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Sunday, July 26, 2009

भारत का मित्र नहीं अमेरिका

इस सूचना से उत्साहित होने से बचा जाना चाहिए कि लंदन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच आपसी विश्वास बढ़ाने वाली बातचीत हुई। नि:संदेह भारत-अमेरिका के संबंध दिन-प्रतिदिन और प्रगाढ़ होने के प्रबल आसार हैं, क्योंकि दोनों स्वाभाविक मित्र हैं तथा दोनों को एक-दूसरे के सहयोग की आवश्यकता है, लेकिन पाकिस्तान में पोषित हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में अमेरिकी प्रशासन ने जैसा रवैया अपना रखा है वह भारतीय हितों के अनुकूल नहीं है।

भले ही मनमोहन सिंह और बराक ओबामा की मुलाकात को इस रूप में रेखांकित किया जा रहा हो कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में भारत एवं अमेरिका एकजुट हैं, लेकिन इस शाब्दिक एकजुटता से पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पडऩे वाला नहीं है। इसका ताजा प्रमाण पाकिस्तान का यह बयान है कि वह रुकी पड़ी शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए कोई शर्त स्वीकार नहीं करेगा।

यह बयान मनमोहन सिंह के इस कथन के जवाब में आया है कि संवाद शुरू करने के लिए पहले पाकिस्तान मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों को दंडित करने का काम करे। स्पष्ट है कि भारत यह मानकर संतुष्ट नहीं हो सकता कि अब गेंद पाकिस्तान के पाले में है, क्योंकि पाकिस्तानी शासक एक बार फिर दुष्प्रचार का सहारा लेकर यह साबित करने की कोशिश में हैं कि भारत उनसे बातचीत करने के मामले में उन पर शर्ते थोप रहा है।

इससे भी अधिक चिंताजनक बराक ओबामा का यह सुझाव है कि जब दोनों देशों की सबसे बड़ी शत्रु गरीबी है तब भारत-पाकिस्तान के बीच प्रभावशाली संवाद आवश्यक है। क्या ऐसे किसी सुझाव का तब कोई मतलब हो सकता है जब पाकिस्तान उन तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने के मामले में नित-नए बहाने बना रहा हो जो भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं? यह सही समय है जब भारत इस अमेरिकी रट के खिलाफ दृढ़ता का परिचय दे कि उसे पाकिस्तान से बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बराक ओबामा के बयान के बाद पाकिस्तान इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि अमेरिकी प्रशासन तो उसका पक्ष ले रहा है।

भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि ओबामा प्रशासन पाकिस्तान में बेकाबू हो रहे आतंकवाद के संदर्भ में लगभग उसी नीति पर चल रहा है जिस पर बुश प्रशासन चल रहा था। मौजूदा अमेरिकी प्रशासन पाकिस्तान और अफगानिस्तान में कथित उदार आतंकियों की भी तलाश कर रहा है। इसके अतिरिक्त वह यह मानकर भी चल रहा है कि पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देकर वहां पनप रहे आतंकवाद को आसानी से समाप्त किया जा सकता है।

नि:संदेह पाकिस्तान को आर्थिक मदद की जरूरत है, लेकिन तभी जब वह उसका उपयोग आतंकी संगठनों से लडऩे में करे। अमेरिका का कुछ भी मानना हो, लेकिन पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की एक मात्र कोशिश आतंकी संगठनों की गतिविधियों पर पर्दा डालने की है। इसके लिए वह विश्व समुदाय की आंखों में धूल झोंक रहा है, लेकिन अमेरिका असलियत समझने से इनकार कर रहा है।

आडवाणी की हिमाक़त

भारतीय जनता पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री पद की उम्मीद में बैठे लाल कृष्ण आडवाणी ने वरुण गांधी की तुलना जय प्रकाश नारायण से की है उनके इस बयान पर उन लोगों ने काफी नाराजगी जाहिर की है जिन्होंने इमरजेंसी के उन्नीस महीनों में उस वक्त की कांग्रेसी हुकूमत के हाथों भयानक तकलीफें उठाई हैं।

आडवाणी के इस बयान के बाद उन बातों पर फिर यकीन होने लगा है जिनमें बताया जाता है कि भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के सपने सजाने वाले व्यक्ति की याददाश्त में कुछ दिक्कतें पेश आने लगी हैं। क्योंकि संजय गांधी के बेटे को संपूर्ण क्रांति के नायक जय प्रकाश नारायण के बराबर खड़ा करने वाले व्यक्ति की समझदारी पर सवाल उठना लाजमी है।

लाल कृष्ण आडवाणी ने वरुण गांधी की गिरफ्तारी पर दिए गए अपने बयान में कहा कि इस गिरफ्तारी से उनको इमरजेंसी की याद आ गई। वे शायद यह भूल गए या जान बूझकर भूल गए कि इमरजेंसी के सबसे बड़े खलनायक इन्ही वरुण गांधी के पिता स्व. संजय गांधी ही थे। उस वक्त की राजनीति को समझने वाला कोई भी व्यक्ति बता देगा कि इमरजेंसी के सारे अत्याचार संजय गांधी ने ही करवाएथे दिल्ली के तुर्कमान गेट पर जो गोलियां चली थीं, उसका आदेश संजय गांधी के ही चहेते पुलिस अफसर भिंडर ने दिया था और तुर्कमान गेट इलाके में जो लाखों लोग बेघर हुए थे वह भी संजय गांधी की राजनीति का ही नतीजा था।

