शेष नारायण सिंह
सारी दुनिया जानती है कि भ्रष्टाचार अपने देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है . लेकिन सबको यह भी मालूम है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना बहुत आसान नहीं है .सरकार ने बहुत सारे ऐसे विभाग बना रखे हैं जिनका काम भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना है लेकिन देखा यह गया है कि भ्रष्टाचार को रोकने की कोशिश करने वाले विभागों के अफसर उसी भ्रष्टाचार के आशीर्वाद से बहुत ही संपन्न हो जाते हैं . सबसे दिलचस्प बात यह है कि लगभग सभी भ्रष्टाचारी अपनी अपनी छतों पर खड़े हो कर बांग देते रहते हैं कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करना ज़रूरी है लेकिन उनकी पूरी कोशिश यही रहती है कि चोरी-बे ईमानी का धंधा चलता रहे .
एक बात और भी बहुत सच है कि सभी अफसर भ्रष्ट नहीं होते , कुछ बहुत ही ईमान दार होते हैं . उत्तर प्रदेश जैसे भ्रष्ट अफसर शाही वाले राज्य में भी कुछ ऐसे ईमानदार अफसर हैं कि कि वे दामन निचोड़ दें तो अमृत हो जाए . लेकिन वे संख्या में बहुत कम हैं लेकिन हैं ज़रूर . उत्तर प्रदेश के इन्हीं ईमानदार अफसरों ने अपने ही बीच के भ्रष्ट अफसरों की लिस्ट बनायी थी लेकिन कुछ कर नहीं सके क्योंकि उन्हीं भ्रष्टतम अफसरों में से कुछ तो मुख्य सचिव की गद्दी तक पंहुच गए.राज्य में भ्रष्टाचार कम करने की कोशिश कर रहे ऐसे ही एक अफसर , विजय शंकर पाण्डेय ने अपने एक ताज़ा लेख में लिखा है कि आई ए एस अफसर की संपत्ति के हर पैसे का हिसाब होना चाहिए . निजी जीवन में भी श्री पाण्डेय ईमान दार हैं . लेकिन कुछ नहीं कर पा रहे हैं . बहर हाल एक खुशी की खबर है कि कुछ अवकाश प्राप्त सिविल, पुलिस और न्यायपालिका के अधिकारियों ने एक नयी पहल शुरू की है जिसके तहत सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को ख़त्म करने में मदद मिलेगी. इन अधिकारियों ने एक सार्वजनिक अपील भी जारी की है और आम जनता से कहा है कि अगर सब चौकन्ना रहें तो अपने देश की संपत्ति को बे-ईमान अफसरों और नेताओं से बचाया जा सकता है . भारत के पूर्व मुख्य नायाधीश , जस्टिस आर सी लाहोटी, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिन्दोह, पूर्व सी ए जी वीके शुंगलू पूर्व पुलिस महानिदेशकों प्रकाश सिंह और जे एफ रिबेरो आदि ईमान दार लोगों की तरफ से जारी एक बयान में लोगों से अपील की गयी है कि बड़े आदमियों की बीच के भ्रष्टाचार को रोकने और भारत की चोरी की गयी सम्पदा को वापस लेने के लिए एक अभियान की ज़रुरत है .अपील में कहा गया है कि भारत सरकार के सर्वोच्च पदों पर रह चुके लोगों में इस बात पर एक राय है कि कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे को बहता है . और जब तक टाप पर बैठे लोगों को अपने काम में ईमानदारी से रहने को मजबूर नहीं किया जाएगा, इस देश का कोई भला नहीं हो सकता. भ्रष्टाचार इस देश में अपराध है . इसलिए भ्रष्ट और घूसखोर सरकारी अधिकारियों को गिरफ्तार करके जेल भेजना चाहिए . . बड़े पदों पर काम करने वाले लोगों को अपनी सारी संपत्ति का हिसाब देना चाहिए और उसे सार्वजनिक करना चाहिए . इन बड़े अधिकारियों ने साफ़ कहा है कि भ्रष्ट सरकारी अफसर अक्सर बच जाते हैं क्योंकि उन्हें सज़ा देने की जिनकी ज़िम्मेदारी होती है , वही भ्रष्ट होते हैं .. इन लोगों को ज़बरदस्त सज़ा दी जानी चाहिए. . घूस की कमाई का करीब सत्तर लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है, उसको वापस लाने की कोशिश की जानी चाहिए . अगार विदेश में जमा किया गया इन बेईमानों का पैसा वापस लाया गया तो अपने देश की गरीबी हमेशा के लिए हट जायेगी. अपील में कहा गया है कि मौजूदा सिस्टम बिलकुल बेकार हो चुका है . क्योंकि भ्रष्टाचार से लड़ने की अपनी विश्वसनीयता गंवा चुका है . . जिन लोगों को ज़िम्मेदारी के पदों पर बैठाया गया है ,उनमें बहुत सारे लोग भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं के सामने गिडगिडाने लगते हैं . यह बिलकुल गलत बात है . इस पर भी रोक लगानी चाहिए . भ्रष्टाचार और अपराध के बीच बहुत ही गहरा सम्बन्ध है . और दोनों ही एक दूसरे को बढ़ावा देते हैं . इन दोनों के घाल मेल की वजह से ही फासिज्म का जन्म होता है जिसमें लोक तंत्र को पूरी तरह से दफ़न कर देने की ताक़त होती है .. इन ईमानदार अफसरों का कहना है कि अगर अपने मुल्क में लोक तंत्र को जिंदा रखना है कि भ्रष्टाचार को जड़ से तबाह करना होगा.
लेकिन यह इतना आसान नहीं है . सभी जानते हैं कि घूस और भ्रष्टाचार में शामिल ज़्यादातर लोग बहुत ही ताक़त वर लोग हैं . उन्हें उनकी जगहों से बे दखल कर पाना आसान नहीं होगा. लेकिन अपील में कहा गया है कि भ्रष्टाचार में शामिल लोगों को पकड़ने और उन्हें जेल भेजने के लिए एक आन्दोलन की ज़रुरत है. ज़रुरत इस बात की भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुहिम में शामिल हों और सवाल पूछें. . इन पूर्व अधिकारियों ने एक वेबसाईट भी बनाया है जिसमें आन्दोलन की रूप रेखा बतायी गयी है . इन लोगों ने बहुत सारे लेख भी छापे हैं जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लड़ाई को मज़बूत करने की अपील की गयी है . ऐसा ही एक लेख उत्तर प्रदेश के कद्दावर अफसर विजय शंकर पाण्डेय का है जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत दिनों से एक मुहिम चला रखी है . सवाल पैदा होता है कि क्या श्री पाण्डेय जैसा अफसर अपने आस पास नज़र डालने पर सब कुछ बहुत ही ईमानदारी से भरा हुआ पाता है . क्या उन्होंने अपने दफतर या बगल वाले कमरे में चल रहे बे ईमानी की सौदों पर कभी नज़र डाली है . सही बात यह है कि जब तक केवल बातों बातों में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जायेगी तब तक कुछ नहीं होगा . इस आन्दोअल्न को अगर तेज़ करना है कि तो घूस के पैसे को तिरस्कार की नज़र से देखना पड़ेगा . क्योंकि सारी मुसीबत की जड़ यही है कि चोर, बे-ईमान और घूसखोर अफसर और नेता रिश्वत के बल पर समाज में सम्मान पाते रहते हैं . उत्तर प्रदेश सरकार में बहुत बड़े पद पर बैठे श्री पाण्डेय के लिए यह बहुत ज़रूरी है . क्योंकि उनकी निजी ईमानदारी बेमिसाल है लेकिन जब तक सिस्टम में ईमनदारी नहीं होगी समाज का भला नहीं होगा.
अपने देश में पिछले २० वर्षों में घूसखोरी को सम्मान का दर्जा मिल गया है . वरना यहाँ पर दस हज़ार रूपये का घूस लेने के अपराध में जवाहर लाल नेहरू ने , अपने एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया था . लेकिन इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं . इसी देश में जैन हवाला काण्ड हुआ था जिसमें सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता शामिल थे . स्वर्गीय मधु लिमये अपनी मृत्यु के पहले इस बात को लेकर बहुत दुखी रहा करते थे . सरकारी कंपनियों में विनिवेश के नाम पर जो घूसखोरी इस देश में हुई है उसे पूरे देश जानता है . उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव के यहाँ से २५० करोड़ रूपये ज़ब्त किये गए थे . इस तरह के हज़ारों मामले हैं जिन पर लगाम लगाए बिना भ्रष्टाचार को खत्म कर सकना असंभव है . इस लिए पूर्व सरकारी अधिकारियों की इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और मीडिया समेत सभी ऐसे लोगों को सामने आना चाहिए जो पब्लिक ओपीनियन को दिशा देते हैं ताकि अपने देश और अपने लोक तंत्र को बचाया जा सके.
Sunday, April 11, 2010
Monday, April 5, 2010
मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश
शेष नारायण सिंह
बड़े जोर शोर से प्रचार करने के बाद भी ,मुंबई में महेश दत्तानी के नाटक 'सारा' के खिलाफ तोड़ फोड़ करने के अपने फैसले को शिव सेना लागू नहीं कर सकी. और जब पुलिस ने माहौल बहुत ही गरम कर दिया तो शिव सेना के एक छुट भैया नेता ने घोषणा कर दी कि पार्टी ने विरोध करने के अपने फैसले को स्थगित कर दिया है . यह अलग बात है कि जब यह बयान आया तो थियेटर पर विरोध करने गए दो चार शिव सैनिक पिट कर वापस आ चुके थे .और पुलिस बाकी लोगों को धमका रही थी. बान्द्रा के एक नामी थियेटर में नाटक के प्रदर्शन की घोषणा के बाद शिव सेना ने अपने पुराने तरीकों का इस्तेमाल करते हुए नाटक के प्रदर्शन के दौरान तोड़ फोड़ की धमकी देकर अपने वसूली के धंधे को परवान चढाने की कोशिश की थी लेकिन पुलिस की सख्ती के आगे उनकी एक न चली और भागना पड़ा . उनका विरोध नाटक के पाकिस्तानी होने के कारण था. जब की सच्चाई है है कि नाटक भारतीय था,अलबत्ता उसमें मुख्य करेक्टर पाकिस्तानी शायर 'सारा शगुफ्ता ' के जीवन पर आधारित था .
शिव सेना के पुराने वक्तों में उनकी धमकी के बाद किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह कोई नाटक या सिनेमा प्रदर्शित करे. लेकिन अब शिव सेना की धमकियों को मुंबई की कलाकार बिरादरी ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया है. इस घटना से एक बात और साफ़ हो गयी है कि शिव सेना के लोग बिना कुछ जाने समझे दौड़ पड़ते हैं . वास्तव में यह नाटक पकिस्तान के समाज को एक बहुत ही घटिया रोशनी में पेश करता है जिस से .कायदे से शिव सेना को खुश होना चाहिए लेकिन अगर इतनी समझ होती तो शिव सैनिक क्यों बनते
नाटक 'सारा' औरत होने की सच्चाई को परत दर परत खोलता है . शाहिद अनवर के इस नाटक में पाकिस्तानी शायरा 'सारा शगुफ्ता' की ज़िंदगी के अंतर विरोधों को प्रस्तुत किया गया है ..लेकिन बात को इतने सलीके से कहा गया है कि यह पूरी दुनिया की औरत की मजबूरी का एक दस्तावेज़ बन गया है . १४ साल की उम्र में अपने से कई साल बड़े अधेड़ से शादी करने और ३ बच्चे पैदा करने के बीच सारा शगुफ्ता जिस नरक से गुज़र रही थीं, उसे इस प्रस्तुति में बहुत ही बेबाक तरीके से पेश किया गया है.उसके बाद उनकी बाकी तीन शादियों को भी एक मजबूर औरत के मज़बूत हो रहे हौसलों की रोशनी में पेश किया गया है .उनके अपने बच्चे उनसे छीनने की कोशिश की गयी . आरोप लगा कि वे बदचलन थीं . उन्होंने अदालत में स्वीकार कर लिया कि वे बद चलन थीं और वे तीनों बच्चे उनके तो थे लेकिन उनके शौहर के नहीं थे .अदालत ने बच्चों की कस्टडी सारा के हवाले कर दिया .और फिर एक बार यतीम होने का अहसास उन्होंने बहुत करीब से देखा क्योंकि अपने ११ भाई बहनों के साथ सारा भी यतीम थीं ,हालांकि उनका बाप जिंदा था. पाकिस्तानी समाज में औरत की दुर्दशा को रेखांकित करने की यह कोशिश बात को बिलकुल नारे की शक्ल में कह देती है.
'मोनोलाग' शैली में प्रस्तुत किये गए नाटक सारा शगुफ्ता का सबसे सशक्त पक्ष है उसके संवाद जिसे अभिनेत्री, सीमा आजमी ने बहुत ही खूब सूरत तरीके से पेश किया. जब सीमा कहती हैं कि ' मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश 'तो लगता है कि काश हर औरत इसी तरह उठ खडी होती तो दुनिया बदल जाती. २९ साल की उम्र में सारा शगुफ्ता ने खुदकुशी की . इसके पहले भी वे ४ बार खुदखुशी की कोशिश कर चुकी थीं लेकिन नाकामयाब रही थीं . इस बीच उन्हें ४ बार शादियाँ करनी पड़ी.. पागलखाने गयीं और वहां देखा कि जो औरतें वहां दाखिल की गयी हैं उनमें से कोई भी पागल नहीं है . सबके घर वालों ने उन्हें जायदाद हड़पने के लिए पागल करार देकर अफसरों को घूस दे कर वहाँ भर्ती करवा दिया है .कुछ दिन बाद जब पागल खाने से उनकी रिहाई हुई तो वे बहुत रोयीं क्योंकि पहली बार कुछ ऐसे इंसानों से बिछुड़ रही थीं जिन्हें वे सही में मुहब्बत करने लगी थी.
सारा शगुफ्ता की भारत की नामी साहित्यकार, अमृता प्रीतम से दोस्ती थी. हालांकि उम्र में बहुत फर्क था लेकिन औरत होने का एहसास उनको उन्हीं जमातों में खड़ाकर देता था जिसमें अमृता जैसी महिलायें खडी थी, यहाँ का खुलापन देख कर उन्हें लगा कि काश उनका अपन बदन ही उनका अपना वतन होता. लेकिन जब दिल्ली में कुछ दिन रह चुकीं तो उन्हें साफ़ नज़र आने लगा कि यहाँ भी मर्दवादी सोच के लोग औरत को उसी तरह देखते हैं जैसे उनके अपने पकिस्तान में . उन्होंने अपने आप से बार बार सवाल किया कि लोग अकेली औरत से इतना डरते क्यों हैं औरत की वफादारी पर शक़ क्यों करते हैं ,वफादारी की गलियों में आज भी कुतिया कम और कुत्ता ज़्यादा इज्ज़त क्यों पाता है . सारा शगुफ्ता ने लिखा है कि वे सवाल की गहराई तक नहीं जाना चाहतीं क्योंकि कहीं फ़रिश्ते लपेट में ना आ जाएँ.
मुंबई के मानिक सभागृह में प्रस्तुत यह नाटक एक प्रयोग था . महेश दत्तानी का निदेशन बेहतरीन है और सीमा आजमी की अभिनय क्षमता ऐसी बांकी कि कुछ देर बाद ऐसा लगने लगा कि स्टेज पर सीमा नहीं , सारा शगुफ्ता ही खडी हैं .
बड़े जोर शोर से प्रचार करने के बाद भी ,मुंबई में महेश दत्तानी के नाटक 'सारा' के खिलाफ तोड़ फोड़ करने के अपने फैसले को शिव सेना लागू नहीं कर सकी. और जब पुलिस ने माहौल बहुत ही गरम कर दिया तो शिव सेना के एक छुट भैया नेता ने घोषणा कर दी कि पार्टी ने विरोध करने के अपने फैसले को स्थगित कर दिया है . यह अलग बात है कि जब यह बयान आया तो थियेटर पर विरोध करने गए दो चार शिव सैनिक पिट कर वापस आ चुके थे .और पुलिस बाकी लोगों को धमका रही थी. बान्द्रा के एक नामी थियेटर में नाटक के प्रदर्शन की घोषणा के बाद शिव सेना ने अपने पुराने तरीकों का इस्तेमाल करते हुए नाटक के प्रदर्शन के दौरान तोड़ फोड़ की धमकी देकर अपने वसूली के धंधे को परवान चढाने की कोशिश की थी लेकिन पुलिस की सख्ती के आगे उनकी एक न चली और भागना पड़ा . उनका विरोध नाटक के पाकिस्तानी होने के कारण था. जब की सच्चाई है है कि नाटक भारतीय था,अलबत्ता उसमें मुख्य करेक्टर पाकिस्तानी शायर 'सारा शगुफ्ता ' के जीवन पर आधारित था .
