शेष नारायण सिंह
पिछले साल जुलाई में पंडित के बी परसाई का देहांत हो गया था. एक साल से कुछ ज्यादा हो गए. मैंने उनके बारे में कुछ लिखने की कोशिश की लेकिन नहीं लिख पाया. मेरे लिए बाबा के बारे में कुछ भी लिखना बहुत मुश्किल है . . उन्हें दुनिया तरह तरह से जानती थी. घोषित रूप से वे संस्कृत, धर्मशास्त्र और ज्योतिष के विद्वान् थे. अंग्रेज़ी और संस्कृत के विद्वान् थे .इन दोनों ही विषयों में उन्होंने एम ए पास किया था. वे भारत सरकार में काम करते थे और निदेशक पद से रिटायर हुए थे . लेकिन इसके अलावा वे बहुत कुछ थे. पूरी दुनिया में ज्योतिष और धर्मशास्त्र के विद्वान् उन्हें जानते थे. लेकिन उन्होंने संबंधों का ढिंढोरा कभी नहीं पीटा. मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के एक गाँव में जन्मे बाबा , बहुत बड़े इंसान थे. भाग्यशाली भी माने जायेगें क्योंकि ४२ साल की उम्र रही होगी उनकी जब जवाहर लाल नेहरू का स्वर्गवास हुआ था. उस अवसर पर इंदिरा जी ने उनसे कहा कि जब तक नेहरू जी का पार्थिव शरीर तीन मूर्ति में है, गीता का अखंड पाठ होना चाहिए . बाबा ने ही वह पाठ किया था. इंदिरा जी उन्हें जानती थीं लेकिन इस घटना के बाद सब को पता चल गया कि वे इंदिरा जी के करीबी थे. और कोई होता तो इस सम्बन्ध का लाभ उठाता लेकिन बाबा ने ऐसा नहीं किया . अपनी साधना में लगे रहे और पूरा जीवन मध्यवर्गीय जीवन जीते रहे..
मेरी उनसे मुलाक़ात बहुत ही अजीबो गरीब परिस्थितियों में हुई थी. १९७८ में मैं किसी काम से ऋषिकेश गया था . हमारे शुभ चिन्तक डॉ इंदु प्रकाश सिंह ने चिट्ठी लिख दी थी तो वहां के शिवानन्द आश्रम में स्वामी कृष्णानंद जी महराज ने मेरे ठहरने का इंतज़ाम वहीं आश्रम में , द्वारका अतिथि गृह में करवा दिया था. बगल के कमरे में एक अन्य व्यक्ति थे , जो मूल रूप से अँगरेज़ थे लेकिन उन दिनों वहीं गढ़वाल में कहीं दूर दराज़ के गाँव में रहते थे. स्वामी जी के यूं पर ख़ास कृपा थी. उन्होंने मुझसे कुछ देर बात की और कुछ भविष्यवाणी कर दीं . मुझे ज्योतिष पर विश्वास नहीं है इसलिए मैं शिष्टाचार बस हाँ में हाँ मिलाता रहा . उन्होंने कागज़ उठाया और भविष्य में घटने वाली घटनाओं की कुछ तारीखें लिख कर मेरे हाथ में पकड़ा दीं .मैंने कागज़ संभाल कर रख लिया . उनको लगा कि मैं उनका विश्वास नहीं कर रहा हूँ . थोडा नाराज़ हुए और कहा कि अगर किसी बात पर विश्वास न हो तो बहस करो लेकिन मुझे मालूम था कि ज्योतिष पर बहस करने से क्या फायदा . आखिर में उन्होंने कहा कि दिल्ली में जाकर पंडित कन्हैया लाल परसाई से मिलो. बाबा का यही वास्तविक नाम था. दिल्ली आकर मैं पंडित के बी परसाई से मिला. और उन्हें बताया कि मैं क्यों मिल रहा हूँ . पंडित जी ने कहा कि बड़े भाग्यशाली हो जो उन्होंने तुम्हे यह सब बताया , वे किसी को कुछ बताते नहीं . कुछ दिन बाद ऋषिकेश वाले महराज की एकाध बातें उन्हीं तारीखों पर सही साबित हुईं जो उन्होंने लिख कर दिया था. मैं फिर बाबा से मिलने गया और सारी बात बतायी. . उन्होंने कहा कि अब उस संत पर शक मत करो . बाबा ने भी कुछ तारीखें लिख दीं . जो बाद में सही उतरीं. मुझे लगा कि ज्योतिष में मेरा विश्वास बढ़ रहा है . लेकिन बाबा ने कहा कि तुम बहुत बड़े संत से मिलकर आये हो , उनकी टक्कर का कोई नहीं . हर ज्योतिषी की बात सच नहीं होती. बहुत ज्ञान के ज़रुरत होती है . बाद मेंमें सैकड़ों ज्योतिषियों से मिला कभी किसी को किसी नया ज्योतिषी की तारीफ़ करते मैंने नहीं सुना है . लेकिन बाबा करते थे. मैंने एक दिन उनसे पूछा कि बाबा क्या मेरे जीवन में कभी आराम नहीं लिखा है . उन्होंने कहा जिस उम्र में लोग रिटायर होते हैं ,उस में तुम्हें कुछ चैन मिलेगा . अभी तो लगे रहो.अब लगता है कि शायद कुछ चैन की ज़िंदगी नसीब हुई है लेकिन किससे बताऊँ क्योंकि बाबा ही नहीं हैं .
उनकी भविष्यवाणी बहुत ही सटीक होती थी . हालांकि मैं कभी विश्वा नहीं करता था लेकिन जब घटना उनके बताये के अनुसार हो जाए मैं सन्न रह जाता था . बहुत सारी ऐसी भविष्यवाणियाँ हैं जिन्हें उन्होंने पहले ही लिख दिया था . उन्होंने बहुत पहले कह दिया था कि संजय गाँधी की मृत्यु किसी दुर्घटना में होगी.उन्होंने इंदिरा जी को नेहरू की मृत्यु के बारे में पहले ही बता दिया था और चेतावनी दी थी कि १९८४ में उन्हें संभल कर रहना चाहिए क्योंकि बाबा ने देख लिया था कि इंदिरा जी के जीवन को १९८४ में बहुत बड़े खतरे से दो चार होना पडेगा.
उनको यह लोक छोड़े एक साल हो गए . १९८६ और १९९६ के बारे में जो भी मुझे बताया था सच निकला . आखिर में मुझे उन्होंने बताया कि बेटा जब तुम्हें ज्योतिष में विश्वास नहीं है तो अपने आप पर जोर मत दो . बस यह मान कर चलो कि हो सकता है कि ज्योतिष के बारे में पूरी बात जानने के लिए अभी तुम्हारा मानसिक विकास नहीं हुआ है. लेकिन बाबा का विकास हुआ था क्योंकि उन्होंने ११ साल की उम्र में ही ज्योतिष का गहन अध्ययन शुरू कर दिया था और उम्र के ८७ साल तक उस में लगे रहे उनके पूर्वज भी ज्योतिष के विद्वान् थे और बाबा उस परंपरा की पचीसवीं पीढी के सदस्य थे. यह मेरे निहायत ही निजी ख्यालात हैं . यहाँ लिखी गयी किसी भी बात को मैं तर्क से नहीं साबित कर सकता लेकिन यह मेरे अनुभव हैं , एक नास्तिक के अनुभव . .
Thursday, July 29, 2010
Tuesday, July 27, 2010
महिलाओं का हुजूम देगा संसद पर दस्तक
शेष नारायण सिंह
नयी दिल्ली में महिला संगठनों की नेताओं ने आज ऐलान किया कि अब संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने से सरकार बच नहीं सकती. अपनी बात को और जोरदार तरीके से कहने के लिए महिलाओं का एक बड़ा हुजूम २९ जुलाई को नयी दिल्ली के जंतर मंतर के पास इकठ्ठा होगा और संसद के तरफ कूच करेगा . महिला आरक्षण बिल राज्य सभा में पास हो चुका है . अब उसे लोक सभा को पास करना है . लोक सभा में पास होने के बाद कम से कम १५ राज्यों की विधान सभाओं में उसे मंज़ूर लेनी पड़ेगी . जिसके बाद राष्ट्रपति के दस्तख़त के बाद वह कानून बन जाएगा. यह आसान नहीं होगा और दिल्ली में जुटी महिला नेताओं को यह मालूम भी है . इसी लिए महिलाओं ने ऐलान किया है कि अब लड़ाई आर पार की होगी . और राजनीतिक दल महिलाओं को उनका हक देने में आनाकानी नहीं कर सकते . प्रेस कांफेरेंस को अनहद की शबनम हाशमी, जनवादी महिला समिति की सुधा सुन्दरम, सेंटर फोर सोशल रिसर्च की रंजना कुमारी और नेशल फेडरेशन ऑफ़ इन्डियन वीमेन की एनी राजा ने संबोधित किया . एनी राजा ने कहा कि यू पी ए सरकार ने बार बार कहा है कि वह बिल को पास करवाना चाहते हैं लेकिन लगता है कि उनके पास राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव है .. जो दल महिला आरक्षण का विरोध कर रहे हैं वे महिलाओं की पुरुषों से बराबरी की बात को नहीं मानते . यह बात महिला अधिकार नेता, ज्योत्सना चटर्जी ने भी दोहराया . उन्होंने कहा कि पिछले १५ वर्षों से वे सभी पार्टियों के नेताओं से समर्थन के मांग करती रही हैं . जो लोग विरोध कर रहे हैं उनका कहना है कि उनके लिए महिलाओं के लिए १८० सीट छोड़ देने का फैसला करना बड़ा ही मुश्किल काम है . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सुधा सुन्दरम ने कहा कि बिल का विरोध करने वाले पितृसत्तात्मक समाज को समर्थन करते हैं और आम सहमति के राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल करके महिला आरक्षण बिल को रोक रहे हैं .डॉ रंजना कुमारी ने कहा कि जब राज्य सभा में बिल पास कराया गया तो तीन बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने तय कर रखा था . हालांकि बी जे पी, कांग्रेस और वाम मोर्चे में कहीं कोई भी राजनीतिक समझ का रिश्ता नहीं है सब एक दूसरे की मुखालिफ जमाते हैं लेकिन बिला पास हुआ क्योंकि यह आज के दौर की ऐतिहासिक आवश्यकता है . हम पूरी कोशिश करेगें कि बिल इस मानसून त्र में ही हर हाल में पास कर लिया जाए.. .
अनहद की संयोजक शबनम हाशमी ने कहा कि समाज के पुरातन पंथी लोग धर्म का इस्तेमाल करके बिल को रोकना चाहते हैं उन्होंने मांग की कि यू पी ए के नेताओं को चाहिए कि सामंती सोच के लोगों के मशविरे को दरकिनार करके महिला आरक्षण बिल्ल्के समर्थन में सामने आयें और सामाजिक बराबरी की दिशा में यह महान क़दम उठायें
नयी दिल्ली में महिला संगठनों की नेताओं ने आज ऐलान किया कि अब संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने से सरकार बच नहीं सकती. अपनी बात को और जोरदार तरीके से कहने के लिए महिलाओं का एक बड़ा हुजूम २९ जुलाई को नयी दिल्ली के जंतर मंतर के पास इकठ्ठा होगा और संसद के तरफ कूच करेगा . महिला आरक्षण बिल राज्य सभा में पास हो चुका है . अब उसे लोक सभा को पास करना है . लोक सभा में पास होने के बाद कम से कम १५ राज्यों की विधान सभाओं में उसे मंज़ूर लेनी पड़ेगी . जिसके बाद राष्ट्रपति के दस्तख़त के बाद वह कानून बन जाएगा. यह आसान नहीं होगा और दिल्ली में जुटी महिला नेताओं को यह मालूम भी है . इसी लिए महिलाओं ने ऐलान किया है कि अब लड़ाई आर पार की होगी . और राजनीतिक दल महिलाओं को उनका हक देने में आनाकानी नहीं कर सकते . प्रेस कांफेरेंस को अनहद की शबनम हाशमी, जनवादी महिला समिति की सुधा सुन्दरम, सेंटर फोर सोशल रिसर्च की रंजना कुमारी और नेशल फेडरेशन ऑफ़ इन्डियन वीमेन की एनी राजा ने संबोधित किया . एनी राजा ने कहा कि यू पी ए सरकार ने बार बार कहा है कि वह बिल को पास करवाना चाहते हैं लेकिन लगता है कि उनके पास राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव है .. जो दल महिला आरक्षण का विरोध कर रहे हैं वे महिलाओं की पुरुषों से बराबरी की बात को नहीं मानते . यह बात महिला अधिकार नेता, ज्योत्सना चटर्जी ने भी दोहराया . उन्होंने कहा कि पिछले १५ वर्षों से वे सभी पार्टियों के नेताओं से समर्थन के मांग करती रही हैं . जो लोग विरोध कर रहे हैं उनका कहना है कि उनके लिए महिलाओं के लिए १८० सीट छोड़ देने का फैसला करना बड़ा ही मुश्किल काम है . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सुधा सुन्दरम ने कहा कि बिल का विरोध करने वाले पितृसत्तात्मक समाज को समर्थन करते हैं और आम सहमति के राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल करके महिला आरक्षण बिल को रोक रहे हैं .डॉ रंजना कुमारी ने कहा कि जब राज्य सभा में बिल पास कराया गया तो तीन बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने तय कर रखा था . हालांकि बी जे पी, कांग्रेस और वाम मोर्चे में कहीं कोई भी राजनीतिक समझ का रिश्ता नहीं है सब एक दूसरे की मुखालिफ जमाते हैं लेकिन बिला पास हुआ क्योंकि यह आज के दौर की ऐतिहासिक आवश्यकता है . हम पूरी कोशिश करेगें कि बिल इस मानसून त्र में ही हर हाल में पास कर लिया जाए.. .
अनहद की संयोजक शबनम हाशमी ने कहा कि समाज के पुरातन पंथी लोग धर्म का इस्तेमाल करके बिल को रोकना चाहते हैं उन्होंने मांग की कि यू पी ए के नेताओं को चाहिए कि सामंती सोच के लोगों के मशविरे को दरकिनार करके महिला आरक्षण बिल्ल्के समर्थन में सामने आयें और सामाजिक बराबरी की दिशा में यह महान क़दम उठायें
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घुघूती बासूती जिंदाबाद ,मेरी बेटी जिंदाबाद
यह पोस्ट मैंने घुघूती घोघूती बासूती के ब्लॉग से उठाया है . लगता है कि मेरी ही बेटियों का ज़िक्र है . आप दोनों को ज़िंदगी का हर दिन मुबारक
शेष नारायण सिंह
सोमवार, जुलाई 26, 2010
जब तुम होगे साठ साल के............. घुघूती बासूती
७० के दशक का एक गीत होता था... 'जब हम होंगे साठ साल के और तुम होगी पचपन की!' उस ही गीत की कुछ आगे की पंक्तियाँ थीं.. 'जब तुम होगे साठ साल के और मैं होंगी पचपन की।' कल का सारा दिन यह गीत गुनगुनाते बीता। कल मैं पचपन की हो गई। घुघूत तो कुछ महीने पहले ही साठ के हो चुके हैं। ३७ साल पहले मैंने अपना अठारहवाँ जन्मदिन उनके साथ मनाया था। कल पचपनवाँ मनाया। इस बीच ३७ जन्मदिन बहुधा साथ तो कभी कभार अकेले मनाए। बचपन से तो नहीं, हाँ, मेरी किशोरावस्था से हमारा साथ है।
कल का दिन बहुत बढ़िया था। मौसम तो गजब का था ही। परसों रात बारह बजे से ही बेटियाँ जन्मदिन की शुभकामनाएँ दे रहीं थीं। कल दिन भर बीच बीच में उनसे बात होती रही। बड़ी बिटिया कुछ दिन के लिए विदेश में है फिर भी बहुत लम्बी नहीं तो भी बातें तो हुईं ही। छोटी बेटी और मैं तो बार बार बातें कर ही रहे थे। जँवाइयों ने भी बात की।
कल कितने ही मित्रों व सहेलियों ने याद किया। भान्जी व भतीजी ने फोन किया। भाई भाभी ने याद किया। माँ से बात करवाई। माँ को अब याद नहीं रहता। भाई को उन्हें बताना पड़ा कि जन्मदिन है। मैं भी तो अभी से भूलने लगी हूँ। क्या कभी मैं भी अपनी जन्मी बेटियों का जन्मदिन भूल जाऊँगी?
बेटियों ने सरप्राइज की योजना बनाई थी। जब मेरे हाथ में तरह तरह के ऑर्किड्स के दो गुलदस्ते आए तो लगा जैसे दोनों बेटियाँ ही मेरे गले लग रही होएँ। छोटी बिटिया ने कहा कि उसे पता है कि मुझे ऑर्किड्स कितने पसन्द हैं। साथ में मेरी पसन्द का डार्क चॉकलेट केक व मेवों का डब्बा था।
मैं गुलदस्तों से दूर नहीं हो पाती हूँ। तरह तरह से उनके फोटो लेती हूँ। यह काम मेरे लिए बहुत कठिन है क्योंकि हाथ हिल जाता है। अभी जब कम्प्यूटर वाले कमरे में हूँ तो इन्हें भी अपने साथ ले आई हूँ।
लगता है कि वे दोनों मेरे आस पास हैं। याद आता है अपना पैंतिसवाँ जन्मदिन, जब निश्चय किया कि कुछ नहीं बनाऊँगी। बेटियों ने कहा कि नहीं, वे केक बनाएँगी। नन्हें हाथों ने मुझसे पूछ पूछकर बहुत बड़ा सा केक बनाया। परन्तु शाम को जब पूरी की पूरी मित्र मंडली परिवार सहित अपने उस वनवास वाली बस्ती में जहाँ झट से कुछ भी खरीदा नहीं जा सकता था, जन्मदिन की बधाई देने पहुँची तो केक खिलाते हुए मन बेटियों की सूझबूझ, समझदारी व जिद के आगे नतमस्तक हो गया।
सोचती हूँ कि बिटिया को मेरी पसन्द का कितना ध्यान रहता है। कब बेटी 'दी' हो जाती है, कब माँ! सहेली व सलाहकार तो वह सदा ही होती है।
दोनों गुलदस्ते बहुत सुन्दर हैं। एक में तीन तरह के ऑर्किड्स हैं व एक में एक ही किस्म के। तीन तरह वाले में एक प्रकार का तो लाल रंग का एन्थुरियम है। तीन बत्तख की चोंच जैसे हैं, हाँ उनके कलगी और लगी हुई है।
मन विह्वल हो रहा है। कभी 'दी' यूँ ही मेरी पसन्द का ध्यान रखती थी। ३७ साल पहले वाले अठारहवें जन्मदिन पर भी तो उसने अपनी रिसर्च के लिए किए लखनऊ प्रवास से मेरे लिए लाई साड़ी पर फॉल लगाया था, ब्लाउज, पेटीकोट सिला था ! उसे भी सदा मेरे लिए चॉकलेट व मेवों की याद रहती थी। 'दी' होती तो वह भी तो एक सप्ताह पहले ही साठ की हुई होती। २५ साल बीत गए हैं 'दी' किन्तु हर सुख व दुख में तुम साथ रहती हो। साथ तो ४२ साल पहले साथ छोड़ने वाली 'बड़ी दी' भी रहती हैं। परन्तु मेरी प्रेम कथा में 'दी' तुम भी तो किस तरह से गुँथी हुई हो!
ये तीनों बत्तख जैसे(हैलिकोनिया का कोई प्रकार? नहीं, नहीं, ये तो बर्ड्स औफ़ पैरेडाइज़ हैं! परन्तु हैं शायद हैलिकोनिया परिवार के ही! ) ऑर्किड्स जो हैं न वे हम तीनों हैं। जो पहले मुरझा जाएगा वह 'बड़ी दी' जो उसके बाद वह 'दी' तुम और जो सबसे अन्त में वह मैं!
प्रेम के कितने ही तो रूप हैं। सब सुन्दर हैं। प्रेमियों का प्रणय, पति पत्नी का उससे भी कुछ आगे निकला हुआ प्रेम जिसमें प्रणय भी है, मित्रों का स्नेह भी, माँ की ममता भी, वात्सल्य भी, करुणा भी है, पिता का वरद हस्त भी। माता पिता का अपने बच्चों के लिए प्रेम, वात्सल्य, ममता तो हर माता पिता जानता है। बच्चा जन्मा नहीं कि औसीटॉसिन इस भावना की बाढ़ भी अपने साथ ले आता है। माता पिता के लिए प्रेम किन्हीं हॉर्मोन्स के कारण नहीं अपने बचपन की मधुर यादों के कारण होता है। बहनों का स्नेह तो बेजोड़ होता ही है, एकदम अलग, अद्वितीय। भाई बहन का एक अलग किस्म का अदृष्य पतली डोरियों से खींचता स्नेह। भाभी में बहन ढूँढता स्नेह। सहेलियों का स्नेह तो कोई सहेली ही समझ सकती हैं। मित्र से अपनत्व की बँधी वह डोर जिसका कौनसा सिरा कब किसके हाथ में होता हैं समझ ही नहीं आता। डोर है यह भी तभी महसूस होता है जब जरा सा दूर जाएँ और डोर खिंचने लगती है। वह ऑल्टर ईगो वाला आभास!
यह प्रेम है तो जीवन है, जन्म है, ऐसी मृत्यु है जिसे कोई बार बार फिर से जीता है। अन्यथा क्या जिए और क्या मरे? यह न हो तो क्या है? (यह सब तब हैं जब प्रेम के बीच कोई लालच, स्वार्थ ना आ जाएँ।)
ऐसे में जब भी प्रेमी शब्द सुन कोई अभागा भड़क उठता है तो सोचती हूँ कि उन्होंने प्रेम का ऐसा कौन सा विभत्स रूप देख लिया होगा कि किसी के भी ब्लॉग में प्रेम विवाह, प्रेमी शब्द सुन उन जैसा प्रायः नरम दिल मनुष्य यूँ क्यों भड़कता है कि हर प्रेमी के गाल पर उनके थप्पड़ का अहसास ही नहीं होता अपितु लगता है कि प्रेम शब्द ही गाली हो। हृदय में कुछ चटख जाता है। एक बार विषाक्त भोजन खाने पर हम भोजन करना नहीं छोड़ देते, हाथ जलने पर पका खाना नहीं खाना छोड़ देते तो प्रेम जैसे भाव को उससे लुटने पिटने पर भी क्या यूँ ही छोड़ा जा सकता है? यदि हमने किसी हत्यारे प्रेमी को भी देखा हो तो प्रेम करना क्यों छोड़ेंगे या प्रेमियों से घृणा क्यों करेंगे? क्या किसी हत्यारे डॉक्टर, वकील, चित्रकार, ड्राइवर, अध्यापक को देखने के बाद इलाज, वकालत, कार, अध्ययन से तौबा कर लेते हैं? फिर प्रेम से ऐसी घृणा क्यों?
यह सब तो पचपन वर्ष का सार है। जीवन के अन्तिम जन्मदिन पर क्या सोच रही होऊँगी पता नहीं। बस, प्रेम से घृणा न कर रही होऊँ तो भी धन्य हो जाऊँगी। अभी तो प्रेम, तुझे सलाम।
घुघूती बासूती
शेष नारायण सिंह
सोमवार, जुलाई 26, 2010
जब तुम होगे साठ साल के............. घुघूती बासूती
७० के दशक का एक गीत होता था... 'जब हम होंगे साठ साल के और तुम होगी पचपन की!' उस ही गीत की कुछ आगे की पंक्तियाँ थीं.. 'जब तुम होगे साठ साल के और मैं होंगी पचपन की।' कल का सारा दिन यह गीत गुनगुनाते बीता। कल मैं पचपन की हो गई। घुघूत तो कुछ महीने पहले ही साठ के हो चुके हैं। ३७ साल पहले मैंने अपना अठारहवाँ जन्मदिन उनके साथ मनाया था। कल पचपनवाँ मनाया। इस बीच ३७ जन्मदिन बहुधा साथ तो कभी कभार अकेले मनाए। बचपन से तो नहीं, हाँ, मेरी किशोरावस्था से हमारा साथ है।
कल का दिन बहुत बढ़िया था। मौसम तो गजब का था ही। परसों रात बारह बजे से ही बेटियाँ जन्मदिन की शुभकामनाएँ दे रहीं थीं। कल दिन भर बीच बीच में उनसे बात होती रही। बड़ी बिटिया कुछ दिन के लिए विदेश में है फिर भी बहुत लम्बी नहीं तो भी बातें तो हुईं ही। छोटी बेटी और मैं तो बार बार बातें कर ही रहे थे। जँवाइयों ने भी बात की।
कल कितने ही मित्रों व सहेलियों ने याद किया। भान्जी व भतीजी ने फोन किया। भाई भाभी ने याद किया। माँ से बात करवाई। माँ को अब याद नहीं रहता। भाई को उन्हें बताना पड़ा कि जन्मदिन है। मैं भी तो अभी से भूलने लगी हूँ। क्या कभी मैं भी अपनी जन्मी बेटियों का जन्मदिन भूल जाऊँगी?
बेटियों ने सरप्राइज की योजना बनाई थी। जब मेरे हाथ में तरह तरह के ऑर्किड्स के दो गुलदस्ते आए तो लगा जैसे दोनों बेटियाँ ही मेरे गले लग रही होएँ। छोटी बिटिया ने कहा कि उसे पता है कि मुझे ऑर्किड्स कितने पसन्द हैं। साथ में मेरी पसन्द का डार्क चॉकलेट केक व मेवों का डब्बा था।
मैं गुलदस्तों से दूर नहीं हो पाती हूँ। तरह तरह से उनके फोटो लेती हूँ। यह काम मेरे लिए बहुत कठिन है क्योंकि हाथ हिल जाता है। अभी जब कम्प्यूटर वाले कमरे में हूँ तो इन्हें भी अपने साथ ले आई हूँ।
लगता है कि वे दोनों मेरे आस पास हैं। याद आता है अपना पैंतिसवाँ जन्मदिन, जब निश्चय किया कि कुछ नहीं बनाऊँगी। बेटियों ने कहा कि नहीं, वे केक बनाएँगी। नन्हें हाथों ने मुझसे पूछ पूछकर बहुत बड़ा सा केक बनाया। परन्तु शाम को जब पूरी की पूरी मित्र मंडली परिवार सहित अपने उस वनवास वाली बस्ती में जहाँ झट से कुछ भी खरीदा नहीं जा सकता था, जन्मदिन की बधाई देने पहुँची तो केक खिलाते हुए मन बेटियों की सूझबूझ, समझदारी व जिद के आगे नतमस्तक हो गया।
सोचती हूँ कि बिटिया को मेरी पसन्द का कितना ध्यान रहता है। कब बेटी 'दी' हो जाती है, कब माँ! सहेली व सलाहकार तो वह सदा ही होती है।
दोनों गुलदस्ते बहुत सुन्दर हैं। एक में तीन तरह के ऑर्किड्स हैं व एक में एक ही किस्म के। तीन तरह वाले में एक प्रकार का तो लाल रंग का एन्थुरियम है। तीन बत्तख की चोंच जैसे हैं, हाँ उनके कलगी और लगी हुई है।
मन विह्वल हो रहा है। कभी 'दी' यूँ ही मेरी पसन्द का ध्यान रखती थी। ३७ साल पहले वाले अठारहवें जन्मदिन पर भी तो उसने अपनी रिसर्च के लिए किए लखनऊ प्रवास से मेरे लिए लाई साड़ी पर फॉल लगाया था, ब्लाउज, पेटीकोट सिला था ! उसे भी सदा मेरे लिए चॉकलेट व मेवों की याद रहती थी। 'दी' होती तो वह भी तो एक सप्ताह पहले ही साठ की हुई होती। २५ साल बीत गए हैं 'दी' किन्तु हर सुख व दुख में तुम साथ रहती हो। साथ तो ४२ साल पहले साथ छोड़ने वाली 'बड़ी दी' भी रहती हैं। परन्तु मेरी प्रेम कथा में 'दी' तुम भी तो किस तरह से गुँथी हुई हो!
ये तीनों बत्तख जैसे(हैलिकोनिया का कोई प्रकार? नहीं, नहीं, ये तो बर्ड्स औफ़ पैरेडाइज़ हैं! परन्तु हैं शायद हैलिकोनिया परिवार के ही! ) ऑर्किड्स जो हैं न वे हम तीनों हैं। जो पहले मुरझा जाएगा वह 'बड़ी दी' जो उसके बाद वह 'दी' तुम और जो सबसे अन्त में वह मैं!
प्रेम के कितने ही तो रूप हैं। सब सुन्दर हैं। प्रेमियों का प्रणय, पति पत्नी का उससे भी कुछ आगे निकला हुआ प्रेम जिसमें प्रणय भी है, मित्रों का स्नेह भी, माँ की ममता भी, वात्सल्य भी, करुणा भी है, पिता का वरद हस्त भी। माता पिता का अपने बच्चों के लिए प्रेम, वात्सल्य, ममता तो हर माता पिता जानता है। बच्चा जन्मा नहीं कि औसीटॉसिन इस भावना की बाढ़ भी अपने साथ ले आता है। माता पिता के लिए प्रेम किन्हीं हॉर्मोन्स के कारण नहीं अपने बचपन की मधुर यादों के कारण होता है। बहनों का स्नेह तो बेजोड़ होता ही है, एकदम अलग, अद्वितीय। भाई बहन का एक अलग किस्म का अदृष्य पतली डोरियों से खींचता स्नेह। भाभी में बहन ढूँढता स्नेह। सहेलियों का स्नेह तो कोई सहेली ही समझ सकती हैं। मित्र से अपनत्व की बँधी वह डोर जिसका कौनसा सिरा कब किसके हाथ में होता हैं समझ ही नहीं आता। डोर है यह भी तभी महसूस होता है जब जरा सा दूर जाएँ और डोर खिंचने लगती है। वह ऑल्टर ईगो वाला आभास!
यह प्रेम है तो जीवन है, जन्म है, ऐसी मृत्यु है जिसे कोई बार बार फिर से जीता है। अन्यथा क्या जिए और क्या मरे? यह न हो तो क्या है? (यह सब तब हैं जब प्रेम के बीच कोई लालच, स्वार्थ ना आ जाएँ।)
ऐसे में जब भी प्रेमी शब्द सुन कोई अभागा भड़क उठता है तो सोचती हूँ कि उन्होंने प्रेम का ऐसा कौन सा विभत्स रूप देख लिया होगा कि किसी के भी ब्लॉग में प्रेम विवाह, प्रेमी शब्द सुन उन जैसा प्रायः नरम दिल मनुष्य यूँ क्यों भड़कता है कि हर प्रेमी के गाल पर उनके थप्पड़ का अहसास ही नहीं होता अपितु लगता है कि प्रेम शब्द ही गाली हो। हृदय में कुछ चटख जाता है। एक बार विषाक्त भोजन खाने पर हम भोजन करना नहीं छोड़ देते, हाथ जलने पर पका खाना नहीं खाना छोड़ देते तो प्रेम जैसे भाव को उससे लुटने पिटने पर भी क्या यूँ ही छोड़ा जा सकता है? यदि हमने किसी हत्यारे प्रेमी को भी देखा हो तो प्रेम करना क्यों छोड़ेंगे या प्रेमियों से घृणा क्यों करेंगे? क्या किसी हत्यारे डॉक्टर, वकील, चित्रकार, ड्राइवर, अध्यापक को देखने के बाद इलाज, वकालत, कार, अध्ययन से तौबा कर लेते हैं? फिर प्रेम से ऐसी घृणा क्यों?
