैं .
मीडिया की सजगता की वजह से इन लोगों को सज़ा से बचने की संभावना बहुत कम है . यह ठीक भी है .. . बाबरी मस्जिद को सिम्बल बनाकार मुसलमानों के खिलाफ ज़हर घोलने के आन्दोलन के पीछे और कोई इरादा नहीं था. इरादा था तो सिर्फ लगातार पिछड़ रही बी जे पी को चुनावी सफलता दिलाना . लेकिन अब वह सब ख़त्म हो चुका है .बी जे पी चुनाव में सफल भी हुई, सरकार भी बनाया . इसके नेता भी उसी तरह से घूस के कारोबार में लग गए जैसे इनके पहले कांग्रेसी और समाजवादी लगते रहे हैं . आज बी जे पी फिर असमंजस में है .कहीं कोई मुद्दा नहीं है जिसके खिलाफ बी जे पी वाले ऐलानियाँ मैदान ले सकें . घूस खोरी के बहुत सारे मामलों में बी जे पी के के नेताओं के नाम आ जाने के बाद अब उनकी बात में वह दम नहीं जो सत्ता में आने के पहले तक होता था. सत्ता पाते ही उन लोगों ने साबित कर दिया के अपने पूर्वज कांग्रेसी नेताओं से बेहतर तरीके से बे-ईमानी कर सकते हैं . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के अभियुक्तों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलने के लिए माहौल बिलकुल दुरस्त है . इस लिए अदालत को चाहिए कि इन लोगों को सख्त से सख्त सज़ा दें . ताकि आने वाले वक़्त में कोई भी पार्टी चन्द सीटों के लिए देश में दंगे न फैलाए. दुनिया जानती है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आर एस एस के मातहत संगठनों ने जिस तरह से खून खराबा किया था. उसकी सज़ा भी कोई मामूली नहीं होनी चाहिए . सभ्य समाज को उम्मीद है कि राय बरेली की विशेष अदालत में सही न्याय होगा .

Saturday, March 27, 2010

मुसलमानों के साथ इंसाफ,सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

शेष नारायण सिंह

गरीब और पिछड़े मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों के आरक्षण के बारे में अंतरिम आदेश देकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इन्साफ की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम उठाने के आंध्रप्रदेश सरकार के फैसले पर मंजूरी की मुहर लगा दी .एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को बहाल कर दिया है जिसे आन्ध्रप्रदेश सरकार ने इस उद्देश्य से बनाया था कि सरकारी नौकरियों में पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण दिया जा सकेगा. बाद में हाई कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया था. हाई कोर्ट के फैसले को गलत बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इसे कानूनी शक्ल दे दी है . मामला संविधान बेंच को भेज दिया गया है जहां इस बात की भी पक्की जांच हो जायेगी कि आन्ध्र प्रदेश सरकार का कानून विधिसम्मत है कि नहीं ..संविधान बेंच से पास हो जाने के बाद मुस्लिम आरक्षण के सवाल पर कोई वैधानिक अड़चन नहीं रह जायेगी. फिर राज्य और केंद्र सरकारों को सामाजिक न्याय की दिशा में यह ज़रूरी क़दम उठाने के लिए केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रुरत रहेगी .न्यायालयों का डर नहीं रह जाएगा क्योंकि एक बार सुप्रीम कोर्ट की नज़र से गुज़र जाने के बाद किसी भी कानून को निचली अदालतें खारिज नहीं कर सकतीं.

इस फैसले से मुसलमानों के इन्साफ के लिए संघर्ष कर रही जमातों को ताक़त मिल जायेगी. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए कुछ सीटें रिज़र्व करने का कानून बनाने की दिशा में सकारात्मक पहल की है..बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में मुसलमानों को १० प्रतिशत रिज़र्वेशन देने की पेशकश की थी. उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा था.इस फैसले के बाद बुद्ध देव भट्टाचार्य को अपने फैसले को लागू करने के लिए ताक़त मिलेगी...इसके पहले भी केरल ,बिहार ,कर्नाटक और तमिलनाडु में पिछड़े मुसलमानों को रिज़र्वेशन की सुविधा उपलब्ध है .. आर एस एस की मानसिकता वाले बहुत सारे लोग यह कहते मिल जायेंगें कि संविधान में धार्मिक आरक्षण की बात को मना किया गया है . यह बात सिरे से ही खारिज कर देनी चाहिए. संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है. केरल में १९३६ से ही मुसलमानों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था .उन दिनों इसे ट्रावन्कोर-कोचीन राज्य कहा जाता था .बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने भी ओ बी सी आरक्षण की व्यवस्था की थी जिसमें पिछड़े मुसलमानों को भी लाभ दिया जाता था . दरअसल बिहार में ओ बी सी रिज़र्वेशन में मुसलमानों के पिछड़े वर्ग की जातियों का बाकायदा नाम रहता था. बिहार में अंसारी, इदरीसी,डफाली,धोबी,नालबंद आदि को स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर रिज़र्वेशन का लाभ देकर गए थे.१९७७ में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्य मंत्री, देव राज उर्स ने भी मुस्लिम ओ बी सी को रिज़र्वेशन दे दिया था. देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी उत्तर प्रदेश में है लेकिन राज्य में अभी मुसलमानों के लिए किसी तरह का आरक्षण नहीं है . यह अजीब बात है कि राज्य के अब तक के नेताओं ने इस महत्व पूर्ण विषय पर को पहल नहीं की.

आंध्र प्रदेश में मुसलमानों के आरक्षण का मामला जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अदालत में पेश हुआ तो अटार्नी जनरल गुलाम वाह्नावती और सीनियर एडवोकेट के पराशरण ने जिस तरह से बहस की, वह बहुत ही सही लाइन पर थी. . उन्होंने तर्क दिया कि जब हिन्दू पिछड़ी जातियों को आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है तो मुसलमानों को वह सुविधा न देकर सरकारें धार्मिक आधार पर पक्षपात कर रही हैं .. अदालत ने भी आरक्षण का विरोध करने वालों से पूछा कि सरकार के कानून बनाने के अधिकार को निजी पसंद या नापसंद के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती..
सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम आदेश के बाद केंद्र की यू पी ए सरकार पर भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का दबाव बढ़ जाएगा. कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में वायदा किया था कि सरकार बनने पर मुसलमानों के लिए ओ बी सी के लिए रिज़र्व नौकरियों के कोटे में मुस्लिम पिछड़ों के लिए सब-कोटा का इंतज़ाम किया जाएगा. अब कांग्रेस से सवाल पूछने का टाइम आ गया कि वे अपने वायदे कब पूरे करने वाले हैं . दर असल मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में सीटें रिज़र्व करने की बात तो आज़ादी की लड़ाई के दौरान की विचाराधीन थी जब महात्मा गाँधी, राम मनोहर लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर ने सामाजिक न्याय के लिए सकारात्मक पहल को संविधान का स्थायी भाव बनाया था . लेकिन जब संविधान लिखा जाने लगा तो देश की सियासती तस्वीर बदल चुकी थी. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और कांग्रेस के अन्दर मौजूद साम्प्रदायिक ताक़तों के एजेंट देश में मौजूद हर मुसलमान को अपमानित करने पर आमादा थे . महात्मा गाँधी की ह्त्या हो चुकी थी और जवाहर लाल नेहरू, लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर की हिम्मत नहीं पड़ी कि कांग्रेस के अन्दर के बहुमत से पंगा लें . लिहाज़ा दलित जातियों के लिए जो रिज़र्वेशन हुआ , उसमें से मुसलमानों को बाहर कर दिया गया . संविधान लागू होने के ६० साल बाद एक बार फिर ऐसा माहौल बना है कि राजनीतिक पार्टियां अगर चाहें तो सकारात्मक पहल कर सकती हैं और गरीब और पिछड़े मुसलमानों का वह हक उन्हें दे सकती हैं , जो उन्हें अब से ६० साल पहले ही मिल जाना चाहिए था.

Sunday, March 21, 2010

ज़ालिमाना और सामंती सोच से सत्ता को आज़ाद करने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह
उसके गाँव में चमार शब्द का उपयोग किसी को गाली देने के लिए किया जाता था .और हिदायत थी कि चमार को छूना नहीं है . वह भी बचपन में ऐसे ही करता था . लेकिन जब प्राइमरी स्कूल में गया तो दलितों के बच्चों के साथ टाट पर बैठना शुरू हुआ. हर साल गर्मियों में वह अपने मामा के यहाँ चला जाता था ,जौनपुर शहर से लगा हुआ गाँव . वहां भी उसकी दोस्ती एक दलित लडके से हो गयी. उसके अपने गाँव में गाली और अपमान के ज़्यादातर सन्दर्भ ऐसे थे जिसमें चमार शब्द का इस्तेमाल होता था. जब वह आठवी में था तो उसकी मुलाक़ात शीतला बनिया के रिश्तेदार राम मनोहर से हो गयी. . शीतला के रिश्तेदार ने उसकी दुनिया में तूफ़ान ला दिया. उसको पता चला कि चमार भी उसकी तरह के ही इंसान होते हैं . उसने अपने बाबू की दलितों संबंधी जानकारी को गलत मानना शुरू कर दिया .बाबू के उस तर्क को उसने खारिज करना शुरू कर दिया जसमें शूद्र को पीटने की बात को ज़मींदार का कर्त्तव्य बताया जा था. उसके बाबू पढ़ाई लिखाई के भी खिलाफ थे . उनका कहना था कि पढ़ लिख कर लडके किसी काम के नहीं रह जाते . दसवीं के बाद उसकी पढ़ाई पर रोक लग गयी. लेकिन माँ ने जिद करके अपने मायके ले जाकर जौनपुर में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए नाम लिखवा दिया .वह जौनपुर गया तो उसके बचपन के दलित साथी ने पढ़ाई छोड़ दी थी, उसका गौना आ गया था और वह उसके मामा के घर ही खेती के काम के लिए हलवाहा बन गया था. . अपने हीरो ने उस से सम्बन्ध बनाए रखा. उसके गाँव में दलितों के बच्चों के नाम ऐसे होते थे जो ठाकुरों ब्राह्मणों के नाम से अलग लगते थे . ढिलढिल ,फेरे, मतन, बुतन्नी, बग्गड़ ,मतई ,दूलम,दुक्छोर, बरखू, हरखू आदि . अगर किसी दलित बच्चे का नाम ठाकुरों के बच्चों से मिलता जुलता रख दिया जाता था तो व्यंग्य में कहा जाता था कि बिटिया चमैनी कै नाउ राजरनियाँ. यह कहावत उसके दिमाग में घुसी हुई थी . और जब उसके मामा के हलवाहे और उसके बचपन के मित्र के घर बेटी पैदा हुई तो उसने उसका नाम राजरानी रखवा दिया. जब उसके बाबू को पता चला तो वे बहुत खफा हुए और परंपरा तोड़ने का आरोप लगा कर अपने ही बेटे को अपमानित किया , मारा पीटा .