उस वक्त के डीडीए के सेर्वसर्वा जगमोहन ने अपनी निगरानी में तुर्कमान गेट पर तबाही मचाई थी। उस अभियान में लाखों लोगों के घर तबाह हो गए थे और इनके घर ढहाए गए थे, उनमें से ज्यादातर मुसलमान थे। संजय गांधी के ही इशारों पर ही पूरे हिंदुस्तान में नसबंदी का जगरदस्त अभियान चलाया गया था। उत्तर प्रदेश के कुछ मुस्लिम बुहत इलाकों में संजय गांधी का आतंक आज तक लोग नहीं भूले हैं। यह भी इत्तफाक ही है कि इमरजेंसी के सबसे खुंखार व्यक्ति का परिवार आज भाजपा में है।

संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी ने इमरजेंसी में मनमानेपन की कई मिसाले कायम की थीं। दिल्ली में संजय गांधी के आतंक को अमली जामा देने का काम उस वक्त के डीडीए के उपाध्यक्ष जगमोहन ने किया था। आज कल वह भी भाजपा की सरकार में मंत्री रह चुके हैं। इमरजेंसी और उसके बाद के समकालीन इतिहास के जानकार यह भी बता सकेंगे कि इमरजेंसी खत्म होने के बाद जब जनता पार्टी का राज आया तो आर.एस.एस. के नेता लोग संजय गांधी को अपनाने की फिराक में थे जब 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार दूबारा बनी तो कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति शुरू की थी।

जानकार मानते है कि यह काम भी आरएसएस की प्ररेणा से ही शुरू हुआ था। गरज़ यह है कि अपने आखरी दिनों में संजय गांधी का आरएसएस की तरफ झुकाव बिल्कुल साफ हो गया था। एक दुर्भाग्य पूर्ण दुर्घटना में संजय गांधी को मृत्यु हो गई। बहरहाल उनके बाद उनकी पत्नी और बेटे ने आक्रमण हिंदुत्व का झंडा बुलंद कर रखा है। इस तर्क से इतना तो साफ है। कि आडवाणी और नागपुर में बैठे हुए उनके नेताओं को संजय गांधी के परिवार में बहुत अच्छाइयां दिखती है।

लेकिन जब संपूर्ण क्रांति के नायक जय प्रकारश नारायण से वरुण गांधी जैसे खूंखार हिंदुवादी नेता की तुलना की जाती है तो इमरजेंसी में मुसीबतें झेल चुके लोगों को लगता है कि कोई घाव पर नमक मल रहा है प्रधानमंत्री पद का सपना संजो कर बैठे व्यक्ति को देश के नागरिक एक बड़े वर्ग के पुराने घावों पर नमक नहीं मलना चाहिए।

आने वाले वक़्त की परेशानी

राज्य में उच्च शिक्षा पर अनिश्चितता हावी होती जा रही है। सरकार हालात से वाकिफ होने के बावजूद इस मामले में लापरवाही बरत रही है। इससे छात्र-छात्राओं के भविष्य पर सवालिया निशान लग रहा है। राजधानी दून समेत राज्य के बड़े हिस्से में उच्च, व्यावसायिक व रोजगारपरक शिक्षा से जुड़े निजी, सरकारी व सहायताप्राप्त अशासकीय शिक्षण संस्थाएं नए संकट से जूझ रही हैं।

इसकी वजह गढ़वाल विवि के केंद्रीय विवि बनने के बाद उससे जुड़े करीब पौने दो सौ से ज्यादा शिक्षण संस्थाओं को अगले सत्र में संबद्धता के मामले में स्थिति का खुलासा नहीं होना है। विवि प्रशासन ने तमाम संस्थानों को पत्र जारी कर अगले सत्र में प्रवेश रोकने को कहा है।

इस मुद्दे पर नीति निर्धारण नहीं किया गया है। विवि प्रशासन जानता है कि शिक्षण संस्थाओं ने मौजूदा रवैया अगले सत्र में जारी रखा तो उसके समक्ष भी परेशानी खड़ी हो सकती है। केंद्रीय विवि को स्तरीय उच्च शिक्षण संस्थान के तौर पर देखा जाता है। यह माना भी जा रहा है कि गढ़वाल विवि की कार्यप्रणाली में अब बदलाव आएगा।

हालांकि, केंद्रीय विवि की घोषणा के बाद ही उसके एक्ट में इस सत्र में तमाम संस्थानों की संबद्धता जारी रखी गई है पर भविष्य में बड़ी तादाद में इन संस्थानों को विवि अपने साथ रखेगा, ऐसी उम्मीद कम ही है। शासन के आला अफसरों और उच्च शिक्षा मंत्रालय की कमान संभाल रहे मुख्यमंत्री का इन हालात से परिचित होना लाजिमी है।

इसके बावजूद समय रहते इस दिशा में कदम नहीं उठाने से हालत और बिगडऩे के आसार हैं। यही नहीं, गुणवत्ता को विवि अब ज्यादा देर तक नजरअंदाज नहीं कर सकेगा, यह पैरामेडिकल शिक्षण संस्थानों के मामले में अपनाए गए रवैये से भी साफ हो गया है।

मानकों का पालन नहीं करने वाले संस्थानों के प्रवेश फार्म आखिरी तारीख बीतने के बाद भी स्वीकार नहीं किए गए हैं। चुनाव के मौके पर नीतिगत फैसले नहीं लेने की बाध्यता सरकार भले ही महसूस करे पर सैकड़ों छात्र-छात्राओं को अपना भविष्य अंधकारमय नजर आना लाजिमी है।

