Showing posts with label .शेष नारायण सिंह. Show all posts
Showing posts with label .शेष नारायण सिंह. Show all posts

Sunday, June 6, 2010

ता हद्दे नज़र शहरे-खामोशां के निशाँ हैं

शेष नारायण सिंह

गुजरात में एक दलित नेता और उनकी पत्नी को पकड़ लिया गया है . पुलिस की कहानी में बताया गया है कि वे दोनों नक्सलवादी हैं और उनसे राज्य के अमन चैन को ख़तरा है . शंकर नाम के यह व्यक्ति मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन अब वर्षों से गुजरात को ही अपना घर बना लिया है . गुजरात में साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं , वे भी उसी में शामिल हैं. विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे हैं और लोगों को एक जुट करने की कोशिश कर रहे हैं .उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट के संगठन सेवा में काम करती हैं , वे गुजराती मूल की हैं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस ने जो कहानी दी है ,उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्र प्रदेश से ही आई हैं और वहीं से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आई हैं . ज़ाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था. इसके पहले डांग्स जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ,अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था . किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे अभी तक जेल में ही हैं .गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम शुरू हो चुका है और आने वाले वक़्त में किसी को भी नक्सलवादी बता कर धर लिया जाएगा और उसक अभी वही हाल होगा जो पिछले १० साल से गुजराती मुसलमानों का हो रहा है .नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जायेगी. और मोदी क एपुलिस वालों के लिए इतना ही काफी है . वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद , राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं . अगर उनको भी दमन का शिकार बना कर निष्क्रिय कर दिया गया तो उनकी बिरादराना राजनीतिक पार्टी , राष्ट्रवादी सोशलिस्ट पार्टी और उसके नेता , एडोल्फ हिटलर की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री का भी अपने राज्य में एकछत्र निरंकुश राज कायम हो जाएगा .
अहमदाबाद में जारी के बयान में मानवाधिकार संस्था,दर्शन के निदेशक हीरेन गाँधी ने कहा है कि 'गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनो , दलितों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है ' लेकिन विरोध के स्वर भी अभी दबने वाले नहीं है . शहर के एक मोहल्ले गोमतीपुर में पुलिस का सबसे ज़्यादा आतंक है, . वहां के लोगों ने तय किया है कि अपने घरों के सामने बोर्ड लगा देंगें जिसमें लिखा होगा कि उस घर में रहने वाले लोग नक्सलवादी हैं और पुलिस के सामने ऐसी हालात पैदा की जायेगीं कि वे लोगों को गिरफ्तार करें . ज़ाहिर है इस तरीके से जेलों में ज्यादा से ज्यादा लोग बंद होंगें और मोदी की दमनकारी नीतियों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया जाएगा.वैसे भी अगर सभ्य समाज के लोग बर्बरता के खिलाफ लामबंद नहीं हुए तो बहुत देर हो चुकी होगी और कम से कम गुजरात में तो हिटलरी जनतंत्र का स्वाद जनता को चखना ही पड़ जाएगा.

वैसे गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है , सब अमन चैन से हैं . गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौक़ा लगा . सब ने बताया कि अब बिलकुल शान्ति है , कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है . उन लोगों का कहना था कि शान्ति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है.बड़ा अच्छा लगा कि चलो १० साल बाद गुजरात में ऐसी शान्ति आई है .लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था वह सच्चाई नहीं थी. वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे , जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं . गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि पाकिस्तान में हिन्दू का . गुजरात के शहरों के ज़्यादातर मुहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है , पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है . अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है. मोदी के इस आतंक को देख कर समझ में आया कि अपने राजनीतिक पूर्वजों की लाइन को कितनी खूबी से वे लागू कर रहे हैं . लेकिन यह सफलता उन्हें एक दिन में नहीं मिली . इसके लिए वे पिछले दस वर्षों से काम कर रहे हैं . गोधरा में हुए ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों को हलाल करना इसी रणनीति का हिस्सा था . उसके बाद मुसलमानों को फर्जी इनकाउंटर में मारा गया, इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है . उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो . पाकेटमारी, दफा १५१ , चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे , उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे, किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मुहल्लों में छोड़ देते थे . पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिए बहाना मिल जाता था .लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई ख़तरा नहीं था . ज़ाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की ..इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया . इस चरण में मुस्लिम मुहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो . उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था . इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी. और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता ..डर के मारे सभी नरेन्द्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं. अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है . कांग्रेस नाम की पार्टी के लोग पहले से ही निष्क्रिय हैं . वैसे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि विपक्ष का अभिनय करने के लिए उनकी ज़रूरत है .यह मानवाधिकार संगठन वाले आज के मोदी के लिए एक मामूली चुनौती हैं और अब उनको भी नक्सलवादी बताकर दुरुस्त कर दिया जाएगा. फिर मोदी को किसी से कोई ख़तरा नहीं रह जाएगा. हमारी राजनीति और लोकशाही के लिए यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं क्योंकि मोदी की मौजूदा पार्टी बी जे पी ने अपने बाकी मुख्यमंत्रियों को भी सलाह दी है कि नरेन्द्र मोदी की तरह ही राज काज चलाना उनके हित में होगा

Friday, June 4, 2010

बेगुनाह कश्मीरियों के हत्यारे फौजियों को सज़ा देना हुकूमत का फ़र्ज़ है

शेष नारायण सिंह


पिछले महीने संपन्न हुए प्रधान मंत्री के राष्ट्रीय पत्रकार सम्मलेन में जो सवाल पूछे गए उनमें से ज़्यादातर बहुत आसान सवाल थे . उसके लिए उनकी आलोचना भी हुई थी लेकिन कुछ कठिन सवाल भी पूछे गए थे .यह अलग बात है कि उन्होंने जो कुछ भी जवाब दे दिया , वह हर्फे-आखिर हो गया क्योंकि किसी को भी दूसरा सवाल पूछने की अनुमति नहीं थी. प्रधानमंत्री बार बार यह कहते रहते हैं कि कि मानवाधिकारों का हनन करने वालों के लिए उनकी सरकार में कोई नरमी नहीं है , उनसे सख्ती से पेश आया जाएगा लेकिन जब सन २००० में पथरीबल में मारे गए निर्दोष नौजवानों के बारे में पूछा गया तो उनके पास कोई जवाब नहीं था . हो सकता है कि वे इस सवाल की उम्मीद न कर रहे हों लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि बाद में वे क्या कार्रवाई करते हैं . उनसे पूछा गया था कि सन २०० में पथरीबल में मारे गए पांच निर्दोष नौजवानों को मारने वाले जिन फौजियों के ऊपर सी बी आई ने चार्जशीट दाखिल किया है उनके खिलाफ मुक़दमा चलाये जाने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है . आगे की कार्रवाई के बारे में सिविल सोसाइटी को इंतज़ार रहेगा.
हुआ यह था कि २० मार्च ,२००० के दिन अनंतनाग जिले के छतीसिंहपुरा में लश्कर-ए-तय्यबा के कुछ आतंकियों ने गाँव के सभी सिख मर्दों को इकठ्ठा किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया . . उस वक़्त लाल कृष्ण आडवानी देश के गृह मंत्री थे . इस क़त्ले-आम के पांच दिन बाद उन्होंने देश को बताया कि हत्यारों का पता लगा लिया गया है . वे विदेशी आतंकवादी थे . उन्होंने दावा किया कि ५ विदेशी आतंकवादियों को मार गिराया गया है . . राष्ट्रीय राइफल्स और राज्य पुलिस की ओर से एक एफ आई आर लिखाया गया जिसमें सूचना दी गयी कि पथरीबल के पास एक मुठभेड़ हुई जिसमें आतंकवादियों को घेर लिया गया और उन्हें मार डाला गया. . वहां मिले शव इतने जल गए थे कि उनको पहचानना मुश्किल था और उन्हें दफन कर दिया गया . लेकिन बाद में पता चला कि लाल कृष्ण आडवानी ने देश को गुमराह करने की कोशिश की थी. पता यह भी चला कि जो पांच लोग मारे गए तह वे विदेशी नहीं थे और आतंकवादी नहीं थे. वे निर्दोष थे. उन पाँचों को अनंतनाग के आस पास से २४ मार्च को उठाया गया था . उनके नाम थे, ज़हूर दलाल ,बशीर अहमद भट, मुहम्मद मलिक , जुमा खान . एक और नौजवान भी था जिसका नाम भी शायद जुमा खान ही था. . जब २५ मार्च को पास के जंगलों में पांच लोगों के मारे जाने की खबर प्रचारित हुई तो गाँव वालों को शक़ हुआ कि कहीं यह पाँचों उनके अपने ही लोग तो नहीं हैं . भारी हल्ले गुल्ले के बाद उन पाँचों तथाकथित विदेशी आतंकवादियों के शवों को ज़मीन से बाहर निकाला गया . परिवार वालों के खून के नमूने लिए गए और डी एन ए जांच के लिए भेज दिया गया लेकिन यहाँ भी डाक्टरों की मदद से सेना और पुलिस ने हेराफेरी की और खून के नमूने बदल दिए . ज़ाहिर है कि जांच में यह आ गया कि मारे और दफन किये गए लोग गाँव वालों के रिश्तेदार नहीं थे . लेकिन मार्च २००२ में पता चला कि हेराफेरी हुई थी . फिर खून के नमूने लिए गए और पक्के तौर पर साबित हो गया कि जिन लोगों को सेना और पुलिस ने मारा था वे विदेशी नहीं थे . वे वास्तव में वही लड़के थे जिन्हें सुरक्षा बालों ने २४ मार्च २००० के दिन अनंत नाग के आस पास के गावों से उठाया था .

पूरे देश में सिविल सोसाइटी के लोगों ने मांग की कि मामले की निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए .राज्य सरकार ने मामले की सी बी आई जांच का आदेश दे दिया . जिसने पांच साल की गहरी जांच के बाद पता लगाया कि जो लोग मरे थे वे वास्तव में विदेशी नहीं थे , वे यही पांच नौजवान थे जिन्हें गावों से उठाया गया था ..सी बी आई ने श्रीनगर के चीफ जुडिसियल मजिस्ट्रेट की अदालत में जुलाई २००६ में चार्ज शीट दाखिल कर दिया जिसमें ब्रिगेडियर अजय सक्सेना, ले. कर्नल ब्रिजेन्द्र प्रताप सिंह , मेजर सौरभ शर्मा ,मेजर अमित सक्सेना और सूबेदार आई खान के खिलाफ रणबीर पेनल कोड की दफा ३०२ के तहत मुक़दमा चलाया जाना है . अभी तक मुक़दमे की सुनवाई शुरू नहीं हुई है . . मामला अदालती दांव पेंच के घेरे में फंस गया है .और अभी तक कुछ नहीं हुआ . प्रधान मंत्री अगर मानवाधिकारों के हनन वालों के खिलाफ गंभीर हैं और उनके खिलाफ किसी तरह की नरमी को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं तो उन्हें इस समाले में सी बी आई की मदद करनी चाहिए और उन फौजियों को सख्त से सख्त सज़ा दिलवानी चाहिए जिन्होंने गरीब और निर्दोष कश्मीरियों को पकड़ कर बेरहमी से मार डाला था

मीडिया को रिटायर्ड फौजी अफसरों को महिमा मंडित नहीं करना चाहिए

शेष नारायण सिंह

जब से टेलिविज़न पर चौबीसों घंटे ख़बरों का सिलसिला शुरू हुआ है , एक अजीब प्रवृत्ति नज़र आने लगी है . शुरू तो यह एक बहुत ही मामूली तरीके से हुई थी लेकिन अब प्रवृत्ति यह खतरनाक मुकाम तक पंहुंच चुकी है. देखा गया है कि हर मसले पर पूर्व और वर्तमान फौजी अफसर अपनी राय देने लगे हैं और टेलिविज़न चैनलों पर उसे प्रमुखता से दिखाया जाने लगा है . समाचार संकलन अपने आप में एक गंभीर काम है , ज़रा सी चूक से क्या से क्या हो सकता है .टेलिविज़न के समाचार तो और भी गंभीर माने जाने चाहिए क्योंकि देखी गयी खबर का असर सुनी या पढी गयी खबर से ज्यादा होता है . इसलिए टेलिविज़न की ज़िम्मेदारी है कि वह मामले को हल्का फुल्का करके पेश करने की लालच में न पड़े. लेकिन ऐसा धड़ल्ले से हो रहा है . यह लोकतंत्र और समाज के लिए ठीक नहीं है . आजकल कारगिल के युद्ध के बारे में तरह तरह की खबरें दिखाई जा रही हैं . किसी ब्रिगेडियर के साथ हुए अन्याय को केंद्र में रख कर कई टी वी चैनलों पर सेना और इतिहास से जुड़े तरह तरह के विषयों पर चर्चा की जा रही है . यह ठीक नहीं है . लोकतंत्र में बहस का महत्व है या यह कह सकते हैं कि बिना बहस के लोकतंत्र में जान ही नहीं आती लेकिन यह बहस उन मुद्दों के बारे में होनी चाहिए जो सरकारी नीति के बनाने में सहयोग कर सकें या उन पर निगरानी करने में काम आ सकें . राज काज और राजनीतिक विषयों पर बहस बहुत ज़रूरी है और उसे उत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा के नीतियों और योजनाओं को पब्लिक डोमेन में लाना राष्ट्रीय सुरक्षा से खेलना है और इसे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
खबर आई है कि कारगिल युद्ध में हेरा फेरी के आरोपी एक जनरल ने कहा है कि उस लड़ाई में भारत की जीत ही नहीं हुई थी. इस जनरल का आचरण संदेह के घेरे में आ चुका है और उसके बारे में अदालती हस्तक्षेप के बाद यह पता लग चुका है कि यह भाई हेरा फेरी का उस्ताद है . उसके दृष्टिकोण को पब्लिक डोमेन में लाने का कोई मतलब नहीं है . जहां तक कारगिल की लड़ाई की बात है , वह हमारी विदेश नीति की नाकामी का एक बड़ा उदाहरण है . भला बताइये , हमारा प्रधानमंत्री पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए सकारात्मक पहल कर रहा है और बस से लाहौर की यात्रा पर गया हुआ है और पाकिस्तानी फौज हमारे महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर रही है . और हमारी खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं है . ज़ाहिर है कि उस वक़्त के कूटनीति के प्रबंधकों को दण्डित किया जाना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी पुराना फौजी मुंह उठाकर चला आये और कह दे कि जिस लड़ाई में हमारे इतने नौजवान शहीद हुए हों , वह बेकार की लड़ाई थी ., उसमें हमारी जीत ही नहीं हुई थी. यह बहुत ही गैरज़िम्मेदार बयान है और अगर कोई ऐसा आदमी कह रहा हो, जो उस लड़ाई के संचालन में बहुत ही महत्वपूर्ण पद पर रहा हो , तो और भी गंभीर बात है . हालांकि कि फौजियों को इतने गंभीर मामलों के राजनीतिक और कूटनीतिक पक्ष में शामिल नहीं किया जाना चाहिए लेकिन अब बात बहस में घसीट ली गयी है तो बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है . जहां तक कारगिल में हार जीत की बात है , निश्चित रूप से भारत ने वहां सैनिक सफलता पायी है . यह भी सही है कि उस लड़ाई में अपने बहुत से बहादुर अफसर और जवान शहीद भी हुए . लेकिन अगर उस वक़्त हमारी सेना सफल न हुई होती तो कारगिल और आसपास के इलाकों में सामरिक रूप से जिन ऊंचाइयों पर पाकिस्तानी सेना ने अपने अड्डे बना लिये थे , वह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है . वहां से पाकिस्तान को बेदखल कर के सैनिक सुरक्षा की अपनी व्यवस्था को दुरुस्त करना अगर जीत नहीं है तो फिर क्या है . इस गैर ज़िम्मेदार,हेराफेरी मास्टर और कुंठित पूर्व जनरल के प्रलाप को पूरे देश में प्रचारित करके जिस न्यूज़ चैनल ने राष्ट्रीय सुरक्षा को सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश की है , उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था. सवाल पैदा होता है कि वह फौजी जिसकी बे-ईमानी की कथा अब जगज़ाहिर है , उसके अध् कचरे ख्यालात को राष्ट्रहित के खिलाफ इतनी अहमियत क्यों दी जा रही है . जिस चैनल पर यह श्रीमान जी अपने आप को महिमामंडित कर रहे थे उसकी एक बहुत ही वरिष्ठ कार्यकर्ता पर पिछले दिनों पावर ब्रोकर होने के आरोप भी लग चुके हैं . कारगिल युद्ध के दौरान भी इस चैनल की एक रिपोर्टर पर आरोप लग चुका है कि उसकी एक खबर की वजह से हमारे कुछ सैनिक शहीद हुए थे . हालांकि इन खबरों में सच्चाई नहीं है लेकिन उस युद्ध के दौरान जो बंदा इंचार्ज था, उसको बहुत हाईलाईट करके कहीं एहसान का बदला तो नहीं चुकाया जा रहा है .