शिव सेना के पुराने वक्तों में उनकी धमकी के बाद किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह कोई नाटक या सिनेमा प्रदर्शित करे. लेकिन अब शिव सेना की धमकियों को मुंबई की कलाकार बिरादरी ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया है. इस घटना से एक बात और साफ़ हो गयी है कि शिव सेना के लोग बिना कुछ जाने समझे दौड़ पड़ते हैं . वास्तव में यह नाटक पकिस्तान के समाज को एक बहुत ही घटिया रोशनी में पेश करता है जिस से .कायदे से शिव सेना को खुश होना चाहिए लेकिन अगर इतनी समझ होती तो शिव सैनिक क्यों बनते
नाटक 'सारा' औरत होने की सच्चाई को परत दर परत खोलता है . शाहिद अनवर के इस नाटक में पाकिस्तानी शायरा 'सारा शगुफ्ता' की ज़िंदगी के अंतर विरोधों को प्रस्तुत किया गया है ..लेकिन बात को इतने सलीके से कहा गया है कि यह पूरी दुनिया की औरत की मजबूरी का एक दस्तावेज़ बन गया है . १४ साल की उम्र में अपने से कई साल बड़े अधेड़ से शादी करने और ३ बच्चे पैदा करने के बीच सारा शगुफ्ता जिस नरक से गुज़र रही थीं, उसे इस प्रस्तुति में बहुत ही बेबाक तरीके से पेश किया गया है.उसके बाद उनकी बाकी तीन शादियों को भी एक मजबूर औरत के मज़बूत हो रहे हौसलों की रोशनी में पेश किया गया है .उनके अपने बच्चे उनसे छीनने की कोशिश की गयी . आरोप लगा कि वे बदचलन थीं . उन्होंने अदालत में स्वीकार कर लिया कि वे बद चलन थीं और वे तीनों बच्चे उनके तो थे लेकिन उनके शौहर के नहीं थे .अदालत ने बच्चों की कस्टडी सारा के हवाले कर दिया .और फिर एक बार यतीम होने का अहसास उन्होंने बहुत करीब से देखा क्योंकि अपने ११ भाई बहनों के साथ सारा भी यतीम थीं ,हालांकि उनका बाप जिंदा था. पाकिस्तानी समाज में औरत की दुर्दशा को रेखांकित करने की यह कोशिश बात को बिलकुल नारे की शक्ल में कह देती है.
'मोनोलाग' शैली में प्रस्तुत किये गए नाटक सारा शगुफ्ता का सबसे सशक्त पक्ष है उसके संवाद जिसे अभिनेत्री, सीमा आजमी ने बहुत ही खूब सूरत तरीके से पेश किया. जब सीमा कहती हैं कि ' मैदान मेरा हौसला है और अंगारा मेरी ख्वाहिश 'तो लगता है कि काश हर औरत इसी तरह उठ खडी होती तो दुनिया बदल जाती. २९ साल की उम्र में सारा शगुफ्ता ने खुदकुशी की . इसके पहले भी वे ४ बार खुदखुशी की कोशिश कर चुकी थीं लेकिन नाकामयाब रही थीं . इस बीच उन्हें ४ बार शादियाँ करनी पड़ी.. पागलखाने गयीं और वहां देखा कि जो औरतें वहां दाखिल की गयी हैं उनमें से कोई भी पागल नहीं है . सबके घर वालों ने उन्हें जायदाद हड़पने के लिए पागल करार देकर अफसरों को घूस दे कर वहाँ भर्ती करवा दिया है .कुछ दिन बाद जब पागल खाने से उनकी रिहाई हुई तो वे बहुत रोयीं क्योंकि पहली बार कुछ ऐसे इंसानों से बिछुड़ रही थीं जिन्हें वे सही में मुहब्बत करने लगी थी.
सारा शगुफ्ता की भारत की नामी साहित्यकार, अमृता प्रीतम से दोस्ती थी. हालांकि उम्र में बहुत फर्क था लेकिन औरत होने का एहसास उनको उन्हीं जमातों में खड़ाकर देता था जिसमें अमृता जैसी महिलायें खडी थी, यहाँ का खुलापन देख कर उन्हें लगा कि काश उनका अपन बदन ही उनका अपना वतन होता. लेकिन जब दिल्ली में कुछ दिन रह चुकीं तो उन्हें साफ़ नज़र आने लगा कि यहाँ भी मर्दवादी सोच के लोग औरत को उसी तरह देखते हैं जैसे उनके अपने पकिस्तान में . उन्होंने अपने आप से बार बार सवाल किया कि लोग अकेली औरत से इतना डरते क्यों हैं औरत की वफादारी पर शक़ क्यों करते हैं ,वफादारी की गलियों में आज भी कुतिया कम और कुत्ता ज़्यादा इज्ज़त क्यों पाता है . सारा शगुफ्ता ने लिखा है कि वे सवाल की गहराई तक नहीं जाना चाहतीं क्योंकि कहीं फ़रिश्ते लपेट में ना आ जाएँ.
मुंबई के मानिक सभागृह में प्रस्तुत यह नाटक एक प्रयोग था . महेश दत्तानी का निदेशन बेहतरीन है और सीमा आजमी की अभिनय क्षमता ऐसी बांकी कि कुछ देर बाद ऐसा लगने लगा कि स्टेज पर सीमा नहीं , सारा शगुफ्ता ही खडी हैं .
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Friday, April 2, 2010
दंगें फैलाने वालों को नाकाम करो
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले के एक बहुत छोटे से कस्बे खतौली में भी दंगा हो गया है .इसके पहले बरेली में हुआ था. ह्यद४एरबद में दंगा चल ही रहा है . इसी तरह से और भी इलाकों में छिटपुट घटनाएं हो रही हैं . अगर कहीं मामला थोडा और गरम हो जाए तो छोटी मोटी घटनाओं को दंगा बनने में देर नहीं लगती. .अब उत्तर भारत में मौसम भी गरम हो रहा है .ऐसे मौसम में मामूली विवाद भी बढ़ जाता है और अगर झगडा अलग अलग सम्प्रदाय के लोगों के बीच हो तो निहित स्वार्थ वाले उसे दंगे में बदल देते हैं .जब दंगा होता है तो चारों तरफ पागलपन का माहौल बन जाता है और सब अंधे हो जाते हैं . ज़ाहिर है कि समझदारी की बात कोई नहीं करता. दंगा वास्तव में सभ्य समाज पर कलंक है . सवाल यह पैदा होता है कि दंगे होते क्यों हैं .सीधा सा जवाब यह है कि राजनीति में सक्रिय लोग लोगों को बेचारा साबित करने के लिए दंगा करवाते हैं .अंग्रेजों ने जब 19२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन में देखा कि पूरा मुल्क गाँधी के साथ खड़ा है . हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रहे है तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रबंधकों को लगा कि अगर पूरा देश एक हो गया तो मुट्ठी भर अँगरेज़ भारत में राज नहीं कर सकेंगें . अंग्रेजों ने तय किया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फर्क डाले बिना भारत को गुलाम नहीं बनाया जा सकता. १९२० के बाद के भारत की राजनीति पर गौर करें तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि अंग्रेजों ने हर स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम विभेद की योजना बना दी थी. मुस्लिम लीग को फिर से महात्मा गाँधी से अलग किया, आर एस एस की स्थापना करवाई और वी डी सावरकर को खुला छोड़ दिया. सावरकार को ड्यूटी दी गयी कि वे हिन्दू मात्र को गाँधी से दूर ले जाएँ. इसी दौर में सावरकार ने अपनी किताब हिन्दुत्व लिखी जिसमें हिन्दू धर्म को राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की बात की गयी. अंग्रेजों के आशीर्वाद से पहला संगठित दंगा १९२७ में नागपुर में आयोजित किया गया जिसमें आर एस एस वालों ने प्रमुख भूमिका निभाई. सावरकार पूरी तरह से अंग्रेजों के सेवक बन ही चुके थे . जेल में वी. डी .सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर ३२७७८ के रूप में जाने जाते थे . उन्होंने अपने माफीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वे आगे से अंग्रेजों के हुक्म को मानकर ही काम करेंगें . सावरकर के भक्तों को लगता है कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी नहीं माँगी होगी. ऐसे शंकालु लोगों को चाहिए कि वे नैशनल आर्काइव्ज़ चले जाएँ, वहांसावरकर का माफीनामा बहुत ही संभाल कर रखा हुआ है और इतिहास के किसी भी शोधकर्ता के लिए वह उपलब्ध है . बहरहाल सच्चाई यह है कि आर एस एस उसके सहयोगी संगठन और मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति के झंडाबरदार ही दंगे करवाते हैं .
सवाल यह उठता है कि सभ्य समाज के लोग दंगा रोकने के लिए क्या काम करें . क्योंकि अब दंगे तो बार बार होंगें क्योंकि बी जे पी के नए अध्यक्ष ने तय कर लिया है कि हिन्दुत्व की बिसात पर ही अब उतर भारत में चुनाव लड़े जाने हैं . १९८४ में दो सीटें जीतने के बाद कोलकता में जब आर एस एस के आला नेताओं की बैठक हुई तो उसमें अटल बिहारी वाजपेयी को फटकार दिया गया था और उन्हें बता दिया गया था कि राग हिन्दुत्व ही चलेगा, गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. शहाबुद्दीन टाइप कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की .
सवाल यह उठता है कि दंगों को रोकने के लिएय धर्म निरपेक्ष बिरादरी को क्या करना चाहिए . संघ वाले तो अब दंगों के बाद के ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की योजना बना चुके हैं . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी डी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले आर एस एस वालों ने किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती आर एस एस की ही लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने के लिए संघ की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता है . बरेली, हैदराबाद और खतौली में तो दंगें हो गए अब आगे न होने पायें यही कोशिश करनी चाहिय .
सवाल यह उठता है कि सभ्य समाज के लोग दंगा रोकने के लिए क्या काम करें . क्योंकि अब दंगे तो बार बार होंगें क्योंकि बी जे पी के नए अध्यक्ष ने तय कर लिया है कि हिन्दुत्व की बिसात पर ही अब उतर भारत में चुनाव लड़े जाने हैं . १९८४ में दो सीटें जीतने के बाद कोलकता में जब आर एस एस के आला नेताओं की बैठक हुई तो उसमें अटल बिहारी वाजपेयी को फटकार दिया गया था और उन्हें बता दिया गया था कि राग हिन्दुत्व ही चलेगा, गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. शहाबुद्दीन टाइप कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की .
सवाल यह उठता है कि दंगों को रोकने के लिएय धर्म निरपेक्ष बिरादरी को क्या करना चाहिए . संघ वाले तो अब दंगों के बाद के ध्रुवीकरण के सहारे वोट बटोरने की योजना बना चुके हैं . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी डी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले आर एस एस वालों ने किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती आर एस एस की ही लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने के लिए संघ की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की राष्ट्रीय प्राथमिकता है . बरेली, हैदराबाद और खतौली में तो दंगें हो गए अब आगे न होने पायें यही कोशिश करनी चाहिय .
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Wednesday, March 31, 2010
मीडिया और न्यायपालिका की बुलंदी का दौर
शेष नारायण सिंह
हरियाणा में एक अदालत ने उन लोगों को सज़ा-ए-मौत का हुक्म दे दिया है जिन्होंने एक विवाहित जोड़े को मार डाला था. मारे गए पति पत्नी का तथाकतित जुर्म यह था कि उन्होंने पंचायत की मर्जी के खिलाफ अपनी पसंद से शादी कर ली थी. . पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में यह बहुत पहले से होता रहा है . ग्रामीण इलाकों में पंचायतों की स्थिति बहुत ही मज़बूत रही है और उन्हें मनमानी करने का पूरा अधिकार मिलता रहा है . इन् इलाकों में कुछ बिरादरी के लोगों ने अपने आप को एक खाप के रूप में संगठित कर रखा है .यह व्यवस्था बहुत ही पुरानी है ,. दर असल जब सरकारों की भूमिका केवल अपनी रक्षा और अपने राजस्व तक सीमित थी तो सामाजिक जीवन को नियम के दायरे में रखने का ज़िम्मा बिरादरी की पंचायतों का होता था. उस दौर में ज़िंदगी एक लीक पर चलती रहती थी लेकिन सूचना क्रान्ति के साथ साथ सब कुछ बदल गया. गावों में रहने वाले लडके लड़कियां पूरी दुनिया की सूचना देख सकते हैं , जान सकते हैं और बाकी दुनिया में प्रचलित कुछ रीति रिवाजों को अपनी ज़िंदगी में भी उतार रहे हैं . अब उनको मालूम है कि सभ्य समाज में अपनी पसंद के जीवन साथी के साथ ज़िंदगी बसर करने का रिवाज़ है . उसे यह भी मालूम है कि यह मामला बिलकुल निजी है और उसमें किसी को दखल देने का अधिकार नहीं है . . सूचना क्रान्ति का ही दूसरा पहलू यह है कि देश के किसी भी इलाके से कुछ सेकंड के अन्दर ही कोई भी खबर पंहुचायी जा सकती है और कोई भी तस्वीर कहीं भी भेजी जा सकती है. यानी किसी भी गाँव में बैठी हुई कोई पंचायत क्या फैसला करती है , यह अब गाँव का मामला नहीं रह गया है . कोई भी घटना अब मिनटों के अन्दर पूरी दुनिया के सामने पेश की जा सकती है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में आजकल यही हो रहा है . सूचना क्रान्ति के पहले के ज़माने में खाप पंचायतें जो कुछ भी करती थें ,वह उन्हीं लोगों के बीच रह जाता था लेकिन अब वह पूरी दुनिया के सामने पेश कर दिया जाता है .. इसका मतलब यह नहीं है कि खाप पंचायतें पहले जो हुक्म देती थीं वे सही होते थे . फैसले तो गलत तब भी होते थे लेकिन अब उन फैसलों को बाकी दुनिया के पैमाने से नापा जाने लगा है .
ग्रामीण इलाकों में इन पंचायतों का इतना दबदबा है कि किसी नेता की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि इस मामले में कोई पक्का रुख ले सके. हरियाणा के मुख्य मंत्री, भूपेंद्र सिंह हुड्डा से जब बात की गयी तो वे मामले को टाल गए. किसी टी वी चैनल में बी जे पी का एक छुटभैया नेता खाप पंचायतों को सही ठहरा रहे एक किसान नेता की तारीफ़ करने लगा . संतोष की बात यह यह है कि अब इन नेताओं के बस की बात नहीं है कि ये न्याय के रथ को विचलित कर सकें. अब सूचना क्रान्ति की बुलंदी का वक़्त है . इस क्रान्ति ने मीडिया को पूरी तरह से आम आदमी की पंहुच के अन्दर ला दिया है और किसी की भी दादागीरी लगभग हमेशा ही पब्लिक की नज़र में रहती है . . करनाल के किसी गाँव में एक ही गोत्र में शादी करने के कारण मौत के घाट उतार दिए गए मनोज और बबली का मामला भी इतिहास के इस मोड़ पर सामने आया जब कि कोई भी आदमी ऐलानियाँ तौर पर खाप वालों की मनमानी को सही ठहरा ही नहीं सकता.. करनाल के अतिरिक्त जिला और सेशन जज ने अपने १०५ पेज के फैसले में लडकी के भाई, चाचा और चचेरे भाई को को तो फांसी के सज़ा सुना दी . पंचायत के मुखिया को केवल उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी. पंचायतों की इस तरह की मनमानी के किस्से रोज़ ही होते रहते हैं . नेताओं के अलगर्ज़ रवैय्ये के कारण इन् मामलोंमें कहीं कुछ होता जाता नहीं था . ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी जज ने खाप के आतंक से जुडे हुए मामले में शामिल लोगों को सज़ा सुनायी है . ज़ाहिर है इस फैसले की धमक दूर दूर तक महसूस की जायेगी. और भविष्य में मुहब्बत करके शादी करने वाले जोड़ों को भेड़ बकरियों की तरह मार डालने वाले इन आततायी पंचों को कानून का डर लगेगा . वरना अब तक तो यही होता था कि इनकी मनमानी के खिलाफ कहीं कोई कार्रवाई नहीं होती थी.