स्वाइन फलू और मीडिया की भूमिका

एक बहुत ही खतरनाक बीमारी इंसानियत के दरवाज़े पर दस्तक दे रही है। दक्षिण अमरीका के देश मेक्सिको से चली यह बीमारी पूरी दुनिया के सामने चुनौती बनी हुई है। सुअर इंफलुएंजा या के नाम से इस बीमारी की पहचान की गई है और बताया गया है कि इसके वायरस हवा में फैल जाते हैं और किसी भी इंसान को पकड़ लेते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वाइन फलू के बारे में पूरी दुनिया की सरकारों और स्वास्थ्य संगठनों को चेताया है कि इस बीमारी को रोकने की हर संभव कोशिश की जाय। स्वाइन फलू का वायरस एक बहुत ही जटिल किस्म का वायरस है, इसमें साधारण फलू और सुअर के शरीर में मौजूद विषाणु के आपसी रिएक्शन से बना हुआ वायरस होता है जो बहुत ही खतरनाक होता है।

अभी तक इसके इलाज के बारे में कोई खास जानकारी नहीं है और इस बीमारी के लग जाने की संभावना बहुत ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी की गई चेतावनी पांचवें स्तर की है। $गौरतलब है कि भयानक महामारी की चेतावनी छठवें स्तर पर दी आती है। यानी स्वाइन फलू एक भयानक महामारी का रूप ले सकती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की महानिदेशक मारगे्रट चान ने बताया कि हर नई बीमारी की तरह इस के बारे में भी समझदारी का अभाव है, विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास केवल 35 लाख खुराक दवा है, यानी हालात बहुत ही चिंता जनक हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पांचवें स्तर की चेतावनी देकर दुनिया भर की सरकारों और दवा कंपनियों को युद्घ स्तर पर सक्रिय होने का निर्देश दे दिया है।

स्वाइन फलू के इलाज और कंट्रोल की फौरन व्यवस्था की जानी चाहिय। सचाई यह है कि यह बीमारी एड्स से भी ज्यादा ख़तरनाक है। अभी तक यह भी एड्स की तरह लाइलाज है। एड्स के केस में कम से कम सावधानी बरते जाने का विकल्प है क्योंकि उसका वायरस शारीरीक संपर्क या खून से फैलता है जबकि स्वाइन फलू वायरस हवा के रास्ते इंसानों को बीमार कर सकता है। एच 1 एन 1 वायरस इस बीमारी का वाहक है, के कंट्रोल के तरी$के मिलने क पहले खतरा बना रहेगा। मेक्सिको से शुरू हुई यह बीमारी बा$की दुनिया में फैलनी शुरू हो चुकी है।

अमरीका में भी कम से कम एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है यानी वायरस अमरीका भी पहुंच चुका है। अमरीका एक विकसित देश है और वहां इस संभावित महामारी से लडऩे के लिए युद्घ स्तर पर कोशिश की जाएगी। मुसीबत तो गरीब देशों में बसने वाली इंसानियत की होगी, जहां स्वास्थ्य और चिकित्सा की बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो सभी संबंधित व्यक्तियों को चेतावनी दे दी है लेकिन पश्चिमी देशों में इसके खतरों को कमतर करके पेश करने की कोशिश चल रही है।

इंगलैंड में बीबीसी और गार्जियन जैसे संगठन स्वाइन फलू के बारे में दुनिया भर में शुरू हुए खतरे को बर्ड फलू जैसी बीमारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश में जुट गए हैं। मीडिया की इस कोशिश का नतीजा यह है कि यूरोप में मीडिया की विश्वसनीयता के सवाल पर फिर से बहस शुरू हो गई है। प्रसिद्घ ब्रिटिश अखबार गार्जियन में बैड साइंस नाम का कालम लिखने वाले डाक्टर बेन गोल्डेकर ने लिखा है कि उन्हें बीबीसी से कई बार बुलावा आया है कि वहां जाकर वह कह दें कि मामला इतना गंभीर नहीं है, महज मीडिया इसे बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रहा है।

डा गोल्डेकर का कहना है कि हो सकता है कि बीबीसी वाले स्टोरी को बैलेंस करने की गरज़ से ऐसा कह रहे हों। जो भी हो मशीन की तरह स्टोरी का बैलेंस करने की कोशिश बात को खराब तो करती ही है और सवाल मीडिया की जवाबदेही पर उठता है। सच्चाई यह है कि मीडिया को एक संभावित महामारी की खबरों को कमतर करके पेश करने का अधिकार नहीं है। हां ऐसा भी न होकर खबरों की वजह से आतंक फैल जाए।

Friday, June 26, 2009

दंगाई के हाथ में वोटर लिस्ट

बीजेपी की राजनीति की कुछ बारीकियां सामने आई हैं। पार्टी के मुसलमान, सांसद सैयद शाहनवाज़ हुसैन की ओर से एक ख़त दिल्ली के मुसलमान मतदाताओं के यहां पहुंचा है। इस ख़त में बीजेपी उम्मीदवार को जिताने की अपील की गई हैं। यह सब कुछ सामान्य सा है इस अपील करने के अधिकार पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। शाहनवाज हुसैन की इस चिट्ठी को पढक़र धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की बड़ी कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने जो जवाब लिखा वह चौंकाने वाला है।