जहां तक कारगिल की लड़ाई को बेकार साबित करने की कोशिश है , वह भी बिलकुल बेकार की बात है .. उस लड़ाई में भारतीय फौज विजयी रही थी क्योंकि उसने महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों को पाकिस्तानी फौज से वापस लेकर वहां तिरंगा लहरा दिया था .. लेकिन असली जीत तो अंतरराष्ट्रीय मैदान में हुई थी. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अमरीका जाकर उसके राष्ट्रपति से मदद की गुहार की थी लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया था और चेतावनी दी थी कि अगर पाकिस्तानी फौजें फ़ौरन न हटीं तो मुश्किल हो जायेगी. परंपरागत रूप से आँख मूँद कर पाकिस्तान की मदद करने वाले अमरीका की नज़र में पाकिस्तान का यह पतन भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत थी . लेकिन इन बातों से फौजी जनरलों को कोई मतलब नहीं होना चाहिए और समाचार माध्यमों को भी सावधान रहना चाहिए कि कहीं उनकी अधकचरी समझ की वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा न पैदा हो जाय

पाकिस्तान को ख़त्म कर सकता है आतंकवाद

शेष नारायण सिंह


पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय लोगों की दो मस्जिदों में शुक्रवार की नमाज़ के वक़्त जो हमला हुआ वह पाकिस्तानी समाज में व्याप्त असहिष्णुता को एक बार भी फिर रेखांकित कर देता है .. अहमदिया समुदाय के लोग अपने आप को मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उन्हें मुसलमान नहीं मानती. वे वहां के सरकारी रिकॉर्ड में गैर-मुस्लिम जमात के रूप में दर्ज हैं . शायद इसीलिए जब शुक्रवार के दिन मस्जिद में हुए हमलों में मारे गए अहमदिया समुदाय के लोगों का अंतिम संस्कार किया गया तो कोई भी सरकारी नेता या अधिकारी वहां नहीं गया . राजनीतिक पार्टियों ने तो दो मस्जिदों में हुए इस नरसंहार के खिलाफ बयान दे दिए लेकिन कोई नेता सार्वजनिक रूप से सहानुभूति व्यक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा सका.दरअसल पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के लोगों के खिलाफ बहुत असहिष्णुता है . पाकिस्तानी हुकूमत का दावा है कि अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों की आबादी उनके देश में चौथाई प्रतिशत से भी कम है . पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही जब जमाते-इस्लामी के नेता , मौलाना मौदूदी ने नए देश को इस्लामी राज्य के रूप में स्थापित करने की मुहिम शुरू की , तो लोगों को लगने लगा था कि पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान तो कभी नहीं बन पायेगा. इसका कारण यह था कि पाकिस्तान की बुनियादी मांग ही धार्मिक आधार पर की गयी थी. जिन्ना ने अंग्रेजों से पाकिस्तान हासिल ही इसलिए किया था कि उन्हें शक़ था कि आज़ादी के बाद जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो हिन्दू बहुमत की सरकारें मुसलमानों को परेशान करेंगीं . जिन्ना की यह सोच गलत थी क्योंकि आज भी मुसलमान भारत में गर्व से रहते हैं और मुस्लिम विरोधी आर एस एस के खिलाफ लगभग पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष हिन्दू लामबंद हैं.. जिन्ना की वफादारी और भारत के टुकड़े करने की अपनी नीति के तहत अंग्रेजों ने मुल्क का बँटवारा कर दिया . शायद इसीलिए जमाते इस्लामी की अगुवाई में मुल्लाओं ने इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए कोशिश शुरू कर दी लेकिन जिन्ना के दिमाग में कुछ और था . वे धार्मिक मामलों को राजकाज का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे. इसीलिए पाकिस्तान के बँटवारे के बाद उन्होंने जो सबसे चर्चित भाषण दिया था उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि नया मुल्क एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा. उनका वह भाषण बार बार उद्धृत किया जाता है . उस पर गौर करने की ज़रुरत है क्योंकि उसकी रोशनी में ही समझ में आयेगा कि पाकिस्तान के संस्थापक के असली सपने कितने नीचे दफन कर दिए गए हैं .
जिन्ना ने अपने उस विख्यात भाषण में कहा था कि ' मेरी समझ से भारत के विकास में धार्मिक मतभेद की समस्या सबसे बड़ी बाधा रही है . इसलिए हमें इस से एक सबक सीखना चाहिए . इस नए पाकिस्तान में आप मंदिर में जाने के लिए स्वतंत्र हैं .आप अपनी मस्जिदों में जा सकते हैं या किसी और पूजा स्थल पर जा सकते हैं . आप किसी भी धर्म, जाति या मत से ताल्लुक रख सकते हैं , उस से राज्य का कोई लेना देना नहीं है .' जिन्ना का यह भाषण साफ़ कर देता है कि पाकिस्तान हथियाने के लिए उन्होंने चाहे जो कुछ भी किया हो लेकिन नए देश को वे भी धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर चलाना चाहते थे . लेकिन उनकी बात को सुनने वाला कोई नहीं था . उनके मरने के कुछ बाद ही उनके चहेते और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली को मार डाला गया , पंजाबी साम्राज्यवाद की शुरुआत हो गयी शुरू में तो जिन्ना की सोच को इज्ज़त देने का ड्रामा होता रहा लेकिन बाद में अपने आप को बहुत सेकुलर और आधुनिक कहलाने के शौकीन , ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने सत्ता पर काबिज़ होने के बाद सरकारी स्तर पर मुल्लाओं की बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया . ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने ही अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों को गैर-मुस्लिम घोषित किया था . बाद में उनके हत्यारे और पाकिस्तान के फौजी तानाशाह ,जिया उल हक ने उसे बहुत ही मज़बूत कर दिया .

बहरहाल यह पक्का है कि मुहम्मद अली जिन्ना वाला पाकिस्तान आज कहीं दूर दूर तक नहीं है . यह हाल शुरू से ही है . पाकिस्तान में सत्तर के दशक में लोग कहते पाए जाते थे कि यहाँ सिन्धी हैं , पंजाबी हैं , पख्तून हैं और बलूच हैं लेकिन पाकिस्तानी कोई नहीं . आज हालात उस से भी बदतर हैं . जिस तरह से पूरे पाकिस्तान में खून खराबा हो रहा है, उसे देखकर कई बार शक़ होने लगता है आज के पाकिस्तान में इंसान की इज्ज़त करने वाली जमातें भी कहीं छुप गयी हैं . मुहम्मद अली जिन्ना मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पैरोकार थे ..१९१९ के पहले की कांग्रेस में उनकी हैसियत एक बड़े नेता की थी लेकिन अपने चिडचिडे और दूसरों की राय की इज्ज़त न करने के स्वभाव कारण उन्हें कांग्रेस से अलग होना पड़ा . बाद में लियाक़त अली के साथ मिलकर वे मुल्क के बँटवारे के अभियान के नेता बने. लेकिन आज़ादी के बाद वे पाकिस्तान में वैज्ञानिक सोच के आधार पर हुकूमत के पक्षधर थे. जो हो न सका .उनका सपना पूरा नहीं हुआ .. पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के सपने अब कहीं नहीं हैं. पूर्व तानाशाह जिया उल हक ने जिस तरह से हर पाकिस्तानी के दिमाग में भारत से दुश्मनी का ज़हर भर दिया था , वह अब रंग दिखाने लगा है . भारत को तबाह करने के लिए जिया ने आतंकवाद को अपनी सरकार की प्राथमिकता में शामिल किया था और आई एस आई का इस्तेमाल करके आतंकवाद का एक बड़ा तामझाम तैयार किया था . भारत ने तो अपने आप को सुरक्षित कर लिया लेकिन वही आतंकवाद आज पाकिस्तान की तबाही का कारण बनता नज़र आ रहा है. और लगता है कि जिया से शुरू होकर बेनजीर ,नवाज़ शरीफ और मुशर्रफ के शासन काल में जिस आतंकवाद को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश की गयी थी ,वह पाकिस्तान को तबाह करके ही दम लेगा.

अगर आतंक में पकडे गए तो आर एस एस अपने लोगों से पल्ला झाड़ लेगा

शेष नारायण सिंह

देश में हुई आतंकवादी गतिविधियों में आर एस एस के शामिल होने की पोल खुलने के बाद नागपुर के मठाधीश बहुत परेशान हैं . एक बहुत ही आदरणीय पत्रकार से बात चीत में संगठन के एक ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह ठीक नहीं है क्योंकि अगर आर एस एस के कार्यक्रताओं के नाम आतंकवादी काम में जुड़ गए तो उनकी उस रणनीति की हवा निकल जायेगी जिसके तहत वे कहते पाए जाते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं .. उनकी कोशिश रहती थी कि मुसलमानों को आतंकवाद के साचे में मुकम्मल तरीके से फिक्स रखा जाए . लेकिन महाराष्ट्र के मालेगांव, राजस्थान के अजमेर और आन्ध्र प्रदेश के मक्का मस्जिद धमाकों में आर एस एस के लोगों के पकडे जाने और उनके शामिल होने की बात के साबित हो जाने के बाद यह तो पता चल ही गया है कि सभी आतंकवादी मुसलमान नहीं होते, बल्कि यह भी कि आर एस एस ही इस देश में होने वाले आतंकवाद का एक प्रमुख नियंता है और आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता .. अब आर एस एस की ताज़ा लाइन अलग है. अब तक तो यह था कि अपने लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पकडे जाने के बाद भी मदद की जायेगी . इस सोच के तहत ही जब उनकी मध्य प्रदेश की नेता, प्रज्ञा सिंह ठाकुर आतंकवादी होने के आरोप में पकड़ी गयी थीं तो उस वक़्त के आर एस एस की राजनीतिक शाखा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह और प्रधान मंत्री पद के प्रतीक्षक, लाल कृष्ण आडवानी ने उनके समर्थन में बयान दिया था लेकिन अब बात बिगड़ रही है. प्रज्ञा ठाकुर वाले मामले में बचत की एक गुंजाइश थी . वे आर एस एस के उन संगठनों के साथ थीं जो चोरी छुपे उनका काम करते हैं और पकडे जाने पर नागपुर उनसे पल्ला झाड लेता है . लेकिन अब बात बदल गयी है . अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जो धमाका हुआ था , उसका सरगना पकड़ लिया गया है और वह आर एस एस का आधिकारिक रूप से तैनात किया गया प्रचारक था. प्रचारक ,आर एस एस का सबसे महत्वपूर्ण पद्दाधिकारी होता है . सही बात यह है कि वही सारे खेल में केंदीय भूमिका अदा करता है . संगठन के सभी बड़े नेता मूल रूप से स्वयंसेवक होते हैं लेकिन जो प्रचारक होकर बी जे पी में आते हैं ,उनकी ताक़त औरों से ज्यादा होती है . गुजरात के नरेंद्र मोदी भी आर एस एस के प्रचारक रह चुके हैं . ज़ाहिर है प्रचारकों के पकडे जाने के बाद आर एस एस वालों को लगने लगा है कि अगर सारी पोल पट्टी खुल गयी तो उनका एक बार फिर वही हाल होगा जो गाँधी जी की हत्या में पकडे जाने के बाद हुआ था. उस मामले में तो उनके मुखिया ,गोलवलकर तक पकड़ लिए गए थे . बाद में छूट गए लेकिन उनके अपने बन्दे सावरकर , नाथूराम गोडसे वगैरह के ऊपर आरोप साबित हो गए थे. और उन लोगों को माकूल सज़ा भी हुई. गांधी हत्या में पकडे जाने की वजह से इस संगठन पर बहुत दिनों तक किसी को भरोसा नहीं हुआ था. वह तो १९७७ में जयप्रकाश नारायण ने इनको मुख्य धारा में लाने में मदद की. शायद इसीलिए अब आर एस एस के नेता लोग खुले आम बदमाशी करने या अपने लोगों को आतंकवादी कहलवाने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते . जिस गुमनाम आर एस एस वाले ने एक प्रतिष्ठित अखबार की संवाददाता से बात की उसने साफ़ कहा कि गाँधी जी की ह्त्या वाले मामले के बाद उनका संगठन बहुत पिछड़ गया था .
इस नयी सोच के तहत अजमेर के आतंकवादी धामाके में पकड़ा गया नरेंद्र गुप्ता अपनी जान बचाने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है . हालांकि आर एस एस के लिए यह साबित कर पाना मुश्किल है कि नरेंद्र गुप्ता का उनसे कोई लेना देना नहीं है. क्योंकि आर एस एस ने ही उसे प्रचारक के रूप में झारखण्ड में कई वर्षों तक तैनात रखा था . उसका जो सिम कार्ड बरामद हुआ है उस से उसके सम्बन्ध अजमेर धमाके के दौरान भी आर एस एस के टाप नेताओं से बने रहने की बात साबित हो गयी है . यह भी साबित हो गया है कि अपने अन्य साथियों से भी वह उसी सिम कार्ड से संपर्क में था . उसकी मक्का मस्जिद विस्फोट में हिस्सेदारी की पुष्टि हो गयी है और आर एस एस के बाकी आतंकवादी भी उसकी निशान देही पर पकडे जा रहे हैं . इस तरह से आतंकवादी हरकतों में आर एस एस के शामिल होने के पुख्ता सबूत मिल जाने के बाद उसके आला नेता परेशानी में हैं और अब उनकी नीति यह है कि जब तक पकड़ा न जाए तब तक तो आर एस एस अपने आतंकवादियों की मदद करेगा लेकिन पकडे जाने के बाद उसको कुर्बान कर देगा. आर एस एस के इस गुमनाम बड़े नेता ने सम्मानित पत्रकार को बताया कि अगर एक दिन के लिए भी आर एस एस का आतंकवादी गतिविधियों में डाइरेक्ट शामिल होता हुआ पकड़ा गया तो बहुत बुरा होगा . यानी आगे से आर एस एस का जो भी स्वयंसेवक आतंक का काम करते पकड़ा जाएगा उसका वही हश्र होगा जो अजमेर के केस में पकडे गए नरेंद्र गुप्ता का हो रहा है . यानी अब नागपुर वाले अपने उन आतंकवादियों को नहीं बचायेंगें जो पुलिस की पकड़ में आ जायेंगें

Thursday, June 3, 2010

मध्यावधि चुनाव ही झारखण्ड में थोड़ी राहत दे सकेगा

शेष नारायण सिंह

झारखण्ड में एक बार फिर राष्ट्रपति राज लगा दिया गया है . राज्य के राजनीतिक हालात ऐसे हो गए थे कि राष्ट्रपति शासन लगाना ही एक रास्ता बचा था.हालांकि अगर केंद्र सरकार चाहती तो राजनीतिक क्षितिज पर बहुत सारे ऐसे खिलाड़ी हैं जो तोड़फोड़ की राजनीति की कला के उस्ताद हैं और अगर उनको खुली छूट दे दी जाती तो सरकार तो बन ही जाती . आखिर बिना किसी राजनीतिक समर्थन के इन्हीं मौकापरस्त नेताओं ने तो मधु कोड़ा की सरकार बनवा दी थी . राज्यपाल ने पूरी कोशिश की कि कोई सरकार बन जाए. उन्होंने कांग्रेस , बी जे पी और दीगर पार्टियों से पूछा लेकिन बात बनी नहीं. बी जे पी तो अपने किसी नेता को मुख्य मंत्री बनाना चाहती है , जो किसी को मंज़ूर नहीं . कांग्रेस के दिल्ली में बैठे नेता सच्चाई से बिलकुल अनभिज्ञ हैं . उनको लगता है कि झारखण्ड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी को आगे करके कोई खेल बनाया जा सकता है लेकिन वह भी होता नहीं दिखता. हालात ऐसे हैं कि जब तक बी जे पी या शिबू सोरेन की पार्टी को साथ न लिया जाए , कोई सरकार बनती नज़र नहीं आती. कांग्रेस वाले शिबू सोरेन को साथ लेने के लिए तो तैयार हैं लेकिन उन्हें मुख्य मंत्री बनवाकर अपना भी हाल बी जे पी जैसा नहीं करना चाहते .अभी विधान सभा को भंग नहीं किया गया है . यानी उम्मीद की जा रही है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में तोड़ फोड़ होगी और एक बार फिर कोई सरकार बना दी जायेगी. इस बात की संभावना इस लिए भी बहुत ज्यादा है कि झारखण्ड के मौजूदा राजनीतिक ड्रामे में कोई भी विधायक चुनाव नहीं चाहता . चुनाव तो बी जे पी और कांग्रेस भी नहीं चाहते . इसलिए पार्टी की लाइन से ऊपर हटकर विधायक लोग खुद ही सरकार बनाने की संभावना तलाश सकते हैं . इस लिहाज़ से जो छोटे दल हैं वे तो किसी भी सरकार के लिए उपलब्ध हैं . बड़े दलों में लगभग सभी में बड़े पैमाने पर दल बदल हो सकता है . इसलिए सरकार की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता . राज्य में महत्वाकांक्षी लोगों की भी कमी नहीं है . शिबू सोरेन तो तो दुनिय जानती है . वे सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं . उनका बेटा भी उनसे कम नहीं है . बी जे पी से झगड़े के दौरान तो हालात यहाँ तक पैदा हो गए थे कि वह अपने पिता जी को ही धता बताकर सत्ता में आने के चक्कर में था . इसलिए अभी तोड़ फोड़ की संभावना पूरी है कि झारखण्ड में एक सरकार और बनेगी ता जाकर कहीं विधान सभा भंग होगी. .