यह सब तो पचपन वर्ष का सार है। जीवन के अन्तिम जन्मदिन पर क्या सोच रही होऊँगी पता नहीं। बस, प्रेम से घृणा न कर रही होऊँ तो भी धन्य हो जाऊँगी। अभी तो प्रेम, तुझे सलाम।
घुघूती बासूती
Monday, July 26, 2010
Thursday, July 22, 2010
अफगानिस्तान में भारत की विदेशनीति की धज्जियां उड़ रही हैं
शेष नारायण सिंह
प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह इस बात पर ब जिद हैं कि पाकिस्तान से रिश्ते सुधारना ज्यादा ज़रूरी है और उसके लिए वे ईमानदारी से कोशिश भी कर रहे हैं . लेकिन पाकिस्तान की सत्ता पर बैठे लोगों की प्राथमिकता कुछ और है . उनकी कोशिश है कि भारत से रिश्ते ठीक तो किये जायेगें लेकिन पहले अफगानिस्तान में अपनी स्थिति मज़बूत कर ली जाए. इधर भारत की कोशिश है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के लिए पाकिस्तान को घेर कर हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को बेकार बना दे. क्योंकि अगर हाफ़िज़ सईद को आतंक के प्रोजेक्ट की चौधराहट से हटा दिया जाए तो पाकिस्तान में मौजूद भारत विरोधी आतंक का ढांचा बहुत ही कमज़ोर हो जाएगा. अब भारत की इच्छा को सम्मान देने के लिये तो पाकिस्तानी सेना अपने इतने महत्वपूर्ण सहयोगी की कुर्बानी तो देगी नहीं .पाकिस्तान ने देखा है कि आतंक की ब्लैकमेल के ज़रिये ही उसने अफगानिस्तान में अपना मकसद हासिल कर लिया और भारत को हाशिये पर लाने को मजबूर कर दिया. केंद्र में बी जे पी सरकार के दौरान बहुत ज्यादा असर रखने वाले कुछ कूटनीतिक चिंतकों की राय है कि भारत को पाकिस्तान के खिलाफ पख्तूनों की नाराज़गी का इस्तेमाल करना चाहिए और उनमें मौजूद तालिबान को भी अपने साथ लेने की कोशिश करनी चाहिए. जिस से पाकिस्तान को मजबूर हो कर भारत को अफगानिस्तान में कुछ स्पेस देना पड़े . लेकिन इस तरह की कूटनीति में भारत के हाथ कई बार जल चुके हैं और वह दुबारा वही गलती नहीं करना चाहता जो श्रीलंका में नटवर सिंह और रोमेश भंडारी की टोली ने केंद्र सरकार से करवा लिया था .डॉ मनमोहन सिंह को पक्का भरोसा है कि पख्तूनों को पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल करने की सोच से बचना हे एथीक होगा .
भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर तो विवाद शुरू से चल रहा है लेकिन दोनों के बीच के कूटनीतिक सम्बन्ध आजकल अफगान एजेंडे से ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं . पाकिस्तान की कोशिश है कि अफगानिस्तान से भारत को दूर रखा जाए . और अपने इस मिशन में पाकिस्तान काफी हद तक सफल भी हो रहा है .रविवार को अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच एक व्यापार समझौता हुआ जिसके हिसाब से भारत पर वागा बार्डर के रास्ते कोई भी सामान अफगानिस्तान भेजने की मनाही है . समझौते में लिखा है कि अफगानिस्तान को इस बात की आज़ादी है कि वह वागा के रास्ते कोई भी सामान निर्यात कर सकता है लेकिन उसे उस रास्ते से कुछ भी अपने देश में लाने की अनुमति नहीं दी जायेगी .यह समझौता अमरीका के आशीर्वाद से किया गया है . जब समझौते पर दस्तखत हो रहे थे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अमरीकी हितों की देखभाल करने वाले अमरीकी अफसर रिचर्ड हालब्रुक वहां मौजूद थे.इस समझौते पर कई वर्षों से काम हो रहा था. अफगानिस्तान से भारत को भगाने की पाकिस्तानी नीति की जीत का यह एक बड़ा मुकाम है . परंपरागत रूप से पाकिस्तान की मौजूदगी अफगानिस्तान में रहती रही है . लेकिन तालिबान के नेता मुल्ला उमर की सत्ता ख़त्म होने के बाद पाकिस्तान बैकफुट पर आ गया था. ओसमा बिन लादेन की तलाश में अमरीकी राष्ट्रपति अफगानिस्तान पंहुच गए थे और पाकिस्तानी हुकूमत के लिए वहां की सत्ता पर काबिज़ तालिबान को छोड़ देना मुश्किल था . तालिबान की सैनिक तबाही के बाद युद्ध के बाद बर्बाद हो चुके अफगानिस्तान को फिर से बसाने की कोशिश शुरू हो गयी. भारत की कोशिश थी कि अमरीका और तालिबान में दुश्मनी की वजह से वह अमरीकी आशीर्वाद से अफगानिस्तान में अपने एमौजूदगी मुकम्मल करे . इस दिशा में काम भी शुरू हुआ लेकिन पाकिस्तानी सेना को यह नागवार गुज़र रहा था. उसको अफगानिस्तान पूरा का पूरा चाहिए. जानकार बताते हैं कि इसीलिये भारत के दूतावास समेत अन्य भारतीय ठिकानों पार आतंकवादी हमले कराये गए. इस बात में कोई शक़ नहीं है कि अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान और पाकिस्तानी सेना में गहरे सम्बन्ध हैं . वास्तविकता तो यह है कि तालिबान का गठन पाकिस्तानी सेना के सामरिक लाभ के लिए ही किया गया था . जब तक्तालिबान का क़ब्ज़ा अफगानिस्तान पर रहा , उसे पाकिस्तानी सेना का क़ब्ज़ा ही माना जाता था . इसलिए अमरीका के इस आग्रह को पाकिस्तानी सेना ने कभी गंभीरता से नहीं लिया जिसके तहत अमरीका उम्मीद कर रहा था कि पाकिस्तान की सेना तालिबान को तबाह करने में अमरीकी सेना की मदद करेगी. . इस वक़्त दक्षिण एशिया में जो कूटनीतिक माहौल है उसमें अफगानिस्तान सबसे महत्व पूर्ण है . अमरीका पूरी तरह से अफगानिस्तान में गले तक डूबा हुआ है. भूराजनैतिक दबदबे के लिए चीन भी अफगानिस्तान में दखल चाहता है . उसकी कोशिश है कि वह पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान में अपने पाँव जमाये . इसीलिये वह पाकिस्तान को समझा रहा है कि ज्यादा से जादा अफगान प्रोएक्ट हथियाए . जहाना तक काम को पूरा करने की बात है , वह पाकिस्तान के बस की बात नहीं है ,उसे चीन पूरा कर देगा लेकिन ऐसा करके वह अफगानिस्तान में भारत को प्रभाव नहीं बढाने देगा और कुछ हद तक अमरीका को थाम सकेगा.
इतनी पेचीदा कूटनीतिक लड़ाई में अब तक की जो हालात हैं , उसमें सबसे ताक़तवर खिलाड़ी के रूप में पाकिस्तानी फौज के मुखिया ,जनरल अशफाक परवेज़ कयानी को देखा आ रहा है . पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन सरकार उनकी मुट्ठी में है . वे बीच रास्ते फैसले बदलवा देते हैं और प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को डांट तक देते हैं . भारत -पाक विदेश मंत्री स्तर की बातचीत को जिस तरह से उन्होंने बेमतलब किया है उसे दुनिया ने देखा है . यह अलग बात है कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी इस पूरी घटना के बाद एक जोकर के रूप में पेश किये जा रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि उनकी बेचारे की औकात ही वही है . ऐसी हालत में पाकिस्तान को दुरुस्त करने की कोशिश में वहां नए भस्मासुर पैदा करने की कोशिश से भारत को बच कर रहना चाहिए क्योंकि अगर तालिबान की मदद से पाकिस्तानी फौज अमरीका और भारत को डराना चाहती है तो यह बेवकूफी की कूटनीति है और इसका नुकसान बाद में पाकिस्तान को ही होगा .
प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह इस बात पर ब जिद हैं कि पाकिस्तान से रिश्ते सुधारना ज्यादा ज़रूरी है और उसके लिए वे ईमानदारी से कोशिश भी कर रहे हैं . लेकिन पाकिस्तान की सत्ता पर बैठे लोगों की प्राथमिकता कुछ और है . उनकी कोशिश है कि भारत से रिश्ते ठीक तो किये जायेगें लेकिन पहले अफगानिस्तान में अपनी स्थिति मज़बूत कर ली जाए. इधर भारत की कोशिश है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के लिए पाकिस्तान को घेर कर हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को बेकार बना दे. क्योंकि अगर हाफ़िज़ सईद को आतंक के प्रोजेक्ट की चौधराहट से हटा दिया जाए तो पाकिस्तान में मौजूद भारत विरोधी आतंक का ढांचा बहुत ही कमज़ोर हो जाएगा. अब भारत की इच्छा को सम्मान देने के लिये तो पाकिस्तानी सेना अपने इतने महत्वपूर्ण सहयोगी की कुर्बानी तो देगी नहीं .पाकिस्तान ने देखा है कि आतंक की ब्लैकमेल के ज़रिये ही उसने अफगानिस्तान में अपना मकसद हासिल कर लिया और भारत को हाशिये पर लाने को मजबूर कर दिया. केंद्र में बी जे पी सरकार के दौरान बहुत ज्यादा असर रखने वाले कुछ कूटनीतिक चिंतकों की राय है कि भारत को पाकिस्तान के खिलाफ पख्तूनों की नाराज़गी का इस्तेमाल करना चाहिए और उनमें मौजूद तालिबान को भी अपने साथ लेने की कोशिश करनी चाहिए. जिस से पाकिस्तान को मजबूर हो कर भारत को अफगानिस्तान में कुछ स्पेस देना पड़े . लेकिन इस तरह की कूटनीति में भारत के हाथ कई बार जल चुके हैं और वह दुबारा वही गलती नहीं करना चाहता जो श्रीलंका में नटवर सिंह और रोमेश भंडारी की टोली ने केंद्र सरकार से करवा लिया था .डॉ मनमोहन सिंह को पक्का भरोसा है कि पख्तूनों को पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल करने की सोच से बचना हे एथीक होगा .
भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर तो विवाद शुरू से चल रहा है लेकिन दोनों के बीच के कूटनीतिक सम्बन्ध आजकल अफगान एजेंडे से ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं . पाकिस्तान की कोशिश है कि अफगानिस्तान से भारत को दूर रखा जाए . और अपने इस मिशन में पाकिस्तान काफी हद तक सफल भी हो रहा है .रविवार को अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच एक व्यापार समझौता हुआ जिसके हिसाब से भारत पर वागा बार्डर के रास्ते कोई भी सामान अफगानिस्तान भेजने की मनाही है . समझौते में लिखा है कि अफगानिस्तान को इस बात की आज़ादी है कि वह वागा के रास्ते कोई भी सामान निर्यात कर सकता है लेकिन उसे उस रास्ते से कुछ भी अपने देश में लाने की अनुमति नहीं दी जायेगी .यह समझौता अमरीका के आशीर्वाद से किया गया है . जब समझौते पर दस्तखत हो रहे थे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अमरीकी हितों की देखभाल करने वाले अमरीकी अफसर रिचर्ड हालब्रुक वहां मौजूद थे.इस समझौते पर कई वर्षों से काम हो रहा था. अफगानिस्तान से भारत को भगाने की पाकिस्तानी नीति की जीत का यह एक बड़ा मुकाम है . परंपरागत रूप से पाकिस्तान की मौजूदगी अफगानिस्तान में रहती रही है . लेकिन तालिबान के नेता मुल्ला उमर की सत्ता ख़त्म होने के बाद पाकिस्तान बैकफुट पर आ गया था. ओसमा बिन लादेन की तलाश में अमरीकी राष्ट्रपति अफगानिस्तान पंहुच गए थे और पाकिस्तानी हुकूमत के लिए वहां की सत्ता पर काबिज़ तालिबान को छोड़ देना मुश्किल था . तालिबान की सैनिक तबाही के बाद युद्ध के बाद बर्बाद हो चुके अफगानिस्तान को फिर से बसाने की कोशिश शुरू हो गयी. भारत की कोशिश थी कि अमरीका और तालिबान में दुश्मनी की वजह से वह अमरीकी आशीर्वाद से अफगानिस्तान में अपने एमौजूदगी मुकम्मल करे . इस दिशा में काम भी शुरू हुआ लेकिन पाकिस्तानी सेना को यह नागवार गुज़र रहा था. उसको अफगानिस्तान पूरा का पूरा चाहिए. जानकार बताते हैं कि इसीलिये भारत के दूतावास समेत अन्य भारतीय ठिकानों पार आतंकवादी हमले कराये गए. इस बात में कोई शक़ नहीं है कि अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान और पाकिस्तानी सेना में गहरे सम्बन्ध हैं . वास्तविकता तो यह है कि तालिबान का गठन पाकिस्तानी सेना के सामरिक लाभ के लिए ही किया गया था . जब तक्तालिबान का क़ब्ज़ा अफगानिस्तान पर रहा , उसे पाकिस्तानी सेना का क़ब्ज़ा ही माना जाता था . इसलिए अमरीका के इस आग्रह को पाकिस्तानी सेना ने कभी गंभीरता से नहीं लिया जिसके तहत अमरीका उम्मीद कर रहा था कि पाकिस्तान की सेना तालिबान को तबाह करने में अमरीकी सेना की मदद करेगी. . इस वक़्त दक्षिण एशिया में जो कूटनीतिक माहौल है उसमें अफगानिस्तान सबसे महत्व पूर्ण है . अमरीका पूरी तरह से अफगानिस्तान में गले तक डूबा हुआ है. भूराजनैतिक दबदबे के लिए चीन भी अफगानिस्तान में दखल चाहता है . उसकी कोशिश है कि वह पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान में अपने पाँव जमाये . इसीलिये वह पाकिस्तान को समझा रहा है कि ज्यादा से जादा अफगान प्रोएक्ट हथियाए . जहाना तक काम को पूरा करने की बात है , वह पाकिस्तान के बस की बात नहीं है ,उसे चीन पूरा कर देगा लेकिन ऐसा करके वह अफगानिस्तान में भारत को प्रभाव नहीं बढाने देगा और कुछ हद तक अमरीका को थाम सकेगा.
इतनी पेचीदा कूटनीतिक लड़ाई में अब तक की जो हालात हैं , उसमें सबसे ताक़तवर खिलाड़ी के रूप में पाकिस्तानी फौज के मुखिया ,जनरल अशफाक परवेज़ कयानी को देखा आ रहा है . पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन सरकार उनकी मुट्ठी में है . वे बीच रास्ते फैसले बदलवा देते हैं और प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को डांट तक देते हैं . भारत -पाक विदेश मंत्री स्तर की बातचीत को जिस तरह से उन्होंने बेमतलब किया है उसे दुनिया ने देखा है . यह अलग बात है कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी इस पूरी घटना के बाद एक जोकर के रूप में पेश किये जा रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि उनकी बेचारे की औकात ही वही है . ऐसी हालत में पाकिस्तान को दुरुस्त करने की कोशिश में वहां नए भस्मासुर पैदा करने की कोशिश से भारत को बच कर रहना चाहिए क्योंकि अगर तालिबान की मदद से पाकिस्तानी फौज अमरीका और भारत को डराना चाहती है तो यह बेवकूफी की कूटनीति है और इसका नुकसान बाद में पाकिस्तान को ही होगा .
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Wednesday, July 21, 2010
पाकिस्तान को औकातबोध कराने की भारत के विदेश मंत्री की कूटनीति
शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )
मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद से भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बिगड़ गए थे क्योंकि पाकिस्तान सहित पूरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया था कि मुंबई पर हुआ हमला पाकिस्तानी आतंक के सबसे बड़े सरगना, हाफ़िज़ मुहम्मद सईद की निगरानी में हुआ था. भारत ने पाकिस्तान पर दबाव बनाया और पाकिस्तानी आतंक के नेटवर्क को तबाह करने की बात की लेकिन पाकिस्तान मानने को तैयार नहीं था . बहरहाल बात धीरे धीरे बढ़ती रही और पाकिस्तान और भारत पर अमरीकी दबाव बढ़ता रहा . भारत इस बात पर अडिग रहा कि जब तक मुंबई के हमलावरों को पकड़ा नहीं जाता भारत कोई बात नहीं करेगा . पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति में भी नेताओं को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए भारत से रिश्ते सुधारने की कोशिश को करना ज़रूरी माना जाता है . शायद इसीलिये पाकिस्तानी हुक्मरान बातचीत के लिए जोर देते रहे .इस पृष्ठभूमि में भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की बातचीत हुई लेकिन भारतीय विदेश मंत्री ने पाकिस्तान को भारत की कीमत पर कोई फायदा उठाने का कोई मौक़ा नहीं दिया.
भारत के विदेशमंत्री, एस एम कृष्णा की इस्लामाबाद यात्रा सही मायनों में ऐतिहासिक है . ख़ासकर दिन भर चली बात चीत के बात प्रेस से जो वार्ता हुई वह बहुत दिनों तक याद रखी जायगी. . भारतीय विदेश मंत्री ने बिना लाग लपेट के बात की और साफ़ कर दिया कि भारत एक बड़ा मुल्क है और पाकिस्तानी नेताओं को उस से बराबरी करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए . कूटनीति की दुनिया अजीब है . उसमें तरह तरह के शब्दों के अलग अर्थ निकाले जाते हैं . विदेश मत्रालय के अधिकारियों को ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है कि वे ऐसा ड्राफ्ट बनाएं जिस से अलग अलग मुल्कों में वक्तव्य की अलग अलग व्याख्या की जा सके .मसलन जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कहा कि बलोचिस्तान में अस्थिरता के मुद्दे को भारत के गृह मंत्री के सामने उठाया गया था और उनकी प्रतिक्रिया उत्साह वर्धक थी. उन्होंने कहा कि गृह मंत्री ने साफ़ कह दिया था कि बलोचिस्तान में उन्हें कोई रूचि नहीं है . अब यहाँ इसका सन्दर्भ समझ लेने की ज़रुरत है . दरअसल बात चीत में भारतीय गृह मंत्री ने कहा रहा होगा कि बलोचिस्तान उनके विदेश मंत्रालय का विषय है , इसलिए वह उनकी रूचि का विषय नहीं है . अब अगर बात यहीं ख़त्म हो गयी होती तो पाकिस्तानी विदेश विभाग अपनी जनता को बताता कि भारत से बलोचिस्तान के मुद्दे पर बात हो गयी है . भूमिका यह है कि पूरे पाकिस्तान में सरकारी तौर पर यह प्रचार किया गया है कि बलोचिस्तान में जो बगावत जैसी हालात हैं , उसे भारत बढ़ावा दे रहा है .. और प्रेस को यह बता कर कि बात हो गयी है उसकी मनमानी व्याख्या की जा सकती थी लेकिन एस एम कृष्णा वह स्पेस देने को तैयार नहीं थे . उन्होंने साफ़ कहा कि बलोचिस्तान के मामले में पाकिस्तान जो भी कहता रहा है ,उसके लिए भरोसे लायक सबूत की मांग की गयी थी लेकिन वह तो जाने दीजिये सबूत का कोई ज़र्रा तक नहीं दिया गया . यानी पाकिस्तान की ज़मीन पर भारत के विदेश मंत्री ने ऐलान सा कर दिया कि बलोचिस्तान के मामले में भारत का नाम लेकर पाकिस्तानी शासक अपनी जनता को बेवकूफ बना रहे हैं . कृष्णा ने सीमा पार के घुसपैठ के मुद्दे को बिलकुल बेलौस तरीके से उठाया और कहा कि पिछले वर्षों में सीमापार से हो रही घुसपैठ में बढ़ोतरी हुई है . पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने गुस्से में जवाब दिया कि वे साफ़ बता देना चाहते थे कि पाकिस्तान सरकार या इंटलीजेंस एजेंसियों की नीति यह नहीं है कि वह सीमा के उस पार घुसपैठ कराये . लेकिंम अगर कुछ लोग घुसपैठ कर रहे हैं तो भारत उनसे सख्ती से निपटे , उन लोगों से सरकार का कुछ भी लेना देना नहीं है . इस पर तो पाकिस्तानी पत्रकार आग बबूला हो गए क्योंकि घुसपैठ करने वालों से पाकिस्तानी सरकार की पल्ला झाड़ने की कोशिश को कोई भी पाकिस्तानी बर्दाश्त नहीं करेगा. आखिर वे पाकिस्तानी सरकार की मर्जी से ही कश्मीर में उपद्रव करते हैं .
विदेश मंत्री की इस शैली को दोनों देशों की बदल रही अंतर राष्ट्रीय हैसियत का एक पैमाना भी माना जा सकता है . भारत-पाक संबंधों के हर विद्यार्थी को मालूम है कि पाकिस्तानी ज़मीन से भारत के खिलाफ चल रहे आतंक के तंत्र का संचालन हाफ़िज़ मुहम्मद सईद करता है . लेकिन पाकिस्तान सरकार इसको कभी सरकारी तौर पर स्वीकार नहीं करती . पत्रकार वार्ता में एस एम कृष्णा ने नफरत फैलाने वालों को लगाम लगाने की बात का भी ज़िक्र किया और कहा कि जमातुद्दावा कर सरगना , हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के ऊपर कंट्रोल करने की ज़रुरत है . कुरेशी का चेहरा तमतमा उठा और उन्होंने हाफ़िज़ मुहम्मद सईद की तुलना भारत सरकार के गृह सचिव से कर दी. लगता है कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री,शाह महमूद कुरेशी की इस बेवकूफी के लिए उन्हें पाकिस्तानी हुक्मरान के गुस्से को झेलना पडेगा. विदेश मंत्री ने केंद्र सरकार में कुछ मंत्रियों की उस कोशिश को भी ज़ोरदार झटका दिया जो विदेश मंत्री को नाकारा साबित करने के चक्कर देश मंत्रालय के मुद्दों को विदेशों में उठाते रहते हैं . गृह मंत्रालय के हवाले से जब भी पाकिस्तानी अधिकारियों ने किसी बात को साधने की कोशिश की ,तो भारत के विदेश मंत्री ने उस बात को वहीं रोक दिया और साफ़ कर दिया कि जहां तक बातचीत का सवाल है , भारत सरकार किसी को भी तैनात कर सकती है लेकिन कूटनीतिक फैसले विदेश मंत्रालय को दरकिनार करके नहीं लिए जा सकते.
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )
मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद से भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बिगड़ गए थे क्योंकि पाकिस्तान सहित पूरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया था कि मुंबई पर हुआ हमला पाकिस्तानी आतंक के सबसे बड़े सरगना, हाफ़िज़ मुहम्मद सईद की निगरानी में हुआ था. भारत ने पाकिस्तान पर दबाव बनाया और पाकिस्तानी आतंक के नेटवर्क को तबाह करने की बात की लेकिन पाकिस्तान मानने को तैयार नहीं था . बहरहाल बात धीरे धीरे बढ़ती रही और पाकिस्तान और भारत पर अमरीकी दबाव बढ़ता रहा . भारत इस बात पर अडिग रहा कि जब तक मुंबई के हमलावरों को पकड़ा नहीं जाता भारत कोई बात नहीं करेगा . पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति में भी नेताओं को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए भारत से रिश्ते सुधारने की कोशिश को करना ज़रूरी माना जाता है . शायद इसीलिये पाकिस्तानी हुक्मरान बातचीत के लिए जोर देते रहे .इस पृष्ठभूमि में भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की बातचीत हुई लेकिन भारतीय विदेश मंत्री ने पाकिस्तान को भारत की कीमत पर कोई फायदा उठाने का कोई मौक़ा नहीं दिया.
भारत के विदेशमंत्री, एस एम कृष्णा की इस्लामाबाद यात्रा सही मायनों में ऐतिहासिक है . ख़ासकर दिन भर चली बात चीत के बात प्रेस से जो वार्ता हुई वह बहुत दिनों तक याद रखी जायगी. . भारतीय विदेश मंत्री ने बिना लाग लपेट के बात की और साफ़ कर दिया कि भारत एक बड़ा मुल्क है और पाकिस्तानी नेताओं को उस से बराबरी करने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए . कूटनीति की दुनिया अजीब है . उसमें तरह तरह के शब्दों के अलग अर्थ निकाले जाते हैं . विदेश मत्रालय के अधिकारियों को ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है कि वे ऐसा ड्राफ्ट बनाएं जिस से अलग अलग मुल्कों में वक्तव्य की अलग अलग व्याख्या की जा सके .मसलन जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कहा कि बलोचिस्तान में अस्थिरता के मुद्दे को भारत के गृह मंत्री के सामने उठाया गया था और उनकी प्रतिक्रिया उत्साह वर्धक थी. उन्होंने कहा कि गृह मंत्री ने साफ़ कह दिया था कि बलोचिस्तान में उन्हें कोई रूचि नहीं है . अब यहाँ इसका सन्दर्भ समझ लेने की ज़रुरत है . दरअसल बात चीत में भारतीय गृह मंत्री ने कहा रहा होगा कि बलोचिस्तान उनके विदेश मंत्रालय का विषय है , इसलिए वह उनकी रूचि का विषय नहीं है . अब अगर बात यहीं ख़त्म हो गयी होती तो पाकिस्तानी विदेश विभाग अपनी जनता को बताता कि भारत से बलोचिस्तान के मुद्दे पर बात हो गयी है . भूमिका यह है कि पूरे पाकिस्तान में सरकारी तौर पर यह प्रचार किया गया है कि बलोचिस्तान में जो बगावत जैसी हालात हैं , उसे भारत बढ़ावा दे रहा है .. और प्रेस को यह बता कर कि बात हो गयी है उसकी मनमानी व्याख्या की जा सकती थी लेकिन एस एम कृष्णा वह स्पेस देने को तैयार नहीं थे . उन्होंने साफ़ कहा कि बलोचिस्तान के मामले में पाकिस्तान जो भी कहता रहा है ,उसके लिए भरोसे लायक सबूत की मांग की गयी थी लेकिन वह तो जाने दीजिये सबूत का कोई ज़र्रा तक नहीं दिया गया . यानी पाकिस्तान की ज़मीन पर भारत के विदेश मंत्री ने ऐलान सा कर दिया कि बलोचिस्तान के मामले में भारत का नाम लेकर पाकिस्तानी शासक अपनी जनता को बेवकूफ बना रहे हैं . कृष्णा ने सीमा पार के घुसपैठ के मुद्दे को बिलकुल बेलौस तरीके से उठाया और कहा कि पिछले वर्षों में सीमापार से हो रही घुसपैठ में बढ़ोतरी हुई है . पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने गुस्से में जवाब दिया कि वे साफ़ बता देना चाहते थे कि पाकिस्तान सरकार या इंटलीजेंस एजेंसियों की नीति यह नहीं है कि वह सीमा के उस पार घुसपैठ कराये . लेकिंम अगर कुछ लोग घुसपैठ कर रहे हैं तो भारत उनसे सख्ती से निपटे , उन लोगों से सरकार का कुछ भी लेना देना नहीं है . इस पर तो पाकिस्तानी पत्रकार आग बबूला हो गए क्योंकि घुसपैठ करने वालों से पाकिस्तानी सरकार की पल्ला झाड़ने की कोशिश को कोई भी पाकिस्तानी बर्दाश्त नहीं करेगा. आखिर वे पाकिस्तानी सरकार की मर्जी से ही कश्मीर में उपद्रव करते हैं .
विदेश मंत्री की इस शैली को दोनों देशों की बदल रही अंतर राष्ट्रीय हैसियत का एक पैमाना भी माना जा सकता है . भारत-पाक संबंधों के हर विद्यार्थी को मालूम है कि पाकिस्तानी ज़मीन से भारत के खिलाफ चल रहे आतंक के तंत्र का संचालन हाफ़िज़ मुहम्मद सईद करता है . लेकिन पाकिस्तान सरकार इसको कभी सरकारी तौर पर स्वीकार नहीं करती . पत्रकार वार्ता में एस एम कृष्णा ने नफरत फैलाने वालों को लगाम लगाने की बात का भी ज़िक्र किया और कहा कि जमातुद्दावा कर सरगना , हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के ऊपर कंट्रोल करने की ज़रुरत है . कुरेशी का चेहरा तमतमा उठा और उन्होंने हाफ़िज़ मुहम्मद सईद की तुलना भारत सरकार के गृह सचिव से कर दी. लगता है कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री,शाह महमूद कुरेशी की इस बेवकूफी के लिए उन्हें पाकिस्तानी हुक्मरान के गुस्से को झेलना पडेगा. विदेश मंत्री ने केंद्र सरकार में कुछ मंत्रियों की उस कोशिश को भी ज़ोरदार झटका दिया जो विदेश मंत्री को नाकारा साबित करने के चक्कर देश मंत्रालय के मुद्दों को विदेशों में उठाते रहते हैं . गृह मंत्रालय के हवाले से जब भी पाकिस्तानी अधिकारियों ने किसी बात को साधने की कोशिश की ,तो भारत के विदेश मंत्री ने उस बात को वहीं रोक दिया और साफ़ कर दिया कि जहां तक बातचीत का सवाल है , भारत सरकार किसी को भी तैनात कर सकती है लेकिन कूटनीतिक फैसले विदेश मंत्रालय को दरकिनार करके नहीं लिए जा सकते.
Tuesday, July 20, 2010
आम इंसान का खून पी जायेगी महंगाई नाम की पूंजीवादी डायन
शेष नारायण सिंह
लोक सभा का मानसून सत्र अगले हफ्ते शुरू हो जाएगा. महिला आरक्षण बिल सरकार की प्राथमिकता है क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष उसे पास करवाना चाहती हैं और कांग्रेसी के लिए मैडम की इच्छा हर्फ़-ए-आखिर होती है.. सरकार में शामिल लोगों की प्राथमिकताएं अलग होती हैं जबकि आम आदमी को रोज़मर्रा की ज़रूरतों की चिंता रह्ती है . सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में बड़े उद्योगपति घरानों की कंपनियों को टैक्स में करीब चार लाख करोड़ रूपये की रियायत दी है लेकिन आम आदमी के लिए ज़िंदगी दूभर करने के लिए ऐसा इंतज़ाम किया है कि बड़े पूंजीपति ग्रुप मौज करें. हर उस चीज़ की कीमत कम हो जा रही है जो किसान के घर पैदा होती है लेकिन हर वह चीज़ महंगी हो रही है जिस सामान को , उपभोक्ता संस्कृति का शिकार आम आदमी खरीदना चाहता है ..सबसे बुनियादी बात यह है कि पूंजीवादी विचारधारा वाली सरकारें कभी भी आम आदमी की पक्षधर नहीं होतीं . अगर यह बात समझ में आ जाए तो समस्या अपने आप हल हो जायेगी लेकिन रूलिंग क्लास के वर्गचरित्र वाली सरकारें ऐसा जाल फैलाती हैं कि उसमें आम आदमी तब तक फंसा रहता है जब तक वह अपनी मजदूरी को शोषण के बाज़ार में बेच सकता है. जब वह बेकार हो जाता है तो पूंजीवादी शोषक दूसरी तरफ नज़र कर लेता है . अगर शासक वर्ग का वर्गचरित्र और उसका शोषण परक स्वभाव लोगों की समझ में आ जाए तो यह व्यवस्था बदली जा सकतीहै लेकिन कोई भी उसे बदलने लायक शिक्षा मजदूरों तक नहीं पंहुचने देता. नतीजा साफ़ है कि परत दर परत गरीब का खून चूसने का बंदोबस्त होता रहता है. महगाई की बारीकी को समझने के लिए आम इंसान को इतना ही समझ लेना काफी है कि अपने देश में जो सरकार है वह पैसे वालों के हित में काम करती है और उनके हित साधन में अगर आम लोगों का भी थोडा भला हो जाए ,तो ठीक है लेकिन यह पूंजीवादी सरकारें, किसी भी कीमत पर बराबरी वाले समाज को नहीं स्थापित होने देगीं .
यह राजनीतिक दल जिस तरह से मानसून सत्र की तैयारिया कर रहे हैं उस से लगता है कि कि जनता का भला वहीं तक होने देगें जहां तक इनका अपना और अपने पूंजीपति वर्ग का भला होता हो.रिपोर्टों पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यू पी ए के घटक दलों की क्या सोच है . उनकी एक बैठक हुई है जिसमें इस बात पर गौर किया गया कि सत्र के दौरान विपक्ष के हमलों को नाकाम कैसे किया जाए.इस बैठक में भी रेल मंत्री ममता बनर्जी और शरद पवार अनुपस्थित थे. ज़ाहिर है पिछले दिनों महंगाई के मामले को जिस गैरज़िम्मेदार तरीके से शरद पवार ने संभाला है , उनकी वजह से सरकार को खासी परेशानी होगी. रेल मंत्रालय का भी काम ठीक नहीं रहा है ज़ाहिर है रोज़ ब रोज़ हो रहे रेल हादसे भी मानसून सत्र में चर्चा का विषय बनेगें .इस बात में कोई दो राय नहीं है कि रेल विभाग का काम बहुत ही निराशा जनक रहा है . संचार मंत्री और डी एम के नेता, ए राजा भी चर्चा में रहगें क्योंकि उन्होंने घूस से जुडी खबरों में प्राथमिकता पायी है . कुल मिला कर आम आदमी के खिलाफ काम कर रही यह सरकार उद्योग और व्यापार के हित को ही अगला सत्र भी समर्पित कर देगी,
विपक्ष से भी बहुत उम्मीद करने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि सैद्धांतिक रूप से कांग्रेस और बी जे पी एक ही पूंजीवादी सोच को आगे बढाने के लिए राजनीति में हैं इसलिए जहा तक पूंजीवादी सिद्धांतों को आगे बढाने की बात है , दोनों में सहमति रहेगी . हाँ ,यह हो सकता है कि कुछ ख़ास मुद्दों पर हल्ला गुला मचा लें लेकिन पूंजीवादी धन्ना सेठों का नुकसान नहीं होने दिया जाएगा. इस मामले में एक क्षेत्र ऐसा होगा जिसमें कोई भी मतभेद बर्दाश्त नहीं किया जायेगा. पेट्रोल और उस से जुडी चीज़ों की कंपनियों को फायेदा पंहुचाने से जिस सेठ को लाभ होगा उसके बारे में कहा जाता है कि उसका परिवार पिछले ३० वर्षों से बी जे पी और कांग्रेस दोनों को अपने अनुकूल रखने में सफल रहा है . इसलिए उसके खिलाफ कोई कुछ नहीं बोलेगा . छिटपुट शोरगुल किया जा सकता है . कुल मिलाकर देश में गरीब आदमी को कोई भविष्य नहीं है. उसकी मजदूरी पर दुनिया भर की नज़र रहेगी और उसे ही हर तरफ से आने वाले आर्थिक हमलों को झेलना पडेगा.