उन्होंने लिखा कि लगता है कि बीजेपी वालों ने वोटर लिस्ट से नाम देखकर ऐसे लोगों के पास ही खत भेजा है तो मुसलमान लगते हों। उन्होंने आगे बताया कि इस बार तो अपने वोट मांगने के लिए मुसलमानों का नाम ढूंढा है लेकिन यही लिस्ट चुन-चुनकर घर जलाने में, हमला करने में, लूटपाट और खून खराबा करने में भी इस्तेमाल की जाती होगी। ज़ाहिर है बीजेपी के पास हर इलाके में रहने वाले मुसलमानों की फेहरिस्त है और दंगे के वक़्त उस लिस्ट का इस्तेमाल किया जाता है। शबनम हाशमी को गुजरात 2002 के नरसंहार के बाद राज्य में चले पुनर्वास और सहायता के काम में शामिल होने का तजुर्बा है।

उन्होंने बीजेपी और आर.एस.एस की मुस्लिम विरोधी राजनीति को बहुत करीब से समझा है, ज़ाहिर है उनके अनुभव से सभ्य समाज को कुछ न कुछ सीखना चाहिए। संघ बिरादरी के लोग आम तौर पर आरोप लगाते हैं कि मुसलमान उन्ही इलाकों में रहना पसंद करते है जहां मुसलमानों की घनी आबादी होती है और मुख्य धारा के लोगों से मेल जोल नहीं बढ़ाते। एक बीजेपी नेता ने तो एक बार यहां तक कह दिया कि बीजेपी को वोट देकर मुसलमान मुख्यधारा में शामिल हो सकते हैं।

यह बहुसंख्यक होने का दंभ है और इसको रोका जाना चाहिए। मुस्लिम बहुल इलाकों में ही मुसलमान इसलिए रहना पसंद करते है क्योंकि आम तौर पर दंगा फैलाने वाला संघ का आदमी मुस्लिम बहुल इलाकों में जाने की हिम्मत नहीं करता। हां गुजरात की बात अलग है। वहां के दंगाई को मालूम था कि राज्य सरकार उसके साथ है। मुख्यमंत्री उनका अपना बंदा है और पुलिस को पूरी हिदायत दे दी गई है। इसीलिए गुजरात 2002 नरसंहार में दंगाईयों ने मुहल्लों में बसे छिटपुट मुसलमानों को भी चुनचुन कर मारा था क्योंकि उनके पास वोटर लिस्ट थी।

इस तरह की सैकड़ों घटनाएं स्लाइड की तरह दिमाग से गुजर जाती है। शुरू में तो समझ में नहीं आता था कि सब होता कैसे है। बाद में समझ में आया कि दंगाइयों के पास वोटर लिस्ट होती है और उसी का इस्तेमाल किया जाता है। दंगों के इतिहास में इस तरीके का इस्तेमाल बार-बार हुआ है। 1984 के दिल्ली के सिख विरोधी दंगों में भी इसी तरकीब इस्तेमाल करके सिखों के घर जलाए गये थे। दक्षिण दिल्ली की सम्पन्न कालोनियों में इंदिरा गांधी के भक्तों ने बाकायदा आतंक का तांडव किया था, शायद सरकारी इशारे पर पुलिस मूक दर्शक बनी खड़ी थी और इंसानियत का सिर झुक गया था जरूरत इस बात की है कि देश का जागरूक मध्यवर्ग दंगा फैलाने के इन तरीकों और हर तरह के दंगाइयों के खिलाफ लामबंद हो और समाज विरोधी तत्वों को हाशिए पर लाए।

कांग्रेस और राजनीतिक आत्महत्या की प्रवृत्ति

1989 के चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स तोप दलाली केस को चुनावी मुद्दा बनाने में सफलता हासिल की थी। नतीजा यह हुआ कि वे विपक्ष की मदद से प्रधानमंत्री बन गए। उनको कांग्रेस विरोधी सभी महत्वपूर्ण पार्टियों का समर्थन मिला था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने वी पी सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दिया था।

चुनाव प्रचार के दौरान वीपी सिंह ने दावा किया था कि 100 दिन के अंदर बोफोर्स दलाली केस के अभियुक्तों की शिनाख़्त हो जाएगी और दलाली की रकम प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा हो जाएगी। लेकिन कुछ नहीं हुआ। पिछले बीस वर्षो से कई सरकारें आती जाती रहीं लेकिन बोफोर्स का मद्दा ज्यों का त्यों है। जहां तक बोफोर्स दलाली की बात है, आम धारणा है कि इटली के व्यापारी ओतावियो क्वात्रोची ने दलाली ली थी और उनके राजीव गांधी के सुसराल वालों से बहुत अच्छे संबंध थे। यानी ठीकरा राजीव गांधी के परिवार के सिर पर फोड़ा जा सकता है।

बोफोर्स दलाली केस पिछले बीस वर्षो से बीजेपी के नेताओं का बहुत ही प्रिय विषय रहा है। इस चाबुक का इस्तेमाल करके बीजेपी वाले राजीव गांधी की पत्नी और बच्चों को डराते रहते हैं और इस मुद्दे का यही इस्तेमाल है। इस बार भी यह मुद्दा चुनाव प्रचार के मध्य में एक बार फिर उठ गया है। ताज्जुब यह है कि सरकार की तरफ से इसे उठाया गया है। कुछ लोगों को शक है कि कांग्रेस के अंदर ही नेताओं का एक गुट है जो सोनिया गांधी को चेतावनी देना चाह रहा है कि अगर उन्होंने इस गुट को हाशिए पर लाने की कोशिश की तो नतीजा ठीक नहीं होगा।