तोड़ फोड़ की भावी सरकार में सबसे ज्यादा तोड़फोड़ की संभावना बी जे पी में ही है . जानकार बताते हैं कि स्थानीय बी जे पी विधायकों को लगता है कि अगर सरकार बनने की नौबत आई तो दिल्ली से कोई बी जे पी नेता वहां मुख्य मंत्री बनाकर भेज दिया जाएगा . इसलिए वे किसी को भी मुख्य मंत्री मानने को तैयार हैं , वह चाहे हेमंत सोरेन हो या शिबू सोरेन . ऐसी हालात में जो भी बी जे पी में फूट की व्यवस्था कर लेगा उसकी सरकार बन जायेगी. एक दूसरी संभावना यह है कि बी जे पी को तोड़ कर कांग्रेस सरकार बनाए . लेकिन कांग्रेस में आजकल दूर की सोचने का फैशन है . शायद इसी लिए कांग्रेस आलाकमान वाले चाहते है कि बाबू लाल मरांडी को साथ लेकर चला जाए जो आगे चलकर राज्य में पार्टी को मज़बूत करेगें . यह उम्मीद भी बेतुका है क्योंकि पिछले चुनाव तो बाबू लाल मरांडी कांग्रेस के साथ लड़ चुके हैं लेकिन अब वे राजनीतिक रूप से इतने मज़बूत हो चुके हैं कि उन्हें लगने लगा है कि वे अपने बल पर सरकार बनने लायक बहुमत जीत सकते हैं . इसलिए वे जल्दी चुनाव के लिए कोशिश कर रहे हैं . इसी मई में उन्होंने रांची में अपनी पार्टी का दो दिन का कार्यकर्ता सम्मलेन करके राजनीतिक विश्लेषकों को बता दिया है कि वे राज्य के विकास के लिए पूरी ईमानदारी से कोशिश कर रहे हैं और राज्य के हर गाँव में उनका संगठन बन चुका है . उन्होंने बताया कि दिल्ली और नागपुर से कंट्रोल होने वाली पार्टियों को मालूम ही नहीं है कि राज्य की समस्याएं क्या हैं और उनका हल कैसे निकाला जाए . इन तथाकथित बड़ी पार्टियों की नीतियों की वजह से ही ग्रामीण इलाकों का आदमी ठगा ठगा महसूस करता है . और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बाहर जाकर अपने कल्याण की बात सोचता है . शायद माओवादी आतंकवाद के फलने फूलने के पीछे भी बड़ी पार्टियों की यही अदूरदर्शिता सबसे बड़ा कारण है . बाबू लाल मरांडी को चुनाव से निश्चित फायदा होगा , और वे जो भी राजनीति कर रहे हैं , वह राज्य को चुनाव की तरफ ही बढ़ा रही है लेकन लगता हैकि अभी उसमें थोड़ी देर है क्योंकि विधान सभा अभी निलंबित ही की गयी है , भंग नहीं . इसलिए अभी तोड़फोड़ की मदद से एक सरकार और बनेगी और् शायद अगले साल कभी चुनाव होगा . तब तक राज्य के भ्रष्टाचार पीड़ित लोगों राहत मिलने की उम्मीद नहीं है . अगला चुनाव ही झारखण्ड के लोगों को कोई राहत दे सकेगा

Sunday, May 30, 2010

माओवादी आतंक को राजनीतिक जवाब देना होगा

शेष नारायण सिंह

पश्चिम बंगाल में एक और ट्रेन हाद्से का शिकार हो गयी . पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री समेत शासक वर्गों के सभी प्रतिनिधियों ने कहा कि माओवादियों ने किया . ऐसा करने से इन सत्ताधीशों को बड़ी राहत मिल गयी . अब जब भी इस हादसे की जांच का स्वांग रचाया जाएगा तो जांच एजेंसी वालों को मालूम रहेगा कि सत्ताधीशों की क्या मर्जी है .आम तौर पर होता यह है कि जब भी कोई आतंकवादी संगठन इस तरह के धमाके करता है तो वह उसकी ज़िम्मेदारी लेता है . वह यह काम करता ही प्रचार के लिए है . लेकिन जब कोई आतंकवादी संगठन ज़िम्मेदारी नहीं ले रहा है तो बात गंभीर हो जाती है . इसमें देश के दुश्मनों का हाथ हो सकता है .सवाल पैदा होता है कि यह हमारे नेता लोग बिना किसी तरह की जांच पड़ताल कराये कैसे जान लेते हैं कि किसने किया विस्फोट , किसने की तबाही ? यह निहायत ही गैर जिम्मेदाराना रवैया है और इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए. कोलकता से दिल्ली तक बैठे इन नेताओं को किसने बता दिया कि ट्रेन पर हमला माओवादियों ने किया था. यहाँ माओवादियों को दोषमुक्त करने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है लेकिन सत्ता पर काबिज़ लोग जिनके पास सारी ताक़त है उन्हें बिना किसी बुनियाद के किसी को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए क्योंकि इस में सबसे बड़ा ख़तरा है कि अपराधी बच जाते हैं और जांच गलत दिशा में चल पड़ती है . खडग पुर के पास हुए ट्रेन हादसे में मारे गए लोगों को जिसने भी मारा है , वह अपराधी है . ट्रेन में सभी सीधे सादे लोग थे. उसको उड़ा देने की कोशिश करने वाले अपराधी को पकड़ कर कानून के अनुसार सख्त से सख्त सज़ा दी जानी चाहिये . उसकी सजा वही होनी चाहिए जो ७८ लोगों का क़त्ल करने वाले की हो . लेकिन बिना यह पता लगाए कि हत्या किसने की है , यह नहीं किया जाना चाहिए .हाँ , इस तरह के हादसों के लिए जो सरकारें ज़िम्मेदार हैं उनको भी सख्त से सख्त सज़ा देने के बारे में बहस शुरू हो जानी चाहिए . उसमें नक्सलवाद को बढ़ावा देने वालों को सज़ा देने के अलावा ठीक से सरकार न चला पाने वालों को भी दण्डित किये जाने का प्रावधान होना चाहिए .

नक्सलवाद और उस से जुड़े मुद्दों की एक बार फिर पड़ताल की ज़रुरत है . कुछ बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आजकल यह कहता पाया जाता है कि देश के आदिवासी इलाकों में जो शोषित पीड़ित गरीब जनता रहती है उसने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाया है और वे नक्सलियों से मिलकर सत्ता के केन्द्रों को कमज़ोर कर रहे हैं . वे बहुत गरीब हैं और अब उन्होंने हथियार उठा लिये है . यह तर्क बिलकुल बोगस है और साधारणीकरण के भयानक दोष से ग्रस्त है . इसका मतलब यह हुआ कि जो भी गरीब होगा हथियार उठा लेगा . इस लिए इस तर्क को आगे बढाने की ज़रुरत नहीं है . आदिवासी इलाकों के शोषण और खनिज सम्पदा के बेजा दोहन के लिए सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , पूंजीवादी मानसिकता के सत्ताधीशों की इलीट सोच को दोषी ठहराया जाना चाहिए और जागरूक लोगों को बड़े पैमाने पर आन्दोलन शुरू करने की कोशिश करनी चाहिए . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि माओवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों के गरीब , बेरोजगार नौजवानों को फंसाने वाले तथाकथित माओवादियों को भी एक्सपोज़ करने की ज़रुरत है .. वामपंथी राजनीति की वैज्ञानिक सोच से विचलित हुए ये संशोधनवादी अपने निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए इन गरीब आदिवासियों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . आज ही कुछ अखबारों के संवाददाताओं ने आदिवासी इलाकों में सक्रिय माओवादी हथियारबंद नौजवानों से बातचीत करके खबर दी है कि उन लड़कों को यह माओवादी नेता लोगों को मार डालने केलिए भेजते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि क्यों मार डालना है . यानी यह तथाकथित माओवादी नेता इन नौजवानों का इस्तेमाल शार्प शूटर की तरह कर रहे हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक किलेबंदी के लिए वे इन लोगों को इस्तेमाल कर रहे हैं .इतने शातिर दिमाग दिग्भ्रमित कम्युनिस्टों की चाल को बेनकाब करने के लिए अपनाई जाने वाली रण नीति में गोली बन्दूक को प्रातामिकता देना ठीक नहीं है . क्योंकि अगर चिदंबरम साहेब वाला कार्यक्रम चल पड़ा कि हवाई हमले करके इन माओवादियों को मारो , तो मारे यही गरीब आदिवासी जायेंगें जिनका पिछले कई वर्षों से बूढ़े माओवादी नेता इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन दिल्ली और कोलकता की सरकारें भी इन माओवादी नेताओं से कम ज़िम्मेदार नहीं है .पूंजीवादी पार्टियां और कम्युनिस्ट विचारधारा की सभी पार्टियां, माओवादी आतंक में बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेदार हैं इसलिए इन सब के खिलाफ जनता और जागरूक पब्लिक ओपिनियन को लामबंद होना पड़ेगा और दिशा भ्रम के मरीज़ इन माओवादियों और गैर ज़िम्मेदार सरकारों को सच्चाई से रू ब रू करवाना पड़ेगा.

Saturday, May 29, 2010

कनाडा के गैरजिम्मेदार वीजा अफसर और भारत

शेष नारायण सिंह

कनाडा ने भारत की सुरक्षा एजेंसियों के अवकाशप्राप्त अफसरों को वीजा देने से मना कर के अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है . नयी दिल्ली स्थित कनाडा के हाई कमीशन के अफसर अब तक यह खेल बेख़ौफ़ चलाते रहे हैं लेकिन जब बी एस एफ के एक पूर्व कर्मचारी का मामला टाइम्स नाउ , नाम के अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल की नज़र में आया तब से मामला तूल पकड़ गया है .यह कोई नयी बात नहीं है . पश्चिमी यूरोप के पूंजीवादी देश ऐसा बहुत दिनों से कर रहे हैं लेकिन बात आई गयी हो जाती थी . इस बार बात फंस गयी है .. शायद इसका कारण यह हो कि अब सूचना क्रान्ति की वजह से किसी भी घटना को खबर बनते देर नहीं लगती. जो भी हो पश्चिमी देशों की भारत के प्रति हठधर्मी ने एक नया रूप ले लिया है .मामला अब कूटनीतिक दांव पेंच में फंस गया है . और भारत जैसे ताक़तवर देश के सामने कनाडा के अड़े रहने की संभावना बहुत कम है . कनाडा को अपनी भूल सुधारनी होगी और अपनी सोच में बदलाव करना होगा. जहां तक माफी माँगने की बात है , वह तो उसे करना ही पडेगा. .लेकिन कनाडा के हाई कमीशन में तैनात वीजा देने वाले अफसरों की इस दम्भी प्रवृत्ति के मनोविज्ञान को समझना भी ज़रूरी है .. यह समझने की ज़रुरत है कि उन्हें यह क्यों लगता है कि भारत के नागरिकों को वे भेड़ बकरियों की तरह ट्रीट कर सकते हैं . और भारत सरकार की आदरणीय संस्थाओं के खिलाफ उल जलूल टिप्पणी कर सकते हैं . पहले सवाल का जवाब तो आसान है . जिस तरह से अपने मुल्क के कुछ हिस्सों के लोग अमरीका, कनाडा और ब्रिटेन जाने के लिए उमड़ पड़ते हैं , उस से इन पश्चिमी राजनयिकों को लग सकता है कि भारत से विदेश जाने की लालसा रखने वाले दीन-हीन लोग हैं और कनाडा जा कर दो जून की रोटी का इंतज़ाम करने के चक्कर में हैं . हालांकि यह सच नहीं है लेकिन जिस तरह से कनाडा जाने के लिए लोग उमड़ते हैं और वीजा देने वाले अधिकारियों और उनके दलालों को रिश्वत तक देने की पेशकश करते हैं , उस से अंदाज़ लग जाता है कि हाई कमीशन में तैनात अफसर इनके बारे में घटिया राय क्यों बनाते हैं .. आजकल कनाडा जाने वाले ज़्यादातर लोगों के रिश्तेदार वहीं रहते हैं और उनकी बड़ी संख्या अब कनाडा की नागरिक भी हो गयी है .इस लिए यह मसला भारत के लोगों के लिए जितनी चिंता का विषय है उतनी ही चिंता कनाडा के नागरिकों को भी होनी चाहिए .वैसे भी किसी को वीजा देना, न देना सम्बंधित देश का अपना मामला है . वह जिसको चाहे वीजा दे और जिसको न चाहे न दे. एक संप्रभु राष्ट्र का अफसर अपने देश के हित में जो भी ठीक समझे, फैसला लेने को स्वतंत्र है , उस पर किसी तरह का सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए और भारत सरकार की ओर से उनके उस अधिकार और दायित्व को चुनौती नहीं दी जा सकती. लेकिन जब कनाडा सरकार का कोई अफसर अपने काम के सिलसिले में भारत सरकार के सुरक्षा संगठनों के बारे में गैर ज़िम्मेदार टिप्पणी करेगा तो भारत सरकार को उस पर एक्शन लेना चाहिए . बी एस एफ और इंटेलीजेंस ब्यूरो के के अवकाश प्राप्त कर्मचारियों की वीजा के दरखास्त पर विचार करते समय भारत सरकार के संगठनों के लिए अपशब्द प्रयोग करने की छूट किसी भी विदेशी सरकार के कर्मचारी को नहीं दी जा सकती