यह बात कोई नयी नहीं है . गरीब आदमी को शोषण हमारी लोक परंपरा का भी हिस्सा बन चुका है . आज़ादी के पहले भी गाँव की औरतें जब अपने आदमी को कलकत्ता -बम्बई भेजती थीं तो उन्हें मालूम रहता था कि उनकी असली दुशमनी शोषण की व्यवस्था पर आधारित समाज से थी , जो गरीबी को उनके परिवार पर थोपता था . आज भी किसी फिल्म का वह लोक गीत बहुत ही लोकप्रिय होने जा रहा है जिसमें कहा गया है कि गरीब औरत के पति की कमाई में कोई कमी नहीं है , वह तो महंगाई डायन उसे खा लेती है . इस महंगाई को पूंजीवादी शोषण का हथियार मान लें तो गरीब आदमी की मुसीबत भरी ज़िंदगी का मर्म पूरी तरह समझ में आ जाएगा
लोक सभा का मानसून सत्र अगले हफ्ते शुरू हो जाएगा. महिला आरक्षण बिल सरकार की प्राथमिकता है क्योंकि कांग्रेस अध्यक्ष उसे पास करवाना चाहती हैं और कांग्रेसी के लिए मैडम की इच्छा हर्फ़-ए-आखिर होती है.. सरकार में शामिल लोगों की प्राथमिकताएं अलग होती हैं जबकि आम आदमी को रोज़मर्रा की ज़रूरतों की चिंता रह्ती है . सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में बड़े उद्योगपति घरानों की कंपनियों को टैक्स में करीब चार लाख करोड़ रूपये की रियायत दी है लेकिन आम आदमी के लिए ज़िंदगी दूभर करने के लिए ऐसा इंतज़ाम किया है कि बड़े पूंजीपति ग्रुप मौज करें. हर उस चीज़ की कीमत कम हो जा रही है जो किसान के घर पैदा होती है लेकिन हर वह चीज़ महंगी हो रही है जिस सामान को , उपभोक्ता संस्कृति का शिकार आम आदमी खरीदना चाहता है ..सबसे बुनियादी बात यह है कि पूंजीवादी विचारधारा वाली सरकारें कभी भी आम आदमी की पक्षधर नहीं होतीं . अगर यह बात समझ में आ जाए तो समस्या अपने आप हल हो जायेगी लेकिन रूलिंग क्लास के वर्गचरित्र वाली सरकारें ऐसा जाल फैलाती हैं कि उसमें आम आदमी तब तक फंसा रहता है जब तक वह अपनी मजदूरी को शोषण के बाज़ार में बेच सकता है. जब वह बेकार हो जाता है तो पूंजीवादी शोषक दूसरी तरफ नज़र कर लेता है . अगर शासक वर्ग का वर्गचरित्र और उसका शोषण परक स्वभाव लोगों की समझ में आ जाए तो यह व्यवस्था बदली जा सकतीहै लेकिन कोई भी उसे बदलने लायक शिक्षा मजदूरों तक नहीं पंहुचने देता. नतीजा साफ़ है कि परत दर परत गरीब का खून चूसने का बंदोबस्त होता रहता है. महगाई की बारीकी को समझने के लिए आम इंसान को इतना ही समझ लेना काफी है कि अपने देश में जो सरकार है वह पैसे वालों के हित में काम करती है और उनके हित साधन में अगर आम लोगों का भी थोडा भला हो जाए ,तो ठीक है लेकिन यह पूंजीवादी सरकारें, किसी भी कीमत पर बराबरी वाले समाज को नहीं स्थापित होने देगीं .
यह राजनीतिक दल जिस तरह से मानसून सत्र की तैयारिया कर रहे हैं उस से लगता है कि कि जनता का भला वहीं तक होने देगें जहां तक इनका अपना और अपने पूंजीपति वर्ग का भला होता हो.रिपोर्टों पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यू पी ए के घटक दलों की क्या सोच है . उनकी एक बैठक हुई है जिसमें इस बात पर गौर किया गया कि सत्र के दौरान विपक्ष के हमलों को नाकाम कैसे किया जाए.इस बैठक में भी रेल मंत्री ममता बनर्जी और शरद पवार अनुपस्थित थे. ज़ाहिर है पिछले दिनों महंगाई के मामले को जिस गैरज़िम्मेदार तरीके से शरद पवार ने संभाला है , उनकी वजह से सरकार को खासी परेशानी होगी. रेल मंत्रालय का भी काम ठीक नहीं रहा है ज़ाहिर है रोज़ ब रोज़ हो रहे रेल हादसे भी मानसून सत्र में चर्चा का विषय बनेगें .इस बात में कोई दो राय नहीं है कि रेल विभाग का काम बहुत ही निराशा जनक रहा है . संचार मंत्री और डी एम के नेता, ए राजा भी चर्चा में रहगें क्योंकि उन्होंने घूस से जुडी खबरों में प्राथमिकता पायी है . कुल मिला कर आम आदमी के खिलाफ काम कर रही यह सरकार उद्योग और व्यापार के हित को ही अगला सत्र भी समर्पित कर देगी,
विपक्ष से भी बहुत उम्मीद करने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि सैद्धांतिक रूप से कांग्रेस और बी जे पी एक ही पूंजीवादी सोच को आगे बढाने के लिए राजनीति में हैं इसलिए जहा तक पूंजीवादी सिद्धांतों को आगे बढाने की बात है , दोनों में सहमति रहेगी . हाँ ,यह हो सकता है कि कुछ ख़ास मुद्दों पर हल्ला गुला मचा लें लेकिन पूंजीवादी धन्ना सेठों का नुकसान नहीं होने दिया जाएगा. इस मामले में एक क्षेत्र ऐसा होगा जिसमें कोई भी मतभेद बर्दाश्त नहीं किया जायेगा. पेट्रोल और उस से जुडी चीज़ों की कंपनियों को फायेदा पंहुचाने से जिस सेठ को लाभ होगा उसके बारे में कहा जाता है कि उसका परिवार पिछले ३० वर्षों से बी जे पी और कांग्रेस दोनों को अपने अनुकूल रखने में सफल रहा है . इसलिए उसके खिलाफ कोई कुछ नहीं बोलेगा . छिटपुट शोरगुल किया जा सकता है . कुल मिलाकर देश में गरीब आदमी को कोई भविष्य नहीं है. उसकी मजदूरी पर दुनिया भर की नज़र रहेगी और उसे ही हर तरफ से आने वाले आर्थिक हमलों को झेलना पडेगा.
यह बात कोई नयी नहीं है . गरीब आदमी को शोषण हमारी लोक परंपरा का भी हिस्सा बन चुका है . आज़ादी के पहले भी गाँव की औरतें जब अपने आदमी को कलकत्ता -बम्बई भेजती थीं तो उन्हें मालूम रहता था कि उनकी असली दुशमनी शोषण की व्यवस्था पर आधारित समाज से थी , जो गरीबी को उनके परिवार पर थोपता था . आज भी किसी फिल्म का वह लोक गीत बहुत ही लोकप्रिय होने जा रहा है जिसमें कहा गया है कि गरीब औरत के पति की कमाई में कोई कमी नहीं है , वह तो महंगाई डायन उसे खा लेती है . इस महंगाई को पूंजीवादी शोषण का हथियार मान लें तो गरीब आदमी की मुसीबत भरी ज़िंदगी का मर्म पूरी तरह समझ में आ जाएगा
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Monday, July 19, 2010
उत्तर प्रदेश में बी जे पी की ताक़त बढ़ रही है
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश की राजनीति में २०१२ वाले विधान सभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गयी हैं . मुलायम सिंह यादव का मुसलमानों के नाम लिखा गया माफी नामा उसी तैयारी की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जो आन्दोलन चला उस से बी जे पी को तो फायदा हुआ ही , मुलायम सिंह यादव को भी लाभ हुआ था. घोर हिन्दू मतदाता बी जे पी में गया तो मुसलमान पूरी तरह से मुलायम सिंह के साथ हो गया. राजनीति को साम्प्रदायिक करने की गरज से आर एस एस ने बाबरी मस्जिद वाला आन्दोलन चलाया था . उन दिनों उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस थी लेकिन बुरी तरह से दरबारी संस्कृति की जकड़ में थी . आम तौर पर प्रदेश की राजनीति में धर्मनिरपेक्ष ताक़तों का समर्थन कांग्रेस को ही मिलता था लेकिन आर एस एस के आन्दोलन में सब तहस नहस हो गया. कांग्रेस को राज्य से विदा होने का परवाना मिल गया और विदाई भी ऐसी कि अभी तक वापसी की कोई खबर ही नहीं. मुसलमानों और दलितों के वोट तब तक परम्परागत रूप से कांग्रेस को मिलते थे. लेकिन सब बदल गया . विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स चला कर राजीव गाँधी को कहीं का नहीं छोड़ा , हिन्दू धर्म को राजनीतिक प्रचार के लिए इस्तेमाल करने की आर एस एस की रणनीति खासी सफल रही और सवर्ण हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग बी जे पी के साथ चला गया. बाबरी मस्जिद वाले आन्दोलन में मुलायम सिंह ने मुस्लिम समर्थक के रूप में अपनी छवि बाना ली और बाद में मुसलमान उनकी तरफ खिंच गया . दलितों को नया नेता मिल गया था , वे कांशी राम की बातों पर विश्वास कर रहे थे लिहाजा दलित वोट कांशीराम के हवाले हो गए . बाद के वर्षों में यही समीकरण चलता रहा लेकिन 2००७ के चुनावों में मायावती ने सब कुछ उलट दिया . उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि बी जे पी भी कांग्रेस के रास्ते चल पड़ी और बड़ी संख्या में मुसलमान भी मायावती के साथ चले गए .मुसलमानों का साथ छूटने से मुलायम सिंह यादव परेशान हो गए और उन्होंने पिछड़ी जातियों को एक मुश्त करने की कोशिश की और वहीं गलती कर गए. मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन माने जाने वाले राजनेता , कल्याण सिंह को साथ ले लिया . नतीजा यह हुआ कि २००९ के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव की पार्टी की हालत पहले से कमज़ोर हो गयी. हार से बड़ा दुश्मन कोई नहीं होता है . पार्टी की हार के चक्कर में मुलायम सिंह यादव ने कई साथी खो दिए. उनके सबसे भरोसे के नेता , अमर सिंह भी निकाल दिए गए और मुलायम सिंह अकेले पड़ गए. हालांकि बहुत मज़बूत नहीं हैं लेकिन पिछले २० वर्षों में मुलायम सिंह यादव ने रामपुर के आज़म खां को मुस्लिम नेता के रूप में विकसित करने की कोशिश की थी. वह भी साथ छोड़ गए. मुलायम सिंह को सबसे बड़ा झटका लगा फिरोजाबाद में जहां हुए उपचुनाव में उनकी पुत्रवधू ही चुनाव हार गयी . मुसलमानों को खुश करने के लिए अमर सिंह के निष्कासन के बाद उनके विरोधी गुट ने जोर शोर अभियान चलाया कि कल्याण सिंह को अमर सिंह ही लाये थे लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा . जनता मानती रही कि मुलायम सिंह से उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कुछ करवा पाना बहुत मुश्किल है . अब जाकर मुलायम सिंह ने मुसलमानों से सीधी अपील की है कि भाई गलती हो गयी, माफ़ कर दो . यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि देश में किसी मुस्लिम नेता की यह हैसियत नहीं है कि वह मुसलमानों के वोट को प्रभावित कर सके . इसलिए उन्हें उम्मीद है कि माफी मागने से मुसलमान एक बार फिर साथ आ जायेगें.अगर ऐसा हुआ तो उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दृश्य बहुत ही दिलचस्प हो जाएगा.
आज की हालत यह है कि राज्य का मुसलमान मतदाता अभी कांग्रेस की तरफ बढ़ रहा है. उसे उम्मीद है कि मुलायम सिंह के कमज़ोर पड़ने के बाद साम्प्रदायिक ताक़तों से उनकी रक्षा कांग्रेस ही कर पायेगी . अभी मुसलमान ,कम से कम उत्तर प्रदेश में बी जे पी को कोई राजनीतिक ताक़त नहीं मान रहा था. लेकिन मुसलमानों के खिलाफ वरुण गांधी का जो ज़हरीला प्रचार चल रहा है , राज्य के दूर दराज़ और कस्बों में अपील कर रहा है . जानकार मानते हैं कि वरुण गाँधी का नरेंद्र मोदी टाइप अभियान हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो मुसलमान उसको ही वोट देगा जो गारंटी के साथ बी जे पी को हरा सके. अभी तक की राजनीतिक स्थिति पर नज़र डालने से समझ में आ जाएगा यह हैसियत न तो अभी कांग्रेस की है और न ही मुलायम सिंह यादव की पार्टी की. ऐसी हालत में अगर बी जे पी वाले यह प्रचार करने में कामयाब हो गए कि मुसलमान एकमुश्त वोट करने वाला है तो घोर हिन्दू वोट बी जे पी की तरफ मुड़ जायेगें . ऐसा माहौल बन जाने के बाद बी जे पी को हराने के लिए मुस्लिम वोट मायावती की पार्टी को मिल सकता है . यानी मुलायम सिंह यादव ने माफी तो मांग ली है लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि मुसलमान बी जे पी को हराने वाली पार्टी के साथ जाएगा, वह मुलायम सिंह यादव , मायावती और राहुल गाँधी में से कोई भी हो सकता है ., लेकिन राहुल गांधी की पार्टी के पास राज्य में ऐसे कार्यकर्ता नहीं है जो समर्थन को वोटों में बदल सकें , वहां तो सभी नेता ही हैं. मुलायम सिंह यादव का संगठन बहुत कमज़ोर है . ऐसे में लगता है कि स्वयंसेवकों की मदद से बी जे पी वाले ही मायावती के बाद सबसे बड़ी पार्टी बन जायेगें .
उत्तर प्रदेश की राजनीति में २०१२ वाले विधान सभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो गयी हैं . मुलायम सिंह यादव का मुसलमानों के नाम लिखा गया माफी नामा उसी तैयारी की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जो आन्दोलन चला उस से बी जे पी को तो फायदा हुआ ही , मुलायम सिंह यादव को भी लाभ हुआ था. घोर हिन्दू मतदाता बी जे पी में गया तो मुसलमान पूरी तरह से मुलायम सिंह के साथ हो गया. राजनीति को साम्प्रदायिक करने की गरज से आर एस एस ने बाबरी मस्जिद वाला आन्दोलन चलाया था . उन दिनों उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस थी लेकिन बुरी तरह से दरबारी संस्कृति की जकड़ में थी . आम तौर पर प्रदेश की राजनीति में धर्मनिरपेक्ष ताक़तों का समर्थन कांग्रेस को ही मिलता था लेकिन आर एस एस के आन्दोलन में सब तहस नहस हो गया. कांग्रेस को राज्य से विदा होने का परवाना मिल गया और विदाई भी ऐसी कि अभी तक वापसी की कोई खबर ही नहीं. मुसलमानों और दलितों के वोट तब तक परम्परागत रूप से कांग्रेस को मिलते थे. लेकिन सब बदल गया . विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स चला कर राजीव गाँधी को कहीं का नहीं छोड़ा , हिन्दू धर्म को राजनीतिक प्रचार के लिए इस्तेमाल करने की आर एस एस की रणनीति खासी सफल रही और सवर्ण हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग बी जे पी के साथ चला गया. बाबरी मस्जिद वाले आन्दोलन में मुलायम सिंह ने मुस्लिम समर्थक के रूप में अपनी छवि बाना ली और बाद में मुसलमान उनकी तरफ खिंच गया . दलितों को नया नेता मिल गया था , वे कांशी राम की बातों पर विश्वास कर रहे थे लिहाजा दलित वोट कांशीराम के हवाले हो गए . बाद के वर्षों में यही समीकरण चलता रहा लेकिन 2००७ के चुनावों में मायावती ने सब कुछ उलट दिया . उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि बी जे पी भी कांग्रेस के रास्ते चल पड़ी और बड़ी संख्या में मुसलमान भी मायावती के साथ चले गए .मुसलमानों का साथ छूटने से मुलायम सिंह यादव परेशान हो गए और उन्होंने पिछड़ी जातियों को एक मुश्त करने की कोशिश की और वहीं गलती कर गए. मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन माने जाने वाले राजनेता , कल्याण सिंह को साथ ले लिया . नतीजा यह हुआ कि २००९ के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव की पार्टी की हालत पहले से कमज़ोर हो गयी. हार से बड़ा दुश्मन कोई नहीं होता है . पार्टी की हार के चक्कर में मुलायम सिंह यादव ने कई साथी खो दिए. उनके सबसे भरोसे के नेता , अमर सिंह भी निकाल दिए गए और मुलायम सिंह अकेले पड़ गए. हालांकि बहुत मज़बूत नहीं हैं लेकिन पिछले २० वर्षों में मुलायम सिंह यादव ने रामपुर के आज़म खां को मुस्लिम नेता के रूप में विकसित करने की कोशिश की थी. वह भी साथ छोड़ गए. मुलायम सिंह को सबसे बड़ा झटका लगा फिरोजाबाद में जहां हुए उपचुनाव में उनकी पुत्रवधू ही चुनाव हार गयी . मुसलमानों को खुश करने के लिए अमर सिंह के निष्कासन के बाद उनके विरोधी गुट ने जोर शोर अभियान चलाया कि कल्याण सिंह को अमर सिंह ही लाये थे लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा . जनता मानती रही कि मुलायम सिंह से उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कुछ करवा पाना बहुत मुश्किल है . अब जाकर मुलायम सिंह ने मुसलमानों से सीधी अपील की है कि भाई गलती हो गयी, माफ़ कर दो . यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि देश में किसी मुस्लिम नेता की यह हैसियत नहीं है कि वह मुसलमानों के वोट को प्रभावित कर सके . इसलिए उन्हें उम्मीद है कि माफी मागने से मुसलमान एक बार फिर साथ आ जायेगें.अगर ऐसा हुआ तो उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दृश्य बहुत ही दिलचस्प हो जाएगा.
आज की हालत यह है कि राज्य का मुसलमान मतदाता अभी कांग्रेस की तरफ बढ़ रहा है. उसे उम्मीद है कि मुलायम सिंह के कमज़ोर पड़ने के बाद साम्प्रदायिक ताक़तों से उनकी रक्षा कांग्रेस ही कर पायेगी . अभी मुसलमान ,कम से कम उत्तर प्रदेश में बी जे पी को कोई राजनीतिक ताक़त नहीं मान रहा था. लेकिन मुसलमानों के खिलाफ वरुण गांधी का जो ज़हरीला प्रचार चल रहा है , राज्य के दूर दराज़ और कस्बों में अपील कर रहा है . जानकार मानते हैं कि वरुण गाँधी का नरेंद्र मोदी टाइप अभियान हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो मुसलमान उसको ही वोट देगा जो गारंटी के साथ बी जे पी को हरा सके. अभी तक की राजनीतिक स्थिति पर नज़र डालने से समझ में आ जाएगा यह हैसियत न तो अभी कांग्रेस की है और न ही मुलायम सिंह यादव की पार्टी की. ऐसी हालत में अगर बी जे पी वाले यह प्रचार करने में कामयाब हो गए कि मुसलमान एकमुश्त वोट करने वाला है तो घोर हिन्दू वोट बी जे पी की तरफ मुड़ जायेगें . ऐसा माहौल बन जाने के बाद बी जे पी को हराने के लिए मुस्लिम वोट मायावती की पार्टी को मिल सकता है . यानी मुलायम सिंह यादव ने माफी तो मांग ली है लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि मुसलमान बी जे पी को हराने वाली पार्टी के साथ जाएगा, वह मुलायम सिंह यादव , मायावती और राहुल गाँधी में से कोई भी हो सकता है ., लेकिन राहुल गांधी की पार्टी के पास राज्य में ऐसे कार्यकर्ता नहीं है जो समर्थन को वोटों में बदल सकें , वहां तो सभी नेता ही हैं. मुलायम सिंह यादव का संगठन बहुत कमज़ोर है . ऐसे में लगता है कि स्वयंसेवकों की मदद से बी जे पी वाले ही मायावती के बाद सबसे बड़ी पार्टी बन जायेगें .
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मीडिया पर हमला करना फासिस्ट को घुट्टी में पिलाया जाता है .
शेष नारायण सिंह
नयी दिल्ली के आजतक के दफ्तर में आर एस एस के कुछ कार्यकर्ता आये और तोड़फोड़ की . आर एस एस की राजनीतिक शाखा ,बी जे पी के प्रवक्ता ने कहा कि इस से टी वी चैनलों को अनुशासन में रहने की तमीज आ जायेगी यानी हमला एक अच्छे मकसद से किया गया था, उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे से लोग अनुशासन में रहें तो यह नौबत की नहीं आयेगी. आर एस एस से यह उम्मीद करना कि वह अपने विरोधी को सज़ा नहीं देना , ठीक वैसा ही है जैसे यह उम्मीद करना कि गिद्ध शाकाहारी हो जाएगा. वह उसकी प्रकृति है और कोई भी कोशिश कर ले , प्रकृति नहीं बदली जा सकती. आर एस एस को काबू में करने का एक ही नियम है जिसे आज़ाद भारत के पहले गृहमंत्री , सरदार पटेल ने लागू किया था. उस पर पाबंदी लगाकर उसे बेकार कर दिया था . सरदार कर बाद जवाहरलाल नेहरू ने आर एस एस को वैचारिक धरातल पर शून्य पर पंहुचा दिया था . बाद में इंदिरा गाँधी की विचार धारा से पैदल राज कायम हुआ और आर एस एस फिर सम्मान पाने की दिशा में अग्रसर हो गया . इंदिरा गाँधी ने अपने नौजवान बेटे की सलाह से इमरजेंसी लगा दी और चेले चपाटों के राज की संभावना बहुत जोर पकड़ गयी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आर एस एस को साथ लेकर लड़ाई लड़ी और संघ वाले फिर एक बार स्वीकार्यता की दहलीज़ लांघ कर मुख्यधारा की राजनीति आ गए. उसके बाद तो देश को न को गाँधी मिला, और न ही सरदार और न ही जवाहर लाल. मझोले दर्जे की राजनीति का युग शुरू हो गया . और फिर आर एस एस वाले भी राजनेता बन गए. केंद्र सरकार तक पंहुच गए. और अब वे बाकायदा एक राजनीतिक पार्टी हैं . लेकिन विपक्षी को ख़त्म कर देने की फासिस्ट सोच के चलते वे किसी तरह का लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं कर सकते लिहाजा अगर संभव होता है तो विरोधी को नुकसान पंहुचाते हैं . इसी सोच का नतीजा है कि उनके लोग आजकल मीडिया के ऊपर हमलावर मुद्रा में हैं . यह काम उनकी विचारधारा के पुरानत पुरुष हिटलर ने बार बार किया , पाकिस्तान में शुरू के दो तीन वर्षों के बाद से ही इसी फासिस्ट सोच वाले हावी हैं और अब भारत में भी फासिस्ट ताक़तें पहले से ज्यादा ताक़तवर हो रही हैं . मीडिया को काबू में करना फासिज्म की बुनियादी तरकीब माना जाता है और उसी काम में आर एस एस की हर शाखा के लोग लगे हुए हैं . आजतक के कार्यालय पर हुए हमले को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए.
आजतक और हेडलाइन टुडे के दफ्तर पर किये गए फासिस्ट हमले की मीडिया संगठनों ने निंदा की है और उसे कायराना हमला बताया है . सरकार के पास जुलूस भी जायेगा जहां यह मांग की जायगी कि आर एस एस पर फिर से पाबंदी लगा दी जाए और उसके नेताओं को खुले आम न घूमने दिया जाए. प्रेस क्लब में एक सभा भी हुई और उसी तरह की बातें रखी गयीं . लेकिन प्रेस को सरकार से याचना करने की कोई ज़रुरत नहीं है. आम तौर पर कहा जाता है कि मीडिया पर जब हमला होता है तो सभी लोग इकठ्ठा नहीं होते . जिसके कारण हलावारों के हौसले बढ़ जाते हैं और वे बार बार हमले करते हैं . यह मामला बहुत ही पेचीदा है,हालांकि सच है . ऐसा शायद इस लिए होता है कि जब ताज़ा हमले के पहले किसी और चैनल पर हमला हुआ था तो बाकी लोग नहीं आये थे . मुझे लगता है कि इस बहस से कन्नी काट लेना ही सही रहेगा लेकिन मीडिया पर हमला करने वालों पर लगाम तो लगानी होगी. कोई नहीं आता तो न आये लेकिन अगर आजतक और इंडिया टुडे ग्रुप तय कर ले तो बाद बदल सकती है. इस हमले में हेडलाइन टुडे और आजतक पर हमला इसलिए हुआ कि उन्होंने आर एस एस से जुड़े कुछ लोगों को मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलते कैमरे पर रिकार्ड कर लिया था और उस फुटेज को अपने चैनल पर दिखा कर अपना फ़र्ज़ निभाया था . लेकिन जिनके बारे में खबर थी वे भड़क गए और मार पीट पर उतारू हो गए . इनका जवाब देना बहुत ही आसान है . इतने बड़े न्यूज़ चैनल को किसी और मदद की ज़रुरत नहीं है . वे तो खुद ही इन तानाशाही के पुतलों को घर भेजने भर को काफी हैं . बस उन्हें आर एस एस को परेशान करने का मन बना लेना चाहिए. आर एस एस से कठिन सवाल पूछे जाने चाहिए . उनसे पूछा जाना चाहिये कि १९२० से १९४६ तक चली आज़ादी की लड़ाई में वे क्यों नहीं शामिल हुए , क्यों उनका कोई नेता जेल नहीं गया ,महात्मा गाँधी की ह्त्या में जिस आदमी को फांसी दी गयी उस से उन का विचारधारा के स्तर पर क्या सम्बन्ध था. उनसे पूछा जाय कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस में उनके नेता क्यों कई तरह की बातें कहते क्यों नज़र नहीं आये. उनसे पूछा जाए कि आपके यहाँ जो लोग जीवनदान दे चुके हैं उनको क्यों अकूत संपत्ति दी जाती है . मुराद यह है कि आर एस एस को ऐसे सवालों के घेरे में घेर दिया जाए कि बाद में जब कभी उनके नेता मीडिया सगठनों से पंगा लेने की सोचें तो उन्हें दहशत पैदा हो जाए . हालांकि यह तरीका बहुत ही लोक्तान्त्रिक नहीं हैं लेकिन शठ के साथ आचरण के कुछ नियम तय कर दिए गए हैं उनका पालन कर लेने में कोई बुराई नहीं है . दूसरी बात यह कि खबर को सही प्रसारित करने की बुनियादी प्रतिबद्धता को कभी नहीं भूलना चाहिए . और फासिस्ट ताक़तों को लोकतांत्रिक तरीकों से समझाया जाना चाहिए लेकिन उन्हें धमकाया भी जा सकता है .
नयी दिल्ली के आजतक के दफ्तर में आर एस एस के कुछ कार्यकर्ता आये और तोड़फोड़ की . आर एस एस की राजनीतिक शाखा ,बी जे पी के प्रवक्ता ने कहा कि इस से टी वी चैनलों को अनुशासन में रहने की तमीज आ जायेगी यानी हमला एक अच्छे मकसद से किया गया था, उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे से लोग अनुशासन में रहें तो यह नौबत की नहीं आयेगी. आर एस एस से यह उम्मीद करना कि वह अपने विरोधी को सज़ा नहीं देना , ठीक वैसा ही है जैसे यह उम्मीद करना कि गिद्ध शाकाहारी हो जाएगा. वह उसकी प्रकृति है और कोई भी कोशिश कर ले , प्रकृति नहीं बदली जा सकती. आर एस एस को काबू में करने का एक ही नियम है जिसे आज़ाद भारत के पहले गृहमंत्री , सरदार पटेल ने लागू किया था. उस पर पाबंदी लगाकर उसे बेकार कर दिया था . सरदार कर बाद जवाहरलाल नेहरू ने आर एस एस को वैचारिक धरातल पर शून्य पर पंहुचा दिया था . बाद में इंदिरा गाँधी की विचार धारा से पैदल राज कायम हुआ और आर एस एस फिर सम्मान पाने की दिशा में अग्रसर हो गया . इंदिरा गाँधी ने अपने नौजवान बेटे की सलाह से इमरजेंसी लगा दी और चेले चपाटों के राज की संभावना बहुत जोर पकड़ गयी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आर एस एस को साथ लेकर लड़ाई लड़ी और संघ वाले फिर एक बार स्वीकार्यता की दहलीज़ लांघ कर मुख्यधारा की राजनीति आ गए. उसके बाद तो देश को न को गाँधी मिला, और न ही सरदार और न ही जवाहर लाल. मझोले दर्जे की राजनीति का युग शुरू हो गया . और फिर आर एस एस वाले भी राजनेता बन गए. केंद्र सरकार तक पंहुच गए. और अब वे बाकायदा एक राजनीतिक पार्टी हैं . लेकिन विपक्षी को ख़त्म कर देने की फासिस्ट सोच के चलते वे किसी तरह का लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं कर सकते लिहाजा अगर संभव होता है तो विरोधी को नुकसान पंहुचाते हैं . इसी सोच का नतीजा है कि उनके लोग आजकल मीडिया के ऊपर हमलावर मुद्रा में हैं . यह काम उनकी विचारधारा के पुरानत पुरुष हिटलर ने बार बार किया , पाकिस्तान में शुरू के दो तीन वर्षों के बाद से ही इसी फासिस्ट सोच वाले हावी हैं और अब भारत में भी फासिस्ट ताक़तें पहले से ज्यादा ताक़तवर हो रही हैं . मीडिया को काबू में करना फासिज्म की बुनियादी तरकीब माना जाता है और उसी काम में आर एस एस की हर शाखा के लोग लगे हुए हैं . आजतक के कार्यालय पर हुए हमले को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए.