जाहिर है कि कांग्रेस नेतृत्व जानबूझ कर तो इस मामले को ऐन चुनाव प्रचार के सीजन में सामने नहीं लाना चाहेगा। और अगर कांग्रेस के नेतृत्व ने सोची समझी राजनीति के तहत इस मामले को आगे करने की कोशिश की है, तो इसमे कोई शक नहीं कि कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक हत्या करने की इच्छा बहुत ही प्रबल है। जहां तक चुनाव नतीजों की बात है, बोफोर्स केस की अब यह औक़ात नहीं है कि वह उसे प्रभावित कर सके। 1987-88 में जब यह मामला सामने आया था, तो 65 करोड़ रूपये की दलाली बड़ी रकम माना जाता था लेकिन पिछले बीस वर्षो मे सत्ताधारी पार्टियों के नेताओं की दलाली के जो कारनामे सामने आए हैं, उसके सामने 65 करोड़ की कोई अहमियत नहीं रह गई है।

1989 में जब वीपी सिंह और भारतीय जनता पार्टी ने बोफोर्स को चुनावी मुद्दा बनाया था तो बीजेपी भी अपेक्षाकृत ईमानदार पार्टी मानी जाती थी और वीपी सिंह की तो ईमानदार नेता की छवि थी ही। लेकिन आज बीस साल बाद जब बीजेपी के नेताओं की दलाली की कहानियां सुनाई पड़ती हैं तो लगता है कि उनकी घूस लेने की क्षमता बहुत बड़ी है। एक पूर्व प्रधानमंत्री के तथाकथित दामाद और एक स्वर्गीय भाजपाई मंत्री और तिकड़म बाज़ के दलाली संबंधी कारनामों के सामने बोफोर्स दलाली की र$कम फुटकर पैसे की हैसियत रखती है।

इसलिए बीजेपी में यह राजनीतिक ता$कत नहीं है कि वह बोफोर्स या किसी भी दलाली के सौदे को चुनावी मुद्दा बना सके। बीजेपी के अपने दलाली के कारनामे ऐसे हैं कि जिस के सामने बोफोर्स दलाली मामला एक दम बौना लगेगा। हां इस मुद्दे का इस्तेमाल बीजेपी वाले अखबारों और टीवी चैनलों में भगवा पत्रकारों के सहयोग से हड़बोंग मचाने में कर सकते हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, इस के नेता इस मामले को वर्तमान चुनाव के अंत तक टाल सकते थे लेकिन उन्होंने राजनीतिक आत्महत्या करने का फैसला किया। वैसे भी इस देश में राजनीतिक आत्माहत्या करने की कोई पाबंदी नहीं है।

स्कूल प्रशासन का शोषण

दिल्ली उच्च न्यायालय, अभिभावकों और समाचार माध्यमों के दबाव में शिक्षा निदेशालय अब भले ही फीस बढ़ोत्तरी के मुद्दे पर फरमान जारी कर रहा है, लेकिन इसका तब तक कोई मतलब नहीं जब तक कि स्कूल फीस बढ़ाने का अपना कदम वापस नहीं ले लेते। स्कूलों को अपना लेखा-जोखा हर हाल में तीस अप्रैल तक पेश करने के निदेशालय के फरमान से यह स्पष्ट नहीं होता कि क्या इस कदम से फीस वृद्धि पर वाकई कोई अंकुश लग पाएगा?

बेहतर तो यह होता कि निदेशालय पहले बढ़ाई गई फीस को वापस लेने के लिए स्कूलों पर दबाव बनाता। पीड़ित अभिभावकों की मांग भी यही थी, लेकिन ऐसा न होने से यह आशंका गलत नहीं लगती कि कहीं चुनावी माहौल को देखते हुए निदेशालय ने यह कदम लोगों को बरगलाने के लिए तो नहीं उठाया? अगर ऐसा है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव खत्म होने के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। यदि शिक्षा निदेशालय की नीयत वाकई साफ है तो उसे सबसे पहले अभिभावकों को राहत देने वाला कदम उठाना चाहिए।

यहां सवाल उठता है कि क्या निदेशालय स्कूल प्रबंधनों पर ऐसा दबाव बनाने में सक्षम है? शिक्षा माफियाओं के उच्चस्तरीय दबाव को देखते हुए क्या वह ऐसा करना चाहेगा? यह सवाल भी कम पेचीदा नहीं कि जिन अभिभावकों ने स्कूलों के दबाव में पहले ही बढ़ी हुई फीस और एरियर की धनराशि जमा करा दी है क्या उन्हें यह रकम लौटाई जाएगी? फीस वृद्धि के मसले पर आज अभिभावक भले ही आरपार की लड़ाई के मूड में हैं, लेकिन देखा जाए तो आमतौर पर अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहते।

यही कारण है कि अधिकांश अभिभावकों ने कोई न कोई जुगत करके बढ़ी फीस स्कूलों के पास जमा करा दी है। ऐसी स्थिति में निदेशालय को इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि राहत मिलने की स्थिति में सभी अभिभावकों को इसका लाभ मिल सके। फिलहाल तो दिल्ली सहित एनसीआर के शहरों से संबंधित राज्यों की सरकारों को भी फीस वृद्धि के मुद्दे पर शिक्षा प्राधिकरणों पर भरपूर दबाव डालना चाहिए जिससे कि वे स्कूलों पर लगाम लगा सकें, अन्यथा उन्हें अभिभावकों के असंतोष का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