बात आई गयी हो गयी . राजरानी को अफसर बनने लायक शिक्षा दिलवाने में अपने हीरो ने बहुत पापड़ बेले . तरह तरह के लोगों ने विरोध किया लेकिन लड़की कुशाग्रबुद्धि थी , पढ़ लिख गयी . और उत्तर प्रदेश पुलिस में सब इन्स्पेक्टर हो गयी . . जब उसने अपने पिता के मित्र के बाबू जी के घर जाकर उनसे मुलाक़ात की तो वे सन्न रह गए और कहा कि मैं तो पहले ही कहता था कि यह लड़की बहुत ऊंचे मुकाम तक जायेगी. हालांकि यह बात उन्होंने कभी नहीं कहे एथी . वे तो उसको गाली ही देते रहते थे .सच्चाई यह है कि उन बाबू साहेब की मुखालफत के बावजूद लडकी ने तरक्की की . अगर माकूल माहौल मिलता तो शायद और ऊंचे पद पर जाती. इस कहानी की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि इस बात का मुगालता नहीं होना चाहिए कि अर्ध शिक्षित और अशिक्षित सर्वरों के एमानासिकता कभी नहीं बदले गी. यहाँ उन अर्ध शिक्षितों को भी शामिल करना होगा जो डिग्रीधारी हैं . अगर सामाजिक बराबरी की लड़ाई लड़ने वाले लड़कियों की शिक्षा पर ज़्यादा ध्यान दें तो मकसद को हासिल करना ज्यादा आसान होगा ..
महिलाओं के लिए लोक सभा और विधान मंडलों में सीटें रिज़र्व करने की बहस में बहुत सारे आयाम जुड़ गए हैं.. संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी दलितों को उनका हक नहीं मिल पाया है जबकि संविधान के निर्माताओं को उम्मीद थी कि आरक्षण की व्यवस्था को दस साल तक ही रखना होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जिन लोगों के हाथों में सत्ता का कंट्रोल आया उनकी सोच जालिमाना और सामंती थी . शायद इसी लिए दलितों को उनका हक नहीं मिला. शिक्षा, न्याय, प्रशासन, राजनीति ,व्यापार , पत्रकारिता आदि जैसे जितने भी सत्ता के आले थे ,सब पर दलित विरोधियों का क़ब्ज़ा था. जाति व्यवस्था का सबसे क्रूर पहलू दलितों के लिए ही आरक्षित था . उनके लिए संविधान के तहत जो अवसर मुहैया कराये गए थे , उन पर भी जाति व्यवस्था का सांप कुण्डली मार कर बैठा हुआ था . डॉ अंबेडकर और कांशी राम ने जाति व्यवस्था की बंदिश को तोड़ने की जो कोशिश की उसका भी वह नतीजा नहीं निकला जो निकलना चाहिए था . आरक्षण की वजह से जो दलित लोग उस चक्रव्यूह से बाहर आये उनमें से काफी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो शहरी मध्य वर्ग के सदस्य बन गए और उनकी भी सोच सामंती हो गयी. उन्होंने सामाजिक परिवर्तन और बराबरी के लिए वह नहीं किया जो उनको करना चाहिए था. आज ज़रुरत इस बात की है कि मनुवादी व्यवस्था के वारिसों को तो दलित अधिकारों की चेतना से अवगत कराया ही जाए लेकिन दलित परिवारों से आये भाग्य विधाता नेताओं और नौकरशाहों को भी चेताया जाये कि जब तक सभी दलितों की आर्थिक स्थिति नहीं सुधरेगी सामाजिक बराबरी का सपना देखना भी बेमतलब है . अगर ऐसा हुआ तो नयी पीढी की राजरानी सब इन्स्पेक्टर नहीं होगी, वह सीधे आई पी एस में भर्ती होगी.

Friday, March 19, 2010

मुंबई हमलों के सरगना को बचाने में जुटे अमरीका और पाकिस्तान

शेष नारायण सिंह

अमरीकी नागरिक,डेविड कोलमैन हेडली ने २६ नवम्बर २००८ के दिन मुंबई के ताजमहल होटल और उसके आस पास हुए हमलों में अपने शामिल होने की बात स्वीकार करके यह बात साबित कर दिया है कि अमरीका अभी भारत को अपना शत्रु ही मानता है.यह बात ख़ास तौर से सच होती लगती है कि हेडली अमरीकी सरकार में नौकर है और पिछले कई महीने से अमरीकी की खुफिया एजेंसियां उसे बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं .मुंबई में हमला करने वाले आतंकवादियों की डिजाइन ऐसी थी कि भारत की व्यापारिक राजधानी को दहशत की ज़द में लिया जा सके. हमला लगभग उसी शैली का था जैसा अमरीका के वर्ड ट्रेड टावर पर किया गया था . बड़े पैमाने पर नुकसान करने की योजना के साथ किया गया मुंबई हमला आतंकवाद की बड़ी घटना है. लेकिन अब इसमें अमरीकी तार जुड़ गए हैं तो यह और बड़ी घटना मानी जायेगी. मुंबई हमले के शुरू के दौर में ही यह बात साफ़ हो गयी थी कि इतने बड़े पैमाने पर विनाश करने की योजना किसी मामूली दिमाग की उपज नहीं हो सकती .इसमें बड़े गैंग शामिल हैं , यह बात सब को मालूम थी . लेकिन भारत से दोस्ती की नयी पींगें बढ़ा रहे अमरीका की सरकार के लोग इसमें शामिल होंगें , यह शक आम तौर पर नहीं किया जा रहा था. अब जब धीरे धीरे सच्चाई सामने आ रही है तो पता लग रहा है कि अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धर्ता भारत को चैन से नहीं बैठने देना चाहते .

अमरीकी शहर, शिकागो की मुकामी आदालत में हेडली के इक़बालिया बयान का मतलब यह है कि उसने भारत के खिलाफ आतंकवादी साज़िश बनायी भी थी और उसे अंजाम तक पंहुचाया भी था. पूरा अमरीकी अमला उसे निश्चित मृत्युदंड से बचाने के काम में जुट गया है जिसका मतलब यह है कि वह अमरीकी सी आई ए के डर्टी ट्रिक विभाग का ख़ास बंदा है ..भारत पर दबाव बनानेकी गरज से किया गया यह हमला पकिस्तान की विदेश नीति को धार देने में कारगर साबित हुआ लेकिन अब लगता है कि अमरीकी विदेश नीति के योजना कारों की चाल भी यही थी कि भारत पर दबाव डाला जाए जिस से उसे पाकिस्तान के सामने थोडा झुकाया जा सके. लगता है कि अमरीकी और पाकिस्तानी विदेश नीति का वह लक्ष्य तो हासिल नहीं हो सका ,उलटे आतंकवाद के पक्षधर के रूप में पहचाने जाने के खतरे के बीच घिरे अमरीकी नीति नियामक मुसीबत में फंस गए लगते हैं. हेडली का बाप अमरीका का नागरिक बनने के पहले एक पाकिस्तानी अफसर रह चुका था . शुरू के दौर में अमरीका की कोशिश थी कि भारत पर हुए २६/११ के हमले को शुद्ध रूप से पाकिस्तानी कारस्तानी साबित करके पल्ला झाड लिया जाए लेकिन मीडिया में हेडली की पोल खुल जाने के बाद मामला अमरीकी हुकूमत की काबू के बाहर चला गया.अब इस बात में शक नहीं है कि मुंबई हमलों में अमरीकी खुफिया एजेंसियों का हाथ भी था. जहां तक पाकिस्तान के शामिल होने की बात है , उसमें तो कोई शक है ही नहीं .

भारत को कमज़ोर करने की अमरीकी डिजाइन को समझने के लिए समकालीन इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगें . दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब अमरीका एक मज़बूत देश होकर उभरा तो उसकी इच्छा थी कि वह एशिया के नवस्वतंत्र राष्ट्रों को अपने साथ ले लेगा. शीत युद्ध के बीज बोये जा चुके थे , पूरा विश्व दो खेमों में बँट रहा रहा था , कोई अमरीका के साथ जा रहा था ,तो कोई सोवियत रूस के साथ . अमरीकी विदेश नीति की कोशिश थी कि भारत को अपना साथी बना लिया जाए जिसका इस्तेमाल रूस और चीन के खिलाफ हो सकता था लेकिन अमरीका का दुर्भाग्य था कि उस वक़्त देश का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू के हाथ में था जो किसी भी अमरीकी राजनीतिक चिन्तक और दार्शनिक पर भारी पड़ते.. नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की बुनियाद रख दी और बड़ी संख्या में नवस्वतंत्र देशों को अमरीका के खेमे में जाने से रोक दिया .उसके बाद के अमरीकी प्रशासकों ने इस बात का बुरा माना और भारत से दुश्मनी साधना शुरू कर दिया . भारत हाथ नहीं आया तो उन लोगों ने भारत को भौगोलिक रूप से लिहाज़ से घेरने के चक्कर में पाकिस्तान को अपनी चेलाही में ले लिया .. उन दिनों आज का बांगला देश भी पकिस्तान का ही हिस्सा था . ज़ाहिर है भारत के दोनों तरफ अमरीका की हमदर्द फौजें तैनात थी लेकिन भारत की विदेश नीति और सीमाओं की रक्षा की नीति दुरुस्त थी और पाकिस्तान ने जितनी बार भी भारत पर हमला किया ,उसे मुंह की खानी पड़ी. १९६५ और १९७१ में भारत के खिलाफ पकिस्तान की लड़ाई में अमरीकी शह की मात्रा भी थी लेकिन हर बार पकिस्तान का ही नुकसान हुआ. सोवियत रूस के ढह जाने के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए .शीत युद्ध ख़त्म हो गया , अमरीका दुनिया का सबसे ताक़तवर देश बन गया . भारत की विदेश नीति ने भी हिचकोले खाए और दक्षिण पंथियों के प्रभाव में आकर वह भी धीरे धीरे अमरीकापरस्ती के रास्ते पर चल निकली . अफगानिस्तान के आतंक के केन्द्रों के तबाह करने के लिए एक बार फिर अमरीका पकिस्तान को धन दे रहा है लेकिन अब वह भारत से दोस्ती भी करना चाहता है . अफ़सोस की बात है कि इस दोस्ती में भी वह खेल शातिराना ही रख रहा है . भारत पर तरह तरह के दबाव बनाकर उसे कमज़ोर दोस्त बनाने की अमरीका की कोशिश को किसी भी हालत में सही नहीं ठहराया जा सकता.अगर अमरीका चाहता है कि भारत से अच्छे सम्बन्ध बनें तो उसे फ़ौरन हेडली को भारत के हवाले करना चाहिए क्योंकि उसने भारत पर हुए कई हमलों में अपने शामिल होने की बात को कुबूल किया है .वह वास्तव में भारत का दुश्मन है और उसे बचाने की कोशिश करके अमरीका भारत विरोधी काम कर रहा है. एक बार अगर हेडली भारत की जांच एजेंसियों के कब्जे में आ गया तो पाकिस्तानी सरकार और वहां की फौज को मुंबई हमलों का अपराधी साबित करना बहुत आसान हो जाएगा.

सभी वर्गों की महिलाओं को आरक्षण देना ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन करने की कोशिशों को एक ज़बरदस्त झटका लगा है. बी जे पी की नेता सुषमा स्वराज ने कहा है कि इस बिल को लोकसभा में पास कराने के लिए प्रस्तावित सभी पार्टियों की मीटिंग में उनकी पार्टी खुले दिमाग से जायेगी. यह बयान बी जे पी के अब तक के रुख से थोडा अलग है क्योंकि अब तक बी जे पी वाले कहते थे कि महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने के मामले में उनका फैसला बिलकुल स्पष्ट है . वे इसे पूरा समर्थन देते हैं .. कांग्रेस से मतभेद के बावजूद, कांग्रेस की तरफ से लाये गए बिल का बी जे पी ने राज्यसभा में ज़बरदस्त समर्थन किया था . सबको पता है कि बी जे पी के समर्थन के बिना बिल किसी भी हालत में पास नहीं हो सकता था.
अब खुले दिमाग से बिल पर विचार करने की बात कह कर बी जे पी ने अपने रुख में बदलाव का साफ़ संकेत दे दिया है . यह बात भी सच है कि बी जे पी के लिए अब अपनी बात बदलना बहुत मुश्किल होगा लेकिन राजनीति में उन्हीं बातों को किया जा सकता है जो संभव हों .. कोई भी असंभव लक्ष्य रख कर उस पर काम करना बहुत ही कठिन होता है और असंभव को हासिल करने की कोशिश में कई बार वह भी हाथ नहीं आता जो आ सकता था . बी जे पी , कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट ने कोशिश की थी कि महिला आरक्षण के संविधान संशोधन को एलीट महिलाओं के हित की रक्षा के लिए एक कानून के रूप में पास करा लिया जाए लेकिन अब बी जे पी और कांग्रेस में उठ रहे असंतोष की वजह से पार्टियों ने अपने रुख में नरमी लाने का संकेत दिया है . बी जे पी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन के मामले में भी पार्टी के एलीट रुख की बात सामने आ गयी है .कार्यकारिणी में हालांकि ३३ प्रतिशत महिलाओं को जगह दी गयी है लेकिन उनमें से लगभग सभी समाज के ऊपरी तबके की हैं. बी जे पी में पिछड़ी जाति के सांसदों की संख्या काफी है और उन्हें अब लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव के उस तर्क में दम नज़र आने लगा है जिसमें उन्होंने कहा था कि महिला आरक्षण के नाम पर बी जे पी संभ्रांत लोगों को आगे लाने की गुपचुप कोशिश कर रही है ..बिहार से चुन कर आये बी जे पी सांसद हुकुम देव नारायण यादव ने पहले ही सार्वजनिक मंचों से यह बात कहना शुरू कर दिया है . बी जे पी के आला नेताओं को मालूम है कि उनके अलावा और भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो वर्तमान रूप में महिलाओं के आरक्षण के संविधान संशोधन को स्वीकार नहीं करेंगें . इसीलिए बी जे पी की नेता सुषमा स्वराज ने खुले दिमाग से आगे बढ़ने की बात करके संभावित बगावत पर रोक लगाने की कोशिश की है .