आजतक और हेडलाइन टुडे के दफ्तर पर किये गए फासिस्ट हमले की मीडिया संगठनों ने निंदा की है और उसे कायराना हमला बताया है . सरकार के पास जुलूस भी जायेगा जहां यह मांग की जायगी कि आर एस एस पर फिर से पाबंदी लगा दी जाए और उसके नेताओं को खुले आम न घूमने दिया जाए. प्रेस क्लब में एक सभा भी हुई और उसी तरह की बातें रखी गयीं . लेकिन प्रेस को सरकार से याचना करने की कोई ज़रुरत नहीं है. आम तौर पर कहा जाता है कि मीडिया पर जब हमला होता है तो सभी लोग इकठ्ठा नहीं होते . जिसके कारण हलावारों के हौसले बढ़ जाते हैं और वे बार बार हमले करते हैं . यह मामला बहुत ही पेचीदा है,हालांकि सच है . ऐसा शायद इस लिए होता है कि जब ताज़ा हमले के पहले किसी और चैनल पर हमला हुआ था तो बाकी लोग नहीं आये थे . मुझे लगता है कि इस बहस से कन्नी काट लेना ही सही रहेगा लेकिन मीडिया पर हमला करने वालों पर लगाम तो लगानी होगी. कोई नहीं आता तो न आये लेकिन अगर आजतक और इंडिया टुडे ग्रुप तय कर ले तो बाद बदल सकती है. इस हमले में हेडलाइन टुडे और आजतक पर हमला इसलिए हुआ कि उन्होंने आर एस एस से जुड़े कुछ लोगों को मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलते कैमरे पर रिकार्ड कर लिया था और उस फुटेज को अपने चैनल पर दिखा कर अपना फ़र्ज़ निभाया था . लेकिन जिनके बारे में खबर थी वे भड़क गए और मार पीट पर उतारू हो गए . इनका जवाब देना बहुत ही आसान है . इतने बड़े न्यूज़ चैनल को किसी और मदद की ज़रुरत नहीं है . वे तो खुद ही इन तानाशाही के पुतलों को घर भेजने भर को काफी हैं . बस उन्हें आर एस एस को परेशान करने का मन बना लेना चाहिए. आर एस एस से कठिन सवाल पूछे जाने चाहिए . उनसे पूछा जाना चाहिये कि १९२० से १९४६ तक चली आज़ादी की लड़ाई में वे क्यों नहीं शामिल हुए , क्यों उनका कोई नेता जेल नहीं गया ,महात्मा गाँधी की ह्त्या में जिस आदमी को फांसी दी गयी उस से उन का विचारधारा के स्तर पर क्या सम्बन्ध था. उनसे पूछा जाय कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस में उनके नेता क्यों कई तरह की बातें कहते क्यों नज़र नहीं आये. उनसे पूछा जाए कि आपके यहाँ जो लोग जीवनदान दे चुके हैं उनको क्यों अकूत संपत्ति दी जाती है . मुराद यह है कि आर एस एस को ऐसे सवालों के घेरे में घेर दिया जाए कि बाद में जब कभी उनके नेता मीडिया सगठनों से पंगा लेने की सोचें तो उन्हें दहशत पैदा हो जाए . हालांकि यह तरीका बहुत ही लोक्तान्त्रिक नहीं हैं लेकिन शठ के साथ आचरण के कुछ नियम तय कर दिए गए हैं उनका पालन कर लेने में कोई बुराई नहीं है . दूसरी बात यह कि खबर को सही प्रसारित करने की बुनियादी प्रतिबद्धता को कभी नहीं भूलना चाहिए . और फासिस्ट ताक़तों को लोकतांत्रिक तरीकों से समझाया जाना चाहिए लेकिन उन्हें धमकाया भी जा सकता है .
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शेष नारायण सिंह
Sunday, July 18, 2010
खैरलांजी के दलितों के हत्यारों के साथ क्यों खडी हैं राजनीतिक पार्टियां
शेष नारायण सिंह
महाराष्ट्र के भंडारा जिले के खैरलांजी गांव में एक दलित परिवार के चार लोगों की ह्त्या और बलात्कार के मामले जिला अदालत का फैसला मुंबई की हाई ने बदल दिया है.जिन लोगों को फांसी की सज़ा सुनायी गयी थी वह अब आजीवन कारावास में बदल दी गयी है . अब इस मामले के सभी आठ मुलजिमों को 25 साल के कठोर कारावास की सजा होगी. राज्य सरकार पर दबाव है कि सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाए . करीब चार साल पहले जब महाराष्ट्र के खैरलांजी गांव में कुछ दबंग लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके दलित भैयालाल भोतमांगे के घर पर रात में हमला बोल कर भोतमांगे की पत्नी सुरेखा, बेटी प्रियंका और दो बेटों सुधीर व रोशन को मार डाला था, तो पूरा देश दहल गया था . आरोप था कि घर की दोनों महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया गया था। उस इलाके के बी जे पी विधायक ने मामले को रफा दफा कराने की गरज़ से मामले की जांच सीआईडी का आदेश करा दिया . इस काम में उसे कांग्रेस और एन सी पी के नेताओं की भी मदद मिली. मराठी के बड़े अखबारों ने भी ऊंची जाति वालों का ही साथ दिया . लेकिन सिविल सोसाइटी की समझ में बात आ गयी. और राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में अभियान चलाया गया. बी बी सी जैसे अंतर राष्ट्रीय संगठनों के मैदान में आ जाने के बाद सरकार पर दबाव पड़ा और जांच सी बी आई के हवाले कर दी गयी.. सी बी आई की चार्ज शीट से साफ़ पता चल गया कि दलितों की आत्मसामान से जीने की कोशिश के खिलाफ यह ताक़तवर लोगों का हमला था. यह भी पता चला कि दलित परिवार के चार लोगों को मौत के घाट उतारने के पहले लड़के को मजबूर किया गया था कि वह अपनी बहन के साथ सबके सामने शारीरिक सम्बन्ध बनाए. उसके मना करने पर दबंगों ने महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उनको गाँव में बिना कपड़ों के घुमाया और फिर मार डाला. जिले की अदालत ने मामले को "रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर" केस माना और सज़ा-ए-मौत का हुक्म दिया . लेकिन हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सत्र न्यायालय द्वारा छ अभियुक्तों ,सकरू बिंजेवार, शत्रुघ्न धांडे, विश्वनाथ धांडे, रामू धांडे, जगदीश मंडलेकर और प्रभाकर मंडलेकर को सुनाई गई फांसी की सजा को रद्द कर दिया और उसे उम्र क़ैद में बदल दिया .जबकि बाकी दोनों की उम्र क़ैद की सज़ा को कायम रखा। सी बी आई ने सभी अभियुक्तों को एट्रॉसिटी एक्ट और बलात्कार के आरोप में भी सजा देने की मांग की थी। हाई कोर्ट ने सीबीआई की इन मांगों को भी खारिज कर दिया।
खैरलांजी की घटना का इतना प्रचार हो गया था कि पूरी दुनिया की निगाहें उस पर लगी हुई थीं लेकिन सरकार और उसके बाहर बैठे सवर्णों की साजिश का नतीजा है कि हाई कोर्ट को निचली अदालत के फैसले को बदलना पड़ा. यहाँ हाई कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाने का कोई मकसद नहीं है लेकिन जिस तरह से दलितों के खिलाफ ऊंची जातियों के लोग एक हो जाते हैं , उस पर चिंता की जानी चाहिए. खैरलांजी के मामले में जिन लोगों ने भी जांच की लगभग सब ने यही बताया कि गाँव के ऊंची जाति के लोग दलित परिवार की तरक्की से ईर्ष्या रखते थे और उनको नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे. ज़ाहिर है यह कोई मामूली अपराध नहीं है . यह किसी बहुत बड़े सामाजिक रोग का पहला लक्षण है . अगर कोई दलित परिवार अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित महाराष्ट्र में इसलिए मार डाला जा रहा है कि उसके सदस्यों ने तरक्की कर ली है , तो बाकी देश का क्या हाल होने वाला है . जिस समाज में दूसरे की तरक्की को देख कर लोग इतना गुस्सा हो जाएँ कि उसे मार डालें , उस समाज में निश्चित रूप से बहुत बड़े पैमाने पर सडन आ चुकी है .इस तरह की मनोवृत्ति को भावी पीढ़ियों की विरासत के रूप में नहीं छोड़ा जा सकता .इसे ख़त्म करना होगा. आदर्श स्थिति तो यह होती कि जाति और उस से जुड़े अपराधों के खिलाफ राजनीतिक चेतना का विकास किया जाता और उसी चेतना के इर्दगिर्द कोई आन्दोलन खड़ा किया जाता लेकिन आज के माहौल में यह संभव नहीं है . राजनीतिक आचरण का पूरी तरह से पतन हो चुका है . आज राजनीति शुद्ध रूप से सत्ता हथियाने का एक साधन बन गयी है .किसी भी समाज के विकास और परिवर्तन के लिए मध्यवर्ग सबसे बड़ी भूमिका निभाता है . आमतौर पर सत्ता परिवर्तन में तो मध्य वर्ग की भूमिका नज़र आती है लेकिन सामाजिक बदलाव में वह उतनी कारगर नहीं होती. कोई फुले, कोई मार्ज़ , कोई गांधी , कोई आम्बेडकर बीज रूप में परिवर्तन के मन्त्र छोड़ जाता है . बाद की पीढियां उस पर काम करती हैं और सामजिक क्रान्ति की शुरुआती चाल भर ली जाती है . लेकिन जाति के विनाश के बारे में अपने महापुरुषों की स्पष्ट हिदायत के बाद भी कोई अहम बदलाव नहीं हो रहा है . यह दुर्भाग्य है . इस पर काबू पाए जाने की ज़रुरत है .. मध्यवर्ग की तैयारी ऐसी नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद भी बांधी जा सके .ऐसी हालत में जो जागरूक राजनीतिक वर्ग है उस से उम्मीद की जानी चाहिए . लेकिन जिस तरह से राजनीतिक नेताओं ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में खाप पंचायतों के सामने घुटने टेके हैं , इनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. खैरलांजी में भी साफ़ नज़र आ रहा है कि दलितों का क़त्ले-आम करने वालों को राजनीतिक वर्ग बचाने में जुटा हुआ है . भ्रष्ट और बेईमान राजनेताओं से और कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए. ऐसी हालत में समाज में बराबरी का माहौल बनाने में सबसे ज्यादा भरोसा न्यायपालिका पर ही किया जाता है लेकिन नागपुर के हाई कोर्ट का जो फैसला आया है वह निराश करता है . अगर सर्वोच्च न्यायालय ने जिला आदालत के फैसले को बहाल न किया तो एक ऐसा माहौल बनेगा जिसमें दलितों पर अत्याचार बढेगा . उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट से जो फैसला आएगा वह भविष्य में दलितों के दुश्मनों में कानून की इज़्ज़त करने की प्रेरणा देगा.
महाराष्ट्र के भंडारा जिले के खैरलांजी गांव में एक दलित परिवार के चार लोगों की ह्त्या और बलात्कार के मामले जिला अदालत का फैसला मुंबई की हाई ने बदल दिया है.जिन लोगों को फांसी की सज़ा सुनायी गयी थी वह अब आजीवन कारावास में बदल दी गयी है . अब इस मामले के सभी आठ मुलजिमों को 25 साल के कठोर कारावास की सजा होगी. राज्य सरकार पर दबाव है कि सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाए . करीब चार साल पहले जब महाराष्ट्र के खैरलांजी गांव में कुछ दबंग लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके दलित भैयालाल भोतमांगे के घर पर रात में हमला बोल कर भोतमांगे की पत्नी सुरेखा, बेटी प्रियंका और दो बेटों सुधीर व रोशन को मार डाला था, तो पूरा देश दहल गया था . आरोप था कि घर की दोनों महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया गया था। उस इलाके के बी जे पी विधायक ने मामले को रफा दफा कराने की गरज़ से मामले की जांच सीआईडी का आदेश करा दिया . इस काम में उसे कांग्रेस और एन सी पी के नेताओं की भी मदद मिली. मराठी के बड़े अखबारों ने भी ऊंची जाति वालों का ही साथ दिया . लेकिन सिविल सोसाइटी की समझ में बात आ गयी. और राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में अभियान चलाया गया. बी बी सी जैसे अंतर राष्ट्रीय संगठनों के मैदान में आ जाने के बाद सरकार पर दबाव पड़ा और जांच सी बी आई के हवाले कर दी गयी.. सी बी आई की चार्ज शीट से साफ़ पता चल गया कि दलितों की आत्मसामान से जीने की कोशिश के खिलाफ यह ताक़तवर लोगों का हमला था. यह भी पता चला कि दलित परिवार के चार लोगों को मौत के घाट उतारने के पहले लड़के को मजबूर किया गया था कि वह अपनी बहन के साथ सबके सामने शारीरिक सम्बन्ध बनाए. उसके मना करने पर दबंगों ने महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उनको गाँव में बिना कपड़ों के घुमाया और फिर मार डाला. जिले की अदालत ने मामले को "रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर" केस माना और सज़ा-ए-मौत का हुक्म दिया . लेकिन हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सत्र न्यायालय द्वारा छ अभियुक्तों ,सकरू बिंजेवार, शत्रुघ्न धांडे, विश्वनाथ धांडे, रामू धांडे, जगदीश मंडलेकर और प्रभाकर मंडलेकर को सुनाई गई फांसी की सजा को रद्द कर दिया और उसे उम्र क़ैद में बदल दिया .जबकि बाकी दोनों की उम्र क़ैद की सज़ा को कायम रखा। सी बी आई ने सभी अभियुक्तों को एट्रॉसिटी एक्ट और बलात्कार के आरोप में भी सजा देने की मांग की थी। हाई कोर्ट ने सीबीआई की इन मांगों को भी खारिज कर दिया।
खैरलांजी की घटना का इतना प्रचार हो गया था कि पूरी दुनिया की निगाहें उस पर लगी हुई थीं लेकिन सरकार और उसके बाहर बैठे सवर्णों की साजिश का नतीजा है कि हाई कोर्ट को निचली अदालत के फैसले को बदलना पड़ा. यहाँ हाई कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाने का कोई मकसद नहीं है लेकिन जिस तरह से दलितों के खिलाफ ऊंची जातियों के लोग एक हो जाते हैं , उस पर चिंता की जानी चाहिए. खैरलांजी के मामले में जिन लोगों ने भी जांच की लगभग सब ने यही बताया कि गाँव के ऊंची जाति के लोग दलित परिवार की तरक्की से ईर्ष्या रखते थे और उनको नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे. ज़ाहिर है यह कोई मामूली अपराध नहीं है . यह किसी बहुत बड़े सामाजिक रोग का पहला लक्षण है . अगर कोई दलित परिवार अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित महाराष्ट्र में इसलिए मार डाला जा रहा है कि उसके सदस्यों ने तरक्की कर ली है , तो बाकी देश का क्या हाल होने वाला है . जिस समाज में दूसरे की तरक्की को देख कर लोग इतना गुस्सा हो जाएँ कि उसे मार डालें , उस समाज में निश्चित रूप से बहुत बड़े पैमाने पर सडन आ चुकी है .इस तरह की मनोवृत्ति को भावी पीढ़ियों की विरासत के रूप में नहीं छोड़ा जा सकता .इसे ख़त्म करना होगा. आदर्श स्थिति तो यह होती कि जाति और उस से जुड़े अपराधों के खिलाफ राजनीतिक चेतना का विकास किया जाता और उसी चेतना के इर्दगिर्द कोई आन्दोलन खड़ा किया जाता लेकिन आज के माहौल में यह संभव नहीं है . राजनीतिक आचरण का पूरी तरह से पतन हो चुका है . आज राजनीति शुद्ध रूप से सत्ता हथियाने का एक साधन बन गयी है .किसी भी समाज के विकास और परिवर्तन के लिए मध्यवर्ग सबसे बड़ी भूमिका निभाता है . आमतौर पर सत्ता परिवर्तन में तो मध्य वर्ग की भूमिका नज़र आती है लेकिन सामाजिक बदलाव में वह उतनी कारगर नहीं होती. कोई फुले, कोई मार्ज़ , कोई गांधी , कोई आम्बेडकर बीज रूप में परिवर्तन के मन्त्र छोड़ जाता है . बाद की पीढियां उस पर काम करती हैं और सामजिक क्रान्ति की शुरुआती चाल भर ली जाती है . लेकिन जाति के विनाश के बारे में अपने महापुरुषों की स्पष्ट हिदायत के बाद भी कोई अहम बदलाव नहीं हो रहा है . यह दुर्भाग्य है . इस पर काबू पाए जाने की ज़रुरत है .. मध्यवर्ग की तैयारी ऐसी नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद भी बांधी जा सके .ऐसी हालत में जो जागरूक राजनीतिक वर्ग है उस से उम्मीद की जानी चाहिए . लेकिन जिस तरह से राजनीतिक नेताओं ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में खाप पंचायतों के सामने घुटने टेके हैं , इनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. खैरलांजी में भी साफ़ नज़र आ रहा है कि दलितों का क़त्ले-आम करने वालों को राजनीतिक वर्ग बचाने में जुटा हुआ है . भ्रष्ट और बेईमान राजनेताओं से और कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए. ऐसी हालत में समाज में बराबरी का माहौल बनाने में सबसे ज्यादा भरोसा न्यायपालिका पर ही किया जाता है लेकिन नागपुर के हाई कोर्ट का जो फैसला आया है वह निराश करता है . अगर सर्वोच्च न्यायालय ने जिला आदालत के फैसले को बहाल न किया तो एक ऐसा माहौल बनेगा जिसमें दलितों पर अत्याचार बढेगा . उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट से जो फैसला आएगा वह भविष्य में दलितों के दुश्मनों में कानून की इज़्ज़त करने की प्रेरणा देगा.
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Saturday, July 17, 2010
मैं एक आज़ाद औरत हूँ
अनहद की प्रियंका जायसवाल ने जब यह पंक्तियाँ प्रस्तुत की थीं ,तो मुझे लगा था कि अगर यह महिलाओं के सशक्तीकरण के आन्दोलन के जुलूसों का मुख्य गीत बन जाए तो सामाजिक परिवर्तन बहुत जल्दी आ जाएगा. मुझे नहीं मालूम कि यह किसकी रचना है ,प्रियंका ने बताया ही नहीं , इसलिए मैं इसे प्रियंका जायसवाल की रचना ही मानता रहूँगा .
मैं एक माँ
एक बहन
एक बेटी
एक अछी पत्नी
एक औरत हूँ
एक औरत जो न जाने कब से नंगे पाँव
रेगिस्तान की धदकती बालू मैं भागती रही है !
मैं सुदूर उत्तर के गाँव से आई हूँ
एक औरत जो न जाने कब से के धान खेतों मे,
और चाय के बागानों मे, अपनी ताकत से ज़यादा मेहनत करती आई है !
मैं पूरब के अँधेरे खंडहरों से आई हूँ
जंहा मैंने न जाने कब से नंगे पांव सुबह से शाम तक,
अपनी मरियल गाय के साथ, खलियानों मे दर्द का बोझ उठाया है
मैं एक औरत हूँ,
उन बंजारों मे से जो तमाम दुनिया मे भटकते फिरते हैं
एक औरत जो पहाड़ों की गोद मे बच्चे जनती है जिसकी
बकरी मैदानों मे कंही मर जाती है और वो बैन करती रह जाती हे
मैं एक मजदूर औरत हूँ
जो अपने हाथों से फेक्टरी में
देवकाय मशीनों के चक्के घुमती है
वो मशीने जो उसकी ताकत को
ऐन उसकी आँखों के सामने
हर दिन नोचा करती है
एक औरत जिसके खून से खूंखार कंकालों की प्यास बुझती है
एक औरत जिसका खून बहने से सरमायेदार का मुनाफा बढता है
एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहूदा शब्दावली मे,
एक शब्द भी ऐसा नहीं जो उसके महत्त्व को बयां कर सके
तुम्हारी शब्दावली केवल उस औरत की बात करती है
जिसके हाथ साफ हैं
जिसका शरीर नर्म है
जिसकी त्वचा मुलायम है
और जिसके बाल खुशबूदार हैं
मैं तो वो औरत हूँ
जिसके हाथों को दर्द की पैनी छुरियों ने घायल कर दिया
एक औरत जिसका बदन तुम्हारे अंतहीन
शर्मनाक और कमरतोड़ काम से टूट चुका है
एक औरत जिसकी खाल मे
रेगिस्तानो की झलक दिखाई देती है
जिसके बालों से फेक्टरी के धुंए की बदबू आती है !
मैं एक आज़ाद औरत हूँ
जो अपने कामरेड भाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर
मैदान पार करती है
एक औरत जिसने मजदूर के मजबूत हाथों की रचना की है
और किसान की बलवान भुजाओं की
मैं खुद भी एक मजदूर हूँ
मैं खुद भी एक किसान हूँ मेरा पूरा जिस्म दर्द की तस्वीर है
मेरी रग - रग में नफ़रत की आग भरी है
और तुम कितनी बेशर्मी से कहते हो
की मेरी भूक एक भ्रम है
और मेरा नंगापन एक ख्वाब
एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहूदा शब्दावली में एक शब्द भी ऐसा नहीं
जो उसके महत्त्व को बयान कर सके
एक औरत जिसके सीने में
गुस्से से फफकते नासूरों से भरा एक दिल छिपा है
एक औरत जिसकी आँखों में आज़ादी की आग के लाल साये लहरा रहे हैं
एक औरत जिसके हाथ काम करते करते सीख गये हैं कि
अपने हक के लिए झंडा कैसे उठाया जाता है
मैं एक माँ
एक बहन
एक बेटी
एक अछी पत्नी
एक औरत हूँ
एक औरत जो न जाने कब से नंगे पाँव
रेगिस्तान की धदकती बालू मैं भागती रही है !
मैं सुदूर उत्तर के गाँव से आई हूँ
एक औरत जो न जाने कब से के धान खेतों मे,
और चाय के बागानों मे, अपनी ताकत से ज़यादा मेहनत करती आई है !
मैं पूरब के अँधेरे खंडहरों से आई हूँ
जंहा मैंने न जाने कब से नंगे पांव सुबह से शाम तक,
अपनी मरियल गाय के साथ, खलियानों मे दर्द का बोझ उठाया है
मैं एक औरत हूँ,
उन बंजारों मे से जो तमाम दुनिया मे भटकते फिरते हैं
एक औरत जो पहाड़ों की गोद मे बच्चे जनती है जिसकी
बकरी मैदानों मे कंही मर जाती है और वो बैन करती रह जाती हे
मैं एक मजदूर औरत हूँ
जो अपने हाथों से फेक्टरी में
देवकाय मशीनों के चक्के घुमती है
वो मशीने जो उसकी ताकत को
ऐन उसकी आँखों के सामने
हर दिन नोचा करती है
एक औरत जिसके खून से खूंखार कंकालों की प्यास बुझती है
एक औरत जिसका खून बहने से सरमायेदार का मुनाफा बढता है
एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहूदा शब्दावली मे,
एक शब्द भी ऐसा नहीं जो उसके महत्त्व को बयां कर सके
तुम्हारी शब्दावली केवल उस औरत की बात करती है
जिसके हाथ साफ हैं
जिसका शरीर नर्म है
जिसकी त्वचा मुलायम है
और जिसके बाल खुशबूदार हैं
मैं तो वो औरत हूँ
जिसके हाथों को दर्द की पैनी छुरियों ने घायल कर दिया
एक औरत जिसका बदन तुम्हारे अंतहीन
शर्मनाक और कमरतोड़ काम से टूट चुका है
एक औरत जिसकी खाल मे
रेगिस्तानो की झलक दिखाई देती है
जिसके बालों से फेक्टरी के धुंए की बदबू आती है !
मैं एक आज़ाद औरत हूँ
जो अपने कामरेड भाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर
मैदान पार करती है
एक औरत जिसने मजदूर के मजबूत हाथों की रचना की है
और किसान की बलवान भुजाओं की
मैं खुद भी एक मजदूर हूँ
मैं खुद भी एक किसान हूँ मेरा पूरा जिस्म दर्द की तस्वीर है
मेरी रग - रग में नफ़रत की आग भरी है
और तुम कितनी बेशर्मी से कहते हो
की मेरी भूक एक भ्रम है
और मेरा नंगापन एक ख्वाब
एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहूदा शब्दावली में एक शब्द भी ऐसा नहीं
जो उसके महत्त्व को बयान कर सके
एक औरत जिसके सीने में
गुस्से से फफकते नासूरों से भरा एक दिल छिपा है
एक औरत जिसकी आँखों में आज़ादी की आग के लाल साये लहरा रहे हैं
एक औरत जिसके हाथ काम करते करते सीख गये हैं कि
अपने हक के लिए झंडा कैसे उठाया जाता है
आज़ादी,कश्मीर के इतिहास की सबसे बड़ी विरासत है
शेष नारायण सिंह
जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सरकार बनने के पहले विधान सभा के लिए जो चुनाव हुए थे, वे कई मायनों में मील का पत्थर थे. आतंकवादियों और अलगाव वादियों की धमकियों की परवाह न करके आम कश्मीरी ने चुनाव में हिस्सा लिया था और भारत के साथ बने रहने के अपने निश्चय को एक बार फिर दोहराया था . सरकार बनी और उम्मीद की जा रही थी नौजवान मुख्य मंत्री राज्य की तरक्की के लिए सब कुछ दांव पर लगा देगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . आज डेढ़ साल बाद लगता है कि कश्मीर फिर एक बार असंतोष और अशांति की आग में जलने के लिए मजबूर हो गया है.कांग्रेस की मदद से मुख्य मंत्री बने उमर अब्दुल्ला को सत्ता में बनाए रखने का कांग्रेस का मंसूबा भी कमज़ोर नहीं है लेकिन बात बनती नज़र नहीं आ रही है . घाटी में बिगड़ गए हालात को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे मुख्य मंत्री ने जो सर्व दलीय बैठक बुलाई उसमें पी डी पी नेता महबूबा मुफ्ती शामिल नहीं हुईं पी डी पी जम्मू-कश्मीर की मुख्य विपक्षी पार्टी है . आरोप यह भी है कि उसके अलगाव वादियों से सम्बन्ध मधुर हैं . अगर महबूबा ही शामिल नहीं हो रही हैं तो सर्वदलीय बैठक का कोई मतलब नहीं है क्योंकि घाटी के बाकी दो दल तो सरकार में शामिल ही हैं . कश्मीर में बन्दूक के ऊपर राज नीति को हावी करने की गरज से सभी राजनीतिक जमातों का जनहित और राष्ट्रहित के मामलों में साथ खड़े रहना ज़रूरी है . शायद इसीलिये प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भी सर्व दलीय बैठक में महबूबा मुफ्ती के शामिल न होने के फैसले को बदलवाने की कोशिश की . उन्होंने महबूबा को फोन करके कहा कि वे बैठक में शामिल हों . दिन भर की ऊह पोह के बाद महबूबा ने मीडिया के ज़रिये कह दिया कि वे उमर अब्दुल्ला की तरफ से बुलाई गयी बैठक में शामिल नहीं होंगीं. बैठक में शामिल न होने के जो उन्होंने कारण दिए वे बहुत ही डरावने हैं . उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है उस से साफ़ लगता है कि वे उमर अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करवा कर एक नयी राजनीतिक व्यवस्था के सपने देख रही हैं. यह कश्मीर के हित में नहीं है . जब भी केंद्रीय हस्तक्षेप से श्रीं नगर में राजनीतिक सत्ता बदली गयी है नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते हैं . सर्व दलीय बैठक में न शामिल होने के लिए महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है उसका भावार्थ सीधे तौर पर केंद्रीय हस्तक्षेप की मांग करता नज़र आता है . उन्होंने कहा है कि हालात बहुत खराब हैं और हमें मुकामी स्तर पर तनाव को ख़त्म करना है . उसके लिए ऐसी पहल की ज़रुरत है जो सर्वोच्च स्तर से आये और लोग उसे गंभीरता से लें . महबूबा ने कहा कि सर्व दलीय बैठक से कुछ नहीं निकलने वाला है . राज्य सरकार की विश्वसनीयता ख़त्म हो चुकी है और अब उसके पास कोई विकल्प नहीं है . उन्होंने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप की मांग की और कहा कि उनके पास हस्तक्षेप करने का नैतिक अधिकार है और उनकी पहल को जनता गंभीरता से लेगी.उन्होंने कहा कि हमें एक ऐसी पहल की ज़रुरत है जिसका कश्मीर के आम आदमी पर असर पड़े. अब हमें अंतर राष्ट्रीय मंचों पर असर की परवाह नहीं करनी चाहिए . उनके इस रुख से यह बात बिलकुल साफ़ हो जाती है कि महबूबा अब किसी भी हाल में उमर अब्दुल्ला को चैन से नहीं बैठने देगीं . हालांकि इसमें दो राय नहीं है कि उमर अब्दुल्ला ने पिछले डेढ़ साल में अपना और कश्मीरी राजनीति का जितना नुकसान किया है , वह बहुत वक़्त में ठीक किया जा सकेगा लेकिन केंद्र के दबाव से निर्वाचित सरकार को हटाना वैसे भी ठीक नहीं है और कश्मीर की संवेदनशील जनता के लिए तो वह और भी बुरा होगा. कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. सच्ची बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को अपनी आज़ादी में गैर ज़रूरी मानती रही है . इसी रोशनी में यह भी समझने की कोशिश की जायेगी कि जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया था, और भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले २० साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओं, महात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना माना था. पिछले ६० साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रण नीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टोबर १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , " कश्मीर मेरी जेब में है."
कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है . इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा .. कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तानऔर तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं .उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी. इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है . और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.
कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया . कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने मेंबहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .
कश्मीर की समस्या में इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. . उसके बाद जब १९७७ का चुनाव हुआ तो शेख अब्दुला फिर मुख्य मंत्री बने . उनकी मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. लेकिन अब तक इंदिरा गाँधी बहुत कमज़ोर हो गयी थीं , एक बेटा खो चुकी थीं और उनके फैसलों को प्रभावित किया जा सकता था . अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्य मंत्री बनवा दिया . यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया . और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी . जब १९९० में तत्कालीन गृह मंत्री, मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया यही दौर है जब . कश्मीर में खून बहना शुरू हुआ . और आज हालात जहां तक पंहुच गए हैं किसी के समझ में नहीं आ रहा है कि वहां से वापसी कब होगी.
जम्मू-कश्मीर की मौजूदा सरकार बनने के पहले विधान सभा के लिए जो चुनाव हुए थे, वे कई मायनों में मील का पत्थर थे. आतंकवादियों और अलगाव वादियों की धमकियों की परवाह न करके आम कश्मीरी ने चुनाव में हिस्सा लिया था और भारत के साथ बने रहने के अपने निश्चय को एक बार फिर दोहराया था . सरकार बनी और उम्मीद की जा रही थी नौजवान मुख्य मंत्री राज्य की तरक्की के लिए सब कुछ दांव पर लगा देगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . आज डेढ़ साल बाद लगता है कि कश्मीर फिर एक बार असंतोष और अशांति की आग में जलने के लिए मजबूर हो गया है.कांग्रेस की मदद से मुख्य मंत्री बने उमर अब्दुल्ला को सत्ता में बनाए रखने का कांग्रेस का मंसूबा भी कमज़ोर नहीं है लेकिन बात बनती नज़र नहीं आ रही है . घाटी में बिगड़ गए हालात को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे मुख्य मंत्री ने जो सर्व दलीय बैठक बुलाई उसमें पी डी पी नेता महबूबा मुफ्ती शामिल नहीं हुईं पी डी पी जम्मू-कश्मीर की मुख्य विपक्षी पार्टी है . आरोप यह भी है कि उसके अलगाव वादियों से सम्बन्ध मधुर हैं . अगर महबूबा ही शामिल नहीं हो रही हैं तो सर्वदलीय बैठक का कोई मतलब नहीं है क्योंकि घाटी के बाकी दो दल तो सरकार में शामिल ही हैं . कश्मीर में बन्दूक के ऊपर राज नीति को हावी करने की गरज से सभी राजनीतिक जमातों का जनहित और राष्ट्रहित के मामलों में साथ खड़े रहना ज़रूरी है . शायद इसीलिये प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भी सर्व दलीय बैठक में महबूबा मुफ्ती के शामिल न होने के फैसले को बदलवाने की कोशिश की . उन्होंने महबूबा को फोन करके कहा कि वे बैठक में शामिल हों . दिन भर की ऊह पोह के बाद महबूबा ने मीडिया के ज़रिये कह दिया कि वे उमर अब्दुल्ला की तरफ से बुलाई गयी बैठक में शामिल नहीं होंगीं. बैठक में शामिल न होने के जो उन्होंने कारण दिए वे बहुत ही डरावने हैं . उन्होंने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है उस से साफ़ लगता है कि वे उमर अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त करवा कर एक नयी राजनीतिक व्यवस्था के सपने देख रही हैं. यह कश्मीर के हित में नहीं है . जब भी केंद्रीय हस्तक्षेप से श्रीं नगर में राजनीतिक सत्ता बदली गयी है नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफी, केंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते हैं . सर्व दलीय बैठक में न शामिल होने के लिए महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है उसका भावार्थ सीधे तौर पर केंद्रीय हस्तक्षेप की मांग करता नज़र आता है . उन्होंने कहा है कि हालात बहुत खराब हैं और हमें मुकामी स्तर पर तनाव को ख़त्म करना है . उसके लिए ऐसी पहल की ज़रुरत है जो सर्वोच्च स्तर से आये और लोग उसे गंभीरता से लें . महबूबा ने कहा कि सर्व दलीय बैठक से कुछ नहीं निकलने वाला है . राज्य सरकार की विश्वसनीयता ख़त्म हो चुकी है और अब उसके पास कोई विकल्प नहीं है . उन्होंने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप की मांग की और कहा कि उनके पास हस्तक्षेप करने का नैतिक अधिकार है और उनकी पहल को जनता गंभीरता से लेगी.उन्होंने कहा कि हमें एक ऐसी पहल की ज़रुरत है जिसका कश्मीर के आम आदमी पर असर पड़े. अब हमें अंतर राष्ट्रीय मंचों पर असर की परवाह नहीं करनी चाहिए . उनके इस रुख से यह बात बिलकुल साफ़ हो जाती है कि महबूबा अब किसी भी हाल में उमर अब्दुल्ला को चैन से नहीं बैठने देगीं . हालांकि इसमें दो राय नहीं है कि उमर अब्दुल्ला ने पिछले डेढ़ साल में अपना और कश्मीरी राजनीति का जितना नुकसान किया है , वह बहुत वक़्त में ठीक किया जा सकेगा लेकिन केंद्र के दबाव से निर्वाचित सरकार को हटाना वैसे भी ठीक नहीं है और कश्मीर की संवेदनशील जनता के लिए तो वह और भी बुरा होगा. कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. सच्ची बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को अपनी आज़ादी में गैर ज़रूरी मानती रही है . इसी रोशनी में यह भी समझने की कोशिश की जायेगी कि जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया था, और भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले २० साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओं, महात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना माना था. पिछले ६० साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रण नीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टोबर १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , " कश्मीर मेरी जेब में है."
कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है . इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा .. कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तानऔर तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं .उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी. इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है . और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.
कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया . कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने मेंबहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. .
कश्मीर की समस्या में इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. . उसके बाद जब १९७७ का चुनाव हुआ तो शेख अब्दुला फिर मुख्य मंत्री बने . उनकी मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. लेकिन अब तक इंदिरा गाँधी बहुत कमज़ोर हो गयी थीं , एक बेटा खो चुकी थीं और उनके फैसलों को प्रभावित किया जा सकता था . अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्य मंत्री बनवा दिया . यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया . और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया . इतना ही नहीं . कांग्रेस ने घोषित मुस्लिम दुश्मन , जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेज दिया . उसके बाद तो हालात बिगड़ते ही गए. उधर पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक लगे हुए थे. उन्होंने बड़ी संख्या में आतंकवादी कश्मीर घाटी में भेज दिया . बची खुची बात उस वक़्त बिगड़ गयी . जब १९९० में तत्कालीन गृह मंत्री, मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का पाकिस्तानी आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया यही दौर है जब . कश्मीर में खून बहना शुरू हुआ . और आज हालात जहां तक पंहुच गए हैं किसी के समझ में नहीं आ रहा है कि वहां से वापसी कब होगी.
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शेष नारायण सिंह
Thursday, July 15, 2010
छत्तीसगढ़ की पुलिस ने दी दिल्ली की सिविल सोसाइटी पर दबिश
शेष नारायण सिंह
( मूल लेख daily news activist में छपा है )
अपने राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाने की जल्दी में छत्तीस गढ़ के मुख्य मंत्री ने पुलिस का इस्तेमाल करने की ऐसी योजना बना दी की दिल्ली में केंद्र सरकार तो नाराज़ है ही, मुख्य मंत्री की अपनी पार्टी के नेता भी उनसे बहुत मायूस हैं. सभी फासिस्ट पार्टियों की तरह आर एस एस का भी नियम है की राजनीतिक विरोधी को विचार धारा के स्तर पर तो हराया नहीं जा सकता , इसलिए आतंक और ज़बरदस्ती का तरीका अख्तियार किया जाना चाहिए लेकिन जब तक सत्ता पर पूरी तरह क़ब्ज़ा न हो, फासिस्ट नियमावली में ऐसा करना मना है . अभी आठ साल पहले आर एस एस के एक अन्य नेता ने गुजरात में जिस तरह सत्ता का इस्तेमाल किया उसे आज तक अदालतों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं . शायद इससे लिए छत्तीएस गढ़ पुलिस के नए कारनामे से उनके दिल्ली वाले नेता भी नाराज़ हो गए हैं ..
छत्तीसगढ़ पुलिस का ताज़ा कारनामा ऐसा है जो एक बार फिर साबित कर देता है कि अभी पुलिस को सभ्य देश की पुलिस की तरह व्यवहार करने में बहुत टाइम लगेगा .पिछले कुछ महीनों में दुनिया को साफ़ पता लग चुका है कि छत्तीसगढ़ की सरकार और पुलिस माओवादी आतंकवाद का मुकाबला करने में नाकाम रहे हैं .. अब एक नया शिगूफा छोड़कर दांतेवाडा के पुलिस प्रमुख ने न केवल अपने को गैर ज़िम्मेदार साबित कर दिया है बल्कि अपनी सरकार के हल्केपन को भी रेखांकित कर दिया है .पता नहीं किस पिनक में दांतेवाडा के पुलिस कप्तान ने लिखित बयान दे दिया कि लिंगाराम कोदोपी नाम का एक आदमी किसी कांग्रेसी नेता के घर ६ जुलाई को हुए हमले के लिए ज़िम्मेदार है. यह भी बताया गया कि यह पूरे छत्तीसगढ़ राज्य के माओवादी संगठनों का मुखिया है .पुलिस ने यह भी बताया कि यह लिंगाराम बहुत ही खतरनाक आदमी है क्योंकि यह दिल्ली में रहता है और मेधा पाटकर,अरुंधती रॉय और प्रोफ़ेसर नलिनी सुन्दर जैसे लोगों से मिलता है. .उसके बाद लाल बुझक्कड़, शेखचिल्ली आदि पारंपरिक सर्वज्ञों की परंपरा का निर्वाह करते हुए जिला पुलिस प्रमुख ने फरमाया कि यह लिंगाराम कोई मामूली माओवादी नहीं है . वास्तव में माओवादी नेता, आज़ाद की मौत के बाद यही लिंगाराम उनका काम संभालने वाला है .पुलिस की रिलीज़ में और भी बहुत सारी दिलचस्प जानकारी है . लिखा है कि यह लिंगारम पिछ्ले दिनों दिल्ली और गुजरात भी गया था और वहां उसने आतंकवाद की ट्रेनिंग ली थी. अब कोईं इन पुलिस बाबू से पूछे कि भाई ,दिल्ली और गुजरात में कौन सी यूनिवर्सिटी खुली हैं जहां आतंकवाद वाला कोर्स पढ़ाया जाता है . या यही बता दें कि अगर इतना बड़ा माओवादी नेता इस तरह घूम रहा है और दिल्ली में लोगों से मिल जुल रहा है, प्रेस कान्फरेन्स कर रहा है तो उसे गिरफ्तार क्यों नहीं किया जा रहा है . जहां तक दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकनामिक्स की प्रोफ़ेसर नलिनी सुन्दर की बात है , उन्होंने तो साफ़ कह दिया है कि वे छत्तीसगढ़ सरकार पर मानहानि का केस करेगीं. जिस लिंगाराम को पुलिस ने बहुत ही खूंखार माओवादी बताया वह दिल्ली में रविवार को प्रेस के सामने हाज़िर हुआ.उसके साथ सुप्रीम कोर्ट के वकील,प्रशांत भूषण और मानवाधिकार नेता, स्वामी अग्निवेश भी थे . उसने बताया कि उसे छत्तीस गढ़ पुलिस ने पहले भी पकड़ लिया था और जब उसके भाई ने हाई कोर्ट में उसके लिये हेबियास कार्पस का मुक़दमा किया तब जाकर पुलिस ने उसे छोड़ा था. उसके बाद वह दिल्ली चला आया और यहीं पत्रकारिता का डिप्लोमा लेने के लिए उसने एक निजी संस्थान में नाम लिखा लिया. अजीब बात है कि अपने मातहत जिला पुलिस प्रमुख की इतनी बड़ी तफ्तीश के बाद छतीसगढ़ पुलिस के महानिदेशक ,विश्वराजन ने कहा कि पुलिस की एक टीम दिल्ली भेज दी गयी है जो लिंगारम से पूछ ताछ करेगी. और अगर ज़रूरी हुआ तो गिरफ्तार करने की बात शुरू की जायेगी यानी पुलिस महानिदेशक को खुद भरोसा नहीं है कि उनके पुलिस अधीक्षक ने जो बातें कही हैं उन पर कार्रवाई की जा सकती है
सिविल सोसाइटी ने छत्तीसगढ़ पुलिस की इस फासिस्ट तानाशाही के खिलाफ सख्ती बरतने की बात की है. अब पता चला है कि सलवा जुडूम और पुलिस लिंगारम के पीछे पड़ी हुई थी कि वह पुलिस का मुखबिर बन जाए लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं था . उसको सबक सिखाने की गरज से दंतेवाड़ा के पुलिस कप्तान ने उसके खिलाफ साज़िश करके यह कार्रवाई की.अरुंधती रॉय ने एक बयान में कहा है कि जिस लिंगारम को मैं जानती हूँ, वह दिल्ली फोरम में रहता है उसने कई मंचों पर सलवा जुडूम के बारे में बात की है और यह बताया है कि किस तरह से सरकारी मदद से चलने वाले संगठन सलवा जुडूम ने उसका अपहरण किया .. अगर पुलिस यह कह रही है कि वह माओवादी नेता आज़ाद की जगह लेने वाला था तो पुलिस सपने देख रही है. प्रोफ़ेसर नलिनी सुन्दर का कहना है कि दांतेवाडा पुलिस की प्रताड़ना से बच कर जब लिंगारम दिल्ली आया तो मैं उस से मिली थी.यह कहना बिलकुल गलत है कि वह अवधेश गौतम पर हुए हमले का मास्टर माइंड है.उस हमले से लिंगाराम और हम लोगों को जोड़ कर दांतेवाडा पुलिस ने ऐसा काम किया है जो कोई असंतुलित दिमाग वाला ही कर सकता है . प्रोफ़ेसर नलिनी सुन्दर ने सलवा जुडूम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक केस दायर कर रखा है . उनका आरोप है कि इस तरह की बातें करके पुलिस मामले पर असर डालने की कोशिश कर रही है.. वरिष्ठ पत्रकार और हिन्दू आखबार के ब्यूरो चीफ सिद्धार्थ वरदराजन ने कहा कि पुलिस ने अब तो हद कर दी. सिद्धार्थ और नलिनी पति-पत्नी हैं .
इस मामले में छत्तीस गढ़ पुलिस का फासिस्ट चेहरा एक बार फिर सामने आ गया है .छत्तीस गढ़ में जिस पार्टी का राज है वह जनता के प्रति अपनी कोई जवाबदेही नहीं मानती. बी जे पी के बड़े नेताओं ने बार बार कहा है कि वे आर एस एस का एक संगठन हैं और पार्टी उसी के प्रति ज़िम्मेदार हैं . दुनिया जानती है कि आर एस एस शुद्ध रूप से फासिस्ट संगठन है . उनका कोई लिखित संविधान नहीं है , संगठन के मुखिया की मर्ज़ी ही वहां सारे फैसलों की बुनियाद में होती है . इसी संगठन के आशीर्वाद से उनकी सरकार ने छत्तीसगढ़ में सरकारी आतंक फैलाने के लिए सलवा जुडूम का गठन किया है . छत्तीसगढ़ में उन लोगों को भी माओवादी कह कर पकड़ लिया जा रहा है जिनके घरों में कोई भी मार्क्सवादी साहित्य मिल जाता है . अब आर एस एस में तो विरोधी की विचारधारा को पढने की भी मनाही रहती है लकिन नार्मल तरीके से शिक्षा हासिल करने वालों के घरों में हर तरह का साहित्य मिल जाएगा . अगर छत्तीसगढ़ या गुजरात पुलिस की चले तो ऐसे हर आदमी को नक्सली बता कर पकड़ लिया जाएगा जिसके घर में मार्क्सवादी साहित्य मिल जाए. ज़ाहिर है कि इस उम्मीद में कि कभी पूरे देश पर आर एस एस का राज हो जाएगा , नागपुर वाले कोशिश कर रहे हैं कि पहले से ही फासिस्ट तरीकों का अभ्यास चलता रहे. केंद्र सरकार सहित सभी सभ्य समाज के लोगों को चाहिए कि छत्तीसगढ़ के बहाने तानाशाही का काम शुरू करने की आर एस एस की कोशिश को फ़ौरन रोकें.
( मूल लेख daily news activist में छपा है )
अपने राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाने की जल्दी में छत्तीस गढ़ के मुख्य मंत्री ने पुलिस का इस्तेमाल करने की ऐसी योजना बना दी की दिल्ली में केंद्र सरकार तो नाराज़ है ही, मुख्य मंत्री की अपनी पार्टी के नेता भी उनसे बहुत मायूस हैं. सभी फासिस्ट पार्टियों की तरह आर एस एस का भी नियम है की राजनीतिक विरोधी को विचार धारा के स्तर पर तो हराया नहीं जा सकता , इसलिए आतंक और ज़बरदस्ती का तरीका अख्तियार किया जाना चाहिए लेकिन जब तक सत्ता पर पूरी तरह क़ब्ज़ा न हो, फासिस्ट नियमावली में ऐसा करना मना है . अभी आठ साल पहले आर एस एस के एक अन्य नेता ने गुजरात में जिस तरह सत्ता का इस्तेमाल किया उसे आज तक अदालतों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं . शायद इससे लिए छत्तीएस गढ़ पुलिस के नए कारनामे से उनके दिल्ली वाले नेता भी नाराज़ हो गए हैं ..
छत्तीसगढ़ पुलिस का ताज़ा कारनामा ऐसा है जो एक बार फिर साबित कर देता है कि अभी पुलिस को सभ्य देश की पुलिस की तरह व्यवहार करने में बहुत टाइम लगेगा .पिछले कुछ महीनों में दुनिया को साफ़ पता लग चुका है कि छत्तीसगढ़ की सरकार और पुलिस माओवादी आतंकवाद का मुकाबला करने में नाकाम रहे हैं .. अब एक नया शिगूफा छोड़कर दांतेवाडा के पुलिस प्रमुख ने न केवल अपने को गैर ज़िम्मेदार साबित कर दिया है बल्कि अपनी सरकार के हल्केपन को भी रेखांकित कर दिया है .पता नहीं किस पिनक में दांतेवाडा के पुलिस कप्तान ने लिखित बयान दे दिया कि लिंगाराम कोदोपी नाम का एक आदमी किसी कांग्रेसी नेता के घर ६ जुलाई को हुए हमले के लिए ज़िम्मेदार है. यह भी बताया गया कि यह पूरे छत्तीसगढ़ राज्य के माओवादी संगठनों का मुखिया है .पुलिस ने यह भी बताया कि यह लिंगाराम बहुत ही खतरनाक आदमी है क्योंकि यह दिल्ली में रहता है और मेधा पाटकर,अरुंधती रॉय और प्रोफ़ेसर नलिनी सुन्दर जैसे लोगों से मिलता है. .उसके बाद लाल बुझक्कड़, शेखचिल्ली आदि पारंपरिक सर्वज्ञों की परंपरा का निर्वाह करते हुए जिला पुलिस प्रमुख ने फरमाया कि यह लिंगाराम कोई मामूली माओवादी नहीं है . वास्तव में माओवादी नेता, आज़ाद की मौत के बाद यही लिंगाराम उनका काम संभालने वाला है .पुलिस की रिलीज़ में और भी बहुत सारी दिलचस्प जानकारी है . लिखा है कि यह लिंगारम पिछ्ले दिनों दिल्ली और गुजरात भी गया था और वहां उसने आतंकवाद की ट्रेनिंग ली थी. अब कोईं इन पुलिस बाबू से पूछे कि भाई ,दिल्ली और गुजरात में कौन सी यूनिवर्सिटी खुली हैं जहां आतंकवाद वाला कोर्स पढ़ाया जाता है . या यही बता दें कि अगर इतना बड़ा माओवादी नेता इस तरह घूम रहा है और दिल्ली में लोगों से मिल जुल रहा है, प्रेस कान्फरेन्स कर रहा है तो उसे गिरफ्तार क्यों नहीं किया जा रहा है . जहां तक दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकनामिक्स की प्रोफ़ेसर नलिनी सुन्दर की बात है , उन्होंने तो साफ़ कह दिया है कि वे छत्तीसगढ़ सरकार पर मानहानि का केस करेगीं. जिस लिंगाराम को पुलिस ने बहुत ही खूंखार माओवादी बताया वह दिल्ली में रविवार को प्रेस के सामने हाज़िर हुआ.उसके साथ सुप्रीम कोर्ट के वकील,प्रशांत भूषण और मानवाधिकार नेता, स्वामी अग्निवेश भी थे . उसने बताया कि उसे छत्तीस गढ़ पुलिस ने पहले भी पकड़ लिया था और जब उसके भाई ने हाई कोर्ट में उसके लिये हेबियास कार्पस का मुक़दमा किया तब जाकर पुलिस ने उसे छोड़ा था. उसके बाद वह दिल्ली चला आया और यहीं पत्रकारिता का डिप्लोमा लेने के लिए उसने एक निजी संस्थान में नाम लिखा लिया. अजीब बात है कि अपने मातहत जिला पुलिस प्रमुख की इतनी बड़ी तफ्तीश के बाद छतीसगढ़ पुलिस के महानिदेशक ,विश्वराजन ने कहा कि पुलिस की एक टीम दिल्ली भेज दी गयी है जो लिंगारम से पूछ ताछ करेगी. और अगर ज़रूरी हुआ तो गिरफ्तार करने की बात शुरू की जायेगी यानी पुलिस महानिदेशक को खुद भरोसा नहीं है कि उनके पुलिस अधीक्षक ने जो बातें कही हैं उन पर कार्रवाई की जा सकती है
सिविल सोसाइटी ने छत्तीसगढ़ पुलिस की इस फासिस्ट तानाशाही के खिलाफ सख्ती बरतने की बात की है. अब पता चला है कि सलवा जुडूम और पुलिस लिंगारम के पीछे पड़ी हुई थी कि वह पुलिस का मुखबिर बन जाए लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं था . उसको सबक सिखाने की गरज से दंतेवाड़ा के पुलिस कप्तान ने उसके खिलाफ साज़िश करके यह कार्रवाई की.अरुंधती रॉय ने एक बयान में कहा है कि जिस लिंगारम को मैं जानती हूँ, वह दिल्ली फोरम में रहता है उसने कई मंचों पर सलवा जुडूम के बारे में बात की है और यह बताया है कि किस तरह से सरकारी मदद से चलने वाले संगठन सलवा जुडूम ने उसका अपहरण किया .. अगर पुलिस यह कह रही है कि वह माओवादी नेता आज़ाद की जगह लेने वाला था तो पुलिस सपने देख रही है. प्रोफ़ेसर नलिनी सुन्दर का कहना है कि दांतेवाडा पुलिस की प्रताड़ना से बच कर जब लिंगारम दिल्ली आया तो मैं उस से मिली थी.यह कहना बिलकुल गलत है कि वह अवधेश गौतम पर हुए हमले का मास्टर माइंड है.उस हमले से लिंगाराम और हम लोगों को जोड़ कर दांतेवाडा पुलिस ने ऐसा काम किया है जो कोई असंतुलित दिमाग वाला ही कर सकता है . प्रोफ़ेसर नलिनी सुन्दर ने सलवा जुडूम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक केस दायर कर रखा है . उनका आरोप है कि इस तरह की बातें करके पुलिस मामले पर असर डालने की कोशिश कर रही है.. वरिष्ठ पत्रकार और हिन्दू आखबार के ब्यूरो चीफ सिद्धार्थ वरदराजन ने कहा कि पुलिस ने अब तो हद कर दी. सिद्धार्थ और नलिनी पति-पत्नी हैं .
इस मामले में छत्तीस गढ़ पुलिस का फासिस्ट चेहरा एक बार फिर सामने आ गया है .छत्तीस गढ़ में जिस पार्टी का राज है वह जनता के प्रति अपनी कोई जवाबदेही नहीं मानती. बी जे पी के बड़े नेताओं ने बार बार कहा है कि वे आर एस एस का एक संगठन हैं और पार्टी उसी के प्रति ज़िम्मेदार हैं . दुनिया जानती है कि आर एस एस शुद्ध रूप से फासिस्ट संगठन है . उनका कोई लिखित संविधान नहीं है , संगठन के मुखिया की मर्ज़ी ही वहां सारे फैसलों की बुनियाद में होती है . इसी संगठन के आशीर्वाद से उनकी सरकार ने छत्तीसगढ़ में सरकारी आतंक फैलाने के लिए सलवा जुडूम का गठन किया है . छत्तीसगढ़ में उन लोगों को भी माओवादी कह कर पकड़ लिया जा रहा है जिनके घरों में कोई भी मार्क्सवादी साहित्य मिल जाता है . अब आर एस एस में तो विरोधी की विचारधारा को पढने की भी मनाही रहती है लकिन नार्मल तरीके से शिक्षा हासिल करने वालों के घरों में हर तरह का साहित्य मिल जाएगा . अगर छत्तीसगढ़ या गुजरात पुलिस की चले तो ऐसे हर आदमी को नक्सली बता कर पकड़ लिया जाएगा जिसके घर में मार्क्सवादी साहित्य मिल जाए. ज़ाहिर है कि इस उम्मीद में कि कभी पूरे देश पर आर एस एस का राज हो जाएगा , नागपुर वाले कोशिश कर रहे हैं कि पहले से ही फासिस्ट तरीकों का अभ्यास चलता रहे. केंद्र सरकार सहित सभी सभ्य समाज के लोगों को चाहिए कि छत्तीसगढ़ के बहाने तानाशाही का काम शुरू करने की आर एस एस की कोशिश को फ़ौरन रोकें.
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Wednesday, July 14, 2010
मीडिया को राजनीतिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा निगहबान बनना पडेगा
शेष नारायण सिंह
( bhadas4 media पर मूल लेख छप चुका है )
कर्नाटक में खनिज सम्पदा की लूट जारी है. यह लूट कई वर्षों से चल रही है . इस बार मामला थोडा अलग है . राष्ट्रीय संपत्ति के लूटने वाले कर्नाटक सरकार में मंत्री हैं. ऐसे दो मंत्री हैं और दोनों सगे भाई हैं .दोनों ही बी जे पी के ख़ास आदमी हैं. इन्हें बेल्लारी रेड्डी कहा जाता है . इन रेड्डी बंधुओं का लूट का कारोबार आन्ध्र प्रदेश में भी है . यह लोग ,खनिज सम्पदा, खासकर आयरन ओर की गैरकानूनी खुदाई का काम करते हैं . बी जे पी के ख़ास बन्दे होने के बावजूद यह लोग आन्ध्र प्रदेश में भी वही काम कर रहे हैं जो कर्नाटक में करते हैं ..लेकिन आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार इनको पूरा सहयोग कर रही है . बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं के मामले में कांग्रेस और बी जे पी का भेद ख़त्म हो जाता है. कर्नाटक के राज्यपाल ,हंसराज भारद्वाज ने नयी दिल्ली में एक सार्वजनिक बयान दे दिया कि करीब साठ हज़ार करोड़ रूपये के सार्वजनिक धन की हेराफेरी वाले इस मामले में उनकी सरकार कर दो मंत्री शामिल हैं , और मुख्यमंत्री को चाहिए कि उन मंत्रियों को हटा दें. हंसराज भारद्वाज दिल्ली दरबार के पुराने खिलाड़ी हैं . जुगाड़ तंत्र के आचार्य हैं और जिस काम के लिए वे कर्नाटक सरकार को राजनीतिक रूप से घेर रहे हैं , वैसे सैकड़ों मामलों में वे अपनी पार्टी के लोगों की मदद कर चुके हैं . उनके इसी रिकार्ड को सामने रख कर बी जे पी वाले यह साबित करना चाहते हैं कि हंसराज भारद्वाज की नीयत साफ़ नहीं है और उनकी किसी बात को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए . बी जे पी के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने कह दिया कि राज्यपाल की मर्यादा को सम्मान न देकर भारद्वाज ने गलती की है , जबकि कांगेसी कह रहे हैं कि बी जे पी वाले राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद की गरिमा नहीं निभा रहे हैं . दोनों ही पार्टियां इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे रही हैं कि राष्ट्रीय सम्पदा की खुले आम लूट हो रही है और उसकी रक्षा की जानी चाहिए . इसके विपरीत दोनों की पार्टियां वे इस बात पर जुटी हैं कि राजनीतिक नेताओं के आचरण को बहस का मुद्दा बना कर घूस, लूट और भ्रष्टाचार के गंभीर मुद्दों से जनता का ध्यान हटाया जाए . यानी लूट से उन दोनों राजनीतिक दलों को कोई एतराज़ नहीं है . ऐसा भी नहीं है कि ऐसा पहली बार हो रहा है कि राजनीतिक बेईमानी का कोई बड़ा मसला सार्वजनिक बहस के दायरे में आया हो और देश की राजनीतिक पार्टियां उस केस से नेताओं को बचाने में न जुट गयी हों . बेल्लारी रेड्डी बंधुओं की लूट का ऐसा ही मामला है . दोनों ही दल मुख्य मुद्दे से बहस को हटाने के काम में लग गए हैं .ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या मीडिया इस मामले में राजनेताओं को उनका एजेंडा चलाने की अनुमति देगा कि नहीं. कोई मुगालता नहीं होना चाहिए , इस मामले में भी नेताओं का एजेंडा वही है जो हर बार होता है और वह यह कि नेता किसी भी पार्टी का हो उसके ऊपर आंच नहीं आनी चाहिए . इनको यह समझाने की ज़रुरत है कि हो सकता है कि राज्यपाल ने अपने पद की गरिमा न निभाई हो लेकिन जो लूट का मामला सामने आया है ,उस से क्यों भाग रहे हैं आप ?.इनसे यह पूछे जाने की ज़रुरत है कि हो सकता है कि क्या इस सारी जानकारी के बाद आप लोग एक दूसरे को गाली देते रहेगें और मूल मुद्दे से जनता और देश का ध्यान हटा देगें .
इस मुहिम में मीडिया की भूमिका अहम हो सकती है . इस दिशा में मंगलवार को हुई बहस में टाइम्स नाउ नाम के अंग्रेज़ी चैनल की पहल ज़ोरदार थी. ९ बजे रात की ख़बरों के एंकर , अरनब गोस्वामी ने बी जे पी और कांग्रेस के प्रतिनिधि को मुद्दे से नाथ कर रखने की पूरी कोशिश की . यह अलग बात है कि दोनों पार्टियों के वे प्रवक्ता बहस में शामिल थे जो इस बात के लिए प्रसिद्ध हैं कि वे चिल्ला चिला कर अपनी बात कहते रहते हैं , कोई सुने या न सुने. वे कहते रहे कि बी जे पी वाले राज्यपाल के पद का अपमान कर रहे हैं जबकि दूसरे चिल्लाहट मास्टर कह रहे थे हंसराज भारद्वाज जोड़ तोड़ की अपनी कांग्रेसी राजनीति को भूले नहीं है और वही कर रहे हैं . अरनब गोस्वामी ने उनके एजेंडे को नहीं चलने दिया और डाइरेक्ट सवाल पूछे कि सार्वजनिक सम्पदा की इस तरह की लूट को कैसे सही ठहराया जा सकता है. मीडिया का यह सक्रिय रुख अच्छा लगा . अगर बाकी समाचार संगठन भी इसी तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ सोंटा ले कर पिल पड़ेगें तो देश का बहुत उद्धार होगा . इन नेताओं की क्षमता को कम करके भी नहीं आंकना चाहिये . करीब २० साल पहले राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा मामला पकड़ा गया था . जैन हवाला काण्ड के नाम से कुख्यात वह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ था . जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के शहाबुद्दीन गोरी ने देश के नेताओं को किसी जैन की मार्फ़त पैसे दिए थे. जिन लोगों के नाम आये थे वह हैरतअंगेज़ था. उसमें कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता नहीं था लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी , बी जे पी के लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, आरिफ मुहम्मद खां, सतीश शर्मा आदि बड़े बड़े नाम थे . स्वर्गीय मधु लिमये ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में केस तक कर दिया था लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ क्योंकि सभी पार्टियों के नेता एक हो गए और सरकार चाहे जिसकी बनी सब लोग इकठ्ठा हो कर मामले को रफा दफा करवाने में सफल हो गए. इस बार भी वही हो सकता है . टाइम्स नाउ ने पहल तो कर दी है लेकिन वह एक कॉर्पोरेट चैनल है ,उसे राजनीतिक ताक़त से समझौता करना पड सकता है . बाकी मीडिया संगठन अगर चौकन्ना रहे तो धीरे धीरे अपने मुल्क में भी वह परंपरा शुरू हो सकती है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा निगहबान मीडिया ही रहे
( bhadas4 media पर मूल लेख छप चुका है )
कर्नाटक में खनिज सम्पदा की लूट जारी है. यह लूट कई वर्षों से चल रही है . इस बार मामला थोडा अलग है . राष्ट्रीय संपत्ति के लूटने वाले कर्नाटक सरकार में मंत्री हैं. ऐसे दो मंत्री हैं और दोनों सगे भाई हैं .दोनों ही बी जे पी के ख़ास आदमी हैं. इन्हें बेल्लारी रेड्डी कहा जाता है . इन रेड्डी बंधुओं का लूट का कारोबार आन्ध्र प्रदेश में भी है . यह लोग ,खनिज सम्पदा, खासकर आयरन ओर की गैरकानूनी खुदाई का काम करते हैं . बी जे पी के ख़ास बन्दे होने के बावजूद यह लोग आन्ध्र प्रदेश में भी वही काम कर रहे हैं जो कर्नाटक में करते हैं ..लेकिन आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार इनको पूरा सहयोग कर रही है . बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं के मामले में कांग्रेस और बी जे पी का भेद ख़त्म हो जाता है. कर्नाटक के राज्यपाल ,हंसराज भारद्वाज ने नयी दिल्ली में एक सार्वजनिक बयान दे दिया कि करीब साठ हज़ार करोड़ रूपये के सार्वजनिक धन की हेराफेरी वाले इस मामले में उनकी सरकार कर दो मंत्री शामिल हैं , और मुख्यमंत्री को चाहिए कि उन मंत्रियों को हटा दें. हंसराज भारद्वाज दिल्ली दरबार के पुराने खिलाड़ी हैं . जुगाड़ तंत्र के आचार्य हैं और जिस काम के लिए वे कर्नाटक सरकार को राजनीतिक रूप से घेर रहे हैं , वैसे सैकड़ों मामलों में वे अपनी पार्टी के लोगों की मदद कर चुके हैं . उनके इसी रिकार्ड को सामने रख कर बी जे पी वाले यह साबित करना चाहते हैं कि हंसराज भारद्वाज की नीयत साफ़ नहीं है और उनकी किसी बात को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए . बी जे पी के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने कह दिया कि राज्यपाल की मर्यादा को सम्मान न देकर भारद्वाज ने गलती की है , जबकि कांगेसी कह रहे हैं कि बी जे पी वाले राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद की गरिमा नहीं निभा रहे हैं . दोनों ही पार्टियां इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे रही हैं कि राष्ट्रीय सम्पदा की खुले आम लूट हो रही है और उसकी रक्षा की जानी चाहिए . इसके विपरीत दोनों की पार्टियां वे इस बात पर जुटी हैं कि राजनीतिक नेताओं के आचरण को बहस का मुद्दा बना कर घूस, लूट और भ्रष्टाचार के गंभीर मुद्दों से जनता का ध्यान हटाया जाए . यानी लूट से उन दोनों राजनीतिक दलों को कोई एतराज़ नहीं है . ऐसा भी नहीं है कि ऐसा पहली बार हो रहा है कि राजनीतिक बेईमानी का कोई बड़ा मसला सार्वजनिक बहस के दायरे में आया हो और देश की राजनीतिक पार्टियां उस केस से नेताओं को बचाने में न जुट गयी हों . बेल्लारी रेड्डी बंधुओं की लूट का ऐसा ही मामला है . दोनों ही दल मुख्य मुद्दे से बहस को हटाने के काम में लग गए हैं .ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या मीडिया इस मामले में राजनेताओं को उनका एजेंडा चलाने की अनुमति देगा कि नहीं. कोई मुगालता नहीं होना चाहिए , इस मामले में भी नेताओं का एजेंडा वही है जो हर बार होता है और वह यह कि नेता किसी भी पार्टी का हो उसके ऊपर आंच नहीं आनी चाहिए . इनको यह समझाने की ज़रुरत है कि हो सकता है कि राज्यपाल ने अपने पद की गरिमा न निभाई हो लेकिन जो लूट का मामला सामने आया है ,उस से क्यों भाग रहे हैं आप ?.इनसे यह पूछे जाने की ज़रुरत है कि हो सकता है कि क्या इस सारी जानकारी के बाद आप लोग एक दूसरे को गाली देते रहेगें और मूल मुद्दे से जनता और देश का ध्यान हटा देगें .