राजनीति और हवाई नेता

संजय दत्त को समाजवादी पार्टी ने महासचिव बना दिया। समाजवादी पार्टी को इस देश में समाजवादी आंदोलन और लोहिया की विरासत का ट्रस्टी माना जाता है। संयुक्त समाजवादी पार्टी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी या अन्य समाजवादी धाराओं के लोग पूरे देश में कहीं न कहीं बिखरे पड़े हैं। कुछ लोग हाशिए पर आ गये हैं। तो बाकी लोग कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों की शरण में हैं।

कुछ लोगों ने अपनी राजनीतिक पार्टियां बना रखी हैं। और मौका मिलते ही सत्ता के रथ पर सवार हो जाते हैं। समाजवादी पार्टी के नेता भी इसी ताक में रहते हैं, लेकिन अभी उत्तर प्रदेश के गांवों में कुछ ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ काम किया था और आम आदमी की पक्षधरण के संघर्ष में शामिल हुए थे, जुलूस निकाला था। और लाठियां खाईं थी। हर उस सरकार को निकम्मी घोषित किया था जो रोटी रोज़ी नहीं दे सकती थी।

उसी समाजवादी पार्टी में मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर चले आ रहे हैं। इस बात पर कोई एतराज नहीं हो सकता। लेकिन राजनीतिक पार्टी के संचालन में जिस तरह की अफरातफरी का माहौल समाजवादी पार्टी में शुरू किया किया है, उस पर आश्चर्य होता है।राजनीति फर्म को समाज की सामूहिक सोच और मनीषा का संगम माना जाता है।

विद्वान मानते हैं कि राजनीति अधिकतम संख्या जनता की वैध महत्तवाकांक्षाओं को पूरा करने का ही नाम है और वैध महत्वाकांक्षाओं का वाहक बने। इन्हीं महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किए गए संघर्ष के दौरान उसी जनता के बीच से राजनीतिक पार्टियों के नेता उभरते हैं मुलायम सिंह यादव, जनेश्वर मिश्र, राम गोपाल यादव, लालू यादव, नीतिश कुमार, वृंदा करात, करूणानिधि शरद पवार, बुद्घदेव भट्टाचार्य आदि ऐसे ही लोग हैं, लेकिन जब ऊपर पहुंच चुके नेताओं की व्यक्तिग कुछ और आशिर्वाद लेकर पैराशूट के जरिए, आम कार्यकर्ता के सिर पर नेता उतार दिए जाते हैं तो पार्टी का जनाधार प्रभावित होता है।

और पार्टी की हैसियत रोज-ब-रोज कम होती जाती है। कांग्रेस पार्टी का पिछले 30 साल का इतिहास इस तथ्य को विधिवत स्पष्टï कर देता है। संजय गांधी के दौर में उपर फट्ट लोगों को भर्ती करने का सिलसिला शुरू हुआ और राजीव गांधी ने दून स्कूल के अपने साथियों से कांग्रेस को भर दिया और वही लोग देश के भाग्य विधाता बन गए। नतीजा दुनिया के सामने हैं। अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के बल पर चार सौ के आसपास सीट पाने वाले राजीव गांधी पांच साल के अंदर कांग्रेस की हार के जिम्मेदार बने। कांग्रेस पार्टी का जनाधार तितर-बितर हो गया और तबसे आज तक संभल नहीं सकी।

2004 के चुनावों के पहले भारतीय ने भी हवाई नेताओं को बड़े पैमाने पर भरती किया था और उनका भी वही हाल हो रहा है। जो कांग्रेस का हुआ था। आम कार्यकर्ता जो निराश हुआ तो थामे नहीं थम रहा है। और अब समाजवादी पार्टी भी उसी ढर्रे पर चल निकली है। अपनी पार्टी के रामपुर के बड़े नेता आजम खां की मर्जी के खिलाफ जिसे पार्टी चुनाव लड़ा रही है, उसके भी आम कार्यकर्ता तो कभी नहीं कहा जा सकता। संजय दत्त भी इसी श्रेणी में आते हैं। अजीब बात यह है कि समाजवादी पार्टी जैसा जमीन से जुड़ा संगठन संजय दत्त की आपराधिक पृष्ठभूमि को धमकाकर दबाने की कोशिश कर रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ शक का माहौल पैदा किया जा रहा है। और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ लामबंदी की कोशिश की जा रही है। इस सबसे ज्यादा मुश्किल यह है कि इस तरह के संकेत देने की कोशिश हो रही है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कांग्रेस के दबाव में आया है। वरना संजय दत्त लखनऊ से उम्मीदवार रहते। और जैसे सुप्रीम कोर्ट को ही चिढ़ाने के लिए फैसले के अगले दिन ही संजय दत्त को पार्टी को महासचिव बना दिया गया। समझ में नहीं आता ऐसी हड़बड़ी क्यों है।

आखिर संजयदत्त कोई दूध के धुले तो हैं नहीं। जिस तरह के आरोप उनपर लगे हैं और अदालत ने उन्हें सज़ा दी है, वह कोई साधारण सज़ा तो है नहीं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि जिद में कोई काम करने के पहले समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के जनाधार खिसकने की कहानी पर गौर कर ले। जल्दबाजी और जिद में किए गए फैसले कभी भी अपने हित में नहीं होते।