भारत सरकार को एतराज़ इस बात पर है कि कनाडा के हाई कमीशन के अफसरों ने वीजा माँगने वाले लोगों को इसलिए मना कर दिया कि वे भारत सरकार की सुरक्षा एजेंसियों में काम कर रहे थे . यह गलत है और इसके लिए भारत सरकार ने कनाडा को चेतावनी दी है और अगर ज़रूरी हुआ तो उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर टाईट भी किया जाएगा . यह सही रुख है क्योंकि कनाडा के वीजा देने वाले अफसरों का आचरण बहुत ही गैरजिम्मेदाराना था . . उनका दिमाग इतना खराब हो गया था कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जो एडवांस टीम कनाडा जा रही है उसके एक सदस्य को भी वीजा देने से मना कर दिया. . सवाल पैदा होता है कि जब दोनों देशों के बेच राजनयिक सम्बन्ध हैं और प्रधान मंत्रियों की आवाजाही का सिलसिला भी है तो प्रधान मंत्री की सुरक्षा का जिम्मा रखने वाले विभाग के अफसर को वीजा न देना तो निहायत ही अहमकाना काम है . ज़ाहिर है कि भारत में तैनात किये जाने वाले अफसरों को थोड़ी बहुर कूटनीतिक नफासत की ट्रेनिंग देकर कनाडा के हुक्मरान बहुत अच्छा काम करेंगें क्योंकि भारत अब कोई मामूली देश नहीं है . वह एक बड़ा देश है और अगर राजनीतिक स्तर पर फैसला हो गया तो बाकी दुनिया में भारत, कनाडा को नुकसान पंहुचा सकता है . कनाडा को यह ध्यान रखना चाहिए कि कभी भारत और कनाडा पर राज करने वाले ब्रिटेन की सरकार भी अब भारत के नेताओं से अदब से बात करती है तो कनाडा की वैसे भी हैसियत अमरीका के चम्पू की ही है . जहां तक भारत का सवाल है वह अब अमरीका से बराबरी के स्तर पर बात करता है . इसलिए यह कनाडा के अपने हित में होगा कि वह भारत से फ़ौरन माफी मांगे और आगे से तमीज से आचरण करने का भरोसा दिलाये

Thursday, May 27, 2010

समाजवादी पार्टी में अमर सिंह के विरोधियों को मुलायम चेतावनी

शेष नारायण सिंह

समाजवादी पार्टी में राजनीतिक घटनाक्रम बहुत तेज़ी से घूम रहा है . अमर सिंह के हटने के बाद जो शिथिलता आई थी ,लगता है वह अब ख़त्म होने वाली है . पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी का ऐसा दांव मारा है कि अभी लोगों को पता ही नहीं चल रहा है कि हमला किस पर है. अमर सिंह के बाद की राजनीति के बड़े बड़े सूरमा एक दूसरे से पूछते पाए जा रहे हैं कि भाई हुआ क्या. राज्य सभा और विधान परिषद् के लिए जिन पांच उम्मीदवारों की घोषणा मुलायम सिंह यादव ने की है , वह आधुनिक राजनीति के विद्यार्थी के लिए एक बड़ा सबक हो सकता है . . दुनिया जानती है कि मुलायम सिंह यादव अमर सिंह को पार्टी से निकालना नहीं चाहते थे लेकिन माहौल ऐसा बना कि उनके लिए अमर सिंह को पार्टी में रख पाना मुश्किल हो गया . अमर सिंह ने भी अपनी हैसियत को बहुत बढ़ा कर आंक रखा था . यह उनकी गलती थी . दिल्ली की राजनीति में कोई भी बहुत ताक़तवर नहीं होता . इसी दिल्ली में सबसे बेहतरीन मुग़ल बादशाह को उसी के बेटे औरंगजेब ने जेल की हवा खिलाई थी . बाद के युग में इंदिरा गाँधी के दरबार के बहुत करीबी लोग ऐसे मुहल्लों में खो गए थे जहां कोई भी ताक़तवर आदमी जाना नहीं चाहेगा. दिनेश सिंह एक बार जवाहरलाल नेहरू के करीबी हुआ करते थे, इंदिरा जी के ख़ास सलाहकार थे और बाद में राज नारायण समेत बहुत सारे लोगों के दरवाजों पर दस्तक देते देखे गए थे. वामपंथी रुझान के नेता चन्द्र जीत यादव की हनक का अंदाज़ वह इंसान लगा ही नहीं सकता जिसने सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों में उनका जलवा नहीं देखा . कभी बाबू जगजीवन राम की मर्जी को इंदिरा जी अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करती थीं , बाद में वे ही उनके सबसे बड़े दुश्मन हुए . इसलिए दिल्ली की राजनीति एक ऐसा अखाड़ा है जहां जो पहलवान मुकाबिल हो वहां से तो हमला होता ही है , अपने साथी भी ज़बर्दस्त वार करते हैं . अमर सिंह इसी बारकी को समझने में गच्चा खा गए और जब उन्हें राजनीति के शतरंज की शह की जानकारी मिली तब तक वे मात चुके थे . लेकिन समाजवादी पार्टी में उनके विरोधियों को भी मुगालता था कि उन्होंने लड़ाई जीत ली है . और यहीं वे गच्चा खा गए. अमर सिंह के चेलों को हटा कर उन लोगों ने अपने बन्दों को ख़ास पदों बैठा दिया लेकिन अब तस्वीर की बारीकियां उभरने लगी हैं . मुलायम सिंह ने साफ़ कर दिया है कि समाजवादी पार्टी में उनकी ही चलेगी . अमर सिंह के भाई की पत्नी को दुबारा राज्य सभा की टिकट देकर उन्होंने ऐलान कर दिया है कि अमर सिंह ज्यादा बोलने की अपनी आदत के चलते उनको नाराज़ करने में तो भले ही सफल हो गए हैं लेकिन अभी मुलायम सिंह यादव उन्हें दुश्मन नहीं मानते. समाजवादी पार्टी की मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम को देखने से स्वर्गीय चन्द्र शेखर की एक बात याद आती हैं. वे कहा करते थे कि राजनीति संभाव्यता का खेल है . यानी यहाँ कुछ भी संभव है . राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता . एक घटना से बात को समझने की कोशिश की जायेगी. एक बार लालू प्रसाद यादव को देवेगौड़ा ने पार्टी से निकला दिया था. लालू ने उनके खिलाफ बहुत सारे बयान दिए . कुछ दिन बाद फिर एकता हो गयी. किसी प्रेस वार्ता में दोनों ही नेता साथ साथ प्रेस को संबोधित कर रहे थे . किसी ने पूछा कि लालू जी आपने तो देवेगौडा को बहुत गालियाँ दी थीं, आज उनके साथ क्यों बैठे हैं ? लालू ने बगल में बैठे हुए देवेगौडा की तरफ इशारा करके जवाब दिया कि इन्होने हमें पार्टी से निकाला था , तो क्या हम इनकी आरती उतारते. बात एक बहुत ही ज़ोरदार ठहाके में ख़त्म हो गयी और सारी तल्खी हवा हो गयी . बहरहाल समाजवादी पार्टी में भी लगता है कि यही हो रहा है. अमर सिंह के सारे बयानों के बावजूद पार्टी में उनके विरोधियों को औकात पर रखना और उनके सबसे करीबी परिवार की मुखिया को राज्यसभा में दुबारा भेजने का फैसला करके मुलायम सिंह यादव ने बहस को अखाड़े में फेंक दिया है . अब आगे का घटनाक्रम देखना बहुत ही दिलचस्प होगा..

इसके अलावा भी राज्यसभा और विधान परिषद् का टिकट देने में मुलायम सिंह यादव ने राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया है . जब मायावती और काशी राम उनसे अलग हुए तो उन्होंने उनके दलित वोट बैंक को बैलेंस करने के लिए फूलन देवी को अपने साथ ले लिया था . और कहा कि दलितों की आबादी के सत्तर प्रतिशत निषाद भी उत्तर प्रदेश में रहते हैं .मुसलमानों में रशीद मसूद को टिकट देकर उन्होंने लगभग ऐलान कर दिया है कि अब आज़म खान की वापसी उनकी पार्टी में नहीं होगी, हालांकि अमर सिंह का विरोधी खेमा पूरी कोशिश कर रहा है .जया बच्चन को टिकट देकर उन्होंने बड़ा जुआ खेला है . हो सकता है कि वे सीट हाथ आ जाने के बाद साथ छोड़ जाएँ लेकिन इस बात की भी पूरी संभावना है कि उनको सम्मानित किये जाने के बाद अमर सिंह को गलती का पता चले और वे वापस आने के लिये पहल कर दें . जो भी हो , उत्तर प्रदेश में राजनीतिक माहौल में निश्चित रूप से परिवर्तन होने वाला है . देखिये ऊँट किस करवट बैठता है

हाफ़िज़ सईद पाकिस्तानी फौज़ का भाग्यविधाता है

(दैनिक जागरण से साभार )

शेष नारायण सिंह

मुंबई हमलों के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने रिहा कर दिया है . अदालत ने कहा कि सरकार हाफ़िज़ सईद के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं पेश कर सकी है इस लिए उसे हिरासत में रखने का कोई आधार नहीं है . पाकिस्तानी सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आत्नक का जो भी इंतज़ाम है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . और वह से पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . . यह बेचारे तो अमरीका से लोक तंत्र बहाली के नाम पर पैसा ऐंठने के लिए बैठाए गए हैं . वहां सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. फौज और आईएसआई में कोई फर्क नहीं है. सब मिलकर काम करते हैं और पाकिस्तान की गरीब जनता के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हैं .हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश भी करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके होंगें . और वे हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.


यानी अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है उनकी फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है उनकी फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है और उसे करना भी चाहिए क्योंकि अब तक तो पाकिस्तानी आतंक का सबसे बड़ा नुकसान भारत ही झेल रहा है लेकिन अमरीका पर भी अब पाकिस्तानी आतंकवादियों की टेढ़ी नज़र है क्योंकि पिछले दिनों टाइम्स स्क्वायर में बम विस्फोट करने की कोशिश में जो आदमी पकड़ा गया है वह पूरी तरह से पाकिस्तानी फौज की पैदाइश है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पाल रहे पकिस्तान को अमरीका सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. इसके लिए दान करने वाले देशों को अपना इन्स्पेक्टर तैनात करने के बारे में भी सोचना चाहिए ..अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं

ऐसी हालात में आतंकवाद के सबसे बड़े माहिर, हाफिज़ सईद पर कार्रवाई करने की उम्मीद करना भी बेकार की बात है जब तक उस व्यवस्था पर लगाम न लगाई जाए जो उसे चला रही है. और उस व्यवस्था का नाम है पाकिस्तानी फौज और आई एस आई .पाकिस्तान से आतंकवाद का ताम झाम हटाने के लिए फौज को कमज़ोर करना पड़ेगा और यह काम केवल भारत का ज़िम्मा नहीं है. पाकिस्तानी आतंकवाद का नुकसान सबसे ज्यादा भारत को हो रहा है, इसमें कोई शक नहीं है लेकिन अब तो अमरीका भी उसी कतार में खड़ा हो गया है जिसमें पाकिस्तान की ज़मीन से शुरू होने वाले आतंक को भोग रहे भारत और अफगानिस्तान खड़े हैं .. इस लिए सबको मिलकर पाकिस्तानी फौज को तमीज सिखानी होगी. क्योंकि ज़रदारी या गिलानी तो मुखौटा हैं . असली खेल की चाभी फौज और आई एस आई के पास ही है . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ साई दक कुछ नहीं बिगड़ेगा . यहाँ यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हाफ़िज़ सईद की ताक़त के सामने पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट भी कोई हैसियत नहीं है .

Monday, May 24, 2010

झारखण्ड की जनता को राजकाज से जोड़ेगें बाबूलाल मरांडी

शेष नारायण सिंह
बीजेपी की राजनीतिक अदूरदर्शिता की जितनी धुनाई झारखंड में हुई है, उतनी कभी नहीं हुई। झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन ने बीजेपी का जो हाल किया है, इतिहास में किसी भी राजनीतिक पार्टी की ऐसी दुर्दशा नहीं हुई। बीजेपी ने झारखंड चुनाव पूरी तरह से शिबू सोरेन और भ्रष्टाचार के विरोध को मुद्दा बनाकर लड़ा था। लेकिन जब सरकार बनाने की नौबत आई तो बीजेपी ने शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनवाने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया।

सरकार बन गयी और भ्रष्टाचार का कारोबार शुरू हो गया। बीजेपी के ट्रेनी राष्ट्रीय अध्यक्ष को मुगालता था कि वे चक्रवर्ती सम्राट बन गये हैं। ब्रिटिश पीरियड के भारतीय राजाओं की तरह मनमानी के बादशाह हो गए हैं। उन्होंने जल्दबाजी में फैसले करके सब काम ठीक कर दिया। बीजेपी के कट मोशन पर जब शिबू सोरेन ने कांग्रेस का साथ दे दिया तो बीजेपी वालों ने उन्हें सबक सिखाने की धमकी दी। राजनीति का मामूली जानकार भी जानता है कि शिबू सोरेन के सामने बीजेपी के किसी नेता की कोई औकात नहीं है लेकिन सारे लोग नितिन गडकरी को ललकार रहे थे कि शिबू सोरेन को ठीक कर दिया जाए। बेचारे नौसिखिया नितिन गडकरी टूट पड़े और दिल्ली में आडवाणी गुट के नेताओं ने नितिन गडकरी की इज्जत का जो फालूदा बनाया है, वह तो बंगारू लक्ष्मण का भी नहीं बना था। आज बीजेपी के विधायकों ने राज्यपाल को सूचित कर दिया है कि वे शिबू सोरेन सरकार से समर्थन वापस ले रहे हैं। झारखंड की राजनीति के जानकार बताते हैं कि राज्य में बीजेपी की जग हंसाई का सिलसिला आज शुरू हुआ है। विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी के विधायकों की संख्या 18 थी। माना जा रहा है कि इसमें से कम से कम एक तिहाई तो अब बीजेपी छोड़ ही देंगे। शिबू सोरेन के करीबी लोगों का कहना है कि इससे ज्यादा भी छोड़ सकते हैं।

झारखंड में पूरी तरह से कुव्यवस्था का राज है। बिहार के हिस्से के रूप में रांची, धनबाद और जमशेदपुर का इलाका लूट का केन्द्र माना जाता था। अब यह और बढ़ गया है। राज्य की स्थापना के बाद कुछ दिन तक बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री रहे। सुलझी हुई राजनीतिक सोच के मालिक बाबूलाल मरांडी ने नए राज्य की संस्थाओं के निर्माण का काम शुरू किया लेकिन उन दिनों उनकी पार्टी बीजेपी थी, दिल्ली में राज था, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य का युग चल रहा था, उनकी कसौटी पर बाबूलाल मरांडी खरे नहीं उतरे। वे बेइमान और रिश्वतखोर नहीं थे। बीजेपी ने उन्हें पीछे धकेल दिया। उसके बाद तो लूट का अभियान शुरू हो गया। शिबू सोरेन और मधु कोड़ा की सरकारों ने भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड बनाए और झारखंड में भ्रष्टाचार की संस्कृति अब संस्थागत रूप लेने के मुकाम पर पहुंच चुकी है। बीजेपी के समर्थन वापसी के फैसले से कुछ बदलने वाला नहीं है क्योंकि खींचखांच कर जो सरकार बनेगी उसका स्थायी भाव भ्रष्टाचार ही होगा क्योंकि कांग्रेस के नेता भी बीजेपी वालों से किसी भी तरह से कम नहीं है। भ्रष्टाचार के हवाले से कांग्रेस का शिबू सोरेन से पुराना याराना है क्योंकि पीवी नरसिंहराव की सरकार को बचाने के लिए जो भ्रष्टाचार का रिकॉर्ड कांग्रेस ने बनाया था उसमें शिबू सोरेन मुख्य अभिनेता थे। उसके बाद भी जब भी मौका मिला कांग्रेस ने शिबू सोरेन मार्का भ्रष्टाचार का भरपूर उपयोग किया।

यह झारखंड का दुर्भाग्य है कि नए राज्य के गठन के बाद भी वहां उसी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। बिहार में तो नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद चीजें बदली लेकिन झारखंड में लूट-खसोट का सिलसिला जारी है। झारखंड में 32 वर्षों से पंचायत चुनाव नहीं हुए हैं। इसलिए केन्द्र सरकार की कई योजनाओं का लाभ राज्य को नहीं मिल पा रहा है। सत्ता लोभी बीजेपी, कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा की तिकड़मबाजी के चलते राज्य में किसी भी स्थिरता की संभावना नहीं है। राज्य में उद्योगों की हालत खस्ता है। दुनिया भर की कंपनियां राज्य की खनिज संपदा को लूटने की फिराक में हैं। तरह-तरह के पूंजीवादी जाल बिछाए गए हैं और जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।

इस निराशा के माहौल में राज्य में एक व्यक्ति ऐसा है जो झारखंड को लोगों के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखा रहा है। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी पिछले चार वर्षों से झारखंड के गांव-गांव में घूम रहे थे। पिछले हफ्ते रांची में अपनी नवगठित पार्टी के कार्यकर्ताओं का सम्मेलन किया और झारखंड के लोगों को राजनीतिक रूप से मजबूत करने के अपने मंसूबों का एलान किया। उन्होंने दिल्ली और नागपुर में बैठकर राज्य की राजनीति का भाग्यविधाता बनने का स्वांग रचने वालों को साफ बता दिया कि राज्य के समग्र विकास के लिए राष्ट्रीय नेताओं और पार्टियों को ईस्ट इंडिया कंपनी की मानसिकता से बाहर निकलना पड़ेगा।