इस मुहिम में मीडिया की भूमिका अहम हो सकती है . इस दिशा में मंगलवार को हुई बहस में टाइम्स नाउ नाम के अंग्रेज़ी चैनल की पहल ज़ोरदार थी. ९ बजे रात की ख़बरों के एंकर , अरनब गोस्वामी ने बी जे पी और कांग्रेस के प्रतिनिधि को मुद्दे से नाथ कर रखने की पूरी कोशिश की . यह अलग बात है कि दोनों पार्टियों के वे प्रवक्ता बहस में शामिल थे जो इस बात के लिए प्रसिद्ध हैं कि वे चिल्ला चिला कर अपनी बात कहते रहते हैं , कोई सुने या न सुने. वे कहते रहे कि बी जे पी वाले राज्यपाल के पद का अपमान कर रहे हैं जबकि दूसरे चिल्लाहट मास्टर कह रहे थे हंसराज भारद्वाज जोड़ तोड़ की अपनी कांग्रेसी राजनीति को भूले नहीं है और वही कर रहे हैं . अरनब गोस्वामी ने उनके एजेंडे को नहीं चलने दिया और डाइरेक्ट सवाल पूछे कि सार्वजनिक सम्पदा की इस तरह की लूट को कैसे सही ठहराया जा सकता है. मीडिया का यह सक्रिय रुख अच्छा लगा . अगर बाकी समाचार संगठन भी इसी तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ सोंटा ले कर पिल पड़ेगें तो देश का बहुत उद्धार होगा . इन नेताओं की क्षमता को कम करके भी नहीं आंकना चाहिये . करीब २० साल पहले राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा मामला पकड़ा गया था . जैन हवाला काण्ड के नाम से कुख्यात वह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ था . जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के शहाबुद्दीन गोरी ने देश के नेताओं को किसी जैन की मार्फ़त पैसे दिए थे. जिन लोगों के नाम आये थे वह हैरतअंगेज़ था. उसमें कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता नहीं था लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी , बी जे पी के लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, आरिफ मुहम्मद खां, सतीश शर्मा आदि बड़े बड़े नाम थे . स्वर्गीय मधु लिमये ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में केस तक कर दिया था लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ क्योंकि सभी पार्टियों के नेता एक हो गए और सरकार चाहे जिसकी बनी सब लोग इकठ्ठा हो कर मामले को रफा दफा करवाने में सफल हो गए. इस बार भी वही हो सकता है . टाइम्स नाउ ने पहल तो कर दी है लेकिन वह एक कॉर्पोरेट चैनल है ,उसे राजनीतिक ताक़त से समझौता करना पड सकता है . बाकी मीडिया संगठन अगर चौकन्ना रहे तो धीरे धीरे अपने मुल्क में भी वह परंपरा शुरू हो सकती है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा निगहबान मीडिया ही रहे
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शेष नारायण सिंह
Tuesday, July 13, 2010
रवीश कुमार की किताब :पढने के पूर्व की समीक्षा
शेष नारायण सिंह
रवीश कुमार ने किताब लिख मारा. बहुत अच्छा किया . न लिखते तो कुढ़ते रहते. मैं किताब लेने जा रहा हूँ. पढने के पहले की टिप्पणी करना ज़रूरी है क्योंकि अगर किताब का औपचारिक विमोचन हुआ होता तो मैं ज़रूर जाता ( अगर पता लगता तब). बाकी लोगों को तो नहीं मालूम होगा लेकिन मेरे रवीश कुमार से सम्बन्ध अच्छे हैं . वे ज़रूर मुझे ' दो शब्द ' वाले खाने में रखवा देते . तो जैसी कि परिपाटी है ,बिना पढ़े किताब के बारे में करीब पंद्रह सौ शब्दों का भाषण देता जो कुछ इस प्रकार चलता .
मुझे खुशी है कि रवीश कुमार ने अपने करीब १५ साल के अनुभव को कलम बंद कर दिया. मैं रवीश को करीब १२ साल से जानता हूँ . बहुत अच्छी तरह . वे दो तीन बार मेरे घर आ चुके हैं . और मैं भी उनके घर कई बार गया हूँ . बहुत अपनापा है , हम लोगों के बीच . वे मेरे बच्चों के घर के नाम जानते हैं , और मैं उनकी बेटी को उसके बचपन से जानता हूँ . उनकी पत्नी बहुत विद्वान् है. मैं और रवीश कुमार जिस नौकरी के लिए हमेशा तरसते रहे , उसी दिल्ली विश्वविद्यालय के सबसे अच्छे कालेज में वह लेक्चरर है . रवीश कुमार को सूजी का हलवा बहुत पसंद है ( यह अंदाज़ कर कह रहा हूँ ). जब भी मेरे घर आते , हलवा ज़रूर खाते.( यह भी गलत है ).
इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है . जितने भी पुस्तक विमोचन समारोहों में मैंने डॉ नामवर सिंह को बोलते देखा है मेरा मन कह रहा है कि वह सब अपनी तरफ से लिख दूं . क्योंकि बिना किताब पढ़े और बिना लेखक या कवि को जाने उसकी तारीफ करने में उनके टक्कर का महात्मा कोई दूजा नहीं. तो कृपया रवीश कुमार की तारीफ में वे सारे भाषण मेरी तरफ से नोट कर लिए जाएँ, जो डॉ नामवर सिंह ने पिछले ५५ वर्षों में किताब के विमोचन समारोहों में दिए हैं .
किताब पढ़ कर जो राय बनेगी , कोशिश करूंगा कि उसे भी लिखूं . जय हिंद
रवीश कुमार ने किताब लिख मारा. बहुत अच्छा किया . न लिखते तो कुढ़ते रहते. मैं किताब लेने जा रहा हूँ. पढने के पहले की टिप्पणी करना ज़रूरी है क्योंकि अगर किताब का औपचारिक विमोचन हुआ होता तो मैं ज़रूर जाता ( अगर पता लगता तब). बाकी लोगों को तो नहीं मालूम होगा लेकिन मेरे रवीश कुमार से सम्बन्ध अच्छे हैं . वे ज़रूर मुझे ' दो शब्द ' वाले खाने में रखवा देते . तो जैसी कि परिपाटी है ,बिना पढ़े किताब के बारे में करीब पंद्रह सौ शब्दों का भाषण देता जो कुछ इस प्रकार चलता .
मुझे खुशी है कि रवीश कुमार ने अपने करीब १५ साल के अनुभव को कलम बंद कर दिया. मैं रवीश को करीब १२ साल से जानता हूँ . बहुत अच्छी तरह . वे दो तीन बार मेरे घर आ चुके हैं . और मैं भी उनके घर कई बार गया हूँ . बहुत अपनापा है , हम लोगों के बीच . वे मेरे बच्चों के घर के नाम जानते हैं , और मैं उनकी बेटी को उसके बचपन से जानता हूँ . उनकी पत्नी बहुत विद्वान् है. मैं और रवीश कुमार जिस नौकरी के लिए हमेशा तरसते रहे , उसी दिल्ली विश्वविद्यालय के सबसे अच्छे कालेज में वह लेक्चरर है . रवीश कुमार को सूजी का हलवा बहुत पसंद है ( यह अंदाज़ कर कह रहा हूँ ). जब भी मेरे घर आते , हलवा ज़रूर खाते.( यह भी गलत है ).
इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है . जितने भी पुस्तक विमोचन समारोहों में मैंने डॉ नामवर सिंह को बोलते देखा है मेरा मन कह रहा है कि वह सब अपनी तरफ से लिख दूं . क्योंकि बिना किताब पढ़े और बिना लेखक या कवि को जाने उसकी तारीफ करने में उनके टक्कर का महात्मा कोई दूजा नहीं. तो कृपया रवीश कुमार की तारीफ में वे सारे भाषण मेरी तरफ से नोट कर लिए जाएँ, जो डॉ नामवर सिंह ने पिछले ५५ वर्षों में किताब के विमोचन समारोहों में दिए हैं .
किताब पढ़ कर जो राय बनेगी , कोशिश करूंगा कि उसे भी लिखूं . जय हिंद
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Sunday, July 11, 2010
अमरीकी-पाकिस्तानी-जिहादी आतंक और राष्ट्रों की सुरक्षा
शेष नारायण सिंह
शुक्रवार को पाकिस्तान में फिर आतंकवादी हमला हुआ , जिसमें करीब ६० लोग मारे गए. इंसानी ज़िन्दगी को इस तरह से आतंकवादी हिंसा का शिकार बनाना किसी तरह से सही नहीं है . लेकिन पाकिस्तान की फौज और सरकार के साथ किसी तरह की सहानुभूति नहीं दिखाई जानी चाहिए . पाकिस्तान में जो आतंक आजकल फल फूल रहा है , उसकी शुरुआत पाकिस्तानी हुक्मरान ने ही की थी. हाँ यह अलग बात है कि उस वक़्त पाकिस्तानी फौज के सुपर जनरल और तानाशाह, जिया उल हक को मुगालता था कि जिन आतंकवादियों को वे भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं , वे पाकिस्तान के प्रति वफादार रहेगें. लेकिन ऐसा नहीं हुआ . भारत एक मज़बूत मुल्क है और जब भारतीय सुरक्षा बलों ने पाकितानी आतंकवादियों को सख्ती से खदेड़ना शुरू किया तो वे भाग कर पाकिस्तान की अपनी बिलों में ही छुप गए . लेकिन ज़्यादा दिन तक नहीं . अब वे पाकिस्तान सरकार और राष्ट्र को ही आतंकवादी हमलों के ज़रिये कमज़ोर कर रहे हैं . भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने के जिया उल हक के खेल में अमरीका ने उनकी खूब मदद की थी. कोल्ड वार का ज़माना था, भारत और सोवियत रूस की दोस्ती अमरीका को फूटी आँखों नहीं सुहाती थी . शायद इसी लिए अमरीका ने पाकिस्तानी ज़मीन पर आतंकवादी पैदा करने की पाकिस्तानी फौज और जनरलों की योजना को खूब पैसा दिया . अब जाकर अमरीका को लग रहा है कि गलती हो गयी. जिस आतंकवाद को पाकिस्तानी फौज ने भारत के खिलाफ तैयार किया था, वही आज अमरीका की सबसे बड़ी दुश्मन है . वही आतंकवाद अब पाकिस्तान के अस्तित्व के सामने संकट बन कर खडा हो गया है.और पाकिस्तानी अस्तित्व पर आये संकट के बाद अमरीकी सरकार बहुत दुखी है . अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता, मार्क टोनर का बयान आया है कि पाकिस्तान, आतंकवादी ताक़तों के मुकाबले अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है .इस लड़ाई में अमरीका उसको पूरा समर्थन देगा. मार्क टोनर का बयान पाकिस्तान में शुक्रवार को हुए आतंकवादी हमले के बाद आया है जिसमें करीब साठ लोग मारे गए थे. प्रवक्ता ने कहा कि अमरीका हमेशा से ही पाकिस्तान को समर्थन देता रहा है और इस संकट की घड़ी में भी वह समर्थन जारी रहेगा.
अब अमरीका को कौन बताये कि मेरे भाई , आपके समर्थन की वजह से ही पाकिस्तान में आज आतंकवाद की खेती लहलहा रही है . यानी आपने ही दर्द दिया है और अब आप ही दवा देने चले हैं . अस्सी के दशक में जब अमरीकी पैसे और पाकिस्तानी फौज की कृपा से भारत के राज्य, पंजाब में चारों तरफ आतंक का तूफ़ान था तो अमरीकी हुकूमत को खूब मज़ा आ रहा था . अफगानिस्तान से सोवियत रूस की सेना को भगाने की जो कोशिश की जा रही थी, उसके लिए पाकिस्तान को खुलकर अमरीकी धन मिल रहा था. उसी धन में से कुछ भारत के पंजाब में भी झोंक दिया जाता था . अमरीका को उम्मीद थी कि भारत को पाकिस्तानी आतंक के सामने मजबूर किया जा सकता था . शायद उन्होंने सोचा होगा कि बाद में जब भारत, अमरीका की शरण आना स्वीकार कर लेगा तो आतंकवाद को ख़त्म कर दिया जाएगा. कितनी गलत थी यह सोच . वास्तव में अमरीका के अन्दर भी जो आतंकवादी हमला हुआ, उसके पीछे पाकिस्तान में पैदा हुए आतंक का हाथ था. सोवियत रूस के दौर में तो आज के अमरीका के दुश्मन नंबर एक कहलाने वाले ओसामा बिन लादेन भी अमरीकी पैसे पर चलते थे और अमरीका के ख़ास रिसोर्स हुआ करते थे. करीब २० साल पहले , जब सोवियत रूस टूट गया और बहुत कमज़ोर हो गया तो अमरीका को उसके खिलाफ किसी आतंकवादी संगठन की ज़रूरत नहीं रह गयी और उसने ओसामा बिन लादेन समेत सारे पाकिस्तानी आतंकी ताम-झाम को बाय बाय कह दिया . यहीं अमरीका से गलती हो गयी. अमरीकी नीति निर्धारकों को मालूम होना चाहिए था कि अगर किसी पाप को जन्म दे रहे हो तो उसको आखिर तक दाना-पानी देते रहने में ही भलाई रहती है. अगर उसका खर्चा-पानी बंद कर दिया तो वह अपने पैदा करने वाले पर ही हमला कर देगा. भारत में ऐसी ही एक कथा भस्मासुर की है . जो भी भस्मासुर को जन्म देने की सोच रहा हो उसे पता होना चाहिए कि भस्मासुर अपने पैदा करने वाले को भी भस्म करने की कोशिश करता है . बाद में वही ओसामा बिन लादेन और पाकिस्तानी मूल के आतंकवादियों ने अमरीका की आतंरिक सुरक्षा के परखचे उड़ा दिए. और अब पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में ख़त्म करने पर आमादा हैं .
लेकिन अमरीकी और पाकिस्तानी हुक्मरान अभी तक सच्चाई को समझने से परहेज़ कर रहे हैं .पाकिस्तान में आतंकवाद का सबसे बड़ा सरगना , हाफ़िज़ मुहम्मद सईद है . वह कभी जिया उल हक का धार्मिक सलाहकार हुआ करता था . मुंबई हमलों की साज़िश उसी ने रची थी. लेकिन वह पाकिस्तान में छुट्टा घूम रहा है. दरअसल पाकिस्तान में तथाकथित सिविलियन सरकार में किसी की हिम्मत नहीं है कि उसे पकड़ सके . वह पाकिस्तानी फौज का ख़ास बन्दा है . लेकिन उसे पकड़ना अमरीका के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है . पाकिस्तान में हो रहे रोज़ के आतंकवादी हमलों पर सहानुभूति प्रकट करने के साथ साथ, अगर अमरीकी हुक्मरान यह समझ लें कि आतंकवादी किसी का दोस्त नहीं होता तो बात संभल जायेगी. क्योंकि अगर उनकी समझ में यह आ गया तो वे पाकिस्तानी आतंकवाद को जड़ से ख़त्म करने की योजना पर काम कर सकेगें . सब को मालूम है कि पाकिस्तानी आतंकवाद की मुख्य धारा हाफ़िज़ मुहम्मद सईद और उसके संगठनों , जमात उद दावा और लश्कर-ए-तय्यबा से होकर गुज़रती है. इसलिए अगर उसे ख़त्म कर दिया जाए तो पाकिस्तान में भी आतंकवाद कम हो जाएगा . अमरीका को भी बड़ी राहत मिलेगी और भारत में भी आतंकवादी गतिविधियों पर लगाम लग जायेगी,.हाफ़िज़ सईद को पकड़ पाना पाकिस्तानी सरकार के लिए तो नामुमकिन है लेकिन वहां की फौज़ उसको काबू में कर सकती है . दुनिया जानती है कि पाकिस्तानी फौज में बहुत बड़ी संख्या में आला अफसर ऐसे हैं जो अमरीकी सरकार से पैसा-कौड़ी लेते हैं और उनके सामने खीस निकालते रहते हैं . पूर्व राष्ट्रपति, परवेज़ मुशर्रफ ऐसे ही अमरीकी कारिंदे थे. इन्हीं अफसरों पर दबाव डाल कर अमरीका , हाफ़िज़ सईद को ठीक कर सकता है और आतंकवाद पर काबू कर सकता है. घडियाली आंसू से कुछ नहीं होगा और अमरीकी विदेश नीति हमेशा ही पाकिस्तानी आतंकवाद के दबाव में रहेगी.
शुक्रवार को पाकिस्तान में फिर आतंकवादी हमला हुआ , जिसमें करीब ६० लोग मारे गए. इंसानी ज़िन्दगी को इस तरह से आतंकवादी हिंसा का शिकार बनाना किसी तरह से सही नहीं है . लेकिन पाकिस्तान की फौज और सरकार के साथ किसी तरह की सहानुभूति नहीं दिखाई जानी चाहिए . पाकिस्तान में जो आतंक आजकल फल फूल रहा है , उसकी शुरुआत पाकिस्तानी हुक्मरान ने ही की थी. हाँ यह अलग बात है कि उस वक़्त पाकिस्तानी फौज के सुपर जनरल और तानाशाह, जिया उल हक को मुगालता था कि जिन आतंकवादियों को वे भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं , वे पाकिस्तान के प्रति वफादार रहेगें. लेकिन ऐसा नहीं हुआ . भारत एक मज़बूत मुल्क है और जब भारतीय सुरक्षा बलों ने पाकितानी आतंकवादियों को सख्ती से खदेड़ना शुरू किया तो वे भाग कर पाकिस्तान की अपनी बिलों में ही छुप गए . लेकिन ज़्यादा दिन तक नहीं . अब वे पाकिस्तान सरकार और राष्ट्र को ही आतंकवादी हमलों के ज़रिये कमज़ोर कर रहे हैं . भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने के जिया उल हक के खेल में अमरीका ने उनकी खूब मदद की थी. कोल्ड वार का ज़माना था, भारत और सोवियत रूस की दोस्ती अमरीका को फूटी आँखों नहीं सुहाती थी . शायद इसी लिए अमरीका ने पाकिस्तानी ज़मीन पर आतंकवादी पैदा करने की पाकिस्तानी फौज और जनरलों की योजना को खूब पैसा दिया . अब जाकर अमरीका को लग रहा है कि गलती हो गयी. जिस आतंकवाद को पाकिस्तानी फौज ने भारत के खिलाफ तैयार किया था, वही आज अमरीका की सबसे बड़ी दुश्मन है . वही आतंकवाद अब पाकिस्तान के अस्तित्व के सामने संकट बन कर खडा हो गया है.और पाकिस्तानी अस्तित्व पर आये संकट के बाद अमरीकी सरकार बहुत दुखी है . अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता, मार्क टोनर का बयान आया है कि पाकिस्तान, आतंकवादी ताक़तों के मुकाबले अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है .इस लड़ाई में अमरीका उसको पूरा समर्थन देगा. मार्क टोनर का बयान पाकिस्तान में शुक्रवार को हुए आतंकवादी हमले के बाद आया है जिसमें करीब साठ लोग मारे गए थे. प्रवक्ता ने कहा कि अमरीका हमेशा से ही पाकिस्तान को समर्थन देता रहा है और इस संकट की घड़ी में भी वह समर्थन जारी रहेगा.
अब अमरीका को कौन बताये कि मेरे भाई , आपके समर्थन की वजह से ही पाकिस्तान में आज आतंकवाद की खेती लहलहा रही है . यानी आपने ही दर्द दिया है और अब आप ही दवा देने चले हैं . अस्सी के दशक में जब अमरीकी पैसे और पाकिस्तानी फौज की कृपा से भारत के राज्य, पंजाब में चारों तरफ आतंक का तूफ़ान था तो अमरीकी हुकूमत को खूब मज़ा आ रहा था . अफगानिस्तान से सोवियत रूस की सेना को भगाने की जो कोशिश की जा रही थी, उसके लिए पाकिस्तान को खुलकर अमरीकी धन मिल रहा था. उसी धन में से कुछ भारत के पंजाब में भी झोंक दिया जाता था . अमरीका को उम्मीद थी कि भारत को पाकिस्तानी आतंक के सामने मजबूर किया जा सकता था . शायद उन्होंने सोचा होगा कि बाद में जब भारत, अमरीका की शरण आना स्वीकार कर लेगा तो आतंकवाद को ख़त्म कर दिया जाएगा. कितनी गलत थी यह सोच . वास्तव में अमरीका के अन्दर भी जो आतंकवादी हमला हुआ, उसके पीछे पाकिस्तान में पैदा हुए आतंक का हाथ था. सोवियत रूस के दौर में तो आज के अमरीका के दुश्मन नंबर एक कहलाने वाले ओसामा बिन लादेन भी अमरीकी पैसे पर चलते थे और अमरीका के ख़ास रिसोर्स हुआ करते थे. करीब २० साल पहले , जब सोवियत रूस टूट गया और बहुत कमज़ोर हो गया तो अमरीका को उसके खिलाफ किसी आतंकवादी संगठन की ज़रूरत नहीं रह गयी और उसने ओसामा बिन लादेन समेत सारे पाकिस्तानी आतंकी ताम-झाम को बाय बाय कह दिया . यहीं अमरीका से गलती हो गयी. अमरीकी नीति निर्धारकों को मालूम होना चाहिए था कि अगर किसी पाप को जन्म दे रहे हो तो उसको आखिर तक दाना-पानी देते रहने में ही भलाई रहती है. अगर उसका खर्चा-पानी बंद कर दिया तो वह अपने पैदा करने वाले पर ही हमला कर देगा. भारत में ऐसी ही एक कथा भस्मासुर की है . जो भी भस्मासुर को जन्म देने की सोच रहा हो उसे पता होना चाहिए कि भस्मासुर अपने पैदा करने वाले को भी भस्म करने की कोशिश करता है . बाद में वही ओसामा बिन लादेन और पाकिस्तानी मूल के आतंकवादियों ने अमरीका की आतंरिक सुरक्षा के परखचे उड़ा दिए. और अब पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में ख़त्म करने पर आमादा हैं .
लेकिन अमरीकी और पाकिस्तानी हुक्मरान अभी तक सच्चाई को समझने से परहेज़ कर रहे हैं .पाकिस्तान में आतंकवाद का सबसे बड़ा सरगना , हाफ़िज़ मुहम्मद सईद है . वह कभी जिया उल हक का धार्मिक सलाहकार हुआ करता था . मुंबई हमलों की साज़िश उसी ने रची थी. लेकिन वह पाकिस्तान में छुट्टा घूम रहा है. दरअसल पाकिस्तान में तथाकथित सिविलियन सरकार में किसी की हिम्मत नहीं है कि उसे पकड़ सके . वह पाकिस्तानी फौज का ख़ास बन्दा है . लेकिन उसे पकड़ना अमरीका के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है . पाकिस्तान में हो रहे रोज़ के आतंकवादी हमलों पर सहानुभूति प्रकट करने के साथ साथ, अगर अमरीकी हुक्मरान यह समझ लें कि आतंकवादी किसी का दोस्त नहीं होता तो बात संभल जायेगी. क्योंकि अगर उनकी समझ में यह आ गया तो वे पाकिस्तानी आतंकवाद को जड़ से ख़त्म करने की योजना पर काम कर सकेगें . सब को मालूम है कि पाकिस्तानी आतंकवाद की मुख्य धारा हाफ़िज़ मुहम्मद सईद और उसके संगठनों , जमात उद दावा और लश्कर-ए-तय्यबा से होकर गुज़रती है. इसलिए अगर उसे ख़त्म कर दिया जाए तो पाकिस्तान में भी आतंकवाद कम हो जाएगा . अमरीका को भी बड़ी राहत मिलेगी और भारत में भी आतंकवादी गतिविधियों पर लगाम लग जायेगी,.हाफ़िज़ सईद को पकड़ पाना पाकिस्तानी सरकार के लिए तो नामुमकिन है लेकिन वहां की फौज़ उसको काबू में कर सकती है . दुनिया जानती है कि पाकिस्तानी फौज में बहुत बड़ी संख्या में आला अफसर ऐसे हैं जो अमरीकी सरकार से पैसा-कौड़ी लेते हैं और उनके सामने खीस निकालते रहते हैं . पूर्व राष्ट्रपति, परवेज़ मुशर्रफ ऐसे ही अमरीकी कारिंदे थे. इन्हीं अफसरों पर दबाव डाल कर अमरीका , हाफ़िज़ सईद को ठीक कर सकता है और आतंकवाद पर काबू कर सकता है. घडियाली आंसू से कुछ नहीं होगा और अमरीकी विदेश नीति हमेशा ही पाकिस्तानी आतंकवाद के दबाव में रहेगी.
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Saturday, July 10, 2010
आर एस एस के बड़े नेताओं के दरवाज़े पर सी बी आई की दस्तक
शेष नारायण सिंह
आर एस एस के नेता लोग घबडाए हुए हैं . अब उन्होंने अपने लोगों को सख्त हिदायत दे दी है कि आतंकवादी गतिविधियों से दूर रहें .यह सख्ती पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कुछ ज़िम्मेदार संघ प्रचारकों से सी बी आई की पूछताछ के बाद अपनाई गयी है. अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय से पिछले दिनों सी बी आई ने कड़ाई से पूछ ताछ की थी. अशोक बेरी आर एस एस के क्षेत्रीय प्रचारक हैं और आधे उत्तर प्रदेश के इंचार्ज हैं . वे आर एस एस की केंदीय कमेटी के भी सदस्य हैं .अशोक वार्ष्णेय उनसे भी ऊंचे पद पर हैं . वे कानपुर में रहते हैं और प्रांत प्रचारक हैं .. उनके ठिकाने पर कुछ अरसा पहले एक भयानक धमाका हुआ था. बाद में पता चला कि उस धमाके में कुछ लोग घायल भी हुये थे. घायल होने वाले लोग बम बना रहे थे. सी बी आई के सूत्र बताते हैं कि उनके पास इन लोगों के आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के पक्के सबूत हैं और हैदराबाद की मक्का मस्जिद , अजमेर और मालेगांव में आतंकवादी धमाके करने में जिस गिरोह का हाथ था, उस से उत्तर प्रदेश के इन दोनों ही प्रचारक के संबंधों की पुष्टि हो चुकी हैं . इसके पहले आर एस एस ने तय किया था कि अगर अपना कोई कार्यकर्ता आतंकवादी काम करते पकड़ा गया तो उस से पल्ला झाड़ लेगें . इसी योजना के तहत अजमेर में २००७ में हुए धमाके के लिए जब देवेन्द्र गुप्ता और लोकेश शर्मा पकडे गए थे तो संघ ने ऐलान कर दिया था कि उन लोगों की आतंकवादी गतिविधियों से आर एस एस को कोई लेना देना नहीं है . वह काम उन्होंने अपनी निजी हैसियत में किया था और नागपुर वालों ने उनके खिलाफ चल रही जांच में पुलिस को सहयोग देने का निर्णय ले लिया था. लेकिन अब वह संभव नहीं है . क्योंकि अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय कोई मामूली कार्यकर्ता नहीं है , वे संगठन के आलाकमान के सदस्य हैं . वे उस कमेटी की बैठकों में शामिल होते हैं जो संगठन की नीति निर्धारित करती है . उनसे पल्ला झाड़ना संभव नहीं है . इसके दो कारण हैं . एक तो यह कि इतने बड़े प्रचारक का कुछ भी निजी नहीं होता , वह संघ कार्य के लिए जीवनदान कर चुका होता है ,वह केवल संघ के लिए काम करता है . दूसरी बात ज्यादा खतरनाक है . वह यह कि अगर इनके साथ आर एस एस की लीडरशिप धोखा करेगी तो कहीं यह लोग बाकी पोल-पट्टी भी न खोल दें . हिन्दू अखबार की संवाददाता से बात करते हुए आर एस एस के एक वरिष्ट नेता ने बताया कि अगर एक दिन के लिए भी आर एस एस आतंकवाद से जुडा हुआ पकड़ लिया गया तो बहुत नुकसान होगा . उसका कहना था कि वह नुकसान महात्मा गाँधी की हत्या में संदिग्ध होने पर जो नुकसान हुआ था, उस से भी ज्यादा होगा. महात्मा गाँधी की ह्त्या वाले मामले में आर एस एस वालों को बेनिफिट ऑफ़ डाउट देकर छोड़ दिया गया था .
आर एस एस का यह डर वास्तविक है . इस संभावित तूफ़ान से बचने के लिए जगह जगह बैठकें हो रही हैं . अब मामला अखबारों में भी छप चुका है .देश के दो आदरणीय अखबार , द हिन्दू और इन्डियन एक्सप्रेस , अपने बहुत ही वरिष्ठ संवाददाताओं की लिखी हुई खबरें छाप चुके हैं .अब बी जे पी और आर एस एस के बड़े नेताओं की बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया है . इस विषय पर बुधवार को बी जे पी अध्यक्ष , नितिन गडकरी के आवास पर एक बैठक हुई. बाद में एक अन्य बैठक आर एस एस के झंडेवालान दफ्तर में हुई जिसमें पार्टी के सबसे बड़े नेता लोग शामिल हुए. अरुण जेटली, राम लाल, राजनाथ सिंह , अनंत कुमार, मदन दास देवी जैसे दिगाज इस मामले में बी जे पी और आर एस एस की रणनीति बनाने के काम में जुट गए हैं . इसके अलावा आर एस एस के बड़े अधिकारियों की एक बैठक पिछले दिनों जोधपुर में भी हुई थी. वहां पर आतंकवाद की वारदातों में शामिल अपने कार्यकर्ताओं से जान छुडाने के लिए जो तरकीब बनायी जा रही है उसकी मामूली सी बानगी मिली. सोचा यह जा रहा है कि एक ऐसा मेकनिज्म तैयार करने की घोषणा की जाए जिसमें यह बताया गया हो कि आगे से आर एस एस ऐसे लोगों की पूरी जांच करके ही उन्हें संघ मेंआने देगा जिनके अन्दर किसी तरह की आतंकवादी गतिविधियों के निशान न हों . . इस योजना का खूब प्रचार किया जाये़या और जब कोई भी अपना बंदा पकड़ा जाएगा तो फ़ौरन कह देगें कि भाई जांच करने में गलती हो गयी . और उस आतंकवादी कनेक्शन वाले कार्यकर्ता को उसके हाल पर छोड़ दिया जाएगा. इस योजना के बारे में अभी बहुत ही शुरुआती चर्चा हुई है . इसको लागू करने में बहुत खतरे हैं . क्योंकि अगर अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय जैसे लोगों को सी बी आई के हवाले करने का फैसला कर लिया गया तो ख़तरा यह है कि वे अपने से ऊपर वालों का नाम भी न बता दें . क्योंकि लोकेश शर्मा और देवेन्द्र गुप्ता तो मामूली कार्यकर्ता थे, चुप बैठ गए और अब उम्र का बड़ा हिस्सा जेलों में काटेगें लेकिन दोनों अशोक शायद इस तरह से बाकी ज़िन्दगी न बिताना चाहें . और यही हिन्दुत्ववादी राजनीति के करता धर्ता नेताओं की दहशत का मूल कारण हैं .
एक दूसरी सोच भी चल रही है . बी जे पी के कई नेताओं ने इन्डियन एक्सप्रेस के संवाददाता को संकेत दिया है कि अभी घबडाने की कोई बात नहीं है क्योंकि इस बात की संभावना कम है कि सी बी आई के लोग आर एस एस से उस तरह का पंगा लेगी जैसा उसने गुजरात में लिया है . आर एस एस की पूरी ताक़त से लोहा लेना न तो कांग्रेस के वश की बात है और न ही सी बी आई के . इस भरोसे का कारण यह है कि आर एस एस के बहुत सारे लोग नौकरशाही में घुसे पड़े हैं. अगर आर एस एस को ज़रुरत पड़ी तो वह गृह मंत्रालय में मौजूद पुराने संघ कार्यकर्ताओं से ऐसी डिस-इन्फार्मेशन लीक करवा देगा, जिससे सारी जांच की हवा निकल जायेगी.अभी पिछले हफ्ते पूरी दुनिया ने देखा है कि इशरत जहां के फर्जी इनकाउंटर के मामले में फंसे गुजरात पुलिस के आला अधिकारियों को बचाने के लिए किस तरह गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने अखबारों में ख़बरों की व्यवस्था की थी . हालांकि हेडली के हवाले से अपनी बात कहने की उनकी कोशिश को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया लेकिन कोशिश तो की ही गयी. इसी तरह से अगर आर एस एस पर हमला करने की कोशिश की गयी तो संघ भावना से ओतप्रोत अफसर अपनी पुरानी संस्था का नुकसान नहीं होने देगें . लेकिन वह तो बाद की बात है . गाँधी हत्या केस में भी आर एस एस के बड़े नेता बेनिफिट ऑफ़ डाउट देकर बरी तो कर दिये गए थे लेकिन कलंक तो बहुत दिनों बाद तक लगा रहा. आर एस एस और बी जे पी के शीर्ष नेतृत्व की मौजूदा डर का यही कारण है.