मौजूदा मामले में मारे गए लडके के परिवार वालों की भूमिका सबसे अहम है . उन्होंने तय कर लिया था कि उनके बच्चे को मारने वालों को न्याय की बेदी पर हाज़िर किये बिना उन्हें चैन नहीं है . लेकिन सबसे बड़ी भूमिका इस सारे मामले में मीडिया की है . जब से २४ घंटे के समाचार चैनल शुरू हुए हैं ,मीडिया के लोग इस तरह के मामलों को सार्वजनिक करने में संकोच नहीं कर रहे हैं . और जब सारी बात मीडिया की वजह से पहले ही पब्लिक डोमेन में आ जाती है तो उसे टाल पाना न तो नेताओं के लिए संभव होता है और न ही अन्य सरकारी संगठनों के अगर भविष्य में भी मीडिया इसी तरह से चौकन्ना रहा तो कुछ ही वर्षों में यह मध्यकालीन सामंती सोच ग्रामीण इलाकों से गायब हो जायेगी और फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के इन संपन्न इलाकों में मुहब्बत करने वालों को अपनी जान नहीं गंवानी पड़ेगी.
हरियाणा में एक अदालत ने उन लोगों को सज़ा-ए-मौत का हुक्म दे दिया है जिन्होंने एक विवाहित जोड़े को मार डाला था. मारे गए पति पत्नी का तथाकतित जुर्म यह था कि उन्होंने पंचायत की मर्जी के खिलाफ अपनी पसंद से शादी कर ली थी. . पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में यह बहुत पहले से होता रहा है . ग्रामीण इलाकों में पंचायतों की स्थिति बहुत ही मज़बूत रही है और उन्हें मनमानी करने का पूरा अधिकार मिलता रहा है . इन् इलाकों में कुछ बिरादरी के लोगों ने अपने आप को एक खाप के रूप में संगठित कर रखा है .यह व्यवस्था बहुत ही पुरानी है ,. दर असल जब सरकारों की भूमिका केवल अपनी रक्षा और अपने राजस्व तक सीमित थी तो सामाजिक जीवन को नियम के दायरे में रखने का ज़िम्मा बिरादरी की पंचायतों का होता था. उस दौर में ज़िंदगी एक लीक पर चलती रहती थी लेकिन सूचना क्रान्ति के साथ साथ सब कुछ बदल गया. गावों में रहने वाले लडके लड़कियां पूरी दुनिया की सूचना देख सकते हैं , जान सकते हैं और बाकी दुनिया में प्रचलित कुछ रीति रिवाजों को अपनी ज़िंदगी में भी उतार रहे हैं . अब उनको मालूम है कि सभ्य समाज में अपनी पसंद के जीवन साथी के साथ ज़िंदगी बसर करने का रिवाज़ है . उसे यह भी मालूम है कि यह मामला बिलकुल निजी है और उसमें किसी को दखल देने का अधिकार नहीं है . . सूचना क्रान्ति का ही दूसरा पहलू यह है कि देश के किसी भी इलाके से कुछ सेकंड के अन्दर ही कोई भी खबर पंहुचायी जा सकती है और कोई भी तस्वीर कहीं भी भेजी जा सकती है. यानी किसी भी गाँव में बैठी हुई कोई पंचायत क्या फैसला करती है , यह अब गाँव का मामला नहीं रह गया है . कोई भी घटना अब मिनटों के अन्दर पूरी दुनिया के सामने पेश की जा सकती है . पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में आजकल यही हो रहा है . सूचना क्रान्ति के पहले के ज़माने में खाप पंचायतें जो कुछ भी करती थें ,वह उन्हीं लोगों के बीच रह जाता था लेकिन अब वह पूरी दुनिया के सामने पेश कर दिया जाता है .. इसका मतलब यह नहीं है कि खाप पंचायतें पहले जो हुक्म देती थीं वे सही होते थे . फैसले तो गलत तब भी होते थे लेकिन अब उन फैसलों को बाकी दुनिया के पैमाने से नापा जाने लगा है .
ग्रामीण इलाकों में इन पंचायतों का इतना दबदबा है कि किसी नेता की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि इस मामले में कोई पक्का रुख ले सके. हरियाणा के मुख्य मंत्री, भूपेंद्र सिंह हुड्डा से जब बात की गयी तो वे मामले को टाल गए. किसी टी वी चैनल में बी जे पी का एक छुटभैया नेता खाप पंचायतों को सही ठहरा रहे एक किसान नेता की तारीफ़ करने लगा . संतोष की बात यह यह है कि अब इन नेताओं के बस की बात नहीं है कि ये न्याय के रथ को विचलित कर सकें. अब सूचना क्रान्ति की बुलंदी का वक़्त है . इस क्रान्ति ने मीडिया को पूरी तरह से आम आदमी की पंहुच के अन्दर ला दिया है और किसी की भी दादागीरी लगभग हमेशा ही पब्लिक की नज़र में रहती है . . करनाल के किसी गाँव में एक ही गोत्र में शादी करने के कारण मौत के घाट उतार दिए गए मनोज और बबली का मामला भी इतिहास के इस मोड़ पर सामने आया जब कि कोई भी आदमी ऐलानियाँ तौर पर खाप वालों की मनमानी को सही ठहरा ही नहीं सकता.. करनाल के अतिरिक्त जिला और सेशन जज ने अपने १०५ पेज के फैसले में लडकी के भाई, चाचा और चचेरे भाई को को तो फांसी के सज़ा सुना दी . पंचायत के मुखिया को केवल उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी. पंचायतों की इस तरह की मनमानी के किस्से रोज़ ही होते रहते हैं . नेताओं के अलगर्ज़ रवैय्ये के कारण इन् मामलोंमें कहीं कुछ होता जाता नहीं था . ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी जज ने खाप के आतंक से जुडे हुए मामले में शामिल लोगों को सज़ा सुनायी है . ज़ाहिर है इस फैसले की धमक दूर दूर तक महसूस की जायेगी. और भविष्य में मुहब्बत करके शादी करने वाले जोड़ों को भेड़ बकरियों की तरह मार डालने वाले इन आततायी पंचों को कानून का डर लगेगा . वरना अब तक तो यही होता था कि इनकी मनमानी के खिलाफ कहीं कोई कार्रवाई नहीं होती थी.
मौजूदा मामले में मारे गए लडके के परिवार वालों की भूमिका सबसे अहम है . उन्होंने तय कर लिया था कि उनके बच्चे को मारने वालों को न्याय की बेदी पर हाज़िर किये बिना उन्हें चैन नहीं है . लेकिन सबसे बड़ी भूमिका इस सारे मामले में मीडिया की है . जब से २४ घंटे के समाचार चैनल शुरू हुए हैं ,मीडिया के लोग इस तरह के मामलों को सार्वजनिक करने में संकोच नहीं कर रहे हैं . और जब सारी बात मीडिया की वजह से पहले ही पब्लिक डोमेन में आ जाती है तो उसे टाल पाना न तो नेताओं के लिए संभव होता है और न ही अन्य सरकारी संगठनों के अगर भविष्य में भी मीडिया इसी तरह से चौकन्ना रहा तो कुछ ही वर्षों में यह मध्यकालीन सामंती सोच ग्रामीण इलाकों से गायब हो जायेगी और फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के इन संपन्न इलाकों में मुहब्बत करने वालों को अपनी जान नहीं गंवानी पड़ेगी.
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Monday, March 29, 2010
मोदी से एस आई टी की पूछ ताछ के पीछे क्या है ?
शेष नारायण सिंह
नरेंद्र मोदी से आठ घंटे चली पूछताछ के बाद कुछ लोग बहुत खुश हैं कि अब मोदी को २००२ के गुजरात नरसंहार के लिए उनके किये की सज़ा दिलाई जा सकेगी. जांच के लिए पेश होने के बाद जब मोदी बाहर निकले तो उन्होंने कहा कि उन्हें अपने महान देश की न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है और उनके साथ भी न्याय होगा.यह बात सभी कहते हैं और यह सच भी है . मोदी का गुनाह ऐसा है जिसे वे सभी लोग अच्छी तरह से जानते हैं जिन्हें उस दौर में गुजरात का नरसंहार देखने या उसे कवर करने का मौका लगा था .लेकिन सच्चाई यह है कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है . कुछ जानकार तो यह कहते पाए गए हैं कि यह सारा आडम्बर मोदी को पाक-साफ घोषित करने की एक साज़िश है . बड़े नेताओं के खिलाफ राजनीतिक मजबूरी के कारण शुरू किये गए मामलों में अब तक किसी के दण्डित होने की जानकारी नहीं है .राजनीति में बड़ा पद पाने वाले बहुत सारे लोगों के ऊपर मुक़दमें चले लेकिन लगभग सभी बरी हो गए. इमरजेंसी के तुरंत बाद जिस तरह से सबूत मिलना शुरू हुए, सबको लगने लगा था कि इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी, जगमोहन, विद्या चरण शुक्ल, ओम मेहता, बंसी लाल, नारायण दत्त तिवारी जैसे सैकड़ों नेताओं और अफसरों को कानून की जंजीर पहना दी जायेगी. लेकिन कुछ नहीं हुआ. बाद में बोफोर्स तोप का सौदा हुआ जिसमें भी राजनीति के बड़े लोगों का नाम आया था लेकिन कुछ नहीं हुआ. पी वी नरसिंह राव जब प्रधान मंत्री थे तो तरह तरह के हेरा फेरी और ठगी के मामले उन पर दर्ज हुए लेकिन कुछ नहीं हुआ . जार्ज फर्नांडीज़ , बंगारू लक्ष्मण आदि को तहलका मामले में घूस का शिकार होते पूरी दुनिया ने देखा . जांच में कुछ नहीं निकला . जैन हवाला काण्ड में देश की सुरक्षा से समझौता किया गया था . और उसमें लाल कृष्ण आडवानी,शरद यादव, सीता राम केसरी, सतीश शर्मा, अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान जैसे गैर कम्म्युनिस्ट पार्टियों के बहुत सारे नेता शामिल थे .लेकिन किसी के ऊपर चार्ज शीट तक दाखिल नहीं हुई अटल बिहारी वाजपयी के करीबी रिश्तेदार , भट्टाचार्य नाम के एक सज्जन थे , देश को लूट कर रख दिया लेकिन कहीं हुछ नहीं हुआ . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में लाल कृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी उमा भारती, विनय कटियार आदि के खिलाफ संगीन आरोप हैं लेकिन सब मस्त हैं . प्रमोद महाजन और अरुण शोरी के ऊपर सरकारी कंपनियों को औने पौने दाम पर बेचने का आरोप लगा लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. लालू प्रसाद, राबडी देवी, जगन्नाथ मिश्र, शिबू सोरेन,मायावती, मुलायम सिंह यादव आदि के ऊपर गंभीर आर्थिक अपराधों के आरोप हैं और सब के सब निश्चिन्त हैं . सब को मालूम है कि सब ठीक हो जाएगा, कहीं कुछ नहीं होने वाला नहीं है .
इसलिए इस बात में कोई शक़ नहीं हिया कि मोदी का कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं है . अगर उन लोगों की बात को मान लिया जाए कि मोदी को क्लीन चिट देने के लिए उनसे कड़ाई से पूछताछ का स्वांग किया गया तो बात बहुत ही आसान हो जाती है लेकिन अगर इस बात को न भी माना जाए और यह विश्वास किया जाए कि माननीय सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही जांच में किसी की हिम्मत हेरा फेरी करने की नहीं है तो भी मोदी जैसे ताक़तवर नेता के खिलाफ आरोप साबित कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा. हमारी न्याय व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है , ईमानदार गवाह . हमने देखा है कि मुकामी गुंडों को सज़ा इस लिए नहीं हो पाती कि उनके खिलाफ गवाह नहीं मिलते. तो मोदी जैसे सत्ताधीश के खिलाफ कहाँ से गवाह आ जाएंगें . दुनिया जानती है कि फरवरी २००२ में किस तरह से गुजरात के कुछ शहरों में खून खराबा हुआ था और किस तरह मुसलमानों को चुन चुन कर मारा गया था . लेकिन मोदी न केवल खुले आम घूम रहे हैं बल्कि चुनाव भी जीत रहे हैं .. ज़ाहिर है कि सिस्टम में कहीं कोई खोट है जिसके चलते सत्ता के पदों पर बैठे राजनेता बरी हो जाते हैं . और जब किसी नेता पर बुरा वक़्त आता है तो बाकी लोग ,जो राज नेता, फंसे हुए नेता के खिलाफ रहते हैं , वे भी साथ साथ खड़े हो जाते हैं . ठीक वैसे है जैसे मौसेरे भाइयों के बीच होता है .जब एक भाई फंसता है तो उसका मौसेरा भाई उसे बचाने आ जाता है . मौसेरे भाइयों की यह मुहब्बत अपने देश की बहुत सारी कहावतों में भी संभाल कर रखी हुई है . वरना वली गुजरती की मज़ार को ज़मींदोज़ करने वाले को तो सज़ा कभी की मिल गयी होती .
इस लिए मोदी या किसी नेता के अपराधों के लिए उस से पूछ ताछ तक तो हो सकती है लेकिन उसे सज़ा नहीं दी जा सकती . अगर मोदी के अपराध की सज़ा उनको मिल गयी तो देश की जनता को भरोसा हो जाएगा कि कानून का राज सब पर चलता है वरना अभी तक तो लोग यही मानते हैं कि कानून की ताक़त को नेता लोग अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं .
नरेंद्र मोदी से आठ घंटे चली पूछताछ के बाद कुछ लोग बहुत खुश हैं कि अब मोदी को २००२ के गुजरात नरसंहार के लिए उनके किये की सज़ा दिलाई जा सकेगी. जांच के लिए पेश होने के बाद जब मोदी बाहर निकले तो उन्होंने कहा कि उन्हें अपने महान देश की न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है और उनके साथ भी न्याय होगा.यह बात सभी कहते हैं और यह सच भी है . मोदी का गुनाह ऐसा है जिसे वे सभी लोग अच्छी तरह से जानते हैं जिन्हें उस दौर में गुजरात का नरसंहार देखने या उसे कवर करने का मौका लगा था .लेकिन सच्चाई यह है कि कहीं कुछ नहीं होने वाला है . कुछ जानकार तो यह कहते पाए गए हैं कि यह सारा आडम्बर मोदी को पाक-साफ घोषित करने की एक साज़िश है . बड़े नेताओं के खिलाफ राजनीतिक मजबूरी के कारण शुरू किये गए मामलों में अब तक किसी के दण्डित होने की जानकारी नहीं है .राजनीति में बड़ा पद पाने वाले बहुत सारे लोगों के ऊपर मुक़दमें चले लेकिन लगभग सभी बरी हो गए. इमरजेंसी के तुरंत बाद जिस तरह से सबूत मिलना शुरू हुए, सबको लगने लगा था कि इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी, जगमोहन, विद्या चरण शुक्ल, ओम मेहता, बंसी लाल, नारायण दत्त तिवारी जैसे सैकड़ों नेताओं और अफसरों को कानून की जंजीर पहना दी जायेगी. लेकिन कुछ नहीं हुआ. बाद में बोफोर्स तोप का सौदा हुआ जिसमें भी राजनीति के बड़े लोगों का नाम आया था लेकिन कुछ नहीं हुआ. पी वी नरसिंह राव जब प्रधान मंत्री थे तो तरह तरह के हेरा फेरी और ठगी के मामले उन पर दर्ज हुए लेकिन कुछ नहीं हुआ . जार्ज फर्नांडीज़ , बंगारू लक्ष्मण आदि को तहलका मामले में घूस का शिकार होते पूरी दुनिया ने देखा . जांच में कुछ नहीं निकला . जैन हवाला काण्ड में देश की सुरक्षा से समझौता किया गया था . और उसमें लाल कृष्ण आडवानी,शरद यादव, सीता राम केसरी, सतीश शर्मा, अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान जैसे गैर कम्म्युनिस्ट पार्टियों के बहुत सारे नेता शामिल थे .लेकिन किसी के ऊपर चार्ज शीट तक दाखिल नहीं हुई अटल बिहारी वाजपयी के करीबी रिश्तेदार , भट्टाचार्य नाम के एक सज्जन थे , देश को लूट कर रख दिया लेकिन कहीं हुछ नहीं हुआ . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में लाल कृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी उमा भारती, विनय कटियार आदि के खिलाफ संगीन आरोप हैं लेकिन सब मस्त हैं . प्रमोद महाजन और अरुण शोरी के ऊपर सरकारी कंपनियों को औने पौने दाम पर बेचने का आरोप लगा लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. लालू प्रसाद, राबडी देवी, जगन्नाथ मिश्र, शिबू सोरेन,मायावती, मुलायम सिंह यादव आदि के ऊपर गंभीर आर्थिक अपराधों के आरोप हैं और सब के सब निश्चिन्त हैं . सब को मालूम है कि सब ठीक हो जाएगा, कहीं कुछ नहीं होने वाला नहीं है .