राज्य के सीधे सादे लोगों को बाबूलाल मरांडी ने बता दिया है कि अपने यहां से किसी भी सूरत में खनिजों की कच्चे माल की निकासी का विरोध करेंगे। अब झारखंड की जनता यह मांग करेगी कि आइरन ओर का निर्यात नहीं, लोहे की बनी वस्तुओं का निर्यात होगा। कोयला निर्यात करने की जरूरत नहीं है, उससे बिजली बनाकर बाकी राज्यों और उद्योगों को दिया जाएगा। बड़ी कंपनियों को झारखंड राज्य की सीमा में ही मुख्यालय रखना होगा। उन्होंने टाटा को भी चेताया है कि टाटा स्टील का मुख्यालय जमशेदपुर में होना चाहिए, मुंबई में नहीं। बाबूलाल मरांडी ने बताया कि अगर जरूरत पड़ी और दिल्ली में बैठे कलर ब्लाइंड लोगों की समझ में झारखंडी अवाम की बात न आई तो जनता जाम भी लगाएगी और डंडा भी बजाएगी। झारखंड की तबाह हो चुकी राजनीति और भ्रष्टाचार का भोजन बनने के लिए तैयार अर्थव्यवस्था के लिए बाबूलाल मरांडी की योजना आशा की एक किरण है। देखना यह है कि सत्ता के बाहर का नेता क्या सत्ता पाने पर भी ईमानदार रह पाएगा

Thursday, May 20, 2010

बाबू जगजीवन राम को ये लोग केवल दलित नेता ही मानते हैं

शेष नारायण सिंह

हर साल एकाध बार दिल्ली के कृष्ण मेनन मार्ग की कोठी नंबर ६ के बारे में अखबारों में खबरें निकलती रहती हैं. आजकल भी वही सीज़न शुरू हो गया है . किसी ने सूचना के अधिकार कानून के तहत फिर कुछ जानकारी इकठ्ठा कर ली है और उसे सवर्ण मानसिकता वालों ने अखबारों की सेवा में पेश कर दिया है ,खबर छप गयी है , और भी अखबारों में छपेगी और समाज की नैतिकता के ठेकेदार बड़े बड़े उपदेश देने लगेंगें कि सार्वजनिक संपत्ति पर गैरज़रूरी क़ब्ज़ा कर लिया गया है और उसे फ़ौरन उस महकमे के हवाले कर दिया जाना चाहिए जो सरकारी अफसरों और मंत्रियों के लिए दिल्ली में कोठियों का इंतज़ाम करता है .बात सही है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है . नयी दिल्ली में ऐसे बहुत सारे मकान हैं जो किसी न किसी के नाम पर यादगार में बदल दिए गए हैं तो बाबू जगजीवन राम के लिए क्या यह देश एक स्मारक नहीं बनवा सकता . जिस बिल्डिंग में आज़ादी की लड़ाई के एक महत्वपूर्ण योद्धा ने अपना लगभग पूरा जीवन बिताया हो उस भवन को उसी याद में रखने की मांग करके क्या जगजीवन राम के प्रशंसक कोई ऐसी मांग कर रहे हैं जो बहुत ही अनुचित है .. क्या ऊंची जातियों के लोगों के लिए ही सरकारी भवनों में स्मारक बनाए जाने चाहिए ? क्या सरकार में बैठे लोगों को नहीं मालूम है कि जगजीवन राम का योगदान आज़ादी की लड़ाई में बेजोड़ रहा है .? जगजीवन राम उस वक़्त महात्मा गाँधी के नेतृत्व में आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाली जमातों में शामिल हुए थे जब अँगरेज़ अपनी पूरी ताक़त के साथ आज़ादी के सपने को हमेशा के लिए कुचल देना चाहते थे . पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अंग्रेजों ने अपनी सारी ताक़त झोंक दी थी . मुस्लिम लीग की कमान जिन्नाह के हाथ में आ चुकी थी और वे अंग्रेजों के हाथ में खेल रहे थे . अंग्रेजों की कोशिश थी कि दलितों के लिए भी पृथक चुनाव क्षेत्रों का गठन कर दिया जाए . दुनिया जानती है कि पाकिस्तान के गठन की शुरुआत पृथक चुनाव क्षेत्रों की चर्चा के साथ ही शुरू हो चुकी थी . अँगरेज़ का इरादा दलितों के बारे में भी यही था . गाँधी जी ने साम्राज्यवादी अंग्रेजों के इरादे को भांप लिया था कि अँगरेज़ बांटो और राज करो के अपने खेल को पूरी तरह से अंजाम तक पहुचाने की तैयारी कर चुका था. एकाध दलित नेताओं को भी पटा लिया गया था कि वे पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की बात का समर्थन करें लेकिन महात्मा गाँधी ने इसका विरोध किया और उस काम में बाबू जगजीवन राम उनके साथ खड़े थे .

आज़ादी की लड़ाई को एक सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के रूप में चलाने के लिए गाँधी जी ने अभियान चलाया था. दलितों के लिए जो अभियान चलाया गया था उसमें बाबू जगजीवन राम पूरे जोर से लगे हुए थे .. पटना में आयोजित छुआछूत विरोधी समेलन में उन्होंने कहा कि " सवर्ण हिन्दुओं की इन नसीहतों से कि मांस भक्षण छोड़ दो,मदिरा मत पियो.सफाई के साथ रहो ,अब काम नहीं चलेगा . अब दलित उपदेश नहीं , अच्छे व्यवहार की मांग करते हैं और उनकी मांग स्वीकार करनी होगी. शब्दों की नहीं ठोस काम की आवश्यकता है . मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों को अपना अलग देश बनाने के लिए उकसा दिया है . डॉ आम्बेडकर ने अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की माग की है .राष्ट्र की रचना हमसे हुई है ,राष्ट्र से हमारी नहीं /. राष्ट्र हमारा है . इसे एकताबद्ध करने का प्रयास भारत के लोगों को ही करना है . महात्मा गाँधी ने निर्णय लिया है कि छुआछूत को समाप्त करना होगा . इसके लिए मुझे अपनी कुर्बानी भी देनी पड़े तो मैं पीछे नहीं हटूंगा . देश की आज़ादी की लड़ाई में सभी धर्म और जाति के लोगों को बड़ी संख्या में जोड़ना होगा. "

यह एक महान राजनीतिक जीवन की शुरुआत थी बाद के वर्षों में महात्मा गाँधी के साथ हमेशा खड़े रहने वाले जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन का हमेशा नेतृत्व किया . आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए. सब जानते हैं कि ६ फरवरी १९७७ के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी के राज को ख़त्म किया. उसके बाद उन्हें इस देश ने प्रधानमंत्री नहीं बनाया क्योंकि वे दलित थे . हालांकि उनको ही प्रधान मंत्री होना चाहिए था . केंद्र में वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडलों में रहे . कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में उन्होंने देश की खाद्य समस्या का ऐसा हल निकाला कि आज तक अनाज के लिए हमें किसी मुल्क के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ा . बंगलादेश की स्थापना के समय वे रक्षा मंत्री थे . सेना को जो नेतृत्व उन्होंने दिया वह अपने आप में एक मिसाल है . उन दिनों एक बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आदमी अमरीका का राष्ट्रपति था , उसने भारत को धमकाने के लिए हिंद महासागर में अमरीकी सेना का परमाणु हथियारों से लैस विमानवाहक पोत , 'इंटरप्राइज़' भेज दिया था. बाबू जगजीवन राम ने ऐलान कर दिया कि अगर ' इंटरप्राइज़' बंगाल की खाड़ी में ज़रा सा भी आगे बढा तो भारत के जांबाज़ सैनिक उसे वहीं डूबा देंगें .
उन्हीं बाबू जगजीवन राम की याद में उनके प्रशंसक एक स्मारक बनवाना चाहते हैं . ऐसे समारक के लिए उस बिल्डिंग से ज्यादा महत्वपूर्ण और कोई इमारत हो ही नहीं सकती, जहां आज़ादी के इस महान योद्धा का लगभग पूरा जीवन बीता लेकिन सवर्णवादी सोच की मानसिकता से ग्रस्त नेता और अफसर उसमें अडंगा लगाते रहते हैं . .जबकि कुछ परिवारों के मामूली लोगों के नाम पर भी देश में भर में स्मारक बने हुए हैं . कुछ पार्टियों के नेताओं के नाम भी स्मारक बन रहे हैं लेकिन आज़ादी के इतने बड़े सिपाही के नाम पर अडंगा लगाने वाले ऐलानिया घूम रहे हैं और कोई उनका कुछ नहेने बिगाड़ पा रहा है .

Sunday, May 16, 2010

हमारी आज़ादी की विरासत का केंद्र है देवबंद

शेष नारायण सिंह


दारुल उलूम, देवबंद को दुश्मन की तरह पेश करने वाले सांप्रदायिक हिंदुओं को भी यह बता देने की जरूरत है कि जब भी अंग्रेजों के खि़लाफ बगावत हुई, देवबंद के छात्र और शिक्षक हमेशा सबसे आगे थे। इन लोगों को यह भी बता देने की ज़रूरत है कि देवबंद के स्कूल की स्थापना भी उन लोगों ने की थी जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो थे।

हाल में ही देवबंद के मौलाना नूरुल हुदा को दिल्ली हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर दफा 341 के तहत चार्जशीट दाखिल की गई और उन्हें दिल्ली की एक अदालत से जमानत लेनी पड़ी। वे जेल से तो बाहर आ गए हैं लेकिन अभी केस खत्म नहीं हुआ है। उन पर अभी मुकदमा चलेगा और अदालत ने अगर उन्हें निर्दोष पाया तो उनको बरी कर दिया जायेगा वरना उन्हें जेल की सजा भी हो सकती है। उनके भाई का आरोप है कि 'यह सब दाढ़ी, कुर्ता और पायजामे की वजह से हुआ है, यानी मुसलमान होने की वजह से उनको परेशान किया जा रहा है।

हुआ यह कि मौलाना नूरुल हुदा दिल्ली से लंदन जा रहे थे। जब वे जहाज़ में बैठ गए तो किसी रिश्तेदार का फोन आया और उन्होंने अपनी खैरियत बताई और और कहा कि 'जहाज उडऩे वाला है और हम भी उडऩे वाले है।' किसी महिला यात्री ने शोरगुल मचाया और कहा कि यह मौलाना जहाज़ को उड़ा देने की बात कर रहे हैं। जहाज़ रोका गया और मौलाना नूरुल हुदा को गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ हुई और पुलिस ने स्वीकार किया कि बात समझने में महिला यात्री ने गलती की थी। सवाल यह है कि अगर पुलिस ने यह पता लगा लिया था कि महिला की बेवकूफी की वजह से मौलान नूरुल हुदा को हिरासत में लिया गया था तो केस खत्म क्यों नहीं कर दिया गया। उन पर चार्जशीट दाखिल करके पुलिस ने उनके नागरिक अधिकारों का हनन किया है और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का अपमान किया है। इसके लिए पुलिस को माफी मांगनी चाहिए। अगर माफी न मांगे तो सभ्य समाज को चाहिए कि वह पुलिस पर इस्तगासा दायर करे और उसे अदालत के जरिए दंडित करवाए। पुलिस को जब मालूम हो गया था कि महिला का आरोप गलत है तो मौलाना के खिलाफ दफा 341 के तहत मुकदमा चलाने की प्रक्रिया क्यों शुरू की? इस दफा में अगर आरोप साबित हो जाय तो तीन साल की सज़ा बामशक्कत का प्रावधान है। इतनी कठोर सजा की पैरवी करने वालों के खि़लाफ सख्त से सख्त प्रशासनिक और कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए। मामला और भी गंभीर हो जाता है क्योंकि जांच के दौरान ही पुलिस को मालूम चल गया था कि आरोप लगाने वाली महिला झूठ बोल रही थी। इस मामले में मौलाना नूरुल हुदा, उनके परिवार वालों और मित्रों को जो मानसिक प्रताडऩा झेलनी पड़ी है, सरकार को चाहिए कि उसके लिए संबंधित एअरलाइन, झूठ बोलनी वाली महिला, दिल्ली पुलिस और जांच करने वाले अधिकारियों के खिलाफ मु$कदमा चलाए और मौलाना को मुआवज़ा दिलवाए। इस मामले में मौलाना नूरुल हुदा को मानसिक क्लेश पहुंचा कर सभी संबंधित पक्षों ने उनका अपमान किया है।

वास्तव में देवबंद का दारुल उलूम विश्व प्रसिद्घ धार्मिक केंद्र होने के साथ-साथ हमारी आज़ादी की लड़ाई की भी सबसे महत्वपूर्ण विरासत भी है। हिंदू-मुस्लिम एकता का जो संदेश महात्मा गांधी ने दिया था, दारुल उलूम से उसके समर्थन में सबसे ज़बरदस्त आवाज़ उठी थी। 1930 में जब इलाहाबाद में संपन्न हुए मुस्लिम लीग के सम्मेलन में डा. मुहम्मद इकबाल ने अलग मुस्ल्मि राज्य की बात की तो दारुल उलूम के विख्यात कानूनविद मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने उसकी मुखालिफत की थी। उनकी प्रेरणा से ही बड़ी संख्या में मुसलमानों ने महात्मा गांधी की अगुवाई में नमक सत्याग्रह में हिस्सा लिया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 12 हज़ार मुसलमानों ने नमक सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तारी दी थी। दारुल उलूम के विद्वानों की अगुवाई में चलने वाला संगठन जमीयतुल उलेमा-ए-हिंद आज़ादी की लड़ाई के सबसे अगले दस्ते का नेतृत्व कर रहा था।

आजकल देवबंद शब्द का उल्लेख आते ही कुछ अज्ञानी प्रगतिशील लोग ऊल जलूल बयान देने लगते हैं और ऐसा माहौल बनाते हैं गोया देवबंद से संबंधित हर व्यक्ति बहुत ही खतरनाक होता है और बात बात पर बम चला देता है। पिछले कुछ दिनों से वहां के फतवों पर भी मीडिया की टेढ़ी नज़र है। देवबंद के दारुल उलूम के रोज़मर्रा के कामकाज को अर्धशिक्षित पत्रकार, सांप्रदायिक चश्मे से पेश करने की कोशिश करते हैं जिसका विरोध किया जाना चाहिए।1857 में आज़ादी की लड़ाई में $कौम, हाजी इमादुल्ला के नेतृत्व में इकट्ठा हुई थी। वे 1857 में मक्का चले गए थे। उनके दो प्रमुख अनुयायियों मौलाना मुहम्मद कासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना करने वालों की अगुवाई की थी। यही वह दौर था जब यूरोपीय साम्राज्यवाद एशिया में अपनी जड़े मज़बूत कर रहा था। अफगानिस्तान में यूरोपी साम्राज्यवाद का विरोध सैय्यद जमालुद्दीन कर रहे थे। जब वे भारत आए तो देवबंद के मदरसे में उनका जबरदस्त स्वागत हुआ और अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फैंकने की कोशिश को और ताकत मिली। जब 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई तो दारुल उलूम के प्रमुख मौलाना रशीद अहमद गंगोही थे। आपने फतवा दिया कि शाह अब्दुल अज़ीज़ का फतवा है कि भारत दारुल हर्ब है। इसलिए मुसलमानों का फर्ज है कि अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करें। उन्होंने कहा कि आजादी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए हिन्दुओं को साथ लेकर संघर्ष करना शरियत के लिहाज से भी बिल्कुल दुरुस्त है। वें भारत की पूरी आजाद के हिमायती थे। इसलिए उन्होंने कांग्रेस में शामिल न होने का फैसला किया। क्योंकि कांग्रेस 1885 में पूरी आजादी की बात नहीं कर रही थी। लेकिन उनकी प्रेरणा से बड़ी संख्या में मुसलमानों ने कांग्रेस की सदस्यता ली और आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये।