हालांकि कांग्रेस अभी भी बिल को मौजूदा रूप में ही पास कराने पर आमादा है लेकिन जानकार बताते हैं कि कांग्रेस के लिए भी यह संभव नहीं होगा क्योंकि यू पी ए सरकार को समर्थन दे रहे दलों में बहुत सारे ऐसे नेता हैं जो ऐसा होने नहीं देंगें . राज्यसभा में बिल को पास करवा कर कांग्रेस और बी जे पी ने अपने नंबर तो बढ़ा लिए हैं लेकिन अब साफ़ लगने लगा है कि महिला आरक्षण के प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में धकेलने की योजना तैयार हो चुकी है . मौजूदा राजनीतिक माहौल को देख कर लगता है कि संसद के बहुसंख्यक पुरुष सदस्य महिलाओं को आरक्षण देने के मूड में नहीं दिखते, वे इसे टालने के बहाने ढूंढ रहे हैं . एक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने तो बता दिया है कि अगर महिलाओं का आरक्षण लागू हो गया और रोटेशन की प्रणाली भी प्रयोग में आ गयी तो १५ साल बाद ९९ प्रतिशत सीटों पर महिलाओं का क़ब्ज़ा होगा.. अन्य पार्टियों के नेता भी इसीतरह के उल जलूल तर्क दे रहे हैं. लेकिन लुब्बो लुबाब यह है कि महिलाओं के आरक्षण के सवाल को किसी तरह अब ठंडे बस्ते में डाल देना है .

सवाल यह है कि क्या महिला आरक्षण बिल का वही हाल होगा जो पिछले १५ वर्षों से हो रहा है.? या कोई रास्ता है जिसका अनुसरण करने से संविधान का यह ज़रूरी संशोधन पास कराया जा सकता है . पुरुष प्रधान समाज के मर्दवादी लोगों की तो यही कोशिश है कि महिलाओं को वहीं रहने दिया जाए जहां वे सदियों से हैं . इस सन्दर्भ में पिछले कुछ दिनों बहुत सारे उल जलूल बयान आये हैं . कोई कहता है कि महिलाओं की जगह घर के अन्दर है तो कोई कहता है कि उनका काम बच्चों की देख भाल करना है . ऐसी और भी बहुत सारी बातें माहौल में हैं . उन सबका ज़िक्र करके दकियानूसी विचारों को अहमियत देने से कोई फायदा नहीं होगा. सोचने की बात यह है कि क्या कोई फौरी तरीका है जिस से महिलाओं को राज काज में शामिल किया जा सके . सीधी बात है कि अगर देश की आधी आबादी को शामिल करके कोई रणनीति बनायी जाए तभी संविधान में संशोधन करके महिलाओं को आरक्षण दिया जा सकता है . यह तभी संभव होगा जब राज्यसभा में पेश किया गया बिल इस तरह से दुरुस्त कर दिया जाए कि समाज के हर वर्ग को उसमें जगह मिल सके.. इस देश में ज़्यादातर लोग गरीब हैं . गरीबी रेखा के नीचे वाले गरीब और गरीबी रेखा के ऊपर वाले गरीब. यह सारे गरीब गावों में रहते हैं . शहरों में भी कुछ मिल जायेंगें . जब तक ग्रामीण महिलाओं , मुस्लिम महिलाओं , दलित महिलाओं और गरीब महिलाओं को राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाएगा तब तक कुछ होने वाला नहीं है . अभी जो बिल संसद में पेश किया गया है उसे पास कराने से देश की पूरी आबादी का कोई भला नहीं होगा क्योंकि यह बिल तो वास्तव में देश की दो प्रतिशत महिलाओं को ३३ प्रतिशत सीटें देने की साज़िश है. यह उम्मीद नहीं करना चाहिए कि पूरा देश इसे समर्थन देगा . हाँ अगर महिलाओं के आरक्षण के लिए ५० प्रतिशत सीटें ऑफर कर दी जाएँ और मुसलमानों, दलितों , पिछड़े वर्गों और गरीब सवर्णों को आरक्षण के दायरे में लाया जाए तो किसी भी पार्टी की हिम्मत नहीं होगी कि महिला आरक्षण के लिए संविधान में प्रस्तावित संशोधन का विरोध कर सके

Tuesday, March 16, 2010

कांग्रेस ने बनाया राज ठाकरे को मंझधार में छोड़ने का प्लान

शेष नारायण सिंह

नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद ,मेरठ और बुलंदशहर जिलों में अपराधी से नेता बने एक ऐसे व्यक्ति का आतंक था जो हर तरह की मनमानी करता था. उसके खिलाफ कोई भी आरोप साबित नहीं हो सकता था क्योंकि किसी की हिम्मत गवाही देने की नहीं थी . इस दौर में इन जिलों में एक ही बैच के आई पी एस अधिकारी जिला पुलिस के प्रमुख के रूप में तैनात थे .. तीनों मित्र भी थे . उन्होंने ऐसी नीति का सहारा लिया कि उस नेता की मनमानी पर रोक तो लग ही गयी , वह फरार हो गया और अपनी जान बचाते फिरने लगा . इन अफसरों ने अफवाह फैला दी कि उसका इनकाउंटर हो जाएगा .उन में से एक अधिकारी ने बताया कि इस अपराधी नेता को सज़ा तो नहीं दी जा सकती लेकिन जब इसका दरबार लगना बंद हो जाएगा , और जनता में यह सन्देश चला जाएगा कि यह तो अपनी ही जान बचाने के लिए मारा मारा फिर रहा है ,तो इसकी अपराध करने की क्षमता अपने आप कम हो जायेगी. यानी जब तक यह मशहूर रहता है कि अपराधी बहुत ताक़तवर है और पुलिस भी उस से बच कर रहती है , अपराधी का धंधा पानी चलता रहता है लेकिन जैसे ही यह पता चला कि अपराधी एक मामूली आदमी है ,उसकी दुकान बंद हो जाती है . उसे अदालत से सज़ा मिले चाहे न मिले, अपराध के ज़रिये कमाई कर सकने की ताक़त ख़त्म हो जाती है . महाराष्ट्र में यही हुआ . १९६६ से अब तक की राज्य सरकारें और राजनीतिक पार्टियां शिव सेना को पाल रही थीं और उसके सदस्य और मालिक वसूली के धंधे में लगे हुए थे . यह लोग मुंबई महानगर में हर उस इंसान से वसूली करते थे जो किसी तरह के कारोबार में लगा होता था. जहां मालिक लोग बिल्डरों और फिल्म वालों से उगाही करते थे, वहीं मोहल्ला लेवल के कार्यकर्ता , खोमचे वालों , पाकिटमारों और भिखारियों से रक़म वसूल कर अपना खर्च चलाते थे . इस सारे गोरख धंधे में पुलिस कुछ नहीं बोलती थी क्योंकि लगभग हमेशा ही कांग्रेस, एन सी पी या बी जे पी वाले शिव सेना की मदद करते रहते थे और पुलिस निष्क्रिय रहती थी .इस साल जब शिव सेना ने राहुल गाँधी को धमकी दे दी तो सरकार की अथारिटी का इस्तेमाल किया गया और शिव सेना के कार्यकर्ताओं को उनकी औकात बता दी गयी. . राहुल गाँधी के परिवार के ख़ास दोस्त , शाहरुख खान को भी जब धमकी मिली तो सरकार सक्रिय हो गयी और शिव सेना की दुकान में शटर लगाने के प्रोजेक्ट में पूरा सरकारी अमला जुट गया . शिव सेना के साथ काम करने वाले मुकामी बदमाशों की तबियत से धुनाई हुई और शिव सेना के सभी नेता आजकल ठंडे चल रहे हैं . पिछले दिनों शिव सेना के मालिक के परिवार के एक सदस्य को भी सत्ताधारी पार्टी ने शह देना शुरू किया था.. उसको मदद करके महाराष्ट्र नव निर्माण सेना नाम की पार्टी भी बनवा दी गयी.. शिव सेना को कमज़ोर करने के लिए उसकी पार्टी का इस्तेमाल भी हुआ लेकिन उसने अपनी ताक़त से ज्यादा हल्ला गुल्ला करना शुरू कर दिया . अब खबर आई है कि शिव सेना से अलग हुए इस धड़े के बदमाशों को भी पुलिस ने ठीक करने का काम शुरू कर दिया है . और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के ११ कार्यकर्ताओं को बाँध कर थाने में बैठा दिया. यह लोग किसी सिनेमा वाले के यहाँ वसूली करने गए थे . इनका कहना था कि उस फिल्म यूनिट में कुछ विदेशी लोग काम कर रहे हैं ,जिनके पास वर्क परमिट नहीं है. लिहाज़ा फिल्म वाले से इन्होने कहा कि अगर बिना परमिट वाले विदेशियों से काम करवाना है तो २७ लाख रूपये इनको दें वरना काम रोक दिया जाएगा. यह सही है कि वर्क परमिट के बिना विदेशी काम नहीं कर सकते लेकिन उसकी चेकिंग का काम पुलिस का है , राज ठाकरे के बदमाशों का नहीं . लिहाज़ा पुलिस को खबर हुई और उसने इन्हें पकड़ किया . थाने में ले जाकर बैठाया और ३-३ हज़ार की ज़मानत पर छोड़ दिया . इसका मतलब यह है कि उनका अपराध ऐसा संगीन नहीं था कि उन्हें हिरासत में लेकर पूछ-ताछ की जाती लेकिन महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के रोज़ ही बढ़ रहे वसूली साम्राज्य पर ब्रेक लगाने के लिए इनके महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं को माफी माँगने पर मजबूर करना एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना है . अब राज ठाकरे का भी वही हाल हो जाएगा , जो उनके चाचा बाल ठाकरे का है या जो नब्बे के दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वसूली का धंधा करने वाल्रे अपराधी-नेता का हुआ था . क्योंकि अगर अवाम के दिमाग में यह बात बैठ गयी कि वसूली का रैकेट चलाने वाला पुलिस से डरता है तो जनता उसकी मामूली सी बात की शिकायत लेकर थाने जाने लगेगी और एक बार अगर थाने की टेढ़ी नज़र पड़ गयी तो कोई भी अपराधी अपना धंधा बदलने के लिए मजबूर हो जाता है . इसलिए जिस तरह से मुंबई में बाल ठाकरे और राज ठाकरे के लोगों के खिलाफ पुलिस सक्रिय हुई है ,उस से लगता हैकि अब इन लोगों की औकात एक मामूली क्रिमिनल की हो जायेगी और मुंबई की जनता राहत की सांस लेगी