इसलिए इस बात में कोई शक़ नहीं हिया कि मोदी का कुछ बनने बिगड़ने वाला नहीं है . अगर उन लोगों की बात को मान लिया जाए कि मोदी को क्लीन चिट देने के लिए उनसे कड़ाई से पूछताछ का स्वांग किया गया तो बात बहुत ही आसान हो जाती है लेकिन अगर इस बात को न भी माना जाए और यह विश्वास किया जाए कि माननीय सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही जांच में किसी की हिम्मत हेरा फेरी करने की नहीं है तो भी मोदी जैसे ताक़तवर नेता के खिलाफ आरोप साबित कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा. हमारी न्याय व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है , ईमानदार गवाह . हमने देखा है कि मुकामी गुंडों को सज़ा इस लिए नहीं हो पाती कि उनके खिलाफ गवाह नहीं मिलते. तो मोदी जैसे सत्ताधीश के खिलाफ कहाँ से गवाह आ जाएंगें . दुनिया जानती है कि फरवरी २००२ में किस तरह से गुजरात के कुछ शहरों में खून खराबा हुआ था और किस तरह मुसलमानों को चुन चुन कर मारा गया था . लेकिन मोदी न केवल खुले आम घूम रहे हैं बल्कि चुनाव भी जीत रहे हैं .. ज़ाहिर है कि सिस्टम में कहीं कोई खोट है जिसके चलते सत्ता के पदों पर बैठे राजनेता बरी हो जाते हैं . और जब किसी नेता पर बुरा वक़्त आता है तो बाकी लोग ,जो राज नेता, फंसे हुए नेता के खिलाफ रहते हैं , वे भी साथ साथ खड़े हो जाते हैं . ठीक वैसे है जैसे मौसेरे भाइयों के बीच होता है .जब एक भाई फंसता है तो उसका मौसेरा भाई उसे बचाने आ जाता है . मौसेरे भाइयों की यह मुहब्बत अपने देश की बहुत सारी कहावतों में भी संभाल कर रखी हुई है . वरना वली गुजरती की मज़ार को ज़मींदोज़ करने वाले को तो सज़ा कभी की मिल गयी होती .
इस लिए मोदी या किसी नेता के अपराधों के लिए उस से पूछ ताछ तक तो हो सकती है लेकिन उसे सज़ा नहीं दी जा सकती . अगर मोदी के अपराध की सज़ा उनको मिल गयी तो देश की जनता को भरोसा हो जाएगा कि कानून का राज सब पर चलता है वरना अभी तक तो लोग यही मानते हैं कि कानून की ताक़त को नेता लोग अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं .
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Sunday, March 28, 2010
झूठ बोलने वालों को अब काला कौव्वा नहीं काटता
शेष नारायण सिंह
कहावत है कि जो झूठ बोलता है उसे कौव्वा काट लेता है .. लगता है यह बात बहुत पुरानी हो गयी.क्योंकि आजकल तो बहुत सारे नेता दिन रात झूठ बोलते हैं और उन्हें कोई कौवा नहीं काटता.. बी जे पी के नेता .लाल कृष्ण आडवानी ने बार बार दावा किया है कि वे कभी झूठ नहीं बोलते .. जानकार कहते हैं कि उनके बयानों में कई कई अर्थों को आत्मसात कर लेने की क्षमता होती है , लगता है कि अपने इस कौशल की वजह से ही माननीय आडवानी जी इस बार झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं .. ६ दिसंबर ,१९९२ के दिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्होंने सार्वजनिक बयान दिया था कि वह उनके जीवन का सबसे दुःख भरा दिन था. आज तक माना जा रहा था कि यह पूरी तरह से सच है . लेकिन अब एक बार फिर आडवाणी की गलतबयानी के पुख्ता सबूत सार्वजनिक मंच पर फेंक दिए गए हैं. ६ दिसंबर १९९२ के दिन आडवाणी की व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए तैनात आई पी एस अफसर अंजू गुप्ता ने सी बी आई कोर्ट में बयान दिया है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आडवाणी बहुत खुश थे .. ज़ाहिर हैं एक आई पी एस अफसर की बात को गंभीरता से लेना पड़ेगा क्योंकि उसने बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के और अपनी ड्यूटी निभाने के लिए ही कोर्ट में बयान दिया है . उसने शपथ ली है कि वह झूठ नहीं बोलेगी तो उसकी बात का विश्वास किया जाना चाहिए.. इस अफसर के बयान ने एक बार फिर आडवाणी को झूठ बोलने वाला नेता साबित कर दिया है . क्योंकि ६ दिसंबर १९९२२ के दिन आडवाणी के पास दुखी होने की फुर्सत ही नहीं थी, वह तो उनके जीवन का खुशी से भरा एक दिन था.
अंजू गुप्ता ने अपने बयान में बताया कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले आडवाणी ने एक भड़काऊ भाषण दिया . बयान में है कि आडवाणी बहुत उत्साहित थे . उन्होंने कारसेवकों को उत्साह से भर दिया , उन्होंने कहा कि भव्य राम मंदिर उसी २.७७ एकड़ ज़मीन पर बनेगा जहां बाबरी मस्जिद मौजूद थी. आडवाणी ने उस दिन फैजाबाद जिले के पुलिस कप्तान और जिलाधिकारी को तलब किया और उनसे भी बात चीत की. जिस मंच पर आडवाणी के साथ मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा आदि नेता मौजूद थे ,उस पर भी हर्ष और उल्लास का माहौल था. जब बाबरी मस्जिद के गुम्बद गिरने लगे तो मंच पर मौजूद नेता एक दूसरे को बधाई दे रहे थे. उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा गले मिलीं और खुशी का इज़हार किया.इन लोगों ने आडवाणी , जोशी और पूर्व पुलिस महानिदेशक , श्रीश चंद दीक्षित को भी गले मिलकर बधाई दी. श्रीश चंद दीक्षित ने वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को धन्यवाद दिया कि उन लोगों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस में कोई अड़चन नहीं डाली.
बी जे पी के वे नेता जो बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने वाले केस में पकडे गए हैं ,वे पिछले १८ वर्षों से कह रहे हैं कि मस्जिद की तबाही में उनका कोई योगदान नहीं है ,अब झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं. मस्जिद के खिलाफ चले आन्दोलन में और उसके बाद राजनीतिक लाभ के लिए तो यह नेता शेखी बघारते रहे हैं लेकिन कानूनी मंचों पर तैयार किया गया बयान देते रहे हैं . अंजू गुप्ता की गवाही के बाद इन नेताओं के लिए मुश्किल पैदा हो गयी है . क्योंकि आपराधिक काम में अगर इन लोगों की साज़िश साबित हो जायेगी तो सबको इतने वर्षों की सज़ा होगी तो यह लोग चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिए जायेंगें . इस वक़्त बाबरी मस्जिद विध्वंस केस के अभियुक्त बी जे पी नेताओं को जो डर है वह इसी संभावना की गंभीरता को लेकर है..एक वक़्त था जब इन्हीं बी जे पी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में लोग थे . आज आलम यह है कि आम जनता का तो सवाल ही नहीं, इनकी अपनी पार्टी के नेता चाहते हैं कि यह लोग चुनाव के मैदान से बाहर हों तो आसानी होगी. ज़ाहिर है कि चुनाव की राजनीति से बाहर होने पर हर नेता को तकलीफ होगी. क्योंकि ज़्यादातर नेता चुनाव के ज़रिये ही अपने आप को सम्मान दिला सकते हैं .
मीडिया की सजगता की वजह से इन लोगों को सज़ा से बचने की संभावना बहुत कम है . यह ठीक भी है .. . बाबरी मस्जिद को सिम्बल बनाकार मुसलमानों के खिलाफ ज़हर घोलने के आन्दोलन के पीछे और कोई इरादा नहीं था. इरादा था तो सिर्फ लगातार पिछड़ रही बी जे पी को चुनावी सफलता दिलाना . लेकिन अब वह सब ख़त्म हो चुका है .बी जे पी चुनाव में सफल भी हुई, सरकार भी बनाया . इसके नेता भी उसी तरह से घूस के कारोबार में लग गए जैसे इनके पहले कांग्रेसी और समाजवादी लगते रहे हैं . आज बी जे पी फिर असमंजस में है .कहीं कोई मुद्दा नहीं है जिसके खिलाफ बी जे पी वाले ऐलानियाँ मैदान ले सकें . घूस खोरी के बहुत सारे मामलों में बी जे पी के के नेताओं के नाम आ जाने के बाद अब उनकी बात में वह दम नहीं जो सत्ता में आने के पहले तक होता था. सत्ता पाते ही उन लोगों ने साबित कर दिया के अपने पूर्वज कांग्रेसी नेताओं से बेहतर तरीके से बे-ईमानी कर सकते हैं . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के अभियुक्तों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलने के लिए माहौल बिलकुल दुरस्त है . इस लिए अदालत को चाहिए कि इन लोगों को सख्त से सख्त सज़ा दें . ताकि आने वाले वक़्त में कोई भी पार्टी चन्द सीटों के लिए देश में दंगे न फैलाए. दुनिया जानती है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आर एस एस के मातहत संगठनों ने जिस तरह से खून खराबा किया था. उसकी सज़ा भी कोई मामूली नहीं होनी चाहिए . सभ्य समाज को उम्मीद है कि राय बरेली की विशेष अदालत में सही न्याय होगा .
कहावत है कि जो झूठ बोलता है उसे कौव्वा काट लेता है .. लगता है यह बात बहुत पुरानी हो गयी.क्योंकि आजकल तो बहुत सारे नेता दिन रात झूठ बोलते हैं और उन्हें कोई कौवा नहीं काटता.. बी जे पी के नेता .लाल कृष्ण आडवानी ने बार बार दावा किया है कि वे कभी झूठ नहीं बोलते .. जानकार कहते हैं कि उनके बयानों में कई कई अर्थों को आत्मसात कर लेने की क्षमता होती है , लगता है कि अपने इस कौशल की वजह से ही माननीय आडवानी जी इस बार झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं .. ६ दिसंबर ,१९९२ के दिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्होंने सार्वजनिक बयान दिया था कि वह उनके जीवन का सबसे दुःख भरा दिन था. आज तक माना जा रहा था कि यह पूरी तरह से सच है . लेकिन अब एक बार फिर आडवाणी की गलतबयानी के पुख्ता सबूत सार्वजनिक मंच पर फेंक दिए गए हैं. ६ दिसंबर १९९२ के दिन आडवाणी की व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए तैनात आई पी एस अफसर अंजू गुप्ता ने सी बी आई कोर्ट में बयान दिया है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आडवाणी बहुत खुश थे .. ज़ाहिर हैं एक आई पी एस अफसर की बात को गंभीरता से लेना पड़ेगा क्योंकि उसने बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के और अपनी ड्यूटी निभाने के लिए ही कोर्ट में बयान दिया है . उसने शपथ ली है कि वह झूठ नहीं बोलेगी तो उसकी बात का विश्वास किया जाना चाहिए.. इस अफसर के बयान ने एक बार फिर आडवाणी को झूठ बोलने वाला नेता साबित कर दिया है . क्योंकि ६ दिसंबर १९९२२ के दिन आडवाणी के पास दुखी होने की फुर्सत ही नहीं थी, वह तो उनके जीवन का खुशी से भरा एक दिन था.
अंजू गुप्ता ने अपने बयान में बताया कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले आडवाणी ने एक भड़काऊ भाषण दिया . बयान में है कि आडवाणी बहुत उत्साहित थे . उन्होंने कारसेवकों को उत्साह से भर दिया , उन्होंने कहा कि भव्य राम मंदिर उसी २.७७ एकड़ ज़मीन पर बनेगा जहां बाबरी मस्जिद मौजूद थी. आडवाणी ने उस दिन फैजाबाद जिले के पुलिस कप्तान और जिलाधिकारी को तलब किया और उनसे भी बात चीत की. जिस मंच पर आडवाणी के साथ मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा आदि नेता मौजूद थे ,उस पर भी हर्ष और उल्लास का माहौल था. जब बाबरी मस्जिद के गुम्बद गिरने लगे तो मंच पर मौजूद नेता एक दूसरे को बधाई दे रहे थे. उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा गले मिलीं और खुशी का इज़हार किया.इन लोगों ने आडवाणी , जोशी और पूर्व पुलिस महानिदेशक , श्रीश चंद दीक्षित को भी गले मिलकर बधाई दी. श्रीश चंद दीक्षित ने वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को धन्यवाद दिया कि उन लोगों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस में कोई अड़चन नहीं डाली.
बी जे पी के वे नेता जो बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने वाले केस में पकडे गए हैं ,वे पिछले १८ वर्षों से कह रहे हैं कि मस्जिद की तबाही में उनका कोई योगदान नहीं है ,अब झूठ बोलते पकड़ लिए गए हैं. मस्जिद के खिलाफ चले आन्दोलन में और उसके बाद राजनीतिक लाभ के लिए तो यह नेता शेखी बघारते रहे हैं लेकिन कानूनी मंचों पर तैयार किया गया बयान देते रहे हैं . अंजू गुप्ता की गवाही के बाद इन नेताओं के लिए मुश्किल पैदा हो गयी है . क्योंकि आपराधिक काम में अगर इन लोगों की साज़िश साबित हो जायेगी तो सबको इतने वर्षों की सज़ा होगी तो यह लोग चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिए जायेंगें . इस वक़्त बाबरी मस्जिद विध्वंस केस के अभियुक्त बी जे पी नेताओं को जो डर है वह इसी संभावना की गंभीरता को लेकर है..एक वक़्त था जब इन्हीं बी जे पी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में लोग थे . आज आलम यह है कि आम जनता का तो सवाल ही नहीं, इनकी अपनी पार्टी के नेता चाहते हैं कि यह लोग चुनाव के मैदान से बाहर हों तो आसानी होगी. ज़ाहिर है कि चुनाव की राजनीति से बाहर होने पर हर नेता को तकलीफ होगी. क्योंकि ज़्यादातर नेता चुनाव के ज़रिये ही अपने आप को सम्मान दिला सकते हैं .
मीडिया की सजगता की वजह से इन लोगों को सज़ा से बचने की संभावना बहुत कम है . यह ठीक भी है .. . बाबरी मस्जिद को सिम्बल बनाकार मुसलमानों के खिलाफ ज़हर घोलने के आन्दोलन के पीछे और कोई इरादा नहीं था. इरादा था तो सिर्फ लगातार पिछड़ रही बी जे पी को चुनावी सफलता दिलाना . लेकिन अब वह सब ख़त्म हो चुका है .बी जे पी चुनाव में सफल भी हुई, सरकार भी बनाया . इसके नेता भी उसी तरह से घूस के कारोबार में लग गए जैसे इनके पहले कांग्रेसी और समाजवादी लगते रहे हैं . आज बी जे पी फिर असमंजस में है .कहीं कोई मुद्दा नहीं है जिसके खिलाफ बी जे पी वाले ऐलानियाँ मैदान ले सकें . घूस खोरी के बहुत सारे मामलों में बी जे पी के के नेताओं के नाम आ जाने के बाद अब उनकी बात में वह दम नहीं जो सत्ता में आने के पहले तक होता था. सत्ता पाते ही उन लोगों ने साबित कर दिया के अपने पूर्वज कांग्रेसी नेताओं से बेहतर तरीके से बे-ईमानी कर सकते हैं . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के अभियुक्तों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलने के लिए माहौल बिलकुल दुरस्त है . इस लिए अदालत को चाहिए कि इन लोगों को सख्त से सख्त सज़ा दें . ताकि आने वाले वक़्त में कोई भी पार्टी चन्द सीटों के लिए देश में दंगे न फैलाए. दुनिया जानती है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पहले और बाद में आर एस एस के मातहत संगठनों ने जिस तरह से खून खराबा किया था. उसकी सज़ा भी कोई मामूली नहीं होनी चाहिए . सभ्य समाज को उम्मीद है कि राय बरेली की विशेष अदालत में सही न्याय होगा .