इतिहास गवाह है कि देवबंद के उलेमा दंगों के दौरान भी भारत की आजादी और राष्ट्रीय एकता के सबसे बड़े पक्षधर के रूप में खड़े रहते थे। देवबंद के बड़े समर्थकों में मौलाना शिबली नोमानी का नाम भी लिया जा सकता है। उनके कुछ मतभेद भी थे। लेकिन आजादी की लड़ाई के मसले पर उन्होंने देवबंद का पूरी तरह से समर्थन किया। सर सैय्यद अहमद खां की मृत्यु तक वे अलीगढ़ में शिक्षक रहे लेकिन अंग्रेजी राज के मामले में वे सर सैय्यद से अलग राय रखते थे। प्रोफेसर ताराचंद ने अपनी किताब 'भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास' में साफ लिखा है कि देवबंद के दारुल उलूम ने हर उस आंदोलन का समर्थन किया जो भारत से अंग्रेजों को खदेडऩे के लिए चलाया गया था। 1857 के जिन बागियों ने देवबंद में धार्मिक मदरसे की स्थापना की उनके प्रमुख उद्देश्यों में भारत की सरजमीन से मुहब्बत भी थी। कलामे पाक और हदीस की शिक्षा तो स्कूल का मुख्य काम था लेकिन उनके बुनियादी सिद्घांतों में यह भी था कि विदेशी सत्ता खत्म करने के लिए जिहाद की भावना को हमेंशा जिंदा रखा जाए। आज कल जिहाद शब्द के भी अजीबो गरीब अर्थ बताये जा रहे हैं। यहां इतना ही कह देना काफी होगा कि 1857 में जिन बागी सैनिकों ने अंग्रेजों के खि़लाफ सब कुछ दांव पर लगा दिया था वे सभी अपने आपको जिहादी ही कहते थे। यह जिहादी हिन्दू भी थे और मुसलमान भी और सबका मकसद एक ही था विदेशी शासक को पराजित करना।

मौलाना रशीद अहमद गंगोही के बाद दारुल उलूम के प्रमुख मौलाना महमूद उल हसन बने। उनकी जिंदगी का मकसद ही भारत की आजादी था। यहां तक कि कांग्रेस ने बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरी स्वतंत्रता का नारा दिया। लेकिन मौलाना महमूद उल हसन ने 1905 में ही पूर्ण स्वतंत्रता की अपनी योजना पर काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने भारत से अंगे्रजों को भगा देने के लिए एक मिशन की स्थापना की जिसका मुख्यालय देवबंद में बनाया गया। मिशन की शाखाएं दिल्ली, दीनापुर, अमरोट, करंजी खेड़ा और यागिस्तान में बनाई गयीं। इसमें बड़ी संख्या में मुसलमान शामिल हुए। लेकिन यह सभी धर्मों के लिए खुला था। पंजाब के सिख और बंगाल की क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य भी इसमें शामिल हुए। मौलाना महमूद उल हसन के बाद देवबंद का नेतृत्व मौलाना हुसैन अहमद मदनी के कंधों पर पड़ा। उन्होंने भी कांग्रेस, महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजाद के साथ मिलकर मुल्क की आजादी के लिए संघर्ष किया। उन्होंने 1920 में कांग्रेस के असहयोग आंदोलन का समर्थन करने का फै सला किया और उसे अंत तक समर्थन देते रहे। उन्होंने कहा कि धार्मिक मतभेद के बावजूद सभी भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि राष्ट्र की स्थापना भौगोलिक तरीके से की जानी चाहिए। धार्मिक आधार पर नहीं। अपने इस विचार की वजह से उनको बहुत सारे लोगों, खासकर पाकिस्तान के समर्थकों का विरोध झेलना पड़ा लेकिन मौलाना साहब अडिग रहे। डा. मुहम्मद इकबाल ने उनके खि़ला$फ बहुत ही जहरीला अभियान शुरू किया तो मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने फारसी में एक शेर लिखकर उनको जवाब दिया कि अरब के रेगिस्तानों में घूमने वाले इंसान जिस रास्ते पर आप चल पड़े हैं वह आपको काबा शरीफ तो नहीं ले जाएगा अलबत्ता आप इंगलिस्तान पहुंच जाएंगे। मौलाना हुसैन अहमद मदनी 1957 तक रहे और भारत के संविधान में भी बड़े पैमाने पर उनके सुझावों को शामिल किया गया है।

जाहिर है पिछले 150 वर्षों के भारत के इतिहास में देवबंद का एक अहम मुकाम है। भारत की शान के लिए यहां के शिक्षकों और छात्रों ने हमेशा कुर्बानियां दी हैं। अफसोस की बात है कि आज देवबंद शब्द आते ही सांप्रदायिक ताकतों के प्रतिनिधि ऊल-जलूल बातें करने लगते हैं। जरूरत इस बात की है कि धार्मिक मामलों में दुनिया भर में विख्यात देवबंद को भारत की आजादी में उनके सबसे महत्वपूर्ण रोल के लिए भी याद किया जाए और उनके रोजमर्रा के कामकाज को सांप्रदायिकता के चश्मे से न देखा जाए

आर्थिक विकास के साथ साथ सामाजिक विकास भी ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

हमारे समाज में लोगों को अपने को सही और दूसरों को गलत मानने की बीमारी जोर पकडती जा रही है .शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर बदलाव हो रहे हैं . ग्रामीण इलाकों के लड़के लडकियां उच्च और प्रोफेशनल शिक्षा के ज़रिये सफलता हासिल करने की कोशिश में लगे हुए हैं . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों की लड़कियों को उनके माता पिता , दसवीं की पढ़ाई करने के लिए २ मील दूर नहीं जाने देते थे , उन इलाकों की लडकियां दिल्ली, पुणे, बंगलोर नोयडा ,ग्रेटर नोयडा में स्वतन्त्र रूप से रह रही हैं और शिक्षा हासिल कर रही हैं . उनके माता पिता को भी मालूम है कि बच्चे पढ़ लिख कर जीवन में कुछ हासिल करने लायक बन जायेंगें . लेकिन अभी भारत के मध्यवर्गीय समाज में यह जागरूकता नहीं है कि शिक्षा के विकास के बाद जब पश्चिमी देशों की तरह बच्चे आत्म निर्भर होंगें तो उनको अपनी निजी ज़िंदगी में भी स्पेस चाहिए . उनको अपनी ज़िंदगी के अहम फैसले खुद लेने कीआज़ादी उन्हें देनी पड़ेगी लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . ताज़ा मामला झारखण्ड की पत्रकार निरुपमा पाठक का है . उसके माता पिता ने उसे पत्रकारिता की शिक्षा के लिए दिल्ली भेजा, लड़की कुशाग्रबुद्धि की थी, उसने अपनी कोशिश से नौकरी हासिल की और अपनी भावी ज़िंदगी की तैयारियां करने लगी. अपने साथ पढने वाले एक लडके को पसंद किया और उसके साथ घर बसाने का सपना देखने लगी. जब वह घर से चली थी तो उसके माता पिता अपने दोस्तों के बीच हांकते थे कि उनकी बेटी बड़ी सफल है और वे उसकी इच्छा का हमेशा सम्मान करते हैं . लेकिन अब पता चला है कि वे तभी तक अपनी बच्ची की इज्ज़त करते थे जब तक वह उनकी हर बात मानती थी लेकिन जैसे ही उसने उनका हुक्म मानने से इनकार किया , उन्होंने उसे मार डाला . यह तो बस एक मामला है . ऐसे बहुत सारे मामले हैं .. इसके लिए बच्चों के माँ बाप को कसाई मान लेने से काम नहीं चलने वाला है . वास्तव में यह एक सामाजिक समस्या है . अभी लोग अपने पुराने सामाजिक मूल्यों के साथ जीवित रहना चाहते हैं . इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे नए मूल्यों को अपनाना नहीं चाहते . शायद वे चाहते हों लेकिन अभी पूंजीवादी रास्ते पर तो विकास आर्थिक क्षेत्र में पींगें मार रहा है लेकिन परिवार और समाज के स्तर पर किसी तरह का मानदंड विकसित नहीं हो रहा है . नतीजा यह हो रहा है कि पूंजीवादी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में भारत के ग्रामीण समाज के लोग सामन्ती मूल्यों के साथ जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं . खाप पंचायतों के मामले को भी इसी सांचे में फिट करके समझा जा सकता है . सूचना क्रान्ति के चलते गाँव गाँव में लडके लड़कियां वह सब कुछ देख रहे हैं जो पश्चिम के पूंजीवादी समाजों में हो रहा है . वह यहाँ भी हो सकता है . दो नौजवान एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं लेकिन फिर उन्हें उसके आगे बढ़ने की अनुमति सामंती इंतज़ाम में नहीं मिल पाती . दिल्ली के पास के दादरी इलाके में यही हुआ. वहां पंचायत को इस बात पर एतराज़ था कि जिन दो गावों के लोग अपने को एक ही परिवार का मानते हैं और लडके लड़कियों के बीच भाई बहन का रिश्ता होता है , वे शादी कैसे कर सकते हैं . पुराने समय में तो यह व्यवस्था एक तरह से सुरक्षा की शील्ड थी लेकिन अब ज़माना बदल गया है .लड़कियों की सुरक्षा के और भी अच्छे तरीके विकसित हो गए हैं तो ऐसी हालत में इन मान्यताओं को बदला जा सकता है लेकिन पंचायत और और बिरादरी के लोग अड़े हुए हैं लिहाज़ा पुलिस की सुरक्षा में शादी विवाह संपन्न हो रहे हैं.

इसी तरह के बहुत सारे मामले हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भी सुने जाते हैं . दुर्भाग्य यह है कि सरकारें और दिल्ली में बैठे बुद्धिजीवी इसे कानून व्यवस्था की समस्या मानते हैं और नेता सच कहने से भागते हैं . वास्तव में यह सामाजिक विकास की समस्या है . इसको हल करने के लिए पुलिस वालों की नहीं , समाजशास्त्रियों की ज़रुरत है ,सामाजिक विघटन और संयुक्त परिवार के ख़त्म होने की बारीकियों की रोशनी में इन समस्याओं को समझने की ज़रुरत है . आर्थिक और औद्योगिक विकास के साथ साथ समाज और परिवार के जीवन मूल्यों के विकास के बिना यह समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहेंगी. इस काम को दुरुस्त करने के लिए जनमत बनाना पड़ेगा और जनमत बनाने वाले लोगों बुद्धिजीवियों , राजनेताओं और मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यह पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है .

Thursday, May 13, 2010

अब मीडिया को भी काबू करने के चक्कर में हैं अफसराने-वतन

शेष नारायण सिंह

सावधानी हटी और दुर्घटना हुई. देश के नौकरशाह हमेशा इस फ़िराक़ में रहते हैं कि जहां से भी देश के राजकाज को प्रभावित किया जा सकता हो , वहां की चौधराहट उनके पास ही होनी चाहिए. देश में कहीं कोई कमेटी बने, कोई आयोग बने, कोई जांच बैठे, कोई सर्वे हो , आई ए एस वाले बाबू लोग किसी न किसी तिकड़म से वहां पंहुच जाते हैं . . ताज़ा मामला टेलिविज़न की ख़बरों को अर्दब में लेने की कोशिश से सम्बंधित है . टी आर पी के नाम पर इस देश में कुछ गैर ज़िम्मेदार न्यूज़ चैनलों ने खबरों को मजाक का विषय बना दिया था. देश के हर प्रबुद्ध वर्ग से मांग उठ रही थी कि खबरों को इस तरह से पेश करने की इन चैनलों की कोशिश पर लगाम लगाई जानी चाहिए . जब इन स्वम्भू पत्रकारों से कभी कहा जाता था, कि भाई खबरों को खबर की तरह प्रस्तुत करो , जोकरई मत करो . तो यह लोग कहते थे कि जनता यही पसंद कर रही है . ज़्यादातर नामी टी वी चैनलों पर हास्य विनोद से लदी हुई खबरें पेश की जा रही थीं . कुछ आलोचकों ने तो यहाँ तक कह दिया कि अगर यू ट्यूब बंद हो गया तो कुछ तथाकथित न्यूज़ चैनल बंद हो जायेंगें . यानी टी वी न्यूज़ चैनल के स्पेस में मनमानी और अराजकता का माहौल था . देश की नौकरशाही को इसी मौके का इंतज़ार था. चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था. खबरों को हल्का करके पेश करने वालों पर नकेल कसने की मांग चल रही थी. पर तौल रही नौकरशाही ने अपनी पहली चाल चल दी. दिल्ली में आई ए एस अफसरों के ठिकाने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पर एक बैठक हुई और उसमें कई अवकाश प्राप्त अफसरों ने अपनी अपनी राय दी. यह अफसर इतने सीनियर थे कि मुख्य चुनाव आयुक्त उनके सामने बच्चे लग रहे थे . बहर हाल उन्होंने ऐलान कर दिया कि टी वी चैनलों पर लगाम लगाए जाने की ज़रुरत है . अब यहाँ खेल की बारीकियों पर गौर करने से तस्वीर साफ़ हो जायेगी. जिन लोगों ने टी वे चैनलों पर कंट्रोल की बात की उनमें से ज़्यादातर अवकाश प्राप्त अफसर हैं . यानी अगर हल्ला गुल्ला हुआ तो सरकार बहुत ही आसानी से अपना पल्ला झाड लेगी लेकिन अगर कहीं कुछ न हुआ तो उनकी बात चीत को औपचारिक रूप दे दिया जाएगा. और मीडिया संगठनों को आई ए एस के कंट्रोल में थमा दिया जाएगा. ज़्यादातर मीडिया संगठनों के महाप्रभुओं ने इस मामले को नोटिस नहीं किया और नौकरशाही ने अगली चाल चल दी. सेल्फ रेगुलेशन की बात बहुत दिनों से चल रही थी लेकिन पैड न्यूज़ पर काबू करने के नाम पर अफसरों ने कहा कि सेल्फ रेगुलेशन से काम नहीं चलेगा. . इन मीडिया वालों को टाईट करना पड़ेगा और एक कमेटी बना दी गयी. . सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से एक कमेटी के गठन का ऐलान कर दिया गया .. अजीब बात यह है कि इस कमेटी की अध्यक्षता फिक्की के सेक्रेटरी जनरल अमित मित्रा को सौंपी गयी है . यानी जिन टी वी चैनलों के रिपोर्टरों के सामने वे घिघियाते रहते थे अब उनके मालिकों को वे तलब किया करेंगें .. पत्रकार कोटे में इस कमेटी में नीरजा चौधरी को शामिल किया गया है . डी एस माथुर नाम के एक आई ए एस अफसर भी हैं .. जबकि सूचना और प्रासारण मंत्रालय के एक अधिकारी इसके पदेन सचिव हैं . आईआईएम अहमदाबाद के डायरेक्टर को भी इसमें शामिल किया गया है . वे भी मीडिया पर नकेल कसने के चक्कर में ही रहेगें .. इस कमेटी के रिपोर्ट ३ महीने में आ जायेगी . जो लोग इस देश की नौकरशाही के मिजाज़ को समझते हैं उन्हें मालूम है कि रिपोर्ट में कुछ भी हो, किया वही जाएगा जो इस देश के आला अफसरों के हित में होगा और मीडिया की स्वतंत्रता को हमेशा के लिए दफ़न कर दिया जाएगा. इस बार मीडिया की आज़ादी को समाप्त करने वालों में सबसे ज़्यादा उन मीडिया वालों का हाथ माना जाएगा जिन्होंने मीडिया को भडैती के साथ ब्रेकट करने की गलती कर दी थी.

उम्मीद की जानी चाहिए कि पूरे देश का प्रबुद्ध वर्ग नौकरशाही की इस साज़िश के खिलाफ आवाज़ उठाएगा. क्योंकि इस देश ने मीडिया पर सरकारी कंट्रोल का ज़माना देखा है . इमरजेंसी में जब सेंसर की व्यवस्था लागू की गयी थी तो खबरों को चापलूसी में बदलते बहुत लोगों ने देखा था. उस दौर में भी कुलदीप नैय्यर जैसे कुछ लोगों ने मीडिया की आज़ादी के लिए कुरबानी दी थी और जेल गए थे . इमरजेंसी के बाद सरकार को सेंसरशिप हटानी पड़ी लेकिन तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री लाल कृष्ण आडवानी ने पत्रकारों को याद दिलाया था कि सरकार ने उनसे झुकने को कहा था और वे रेंगने लगे थे . यानी सरकारी नकेल को पत्रकार बिरादरी ने खुशी खुशी स्वीकार कर लिया था. . बाद में जगन्नाथ मिश्र के शासन के दौरान बिहार सरकार ने भी मीडिया को दबोचने का कानून बनाने की कोशिश की थी लेकिन इतना हल्ला गुल्ला हुआ कि सब ठंडे पड़ गए. और अब बहुत ही बारीक तरीके से नौकरशाही ने मीडिया को अपने कंट्रोल में लेने की कोशिश की है . उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार भी शासक वर्गों के मीडिया को अर्दब में लेने के मंसूबे को नाकाम कर दिया जाएगा.