Monday, March 15, 2010

बरेली के दंगे और नरेंद्र मोदी की ताजपोशी की तैयारी

शेष नारायण सिंह

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के संभावित दावेदार के रूप में पेश करके बी जे पी अध्यक्ष,नितिन गडकरी ने एक साथ कई निशानों पर तीर मारा है .पार्टी के आडवाणी गुट से मिल रही चुनौती को उन्होंने बिलकुल भोथरा कर दिया है .इस गुट के बाकी नेताओं की यह हैसियत तो है नहीं कि अपने ही गुट के अन्नदाता नरेन्द्र मोदी से पंगा लें. इस लिए अब दिल्ली में रहकर सियासी शतरंज खेलने वाले नेता लोग राग मजबूरी में काम करने लगेंगें. जानकार बताते हैं कि गडकरी के बयान के बाद आर एस एस के दंगाई सक्रिय हो जायेंगें और देश के अलग अलग इलाकों में दंगें शुरू हो जायेंगें क्यंकि बी जे पी की राजनीति को धार दंगों के बाद ही मिलती है . उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में करीब २ हफ्ते से चल रहे कर्फ्यू को इसी सच्चाई की रोशनी में देखा जाना चाहिए.बरेली के दंगें में सियासत की कई परते हैं .सबसे अहम तो यह है कि १९९१ से ही बी जे पी ने बरेली की लोकसभा सीट को अपनी सीट मान रखा है .बाबरी मस्जिद के खिलाफ बी जे पी के अभियान के दौरान यहाँ से पहली बार बी जे पी का उम्मीदवार जीता था. जो २००४ तक जीतता रहा लेकिन लोकसभा -२००९ में यहाँ से कांग्रेस जीत गयी. कांग्रेस के नेता लोग भी अब बरेली को अपनी सीट मानने लगे हैं . उनके कुछ नेता बरेली जाते रहते हैं और वहां की सबसे पवित्र दरगाह, पर अपनी श्रद्धा दिखाते रहते हैं .यानी कांग्रेस अब बरेली को अपनी सीट के रूप में पक्का करने की कोशिश कर रही है . यह बात बी जे पी को बिलकुल पसंद नहीं है . बी एस पी भी इस राजनीतिक घटनाक्रम से बहुत नाराज़ है . वैसे भी उत्तरप्रदेश में कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी बी एस पी के प्रभाव वाले इलाकों में अपनी गतिविधियाँ बढ़ाकर बी एस पी लीडरशिप को डराते रहते हैं . बरेली में कांग्रेस की मजबूती को कमज़ोर करने की चिंता बी एस पी के एजेंडे में भी है. जहां तक बी जे पी की बात है उसकी तो जांची परखी नीति है कि दंगे के बाद जो राजनीतिक ध्रुवीकरण होता है , उस से पार्टी का फायदा होता है . इस तरह से कई तरह के राजनीतिक सोच के माहौल के बीच २ मार्च को बारावफात के जुलूस से सम्बंधित एक मामूली विवाद के बीच पुलिस ने एक धार्मिक नेता को गिरफ्तार कर लिया. काफी जाच पड़ताल के बाद पुलिस को पता लगा कि उस धार्र्मिक नेता का कोई कुसूर नहीं था लिहाज़ा उसे छोड़ दिया गया . बी जे पी के हाथ एक भड़काऊ मुद्दा लग गया और उसके नेता मुस्लिम धार्मिक नेता की रिहाई का विरोध करने लगे . अफवाहें फैलने लगीं, आगज़नी और तोड़ फोड़ की घटनाएं शुरू हो गयीं. एक मित्र ने कहा कि बी एस पी तो मुसलमानों की हमदर्द जमात है , वह दंगें को क्यों भड़का रही है . जवाब साफ़ है कि बरेली में अगर किसी वजह से उनका अपना फायदा नहीं होता तो वे कांग्रेस का नुकसान करने की गरज से बी जे पी को ही फायदा पंहुचा देगें क्योंकि बी एस पी की नज़र में अब बी जे पी मायावती की ताक़त को किसी इतरह से चुनौती नहीं दे सकती. . दूसरी बात यह है कि नौकरशाही आजकल बहुत ही साम्प्रदायिक हो गयी है ,उसे मुसलमान को परेशान होते देख कर मज़ा आने लगा है . लेकिन एक हकीकत से और भी ध्यान नहीं हटाना चाहिए कि बरेली का दंगा आर एस एस और बी जे पी की पूरी गेम में एक बहुत मामूली चाल है . हालांकि बी जे पी नेतृत्व ने इस मामले को प्रहसन बनाने की पूरी कोशिश की है और बहुत ही मामूली टाइप के नेताओं को वहां भेज कर मामले को साधारण साबित करने में जुट गए हैं . भला बताइये, साम्प्रदायिक दंगें की जांच करने वाले सांसदों के दल में ,गोरखपुर के योगी आदित्य नाथ बतौर सदस्य नामित किये गए हैं. कोई गडकरी से पूछे के आप वहां दंगा भड़काना चाहते हैं या वहां कुछ शान्ति करना चाहते हैं . क्योंकि आदित्य नाथ की ख्याति एक खूंखार मुस्लिम विरोधी की है और उनका नाम सुन कर अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भड़क सकते हैं ..

बहरहाल सच्चाई यह है कि बी जे पी ने अपनी उसी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है जो उसने १९८६ में अपनाई थी. देश भर के शहरों में दंगें हए, बाबरी मस्जिद के खिलाफ आन्दोलन चला , आडवानी की रथयात्रा हुई और जहां जहां से रथ गुज़रा ,वह इलाका दंगों की चपेट में आया . बहुत सारे दंगाई लोग राष्ट्रीय नेता बन गए , बाबरी मस्जिद ढहाई गयी , फिर दंगें हुए और बी जे पी की ताजपोशी हुई . उसी तरह से २००२ के विधान सभा चुनावों के पहले पूरी तरह से हाशिये पर पंहुच चुकी बी जे पी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात नरसंहार की योजना पर काम किया और मोदी दुबारा सत्ता में आ गए.. इन्हीं मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर पूरे देश में गोधरा टाइप हालात पैदा करने की संघ की योजना में बरेली को पहली कड़ी माना जा सकता है . ऐसी हालत में देश की सभी धर्मनिरपेक्ष जमातों को चाहिए कि बी जे पी और संघ की इस साज़िश को बेनकाब करें और मोदी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने के आर एस एस के सपने पर ब्रेक लगाएं . मौजूदा परिस्थितियों में मुसलमानों की भी ज़िम्मेदारी कम नहीं है . उन्हें चाहिए कि एक राजनीतिक नेतृत्व का विकास करें और धार्मिक नेताओं से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें कि वे दीनी मामलों तक ही अपने आप को सीमित कर के रखें . राजनीतिक मामले राजनीति के सहारे हल होने चाहिए और उसमें धार्मिक नेताओं की भूमिका से नुकसान ज्यादा होता है . एक बात पर और भी गौर करना पड़ेगा कि बाबरी मस्जिद के खिलाफ चले आर एस एस के अभियान के वक़्त जिस तरह से कुछ स्वार्थी मुसलमान नेता बन कर डोलने लगे थे उन्हें भी कौम का नेता बनने का मौक़ा न दें . अगर सेकुलर जमातें और मुसलमान संभल न गए तो गडकरी-भागवत-मोदी की टोली देश में भयानक साम्प्रदायिक हालात पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी.

Friday, March 12, 2010

सज्जन और मोदी के दरवाज़े न्याय की दस्तक

शेष नारायण सिंह


लोकतंत्र की ताक़त को कम करके आंकने वालों के उत्साह को बढाने के लिए वक़्त ने एक साथ दो अवसर प्रस्तुत कर दिया. लोकतंत्र की उपयोगिता पर सवाल उठा रहे लोग इस बात से परेशान थे कि राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ लोग अपनी मनमानी करते हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं . जिसका नतीजा यह होता है कि आम आदमी के साथ अन्याय हो जाता है .जबकि आम आदमी को न्याय दिला सकना ही लोकशाही की सबसे पहली शर्त है . लेकिन जिस तरह से कानून ने सिख दंगों के अभियुक्त सज्जन कुमार को घेरा है उस से लोकशाही की संस्थाओं पर एक बार फिर भरोसा बढ़ा है. जिन लोगों ने १ नवम्बर से ३ नवम्बर १९८४ की दिल्ली देखी है , उन्हें उस वक़्त के दिल्ली के कांग्रेस के नेताओं को इंसान मानने में भी दिक्क़त होती है . अर्जुन दास, हरिकिशन लाल भगत,ललित माकन, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर कुछ ऐसे नाम हैं जिनको सुनकर भी मेरे जैसे लोग बहुत साल बाद तक कांप जाते थे . दंगों के बाद कुलदीप नैय्यर , रोमेश थापर, श्रीमती धर्मा कुमार जैसे लोगों लोगों के नेतृत्व में शुरू हुए गैरसरकारी राहत के काम में शामिल होने के बाद त्रिलोक पुरी, मादी पुर , पंजाबी बाग़ , पश्चिम विहार , सफदरजंग इन्क्लेव आदि मुहल्लों में जो मरघट की शान्ति देखी गयी थी, वह आज भी बहुत तकलीफ दे जाती है . लेकिन उस आतंक के सूत्रधार कांग्रेसी नेता बहुत दिनों तक ऐश करते रहे. भगत, अर्जुन दास, ललित माकन आदि तो मर गए लेकिन कानून की ताक़त का अनुभव करने के लिए अभी कुछ लोग बचे हैं , सज्जन कुमार उसी खेप के एक कांग्रेसी हैं. जिस तरह से उनके चारों तरफ कानून का घेरा बन रहा है ,उस से लगता है कि लोकशाही की संस्थाएं अपना काम कर रही हैं. सज्जन कुमार को बहुत लोगों ने भीड़ को उकसाते देखा था लेकिन ज़्यादातर लोग कन्नी काट गए. बहरहाल आज लोकतंत्र की प्रमुख संस्था ,न्यायपालिका अपना काम कर रही है और यह सुकून की बात है .


सज्जन कुमार से ज्यादा खूंखार मनमानी के एक और उदाहरण हैं , श्री नरेंद्र मोदी . उनके बारे में कहा जाता है कि फरवरी २००२ के गुजरात नरसंहार की स्क्रिप्ट उनकी निगरानी में ही लिखी गयी थी . लेकिन उन्होंने कहीं भी अपने क़दमों के निशान नहीं छोड़े थे , इसलिए कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड पा रहा था. अब खबर आई है कि लोकशाही के प्रमुख स्तम्भ , सुप्रीम कोर्ट ने मोदी के दरवाज़े पर भी कानून की ताक़त की दस्तक दिलवा दी है .उस वक़्त तक लोकसभा के सदस्य रहे, एहसान जाफरी को उनके ही घर में जिंदा जला डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने , स्वर्गीय एहसान जाफरी की पत्नी, ज़किया जाफरी की अर्जी पर सुनवाई के दौरान एस आई टी को आदेश दिया है कि नरेंद्र मोदी को समन भेज कर बुलाया जाए और उनसे पूछताछ की जाए. इस मामले में दर्ज एफ आई आर में नरेंद्र मोदी का नाम नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें अभियुक्त के रूप में नहीं बुलाया जा सकता , उन्हें बतौर गवाह पेश होना है . हाँ अगर तफ्तीश के दौरान जांच अधिकारी को लगा कि अपराध में उनके शामिल होने के कुछ कारण हैं तो उनसे मुलजिम ( मुज़रिम नहीं ) के तौर पूछताछ की जा सकती है .


सवाल यह नहीं है कि मोदी या सज्जन कुमार जैसे लोगो को सज़ा क्या होगी. उनकी दोनों की पार्टियां देश की राजनीतिक सत्ता के सबसे महत्व पूर्ण संगठन हैं . दुर्भाग्य यह है कि दोनों ही लोगों की पार्टियां उनको बचाने की पूरी कोशिश कर रही हैं.लेकिन लोकशाही के समर्थकों के लिए संतोष का विषय यह है कि कानून की सर्वोच्चता का अनुभव सज्जन कुमार और मोदी जैसों को भी हो रहा है और यही लोकतंत्र के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है .राजनीतिक नेताओं के अपराध को न्याय की परिधि में लाने का जो काम लोकशाही की संस्थाएं कर रही हैं ,वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है . ज़ाहिर है लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का भी इसमें कम योगदान नहीं है .. १९८६ के बाद जब बी जे पी ने आक्रामक हिंदुत्व को राजनीतिक हथियार के रूप में अपनाने का फैसला किया तब से ही देश में राजनीतिक बाबाओं का भारी आतंक था . आर एस एस के संगठनों ने इन बाबाओं का पूरा राजनीतिक इस्तेमाल किया और देश की धर्मपरायण जनता को अपने साथ राजनीतिक रूप से इकठ्ठा करने के लिए इन बाबाओं को आगे भी किया. उन दिनों आज की तरह न्यूज़ चैनल नहीं होते थे .. टेलीविज़न सरकारी था और बाबा लोगों के बारे में जो भी अखबारों में छपता था, सीधे सादे लोग विश्वास करते थे . लेकिन आजकल पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मीडिया ने बाबाओं को घेरा है और न्याय की सीमा में लाने की कोशिश की है , वह भी काबिले-तारीफ़ है . मीडिया का यह काम लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है... वह लोकतंत्र के हित में है .. उम्मीद की जानी चाइये कि आने वाले वक़्त बी जे पी जैसी पार्टियां भी अपने राजनीतिक कार्य में बाबापंथी का धंधा करने वालों को दूर रखेंगें . क्योंकि इन्हें इस्तेमाल करने में ख़तरा यह रहेगा कि पता नहीं कब नए युग का कौन सा मीडिया सारी पोल पट्टी खोल दे. . सेक्स के धंधे में लगे हुए बाबाओं को अब शायद ही राजनीति में जगह मिल पायेगी. इस लिए अरुंधती रॉय टाइप लोगों को लोकशाही के खिलाफ लाठी भांजने से बाज़ आना चाहिये