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Saturday, March 27, 2010
मुसलमानों के साथ इंसाफ,सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
शेष नारायण सिंह
गरीब और पिछड़े मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों के आरक्षण के बारे में अंतरिम आदेश देकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इन्साफ की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम उठाने के आंध्रप्रदेश सरकार के फैसले पर मंजूरी की मुहर लगा दी .एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को बहाल कर दिया है जिसे आन्ध्रप्रदेश सरकार ने इस उद्देश्य से बनाया था कि सरकारी नौकरियों में पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण दिया जा सकेगा. बाद में हाई कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया था. हाई कोर्ट के फैसले को गलत बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इसे कानूनी शक्ल दे दी है . मामला संविधान बेंच को भेज दिया गया है जहां इस बात की भी पक्की जांच हो जायेगी कि आन्ध्र प्रदेश सरकार का कानून विधिसम्मत है कि नहीं ..संविधान बेंच से पास हो जाने के बाद मुस्लिम आरक्षण के सवाल पर कोई वैधानिक अड़चन नहीं रह जायेगी. फिर राज्य और केंद्र सरकारों को सामाजिक न्याय की दिशा में यह ज़रूरी क़दम उठाने के लिए केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रुरत रहेगी .न्यायालयों का डर नहीं रह जाएगा क्योंकि एक बार सुप्रीम कोर्ट की नज़र से गुज़र जाने के बाद किसी भी कानून को निचली अदालतें खारिज नहीं कर सकतीं.
इस फैसले से मुसलमानों के इन्साफ के लिए संघर्ष कर रही जमातों को ताक़त मिल जायेगी. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए कुछ सीटें रिज़र्व करने का कानून बनाने की दिशा में सकारात्मक पहल की है..बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में मुसलमानों को १० प्रतिशत रिज़र्वेशन देने की पेशकश की थी. उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा था.इस फैसले के बाद बुद्ध देव भट्टाचार्य को अपने फैसले को लागू करने के लिए ताक़त मिलेगी...इसके पहले भी केरल ,बिहार ,कर्नाटक और तमिलनाडु में पिछड़े मुसलमानों को रिज़र्वेशन की सुविधा उपलब्ध है .. आर एस एस की मानसिकता वाले बहुत सारे लोग यह कहते मिल जायेंगें कि संविधान में धार्मिक आरक्षण की बात को मना किया गया है . यह बात सिरे से ही खारिज कर देनी चाहिए. संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है. केरल में १९३६ से ही मुसलमानों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था .उन दिनों इसे ट्रावन्कोर-कोचीन राज्य कहा जाता था .बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने भी ओ बी सी आरक्षण की व्यवस्था की थी जिसमें पिछड़े मुसलमानों को भी लाभ दिया जाता था . दरअसल बिहार में ओ बी सी रिज़र्वेशन में मुसलमानों के पिछड़े वर्ग की जातियों का बाकायदा नाम रहता था. बिहार में अंसारी, इदरीसी,डफाली,धोबी,नालबंद आदि को स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर रिज़र्वेशन का लाभ देकर गए थे.१९७७ में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्य मंत्री, देव राज उर्स ने भी मुस्लिम ओ बी सी को रिज़र्वेशन दे दिया था. देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी उत्तर प्रदेश में है लेकिन राज्य में अभी मुसलमानों के लिए किसी तरह का आरक्षण नहीं है . यह अजीब बात है कि राज्य के अब तक के नेताओं ने इस महत्व पूर्ण विषय पर को पहल नहीं की.
आंध्र प्रदेश में मुसलमानों के आरक्षण का मामला जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अदालत में पेश हुआ तो अटार्नी जनरल गुलाम वाह्नावती और सीनियर एडवोकेट के पराशरण ने जिस तरह से बहस की, वह बहुत ही सही लाइन पर थी. . उन्होंने तर्क दिया कि जब हिन्दू पिछड़ी जातियों को आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है तो मुसलमानों को वह सुविधा न देकर सरकारें धार्मिक आधार पर पक्षपात कर रही हैं .. अदालत ने भी आरक्षण का विरोध करने वालों से पूछा कि सरकार के कानून बनाने के अधिकार को निजी पसंद या नापसंद के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती..
सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम आदेश के बाद केंद्र की यू पी ए सरकार पर भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का दबाव बढ़ जाएगा. कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में वायदा किया था कि सरकार बनने पर मुसलमानों के लिए ओ बी सी के लिए रिज़र्व नौकरियों के कोटे में मुस्लिम पिछड़ों के लिए सब-कोटा का इंतज़ाम किया जाएगा. अब कांग्रेस से सवाल पूछने का टाइम आ गया कि वे अपने वायदे कब पूरे करने वाले हैं . दर असल मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में सीटें रिज़र्व करने की बात तो आज़ादी की लड़ाई के दौरान की विचाराधीन थी जब महात्मा गाँधी, राम मनोहर लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर ने सामाजिक न्याय के लिए सकारात्मक पहल को संविधान का स्थायी भाव बनाया था . लेकिन जब संविधान लिखा जाने लगा तो देश की सियासती तस्वीर बदल चुकी थी. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और कांग्रेस के अन्दर मौजूद साम्प्रदायिक ताक़तों के एजेंट देश में मौजूद हर मुसलमान को अपमानित करने पर आमादा थे . महात्मा गाँधी की ह्त्या हो चुकी थी और जवाहर लाल नेहरू, लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर की हिम्मत नहीं पड़ी कि कांग्रेस के अन्दर के बहुमत से पंगा लें . लिहाज़ा दलित जातियों के लिए जो रिज़र्वेशन हुआ , उसमें से मुसलमानों को बाहर कर दिया गया . संविधान लागू होने के ६० साल बाद एक बार फिर ऐसा माहौल बना है कि राजनीतिक पार्टियां अगर चाहें तो सकारात्मक पहल कर सकती हैं और गरीब और पिछड़े मुसलमानों का वह हक उन्हें दे सकती हैं , जो उन्हें अब से ६० साल पहले ही मिल जाना चाहिए था.
गरीब और पिछड़े मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों के आरक्षण के बारे में अंतरिम आदेश देकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इन्साफ की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम उठाने के आंध्रप्रदेश सरकार के फैसले पर मंजूरी की मुहर लगा दी .एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को बहाल कर दिया है जिसे आन्ध्रप्रदेश सरकार ने इस उद्देश्य से बनाया था कि सरकारी नौकरियों में पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण दिया जा सकेगा. बाद में हाई कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया था. हाई कोर्ट के फैसले को गलत बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इसे कानूनी शक्ल दे दी है . मामला संविधान बेंच को भेज दिया गया है जहां इस बात की भी पक्की जांच हो जायेगी कि आन्ध्र प्रदेश सरकार का कानून विधिसम्मत है कि नहीं ..संविधान बेंच से पास हो जाने के बाद मुस्लिम आरक्षण के सवाल पर कोई वैधानिक अड़चन नहीं रह जायेगी. फिर राज्य और केंद्र सरकारों को सामाजिक न्याय की दिशा में यह ज़रूरी क़दम उठाने के लिए केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रुरत रहेगी .न्यायालयों का डर नहीं रह जाएगा क्योंकि एक बार सुप्रीम कोर्ट की नज़र से गुज़र जाने के बाद किसी भी कानून को निचली अदालतें खारिज नहीं कर सकतीं.
इस फैसले से मुसलमानों के इन्साफ के लिए संघर्ष कर रही जमातों को ताक़त मिल जायेगी. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए कुछ सीटें रिज़र्व करने का कानून बनाने की दिशा में सकारात्मक पहल की है..बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थाओं में मुसलमानों को १० प्रतिशत रिज़र्वेशन देने की पेशकश की थी. उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा था.इस फैसले के बाद बुद्ध देव भट्टाचार्य को अपने फैसले को लागू करने के लिए ताक़त मिलेगी...इसके पहले भी केरल ,बिहार ,कर्नाटक और तमिलनाडु में पिछड़े मुसलमानों को रिज़र्वेशन की सुविधा उपलब्ध है .. आर एस एस की मानसिकता वाले बहुत सारे लोग यह कहते मिल जायेंगें कि संविधान में धार्मिक आरक्षण की बात को मना किया गया है . यह बात सिरे से ही खारिज कर देनी चाहिए. संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है. केरल में १९३६ से ही मुसलमानों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था .उन दिनों इसे ट्रावन्कोर-कोचीन राज्य कहा जाता था .बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने भी ओ बी सी आरक्षण की व्यवस्था की थी जिसमें पिछड़े मुसलमानों को भी लाभ दिया जाता था . दरअसल बिहार में ओ बी सी रिज़र्वेशन में मुसलमानों के पिछड़े वर्ग की जातियों का बाकायदा नाम रहता था. बिहार में अंसारी, इदरीसी,डफाली,धोबी,नालबंद आदि को स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर रिज़र्वेशन का लाभ देकर गए थे.१९७७ में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्य मंत्री, देव राज उर्स ने भी मुस्लिम ओ बी सी को रिज़र्वेशन दे दिया था. देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी उत्तर प्रदेश में है लेकिन राज्य में अभी मुसलमानों के लिए किसी तरह का आरक्षण नहीं है . यह अजीब बात है कि राज्य के अब तक के नेताओं ने इस महत्व पूर्ण विषय पर को पहल नहीं की.
आंध्र प्रदेश में मुसलमानों के आरक्षण का मामला जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अदालत में पेश हुआ तो अटार्नी जनरल गुलाम वाह्नावती और सीनियर एडवोकेट के पराशरण ने जिस तरह से बहस की, वह बहुत ही सही लाइन पर थी. . उन्होंने तर्क दिया कि जब हिन्दू पिछड़ी जातियों को आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है तो मुसलमानों को वह सुविधा न देकर सरकारें धार्मिक आधार पर पक्षपात कर रही हैं .. अदालत ने भी आरक्षण का विरोध करने वालों से पूछा कि सरकार के कानून बनाने के अधिकार को निजी पसंद या नापसंद के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती..
सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम आदेश के बाद केंद्र की यू पी ए सरकार पर भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का दबाव बढ़ जाएगा. कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में वायदा किया था कि सरकार बनने पर मुसलमानों के लिए ओ बी सी के लिए रिज़र्व नौकरियों के कोटे में मुस्लिम पिछड़ों के लिए सब-कोटा का इंतज़ाम किया जाएगा. अब कांग्रेस से सवाल पूछने का टाइम आ गया कि वे अपने वायदे कब पूरे करने वाले हैं . दर असल मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में सीटें रिज़र्व करने की बात तो आज़ादी की लड़ाई के दौरान की विचाराधीन थी जब महात्मा गाँधी, राम मनोहर लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर ने सामाजिक न्याय के लिए सकारात्मक पहल को संविधान का स्थायी भाव बनाया था . लेकिन जब संविधान लिखा जाने लगा तो देश की सियासती तस्वीर बदल चुकी थी. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और कांग्रेस के अन्दर मौजूद साम्प्रदायिक ताक़तों के एजेंट देश में मौजूद हर मुसलमान को अपमानित करने पर आमादा थे . महात्मा गाँधी की ह्त्या हो चुकी थी और जवाहर लाल नेहरू, लोहिया और बाबा साहेब अंबेडकर की हिम्मत नहीं पड़ी कि कांग्रेस के अन्दर के बहुमत से पंगा लें . लिहाज़ा दलित जातियों के लिए जो रिज़र्वेशन हुआ , उसमें से मुसलमानों को बाहर कर दिया गया . संविधान लागू होने के ६० साल बाद एक बार फिर ऐसा माहौल बना है कि राजनीतिक पार्टियां अगर चाहें तो सकारात्मक पहल कर सकती हैं और गरीब और पिछड़े मुसलमानों का वह हक उन्हें दे सकती हैं , जो उन्हें अब से ६० साल पहले ही मिल जाना चाहिए था.
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Thursday, March 25, 2010
जनरल कयानी के हुक्म की गुलाम है पाकिस्तान सरकार
नयी दिल्ली, २२ मार्च .अमरीका ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि पाकिस्तान में असली ताक़त सेना के प्रमुख जनरल, अशफाक परवेज़ कयानी के ही हाथ में है.अमरीका में शुरू हो रहे पाक-अमरीकी बातचीत में जनरल कयानी शामिल भी हो रहे हैं . पाकिस्तान से जाने वाले प्रतिनधि मंडल के नाम भी उन्होंने ही तय किया है और एजेंडा भी उनकी मर्जी से बनाया गया है .पकिस्तान में सब को पता है कि विदेश मंत्री शाह महमूद कुरेशी तो बस कहने के लिए दल के नेता रहेंगें, असली कंट्रोल सेना प्रमुख के हाथ में ही है . इस बार तो मंत्री और विदेश ,वित और रक्षा विभागों के सचिवों को भी जनरल कयानी के दरबार में हाज़री लगानी पड़ी और उनके निर्देश के अनुसार ही सारी योजना बनायी गयी. इसके पहले पकिस्तान जैसे मुल्क में भी फौज के किसी अधिकारी ने सिविलियन अधिकारियों को सेना मुख्यालय में तलब नहीं किया था.
पाकिस्तानी फौज इस बात से बहुत चिंतित है कि नैटो की सलाह पर भारत ने इस बात का ज़िम्मा ले लिया है वह अफगान सेना को प्रशिक्षण देगा. जनरल कयानी को यह बात बहुत ही नागवार गुज़री है कि अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है .पाकिस्तान फौज के प्रवक्ता,मेजर जनरल अतहर अब्बास ने कहा है कि पकिस्तान अमरीका को पूरी गंभीरता के साथ अपनी नाराज़गी की जानकारी दे देगा. पकिस्तान ने खुद भी अफगान सेना को ट्रेनिंग देने का प्रस्ताव दे दिया है लेकिन उसके पिछले रिकॉर्ड के मद्दे-नज़र उसे यह काम मिलने की संभावना बहुत कम है .फिर भी अपना प्रस्ताव दे कर पाकिस्तान चाहेगा कि भारत को काम न मिले.
यह सारी जानकारी पकिस्तान में तो अब सबको पता है लेकिन न्यू यार्क टाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक अब अमरीकी हुकूमत को भी यह जानकारी हो गयी है . और वहां किसी को कोई एतराज़ नहीं है . जहाँ तक अमरीका का सवाल है, उसे पाकिस्तान में केवल इतनी दिलचस्पी है कि वह अफगानिस्तान और पकिस्तान में सक्रिय तालिबानी लड़ाकों को ख़त्म करने में पकिस्तान का इस्तेमाल करना चाहता है . इस मकसद को हासिल करने के लिए अमरीके प्रशासन की ओर से पकिस्तान को कुछ खर्च-बर्च मिलता रहता है. पकिस्तान में बेपेंदी के लोटे के रूप में मशहूर , विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी अखबारों और सार्वजनिक मंचों पर बयान देते फिर रहे हैं कि पाकिस्तानी डेलीगेशन की अगुवाई वही कर रहे हैं और उन्हें अमरीका से बहुत कुछ हासिल करना है . लेकिन पकिस्तान में कोई उनको गंभीरता से नहीं ले रहा है और लोग जानते हैं कि उन्हें इस तरह के बयान देने के लिए जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने ही कह रखा है .
पाकिस्तानी अखबारों में सम्पादकीय लिखे जा रहे हैं और जनरल कयानी के बढ़ते हुए दबदबे से पाकिस्तान की जम्हूरियत पसंद अवाम सकते में है . कई अखबारों में छपे बयानों में पकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी को आगाह किया गया है कि वे संभल कर रहें और ऐसा माहौल बनाएं जिस से हुकूमत पर फौज का क़ब्ज़ा फिर से न हो जाए . देश के बुद्धिजीवी वर्ग में भी दहशत का आलम है . इस्लामाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रिफात हुसैन ने कहा है कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि सेना प्रमुख ने केंद्र सरकार के सचिवों को सेना मुख्यालय में तलब किया हो ..यह दुर्भाग्य है कि जनरल कयानी आज ड्राइवर सीट पर काबिज़ हो गए हैं .
जानकार बताते हैं कि जनरल कयानी जो कुछ भी कर रहे हैं उसे अमरीकी जनरलों का आशीर्वाद प्राप्त है .. अमरीका की यात्रा पर गए जनरल कयानी ने अमरीकी सेंट्रल कमांड के तामपा स्थित मुख्यालय में जाकर अधिकारियों से बात चीत की और सोमवार को पेंटागन में ज्वाइंट चीफ ऑफ़ स्टाफ , एडमिरल कैक मुलेन और रक्षा मंत्री, रोबेर्ट गेट्स से भी बात चीत करेंगें .इस्लामाबाद में अमरीकी दूतावास के एक प्रवक्ता ने बताया है कि बुधवार को शुरू हो रही दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बात चीत में जनरल कयानी भी शामिल होंगें इस बैठक में पकिस्तान अमरीका से यह फ़रियाद भी करने वाला है कि उसे जिस आर्थिक मदद का वायदा किया गया था उसमें से करीब सवा अरब डालर अभी नहीं मिली है . दर असल यह रक़म इस लिए रोक ली गयी है कि अमरीकी सरकार को अभी विश्वास नहीं है कि पाकिस्तान ने मानवीय सहायता के नाम पर मिली रक़म को सही तरीके से खर्च कर भी रहा है कि नहीं .