Wednesday, May 12, 2010

मर्दवादी सोच के बौने नेता देश के दुश्मन हैं

शेष नारायण सिंह

केंद्रीय कानून मंत्री, वीरप्पा मोइली ने साफ़ कह दिया है कि हिन्दू विवाह कानून में परिवर्तन के बारे में खाप पंचायतों के सुझाव बिलकुल अमान्य हैं.. फिलहाल विवाह कानून में कोई भी बदलाव संभव नहीं है .पिछले दिनों हरियाणा, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ से ऐसे बहुत सारे केस सामने आये हैं जिसमें नौजवान लडके लड़कियों को इस लिए मार डाला गया कि उन्होंने अपने परिवार के मर्दों की मर्जी के खिलाफ शादी कर ली थी. दिल्ली के आसपास के इलाकों में समृद्धि तो आ गयी है लेकिन ज़्यादातर आबादी में सही तालीम की कमी है . जिसकी वजह से सोच अभी तक पुरातन पंथी और जाहिलाना है .. इसलिए अपनी स्त्रीविरोधी सोच को इस इलाके के लोग सही तरीके से छुपा नहीं पाते.. यह अलग बात है कि बहुत ज्यादा शिक्षित लोग भी मर्दवादी सोच के शिकार होते हैं लेकिन अपनी तालीम की वजह से वे औरतों के खिलाफ ऐसे जाल बुनते हैं कि वे हमेशा दोयम दर्जे की नागरिक बनी रहने को मजबूर रहती हैं . इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो महिलाओं को उनके जायज़ अधिकार देने के खिलाफ मर्दवादी मुहिम ही शामिल है . लेकिन देहाती इलाकों में तो हद है . मदों की दादागीरी का आलम यह है कि वह औरत की जो बुनियादी आजादी की बातें हैं उनको भी नज़रंदाज़ करके ही खुश रहते हैं . पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा के मामले मीडिया की नज़र में ज़्यादा आते हैं क्योंकि यह इलाके दिल्ली के आस पास हैं वरना जहालत की हालत उत्तर प्रदेश, बिहार , छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड आदि में एक ही स्तर की है . छत्तीस गढ़ में निरुपमा पाठक को इस मर्दवादी सोच के गुलामों ने इसलिए मार डाला कि उसने अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी चुनने का फैसला कर लिया था. उसकी मौत की खबर भी देश वासियों के सामने इसलिए आ सकी क्योंकि वह खुद मीडिया से जुडी हुई थी और दिल्ली के पत्रकारों ने मामले को उठाया . फिर भी पुरातनपंथी सोच की बुनियाद पर बनी छत्तीसगढ़ की सामंती सरकार की पुलिस उसके प्रेमी को ही फंसाने के चक्कर में है. ज़ाहिर है कि जो लड़कियां गावों में रह रही हैं और एक तरह से हाउस अरेस्ट की ज़िंदगी बिता रही हैं , उनकी तकलीफें कहीं तक नहीं पहुंचतीं . राहुल गाँधी के साथ जब दुनिया के सबसे सम्पन्न व्यक्ति , अमरीकी उद्योगपति बिल गेट्स , अमेठी के देहाती इलाकों में गए तो उन्होंने जिन लोगों से भी बात चीत की उसमें औरतें बिलकुल नहीं थीं. सडकों पर भी बहुत बड़ी संख्या में पुरुष दिख रहे थे लेकिन औरतों का नामो निशान तक नहीं था. उन्होंने लोगों से पूछा कि ऐसा क्यों है तो उन्हें बताया गया कि औरतें समाज में बाहर नहीं निकलतीं. ज़ाहिर हैं हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां औरत को मर्द से बराबरी का हक तो बिलकुल नहीं हासिल है जबकि संविधान सहित सभी स्तरों पर उन्हें बराबर का हक दिया गया है .

यह बात सबको मालूम है कि अपने देश में औरतों को हमेशा नीचा करके आँका जाता है . वह भी तब जब कि इस देश के सभी बड़े बड़े संवैधानिक पदों पर महिलायें विराजमान हैं .राष्ट्रपति, नेता विरोधी दल, सबसे बड़ी पार्टी और यू पी ए की अध्यक्ष , लोकसभा की अध्यक्ष आदि ऐसे पद हैं जिन पर महिलायें मौजूद हैं लेकिन बाकी समाज में अभी उनकी दुर्दशा ही है . आज़ादी की लड़ाई का सबक है कि हम एक समाज के रूप में महिलाओं को इज्ज़त देंगें और उनके बराबरी के हक की कोशिश को समर्थन देंगें . कम से कम राजनीतिक नेताओं से यह उम्मीद की ही जाती है , उनका कर्तव्य भी है कि वे समाज में बराबरी की व्यवस्था कायम करने में मदद करें लेकिन हरियाणा के नेताओं के आचरण इस सम्बन्ध में बहुत ही नीचता का उदाहरण है . . राज्य के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों गृहमंत्री पी चिदंबरम से मुलाक़ात की . किसी निजी स्वार्थ के काम से गए थे लेकिन साथ में एक प्रतिनिधिमंडल भी ले गए . लौट कर शेखी बघारी के उन्होंने गृहमंत्री से कह दिया है कि हिन्दू विवाह कानून में संशोधन करके अंतर जातीय विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया जाए. वे झूठ बोल रहे थे . गृह मंत्रालय की ओर से स्पष्टीकरण आ गया है कि नेता जी ने ऐसी कोई बात नहीं की थी , वे तो सिफारिश के चक्कर में आये थे . इसी तरह हरियाणा के एक नौजवान सांसद ने भी खाप पंचायत के नेताओं से कह दिया कि वे केंद्र सरकार से मांग करेंगें कि हिन्दू विवाह कानून में सुधार किया जाए. अपने व्यापार को बढ़ावा देने के लिए राजनीति में शामिल हुए यह हज़रत कुछ साल पहले तिरंगे झंडे के बहाने चर्चा में रह चुके हैं . ज़ाहिर है यह नेता लोग अज्ञानी हैं . इन्हें मालूम ही नहीं है कि जिन २७ वर्षों में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में आज़ादी लड़ाई चली उसमें औरतों को बराबरी का हक देने की बात बराबर की गयी थी लेकिन अब धंधे पानी वास्ते राजनीति कर रहे इन बौने नेताओं के बस की बात नहीं है कि यह लोग औरत की आज़ादी की लड़ाई में शामिल हों . ऐसे मौके पर ज़रूरी है यह है कि ऐसा जनमत तैयार हो जो इन पुरातनपंथी सोच वालों को सत्ता से बाहर निकालने का आन्दोलन खड़ा कर सके और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना की आज़ादी के लड़ाई की जो बुनियादी ज़रुरत थी और जिसके लिए हमारे स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों ने बलिदान दिया था , उसकी स्थापना की जा सके सबको मालूम है कि जब तक स्त्री पुरुष में हैसियत का भेद रहेगा , आज़ादी का सपना पूरा नहीं हो सकेगा.

Tuesday, May 11, 2010

सूचना क्रान्ति के इन माध्यमों को प्रणाम

शेष नारायण सिंह

जब मेरी बेटी अमरीका जा रही थी पढ़ाई करने तो मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था कि पता नहीं कब अब दुबारा भेंट होगी . लेकिन सूचना क्रान्ति ने सब कुछ बदल दिया .. एक दिन दुखी मन से बैठा दफ्तर में अपनी बेटी को याद कर रहा था कि अजय भैया( वरिष्ठ पत्रकार श्री अजय उपाध्याय ) ने बताया कि स्काईप पर जाइए और बेटी को देखिये भी ,बात भी करिए . विश्वास ही नहीं हुआ. लेकिन जब स्काईप पर अपनी बेटी का पूरा घर देखा तो बहुत खुशी हुई. फिर फेसबुक का पता चला. और जब फेसबुक पर मेरी बेटी ने मुझे दोस्त बनने की दावत दी तो मुझे बहुत खुशी हुई., उसकी क्लास में पढने वाली एक और लड़की ने मुझसे दोस्ती की, मज़ा आ गया. फिर मेरी बड़ी बेटी की दोस्ती हुई मुझसे. उसके बाद मेरे पुत्र का प्रस्ताव आया . और जब उनकी शादी पिछले साल एक दोस्त की बेटी से हो गयी तो उसने भी दोस्ती कर ली. मेरे दोस्त सुहेल की बेटी भी मेरी मित्र है . फेसबुक पर मेरी दोस्ती ज़्यादातर उन लोगों से हैं जो या तो मेरे बच्चे हैं या मेरे दोस्तों के बच्चे .बीच बीच में मेरा नाम पढ़ कर कुछ पुराने दोस्तों ने दोस्ती की. . लेकिन आज जब किन्ही मोहतरमा का फ्रांस से दोस्ती का प्रस्ताव आया तो मैंने सोचा पता नहीं कौन है . चलो स्वीकार कर लेते हैं , बाद में डिलीट कर देंगें . लेकिन जब स्वीकार कर लिया तो लगा कि मैं खुशियों के नंदन कानन में पंहुच गया हूँ . वह मोहतरमा तो बीना है , शादी के बाद नाम बदल लिया है . बीना मेरे आदरणीय ,शुभ चिन्तक और विद्वान् मित्र की बेटी है . बीना दिव्याल से मिलकर मुझे बहुत खुशी हुई है जैसी मेरी बेटी शबाना सिंह के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रवेश पर हुई थी. मैंने बीना को आज से करीब १७ साल पहले देखा था. उसके प्रोफाइल में जाकर तस्वीर देखी. बिटिया बड़ी हो गयी है . और अपनी है .

सूचना क्रान्ति के इन माध्यमों ने हम जैसे लोगों की ज़िंदगी कितनी आसान कर दी है . अभी १० साल पहले अपनी माँ से बात करने के लिए मैं उन्हें गाव के फोन बूथ पर बुलाता था , पहले से ही तय रहता था कि फलां दिन, फलां तारीख को फलां बूथ पर आ जाना .मैं दिल्ली से फोन करूंगा. उनकी पोतियों के लिए अब वह समस्या नहीं है . यह छोटा सा नोट इसलिए लिख रहा हूँ कि मैं एक नास्तिक होते हुए भी सूचना क्रान्ति के इन आलों को उसी तरह से प्रणाम करता हूँ जैसी मेरी माँ काली माई वाले नीम के पेड़ को किया करती थीं . इन आलों की वजह से ही आज मैं अपनी बात कह पा रहा हूँ .

Friday, May 7, 2010

लोहिया और आम्बेडकर ने जातिप्रथा को शोषण का हथियार माना था

शेष नारायण सिंह


संसद में जनगणना २०११ बहस का मुद्दा बन गयी है . कुछ राजनीतिक पार्टियों के कुछ नेता जाति पर आधारित जनगणना की वकालत कर रहे हैं . अजीब बात यह है कि जाति के आधार पर जनगणना करने वाले जिस राजनीतिक दार्शनिक की बातों को कार्यरूप देने की बात करते हैं , उसने जाति प्रथा के विनाश की बात की थी.. लोक सभा में जाति आधारित जनगणना के सबसे प्रबल समर्थक , मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद और शरद यादव हैं . यह तीनों ही नेता डॉ राम मनोहर लोहिया के समाजवाद के नाम पर राजनीति करते हैं और उनकी विरासत के वारिस बनने का दम भरते हैं . लेकिन सच्चाई यह है कि यह लोग डॉ लोहिया की राजनीतिक सोच के सबसे बड़े विरोधी हैं .लोहिया की सोच का बुनियादी आधार था कि समाज से गैर बराबरी ख़त्म हो . इसके लिए उन्होंने सकारात्मक हस्तक्षेप की बात की थी . उनका कहना था कि जाति की संस्था का आधुनिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में कोई योगदान नहीं है , वास्तव में पिछले हज़ारों वर्षों का इतिहास बताता है कि ब्राह्मणों और शासक वर्गों ने जाति की संस्था का इस्तेमाल करके ही पिछड़े वर्गों और महिलाओं का शोषण किया था . इसलिए लोहिया ने जाति के विनाश को अपनी राजनीतिक और सामाजिक सोच की बुनियाद में रखा था . वे दलित, किसान और मुसलमान जातियों को पिछड़ा मानते थे . उन्होंने यह भी बहुत जोर दे कर कहा था कि महिला किसी भी जाति की हो, वह भी पिछड़े वर्गों की श्रेणी में ही आयेगी क्योंकि समाज के सभी वर्गों में महिलाओं को अपमानित किया जाता था और उन्हें दोयम दर्जे का इंसान समझा जाता था . इस लिए उन्होंने इन लोगों के प्रति सकारात्मक दखल की बात की थी लेकिन वे इन वर्गों को अनंत काल तक पिछड़ा नहीं न्रखना चाहते थे . उनकी कोशिश थी कि यह वर्ग समाज के शोषक वर्गों के बराबर हो जाएँ. अपने इसी सोच को अमली जामा पहनाने के लिए उन्होंने कांग्रेस से अलग हो कर सोशलिस्ट पार्टी के गठन की प्रक्रिया में शामिल होने का फैसला किया था. . वे जाति के आधार पर शोषण का हर स्तर पर विरोध करते थे . लेकिन उनके नाम पर सियासत करने वालों का हाल देखिये . उनकी विरासत का दावा करने वाली सभी पार्टियां जाति व्यवस्था को जारी रखने में ही अपनी भलाई देख रही हैं क्योंकि जाति के गणित के आधार पर ही आजकल चुनाव लड़े और जीते जा रहे हैं . इन पार्टियों के सभी नेताओं ने महिलाओं के आरक्षण के बिल का भी विरोध किया है . उनका बहाना यह है कि जब तक पिछड़ी जाति की महिलाओं को अलग से आरक्षण नहीं दे दिया जाता , वे महिला आरक्षण बिल को पास नहीं होने देंगें .. इस मामले में यह सभी लोग डॉ लोहिया के खिलाफ खड़े पाए जा रहे हैं क्योंकि लोहिया ने तो साफ़ कहा था कि सभी जातियों की महिलायें पिछड़ी हुई हैं और उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए .

जाति को जिंदा रखने की कोशिश करने वाली एक दूसरी पार्टी है बहुजन समाज पार्टी . इस पार्टी की स्थापना घोषित रूप से डॉ. भीम राव आम्बेडकर की राजनीतिक सोच को लागू करने के लिए की गयी है . डॉ आम्बेडकर की राजनीति का स्थायी भाव जाति प्रथा का विनाश था. उनकी कालजयी किताब "; जाति का विनाश " भारतीय राजनीति का एक बहुत ही ज़रूरी दस्तावेज़ है . जिसमें उन्होंने समाज में गैरबराबरी के लिए जाति की संस्था को ही ज़िम्मेदार ठहराया है. जाति की स्थापना से लेकर बीसवीं सदी तक जाति व्यवस्था ने जो नुकसान किया है , उस सबका पूरा लेखा जोखा, डॉ आम्बेडकर की किताबों में मिल जाता है . उन्होंने जाति के विनाश के लिए बिलकुल वैज्ञानिक तरीके सुझाए थे और उनका कहना था कि जब तक जाति की संस्था को जड़ से उखाड़ नहीं फेंका जाएगा तब तक देश का राजनीतिक विकास नहें हो सकता . उनके नाम पर सियासत करने वाली बहुजन समाज पार्टी से उम्मीद की जा रही था कि वह अपने आदर्श राजनेता और दार्शनिक ,डॉ आम्बेडकर की बातों को लागूकरेगी . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बहुजन समाज पार्टी की नेता , मायावती ने जिस तरह की योजनायें बनायी हैं उस से जाति व्यवस्था कभी ख़त्म ही नहीं होगी. उन्होंने न केवल दलितों को अलग थलग रखने की कोशिश शुरू कर दी है बल्कि अन्य जातियों को भी बनाए रखना चाहती हैं .उन्होंने अलग अलग जातियों के संगठन बना रखे हैं और सबको जातीय आधार पर संबोधित करके राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रही हैं .. ज़ाहिर है कि उनकी रूचि भी जातियों को बनाए रखने में ही है .