शिव सैनिकों की सनक

यह संतोषजनक है कि शिव सैनिकों की धमकी और पथराव का सामना करने के बावजूद अधिवक्ता अंजलि वाघमारे ने मुंबई हमले के दौरान पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब की वकालत करने की इच्छा जताई। यह निराशाजनक भी है और निंदनीय भी कि शिव सैनिक खुद को प्रखर राष्ट्रभक्त प्रकट करने के फेर में देश की कानूनी प्रक्रिया को अपने हिसाब से चलाने पर आमादा हैं।

उनकी इस सनक भरी जिद का कोई मतलब नहीं कि किसी कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल किए बगैर कसाब को सीधे फांसी पर लटका दिया जाए। यह न तो 16 वीं सदी है और न ही भारत में जंगलराज है। आखिर शिव सेना इस साधारण सी बात पर विचार करने के लिए क्यों नहीं तैयार कि आतंकियों को सजा देने के मामले में उसके सुझावों पर अमल करना संभव नहीं? सच तो यह है कि आतंकियों को दंडित करने के संबंध में उसके उपाय भारत की बदनामी कराने वाले हैं।

जब भारतीय न्याय प्रक्रिया ही नहीं, नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत भी यह कहता है कि किसी को अपने बचाव का मौैका दिए बगैर दंडित करना एक तरह का अन्याय है तब फिर शिव सेना की उछल-कूद का कोई मतलब नहीं। महज प्रचार पाने के लिए शिव सेना जो कुछ कर रही है उससे कुल मिलाकर कसाब सरीखे खूंखार आतंकी को दंडित करने में देरी ही हो रही है।

शिव सेना ने पहले यह सुनिश्चित किया कि कोई भी वकील कसाब की वकालत करने के लिए आगे न आने पाए और फिर जब अदालत ने विवश होकर अपनी ओर से एक वकील का नाम घोषित किया तो शिव सैनिक उसे धमकाने उसके घर तक पहुंच गए। यह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है?

माना कि इसे लेकर रंच मात्र भी संदेह नहीं कि कसाब ने मुंबई में बेहद घृणित कृत्य अंजाम दिया, लेकिन क्या उसे दंड का भागीदार बनाने के लिए न्याय प्रक्रिया का उल्लंघन कर दिया जाए? यदि शिव सैनिक अभी भी शिवाजी से प्रेरणा पाते हैं तो बेहतर होगा कि वे उनके आदर्शो से नए सिरे से कुछ सीख लें। इस तरह की मांग का तो औचित्य समझ आता है कि आतंकियों के मामलों की सुनवाई द्रुत गति से हो और ऐसी कोई व्यवस्था भी बनाई जाए जिससे उनके मुकदमे वर्षो तक न खिंचें, लेकिन ऐसे किसी विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता कि किसी को भी उनकी वकालत करने का अधिकार न मिले।

यह चिंताजनक है कि पिछले कुछ समय से शिव सेना सरीखे दलों के साथ-साथ वकीलों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आ गया है जो न तो स्वयं आतंकियों अथवा अन्य जघन्य अपराधियों की वकालत करता है और न ही किसी को करने देता है। जब कभी अदालत ऐसे तत्वों के लिए सरकारी खर्चे से वकील तय करती है तो उसका विरोध करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी संकोच नहीं किया जाता।

जो अधिवक्ता यह मानते हैं आतंकियों की वकालत करना अनुचित है वे अपनी इस मान्यता पर दृढ़ रह सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी इस मान्यता को दूसरों पर जबरन थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। बेहतर होगा कि बार काउंसिल आफ इंडिया सरीखे संगठन अपने साथियों को यह स्पष्ट संदेश दें कि वे शिव सेना सरीखा दृष्टिकोण अपनाकर न्याय की गरिमा गिराने का काम कर रहे हैं।

रफ्तार पर लगाम

बेलगाम होतीं सडक़ दुर्घटनाएं हर दिन जिंदगियां छीन रही हैं। सडक़ों पर जिस तरह मौत का तांडव चल रहा है, वह यातायात व्यवस्था की कलई खोलने के लिए पर्याप्त है। जिस तरह सडक़ों पर यातायात नियमों का मखौल उड़ाया जाता है उससे इस स्थिति का भय तो हमेशा बना रहता है। इन सब के लिए लोगों का रवैया सबसे अधिक जिम्मेदार है।

सडक़ों पर जिस रफ्तार में वाहन दौड़ाए जाते हैं, मानो हर कोई किसी रेस में भाग ले रहा है। जागरूकता पैदा करने के तमाम उपाय, यातायात नियम व ट्रैफिक पुलिस इस प्रवृत्ति पर लगाम कसने में नाकाम है। सुरक्षित यात्रा के लिए समय-समय पर अदालतें भी दिशा-निर्देश देती रहती हैं, लेकिन जल्दबाजी की मनोवृत्ति हालात में सुधार ही नहीं होने देती।

इसमें यातायात पुलिस का ढीला-ढाला रवैया भी जिम्मेदार है। अकसर देखा जाता है कि ट्रैफिक व्यवस्था में लगे कर्मी सरेआम वाहन चालकों से अवैध वसूली करते हैं। विभिन्न मार्गो पर इन कर्मचारियों की मिलीभगत से अवैध रूप से वाहन चालक सवारियां ढो रहे हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि बार-बार ऐसे मामले सामने आने के बाद भी कार्रवाई क्यों नहीं होती।