Wednesday, March 10, 2010

मौजूदा बिल महिलाओं के एक बड़े वर्ग को मुख्यधारा से अलग करने का निमित्त

शेष नारायण सिंह

बी जे पी के खेल में सभी फंस गए. महिला आरक्षण की बहस को शुरू ही उलटे तरीके से किया गया. महिला आरक्षण बिल को समझने के लिए मैं अपने गाँव जाना चाहूंगा.. मेरे गाँव में दलित भी हैं, पिछड़े और सवर्ण भी. बगल के गाँव में मुसलमान हैं .बचपन से लेकर अब तक मैंने हर तरह की सामाजिक सोच देखी है . जब मैंने समझना शुरू किया,मेरे गाँव में सब गरीब थे . आज भी कोई बहुत धनी नहीं हैं . मेरे पिता खुद एक ठाकुर ज़मींदार थे लेकिन १९५२ के बाद वे भी बहुत गरीब हो गए थे लेकिन गाँव के सवर्ण अपने को दलितों, मुसलमानों और अन्य पिछड़ी जातियों से ऊंचा मानते थे . दलितों और मुसलमानों के प्रति उन दिनों जो सोच थी, आज तक वही है ,. मेरे गाँव में मेरी उम्र के कुछ लोगों ने मुझे मेरे पिता जी से पिटवाने की कोशिश की थी जब मैंने ९० के दशक की शुरुआत में डॉ अंबेडकर के निर्वाण के दिन जाति के विनाश पर बाबा साहेब के तर्क का समर्थन करने वाला लेख लिख दिया था. .यह वही लोग हैं जो गाँव के दलितों के बच्चों को स्कूल जाने से रोकते थे . मेरे गाँव में मेरे पिता जी से दो एक साल उम्र में छोटे,दलित जाति के रामदास जी थे . मुझसे उन्होंने पूछा कि क्या हमारे बच्चों की भी तरक्की हो सकती है . मैंने कहा कि अगर आप अपने बच्चों को पढ़ा दें तो कोई नहीं रोक सकता . यह बात उन्होंने कुछ लोगों को बता दी. तब से ही मेरे खिलाफ मेरे गाँव में माहौल है .. दलितों के कुछ बच्चे पढ़ लिख गए. कुछ डाक खाने में चिट्ठीरसा हो गए, कुछ और छोटी मोटी सरकारी नौकरियों में चले गए. जबकि ठाकुरों के दसवीं फेल बच्चे खाली घूम रहे हैं . सवर्ण मानसिकता के लोग गाँव के ठाकुरों के पिछड़ेपन के लिए दलितों की शिक्षा को ज़िम्मेदार बताते हैं .. मेरे गाँव को देख कर लगता है की गरीबी अपने आप में एक जाति है. जिस बिल को राज्यसभा में पास करवाया गया है वह निश्चित रूप से एक इलीट कोशिश है . जिसका मकसद गरीब से गरीब लोगों को देश के फैसलों से बाहर रखना है .ज़ाहिर है इस तरह की स्थिति से बी जे पी जैसी पार्टियों का ही फायदा होगा क्योंकि उनके साथ न तो मुसलमान हैं और न ही दबे कुचले लोग .संसद और विधान सभाओं मेंअगर इनकी संख्या कम कर दी जाए तो बी जे पी अपना वह एजेंडा लागू करने में सफल रहेगी जिसमें मुसलमान, दलित और पिछड़ों को १९४७ के पहले की स्थिति में रखने की योजना है . कांग्रेस भी कहे कुछ भी, करती वही है जो सामंती, संपन्न , पूंजीवादी सोच की मांग होती है . इन लोगों को नहीं मालूम की दिल्ली शहर के अन्दर ही मुसलमानों और दलितों की बच्चियों को शिक्षा के अवसर नहीं उपलब्ध हैं . . इन लोगों को यह भी नहीं मालूम नहीं कि असली गावों में रहने वाले लोगों को जब तक शिक्षा के सही अवसर नहीं दिए जाते तब तक उन दबे कुचले परिवारों की महिलाओं से संभ्रांत परिवारों की महिलाओं के मुकाबले खड़े होकर जीतने की उम्मीद करना एक सपना है . इस लिए मुस्लिम, दलित और पिछड़ी जातियों और गरीब सवर्णों के परिवारों की महिलाओं को राजनीति की मुख्यधारा से अलग करने वाले बिल का समर्थन उसी हालत में किया जाना चाहिए जब वह आधी आबादी के पूरे हिस्से के हित में हो. मौजूदा बिल महिलाओं के एक बड़े वर्ग को मुख्य धारा से अलग करने का निमित्त है और इसे इसके इस स्वरुप में समर्थन देना ठीक नहीं है .

Friday, March 5, 2010

लोकतंत्र को खारिज करने वालों की साज़िश से सावधान रहने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह


गोधरा में ट्रेन के एक डिब्बे में लगी आग के बाद जिस तरह से खून खराबा हुआ, उस से दुनिया भर में तकलीफ महसूस की गयी थी. उसके बाद से लोकतंत्र के औचित्य पर सवाल उठाने लगे थे . कई पुरस्कारों से सम्मानित लेखिका , अरुंधती रॉय ने पहला हमला किया था . उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मुख्यमंत्री, नरेन्द्र मोदी के गोधरा के बाद के काम को निशाने में लेकर यह तर्क दिया था कि कल्याणकारी राज्य की स्थापना कर सकना लोकतंत्र के बूते की बात नहीं है .. यहाँ नरेंद्र मोदी को सही ठहराने का कोई इरादा नहीं है लेकिन उनके बहाने से पूरे लोकतंत्र को खारिज करने की कोशिश को भी रोके जाने की ज़रुरत है .. अरुंधती रॉय एक विद्वान् लेखिका मानी जाती हैं , उनका मीडिया प्रोफाइल बहुत ही ऊंचा है और उन्हें हम लोगों की तरह अपनी रोटी-पानी के लिए रोज़ संघर्ष नहीं करना पड़ता . उनके पास जुगाड़ है, कई साल तक के भोजन-भजन का इंतज़ाम है . लेकिन इस देश में आबादी का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसे लोकतंत्र बहुत कुछ देता है. लोकतंत्र के बड़े बड़े ठेकेदार गरीब आदमी की रोटी-पानी की बात करते देखे गए हैं. आजकल भी सत्ताधारी पार्टी, राग ' आम आदमी ' में अपनी बात कह रही है लिहाज़ा लोक तंत्र के खिलाफ लाठी भांजने का वक़्त शायद अभी नहीं आया है . २००२ में जब अरुंधती रॉय का लोकतंत्र विरोधी लेख छपा था तो मुझे एक महात्मा जी का प्रवचन बहुत याद आया था जो मेरे कस्बे में वर्षों पहले पधारे थे . उन्होंने रामराज्य का ज़िक्र किया था और कहा था कि वर्तमान राज-काज बिलकुल बेकार है ,हमें रामराज्य के लिए प्रयास करना चाहिए जिस से चारों तरफ दूध-दही की नदियाँ बहेंगीं , लोग सुखी रहेंगें और कहीं कोई कष्ट नहीं होगा. महात्मा जी का प्रवचन ख़त्म हुआ , तम्बू उखड गया , वहां बिछी हुई दरी वगैरह हटा दी गयी. जो मजदूर इस काम में लगे थे उनको न्यूनतम मजदूरी मिली, उन लोगों ने दुकान वाले को पिछला बकाया अदा किया और नया उधार लेकर अपने घर चले गए.सूखी रोटी ,प्याज के साथ खाई और सो गए. महात्मा जी प्रवचन के आयोजकों के यहाँ पधारे , वहां दिव्य भोजन किया, भक्तों ने उनके चरण की सेवा की और वे सो गए.. उनके लिए तो रामराज्य के सुख का बंदोबस्त हो चुका था लेकिन उन मजदूरों के लिए रामराज्य अभी बहुत दूर था . उनका संघर्ष लम्बा चलेगा तब कहीं उन्हें रामराज्य के सुख का दर्शन होगा ..अरुंधती रॉय जैसे लोगों का लोकतंत्र के खिलाफ दिया गया प्रवचन उन्हीं महात्मा जी के प्रवचन जैसा है जो हकीकत से दूर रह कर अपने ख्याली पुलाव को वाताविकता की तरह स्वीकार करने का आग्रह करता नज़र आता है ..अरुंधती रॉय अपने उस आग्रह पर आज भी कायम हैं क्योंकि एक नामी पत्रिका में छपे अपने उस लेख को उन्होंने अपनी ताज़ा किताब में ज्यों का त्यों छाप दिया है. उनके अलावा भी कुछ चिंतकों ने लोकतंत्र के खिलाफ तर्क देना शुरू कर दिया है और एकाधिकारवादी पूंजी और गुंडों की राजनीतिक सफलता का उदाहरण दे कर वे लोकतंत्र के खिलाफ तर्क देने की कोशिश करते हैं. यह सच है कि सत्ता के सबसे ऊंचे मुकाम पर बैठे लोगों तक पूंजीवादी शक्ति के प्रतिनिधियों की पंहुच आसानी से हो जाती है , वे कई बार ऐसे फैसले भी करवा लेते हैं जो जनविरोधी होते हैं . यह भी सच है कि आजकल चुनाव जीतने वालों में ऐसे लोग भी शामिल हो जाते हैं जो अपराधी हैं या जिनका सामाजिक उत्थान से कोई लेना देना नहीं होता .कई बार यह अपराधी लोग विकास के लिए निर्धारित रक़म को अपने निजी स्वार्थ के लिए हड़प भी लेते हैं . इन अपराधियों, नेताओं, अफसरों और बड़ी पूंजी वालों के गठजोड़ का हवाला देकर भी लोकतंत्र के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है लेकिन इस सबके बावजूद अभी लोकतंत्र के खिलाफ सुनी जा रही खुसुर-फुसुर को समर्थन देना ठीक नहीं होगा . ज़रुरत इस बात की है कि सार्थक बहस की शुरुआत की जाए और लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ बन रहे माहौल को दबाने की कोशिश की जाए. लोक तंत्र के पक्ष में सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस व्यवस्था में अपराधी और जनविरोधी टाइप लोगों को बेदखल करने के अवसर उपलब्ध हैं . दूसरी बात यह है कि जो लोग भी लोकतंत्र के खिलाफ माहौल बना रहे हैं उनके पास कोई वास्तविक विकल्प नहीं है. उनके पास विकल्प के नाम पर वही महात्मा जी वाला कार्यक्रम है . .

सच्ची बात यह है कि लोकतंत्र की अवधारणा किसी की कृपा से नहीं आई है . इसके लिए आम आदमी ने सैकड़ों वर्षों तक संघर्ष किया है .और अभी लोकशाही के सभी पक्ष सामने नहीं आये हैं . लोकतंत्र के बड़े केंद्र अमरीका में अभी लोकतंत्र की बुनियादी बातें भी नहीं आई हैं . चुनाव व्यवस्था शुरू होने के कई सौ वर्षों की परंपरा के बाद पिछले चुनाव में वहां यह सोचा गया कि क्या कोई काला यानी दलित आदमी राष्ट्रपति हो सकता है या कि कोई महिला सर्वोच्च पद पर पंहुच सकती है . अभी ५० साल पहले तक अमरीका में सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था . उन्होंने अपने दलितों को चुनाव प्रणाली से बाहर रखा था, महिलाओं को भी बहुत देर से वोट देने का अधिकार मिला . इसी तरह से बाकी देशों एक लोकतंत्र में भी विकास की अलग अलग अवस्थाएं हैं ... लेकिन एक बात पक्की है कि जो कुछ भी हासिल होगा उसके लिए संघर्ष करना पडेगा.आज जो भी लोकतंत्र का स्वरुप है उसके विकास में एक लम्बा वक़्त लगा है इस में दो राय नहीं है कि लोकतंत्र की अभी बहुत सी संभावनाएं खुलना बाकी हैं .लोकशाही के जो बुनियादी सिद्धांत हैं वे फ्रांसीसी क्रान्ति के बराबरी, भाईचारा और स्वतंत्रता के नारों से विकसित हुए हैं . आज दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है .ज़ाहिर है कि उसे हासिल करने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होकर ही कोशिश करनी पड़ेगी . उसके खिलाफ माहौल बना कर नहीं.

हमारे अपने लोकतंत्र में भी अभी बहुत सारी संभावनाएं हैं . सही बात यह है कि अभी तक दलितों और मुसलमानों को लोकशाही की मुख्यधारा में शामिल होने का मौक़ा नहीं मिला है.एक मायावती को मुख्यमंत्री पद मिला है लेकिन उसकी वजह से दलितों की मुक्ति की लड़ाई एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी है .. आज़ादी के साथ वर्षों बाद भी पिछड़ी और दलित महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए संघर्ष चल रहा है . पंचायतों में कुछ भागीदारी का काम हुआ है लेकिन मर्दवादी सोच के पुरुषों ने वहां भी स्त्री को सत्ता के बाहर रखने की सारे गोटें बिछा रखी हैं ..आजकल जो नक्सलवाद के खिलाफ सारी सत्ता जुटी हुई है , उस नक्सलवाद को शुरू होने से ही रोका जा सकता था .अगर दलितों और आदिवासियों को उनका हक दिया गया होता तो वे कभी भी वह राह न अपनाते . वरना आज वे लोग ही दिग्भ्रमित मार्क्सवादियों की राजनीतिक डिजाइन को पूरा करने के लिए आगे कर दिए गए हैं .वे अति वामपंथी आंतंकवादी सोच के लिए शील्ड का काम कर रहे हैं .. उनके खिलाफ तोप चलाने वाली सरकारों को चाहिए कि उनका इस्तेमाल करने वाले हिंसक वामपंथियों और उनका राजनीतिक लाभ लेने वाली जमातों को अलग थलग करें.