आर एस एस के नेता लोग घबडाए हुए हैं . अब उन्होंने अपने लोगों को सख्त हिदायत दे दी है कि आतंकवादी गतिविधियों से दूर रहें .यह सख्ती पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कुछ ज़िम्मेदार संघ प्रचारकों से सी बी आई की पूछताछ के बाद अपनाई गयी है. अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय से पिछले दिनों सी बी आई ने कड़ाई से पूछ ताछ की थी. अशोक बेरी आर एस एस के क्षेत्रीय प्रचारक हैं और आधे उत्तर प्रदेश के इंचार्ज हैं . वे आर एस एस की केंदीय कमेटी के भी सदस्य हैं .अशोक वार्ष्णेय उनसे भी ऊंचे पद पर हैं . वे कानपुर में रहते हैं और प्रांत प्रचारक हैं .. उनके ठिकाने पर कुछ अरसा पहले एक भयानक धमाका हुआ था. बाद में पता चला कि उस धमाके में कुछ लोग घायल भी हुये थे. घायल होने वाले लोग बम बना रहे थे. सी बी आई के सूत्र बताते हैं कि उनके पास इन लोगों के आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के पक्के सबूत हैं और हैदराबाद की मक्का मस्जिद , अजमेर और मालेगांव में आतंकवादी धमाके करने में जिस गिरोह का हाथ था, उस से उत्तर प्रदेश के इन दोनों ही प्रचारक के संबंधों की पुष्टि हो चुकी हैं . इसके पहले आर एस एस ने तय किया था कि अगर अपना कोई कार्यकर्ता आतंकवादी काम करते पकड़ा गया तो उस से पल्ला झाड़ लेगें . इसी योजना के तहत अजमेर में २००७ में हुए धमाके के लिए जब देवेन्द्र गुप्ता और लोकेश शर्मा पकडे गए थे तो संघ ने ऐलान कर दिया था कि उन लोगों की आतंकवादी गतिविधियों से आर एस एस को कोई लेना देना नहीं है . वह काम उन्होंने अपनी निजी हैसियत में किया था और नागपुर वालों ने उनके खिलाफ चल रही जांच में पुलिस को सहयोग देने का निर्णय ले लिया था. लेकिन अब वह संभव नहीं है . क्योंकि अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय कोई मामूली कार्यकर्ता नहीं है , वे संगठन के आलाकमान के सदस्य हैं . वे उस कमेटी की बैठकों में शामिल होते हैं जो संगठन की नीति निर्धारित करती है . उनसे पल्ला झाड़ना संभव नहीं है . इसके दो कारण हैं . एक तो यह कि इतने बड़े प्रचारक का कुछ भी निजी नहीं होता , वह संघ कार्य के लिए जीवनदान कर चुका होता है ,वह केवल संघ के लिए काम करता है . दूसरी बात ज्यादा खतरनाक है . वह यह कि अगर इनके साथ आर एस एस की लीडरशिप धोखा करेगी तो कहीं यह लोग बाकी पोल-पट्टी भी न खोल दें . हिन्दू अखबार की संवाददाता से बात करते हुए आर एस एस के एक वरिष्ट नेता ने बताया कि अगर एक दिन के लिए भी आर एस एस आतंकवाद से जुडा हुआ पकड़ लिया गया तो बहुत नुकसान होगा . उसका कहना था कि वह नुकसान महात्मा गाँधी की हत्या में संदिग्ध होने पर जो नुकसान हुआ था, उस से भी ज्यादा होगा. महात्मा गाँधी की ह्त्या वाले मामले में आर एस एस वालों को बेनिफिट ऑफ़ डाउट देकर छोड़ दिया गया था .
आर एस एस का यह डर वास्तविक है . इस संभावित तूफ़ान से बचने के लिए जगह जगह बैठकें हो रही हैं . अब मामला अखबारों में भी छप चुका है .देश के दो आदरणीय अखबार , द हिन्दू और इन्डियन एक्सप्रेस , अपने बहुत ही वरिष्ठ संवाददाताओं की लिखी हुई खबरें छाप चुके हैं .अब बी जे पी और आर एस एस के बड़े नेताओं की बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया है . इस विषय पर बुधवार को बी जे पी अध्यक्ष , नितिन गडकरी के आवास पर एक बैठक हुई. बाद में एक अन्य बैठक आर एस एस के झंडेवालान दफ्तर में हुई जिसमें पार्टी के सबसे बड़े नेता लोग शामिल हुए. अरुण जेटली, राम लाल, राजनाथ सिंह , अनंत कुमार, मदन दास देवी जैसे दिगाज इस मामले में बी जे पी और आर एस एस की रणनीति बनाने के काम में जुट गए हैं . इसके अलावा आर एस एस के बड़े अधिकारियों की एक बैठक पिछले दिनों जोधपुर में भी हुई थी. वहां पर आतंकवाद की वारदातों में शामिल अपने कार्यकर्ताओं से जान छुडाने के लिए जो तरकीब बनायी जा रही है उसकी मामूली सी बानगी मिली. सोचा यह जा रहा है कि एक ऐसा मेकनिज्म तैयार करने की घोषणा की जाए जिसमें यह बताया गया हो कि आगे से आर एस एस ऐसे लोगों की पूरी जांच करके ही उन्हें संघ मेंआने देगा जिनके अन्दर किसी तरह की आतंकवादी गतिविधियों के निशान न हों . . इस योजना का खूब प्रचार किया जाये़या और जब कोई भी अपना बंदा पकड़ा जाएगा तो फ़ौरन कह देगें कि भाई जांच करने में गलती हो गयी . और उस आतंकवादी कनेक्शन वाले कार्यकर्ता को उसके हाल पर छोड़ दिया जाएगा. इस योजना के बारे में अभी बहुत ही शुरुआती चर्चा हुई है . इसको लागू करने में बहुत खतरे हैं . क्योंकि अगर अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय जैसे लोगों को सी बी आई के हवाले करने का फैसला कर लिया गया तो ख़तरा यह है कि वे अपने से ऊपर वालों का नाम भी न बता दें . क्योंकि लोकेश शर्मा और देवेन्द्र गुप्ता तो मामूली कार्यकर्ता थे, चुप बैठ गए और अब उम्र का बड़ा हिस्सा जेलों में काटेगें लेकिन दोनों अशोक शायद इस तरह से बाकी ज़िन्दगी न बिताना चाहें . और यही हिन्दुत्ववादी राजनीति के करता धर्ता नेताओं की दहशत का मूल कारण हैं .
एक दूसरी सोच भी चल रही है . बी जे पी के कई नेताओं ने इन्डियन एक्सप्रेस के संवाददाता को संकेत दिया है कि अभी घबडाने की कोई बात नहीं है क्योंकि इस बात की संभावना कम है कि सी बी आई के लोग आर एस एस से उस तरह का पंगा लेगी जैसा उसने गुजरात में लिया है . आर एस एस की पूरी ताक़त से लोहा लेना न तो कांग्रेस के वश की बात है और न ही सी बी आई के . इस भरोसे का कारण यह है कि आर एस एस के बहुत सारे लोग नौकरशाही में घुसे पड़े हैं. अगर आर एस एस को ज़रुरत पड़ी तो वह गृह मंत्रालय में मौजूद पुराने संघ कार्यकर्ताओं से ऐसी डिस-इन्फार्मेशन लीक करवा देगा, जिससे सारी जांच की हवा निकल जायेगी.अभी पिछले हफ्ते पूरी दुनिया ने देखा है कि इशरत जहां के फर्जी इनकाउंटर के मामले में फंसे गुजरात पुलिस के आला अधिकारियों को बचाने के लिए किस तरह गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने अखबारों में ख़बरों की व्यवस्था की थी . हालांकि हेडली के हवाले से अपनी बात कहने की उनकी कोशिश को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया लेकिन कोशिश तो की ही गयी. इसी तरह से अगर आर एस एस पर हमला करने की कोशिश की गयी तो संघ भावना से ओतप्रोत अफसर अपनी पुरानी संस्था का नुकसान नहीं होने देगें . लेकिन वह तो बाद की बात है . गाँधी हत्या केस में भी आर एस एस के बड़े नेता बेनिफिट ऑफ़ डाउट देकर बरी तो कर दिये गए थे लेकिन कलंक तो बहुत दिनों बाद तक लगा रहा. आर एस एस और बी जे पी के शीर्ष नेतृत्व की मौजूदा डर का यही कारण है.
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कश्मीर में निहत्थे शहरियों पर बरस रही गोलियों को लगाम दो
शेष नारायण सिंह
कश्मीर घाटी एक बार फिर उबाल पर है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से मंगलवार को ४ बच्चों की मौत हो गयी है और करीब ७० घायल हैं . मरने वालों में ९ साल का एक लड़का और एक जवान लडकी भी है . पिछले एक महीने में सी आर पी एफ की गोलियों से चौदह लोगों की मौत हो चुकी है .ताज़ा वारदात में भी सुरक्षा का ज़िम्मा सी आर पी एफ की टुकड़ियों पर था और सरकारी बयानों में उसे बलि का बकरा बनाने की कवायद शुरू हो गयी है . लेकिन अब कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है , उसके लिए पिछले डेढ़ साल से राज कर रहे , मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार हैं .कई हफ़्तों से घाटी में अवाम का विरोध चल रहा है , उसे कुचलने के लिए सरकार ने सी आर पी एफ को ज़िम्मा दिया . तंग गलियों में कायदे से स्थानीय पुलिस को भेजा जाना चाहिए क्योंकि बाहर से आये सी आर पी एफ के जवानों के सामने भाषा और मुकामी मुहल्लों के रास्तों की जानकारी की चुनौती होती है . इसलिए उन्हें परेशानी होती है लेकिन सरकार ने उन्हें लगा दिया और नौजवानों की जानें चली गयीं . राज्य और केंद्र सरकार के नेता केंद्रीय पुलिस बलों को ज़िम्मेदार ठहराने की अपनी आदत के हिसाब से पल्ला झाड़ने के मूड में थे लेकिन सूचना क्रान्ति के चलते पूरी दुनिया को सच्चाई मालूम पड़ गयी और अब नेता लोग बगलें झाँक रहे हैं . राज्य सरकार की बेशर्मी की हद तो यह है कि वे अब अपने लोगों की राजनीतिक मांगों को तबाह करने के लिए फौज की मदद की फ़रियाद कर रहे हैं . ज़ाहिर है केंद्र सरकार गली मुहल्लों से शुरू होने वाले आम आदमी के आन्दोलन को कुचलने के लिए फौज का इस्तेमाल तो नहीं करने देगी. पता चला है कि सेना की कुछ कम्पनियां उपलब्ध कराई जायेगीं जो केवल फ्लैग मार्च के काम में लाई जायेगीं . कश्मीर में हालात रोज़ बिगड़ रहे हैं . अब तक तो वहां तोड़ फोड़ में विदेशी हाथ की थियरी चला दी जाती थी लेकिन अगर ९ साल के बच्चे भी विदेशी हाथ में जा चुके हैं तो बात बहुत ही ज्यादा बिगड़ चुकी है . इस लिए केंद्र सरकार को चाहिए कि जम्मू -कश्मीर के मुख्य मंत्री को गंभीरता से लेना बंद करें और हालात को सामान्य करने केलिए सोच विचार करके काम करें.
कश्मीर में पिछले कई हफ्ते से तनाव है.उम्मीद की जा रही थी कि मामला शांत हो जाएगा लेकिन मंगलवार को हुई मौतों ने माहौल को बहुत बिगाड़ दिया. सोमवार की रात को बटमालू में पुलिस से डर कर भाग रहे एक लडके की एक नाले में गिरकर मौत हो गयी. वह लड़का उमर अब्दुल्ला सरकार के एक मंत्री से नाराज़ था और अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रहा था लेकिन पुलिस ने उसे दौड़ा लिया और जान बचाने के चक्कर में वह नाले में गिर गया और मर गया. जब मंगलवार के सुबह उस लड़के का शव नाले से निकाला गया तो लोगों को बहुत तकलीफ हुई और उन्होंने अपने ग़म और गुस्से का इज़हार करने के लिए जुलूस निकाला .भीड़ को कण्ट्रोल करने के लिए पुलिस ने गोली चलाई और एक लड़का मारा गया . कई घायल भी हो गए . इसके बाद तो एक के बाद एक गलती होती गयी और हालात काबू के बाहर होते गए. शाम को मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला ने बताया कि मामले की जांच की जायेगी . उन्होंने खबर दी कि जो तीन बच्चे मारे गए हैं वे भाग कर अपने घर जा रहे थे और पुलिस ने उन्हें दौड़ा कर मारा . उन्होंने कहा कि अगर वे सड़क पर मारे गए होते तो शक़ हो सकता था कि वे पत्थर फेंक रहे थे लेकिन वे तो अपने घरों में मारे गए. उन्होंने कहा कि वापस श्रीनगर जाकर वे फ़ौरन कार्रवाई करेगें और गलती करने वालों की ज़िम्मेदारी फिक्स करेगें . कहने में यह बात बहुत अच्छी है लेकिन ज़िम्मेदारी फिक्स करने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रुरत नहीं है . जम्मू-कश्मीर की मौजूदा हालात के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार मुख्यमंत्री खुद हैं . डेढ़ साल पहले संपन्न हुए चुनाव में जनता ने जिस तरह से आतंकवादियों की मर्जी को ठोकर मार कर कांग्रेस और नेशनल कांफेरेंस को सत्ता सौंप दी थी , उसे आगे बढाने की ज़रुरत थी लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री ने सब कुछ बिगाड़ कर रख दिया . जम्मू-कश्मीर में कुछ भी होता है तो उमर अब्दुल्ला फ़ौरन राष्ट्र विरोधी ताक़तों को जिम्मेवार बात देते हैं . उनकी डिक्शनरी में राष्ट्र विरोधी ताक़तों का मतलब हुर्रियत से है. वे हुर्रियत के खिलाफ प्वाइंट स्कोर करने से कभी बाज़ नहीं आते. जबकि केंद्र सरकार की नज़र में कश्मीर में जो भी गड़बड़ होती है , उसके लिए लश्कर-ए-तय्यबा ज़िम्मेदार पाया जाता हैं . लेकिन उमर अब्दुल्ला और पी चिदंबरम की बदकिस्मती यह है कि उनकी बात में शायद आंशिक सच्चाई हो सकती है लेकिन उसे पूरा सच मानने की गलती नहीं की जा सकती. पूरा सच यह है कि जम्मू-कश्मीर में २००८ में हुए विधान सभा चुनाव के दौरान जो सकारात्मक रुख था , वह ख़त्म हो गया है. राज्य सरकार की विश्वसनीयता रसातल पंहुच चुकी है . घाटी में सबको मालूम है कि सुरक्षा बलों को शूट ऐट साईट के आदेश दिए जा चुके हैं .लोग यह भी जानते हैं कि जिस तरह से राज्य सरकार की नाकामी को छुपाने के लिए जो भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उनको रौंद डालने का हुक्म दिया जा चुका है .नतीजा यह है कि राज्य के किसी भी हिस्से में लोकतंत्र नाम की चीज़ नहीं है हालांकि वहां एक ऐसी सरकार है जो बाकायदा चुन कर राज कर रही हैं . इसका सीधा कारण यह है कि मौजूदा मुख्य मंत्री के ऊपर घाटी में कोई भी विश्वास नहीं करता . सिविल सोसाइटी के लोग बहुत ही चिंतित हैं . और मांग कर रहे हैं कि केंद्र सरकार इस मामले में अपना रुख साफ़ करे . क्या केंद्र सरकार को नहीं मालूम है कि इतने संवेदनशील इलाके में बहुत ही पेचीदा समस्या का हल करने का तरीका लाठी गोली कभी नहीं हो सकती है . सच्चाई यह है कि अगर फ़ौरन से पहले इस काम को न किया गया तो बात रोज़ ही बिगड़ती जायेगी. कश्मीर में विदेशी हाथ और राष्ट्र विरोधी ताक़तों का राग अलाप रहे नेताओं को यह साफ़ बताना होगा कि ९ साल का बच्चा किन कारणों से राष्ट्र द्रोही बनता है . गौर करने की बात यह है कि यह वही लोग हैं जिन्होंने अभी डेढ़ साल पहले कश्मीर और केंद्र के नेताओं का विश्वास किया था और पाकिस्तान के इशारे पर चल रहे अलगाव वादी लोगों के आन्दोलन को फटकार दिया था . आज उन्हीं लोगों की जायज चिंताओं को यह सरकार बन्दूक की भाषा में समझाने की कोशिश कर रही है.
सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि देश की राजनीति के शिखर पर बैठे लोगों की तरफ से भी किसी तरह की दिलाशा नहीं दी जा रही है . केंद्रीय गृह मंत्री खुले आप इस तरह की बात कर रहे हैं जिस से कश्मीरी अवाम अलग थलग पड़ता जा रहा है . जिनके खिलाफ गोलियां चलाई जा रही हैं वे निहत्थे नागरिक हैं . सवाल यह है कि क्या भारत की जनता की जायज नाराज़गी दूर करने के लिए और कोई तरीका नहीं है.कश्मीर में चल रहे सरकारी वहशीपन का कोई जवाब नहीं है. इस वक़्त ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर घाटी में मुसीबत झेल रहे लोगों के साथ सहानुभूति जताई जाए और उनके ऊपर चल रही गोलियों पर लगाम लगाई जाए. अगर ऐसा न हुआ तो हमारे मौजूदा हुक्मरान को आने वाली नस्लें कभी नहीं माफ़ करेगीं . .
कश्मीर घाटी एक बार फिर उबाल पर है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से मंगलवार को ४ बच्चों की मौत हो गयी है और करीब ७० घायल हैं . मरने वालों में ९ साल का एक लड़का और एक जवान लडकी भी है . पिछले एक महीने में सी आर पी एफ की गोलियों से चौदह लोगों की मौत हो चुकी है .ताज़ा वारदात में भी सुरक्षा का ज़िम्मा सी आर पी एफ की टुकड़ियों पर था और सरकारी बयानों में उसे बलि का बकरा बनाने की कवायद शुरू हो गयी है . लेकिन अब कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है , उसके लिए पिछले डेढ़ साल से राज कर रहे , मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार हैं .कई हफ़्तों से घाटी में अवाम का विरोध चल रहा है , उसे कुचलने के लिए सरकार ने सी आर पी एफ को ज़िम्मा दिया . तंग गलियों में कायदे से स्थानीय पुलिस को भेजा जाना चाहिए क्योंकि बाहर से आये सी आर पी एफ के जवानों के सामने भाषा और मुकामी मुहल्लों के रास्तों की जानकारी की चुनौती होती है . इसलिए उन्हें परेशानी होती है लेकिन सरकार ने उन्हें लगा दिया और नौजवानों की जानें चली गयीं . राज्य और केंद्र सरकार के नेता केंद्रीय पुलिस बलों को ज़िम्मेदार ठहराने की अपनी आदत के हिसाब से पल्ला झाड़ने के मूड में थे लेकिन सूचना क्रान्ति के चलते पूरी दुनिया को सच्चाई मालूम पड़ गयी और अब नेता लोग बगलें झाँक रहे हैं . राज्य सरकार की बेशर्मी की हद तो यह है कि वे अब अपने लोगों की राजनीतिक मांगों को तबाह करने के लिए फौज की मदद की फ़रियाद कर रहे हैं . ज़ाहिर है केंद्र सरकार गली मुहल्लों से शुरू होने वाले आम आदमी के आन्दोलन को कुचलने के लिए फौज का इस्तेमाल तो नहीं करने देगी. पता चला है कि सेना की कुछ कम्पनियां उपलब्ध कराई जायेगीं जो केवल फ्लैग मार्च के काम में लाई जायेगीं . कश्मीर में हालात रोज़ बिगड़ रहे हैं . अब तक तो वहां तोड़ फोड़ में विदेशी हाथ की थियरी चला दी जाती थी लेकिन अगर ९ साल के बच्चे भी विदेशी हाथ में जा चुके हैं तो बात बहुत ही ज्यादा बिगड़ चुकी है . इस लिए केंद्र सरकार को चाहिए कि जम्मू -कश्मीर के मुख्य मंत्री को गंभीरता से लेना बंद करें और हालात को सामान्य करने केलिए सोच विचार करके काम करें.
कश्मीर में पिछले कई हफ्ते से तनाव है.उम्मीद की जा रही थी कि मामला शांत हो जाएगा लेकिन मंगलवार को हुई मौतों ने माहौल को बहुत बिगाड़ दिया. सोमवार की रात को बटमालू में पुलिस से डर कर भाग रहे एक लडके की एक नाले में गिरकर मौत हो गयी. वह लड़का उमर अब्दुल्ला सरकार के एक मंत्री से नाराज़ था और अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रहा था लेकिन पुलिस ने उसे दौड़ा लिया और जान बचाने के चक्कर में वह नाले में गिर गया और मर गया. जब मंगलवार के सुबह उस लड़के का शव नाले से निकाला गया तो लोगों को बहुत तकलीफ हुई और उन्होंने अपने ग़म और गुस्से का इज़हार करने के लिए जुलूस निकाला .भीड़ को कण्ट्रोल करने के लिए पुलिस ने गोली चलाई और एक लड़का मारा गया . कई घायल भी हो गए . इसके बाद तो एक के बाद एक गलती होती गयी और हालात काबू के बाहर होते गए. शाम को मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला ने बताया कि मामले की जांच की जायेगी . उन्होंने खबर दी कि जो तीन बच्चे मारे गए हैं वे भाग कर अपने घर जा रहे थे और पुलिस ने उन्हें दौड़ा कर मारा . उन्होंने कहा कि अगर वे सड़क पर मारे गए होते तो शक़ हो सकता था कि वे पत्थर फेंक रहे थे लेकिन वे तो अपने घरों में मारे गए. उन्होंने कहा कि वापस श्रीनगर जाकर वे फ़ौरन कार्रवाई करेगें और गलती करने वालों की ज़िम्मेदारी फिक्स करेगें . कहने में यह बात बहुत अच्छी है लेकिन ज़िम्मेदारी फिक्स करने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रुरत नहीं है . जम्मू-कश्मीर की मौजूदा हालात के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार मुख्यमंत्री खुद हैं . डेढ़ साल पहले संपन्न हुए चुनाव में जनता ने जिस तरह से आतंकवादियों की मर्जी को ठोकर मार कर कांग्रेस और नेशनल कांफेरेंस को सत्ता सौंप दी थी , उसे आगे बढाने की ज़रुरत थी लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री ने सब कुछ बिगाड़ कर रख दिया . जम्मू-कश्मीर में कुछ भी होता है तो उमर अब्दुल्ला फ़ौरन राष्ट्र विरोधी ताक़तों को जिम्मेवार बात देते हैं . उनकी डिक्शनरी में राष्ट्र विरोधी ताक़तों का मतलब हुर्रियत से है. वे हुर्रियत के खिलाफ प्वाइंट स्कोर करने से कभी बाज़ नहीं आते. जबकि केंद्र सरकार की नज़र में कश्मीर में जो भी गड़बड़ होती है , उसके लिए लश्कर-ए-तय्यबा ज़िम्मेदार पाया जाता हैं . लेकिन उमर अब्दुल्ला और पी चिदंबरम की बदकिस्मती यह है कि उनकी बात में शायद आंशिक सच्चाई हो सकती है लेकिन उसे पूरा सच मानने की गलती नहीं की जा सकती. पूरा सच यह है कि जम्मू-कश्मीर में २००८ में हुए विधान सभा चुनाव के दौरान जो सकारात्मक रुख था , वह ख़त्म हो गया है. राज्य सरकार की विश्वसनीयता रसातल पंहुच चुकी है . घाटी में सबको मालूम है कि सुरक्षा बलों को शूट ऐट साईट के आदेश दिए जा चुके हैं .लोग यह भी जानते हैं कि जिस तरह से राज्य सरकार की नाकामी को छुपाने के लिए जो भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उनको रौंद डालने का हुक्म दिया जा चुका है .नतीजा यह है कि राज्य के किसी भी हिस्से में लोकतंत्र नाम की चीज़ नहीं है हालांकि वहां एक ऐसी सरकार है जो बाकायदा चुन कर राज कर रही हैं . इसका सीधा कारण यह है कि मौजूदा मुख्य मंत्री के ऊपर घाटी में कोई भी विश्वास नहीं करता . सिविल सोसाइटी के लोग बहुत ही चिंतित हैं . और मांग कर रहे हैं कि केंद्र सरकार इस मामले में अपना रुख साफ़ करे . क्या केंद्र सरकार को नहीं मालूम है कि इतने संवेदनशील इलाके में बहुत ही पेचीदा समस्या का हल करने का तरीका लाठी गोली कभी नहीं हो सकती है . सच्चाई यह है कि अगर फ़ौरन से पहले इस काम को न किया गया तो बात रोज़ ही बिगड़ती जायेगी. कश्मीर में विदेशी हाथ और राष्ट्र विरोधी ताक़तों का राग अलाप रहे नेताओं को यह साफ़ बताना होगा कि ९ साल का बच्चा किन कारणों से राष्ट्र द्रोही बनता है . गौर करने की बात यह है कि यह वही लोग हैं जिन्होंने अभी डेढ़ साल पहले कश्मीर और केंद्र के नेताओं का विश्वास किया था और पाकिस्तान के इशारे पर चल रहे अलगाव वादी लोगों के आन्दोलन को फटकार दिया था . आज उन्हीं लोगों की जायज चिंताओं को यह सरकार बन्दूक की भाषा में समझाने की कोशिश कर रही है.
सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि देश की राजनीति के शिखर पर बैठे लोगों की तरफ से भी किसी तरह की दिलाशा नहीं दी जा रही है . केंद्रीय गृह मंत्री खुले आप इस तरह की बात कर रहे हैं जिस से कश्मीरी अवाम अलग थलग पड़ता जा रहा है . जिनके खिलाफ गोलियां चलाई जा रही हैं वे निहत्थे नागरिक हैं . सवाल यह है कि क्या भारत की जनता की जायज नाराज़गी दूर करने के लिए और कोई तरीका नहीं है.कश्मीर में चल रहे सरकारी वहशीपन का कोई जवाब नहीं है. इस वक़्त ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर घाटी में मुसीबत झेल रहे लोगों के साथ सहानुभूति जताई जाए और उनके ऊपर चल रही गोलियों पर लगाम लगाई जाए. अगर ऐसा न हुआ तो हमारे मौजूदा हुक्मरान को आने वाली नस्लें कभी नहीं माफ़ करेगीं . .
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Friday, July 9, 2010
उदयन शर्मा की याद में लगेगा ११ जुलाई को मेला
शेष नारायण सिंह
११ जुलाई दिन रविवार को नयी दिल्ली में समकालीन पत्रकारिता से जुड़े मुद्दों पर एक अहम सेमिनार का आयोजन किया गया है . दिल्ली में पिछले कई वर्षों से ११ जुलाई के दिन यह सेमिनार आयोजित किया जा रहा है . यह अवसर उदयन शर्मा के जन्मदिन का है और उनके साथी इकठ्ठा होकर उन्हें याद करते हैं . उदयन का देहांत कुछ साल पहले हो गया था लेकिन पुण्यतिथि के दिन कोई कार्यक्रम नहीं होता क्योंकि उदयन शर्मा जैसे जिंदादिल इंसान की शोकसभा तो आयोजित ही नहीं की जा सकती. उदयन शर्मा सत्तर के शुरुआती वर्षों में पत्रकारिता में आये और ३० साल तक सक्रिय रहे. कुशाग्रबुद्धि उदयन शर्मा को उनके दोस्त पंडित जी कहते थे. आगरा के बहुत बड़े पत्रकार स्व श्रीराम शर्मा के बेटे उदयन मूल रूप से समाजवादी थे. आगरा में छात्र जीवन में समाजवादी राजनीति में सक्रिय भी रहे लेकिन बेनेट कोलमैन एंड कंपनी की ट्रेनी जर्नलिस्ट स्कीम में दरखास्त भेजी और चुन लिए गए.यह परीक्षा उन दिनों पत्रकारिता में प्रवेश के लिए सबसे सम्मानजनक परीक्षा हुआ करती थी. लिखित परीक्षा पास करने के बाद जब साक्षात्कार के लिए बम्बई गए तो वहां बहुत सारे उम्मीदवार आये थे . उसी दिन कलकत्ता से आये दो और लड़कों का इंटरव्यू भी था. वहीं परिचय हुआ और तीनों ही चुन लिए गए . एस पी और उदयन को डॉ धर्मवीर भारती के साथ धर्मयुग में भेजा गया जब कि अकबर को अंग्रेज़ी में भेजा गया . उनकी यह दोस्ती ज़िंदगी भर कायम रही. नौजवानों की इस तिकड़ी ने भारतीय पत्रकारिता में नए आयाम जोड़े. बम्बई में जिन दो अन्य नौजवानों से उदयन की मुलाक़ात हुई थी ,उनके नाम हैं एम जे अकबर और सुरेन्द्र प्रताप सिंह .तीनों मित्र किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. तीनों ने ही बुलंदियां हासिल कीं . एस पी और उदयन अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के आज के बहुत सारे बड़े नाम कभी न कभी इन दोनों के साथ काम कर चुके हैं .
उदयन शर्मा बेजोड़ आदमी थे. रिस्क लेना उनकी फितरत थी . शायद इसीलिए वे ऐन इमरजेंसी में धर्मयुग की अच्छी नौकरी छोड़कर दिल्ली चले आये. प्रभाष जोशी के साथ मिलकर एक अखबार निकाला . सेंसर का ज़माना था . जब पेज बनाकर सेंसर में पास करवाने भेजते तो सारी राजनीतिक खबरें काट दी जातीं, केवल खेलकूद की खबरें बचतीं . गुस्सा आता लेकिन दोनों ही जिद्दी थे. जमे रहे. बाद में जब एस पी,आनंद बाज़ार ग्रुप की पत्रिका 'रविवार' निकालने कलकत्ता गए तो उदयन भी उसी में शामिल हो गए. उसके बाद तो हिन्दी पत्रकारिता में जमी जमाई गंभीर पत्रिका , दिनमान की विदाई का राग शुरू हो गया. कहीं कोई टिक ही नहीं पाया. बाद मेंजब एस पी नवभारत टाइम्स में चले गए तो उदयन शर्मा सम्पादक हुए और रविवार की वह हैसियत बनी जो किसी भी प्रकाशन का सपना हो सकता है . . खतरों से खेलने के शौक़ीन उदयन ने रविवार की संपादकी तब छोडी जब वह टाप पर था. हिन्दी का सन्डे ऑब्ज़र्वर निकाला और जब भारतीय राजनीति में केंद्र सरकार के गठन में गठबंधन युग का प्रारम्भ हो रहा था , उदयन शर्मा दिल्ली के सत्ता के गलियारोंमें बहुत बड़ा नाम थे. देश का कोई भी बड़ा नेता ऐसा नहीं था जो उन्हें न जानता हो लेकिन उन्होंने राजनीतिक संबंधों का प्रयोग हमेशा ख़बरों के लिए किया. उस दौर में जो लोग उनके आगे पीछे घूमा करते थे , उनमें से कई बाद में करोडपती पत्रकार बने . लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के इस फकीर की जब मृत्यु हुई तो उनके खाते में कुछ हज़ार रूपये थे और उस से भी ज्यादा उनके क्रेडिट कार्ड पर बकाया था. लेकिन उनके परिवार पर कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि दोनों बच्चे बहुत ही अच्छी शिक्षा पा चुके थे और काम कर रहे थे . और उनकी पत्नी ने बच्चों को माता पिता की कमी खलने नहीं दी.