चंडीगढ़ के पास सोमवार को हादसे में 24 श्रद्धालुओं की मौत के बाद सोमवार को भी देर रात महम के पास पिकअप के ट्रैक्टर ट्राली से टकरा जाने से चार साल के बच्चे व पांच महिलाओं की मौत हो गई। 18 श्रद्धालु घायल हो गए। ये हादसे भी वाहनों के तेज रफ्तार की वजह से हुए। दूसरी बात पिकअप में 24 लोग सवार थे, जो कि इसकी क्षमता से बहुत अधिक हैं।

अक्सर देखा जाता है कि वाहनों में क्षमता से अधिक लोग सवार होते हैं, खासकर अवैध रूप से सवारियां ढोने वाली ट्रैक्सियों में। लेकिन यातायात पुलिस की लापरवाही कहें या मिलीभगत इन वाहन चालकों पर कोई कार्रवाई नहीं होती।

लोगों को सोचना चाहिए कि जल्दी पहुंचने से जरूरी है सुरक्षित पहुंचना। जब तक जन जागरूकता नहीं आएगी सडक़ों पर यूं खून बहना बंद न होगा। रफ्तार पर लगाम लगाकर यातायात नियमों का पालन सुनिश्चित करना हर वाहन चालक का दायित्व ही नहीं कर्तव्य भी है। वे सडक़ों को रेस का मैदान न बनाएं। यातायात पुलिस की भाषा में कहें तो सुरक्षित चलें और वाहन सुरक्षित चलाएं।

अदालत का फैसला

उच्चतम न्यायालय के निर्णय से अभिनेता संजय दत्त के नेता बनने की उम्मीदों पर जिस तरह पानी फिरा उसका यदि कोई सकारात्मक पक्ष है तो सिर्फ यह कि अब उन अनेक आपराधिक इतिहास वाले बाहुबलियों को अदालत का दरवाजा खटखटाने की हिम्मत नहीं पड़ेगी जो अपनी सजा निलंबित कराने का तानाबाना बुन रहे थे।

इसके लिए वे क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू के मामले को एक नजीर की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। यदि संजय दत्त को चुनाव लडऩे की अनुमति मिल जाती तो शायद बाहुबलियों की जमात भी अपने लिए ऐसी ही सुविधा की मांग करती। इस पर संतोष जताया जा सकता है कि अब ऐसा नहीं होगा, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि संजय दत्त की आशाओं पर जो तुषारापात हुआ उसके लिए उनके कथित गंभीर अपराध के साथ-साथ वह न्यायिक तंत्र भी जिम्मेदार है जिसने उनसे संबंधित मामले का निपटारा करने में इतना अधिक समय ले लिया।

उन्हें 1993 के मुंबई बम विस्फोट कांड में 2007 में यानी 14 वर्ष बाद सजा सुनाई जा सकी। इस सजा के खिलाफ संजय दत्त की अपील उच्चतम न्यायालय में अभी लंबित है। यदि इस अपील का निपटारा हो गया होता तो यह स्वत: स्पष्ट हो जाता कि वह चुनाव लडऩे के पात्र हैं अथवा नहीं? संजय दत्त को टाडा कोर्ट ने छह वर्ष की सजा सुनाई है। जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत दो या इससे अधिक वर्ष की कैद के सजायाफ्ता व्यक्ति के चुनाव में खड़े होने पर रोक का प्रावधान है, लेकिन अभी तो इसका निर्धारण होना शेष है कि संजय दत्त इतनी सजा पाने के हकदार हैं या नहीं?

जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि संजय दत्त आदतन अपराधी नहीं हैं उसी तरह टाडा अदालत भी इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि उनका अपराध अमानवीय एवं समाज को क्षति पहुंचाने वाला नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसका कोई भी लाभ उन्हें नहीं मिल सका। संजय दत्त इस आधार पर स्वयं को दिलासा दे सकते हैं कि उनके राजनीति में सक्रिय होने की संभावनाएं अभी भी बरकरार हैं।

फिलहाल यह कहना कठिन है कि टाडा कोर्ट की सजा के खिलाफ की गई संजय दत्त की अपील पर उच्चतम न्यायालय किस निष्कर्ष पर पहुंचता है, लेकिन यदि वह यह पाता है कि 18 माह की जो सजा वह भुगत चुके हैं वह पर्याप्त है तो फिर यह एक तरह की नाइंसाफी होगी। यह कहना आसान है कि संजय दत्त थोड़ा और इंतजार करें तथा कानून को अपना काम करने दें, लेकिन ध्यान रहे कि वह पिछले 14 वर्षो से यही कर रहे हैं।

नि:संदेह कानून अपनी तरह से अपना रास्ता तय करता है, लेकिन जब उसका रास्ता अनावश्यक रूप से लंबा नजर आने लगे तो फिर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यह न्याय तंत्र के सुगम और सक्रिय न होने का ही परिणाम है कि संजय दत्त आदतन अपराधी न होते हुए भी प्रतीक्षा करने के लिए विवश हैं। यह विवशता तो उनके समक्ष होनी चाहिए जो आदतन अपराधी हैं। यह निराशाजनक है कि अनेक आदतन अपराधी न केवल चुनाव लडऩे, बल्कि विधानमंडलों तक पहुंचने में भी सफल हैं। नि: संदेह ऐसा नहीं होना चाहिए।