यह भी सच है कि राजनीतिक लोकतंत्र की सीमाएं हैं . वह पूरी तरह से कल्याणकारी निजाम नहीं कायम कर सकता लेकिन लोकतंत्र को कम करने के नतीजे भी भयानक होंगें . लोकतंत्र को कम करने का नतीजा यह होगा कि तानाशाही प्रवृत्तियाँ बढ़ेगी . इसलिए लोकतंत्र की मात्रा बढ़ा कर चाहे थोड़ी तकलीफ भी हो लेकिन उसको ही आगे किया जाना चाहिए और राजनीतिशास्त्र के बारे में शौकिया प्रवचन करने वाले महात्मा टाइप लोगों की बात को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए .

Saturday, February 27, 2010

मीडिया,शोषित-पीड़ित वर्गों की राजनीति और मौजूदा बजट

शेष नारायण सिंह

अब तक बजट पर जितनी प्रतिक्रियाएं आई हैं उनमें मायावती की टिप्पणी सबसे सही है . उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया कि "बजट में विदेशी पूंजीपतियों को खुले बाजार में अनाप-शनाप मुनाफा कमाने का मौका दिया गया है। यह बजट पूंजीपति समर्थक तथा धन्नासेठों को माला-माल करने वाला है." एक अन्य प्रतिक्रिया में मायावती ने कहा है "कि बजट में सोशल सेक्टर, ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के निर्धन लोगों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया गया है ,बल्कि आंकड़ों की बाजीगरी से देश के लोगों को गुमराह करने की कोशिश की गयी है."
हो सकता है कि यह टिप्पणी अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की लफ्फाजी के हिसाब से बहुत उपयुक्त न हो , अर्थशास्त्र की सांचाबद्ध सोच से हट कर हो लेकिन यह पक्का है कि देश के अवाम की भाषा यही है . यह भी हो सकता है कि यह दिल्ली और मुंबई के काकटेल सर्किट वालों की समझ में भी न आये और दिल्ली में अड्डा जमाये पूंजीपतियों के संगठनों के नौकर अर्थशास्त्री इस तर्क को टालने की कोशिश करें लेकिन आम आदमी का सच यही है यह सच है कि जब से कांग्रेस ने विकास का समाजवादी रास्ता छोड़ने की राजनीति पर काम करना शुरू किया उसी वक़्त से वह शोषित-पीड़ित वर्ग जो महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस में अपना भविष्य देख रहा था ,उसने उस से कन्नी काटना शुरू कर दिया . राजनीतिक प्रक्रिया का यह विकास उत्तर प्रदेश में सबसे प्रमुखता से देखा जा रहा था.. इस क्षेत्र में दलितों के पक्षधरता की राजनीति के आधुनिक युग के विद्वान्, कांशीराम भी अपना प्रयोग कर रहे थे . उन्होंने कांग्रेस के पूंजीपति परस्त झुकाव को भांप लिया था और तय कर लिया था कि देश के गरीब आदमी को कांग्रेसी स्टाइल के विकास से बचा लेंगें जिसमें शोषित पीड़ित जनता को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के विकास का साधन बनाना था. आम आदमी कहीं सस्ते मजदूर के रूप में तो कहीं पूंजीपतियों के कारखानों में बनाए गए फालतू सामान के खरीदार के रूप में इस्तेमाल हो रहा था. .कांशीराम को तो यह भी मालूम था कि पूंजीपति वर्ग के क़ब्ज़े वाला प्रेस भी उनकी बात को नहीं छापेगा ,शायद इसी लिए उन्होंने बहुत ही सस्ते कागज़ पर छपे हुए पम्फलेटों के ज़रिये अपनी बात दलितों और शोषितों तह पंहुचायी थी.. संवाद कायम करने की दिशा में उनका यह प्रयोग लगभग क्रांतिकारी था..उन्होंने गावों में अनुसूचित जातियों के कुछ शिक्षित नौजवानों की पहचान कर ली थी . संगठन का काम देखने वाले डी एस फोर( बहुजन समाज पार्टी का पूर्व अवतार) के लोग इन नौजवानों से संपर्क में रहते थे. कांशीराम के पम्फलेट दिल्ली में करोलबाग़ और शाहदरा के कुछ प्रेसों में छापे जाते थे और लगभग पूरे उत्तर प्रदेश के इन कार्यकर्ताओं तक पंहुच जाते थे . . उन्होंने अखबारों का इस्तेमाल अपनी बात पंहुचाने के लिए कभी नहीं किया. डाइरेक्ट संवाद की इस विधा का कांशीराम ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया . उनका कहना था कि प्रेस और मीडिया पर मनुवादियों का क़ब्ज़ा है . वे अगर दलितों की कोई बात छापेंगें तो उसे तोड़-मरोड़ कर अपनी बात साबित करने के लिए ही छापेंगें . इस लिए कई बार वे अपनी मीटिंग से तथाकथित मुख्य धारा के पत्रकारों को भगा भी देते थे ... इस तरीके का इस्तेमाल करके उन्होंने बड़ी से बड़ी सभाएं कीं. अखबारों में कहीं ज़िक्र तक नहीं होता था और रैली के दिन अपनी अपनी साइकिलों से या पैदल बहुत बड़ी संख्या में दलित जनता इकट्ठा हो जाती थी. . एक बार सितम्बर १९९४ में मुझे उन्होंने,लखनऊ से दिल्ली के जहाज़ में मुझे पकड़ लिया . उस हफ्ते राष्ट्रीय सहारा अखबार के सम्पादकीय पृष्ठ पर मेरा एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था कि "जब जाति टूटेगी,तभी समता होगी". परिचय होने पर उन्होंने कहा कि समता के लिए जाति का टूटना ज़रूरी नहीं है . उत्तर प्रदेश में उन्होंने मुलायम सिंह यादव की सरकार बनवा दी थी . उन्होंने कहा कि जाति के टूटने के पहले ही समता आ जायेगी. सत्ता पर शोषित पीड़ित जनता के कब्जे का फायदा सामाजिक बराबरी कायम करने में होगा मैंने जब कहा कि वह लेख डॉ. अंबेडकर के विचारों के हवाले से लिखा गया है तो उन्होंने साफ़ कहा था कि आप अपनी सोच बदलिए . नयी राजनीतिक सच्चाई यह है कि जाति भी रहेगी और समता भी रहेगी. आज करीब १५ साल बाद उनकी बाद सही होती नज़र आ रही है.हालांकि उस वक़्त मैं उनकी बात से सहमत नहीं हुआ था .लेकिन उनकी सोच की जो मौलिकता थी, वह हमेशा याद आ जाती है समता मूलक समाज की शुरुआत की उनकी बात १५ साल बाद सही साबित होने की डगर पर है..आज जब मायावती का बजट संबंधी बयान अखबारों में देखा तो एक बार लगा कि बहुत ही सीधे और सपाट तरीके से , साधारण भाषा में आम आदमी की तकलीफों का उन्होंने ज़िक्र कर दिया है .कांशी राम के आन्दोलन में अभिजात्य वर्ग की राजनीतिक समझ से लोहा लेना था , सो उन्होंने अपना तरीका अपनाया . आज ज़रुरत इस बात की है कि उसी आभिजात्य और सामंती सोच वाले वर्ग की आर्थिक समझ के खिलाफ शोषित पीड़ित जनता की आवाज़ को उठाया जाए . और मायावती उस काम को बखूबी निभा रही हैं .बजट का विरोध, बी जे पी के नेतृत्व में कुछ अन्य पार्टियों ने भी लिया लेकिन उस विरोध को उनकी अपने हित की लड़ाई कहना ही ठीक होगा क्योंकि उन सभी पार्टियों के लोग कभी नं कभी केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं और लगभग सभी पर पूंजीवादी साम्राज्यवादी सत्ता के हित चिन्तक होने के आरोप लग चुके हैं. हो सकता है कि यह आरोप गलत होने लेकिन इस पार्टियों के बड़े नेताओं के बड़े पूंजीपतियों से मधुर सम्बन्ध की सच्चाई को इनकार नहीं किया जा सकता .

पिछले १८ वर्षों से देश में आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के नाम पर देश की कमाई का एक बड़ा हिस्सा विदेशी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है . दुर्भाग्य यह है कि देश में वामपंथी पार्टियों के अलावा कोई इसका विरोध नहीं कर रहा है ..वामपंथी नेता भी अपनी सांचाबद्ध सोच के बाहर जाने को तैयार नहीं हैं. ऐसी हालत में मायावती का दो टूक बयान स्वागत करने की चीज़ है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए.. और हो सकता है कि देश के दलितों और गरीब आदमियों की बात को उनकी भाषा में समझने के लिए दिल्ली की रायसीना पहाड़ियों पर रहने वाले शासक वर्गों को भी मजबूर किये जा सकें

Thursday, February 25, 2010

भारत -पाक वार्ता, ढाक के तीन पात

शेष नारायण सिंह
अमरीका की तरफ से बार बार की गयी पहल के बाद करीब १४ महीने बाद ,भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर बात-चीत का सिलसिला शुरू हो गया है .विदेश सचिव स्तर की बात-चीत से कुछ नहीं निकलेगा ,यह सबको मालूम था . लेकिन दोनों देशों की जनता के लिए यह एक ऐसी गोली है जिसका बीमारी पर कोई असर नहीं पड़ना था लेकिन शान्ति के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए यह एक लाली पाप ज़रूर है.. भारत और पाकिस्तान के बीच जो भी समस्या है ,वह राजनीतिक है . ज़ाहिर है कि उसका हल भी राजनीतिक होना चाहिए . इस लिए जब भी सचिव स्तर की बीत चीत होती है उसे असली बात की तैयारी के रूप में ही देखा जाना चाहिए.लेकिन दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य बनाने की कोशिश करने वालों को और भी बहुत कुछ ध्यान में रखना चाहिए. अपने ६३ साल के इतिहास में पाकिस्तान के शासक यह कभी नहीं भूले हैं कि भारत उनका दुश्मन नंबर एक है . और उन्होंने अपनी जनता को भी यह बात भूलने का कभी भी अवसर नहीं दिया है .शुरुआती गलती तो पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिनाह ने ही कर दी थी . उन्होंने बंटवारे के पहले अविभाजित भारत के मुसलमानों को मुगालते में रखा और सबको यह उम्मीद बनी रही कि उनका अपना इलाका पाकिस्तान में आ जाएगा लेकिन जब सही पाकिस्तान का नक्शा बना तो उसमें वह कुछ नहीं था जिसका वादा करके जिनाह ने मुसलमानों को पाकिस्तान के पक्ष में लाने की कोशिश की थी और सफल भी हुए थे ... बाद में लोगों की नाराज़गी को संभालने की गरज से पाकिस्तानी शासकों ने कश्मीर , हैदराबाद और जूनागढ़ की बात में अपने देश वालों को कुछ दिन तक भरमाये रखा. लेकिन काठ की हांडी के एक उम्र होती है और वह बहुत दिन तक काम नहीं आ सकती . वही पाकिस्तान के हुक्मरान के साथ भी हुआ. . जिसका नतीजा यह है कि पकिस्तान में आज सारे लोगों की एकता को सुनिश्चित करने के लिए कश्मीर की बोगी का इस्तेमाल होता है . पिछले ६० वषों में इतनी बार कश्मीर को अपना बताया हैं इन बेचारे नेताओं और फौजियों ने कि अब कश्मीर के बारे में कोई भी तर्क संगत बात की ही नहीं जा सकती है . जहां तक भारत का सवाल है, वह कश्मीर को अपना हिस्सा मानता है और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को अपने इलाके में मिलाना चाहता है . . पाकिस्तानी हुकूमतें कहती रही हैं कि कश्मीर के मसले पर उन्होंने भारत से ३ युद्ध लड़े हैं . लिहाज़ा वे कश्मीर को छोड़ नहीं सकते.बहर हाल यह पाकिस्तानी अवाम का दुर्भाग्य है कि अपनी आज़ादी के ६३ वर्षों में उन्हें महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू जैसा कोई नेता नहीं मिला. दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ी गयी. वास्तव में पाकिस्तान की स्थापना भारत की आजादी की लड़ाई को बेकार साबित करने के लिए अंग्रेजों की तरफ से डिजाइन किया गया एक धोखा है जिसे जिनाह को उनकी अँगरेज़ परस्ती के लिए इनाम में दिया गया था .