पाकिस्तानी फौज इस बात से बहुत चिंतित है कि नैटो की सलाह पर भारत ने इस बात का ज़िम्मा ले लिया है वह अफगान सेना को प्रशिक्षण देगा. जनरल कयानी को यह बात बहुत ही नागवार गुज़री है कि अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है .पाकिस्तान फौज के प्रवक्ता,मेजर जनरल अतहर अब्बास ने कहा है कि पकिस्तान अमरीका को पूरी गंभीरता के साथ अपनी नाराज़गी की जानकारी दे देगा. पकिस्तान ने खुद भी अफगान सेना को ट्रेनिंग देने का प्रस्ताव दे दिया है लेकिन उसके पिछले रिकॉर्ड के मद्दे-नज़र उसे यह काम मिलने की संभावना बहुत कम है .फिर भी अपना प्रस्ताव दे कर पाकिस्तान चाहेगा कि भारत को काम न मिले.
यह सारी जानकारी पकिस्तान में तो अब सबको पता है लेकिन न्यू यार्क टाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक अब अमरीकी हुकूमत को भी यह जानकारी हो गयी है . और वहां किसी को कोई एतराज़ नहीं है . जहाँ तक अमरीका का सवाल है, उसे पाकिस्तान में केवल इतनी दिलचस्पी है कि वह अफगानिस्तान और पकिस्तान में सक्रिय तालिबानी लड़ाकों को ख़त्म करने में पकिस्तान का इस्तेमाल करना चाहता है . इस मकसद को हासिल करने के लिए अमरीके प्रशासन की ओर से पकिस्तान को कुछ खर्च-बर्च मिलता रहता है. पकिस्तान में बेपेंदी के लोटे के रूप में मशहूर , विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी अखबारों और सार्वजनिक मंचों पर बयान देते फिर रहे हैं कि पाकिस्तानी डेलीगेशन की अगुवाई वही कर रहे हैं और उन्हें अमरीका से बहुत कुछ हासिल करना है . लेकिन पकिस्तान में कोई उनको गंभीरता से नहीं ले रहा है और लोग जानते हैं कि उन्हें इस तरह के बयान देने के लिए जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने ही कह रखा है .
पाकिस्तानी अखबारों में सम्पादकीय लिखे जा रहे हैं और जनरल कयानी के बढ़ते हुए दबदबे से पाकिस्तान की जम्हूरियत पसंद अवाम सकते में है . कई अखबारों में छपे बयानों में पकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी को आगाह किया गया है कि वे संभल कर रहें और ऐसा माहौल बनाएं जिस से हुकूमत पर फौज का क़ब्ज़ा फिर से न हो जाए . देश के बुद्धिजीवी वर्ग में भी दहशत का आलम है . इस्लामाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रिफात हुसैन ने कहा है कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि सेना प्रमुख ने केंद्र सरकार के सचिवों को सेना मुख्यालय में तलब किया हो ..यह दुर्भाग्य है कि जनरल कयानी आज ड्राइवर सीट पर काबिज़ हो गए हैं .
जानकार बताते हैं कि जनरल कयानी जो कुछ भी कर रहे हैं उसे अमरीकी जनरलों का आशीर्वाद प्राप्त है .. अमरीका की यात्रा पर गए जनरल कयानी ने अमरीकी सेंट्रल कमांड के तामपा स्थित मुख्यालय में जाकर अधिकारियों से बात चीत की और सोमवार को पेंटागन में ज्वाइंट चीफ ऑफ़ स्टाफ , एडमिरल कैक मुलेन और रक्षा मंत्री, रोबेर्ट गेट्स से भी बात चीत करेंगें .इस्लामाबाद में अमरीकी दूतावास के एक प्रवक्ता ने बताया है कि बुधवार को शुरू हो रही दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बात चीत में जनरल कयानी भी शामिल होंगें इस बैठक में पकिस्तान अमरीका से यह फ़रियाद भी करने वाला है कि उसे जिस आर्थिक मदद का वायदा किया गया था उसमें से करीब सवा अरब डालर अभी नहीं मिली है . दर असल यह रक़म इस लिए रोक ली गयी है कि अमरीकी सरकार को अभी विश्वास नहीं है कि पाकिस्तान ने मानवीय सहायता के नाम पर मिली रक़म को सही तरीके से खर्च कर भी रहा है कि नहीं .
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शेष नारायण सिंह
Sunday, March 21, 2010
वाइज़ तेरी हर बात मुझे कुफ्र लगे है
गौहर रज़ा की ग़ज़ल
यूं कुफ्र के फतवे तो बहुत आये हैं हम पर,
वाइज़ तेरी हर बात मुझे कुफ्र लगे है
दुश्नाम ही सजते हैं तेरे मुंह पे मेरे दोस्त
मुंह पर तेरे कुरान मुझे कुफ्र लगे है
वाइज़ पे यक़ीं है तुझे, मुझ को है बहुत शक़
तुझ मुझ से करे बात, मुझे कुफ्र लगे है
दिल है के धड़कने पे अभी तक यह मुसिर है
कमबख्त की हर चाल मुझे कुफ्र लगे है
वह अर्श पे पहुंचेंगी जो उठेंगी ज़मीं से
खामोश हो फ़रियाद, मुझे कुफ्र लगे है
क्यूं कुफ्र में डूबो जो कहो और को काफ़िर
खुद को कहो सआदात, मुझे कुफ्र लगे है
शब जाएके मंज़र पे तो शुकराना अदा हो
ज़ुल्मत पे थे ‘दमसाध’, मुझे कुफ्र लगे है
नासेह तुझे किस तौर मैं समझाऊं, न समझा
समझूं जो तेरी बात, मुझे कुफ्र लगे है
यूं कुफ्र के फतवे तो बहुत आये हैं हम पर,
वाइज़ तेरी हर बात मुझे कुफ्र लगे है
दुश्नाम ही सजते हैं तेरे मुंह पे मेरे दोस्त
मुंह पर तेरे कुरान मुझे कुफ्र लगे है
वाइज़ पे यक़ीं है तुझे, मुझ को है बहुत शक़
तुझ मुझ से करे बात, मुझे कुफ्र लगे है
दिल है के धड़कने पे अभी तक यह मुसिर है
कमबख्त की हर चाल मुझे कुफ्र लगे है
वह अर्श पे पहुंचेंगी जो उठेंगी ज़मीं से
खामोश हो फ़रियाद, मुझे कुफ्र लगे है
क्यूं कुफ्र में डूबो जो कहो और को काफ़िर
खुद को कहो सआदात, मुझे कुफ्र लगे है
शब जाएके मंज़र पे तो शुकराना अदा हो
ज़ुल्मत पे थे ‘दमसाध’, मुझे कुफ्र लगे है
नासेह तुझे किस तौर मैं समझाऊं, न समझा
समझूं जो तेरी बात, मुझे कुफ्र लगे है
ज़ालिमाना और सामंती सोच से सत्ता को आज़ाद करने की ज़रुरत
शेष नारायण सिंह
उसके गाँव में चमार शब्द का उपयोग किसी को गाली देने के लिए किया जाता था .और हिदायत थी कि चमार को छूना नहीं है . वह भी बचपन में ऐसे ही करता था . लेकिन जब प्राइमरी स्कूल में गया तो दलितों के बच्चों के साथ टाट पर बैठना शुरू हुआ. हर साल गर्मियों में वह अपने मामा के यहाँ चला जाता था ,जौनपुर शहर से लगा हुआ गाँव . वहां भी उसकी दोस्ती एक दलित लडके से हो गयी. उसके अपने गाँव में गाली और अपमान के ज़्यादातर सन्दर्भ ऐसे थे जिसमें चमार शब्द का इस्तेमाल होता था. जब वह आठवी में था तो उसकी मुलाक़ात शीतला बनिया के रिश्तेदार राम मनोहर से हो गयी. . शीतला के रिश्तेदार ने उसकी दुनिया में तूफ़ान ला दिया. उसको पता चला कि चमार भी उसकी तरह के ही इंसान होते हैं . उसने अपने बाबू की दलितों संबंधी जानकारी को गलत मानना शुरू कर दिया .बाबू के उस तर्क को उसने खारिज करना शुरू कर दिया जसमें शूद्र को पीटने की बात को ज़मींदार का कर्त्तव्य बताया जा था. उसके बाबू पढ़ाई लिखाई के भी खिलाफ थे . उनका कहना था कि पढ़ लिख कर लडके किसी काम के नहीं रह जाते . दसवीं के बाद उसकी पढ़ाई पर रोक लग गयी. लेकिन माँ ने जिद करके अपने मायके ले जाकर जौनपुर में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए नाम लिखवा दिया .वह जौनपुर गया तो उसके बचपन के दलित साथी ने पढ़ाई छोड़ दी थी, उसका गौना आ गया था और वह उसके मामा के घर ही खेती के काम के लिए हलवाहा बन गया था. . अपने हीरो ने उस से सम्बन्ध बनाए रखा. उसके गाँव में दलितों के बच्चों के नाम ऐसे होते थे जो ठाकुरों ब्राह्मणों के नाम से अलग लगते थे . ढिलढिल ,फेरे, मतन, बुतन्नी, बग्गड़ ,मतई ,दूलम,दुक्छोर, बरखू, हरखू आदि . अगर किसी दलित बच्चे का नाम ठाकुरों के बच्चों से मिलता जुलता रख दिया जाता था तो व्यंग्य में कहा जाता था कि बिटिया चमैनी कै नाउ राजरनियाँ. यह कहावत उसके दिमाग में घुसी हुई थी . और जब उसके मामा के हलवाहे और उसके बचपन के मित्र के घर बेटी पैदा हुई तो उसने उसका नाम राजरानी रखवा दिया. जब उसके बाबू को पता चला तो वे बहुत खफा हुए और परंपरा तोड़ने का आरोप लगा कर अपने ही बेटे को अपमानित किया , मारा पीटा .
बात आई गयी हो गयी . राजरानी को अफसर बनने लायक शिक्षा दिलवाने में अपने हीरो ने बहुत पापड़ बेले . तरह तरह के लोगों ने विरोध किया लेकिन लड़की कुशाग्रबुद्धि थी , पढ़ लिख गयी . और उत्तर प्रदेश पुलिस में सब इन्स्पेक्टर हो गयी . . जब उसने अपने पिता के मित्र के बाबू जी के घर जाकर उनसे मुलाक़ात की तो वे सन्न रह गए और कहा कि मैं तो पहले ही कहता था कि यह लड़की बहुत ऊंचे मुकाम तक जायेगी. हालांकि यह बात उन्होंने कभी नहीं कहे एथी . वे तो उसको गाली ही देते रहते थे .सच्चाई यह है कि उन बाबू साहेब की मुखालफत के बावजूद लडकी ने तरक्की की . अगर माकूल माहौल मिलता तो शायद और ऊंचे पद पर जाती. इस कहानी की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि इस बात का मुगालता नहीं होना चाहिए कि अर्ध शिक्षित और अशिक्षित सर्वरों के एमानासिकता कभी नहीं बदले गी. यहाँ उन अर्ध शिक्षितों को भी शामिल करना होगा जो डिग्रीधारी हैं . अगर सामाजिक बराबरी की लड़ाई लड़ने वाले लड़कियों की शिक्षा पर ज़्यादा ध्यान दें तो मकसद को हासिल करना ज्यादा आसान होगा ..
महिलाओं के लिए लोक सभा और विधान मंडलों में सीटें रिज़र्व करने की बहस में बहुत सारे आयाम जुड़ गए हैं.. संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी दलितों को उनका हक नहीं मिल पाया है जबकि संविधान के निर्माताओं को उम्मीद थी कि आरक्षण की व्यवस्था को दस साल तक ही रखना होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जिन लोगों के हाथों में सत्ता का कंट्रोल आया उनकी सोच जालिमाना और सामंती थी . शायद इसी लिए दलितों को उनका हक नहीं मिला. शिक्षा, न्याय, प्रशासन, राजनीति ,व्यापार , पत्रकारिता आदि जैसे जितने भी सत्ता के आले थे ,सब पर दलित विरोधियों का क़ब्ज़ा था. जाति व्यवस्था का सबसे क्रूर पहलू दलितों के लिए ही आरक्षित था . उनके लिए संविधान के तहत जो अवसर मुहैया कराये गए थे , उन पर भी जाति व्यवस्था का सांप कुण्डली मार कर बैठा हुआ था . डॉ अंबेडकर और कांशी राम ने जाति व्यवस्था की बंदिश को तोड़ने की जो कोशिश की उसका भी वह नतीजा नहीं निकला जो निकलना चाहिए था . आरक्षण की वजह से जो दलित लोग उस चक्रव्यूह से बाहर आये उनमें से काफी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो शहरी मध्य वर्ग के सदस्य बन गए और उनकी भी सोच सामंती हो गयी. उन्होंने सामाजिक परिवर्तन और बराबरी के लिए वह नहीं किया जो उनको करना चाहिए था. आज ज़रुरत इस बात की है कि मनुवादी व्यवस्था के वारिसों को तो दलित अधिकारों की चेतना से अवगत कराया ही जाए लेकिन दलित परिवारों से आये भाग्य विधाता नेताओं और नौकरशाहों को भी चेताया जाये कि जब तक सभी दलितों की आर्थिक स्थिति नहीं सुधरेगी सामाजिक बराबरी का सपना देखना भी बेमतलब है . अगर ऐसा हुआ तो नयी पीढी की राजरानी सब इन्स्पेक्टर नहीं होगी, वह सीधे आई पी एस में भर्ती होगी.
उसके गाँव में चमार शब्द का उपयोग किसी को गाली देने के लिए किया जाता था .और हिदायत थी कि चमार को छूना नहीं है . वह भी बचपन में ऐसे ही करता था . लेकिन जब प्राइमरी स्कूल में गया तो दलितों के बच्चों के साथ टाट पर बैठना शुरू हुआ. हर साल गर्मियों में वह अपने मामा के यहाँ चला जाता था ,जौनपुर शहर से लगा हुआ गाँव . वहां भी उसकी दोस्ती एक दलित लडके से हो गयी. उसके अपने गाँव में गाली और अपमान के ज़्यादातर सन्दर्भ ऐसे थे जिसमें चमार शब्द का इस्तेमाल होता था. जब वह आठवी में था तो उसकी मुलाक़ात शीतला बनिया के रिश्तेदार राम मनोहर से हो गयी. . शीतला के रिश्तेदार ने उसकी दुनिया में तूफ़ान ला दिया. उसको पता चला कि चमार भी उसकी तरह के ही इंसान होते हैं . उसने अपने बाबू की दलितों संबंधी जानकारी को गलत मानना शुरू कर दिया .बाबू के उस तर्क को उसने खारिज करना शुरू कर दिया जसमें शूद्र को पीटने की बात को ज़मींदार का कर्त्तव्य बताया जा था. उसके बाबू पढ़ाई लिखाई के भी खिलाफ थे . उनका कहना था कि पढ़ लिख कर लडके किसी काम के नहीं रह जाते . दसवीं के बाद उसकी पढ़ाई पर रोक लग गयी. लेकिन माँ ने जिद करके अपने मायके ले जाकर जौनपुर में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए नाम लिखवा दिया .वह जौनपुर गया तो उसके बचपन के दलित साथी ने पढ़ाई छोड़ दी थी, उसका गौना आ गया था और वह उसके मामा के घर ही खेती के काम के लिए हलवाहा बन गया था. . अपने हीरो ने उस से सम्बन्ध बनाए रखा. उसके गाँव में दलितों के बच्चों के नाम ऐसे होते थे जो ठाकुरों ब्राह्मणों के नाम से अलग लगते थे . ढिलढिल ,फेरे, मतन, बुतन्नी, बग्गड़ ,मतई ,दूलम,दुक्छोर, बरखू, हरखू आदि . अगर किसी दलित बच्चे का नाम ठाकुरों के बच्चों से मिलता जुलता रख दिया जाता था तो व्यंग्य में कहा जाता था कि बिटिया चमैनी कै नाउ राजरनियाँ. यह कहावत उसके दिमाग में घुसी हुई थी . और जब उसके मामा के हलवाहे और उसके बचपन के मित्र के घर बेटी पैदा हुई तो उसने उसका नाम राजरानी रखवा दिया. जब उसके बाबू को पता चला तो वे बहुत खफा हुए और परंपरा तोड़ने का आरोप लगा कर अपने ही बेटे को अपमानित किया , मारा पीटा .