जाति के आधार पर जनगणना करवाने वालों को समय की गति को उल्टा करने का हक नहीं है . समाज के अपने गतिविज्ञान की वजह से ही जाति के विनाश की प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है . पिछले ५० वर्षों में ऐसे बहुत सारे लोगों ने आपस में विवाह कर लिया है जो अलग अलग जातियों के हैं और समाज में इज्ज़त के ज़िंदगी जी रहे हैं . उनके बच्चों को किस जाति में रखा जायेगा. आम तौर पर मर्दवादी सोच के लोग कह देते हैं कि अपने बाप की जाति को ही बच्चों को स्वीकार कर लेना चाहिए लेकिन इसे स्वीकार करने में बहुत बड़ी दिक्क़त है . जिन बच्चों के माँ बाप ने अलग जाति में शादी करने का फैसला किया था उन्होंने जाति प्रथा के शिकंजे को चुनौती दी थी . अब उन बहादुर नौजवानों की अगली पीढी को जाति के ज़ंजीर में कस देने की कोशिश का हर तरह से विरोध किया जाना चाहिए . इसलिए समय की गति की धार में चलते हुए जाति वादी सोच की मौत बहुत करीब है और जाति को आधार बना कर राजनीति करने वालों को अब किसी और सोच को विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए . जाति के आधार पर सियासत की रोटी सेंकने वालों को अब भूखों मरने के लिए तैयार रहना चाहिए . क्योंकि जातिप्रथा को अब कोई भी जिंदा नहीं रख सकेगा . उसका अंत बहुत करीब है .

Wednesday, May 5, 2010

बेटी को कमज़ोर समझने वाले बहुत नीच होते हैं

शेष नारायण सिंह

नयी दिल्ली के एक अखबार में काम करने वाली एक लड़की को उसके घर वालों ने मार डाला. वह झारखण्ड से अपने सपनों को साकार करने के लिए दिल्ली आई थी. जहां उसने देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान से पढाई की और एक सम्मानित अखबार में नौकरी कर ली. उसकी शिक्षा दीक्षा में उसके माता पिता ने पूरी तरह से सहयोग किया , खर्च बर्च किया, लड़की को दिल्ली भेजा जो उनके लिए एक बड़ा फैसला था. लेकिन इसके बाद वे चाहते थे कि लड़की उनके हुक्म की गुलाम बनी रहे, उनकी शेखी बढाने में काम आये, रिश्तेदारों के बीच वे डींग मार सकें कि उनकी बेटी ने बहुत ही आला दर्जे के पढाई की है और दिल्ली के एक नामी अखबार में काम करती है लेकिन उस लड़की को बाकी आज़ादी देने के पक्ष में वे नहीं थे ..वे चाहते थे कि वे अपनी पसंद के किसी ऊंचे परिवार में उसकी शादी करें और उनका मुकामी रंग और चोखा हो . जहालत का आलम यह था कि जब उन्हें लगा कि उनकी हर ख्वाहिश नहीं पूरी हो रही है तो उन्होंने अपनी ही बेटी को मार डाला. . पुलिस ने लड़की की माँ को गिरफ्तार कर लिया है और उसके परिवार के अन्य लोगों को केंद्र में रख कर जांच चल रही है . लड़की के पिता ने तर्क दिया है कि उन्होंने अपनी बेटी को इतना खर्च करके पढ़ाया लिखाया तो उसे मारने जैसा काम वे क्यों करेंगें . . सवाल यह पैदा होता है कि अगर आपने अपनी लड़की को अच्छी शिक्षा दी तो क्या आप ने उस पर अहसान किया ? आधुनिक समझ का तकाजा है कि बच्चों को शिक्षा देकर माता पिता उस पर कोई अहसान नहीं करते, वे वास्तव में अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहे होते हैं . आधुनिक सोच की यह समझ अगर लोगों में आ जाए तो बहुत कुछ बदल सकता है.

यह देश और समाज का दुर्भाग्य है कि पुरातनपंथी सोच के गुस्से में पागल समाज की नैतिकता के ठेकेदार जब किसी लड़की को इस लिए हलाल करते हैं कि उसने अपनी शिक्षा का इस्तेमाल आधुनिक सोच पर आधारित फैसले करने के लिए किया तो कहीं भी कोई जुम्बिश नहीं होती. उस लड़की को अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने से रोकने वाले इन् फासिस्टों को घेरने की ज़रुरत है हरियाणा ,उत्तर प्रदेश , पंजाब ,बिहार ,मध्य प्रदेश में इस तरह की वहशत फैल चुकी है लेकिन कोई भी नेता इसके खिलाफ बोलता नहीं . ज़ाहिर है कि वैज्ञानिक सोच और समझदारी का जो सपना हमारी आजादी के सेनानियों ने देखा था वह रसातल तक पंहुच चुका है और नेता जाति के इंसान की हिम्मत नहीं है कि समाज को इंसानी तरीके से जिंदा रहने के लिए प्रेरित कर सके. निरुपमा के केस में भी कोई नेता आगे नहीं आया. शुक्र है कि नए मीडिया में बहुत सारे ऐसे नौजवान सक्रिय हैं जो सच के पक्ष में खड़े होने में संकोच नहीं करते . आज निरुपमा की हत्या के मामले को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाने में मीडिया के इन्हीं अभिमन्यु योद्धाओं क योगदान है . जागरूक बुद्धिजीवियों को चाहिए कि मीडिया के इन महारथियों के साथ खड़े हों और यह सुनिश्चित करें कि कहीं कोई जयद्रथ इन वीरों को हज़म करने की कोशिश न करे,.


जिस लड़की को जातिवादी व्यवस्था ने हलाल किया उसका नाम निरुपमा था, ब्राह्मण माँ बाप की बेटी थी और उसने एक ऐसे लडके से दोस्ती कर ली थी जो ब्राह्मण नहीं था. जाति वाद के फासिस्टों को पागल कर देने के लिए इतना ही काफी था. उन्होंने उसे मार डाला. यह हादसा किसी एक परिवार का नहीं है , कम समझ वाले ज़्यादातर मध्यवर्गीय सवर्ण परिवारों में जो भी लड़कियां हैं वे सभी निरुपमा बन सकती हैं . क्योंकि सवर्ण होने का जो अहंकार है वह आदमी के विवेक को दफ़न कर देता है . इस निरुपमा की माँ भी इसी अहंकार का शिकार हुई और उसने अपनी ही बेटी को पुरातनपंथी सोच के मकतल में झोंक दिया. . आज इस तरह की सोच को छोड़ देने की ज़रुरत है . अपनी बेटी को शिक्षित करके उसे अपने दरवाज़े पर हाथी बाँध लेने की मानसिकता को ख़त्म कर देने की ज़रुरत है . अगर ऐसा न हुआ तो देश और समाज का विकास रुक जाएगा.. और इस लिए ज़रुरत इस बात की है कि समाज के लोग आगे आयें और निरुपमा की हत्या करने वालों के खिलाफ लामबंद हों . यह निरुपमा हर घर में मौजूद है .लड़की को कमज़ोर मानने वाली जमातों को भी यह बता देने की ज़रुरत है कि लड़की कमज़ोर नहीं होती. वह इंसान होती है और लड़कों के बराबर होती है . बहुत सारे ऐसे परिवारों को देखा गया है जहां लड़का तो चाहे जितनी लड़कियों से दोस्ती करता रहे , बुरा नहीं माना जाता लेकिन अगर लड़की ने किसी से दोस्ती कर ली तो परिवार की प्रतिष्ठा पर आंच आने लगती है . इस सोच में बुनियादी खोट है और इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए . अगर ऐसा न हुआ तो अपना समाज बहुत पिछड़ जाएगा और विकास की गाडी जाति वाद के दल दल में जाकर फंस जायेगी. होना तो यह चाहिए था कि राजनीतिक स्तर पर जाति के विनाश के कार्यक्रम चलाये जाते क्योंकि आज के सभी राजनीतिक पार्टियों के महापुरुषों ने जाति के विनाश की वकालत की है लेकिन महात्मा गाँधी ,आम्बेडकर, लोहिया, फुले, पेरियार जैसे नेताओं के नाम पर राजनीति करने वाले लोग आज जाति की संस्था को बनाए रखने में अपना फायदा देख रहे हैं . राजनीति के इन प्यादों की मुखालिफत की जानी चाहिए . लेकिन सवाल उठता है कि करेगा कौन . यह काम वही संस्था करेगी जिसकी वजह से निरुपमा के हत्यारों के दरवाज़े पर कानून की दस्तक पड़ रही है . और यह संस्था आज का नया मीडिया है जिसमें टेलीविज़न वाले भी थोडा बहुत योगदान दे रहे हैं .बाकी मीडिया को भी चाहिए कि वह जाति के विनाश की इस मुहिम में शामिल हो और आने वाले वक़्त में कोई भी निरुपमा जातिवादी जल्लादों का शिकार न बने.

Friday, April 23, 2010

लाहौर से लेकर हैदराबाद तक ---दंगे प्रापर्टी डीलर ही करवाते हैं

शेष नारायण सिंह


पिछले साठ साल में जितने दंगे हुए, सब के बाद फायदा प्रापर्टी डीलरों का ही हुआ. १९४६ का लाहौर का दंगा हो या २०१० का हैदराबाद का .हर दंगे की तरह , मार्च में हैदराबाद में हुआ दंगा भी निहित स्वार्थ वालों ने करवाया था. नागरिक अधिकारों के क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ताओं ने पता लगाया है कि २३ मार्च से २७ मार्च तक चले दंगे में ज़मीन का कारोबार करने वाले माफिया का हाथ था. यह लोग बी जे पी, मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन और टी डी पी के नगर सेवकों को साथ लेकर दंगों का आयोजन कर रहे थे . सिविल लिबर्टीज़ मानिटरिंग कमेटी,कुला निर्मूलन पुरता समिति, पैट्रियाटिक डेमोक्रेटिक मूवमेंट, चैतन्य समाख्या और विप्लव रचैतुला संगम नाम के संगठनों की एक संयुक्त समिति ने पता लगाया है कि दंगों को शुरू करने में मुकामी आबादी का कोई हाथ नहीं था. शुरुआती पत्थरबाजी उन लोगों ने की जो कहीं से बस में बैठ कर आये थे. कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि वे लोग अपने साथ पत्थर भी लाये थे और किसी से फोन पर लगातार बात कर के मंदिरों और मस्जिदों को निशाना बना रहे थे . करीब एक हफ्ते तक चले इस दंगे में ३६ मस्जिदें और ३ मंदिरों पर हमला किया गया. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ईद मिलादुन्नबी के मौके पर करीब एक महीने पहले मुसलमानों ने मदनपेट मोहल्ले में कुछ बैनर लगाए थे . २३ मार्च को जब हिन्दुओं ने राम नवमी का आयोजन किया तो उन्होंने मुसलमानों एक बुजुर्गों से कहा कि बैनर हटवा दें . तय हुआ कि शाम तक हटवा दिए जायेंगें लेकिन मुकामी बी जे पी नगर सेवक झगड़े पर आमादा था. उसने मुसलमानों के झंडों के ऊपर अपने झंडे लगवाने शुरू कर दिए . फिर पता नहीं कहाँ से बसों में बैठकर आये कुछ लोगों ने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. जवाबी कार्रवाई में मुसलमानों की हुलिया वाले कुछ नौजवानों ने पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. वे भी बाहर से ही आये थे. मोहल्ले के लोगों की समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है . लेकिन तब तक बी जे पी के कार्यकर्ता मैदान ले चुके थे . उधर से एम आई एम वाले नेता ने भी अपने कारिंदों को ललकार दिया , वे भी पत्थर फेंकने लगे. चारों तरफ बद अमनी फैल गयी . बी जे पी और मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के कार्यकर्ताओं ने अफवाहें फैलाना शुरू कर दिया. एक बार अगर मामूली साम्प्रदायिक झड़प को भी अफवाहों की खाद मिल जाए तो फिर दंगा शुरू हो जाता है , यह बात सभी जानते हैं .बहर हाल हैदराबाद में दंगा इस हद तक बढ़ गया कि कई दिन तक कर्फ्यू लगा रहा .

कमेटी के जांच से पता चला है कि दंगा शुद्ध रूप से प्रापर्टी डीलरों ने करवाया था क्योंकि उनकी निगाह शहर की कुछ ख़ास ज़मीनों पर थी. इन प्रापर्टी डीलरों में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी. और यह सभी धंधे के मामले में एक दूसरे के साथी भी हैं . यहाँ तक कि इनके व्यापारिक हित भी साझा हैं .हैदराबाद में साम्प्रदायिक तल्खी उतनी नहीं है जितनी कि उत्तर भारत के कुछ शहरों में है . शायद इसी लिए प्रापर्टी डीलरों ने पत्थरबाजी करने वालों को बाहर से मंगवाया था . कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जो लोग पत्थर फेंक रहे थे वे देखने से भी हैदराबादी नहीं लगते थे . नागरिक अधिकार के ल;इए संघर्ष करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं ने बताया कि हैदराबाद में पहली बार किसी दंगे में इतनी बड़ी संख्या में मस्जिदें और मंदिर तबाह किये गए हैं . इन् पूजा स्थलों की ज़मीन अब बाकायदा इसी भूमाफिया की निगरानी में है . कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक बी जे पी का नगर सेवक, सहदेव यादव और तेलुगु देशम पार्टी का मंगलघाट का नगरसेवक राजू सिंह मुख्य रूप से दंगे करवाने में शामिल थे . इन्हें इस इलाके के उन प्रापर्टी डीलरों से भी मदद मिल रही थी जो चुनाव में मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के लिए काम करते हैं .

जैसा कि आम तौर पर होता है कि दंगे में हत्या और लूट का तांडव करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती , यहाँ भी लोगों को यही शक़ है. लेकिन पिछले दिनों कुछ ऐसे मामले आये हैं जहां दंगाइयों को कानून की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा और उन्हें सज़ा हुई, आज़ादी के बाद से अब तक हुए दंगों में लाखों लोगों की जान गयी है . मरने वालों में हिन्दू, मुसलमान,सिख और ईसाई सभी रहते हैं लेकिन कुछ मामलों को छोड़ कर कभी कार्रवाई नहीं होती. आन्ध्र प्रदेश में आजकल कांग्रेस की सरकार है . दिल्ली में कांग्रेसी नेता आजकल मुसलमानों के पक्ष धर के रूप में अपनी छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें चाहिए कि अपने मुख्य मंत्री को सख्त हिदायत दें कि हैदराबाद में मार्च में हुए दंगों की बाकायदा जांच करवाएं और जो भी दोषी हों उन्हें सख्त सज़ा दिलवाएं . अगर ऐसा हो सका तो भविष्य में दंगों में हाथ डालने के पहले नेता लोग भी बार बार सोचेंगें . वरना यह दंगे एक ऐसी सच्चाई हैं जो अपने देश के विकास में बहुत बड़ी बाधा बना कर खडी है . इन दंगों पर सख्त रुख की इस लिए भी ज़रुरत है कि बी जे पी वाले फिर से हिन्दुत्व की ढपली बजाना शुरू कर चुके हैं . यह देश की शान्ति प्रिय आबादी के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है . क्योंकि जब १९८६ में बी जे पी ने हिन्दुत्व का काम शुरू किया था तो पूरे देश में तरह तरह के दंगें हुए थे , आडवानी की रथ यात्रा हुई थी और बाबरी मस्जिद को तबाह किया गया था. वह तो जब बी जे पी वालों की सरकार दिल्ली में बनी तब जाकर कहीं दंगे बंद हुए थे ..इस लिए अगर नेताओं के हाथ में कठपुतली बनने वाला दंगाई पार्टियों का छोटा नेता अगर जेल जाने की दहशत की ज़द में नही लाया जाता तो आर एस एस की दंगे फैलाने की योजना बन चुकी है और राष्ट्र को चाहिए कि इस से सावधान रहे .