आज की हकीक़तें बिलकुल अलग हैं.आज जब पाकिस्तानी विदेश सचिव दिल्ली में बात कर रहे हैं , उनके ऊपर पाकिस्तानी सत्ता के ३ केन्द्रों को खुश रखने का लक्ष्य है . ज़ाहिर तौर पर तो वहां पाकिस्तानी राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री हैं . जिनकी अपनी विश्वसनीयता की कोई औकात नहीं है .वे दोनों ही वहां इस लिए बैठे हैं कि उन्हें अमरीका का आशीर्वाद प्राप्त है . वे दोनों ही अमरीका के हुक्म के गुलाम हैं , जो भी अमरीका कहेगा उसे वे पूरा करेंगें ... दूसरी पाकिस्तानी ताक़त का नाम है , वहां की फौज. शुरू से ही फौज़ ने भारत विरोधी माहौल बना रखा है . उसी से उनकी दाल रोटी चलती है . और शायद इसी लिए पाकिस्तानी समाज में भी फौजी होना स्टेटस सिम्बल माना जाता है . आई एस आई भी इसी फौजी खेल का हिसा है . तीसरी ताक़त है वहां का आतंकवादी . इसे भी सरकार और फौज का आशीर्वाद मिला हुआ है. धार्मिक नेताओं के ज़रिये बेरोजगार नौजवानों को जिहादी बनाने का काम १९७९ में जनरल जिया उल हक ने शुरू किया था . उसी दौर में आज आतंक का पर्याय बन चुका हाफ़िज़ मुहम्मद सईद , जनरल जिया उल हक का सलाहकार बना था . और अब वह इतना बड़ा हो गया है कि आज पाकिस्तान में कोई भी उसको सज़ा नहीं दे सकता . जिया के वक़्त में उसका इतना रुतबा था कि वह लोगों को देश की बड़ी से बड़ी नौकरियों पर बैठा सकता था. बताते हैं कि पाकिस्तानी हुकूमत के हर विभाग में उसकी कृपा से नौकरी पाए हुए लोगों की भरमार है , जिसमें फौजी अफसर तो हैं ही, जज और सिविलियन अधिकारी भी शामिल हैं ..बहुत सारे नेता भी आज उसकी कृपा से ही राजनीति में हैं . पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री, नवाज़ शरीफ भी कभी उसका हुक्का भरते थे . भारत के खिलाफ जो भी माहौल है , उसके मूल में इसी हाफ़िज़ सईद का हाथ है . बताया गया है कि पाकिस्तान का मौजूदा विदेश मंत्री , शाह महमूद कुरेशी भी इसी हाफ़िज़ सईद के अखाड़े का एक मामूली पहलवान है . ऐसी हालत में विदेश सचिव स्तर की बात चीत से कुछ भी नहीं निकलना था और न निकलेगा. भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश सचिवों की बात चीत को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए ..शायद इसी लिए वार्ता शुरू होने से पहले ही चीन में जाकर पाकिस्तानी विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी ने चीन को बिचौलिया बनाने की बात कर डाली. सब को मालूम है कि इस सुझाव को कोई नहीं मानने वाला है. पाकिस्तान की रोज़मर्रा की रोटी पानी का खर्च उठा रहे अमरीका को भी यह सुझाव नागवार गुज़रा है . . पाकिस्तानी फौज को मालूम है कि अगर भारत को सैन्य विकल्प का इस्तेमाल करना पड़ा तो पाकिस्तान का तथाकथित परमाणु बम धरा रह जाएगा और पाकिस्तान का वही हश्र हो सकता है जो १९७१ की लड़ाई के बाद हुआ था लेकिन फौज किसी कीमत पर दोनों देशों के बीच सामान्य सम्बन्ध नहीं होने देगी क्योंकि अगर भारत और पाकिस्तान में दुश्मनी न रही तो पाकिस्तानी फौज़ के औचित्य पर ही सवाल पैदा होने लगेगें. आई एस आई और उसके सहयोगी आतंकवादी संगठनों को भी भारत विरोधी माहौल चाहिए क्योंकि उसके बिना उन का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा. जहाँ तक ज़रदारी-गीलानी जोड़ी का सवाल है उनकी तरफ से भारत से बात चीत का राग चलता रहेगा क्योंकि अगर उन्होंने भी इस से ना नुकुर की तो अमरीका नाराज़ हो जाएगा और अमरीका के नाराज़ होने का मतलब यह है कि पकिस्तान में भूखमरी फैल जायेगी. . आज पाकिस्तान की बुनियादी ज़रूरतें भी अमरीकी खैरात से चलती हैं . इस लिए बात चीत की प्रक्रिया को चलाते रहना उनकी मजबूरी है. . लेकिन उनकी राजनीतिक हैसियत इतनी नहीं है कि वे कोई फैसला ले सकें . इस लिए पूरे भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि भारत और पकिस्तान के बीच समबन्धों में निकट भविष्य में कोई सुधार नहीं होने वाला है ..

Friday, February 19, 2010

दुनिया भर में साइबर चोरों का आतंक-- अंतर-राष्ट्रीय सुरक्षा पर ख़तरा

शेष नारायण सिंह



दुनिया के सामने एक अजीब विपदा आ पड़ी है . दुनिया भर में करीब ढाई हज़ार ठिकानों पर लगे हुए लगभग ७५ हज़ार कम्प्यूटर प्रणालियों को साइबर अपराधियों ने अपने निशाने में ले लिया है . इस तरह से दुनिया भर में लाखों कार्यालयों का डाटा, हैकरों के रहमो करम पर है .ख़तरा यह भी है कि इस चुराई गयी सूचना का कोई भी इस्तेमाल हो सकता है . हैक किये गए कम्प्यूटरों से निकाली गयी सूचना अगर आतंकवादी समूहों के हाथ लग गयी तो दुनिया का बहुत ज्यादा नुकसान हो सकता है ...अमरीका के नामी अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने यह सनसनी खेज़ खुलासा किया है .

साइबर अपराधियों ने अपना काम २००८ में शुरू किया लेकिन इसका पता करीब एक महीने पहले लगा .अभी तक की जानकारी के हिसाब से कुछ बड़ी कंपनियों के रिकॉर्ड, क्रेडिट कार्ड के आंकड़े, और स्वास्थ्य संबंधी जानकारी पर इन साइबर अपराधियों ने हाथ साफ़ कर दिया है ..हैकरों का यह जाल दुनिया के लगभग सभी देशों में फैला हुआ है ..अमरीकी शहर वर्जीनिया की एक कम्प्यूटर सुरक्षा कंपनी, नेट विटनेस की खोज के बाद यह सारी जानकारी सम्बंधित लोगों को हासिल हुई है ..अभी पिछले महीने गूगल ने दावा किया था कि उनकी बहुत सारी गुप्त सूचना को हैक कर लिया गया है .गूगल ने उस वक़्त कहा था कि यह सारी कारस्तानी चीन में शुरू हुई थी .. गूगल के अलावा वित्त, सुरक्षा , ऊर्जा, और मीडिया की क़रीब ३० बड़ी अमरीकी कंपनियों का डाटा भी साइबर चोरों के लिए खुली किताब बन चुका है ..

दिलचस्प बात यह है कि अब कम्पूटरों की सुरक्षा के लिए जो भी तरीके उपलब्ध हैं वे इस तरह के हमले केलिए नाकाफी हैं..यह हैकर इतने बेहतरीन कमांड और कंट्रोल सिस्टम इस्तेमाल कर रहे हैं कि अगर किसी तरीके से उन का पता भी लगा लिया जाए तो कम्पूटरों में सुरक्षित जानकारी तक उनकी पंहुच को रोका नहीं जा सकता.जानकार बताते हैं कि लोगों के लोगिन की पूरी जानकारी इकठ्ठा करने का मतलब यह है कि साइबर अपराधियों के हाथ वह तरीके लग गए हैं जिस से वे दुनिया की वित्तीय व्यवस्था और बैंकों को भारी नुकसान पंहुचा सकते हैं .. अमरीकी सॉफ्टवेर सुरक्षा कंपनी नेट विटनेस के मुखिया अमित योरन का कहना है कि उनके सहयोगी इस बात का पता लगाने में जुटे हैं कि अब तक कितना नुकसान हो चुका है .. नुकसान को कम करने की तरकीबों पर भी काम हो रहा है . साइबर अपराधियों के इस खेल का शिकार जो कम्पनियां हुई हैं .अमरीका के सम्मानित अखबार वाल स्ट्रीट जर्नल केअनुसार उसमें कार्डिनल हेल्थ और मर्क जैसी बड़ी कम्पनियां हैं.. इनके अलावा शिक्षा संस्थाएं, ऊर्जा कम्पनियां , बैंक और इन्टरनेट सेवाएँ प्रधान करने वाली कई बड़ी कम्पनियां इस अपराध के लपेटे में आ गयी हैं .अमरीकी सरकार के १० विभाग भी हैकिंग के शिकार हुए हैं . अमरीकी सरकारी सूत्रों ने दावा किया है कि इनमें सुरक्षा से सम्बंधित कोई भी एजेंसी शामिल नहीं है . अभी तक अमरीका , सउदी अरब , मिस्र, तुर्की और मेक्सिको में इस अपराध के शिकार हुए कम्पूटरों की जानकारी मिली है . इस सूची के बढ़ते जाने का ख़तरा बना हुआ है ...

Monday, February 15, 2010

पवार और बाल ठाकरे की दोस्ती पर भारी पड़ी मुंबई की जनता

शेष नारायण सिंह

शिव सेना की राजनीति का आख़री दौर शुरू हो गया है. एक हफ्ते में लगातार दो बार उनके इलाकाई नेता पुलिस के हाथों विधिवत पीटे गए हैं . अक्खी मुंबई में शिव सेना छाप बकैती का कोई पुछत्तर नहीं है .जिस कांग्रेस ने उसे शुरू करवाया और बाकायदा मदद की , उसके सभी नेता पल्ला झाड चुके हैं . सबसे अजीब बात तो यह है कि अपने विरोधियों की सियासी चमक को फीका करने के लिए पिछले ३० वर्षों से शिव सेना का इस्तेमाल कर रहे शरद पवार ने भी अपने ताज़ा बयान में शिव सेना से पिंड छुडाने की कसरत शुरू कर दी है .यह अलग बात है कि राहुल गाँधी वाली धुनाई के दिन ही शिव सेना वालों के हौसले पस्त हो गए थे . शिव सेना के युवराज अपनी बिल में विराजमान थे और उनके चचेरे भाई बहुत ही अदब से बात कर रहे थे . शिव सेना के संस्थापक को औकातबोध हो चुका था और वे भीगी बिल्ली के रूप में अपने घर के अन्दर छुप गए थे. कहीं कोई बयान नहीं था . ऐसी हालत में मुंबई में अराजकता फैला कर सियासत करने वाले ,केंद्रीय कृषि मंत्री, शरद पवार ने बाल ठाकरे के घर जाकर फर्शी सलाम बजाया . उनकी मंशा यह थी कि शिव सेना वालों को भड़काया जाए क्योंकि अगर मुंबई में अमन-चैन कायम हो गया तो उनकी राजनीतिक रौनक कमज़ोर पड़ जायेगी. . उनकी इस यात्रा से घर के अन्दर दुबके , बाल ठाकरे की हिम्मत बढ़ी और उन्होंने एक निहायत ही कमजोर विकेट पर खेलने के फैसला कर लिया. उन्होंने एक लोकप्रिय अभिनेता के खिलाफ मर्चा खोल दिया और १२ फरवरी को रिलीज़ होने वाली उसकी फिल्म के खिलाफ मैदान ले लिया . क्रिकेट के खेल का एक नियम है कि जब किसी मज़बूत खिलाड़ी के सामने कोई लूज़ बाल फेंकी जाती है तो एक ज़ोरदार छक्का लगता है ..लेकिन सियासत की क्रिकेट के नियम कुछ अलग हैं . इस खेल में जब कोई भी खिलाड़ी लूज़ बाल फेंकता है तो सैकड़ों छक्के लगते हैं और कई बार तो इस एक लूज़ बाल की वजह से उसकी टीम ही हार जाती है . मातोश्री जाकर बाल ठाकरे को भड़काने की शरद पवार की भड़ी में आकर शिव सेना ने वही बेवकूफी कर दी और अब शिव सेना मुंबई शहर में पूरी तरह से अलग थलग पड़ गयी है... मुसीबत में पड़े किसी भी साथी को मंझधार में छोड़ देने के खेल के उस्ताद, शरद पवार ने भी अब शिव सेना से पिंड छुडाने की कोशिश शुरू कर दी है ..