बात आई गयी हो गयी . राजरानी को अफसर बनने लायक शिक्षा दिलवाने में अपने हीरो ने बहुत पापड़ बेले . तरह तरह के लोगों ने विरोध किया लेकिन लड़की कुशाग्रबुद्धि थी , पढ़ लिख गयी . और उत्तर प्रदेश पुलिस में सब इन्स्पेक्टर हो गयी . . जब उसने अपने पिता के मित्र के बाबू जी के घर जाकर उनसे मुलाक़ात की तो वे सन्न रह गए और कहा कि मैं तो पहले ही कहता था कि यह लड़की बहुत ऊंचे मुकाम तक जायेगी. हालांकि यह बात उन्होंने कभी नहीं कहे एथी . वे तो उसको गाली ही देते रहते थे .सच्चाई यह है कि उन बाबू साहेब की मुखालफत के बावजूद लडकी ने तरक्की की . अगर माकूल माहौल मिलता तो शायद और ऊंचे पद पर जाती. इस कहानी की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि इस बात का मुगालता नहीं होना चाहिए कि अर्ध शिक्षित और अशिक्षित सर्वरों के एमानासिकता कभी नहीं बदले गी. यहाँ उन अर्ध शिक्षितों को भी शामिल करना होगा जो डिग्रीधारी हैं . अगर सामाजिक बराबरी की लड़ाई लड़ने वाले लड़कियों की शिक्षा पर ज़्यादा ध्यान दें तो मकसद को हासिल करना ज्यादा आसान होगा ..
महिलाओं के लिए लोक सभा और विधान मंडलों में सीटें रिज़र्व करने की बहस में बहुत सारे आयाम जुड़ गए हैं.. संविधान लागू होने के ६० साल बाद भी दलितों को उनका हक नहीं मिल पाया है जबकि संविधान के निर्माताओं को उम्मीद थी कि आरक्षण की व्यवस्था को दस साल तक ही रखना होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जिन लोगों के हाथों में सत्ता का कंट्रोल आया उनकी सोच जालिमाना और सामंती थी . शायद इसी लिए दलितों को उनका हक नहीं मिला. शिक्षा, न्याय, प्रशासन, राजनीति ,व्यापार , पत्रकारिता आदि जैसे जितने भी सत्ता के आले थे ,सब पर दलित विरोधियों का क़ब्ज़ा था. जाति व्यवस्था का सबसे क्रूर पहलू दलितों के लिए ही आरक्षित था . उनके लिए संविधान के तहत जो अवसर मुहैया कराये गए थे , उन पर भी जाति व्यवस्था का सांप कुण्डली मार कर बैठा हुआ था . डॉ अंबेडकर और कांशी राम ने जाति व्यवस्था की बंदिश को तोड़ने की जो कोशिश की उसका भी वह नतीजा नहीं निकला जो निकलना चाहिए था . आरक्षण की वजह से जो दलित लोग उस चक्रव्यूह से बाहर आये उनमें से काफी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो शहरी मध्य वर्ग के सदस्य बन गए और उनकी भी सोच सामंती हो गयी. उन्होंने सामाजिक परिवर्तन और बराबरी के लिए वह नहीं किया जो उनको करना चाहिए था. आज ज़रुरत इस बात की है कि मनुवादी व्यवस्था के वारिसों को तो दलित अधिकारों की चेतना से अवगत कराया ही जाए लेकिन दलित परिवारों से आये भाग्य विधाता नेताओं और नौकरशाहों को भी चेताया जाये कि जब तक सभी दलितों की आर्थिक स्थिति नहीं सुधरेगी सामाजिक बराबरी का सपना देखना भी बेमतलब है . अगर ऐसा हुआ तो नयी पीढी की राजरानी सब इन्स्पेक्टर नहीं होगी, वह सीधे आई पी एस में भर्ती होगी.
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Friday, March 19, 2010
मुंबई हमलों के सरगना को बचाने में जुटे अमरीका और पाकिस्तान
शेष नारायण सिंह
अमरीकी नागरिक,डेविड कोलमैन हेडली ने २६ नवम्बर २००८ के दिन मुंबई के ताजमहल होटल और उसके आस पास हुए हमलों में अपने शामिल होने की बात स्वीकार करके यह बात साबित कर दिया है कि अमरीका अभी भारत को अपना शत्रु ही मानता है.यह बात ख़ास तौर से सच होती लगती है कि हेडली अमरीकी सरकार में नौकर है और पिछले कई महीने से अमरीकी की खुफिया एजेंसियां उसे बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं .मुंबई में हमला करने वाले आतंकवादियों की डिजाइन ऐसी थी कि भारत की व्यापारिक राजधानी को दहशत की ज़द में लिया जा सके. हमला लगभग उसी शैली का था जैसा अमरीका के वर्ड ट्रेड टावर पर किया गया था . बड़े पैमाने पर नुकसान करने की योजना के साथ किया गया मुंबई हमला आतंकवाद की बड़ी घटना है. लेकिन अब इसमें अमरीकी तार जुड़ गए हैं तो यह और बड़ी घटना मानी जायेगी. मुंबई हमले के शुरू के दौर में ही यह बात साफ़ हो गयी थी कि इतने बड़े पैमाने पर विनाश करने की योजना किसी मामूली दिमाग की उपज नहीं हो सकती .इसमें बड़े गैंग शामिल हैं , यह बात सब को मालूम थी . लेकिन भारत से दोस्ती की नयी पींगें बढ़ा रहे अमरीका की सरकार के लोग इसमें शामिल होंगें , यह शक आम तौर पर नहीं किया जा रहा था. अब जब धीरे धीरे सच्चाई सामने आ रही है तो पता लग रहा है कि अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धर्ता भारत को चैन से नहीं बैठने देना चाहते .
अमरीकी शहर, शिकागो की मुकामी आदालत में हेडली के इक़बालिया बयान का मतलब यह है कि उसने भारत के खिलाफ आतंकवादी साज़िश बनायी भी थी और उसे अंजाम तक पंहुचाया भी था. पूरा अमरीकी अमला उसे निश्चित मृत्युदंड से बचाने के काम में जुट गया है जिसका मतलब यह है कि वह अमरीकी सी आई ए के डर्टी ट्रिक विभाग का ख़ास बंदा है ..भारत पर दबाव बनानेकी गरज से किया गया यह हमला पकिस्तान की विदेश नीति को धार देने में कारगर साबित हुआ लेकिन अब लगता है कि अमरीकी विदेश नीति के योजना कारों की चाल भी यही थी कि भारत पर दबाव डाला जाए जिस से उसे पाकिस्तान के सामने थोडा झुकाया जा सके. लगता है कि अमरीकी और पाकिस्तानी विदेश नीति का वह लक्ष्य तो हासिल नहीं हो सका ,उलटे आतंकवाद के पक्षधर के रूप में पहचाने जाने के खतरे के बीच घिरे अमरीकी नीति नियामक मुसीबत में फंस गए लगते हैं. हेडली का बाप अमरीका का नागरिक बनने के पहले एक पाकिस्तानी अफसर रह चुका था . शुरू के दौर में अमरीका की कोशिश थी कि भारत पर हुए २६/११ के हमले को शुद्ध रूप से पाकिस्तानी कारस्तानी साबित करके पल्ला झाड लिया जाए लेकिन मीडिया में हेडली की पोल खुल जाने के बाद मामला अमरीकी हुकूमत की काबू के बाहर चला गया.अब इस बात में शक नहीं है कि मुंबई हमलों में अमरीकी खुफिया एजेंसियों का हाथ भी था. जहां तक पाकिस्तान के शामिल होने की बात है , उसमें तो कोई शक है ही नहीं .
भारत को कमज़ोर करने की अमरीकी डिजाइन को समझने के लिए समकालीन इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगें . दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब अमरीका एक मज़बूत देश होकर उभरा तो उसकी इच्छा थी कि वह एशिया के नवस्वतंत्र राष्ट्रों को अपने साथ ले लेगा. शीत युद्ध के बीज बोये जा चुके थे , पूरा विश्व दो खेमों में बँट रहा रहा था , कोई अमरीका के साथ जा रहा था ,तो कोई सोवियत रूस के साथ . अमरीकी विदेश नीति की कोशिश थी कि भारत को अपना साथी बना लिया जाए जिसका इस्तेमाल रूस और चीन के खिलाफ हो सकता था लेकिन अमरीका का दुर्भाग्य था कि उस वक़्त देश का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू के हाथ में था जो किसी भी अमरीकी राजनीतिक चिन्तक और दार्शनिक पर भारी पड़ते.. नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की बुनियाद रख दी और बड़ी संख्या में नवस्वतंत्र देशों को अमरीका के खेमे में जाने से रोक दिया .उसके बाद के अमरीकी प्रशासकों ने इस बात का बुरा माना और भारत से दुश्मनी साधना शुरू कर दिया . भारत हाथ नहीं आया तो उन लोगों ने भारत को भौगोलिक रूप से लिहाज़ से घेरने के चक्कर में पाकिस्तान को अपनी चेलाही में ले लिया .. उन दिनों आज का बांगला देश भी पकिस्तान का ही हिस्सा था . ज़ाहिर है भारत के दोनों तरफ अमरीका की हमदर्द फौजें तैनात थी लेकिन भारत की विदेश नीति और सीमाओं की रक्षा की नीति दुरुस्त थी और पाकिस्तान ने जितनी बार भी भारत पर हमला किया ,उसे मुंह की खानी पड़ी. १९६५ और १९७१ में भारत के खिलाफ पकिस्तान की लड़ाई में अमरीकी शह की मात्रा भी थी लेकिन हर बार पकिस्तान का ही नुकसान हुआ. सोवियत रूस के ढह जाने के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए .शीत युद्ध ख़त्म हो गया , अमरीका दुनिया का सबसे ताक़तवर देश बन गया . भारत की विदेश नीति ने भी हिचकोले खाए और दक्षिण पंथियों के प्रभाव में आकर वह भी धीरे धीरे अमरीकापरस्ती के रास्ते पर चल निकली . अफगानिस्तान के आतंक के केन्द्रों के तबाह करने के लिए एक बार फिर अमरीका पकिस्तान को धन दे रहा है लेकिन अब वह भारत से दोस्ती भी करना चाहता है . अफ़सोस की बात है कि इस दोस्ती में भी वह खेल शातिराना ही रख रहा है . भारत पर तरह तरह के दबाव बनाकर उसे कमज़ोर दोस्त बनाने की अमरीका की कोशिश को किसी भी हालत में सही नहीं ठहराया जा सकता.अगर अमरीका चाहता है कि भारत से अच्छे सम्बन्ध बनें तो उसे फ़ौरन हेडली को भारत के हवाले करना चाहिए क्योंकि उसने भारत पर हुए कई हमलों में अपने शामिल होने की बात को कुबूल किया है .वह वास्तव में भारत का दुश्मन है और उसे बचाने की कोशिश करके अमरीका भारत विरोधी काम कर रहा है. एक बार अगर हेडली भारत की जांच एजेंसियों के कब्जे में आ गया तो पाकिस्तानी सरकार और वहां की फौज को मुंबई हमलों का अपराधी साबित करना बहुत आसान हो जाएगा.
अमरीकी नागरिक,डेविड कोलमैन हेडली ने २६ नवम्बर २००८ के दिन मुंबई के ताजमहल होटल और उसके आस पास हुए हमलों में अपने शामिल होने की बात स्वीकार करके यह बात साबित कर दिया है कि अमरीका अभी भारत को अपना शत्रु ही मानता है.यह बात ख़ास तौर से सच होती लगती है कि हेडली अमरीकी सरकार में नौकर है और पिछले कई महीने से अमरीकी की खुफिया एजेंसियां उसे बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं .मुंबई में हमला करने वाले आतंकवादियों की डिजाइन ऐसी थी कि भारत की व्यापारिक राजधानी को दहशत की ज़द में लिया जा सके. हमला लगभग उसी शैली का था जैसा अमरीका के वर्ड ट्रेड टावर पर किया गया था . बड़े पैमाने पर नुकसान करने की योजना के साथ किया गया मुंबई हमला आतंकवाद की बड़ी घटना है. लेकिन अब इसमें अमरीकी तार जुड़ गए हैं तो यह और बड़ी घटना मानी जायेगी. मुंबई हमले के शुरू के दौर में ही यह बात साफ़ हो गयी थी कि इतने बड़े पैमाने पर विनाश करने की योजना किसी मामूली दिमाग की उपज नहीं हो सकती .इसमें बड़े गैंग शामिल हैं , यह बात सब को मालूम थी . लेकिन भारत से दोस्ती की नयी पींगें बढ़ा रहे अमरीका की सरकार के लोग इसमें शामिल होंगें , यह शक आम तौर पर नहीं किया जा रहा था. अब जब धीरे धीरे सच्चाई सामने आ रही है तो पता लग रहा है कि अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धर्ता भारत को चैन से नहीं बैठने देना चाहते .
अमरीकी शहर, शिकागो की मुकामी आदालत में हेडली के इक़बालिया बयान का मतलब यह है कि उसने भारत के खिलाफ आतंकवादी साज़िश बनायी भी थी और उसे अंजाम तक पंहुचाया भी था. पूरा अमरीकी अमला उसे निश्चित मृत्युदंड से बचाने के काम में जुट गया है जिसका मतलब यह है कि वह अमरीकी सी आई ए के डर्टी ट्रिक विभाग का ख़ास बंदा है ..भारत पर दबाव बनानेकी गरज से किया गया यह हमला पकिस्तान की विदेश नीति को धार देने में कारगर साबित हुआ लेकिन अब लगता है कि अमरीकी विदेश नीति के योजना कारों की चाल भी यही थी कि भारत पर दबाव डाला जाए जिस से उसे पाकिस्तान के सामने थोडा झुकाया जा सके. लगता है कि अमरीकी और पाकिस्तानी विदेश नीति का वह लक्ष्य तो हासिल नहीं हो सका ,उलटे आतंकवाद के पक्षधर के रूप में पहचाने जाने के खतरे के बीच घिरे अमरीकी नीति नियामक मुसीबत में फंस गए लगते हैं. हेडली का बाप अमरीका का नागरिक बनने के पहले एक पाकिस्तानी अफसर रह चुका था . शुरू के दौर में अमरीका की कोशिश थी कि भारत पर हुए २६/११ के हमले को शुद्ध रूप से पाकिस्तानी कारस्तानी साबित करके पल्ला झाड लिया जाए लेकिन मीडिया में हेडली की पोल खुल जाने के बाद मामला अमरीकी हुकूमत की काबू के बाहर चला गया.अब इस बात में शक नहीं है कि मुंबई हमलों में अमरीकी खुफिया एजेंसियों का हाथ भी था. जहां तक पाकिस्तान के शामिल होने की बात है , उसमें तो कोई शक है ही नहीं .
