शेष नारायण सिंह
नयी दिल्ली के एक अखबार में काम करने वाली एक लड़की को उसके घर वालों ने मार डाला. वह झारखण्ड से अपने सपनों को साकार करने के लिए दिल्ली आई थी. जहां उसने देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान से पढाई की और एक सम्मानित अखबार में नौकरी कर ली. उसकी शिक्षा दीक्षा में उसके माता पिता ने पूरी तरह से सहयोग किया , खर्च बर्च किया, लड़की को दिल्ली भेजा जो उनके लिए एक बड़ा फैसला था. लेकिन इसके बाद वे चाहते थे कि लड़की उनके हुक्म की गुलाम बनी रहे, उनकी शेखी बढाने में काम आये, रिश्तेदारों के बीच वे डींग मार सकें कि उनकी बेटी ने बहुत ही आला दर्जे के पढाई की है और दिल्ली के एक नामी अखबार में काम करती है लेकिन उस लड़की को बाकी आज़ादी देने के पक्ष में वे नहीं थे ..वे चाहते थे कि वे अपनी पसंद के किसी ऊंचे परिवार में उसकी शादी करें और उनका मुकामी रंग और चोखा हो . जहालत का आलम यह था कि जब उन्हें लगा कि उनकी हर ख्वाहिश नहीं पूरी हो रही है तो उन्होंने अपनी ही बेटी को मार डाला. . पुलिस ने लड़की की माँ को गिरफ्तार कर लिया है और उसके परिवार के अन्य लोगों को केंद्र में रख कर जांच चल रही है . लड़की के पिता ने तर्क दिया है कि उन्होंने अपनी बेटी को इतना खर्च करके पढ़ाया लिखाया तो उसे मारने जैसा काम वे क्यों करेंगें . . सवाल यह पैदा होता है कि अगर आपने अपनी लड़की को अच्छी शिक्षा दी तो क्या आप ने उस पर अहसान किया ? आधुनिक समझ का तकाजा है कि बच्चों को शिक्षा देकर माता पिता उस पर कोई अहसान नहीं करते, वे वास्तव में अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहे होते हैं . आधुनिक सोच की यह समझ अगर लोगों में आ जाए तो बहुत कुछ बदल सकता है.
यह देश और समाज का दुर्भाग्य है कि पुरातनपंथी सोच के गुस्से में पागल समाज की नैतिकता के ठेकेदार जब किसी लड़की को इस लिए हलाल करते हैं कि उसने अपनी शिक्षा का इस्तेमाल आधुनिक सोच पर आधारित फैसले करने के लिए किया तो कहीं भी कोई जुम्बिश नहीं होती. उस लड़की को अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने से रोकने वाले इन् फासिस्टों को घेरने की ज़रुरत है हरियाणा ,उत्तर प्रदेश , पंजाब ,बिहार ,मध्य प्रदेश में इस तरह की वहशत फैल चुकी है लेकिन कोई भी नेता इसके खिलाफ बोलता नहीं . ज़ाहिर है कि वैज्ञानिक सोच और समझदारी का जो सपना हमारी आजादी के सेनानियों ने देखा था वह रसातल तक पंहुच चुका है और नेता जाति के इंसान की हिम्मत नहीं है कि समाज को इंसानी तरीके से जिंदा रहने के लिए प्रेरित कर सके. निरुपमा के केस में भी कोई नेता आगे नहीं आया. शुक्र है कि नए मीडिया में बहुत सारे ऐसे नौजवान सक्रिय हैं जो सच के पक्ष में खड़े होने में संकोच नहीं करते . आज निरुपमा की हत्या के मामले को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाने में मीडिया के इन्हीं अभिमन्यु योद्धाओं क योगदान है . जागरूक बुद्धिजीवियों को चाहिए कि मीडिया के इन महारथियों के साथ खड़े हों और यह सुनिश्चित करें कि कहीं कोई जयद्रथ इन वीरों को हज़म करने की कोशिश न करे,.
जिस लड़की को जातिवादी व्यवस्था ने हलाल किया उसका नाम निरुपमा था, ब्राह्मण माँ बाप की बेटी थी और उसने एक ऐसे लडके से दोस्ती कर ली थी जो ब्राह्मण नहीं था. जाति वाद के फासिस्टों को पागल कर देने के लिए इतना ही काफी था. उन्होंने उसे मार डाला. यह हादसा किसी एक परिवार का नहीं है , कम समझ वाले ज़्यादातर मध्यवर्गीय सवर्ण परिवारों में जो भी लड़कियां हैं वे सभी निरुपमा बन सकती हैं . क्योंकि सवर्ण होने का जो अहंकार है वह आदमी के विवेक को दफ़न कर देता है . इस निरुपमा की माँ भी इसी अहंकार का शिकार हुई और उसने अपनी ही बेटी को पुरातनपंथी सोच के मकतल में झोंक दिया. . आज इस तरह की सोच को छोड़ देने की ज़रुरत है . अपनी बेटी को शिक्षित करके उसे अपने दरवाज़े पर हाथी बाँध लेने की मानसिकता को ख़त्म कर देने की ज़रुरत है . अगर ऐसा न हुआ तो देश और समाज का विकास रुक जाएगा.. और इस लिए ज़रुरत इस बात की है कि समाज के लोग आगे आयें और निरुपमा की हत्या करने वालों के खिलाफ लामबंद हों . यह निरुपमा हर घर में मौजूद है .लड़की को कमज़ोर मानने वाली जमातों को भी यह बता देने की ज़रुरत है कि लड़की कमज़ोर नहीं होती. वह इंसान होती है और लड़कों के बराबर होती है . बहुत सारे ऐसे परिवारों को देखा गया है जहां लड़का तो चाहे जितनी लड़कियों से दोस्ती करता रहे , बुरा नहीं माना जाता लेकिन अगर लड़की ने किसी से दोस्ती कर ली तो परिवार की प्रतिष्ठा पर आंच आने लगती है . इस सोच में बुनियादी खोट है और इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए . अगर ऐसा न हुआ तो अपना समाज बहुत पिछड़ जाएगा और विकास की गाडी जाति वाद के दल दल में जाकर फंस जायेगी. होना तो यह चाहिए था कि राजनीतिक स्तर पर जाति के विनाश के कार्यक्रम चलाये जाते क्योंकि आज के सभी राजनीतिक पार्टियों के महापुरुषों ने जाति के विनाश की वकालत की है लेकिन महात्मा गाँधी ,आम्बेडकर, लोहिया, फुले, पेरियार जैसे नेताओं के नाम पर राजनीति करने वाले लोग आज जाति की संस्था को बनाए रखने में अपना फायदा देख रहे हैं . राजनीति के इन प्यादों की मुखालिफत की जानी चाहिए . लेकिन सवाल उठता है कि करेगा कौन . यह काम वही संस्था करेगी जिसकी वजह से निरुपमा के हत्यारों के दरवाज़े पर कानून की दस्तक पड़ रही है . और यह संस्था आज का नया मीडिया है जिसमें टेलीविज़न वाले भी थोडा बहुत योगदान दे रहे हैं .बाकी मीडिया को भी चाहिए कि वह जाति के विनाश की इस मुहिम में शामिल हो और आने वाले वक़्त में कोई भी निरुपमा जातिवादी जल्लादों का शिकार न बने.
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Wednesday, May 5, 2010
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