अब तक होता यह था कि शिव सेना का इस्तेमाल कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों के नेता उन कामों के लिए करते थे , जो वे कानून के दायरे में रह कर खुद नहीं कर सकते थे .मुंबई के ट्रेड यूनियन आन्दोलन में कम्युनिस्टों की हैसियत को कम करने के लिए उस वक़्त के कांग्रेसी नेताओं ने एक मामूली कार्टूनिस्ट को आगे करके शिवसेना की स्थापना करवाई थी. उस दौर के कांग्रेसी ही शिवसेना के संरक्षक हुआ करते थे . परेल के विधायक सुभाष देसाई का मुंबई के ट्रेड यूनियन हलकों में ख़ासा दबदबा था . वे कम्युनिस्ट थे . १९७० में उनकी हत्या कर दी गयी . आरोप शिव सेना पर लगा लेकिन जानकार बताते हैं कि उस वक़्त की कांग्रेसी सरकार ने शिव सेना प्रमुख को साफ़ बचा लिया .. बात में दत्ता सामंत के खिलाफ भी शिव सेना का इस्तेमाल किया गया . उनके नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनों को सरकार ने ख़त्म किया और मुंबई का औद्योगिक नक्शा बदल दिया . जब कामगारों में शिव सेना की ताक़त बढ़ी तो मजदूरों के साथ साथ मिल मालिकों से भी वसूली जोर पकड़ने लगी और शिव सेना ने बाकायदा हफ्ता वसूली का काम शुरू कर दिया...यहाँ समझने वाली बात यह है कि जब दत्ता सामंत पर शिव सेना भारी पड़ी और उनकी हत्या हुई ,उस दौर में शरद पवार एक राजनीतिक ताक़त बन चुके थे . वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन चुके थे .तब से अब तक शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे और शरद पवार की दोस्ती का सिलसिला जारी है और दोनों हमेशा एक दूसरे के काम आते रहे हैं ..मौजूदा दौर में भी उनकी कोशिश यही थी कि शिवसेना का इस्तेमाल करके दिल्ली में अपने आप को महत्वपूर्ण बनाए रखें लेकिन उनकी बदकिस्मती है कि आजकल दिल्ली में राज करने वाला कोई लल्लू नहीं है . दिल्ली में सोच समझ कर फैसले लेने की परंपरा शुरू हो गयी है . शायद इसी लिए जब वे बाल ठाकरे को चने की झाड पर चढ़ा कर वापस लौटे तो दिल्ली वालों ने बाल ठाकरे के लोगों की धुनाई की योजना बना ली. बेचारे बाल ठाकरे अपने घर में बैठ कर शरद पवार को गरिया रहे हैं और उनकी समझ में नहीं आ रहा है अब क्या करें ? क्योंकि यह बात सारी दुनिया जानती है कि अगर गुंडे से लोग डरना बंद कर दें तो उसकी दूकान बंद हो जाती है . शिव सेना में काम करने वालों को कोई तनख्वाह तो मिलती नहीं , उनका खर्चा- पानी तो मोहल्ले और झोपड़-पट्टी में वसूली से ही चलता है . जब गरीब आदमी शिव सेना के मुकामी कार्यकर्ता से डरना बंद कर देगा तो उसे पैसा क्यों देगा. और अगर शिव सैनिक होने के बावजूद शहरी लुम्पन को खाने पीने की तकलीफ होने लगेगी तो वह शिव सेना के साथ क्यों रहेगा .वह कोई और रास्ता देखने के लिए मजबूर हो जाएगा. . यहाँ यह देखना दिलचस्प होगा कि शिव सेना की न्युसांस वैल्यू ख़त्म होने के बाद बाल ठाकरे और उनका कुनबा तो पैदल हो ही जाएगा, शरद पवार की सियासत भी बहुत कमज़ोर हो जायेगी.

महाराष्ट्र की राजनीति का कोई भी जानकार बता देगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार की ताक़त में जब भी वृद्धि हुई, उसी दौर में राज्य और राजधानी मुंबई में शिव सेना को मजबूती मिली. १९७८-७९ से शुरू हुआ यह सिलसिला आज तक चल रहा है. १९९२-९३ के मुंबई दंगों के दौरान तो उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री सुधाकर राव नाईक ने श्रीकृष्ण कमीशन के सामने बयान दिया था कि तत्कालीन रक्षा मंत्री, शरद पवार ने सेना की तैनाती में अड़चन लगाई जिस से कि शिव सेना के दंगाई गुंडे उन इलाकों में लूट,आगज़नी और क़त्ल का नंगा कर सकें जहां बड़ी संख्या में मुसलमान रहते थे .. उसके बाद भी जब भी मौक़ा मिलता है ,शरद पवार शिव सेना की मदद करते रहते हैं . यह अलग बात है कि इस बार शिव सेना को आगे बढाने की उनकी कोशिश को सोनिया गाँधी और मनमोहन सिंह ने पकड़ लिया और वे आजकल अपने घाव चाटते देखे जा रहे हैं .. शिव सेना ने भी उनकी हमेशा मदद की है पिछले दिनों जब प्रधान मंत्री पद एक लिए शरद पवार की दावेदारी की बात चली थी, शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे खुल कर उनके पक्ष में आ गए थे ..

लेकिन एक फिल्म की रिलीज़ जैसे मुद्दे पर अपना सब कुछ दांव पर लगा देने की बेवकूफी कर के शिव सेना ने अपना सर्वनाश कर लिया है .. शाहरुख खान की फिल्म की मुखालिफत करके शिवसेना की अपनी गुंडई वाली ज़मीन को वापस लेने की कोशिश बहुत महंगी पड़ गयी है .और एक बार साफ़ हो गया है कि अब मुंबई की जनता के ऊपर ,शिवसेना के बड़े से बड़े नेता की घुड़की का कोई असर नहीं पड़ने वाला है ..वरना दादर इलाके में लोगों को घरों में बैठे रहने की नसीहत देने वाले पूर्व मुख्यमंत्री, मनोहर जोशी की बात पर लोग विचार करते.जो ११ फरवरी को घूम घूम कर कह रहे थे कि अगर पत्थर न खाना हो तो १२ फरवरी को सड़क पर न निकलें .. जो आदमी महाराष्ट्र का मुख्य मंत्री रह चुका हो और लोकसभा का अध्यक्ष रह चुका हो उसे सड़क छाप गुंडों की तरह लोगों को धमकाते देख कर मन में बहुत तकलीफ होती है . लेकिन सच्चाई यह है कि यही शिवसेना की सियासत है और इसी के सहारे उसकी दाल रोटी चलती है . लेकिन इस देश के लोक तंत्र और राजनीति में काम करने वाले लोगों के लिए यह शर्म की बात है कि शरद पवार जैसा राष्ट्रीय स्तर का नेता भी शिव सेना की दादागीरी के खेल में शामिल हो कर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करता है ..बहरहाल जो भी हुआ,एक बात तो पक्की है कि शाहरुख खान की फिल्म के बाद हुए घटनाक्रम से साफ़ हो गया है कि अब शिव सेना को गंभीरता से लेने वालों की संख्या में बहुत बड़ी कमी आई है .

Sunday, February 14, 2010

तबाह शिवसेना के कार्यकर्ताओं को मुख्य धारा में लाने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह

पहली बार मुंबई की सडकों पर शिव सेना अपमानित हुई है . इसके पहले कभी भी ऐसा दिन नहीं देखा था... परेल और दादर के औद्योगिक इलाकों में १९७० के आस पास इनकी ताक़त का अहसास होने लगा था . कम्युनिस्ट विधायक, कृष्णा देसाई की हत्या के बाद तो बहुत बड़ी संख्या में मिल मजदूर शिव सेना वालों से डरने लगे थे . दत्ता सामंत की हत्या के बाद से यह संगठन मुंबई और उसके उप नगरों में सबसे ताक़तवर जमात के रूप में माना जाने लगा था. बेरोजगार युवकों की टोलियाँ उन दिनों जार्ज फर्नांडीज़ के साथ भी जुड़ रही थीं लेकिन वहां पैसा-कौड़ी नहीं था लिहाजा ज़्यादातर नौजवान शिव सेना से जुड़ने लगे. आज तक यही हाल था . मोहल्ले में लोग शिव सेना के युवकों से डरते थे और चंदा देते थे . कांग्रेस और बी जे पी की सरकारें कभी भी शिव सैनिकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करती थीं. कभी कोई वारदात होती थी तो मुंबई पुलिस कुछ देर थाने में बैठाकर छोड़ देती थी . शायद इसी लिए शिव सेना में भर्ती होना राजनीति के साथ साथ आर्थिक विकास और मुकामी सम्मान का भी रास्ता माना जाता था लेकिन पिछले १० दिनों में सब कुछ बदल गया . राहुल गाँधी की यात्रा और उनके पारिवारिक मित्र ,शाहरुख खान की फिल्म को हिट करवाने के चक्कर में महाराष्ट्र की कांग्रेसी सरकार की पुलिस ने शिव सैनिकों को खूब पीटा. शरद पवार की पार्टी का उप मुख्यमंत्री भी उन्हें बचा न सका . पहली बार मुंबई की सडकों पर सरकार के हाथों शिव सैनिक पिटा है. जिसका नतीजा यह है कि वह निराश है . बाल ठाकरे की अपने बन्दों को बचा सकने की योग्यता पर पहली बार सवाल उठा है . ज़ाहिर है कि बड़ी संख्या में नौजवान हताशा का शिकार हुआ है ..यह नौजवान बिलकुल निर्दोष है . इसे सामाजिक जीवन में जीने और अपने नेता की बात मानने की आदत पड़ चुकी है . इसको फिर से किसी राजनीतिक जमात में शामिल किये जाने की ज़रुरत है . इस लिए मुम्बई में सक्रिय राजनीतिक पार्टियों को चाहिए कि वे इन नौजवानों को अपने साथ ले कर इनका राजनीतिक पुनर्वास करें..अगर ऐसा न हुआ तो यह नौजवान किसी ऐसे संगठन में भी शामिल हो सकते हैं जिसके देशप्रेम का रिकॉर्ड संदिग्ध हो..इस लिए कांग्रेस, बी जे पी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को तुरंत यह घोषणा कर देनी चाहिए कि अगर शिव सेना से निराश नौजवान चाहें तो उनको सम्मान पूर्वक मुख्य धारा की इन पार्टियों में शामिल किया जाएगा. . यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि शिव सेना के मालिकों की नीति कुछ भी हो , मराठी बेरोजगार नौजवान तो उनके साथ देश और समाज की सेवा के लिए जुडा था. उसका इस्तेमाल इन लोगों ने गलत काम के लिए कर लिया तो नौजवान का कोई दोष नहीं है .इस लिए उसे बदमाशी की राजनीति से बाहर लाकर मुख्य धारा में शामिल करने का यह अवसर गंवाया नहीं जाना चाहिए . सवाल उठ सकता है कि इन गुमराह नौजवानों को राजनीति के पचड़े से दूर रख कर किसी रचनात्मक काम में लगा दिया जाए तो ज्यादा उपयोगी होगा . लेकिन इस तर्क में बुनियादी दोष है . पिछले १५-२० साल से जो लडके राजनीति में काम कर रहे हैं ,उन्हें और किसी भी काम में लगाना खतरे से खाली नहीं है .अव्वल तो राजनीति में शामिल ज़्यादातर नौजवानों के पास कोई ख़ास योग्यता नहीं होती और अगर होगी भी तो इतने दिनों तक शिव सेना की गुंडई और दादागीरी की राजनीति करके वे बेचारे सब कुछ भूल भाल गए होंगें .. ऐसी हालत में उन्हें राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में ही पुनर्वास देने के बारे में सोचा जा सकता है ... दूसरा सवाल यह उठ सकता है कि शिव सेना टाइप राजनीति करने के बाद क्या यह नौजवान मुख्य धारा की राजनीति में शामिल हो सकते हैं . . जवाब हाँ में है क्योंकि बाकी पार्टियों में भी गुंडे ही बहुतायत में हैं . हाँ उनके यहाँ फर्क इतना है कि हर पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व खुले आम बदमाशी को समर्थन नहीं करता जबकि शिव सेना वाले राष्ट्रीय नेता भी दादागीरी के पक्ष में भाषण देते पाए जाते हैं ..
इस बहस को हलके लेने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि इस बात का भी पूरा ख़तरा बना हुआ है कि दिशा से बहक गए ये नौजवान आतंकवादियों के हाथ भी लग सकते हैं . जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है वहां बड़ी संख्या में आतंकवादी संगठनों के रिक्रूटिंग एजेंट घूम रहे हैं . मालेगांव में विस्फोट करने वालों को भी आतंकवादी गतिविधियाँ चलाने के लिए नौजवानों की ज़रुरत है और उनके लिए हिंदुत्व की ट्रेनिंग पा चुके इन नौजवानों का बहुत ही ज्यादा इस्तेमाल है . इन लोगों का इस्तेमाल पाकिस्तान में रहने वाले आतंकवादी भी कर सकते हैं . यहाँ यह बात भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता.. पिछले ३० वर्षों का इतिहास देखें तो समझ में आ जाएगा कि पाकिस्तान की आई एस आई ने पंजाब, असम और मुंबई में आतंकवादी गतिविधियों के लिए हिन्दू और सिख लड़कों का इस्तेमाल किया था....इस लिए सभी पार्टियों को शिव सेना की तबाही का जश्न मनाना छोड़कर फ़ौरन उन लड़कों को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने की कोशिश करनी चाहिए जो शिव सेना के चक्कर में रास्ते से बहक गए थे