भारत को कमज़ोर करने की अमरीकी डिजाइन को समझने के लिए समकालीन इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगें . दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब अमरीका एक मज़बूत देश होकर उभरा तो उसकी इच्छा थी कि वह एशिया के नवस्वतंत्र राष्ट्रों को अपने साथ ले लेगा. शीत युद्ध के बीज बोये जा चुके थे , पूरा विश्व दो खेमों में बँट रहा रहा था , कोई अमरीका के साथ जा रहा था ,तो कोई सोवियत रूस के साथ . अमरीकी विदेश नीति की कोशिश थी कि भारत को अपना साथी बना लिया जाए जिसका इस्तेमाल रूस और चीन के खिलाफ हो सकता था लेकिन अमरीका का दुर्भाग्य था कि उस वक़्त देश का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू के हाथ में था जो किसी भी अमरीकी राजनीतिक चिन्तक और दार्शनिक पर भारी पड़ते.. नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की बुनियाद रख दी और बड़ी संख्या में नवस्वतंत्र देशों को अमरीका के खेमे में जाने से रोक दिया .उसके बाद के अमरीकी प्रशासकों ने इस बात का बुरा माना और भारत से दुश्मनी साधना शुरू कर दिया . भारत हाथ नहीं आया तो उन लोगों ने भारत को भौगोलिक रूप से लिहाज़ से घेरने के चक्कर में पाकिस्तान को अपनी चेलाही में ले लिया .. उन दिनों आज का बांगला देश भी पकिस्तान का ही हिस्सा था . ज़ाहिर है भारत के दोनों तरफ अमरीका की हमदर्द फौजें तैनात थी लेकिन भारत की विदेश नीति और सीमाओं की रक्षा की नीति दुरुस्त थी और पाकिस्तान ने जितनी बार भी भारत पर हमला किया ,उसे मुंह की खानी पड़ी. १९६५ और १९७१ में भारत के खिलाफ पकिस्तान की लड़ाई में अमरीकी शह की मात्रा भी थी लेकिन हर बार पकिस्तान का ही नुकसान हुआ. सोवियत रूस के ढह जाने के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए .शीत युद्ध ख़त्म हो गया , अमरीका दुनिया का सबसे ताक़तवर देश बन गया . भारत की विदेश नीति ने भी हिचकोले खाए और दक्षिण पंथियों के प्रभाव में आकर वह भी धीरे धीरे अमरीकापरस्ती के रास्ते पर चल निकली . अफगानिस्तान के आतंक के केन्द्रों के तबाह करने के लिए एक बार फिर अमरीका पकिस्तान को धन दे रहा है लेकिन अब वह भारत से दोस्ती भी करना चाहता है . अफ़सोस की बात है कि इस दोस्ती में भी वह खेल शातिराना ही रख रहा है . भारत पर तरह तरह के दबाव बनाकर उसे कमज़ोर दोस्त बनाने की अमरीका की कोशिश को किसी भी हालत में सही नहीं ठहराया जा सकता.अगर अमरीका चाहता है कि भारत से अच्छे सम्बन्ध बनें तो उसे फ़ौरन हेडली को भारत के हवाले करना चाहिए क्योंकि उसने भारत पर हुए कई हमलों में अपने शामिल होने की बात को कुबूल किया है .वह वास्तव में भारत का दुश्मन है और उसे बचाने की कोशिश करके अमरीका भारत विरोधी काम कर रहा है. एक बार अगर हेडली भारत की जांच एजेंसियों के कब्जे में आ गया तो पाकिस्तानी सरकार और वहां की फौज को मुंबई हमलों का अपराधी साबित करना बहुत आसान हो जाएगा.
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सभी वर्गों की महिलाओं को आरक्षण देना ज़रूरी
शेष नारायण सिंह
संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन करने की कोशिशों को एक ज़बरदस्त झटका लगा है. बी जे पी की नेता सुषमा स्वराज ने कहा है कि इस बिल को लोकसभा में पास कराने के लिए प्रस्तावित सभी पार्टियों की मीटिंग में उनकी पार्टी खुले दिमाग से जायेगी. यह बयान बी जे पी के अब तक के रुख से थोडा अलग है क्योंकि अब तक बी जे पी वाले कहते थे कि महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने के मामले में उनका फैसला बिलकुल स्पष्ट है . वे इसे पूरा समर्थन देते हैं .. कांग्रेस से मतभेद के बावजूद, कांग्रेस की तरफ से लाये गए बिल का बी जे पी ने राज्यसभा में ज़बरदस्त समर्थन किया था . सबको पता है कि बी जे पी के समर्थन के बिना बिल किसी भी हालत में पास नहीं हो सकता था.
अब खुले दिमाग से बिल पर विचार करने की बात कह कर बी जे पी ने अपने रुख में बदलाव का साफ़ संकेत दे दिया है . यह बात भी सच है कि बी जे पी के लिए अब अपनी बात बदलना बहुत मुश्किल होगा लेकिन राजनीति में उन्हीं बातों को किया जा सकता है जो संभव हों .. कोई भी असंभव लक्ष्य रख कर उस पर काम करना बहुत ही कठिन होता है और असंभव को हासिल करने की कोशिश में कई बार वह भी हाथ नहीं आता जो आ सकता था . बी जे पी , कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट ने कोशिश की थी कि महिला आरक्षण के संविधान संशोधन को एलीट महिलाओं के हित की रक्षा के लिए एक कानून के रूप में पास करा लिया जाए लेकिन अब बी जे पी और कांग्रेस में उठ रहे असंतोष की वजह से पार्टियों ने अपने रुख में नरमी लाने का संकेत दिया है . बी जे पी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन के मामले में भी पार्टी के एलीट रुख की बात सामने आ गयी है .कार्यकारिणी में हालांकि ३३ प्रतिशत महिलाओं को जगह दी गयी है लेकिन उनमें से लगभग सभी समाज के ऊपरी तबके की हैं. बी जे पी में पिछड़ी जाति के सांसदों की संख्या काफी है और उन्हें अब लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव के उस तर्क में दम नज़र आने लगा है जिसमें उन्होंने कहा था कि महिला आरक्षण के नाम पर बी जे पी संभ्रांत लोगों को आगे लाने की गुपचुप कोशिश कर रही है ..बिहार से चुन कर आये बी जे पी सांसद हुकुम देव नारायण यादव ने पहले ही सार्वजनिक मंचों से यह बात कहना शुरू कर दिया है . बी जे पी के आला नेताओं को मालूम है कि उनके अलावा और भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो वर्तमान रूप में महिलाओं के आरक्षण के संविधान संशोधन को स्वीकार नहीं करेंगें . इसीलिए बी जे पी की नेता सुषमा स्वराज ने खुले दिमाग से आगे बढ़ने की बात करके संभावित बगावत पर रोक लगाने की कोशिश की है .
हालांकि कांग्रेस अभी भी बिल को मौजूदा रूप में ही पास कराने पर आमादा है लेकिन जानकार बताते हैं कि कांग्रेस के लिए भी यह संभव नहीं होगा क्योंकि यू पी ए सरकार को समर्थन दे रहे दलों में बहुत सारे ऐसे नेता हैं जो ऐसा होने नहीं देंगें . राज्यसभा में बिल को पास करवा कर कांग्रेस और बी जे पी ने अपने नंबर तो बढ़ा लिए हैं लेकिन अब साफ़ लगने लगा है कि महिला आरक्षण के प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में धकेलने की योजना तैयार हो चुकी है . मौजूदा राजनीतिक माहौल को देख कर लगता है कि संसद के बहुसंख्यक पुरुष सदस्य महिलाओं को आरक्षण देने के मूड में नहीं दिखते, वे इसे टालने के बहाने ढूंढ रहे हैं . एक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने तो बता दिया है कि अगर महिलाओं का आरक्षण लागू हो गया और रोटेशन की प्रणाली भी प्रयोग में आ गयी तो १५ साल बाद ९९ प्रतिशत सीटों पर महिलाओं का क़ब्ज़ा होगा.. अन्य पार्टियों के नेता भी इसीतरह के उल जलूल तर्क दे रहे हैं. लेकिन लुब्बो लुबाब यह है कि महिलाओं के आरक्षण के सवाल को किसी तरह अब ठंडे बस्ते में डाल देना है .
सवाल यह है कि क्या महिला आरक्षण बिल का वही हाल होगा जो पिछले १५ वर्षों से हो रहा है.? या कोई रास्ता है जिसका अनुसरण करने से संविधान का यह ज़रूरी संशोधन पास कराया जा सकता है . पुरुष प्रधान समाज के मर्दवादी लोगों की तो यही कोशिश है कि महिलाओं को वहीं रहने दिया जाए जहां वे सदियों से हैं . इस सन्दर्भ में पिछले कुछ दिनों बहुत सारे उल जलूल बयान आये हैं . कोई कहता है कि महिलाओं की जगह घर के अन्दर है तो कोई कहता है कि उनका काम बच्चों की देख भाल करना है . ऐसी और भी बहुत सारी बातें माहौल में हैं . उन सबका ज़िक्र करके दकियानूसी विचारों को अहमियत देने से कोई फायदा नहीं होगा. सोचने की बात यह है कि क्या कोई फौरी तरीका है जिस से महिलाओं को राज काज में शामिल किया जा सके . सीधी बात है कि अगर देश की आधी आबादी को शामिल करके कोई रणनीति बनायी जाए तभी संविधान में संशोधन करके महिलाओं को आरक्षण दिया जा सकता है . यह तभी संभव होगा जब राज्यसभा में पेश किया गया बिल इस तरह से दुरुस्त कर दिया जाए कि समाज के हर वर्ग को उसमें जगह मिल सके.. इस देश में ज़्यादातर लोग गरीब हैं . गरीबी रेखा के नीचे वाले गरीब और गरीबी रेखा के ऊपर वाले गरीब. यह सारे गरीब गावों में रहते हैं . शहरों में भी कुछ मिल जायेंगें . जब तक ग्रामीण महिलाओं , मुस्लिम महिलाओं , दलित महिलाओं और गरीब महिलाओं को राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाएगा तब तक कुछ होने वाला नहीं है . अभी जो बिल संसद में पेश किया गया है उसे पास कराने से देश की पूरी आबादी का कोई भला नहीं होगा क्योंकि यह बिल तो वास्तव में देश की दो प्रतिशत महिलाओं को ३३ प्रतिशत सीटें देने की साज़िश है. यह उम्मीद नहीं करना चाहिए कि पूरा देश इसे समर्थन देगा . हाँ अगर महिलाओं के आरक्षण के लिए ५० प्रतिशत सीटें ऑफर कर दी जाएँ और मुसलमानों, दलितों , पिछड़े वर्गों और गरीब सवर्णों को आरक्षण के दायरे में लाया जाए तो किसी भी पार्टी की हिम्मत नहीं होगी कि महिला आरक्षण के लिए संविधान में प्रस्तावित संशोधन का विरोध कर सके
संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन करने की कोशिशों को एक ज़बरदस्त झटका लगा है. बी जे पी की नेता सुषमा स्वराज ने कहा है कि इस बिल को लोकसभा में पास कराने के लिए प्रस्तावित सभी पार्टियों की मीटिंग में उनकी पार्टी खुले दिमाग से जायेगी. यह बयान बी जे पी के अब तक के रुख से थोडा अलग है क्योंकि अब तक बी जे पी वाले कहते थे कि महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने के मामले में उनका फैसला बिलकुल स्पष्ट है . वे इसे पूरा समर्थन देते हैं .. कांग्रेस से मतभेद के बावजूद, कांग्रेस की तरफ से लाये गए बिल का बी जे पी ने राज्यसभा में ज़बरदस्त समर्थन किया था . सबको पता है कि बी जे पी के समर्थन के बिना बिल किसी भी हालत में पास नहीं हो सकता था.
अब खुले दिमाग से बिल पर विचार करने की बात कह कर बी जे पी ने अपने रुख में बदलाव का साफ़ संकेत दे दिया है . यह बात भी सच है कि बी जे पी के लिए अब अपनी बात बदलना बहुत मुश्किल होगा लेकिन राजनीति में उन्हीं बातों को किया जा सकता है जो संभव हों .. कोई भी असंभव लक्ष्य रख कर उस पर काम करना बहुत ही कठिन होता है और असंभव को हासिल करने की कोशिश में कई बार वह भी हाथ नहीं आता जो आ सकता था . बी जे पी , कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट ने कोशिश की थी कि महिला आरक्षण के संविधान संशोधन को एलीट महिलाओं के हित की रक्षा के लिए एक कानून के रूप में पास करा लिया जाए लेकिन अब बी जे पी और कांग्रेस में उठ रहे असंतोष की वजह से पार्टियों ने अपने रुख में नरमी लाने का संकेत दिया है . बी जे पी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन के मामले में भी पार्टी के एलीट रुख की बात सामने आ गयी है .कार्यकारिणी में हालांकि ३३ प्रतिशत महिलाओं को जगह दी गयी है लेकिन उनमें से लगभग सभी समाज के ऊपरी तबके की हैं. बी जे पी में पिछड़ी जाति के सांसदों की संख्या काफी है और उन्हें अब लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव के उस तर्क में दम नज़र आने लगा है जिसमें उन्होंने कहा था कि महिला आरक्षण के नाम पर बी जे पी संभ्रांत लोगों को आगे लाने की गुपचुप कोशिश कर रही है ..बिहार से चुन कर आये बी जे पी सांसद हुकुम देव नारायण यादव ने पहले ही सार्वजनिक मंचों से यह बात कहना शुरू कर दिया है . बी जे पी के आला नेताओं को मालूम है कि उनके अलावा और भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो वर्तमान रूप में महिलाओं के आरक्षण के संविधान संशोधन को स्वीकार नहीं करेंगें . इसीलिए बी जे पी की नेता सुषमा स्वराज ने खुले दिमाग से आगे बढ़ने की बात करके संभावित बगावत पर रोक लगाने की कोशिश की है .
हालांकि कांग्रेस अभी भी बिल को मौजूदा रूप में ही पास कराने पर आमादा है लेकिन जानकार बताते हैं कि कांग्रेस के लिए भी यह संभव नहीं होगा क्योंकि यू पी ए सरकार को समर्थन दे रहे दलों में बहुत सारे ऐसे नेता हैं जो ऐसा होने नहीं देंगें . राज्यसभा में बिल को पास करवा कर कांग्रेस और बी जे पी ने अपने नंबर तो बढ़ा लिए हैं लेकिन अब साफ़ लगने लगा है कि महिला आरक्षण के प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में धकेलने की योजना तैयार हो चुकी है . मौजूदा राजनीतिक माहौल को देख कर लगता है कि संसद के बहुसंख्यक पुरुष सदस्य महिलाओं को आरक्षण देने के मूड में नहीं दिखते, वे इसे टालने के बहाने ढूंढ रहे हैं . एक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने तो बता दिया है कि अगर महिलाओं का आरक्षण लागू हो गया और रोटेशन की प्रणाली भी प्रयोग में आ गयी तो १५ साल बाद ९९ प्रतिशत सीटों पर महिलाओं का क़ब्ज़ा होगा.. अन्य पार्टियों के नेता भी इसीतरह के उल जलूल तर्क दे रहे हैं. लेकिन लुब्बो लुबाब यह है कि महिलाओं के आरक्षण के सवाल को किसी तरह अब ठंडे बस्ते में डाल देना है .
सवाल यह है कि क्या महिला आरक्षण बिल का वही हाल होगा जो पिछले १५ वर्षों से हो रहा है.? या कोई रास्ता है जिसका अनुसरण करने से संविधान का यह ज़रूरी संशोधन पास कराया जा सकता है . पुरुष प्रधान समाज के मर्दवादी लोगों की तो यही कोशिश है कि महिलाओं को वहीं रहने दिया जाए जहां वे सदियों से हैं . इस सन्दर्भ में पिछले कुछ दिनों बहुत सारे उल जलूल बयान आये हैं . कोई कहता है कि महिलाओं की जगह घर के अन्दर है तो कोई कहता है कि उनका काम बच्चों की देख भाल करना है . ऐसी और भी बहुत सारी बातें माहौल में हैं . उन सबका ज़िक्र करके दकियानूसी विचारों को अहमियत देने से कोई फायदा नहीं होगा. सोचने की बात यह है कि क्या कोई फौरी तरीका है जिस से महिलाओं को राज काज में शामिल किया जा सके . सीधी बात है कि अगर देश की आधी आबादी को शामिल करके कोई रणनीति बनायी जाए तभी संविधान में संशोधन करके महिलाओं को आरक्षण दिया जा सकता है . यह तभी संभव होगा जब राज्यसभा में पेश किया गया बिल इस तरह से दुरुस्त कर दिया जाए कि समाज के हर वर्ग को उसमें जगह मिल सके.. इस देश में ज़्यादातर लोग गरीब हैं . गरीबी रेखा के नीचे वाले गरीब और गरीबी रेखा के ऊपर वाले गरीब. यह सारे गरीब गावों में रहते हैं . शहरों में भी कुछ मिल जायेंगें . जब तक ग्रामीण महिलाओं , मुस्लिम महिलाओं , दलित महिलाओं और गरीब महिलाओं को राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाएगा तब तक कुछ होने वाला नहीं है . अभी जो बिल संसद में पेश किया गया है उसे पास कराने से देश की पूरी आबादी का कोई भला नहीं होगा क्योंकि यह बिल तो वास्तव में देश की दो प्रतिशत महिलाओं को ३३ प्रतिशत सीटें देने की साज़िश है. यह उम्मीद नहीं करना चाहिए कि पूरा देश इसे समर्थन देगा . हाँ अगर महिलाओं के आरक्षण के लिए ५० प्रतिशत सीटें ऑफर कर दी जाएँ और मुसलमानों, दलितों , पिछड़े वर्गों और गरीब सवर्णों को आरक्षण के दायरे में लाया जाए तो किसी भी पार्टी की हिम्मत नहीं होगी कि महिला आरक्षण के लिए संविधान में प्रस्तावित संशोधन का विरोध कर सके
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