उदयन शर्मा समाजवादी सोच के इंसान थे और वह उनकी पत्रकारिता में साफ़ नज़र आता था. वे हमेशा से गंगा- जमुनी तहजीब को भारत की थाती मानते रहे. साम्प्रदायिक ताक़तों का उन्होंने ऐलानिया विरोध किया और उनकी राजनीति की खामियों को हमेशा ही उजागर करते रहे. जब आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन के लिए इस्तेमाल करने का फैसल किया तो पंडित जी की पत्रकारिता की बुलंदी का युग था . उन्होंने हिन्दुत्ववादी ताक़तों को हर मोड़ पर टोका और बताया कि यह पब्लिक है सब जानती है . जिस दिन अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ किया गया , पंडित जी किसी अखबार के मुलाजिम नहीं थे . उनका कालम बहुत सारे हिन्दी अखबारों में छपता था . ६ दिसंबर १९९२ के बाद कुछ दिन तक ऐसा माहौल बन गया था कि लगता था कि देश एक बार फिर टूट जाएगा .. उन दिनों मेरी भी नौकरी छूटी हुई थी . मैं उनके साथ ही दिन भर रहता था. मैंने देखा है कि पंडित जी अनिष्ट की आशंका से उद्विग्न हो उठते थे . एक दिन एकाएक बोल पड़े , मदर टेरेसा को गांधी समाधि पर बुलाते हैं . बस शुरू हो गयी कोशिश और राजघाट पर उन दिन हर वह आदमी आया जो साम्प्रदायिक ताक़तों के खतरे से डरा हुआ था. दिसंबर की धुप में दिन भर महात्मा गाँधी की समाधि के आस पास लोग आते रहे , जाते रहे . रामधुन बजती रही . देश का बड़े से बड़े इंसान वहां आया क्योंकि उदयन शर्मा ने फोन कर दिया था . जब शाम को लौटे तो बहुत ही आश्वस्त थे . और साम्प्रदायिक ताक़तों से लड़ने की तैयारी शुरू हो चुकी थी. उदयन शर्मा ने बार बार कहा था कि उस दौर में साम्प्रदायिकता फैलाने वालों में आर एस एस तो था ही , शहाबुद्दीन जैसे मुसलमानों ने भी गैर ज़िम्मेदार बयान देकर माहौल को ज़हरीला बनाया था .एक साथ हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता से लड़ने का उनका फन लाजवाब था. अगर किसी मुद्दे पर कोई शक़ होता तो जानकार से पूछ लेने में उदयन ने कभी संकोच नहीं किया . मैंने उनके घनिष्ठ मित्र और सहयोगी कुरबान अली से उनको बहस करते , झगड़ते और आखिर में कुरबान की बात मान लेते देखा है . एक बार उन्होंने अपने पहले बयान को गलत मान लिया तो उसे भूल जाते थे . नयी बात को पूरी शिद्दत से आगे बढाते थे.
उदयन शर्मा ने जितने नए लोगों को प्रोत्साहन दिया है , शायद ही किसी और ने दिया हो .लेकिन उन्होंने कभी किसी पर एहसान नहीं जताया. और अगर किसी ने उनकी मामूली भी मदद कर दी तो उसको हमेशा याद रखते थे. आज नहीं हैं लेकिन उनके यादों का ज़खीरा उनके साथियों को बहुत दिन तक ताक़त देता रहेगा
११ जुलाई दिन रविवार को नयी दिल्ली में समकालीन पत्रकारिता से जुड़े मुद्दों पर एक अहम सेमिनार का आयोजन किया गया है . दिल्ली में पिछले कई वर्षों से ११ जुलाई के दिन यह सेमिनार आयोजित किया जा रहा है . यह अवसर उदयन शर्मा के जन्मदिन का है और उनके साथी इकठ्ठा होकर उन्हें याद करते हैं . उदयन का देहांत कुछ साल पहले हो गया था लेकिन पुण्यतिथि के दिन कोई कार्यक्रम नहीं होता क्योंकि उदयन शर्मा जैसे जिंदादिल इंसान की शोकसभा तो आयोजित ही नहीं की जा सकती. उदयन शर्मा सत्तर के शुरुआती वर्षों में पत्रकारिता में आये और ३० साल तक सक्रिय रहे. कुशाग्रबुद्धि उदयन शर्मा को उनके दोस्त पंडित जी कहते थे. आगरा के बहुत बड़े पत्रकार स्व श्रीराम शर्मा के बेटे उदयन मूल रूप से समाजवादी थे. आगरा में छात्र जीवन में समाजवादी राजनीति में सक्रिय भी रहे लेकिन बेनेट कोलमैन एंड कंपनी की ट्रेनी जर्नलिस्ट स्कीम में दरखास्त भेजी और चुन लिए गए.यह परीक्षा उन दिनों पत्रकारिता में प्रवेश के लिए सबसे सम्मानजनक परीक्षा हुआ करती थी. लिखित परीक्षा पास करने के बाद जब साक्षात्कार के लिए बम्बई गए तो वहां बहुत सारे उम्मीदवार आये थे . उसी दिन कलकत्ता से आये दो और लड़कों का इंटरव्यू भी था. वहीं परिचय हुआ और तीनों ही चुन लिए गए . एस पी और उदयन को डॉ धर्मवीर भारती के साथ धर्मयुग में भेजा गया जब कि अकबर को अंग्रेज़ी में भेजा गया . उनकी यह दोस्ती ज़िंदगी भर कायम रही. नौजवानों की इस तिकड़ी ने भारतीय पत्रकारिता में नए आयाम जोड़े. बम्बई में जिन दो अन्य नौजवानों से उदयन की मुलाक़ात हुई थी ,उनके नाम हैं एम जे अकबर और सुरेन्द्र प्रताप सिंह .तीनों मित्र किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. तीनों ने ही बुलंदियां हासिल कीं . एस पी और उदयन अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के आज के बहुत सारे बड़े नाम कभी न कभी इन दोनों के साथ काम कर चुके हैं .
उदयन शर्मा बेजोड़ आदमी थे. रिस्क लेना उनकी फितरत थी . शायद इसीलिए वे ऐन इमरजेंसी में धर्मयुग की अच्छी नौकरी छोड़कर दिल्ली चले आये. प्रभाष जोशी के साथ मिलकर एक अखबार निकाला . सेंसर का ज़माना था . जब पेज बनाकर सेंसर में पास करवाने भेजते तो सारी राजनीतिक खबरें काट दी जातीं, केवल खेलकूद की खबरें बचतीं . गुस्सा आता लेकिन दोनों ही जिद्दी थे. जमे रहे. बाद में जब एस पी,आनंद बाज़ार ग्रुप की पत्रिका 'रविवार' निकालने कलकत्ता गए तो उदयन भी उसी में शामिल हो गए. उसके बाद तो हिन्दी पत्रकारिता में जमी जमाई गंभीर पत्रिका , दिनमान की विदाई का राग शुरू हो गया. कहीं कोई टिक ही नहीं पाया. बाद मेंजब एस पी नवभारत टाइम्स में चले गए तो उदयन शर्मा सम्पादक हुए और रविवार की वह हैसियत बनी जो किसी भी प्रकाशन का सपना हो सकता है . . खतरों से खेलने के शौक़ीन उदयन ने रविवार की संपादकी तब छोडी जब वह टाप पर था. हिन्दी का सन्डे ऑब्ज़र्वर निकाला और जब भारतीय राजनीति में केंद्र सरकार के गठन में गठबंधन युग का प्रारम्भ हो रहा था , उदयन शर्मा दिल्ली के सत्ता के गलियारोंमें बहुत बड़ा नाम थे. देश का कोई भी बड़ा नेता ऐसा नहीं था जो उन्हें न जानता हो लेकिन उन्होंने राजनीतिक संबंधों का प्रयोग हमेशा ख़बरों के लिए किया. उस दौर में जो लोग उनके आगे पीछे घूमा करते थे , उनमें से कई बाद में करोडपती पत्रकार बने . लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के इस फकीर की जब मृत्यु हुई तो उनके खाते में कुछ हज़ार रूपये थे और उस से भी ज्यादा उनके क्रेडिट कार्ड पर बकाया था. लेकिन उनके परिवार पर कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि दोनों बच्चे बहुत ही अच्छी शिक्षा पा चुके थे और काम कर रहे थे . और उनकी पत्नी ने बच्चों को माता पिता की कमी खलने नहीं दी.
उदयन शर्मा समाजवादी सोच के इंसान थे और वह उनकी पत्रकारिता में साफ़ नज़र आता था. वे हमेशा से गंगा- जमुनी तहजीब को भारत की थाती मानते रहे. साम्प्रदायिक ताक़तों का उन्होंने ऐलानिया विरोध किया और उनकी राजनीति की खामियों को हमेशा ही उजागर करते रहे. जब आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन के लिए इस्तेमाल करने का फैसल किया तो पंडित जी की पत्रकारिता की बुलंदी का युग था . उन्होंने हिन्दुत्ववादी ताक़तों को हर मोड़ पर टोका और बताया कि यह पब्लिक है सब जानती है . जिस दिन अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ किया गया , पंडित जी किसी अखबार के मुलाजिम नहीं थे . उनका कालम बहुत सारे हिन्दी अखबारों में छपता था . ६ दिसंबर १९९२ के बाद कुछ दिन तक ऐसा माहौल बन गया था कि लगता था कि देश एक बार फिर टूट जाएगा .. उन दिनों मेरी भी नौकरी छूटी हुई थी . मैं उनके साथ ही दिन भर रहता था. मैंने देखा है कि पंडित जी अनिष्ट की आशंका से उद्विग्न हो उठते थे . एक दिन एकाएक बोल पड़े , मदर टेरेसा को गांधी समाधि पर बुलाते हैं . बस शुरू हो गयी कोशिश और राजघाट पर उन दिन हर वह आदमी आया जो साम्प्रदायिक ताक़तों के खतरे से डरा हुआ था. दिसंबर की धुप में दिन भर महात्मा गाँधी की समाधि के आस पास लोग आते रहे , जाते रहे . रामधुन बजती रही . देश का बड़े से बड़े इंसान वहां आया क्योंकि उदयन शर्मा ने फोन कर दिया था . जब शाम को लौटे तो बहुत ही आश्वस्त थे . और साम्प्रदायिक ताक़तों से लड़ने की तैयारी शुरू हो चुकी थी. उदयन शर्मा ने बार बार कहा था कि उस दौर में साम्प्रदायिकता फैलाने वालों में आर एस एस तो था ही , शहाबुद्दीन जैसे मुसलमानों ने भी गैर ज़िम्मेदार बयान देकर माहौल को ज़हरीला बनाया था .एक साथ हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता से लड़ने का उनका फन लाजवाब था. अगर किसी मुद्दे पर कोई शक़ होता तो जानकार से पूछ लेने में उदयन ने कभी संकोच नहीं किया . मैंने उनके घनिष्ठ मित्र और सहयोगी कुरबान अली से उनको बहस करते , झगड़ते और आखिर में कुरबान की बात मान लेते देखा है . एक बार उन्होंने अपने पहले बयान को गलत मान लिया तो उसे भूल जाते थे . नयी बात को पूरी शिद्दत से आगे बढाते थे.
उदयन शर्मा ने जितने नए लोगों को प्रोत्साहन दिया है , शायद ही किसी और ने दिया हो .लेकिन उन्होंने कभी किसी पर एहसान नहीं जताया. और अगर किसी ने उनकी मामूली भी मदद कर दी तो उसको हमेशा याद रखते थे. आज नहीं हैं लेकिन उनके यादों का ज़खीरा उनके साथियों को बहुत दिन तक ताक़त देता रहेगा
Thursday, July 8, 2010
क्या कांगेस १९७७ के रास्ते पर चल पड़ी है ?
शेष नारायण सिंह
इंडिया गेट के आस पास बनी सत्ता की कोठियों में आजकल एक बात बहुत ही जोर शोर से चर्चा के घेरे में आ गयी है . जिन नेताओं से भी मुलाक़ात हुई सबको लगता है कि देश में कांग्रेस के विरोध का माहौल बन रहा है . १९७७ वाला माहौल साफ़ नज़र आने लगा है . १९७७ के पहले भी बहुत ही मामूली मुद्दों पर गुजरात और बिहार में छात्रों ने आन्दोलन शुरू किया था जो बाद में इतना बड़ा हो गया कि हर वह शख्स जो कांग्रेस से किसी तरह से सम्बंधित था, सत्ता के बाहर फेंक दिया गया. सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जनता लामबंद होना शुरू हो गयी है और अगर सरकार अपने मूल दायित्व का निर्वाह ज़िम्मेदारी से नहीं करती ,तो भारत बंद के नाम पर शुरू हुआ आन्दोलन बहुत बड़े जन आन्दोलन की शक्ल अख्तियार कर लेगा.
पांच जुलाई के भारत बंद के बाद एक बार फिर साबित हो गया है कि अगर सरकारें ठीक से काम नहीं करेगीं तो जनता उनको बर्खास्त करने में संकोच नहीं करेगी. पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में की गयी मनमानी वृद्धि के बाद जनता ने तय कर लिया कि इस सरकार को सबक सिखाना ज़रूरी है . सोमवार को आयोजित बंद की सफलता का सेहरा बी जे पी वाले अपने सिर बाँधने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वे भी जानते हैं और पब्लिक भी जानती है कि जिस पूंजीपति को लाभ पंहुचाने के लिए केंद्र की मौजूदा सरकार ने पेट्रोल की कीमतें बढ़ाई हैं , उसको लाभ पंहुचाने के लिए बी जे पी ने भी क्या क्या नहीं किया. संचार मंत्री ए राजा के स्पेक्ट्रम भ्रष्टाचार की वजह से भी मौजूदा सरकार मुसीबत में है लेकिन बी जे पी को उसकी आलोचना करने का अधिकार नहीं है क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के संचार मंत्री ने भी उस वक़्त की सरकारी कंपनी , विदेश संचार निगम लिमिटेड को जिस दाम पर बेच दिया था, उस से कई गुना ज़्यादा की तो दिल्ली में उसकी ग्रेटर कैलाश वाली ज़मीन है . मुंबई में शेयर मार्केट के पास जो विदेश संचार निगम की इमारत है वह भी १२ सौ करोड़ रूपये में नहीं खरीदी जा सकती थी जबकि एन डी ए सरकार ने पूरी कंपनी १२ सौ करोड़ में बेच दी थी . इसलिए बंद की सफलता का सेहरा , बी जे पी के सिर पर तो बिलकुल फिट नहीं बैठता. लेकिन मंहगाई के मामले पर केंद्र सरकार के अलगर्ज़ रवैय्ये से परेशान लोगों ने राजनीतिक बिरादरी को समझा दिया कि कृपया घूसखोरी और बेईमानी की बुनियादी सोच के साथ हुकूमत करने से बाज़ आयें वरना जनता नौकर बदल देगी. केंद्र सरकार के गैर ज़िम्मेदार रुख के खिलाफ जनता का यह मूड १९७१ के बाद देखा गया था जब गरीबी हटाओ और बंगलादेश की स्थापना का विरोध कर रही पाकिस्तानी सेना को हराने वाली इंदिरा गाँधी ने मनमानी शुरूकर दी थी . विपक्ष भी उन दिनों आज जैसा नहीं था, विपक्ष में बहुत विद्वान् नेता हुआ करते लेकिन इंदिरा गाँधी ने किसी की परवाह नहीं की . अपने चापलूस टाइप लोगों को सत्ता में शामिल किया . ऐसे लोगों की सबसे बड़ी योग्यता यह थी कि वे इंदिरा जी की मनमानी को बिना किसी सवाल जवाब के समर्थन देते थे. उन्होंने अपने मंद बुद्धि बेटे को भी इसी दौर में अपना उत्तराधिकारी बना दिया और बंसी लाल टाइप लोगों ने उनके बेटे ,संजय गाँधी की जय जय कार करके उसे नेता बनाने की कोशिश की . जब १९७४ में इंदिरा गाँधी की सरकार महंगाई, कुशासन और भ्रष्टाचार के दल दल में डूबने लगी तो इंदिरा जी ने उन्हीं दरबारी मंत्रियों और नेताओं की अधकचरी सलाह पर १९७५ में इमरजेंसी लागू कर दी. लेकिन जनता को दबा नहीं सकीं क्योंकि जनता का मन तो बहती नदी की धार जैसा होता है .जब एक बार धारा बह निकलती है तो वह रुकती नहीं . देश ने इमरजेंसी की परवाह नहीं किया और जब इस मुगालते में कि इंदिरा जी बहुत ही लोकप्रिय हैं, चुनाव की घोषणा कर दी गयी . नतीजा यह हुआ कि वे खुद चुनाव हार गयीं और सरकार गंवा बैठीं. इसलिए लोकतंत्र में मनमानी का कोई स्थान नहीं होता. सरकारी पक्ष के नेताओं को यह भी समझ लेना चाहिए कि विपक्ष में बिखराव को अपनी मजबूती न मानें. आज जो पार्टियां सरकार में हैं , वे तो खैर सत्ता का सुख भोग रही हैं ,इसीलिए वे मतभेदों के बावजूद कांग्रेस की तरफ हैं लेकिन विपक्ष की कोई भी पार्टी सबसे बड़े विपक्षी दल को अपना अगुवा मानने को तैयार नहीं है . उनके एन डी ए में शामिल शरद यादव की पार्टी भी पूरी तरह से उनके साथ नहीं है. मुलायम सिंह यादव,लालू प्रसाद , प्रकाश करात वगैरह की पार्टियां भी बी जे पी से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहतीं. लेकिन एक ही दिन बंद करवाने की बात पर सहमत थीं . यह अलग बात है कि सब ने अपने को बी जे पी से दूर दिखाने की कोशिश की और सफल भी रहीं लेकिन यह बात भी सच है कि सभी पार्टियों का विरोध कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के खिलाफ था .ऐसा ही माहौल १९७७ में था . इंदिरा गाँधी ने जल्दी जल्दी में इमरजेंसी ख़त्म करके अपने और अपने बेटे के तानाशाही राज पर जनता की मंजूरी की मुहर लगवाने के चक्कर में चुनाव की घोषणा की थी . उनको उम्मीद थी कि जेलों में बंद बड़े नेताओं की पार्टियां जब तक संभल पाएंगी तब तक तो चुनाव पार हो चुका होगा . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जनता के दबाव में सारे विपक्ष को जनता पार्टी के नाम से चुनाव लड़ना पडा . चुनाव के वक़्त जनता पार्टी नाम की कोई पार्टी ही नहीं थी. उसका गठन तो बाद में हुआ लेकिन इंदिरा गाँधी की मनमाने एके खिलाफ जनता वोट दे चुकी थी . इसलिए कांग्रेस को अपने इतिहास से सबक लेना चाहिए ,क्योंकि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते उन्हें दुनिया भुला देती है .
इस पृष्ठभूमि में पांच जुलाई के बंद को देखने की ज़रुरत है . बंद को किसी भी पार्टी की सफलता मानने की ज़रूरत नहीं है . वह वास्तव में जनता की आवाज़ थी , जनता ही नेता थी और सारा मोबिलाइज़ेशन आम आदमी का था . राजनीतिक पार्टियों के टी वी में दिखने वाले लोग आगे खड़े हो गए थे और उसे अपनी पार्टी की सफलता की लिस्ट में डालने के लिए व्याकुल थे. इस बात पर बहस हो सकती है कि महंगाई के खिलाफ बंद में जीत जनता की हुई या राजनीतिक पार्टियों की लेकिन एक बात मुकम्मल रूप से तय है कि पांच जुलाई को केंद्र सरकार की हार निश्चित रूप से हुई थी .१९७७ में भी कांग्रेस की हार अकस्मात् नहीं हुई थी. माहौल १९७४ से ही बनना शुरू हो गया था और जब १९७७ में पराजय ने दबे पाँव दस्तक दे दी तो इंदिरा गाँधी और उनके साथी भौचक रह गए थे . लगभग उसी तर्ज पर जनता ने मौजूदा कांग्रेस सरकार को नोटिस दे दिया है . अगर इस नोटिस को वे गंभीरता से नहीं लेते तो इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले महीनों में माहौल और गरम होगा और २०१४ या उसके पहले जब भी मुक़दमा जनता की अदालत में पेश होगा, कांग्रेस को पछतावा ही हाथ लगेगा
इंडिया गेट के आस पास बनी सत्ता की कोठियों में आजकल एक बात बहुत ही जोर शोर से चर्चा के घेरे में आ गयी है . जिन नेताओं से भी मुलाक़ात हुई सबको लगता है कि देश में कांग्रेस के विरोध का माहौल बन रहा है . १९७७ वाला माहौल साफ़ नज़र आने लगा है . १९७७ के पहले भी बहुत ही मामूली मुद्दों पर गुजरात और बिहार में छात्रों ने आन्दोलन शुरू किया था जो बाद में इतना बड़ा हो गया कि हर वह शख्स जो कांग्रेस से किसी तरह से सम्बंधित था, सत्ता के बाहर फेंक दिया गया. सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जनता लामबंद होना शुरू हो गयी है और अगर सरकार अपने मूल दायित्व का निर्वाह ज़िम्मेदारी से नहीं करती ,तो भारत बंद के नाम पर शुरू हुआ आन्दोलन बहुत बड़े जन आन्दोलन की शक्ल अख्तियार कर लेगा.
पांच जुलाई के भारत बंद के बाद एक बार फिर साबित हो गया है कि अगर सरकारें ठीक से काम नहीं करेगीं तो जनता उनको बर्खास्त करने में संकोच नहीं करेगी. पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में की गयी मनमानी वृद्धि के बाद जनता ने तय कर लिया कि इस सरकार को सबक सिखाना ज़रूरी है . सोमवार को आयोजित बंद की सफलता का सेहरा बी जे पी वाले अपने सिर बाँधने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वे भी जानते हैं और पब्लिक भी जानती है कि जिस पूंजीपति को लाभ पंहुचाने के लिए केंद्र की मौजूदा सरकार ने पेट्रोल की कीमतें बढ़ाई हैं , उसको लाभ पंहुचाने के लिए बी जे पी ने भी क्या क्या नहीं किया. संचार मंत्री ए राजा के स्पेक्ट्रम भ्रष्टाचार की वजह से भी मौजूदा सरकार मुसीबत में है लेकिन बी जे पी को उसकी आलोचना करने का अधिकार नहीं है क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के संचार मंत्री ने भी उस वक़्त की सरकारी कंपनी , विदेश संचार निगम लिमिटेड को जिस दाम पर बेच दिया था, उस से कई गुना ज़्यादा की तो दिल्ली में उसकी ग्रेटर कैलाश वाली ज़मीन है . मुंबई में शेयर मार्केट के पास जो विदेश संचार निगम की इमारत है वह भी १२ सौ करोड़ रूपये में नहीं खरीदी जा सकती थी जबकि एन डी ए सरकार ने पूरी कंपनी १२ सौ करोड़ में बेच दी थी . इसलिए बंद की सफलता का सेहरा , बी जे पी के सिर पर तो बिलकुल फिट नहीं बैठता. लेकिन मंहगाई के मामले पर केंद्र सरकार के अलगर्ज़ रवैय्ये से परेशान लोगों ने राजनीतिक बिरादरी को समझा दिया कि कृपया घूसखोरी और बेईमानी की बुनियादी सोच के साथ हुकूमत करने से बाज़ आयें वरना जनता नौकर बदल देगी. केंद्र सरकार के गैर ज़िम्मेदार रुख के खिलाफ जनता का यह मूड १९७१ के बाद देखा गया था जब गरीबी हटाओ और बंगलादेश की स्थापना का विरोध कर रही पाकिस्तानी सेना को हराने वाली इंदिरा गाँधी ने मनमानी शुरूकर दी थी . विपक्ष भी उन दिनों आज जैसा नहीं था, विपक्ष में बहुत विद्वान् नेता हुआ करते लेकिन इंदिरा गाँधी ने किसी की परवाह नहीं की . अपने चापलूस टाइप लोगों को सत्ता में शामिल किया . ऐसे लोगों की सबसे बड़ी योग्यता यह थी कि वे इंदिरा जी की मनमानी को बिना किसी सवाल जवाब के समर्थन देते थे. उन्होंने अपने मंद बुद्धि बेटे को भी इसी दौर में अपना उत्तराधिकारी बना दिया और बंसी लाल टाइप लोगों ने उनके बेटे ,संजय गाँधी की जय जय कार करके उसे नेता बनाने की कोशिश की . जब १९७४ में इंदिरा गाँधी की सरकार महंगाई, कुशासन और भ्रष्टाचार के दल दल में डूबने लगी तो इंदिरा जी ने उन्हीं दरबारी मंत्रियों और नेताओं की अधकचरी सलाह पर १९७५ में इमरजेंसी लागू कर दी. लेकिन जनता को दबा नहीं सकीं क्योंकि जनता का मन तो बहती नदी की धार जैसा होता है .जब एक बार धारा बह निकलती है तो वह रुकती नहीं . देश ने इमरजेंसी की परवाह नहीं किया और जब इस मुगालते में कि इंदिरा जी बहुत ही लोकप्रिय हैं, चुनाव की घोषणा कर दी गयी . नतीजा यह हुआ कि वे खुद चुनाव हार गयीं और सरकार गंवा बैठीं. इसलिए लोकतंत्र में मनमानी का कोई स्थान नहीं होता. सरकारी पक्ष के नेताओं को यह भी समझ लेना चाहिए कि विपक्ष में बिखराव को अपनी मजबूती न मानें. आज जो पार्टियां सरकार में हैं , वे तो खैर सत्ता का सुख भोग रही हैं ,इसीलिए वे मतभेदों के बावजूद कांग्रेस की तरफ हैं लेकिन विपक्ष की कोई भी पार्टी सबसे बड़े विपक्षी दल को अपना अगुवा मानने को तैयार नहीं है . उनके एन डी ए में शामिल शरद यादव की पार्टी भी पूरी तरह से उनके साथ नहीं है. मुलायम सिंह यादव,लालू प्रसाद , प्रकाश करात वगैरह की पार्टियां भी बी जे पी से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहतीं. लेकिन एक ही दिन बंद करवाने की बात पर सहमत थीं . यह अलग बात है कि सब ने अपने को बी जे पी से दूर दिखाने की कोशिश की और सफल भी रहीं लेकिन यह बात भी सच है कि सभी पार्टियों का विरोध कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के खिलाफ था .ऐसा ही माहौल १९७७ में था . इंदिरा गाँधी ने जल्दी जल्दी में इमरजेंसी ख़त्म करके अपने और अपने बेटे के तानाशाही राज पर जनता की मंजूरी की मुहर लगवाने के चक्कर में चुनाव की घोषणा की थी . उनको उम्मीद थी कि जेलों में बंद बड़े नेताओं की पार्टियां जब तक संभल पाएंगी तब तक तो चुनाव पार हो चुका होगा . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जनता के दबाव में सारे विपक्ष को जनता पार्टी के नाम से चुनाव लड़ना पडा . चुनाव के वक़्त जनता पार्टी नाम की कोई पार्टी ही नहीं थी. उसका गठन तो बाद में हुआ लेकिन इंदिरा गाँधी की मनमाने एके खिलाफ जनता वोट दे चुकी थी . इसलिए कांग्रेस को अपने इतिहास से सबक लेना चाहिए ,क्योंकि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते उन्हें दुनिया भुला देती है .
इस पृष्ठभूमि में पांच जुलाई के बंद को देखने की ज़रुरत है . बंद को किसी भी पार्टी की सफलता मानने की ज़रूरत नहीं है . वह वास्तव में जनता की आवाज़ थी , जनता ही नेता थी और सारा मोबिलाइज़ेशन आम आदमी का था . राजनीतिक पार्टियों के टी वी में दिखने वाले लोग आगे खड़े हो गए थे और उसे अपनी पार्टी की सफलता की लिस्ट में डालने के लिए व्याकुल थे. इस बात पर बहस हो सकती है कि महंगाई के खिलाफ बंद में जीत जनता की हुई या राजनीतिक पार्टियों की लेकिन एक बात मुकम्मल रूप से तय है कि पांच जुलाई को केंद्र सरकार की हार निश्चित रूप से हुई थी .१९७७ में भी कांग्रेस की हार अकस्मात् नहीं हुई थी. माहौल १९७४ से ही बनना शुरू हो गया था और जब १९७७ में पराजय ने दबे पाँव दस्तक दे दी तो इंदिरा गाँधी और उनके साथी भौचक रह गए थे . लगभग उसी तर्ज पर जनता ने मौजूदा कांग्रेस सरकार को नोटिस दे दिया है . अगर इस नोटिस को वे गंभीरता से नहीं लेते तो इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले महीनों में माहौल और गरम होगा और २०१४ या उसके पहले जब भी मुक़दमा जनता की अदालत में पेश होगा, कांग्रेस को पछतावा ही हाथ लगेगा
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शेष नारायण सिंह
Tuesday, July 6, 2010
जाति के विनाश का डॉ आम्बेडकर का सपना पूरा कर सकती हैं मायावती
शेष नारायण सिंह
दिल्ली के उपनगर, उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोयडा में एक गाँव के लोग इसलिए बेईज्ज़त किये जा रहे हैं कि वे जाटव हैं . यह मामला इसलिए और भी हैरतअंगेज़ है कि जिस गाँव की यह खबर है उससे बहुत करीब के एक गाँव की एक लड़की उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री है. दलितों के सम्मान के अभियान के नायक डॉ अंबेडकर के विचारों को लागू करने के लिए बनायी गयी पार्टी का उत्तर प्रदेश में शासन है और वहीं मुख्यमंत्री के जिले में दलितों का अपमान इसलिए किया जा रहा है कि ऊंची जाति की किसी लड़की ने एक दलित लड़के से दोस्ती की , उस से प्रेम किया और सवर्ण आतंक से बचने के लिए अपने प्रेमी के साथ घर छोड़ कर कहीं भाग गयी. अब खबर आई है कि सवर्ण दबंगों ने गाँव के दलितों को हुक्म सुना दिया है कि वे लोग उनकी बिरादरी की लडकी को फ़ौरन से पेशतर हाज़िर करें वरना, उनके परिवार की लड़कियों को उठा लिया जाएगा. इसके बाद पुलिस फ़ौरन हरकत में आ गयी और तुगलकी फरमान जारी करने वालों को पकड़ लिया गया और बताया गया है कि उनके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम यानी रासुका के तहत मामला दर्ज किया जा रहा है . इसके बाद वे ख़ासा वक़्त जेलों में बितायेगें और सारी हेकड़ी भूल जायेगें. सवाल यह उठता है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हमारी राजनीतिक बिरादरी ने जाति के इस खूंखार भूत को दफन करने में सफलता क्यों नहीं पायी. हमारी आज़ादी का इथोस यही था कि बराबरी पर आधारित एक भारतीय समाज की स्थापना की जायेगी. महात्मा गाँधी ने तो आर्थिक और राजनीतिक आज़ादी के साथ ही छुआछूत के खात्मे को भी रख दिया था जबकि राम मनोहर लोहिया और डॉ अंबेडकर ने साफ़ कहा था कि जाति की संस्था का ही विनाश हो जाना चाहिए. डॉ अंबेडकर का साहित्य बहुत बड़ा है लेकिन उनकी सबसे मह्त्व पूर्ण किताब का नाम है ," जाति का विनाश ". इस किताब में साफ़ लिखा है जब तक सभी जातियों के लोग आपस में शादी ब्याह नहीं करने लगेगें , जाति का विनाश हो ही नहीं सकता . अब दुनिया भर के समाज शास्त्री और राजनीति विज्ञान के ज्ञाता इस बात पर सहमत हैं कि अगर भारत में जाति प्रथा समाप्त हो जाए ,तो विकास की गति इतनी तेज़ हो जायेगी कि बहुत कम वक़्त में यह दुनिया की एक मज़बूत ताक़त बन जाएगा. हमारे अपने नेता भी इस बात को सही मानते हैं . जो बात समझ में नहीं आती , वह यह कि इस सबके बावजूद जाति की प्रथा को ख़त्म करने के लिए कोशिश क्यों नहीं की जाती,? इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता क्यों नहीं बनाया जाता ?.अगर जातिप्रथा को ख़त्म कर दिया गया तो देश की बहुत सारी समस्याएं अपने आप ख़त्म हो जायेगीं . सबसे बड़ा तो यही कि अलग जाति में शादी करने के कारण हो रही हिंसक वारदातें अपने आप शांत हो जायेगीं. उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में सामाजिक सर्व नाश का एक और ज़हर घुल गया है जिसे दहेज़ के नाम से जाना जाता है . आज दहेज़ इतना खूंखार रूप धारण कर चुका है कि वह समाज को तबाह करने के कगार पर है. बेटी के बाप को अपना खेत खलिहान बेच कर बेटी ब्याहनी पड़ रही है क्योंकि पारंपरिक रूप से तय बिरादरी और गोत्र में ही शादी करनी है .अगर जाति प्रथा का विनाश हो गया तो यह सारी स्थितियां अपने आप ख़त्म हो जायेगीं . पहले माना जाता था कि जाति के विनाश में सबसे बड़ी बाधा तथाकथित ऊपरी जातियां हैं , वहीं नहीं चाहतीं कि जाति का विनाश हो . लेकिन अब साफ़ हो गया है कि ऐसा नहीं है. वास्तव में जाति के विनाश में सबसे बड़ी बाधा वे राजनीतिक पार्टियां हैं जो जाति को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल कर रही हैं. दुःख की बात यह है कि जाति के विनाश के दर्शनशास्त्र के सबसे बड़े हिमायती डॉ अंबेडकर के विचारों को लागू करने के लिए बनायी गयी पार्टी भी इस दिशा में कोई पहल नहीं कर रही है . इसके पलट बहुजन समाज पार्टी सारी जातियों को अलग अलग खांचों में फिट करके उनका वोट लेने की राजनीति पर काम कर रही है . कई नेताओं से बात चीत के आधार पर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि राजनीतिक बिरादरी जाति को ख़त्म करने के पक्ष में हैं ही नहीं . उनका यह तर्क है कि जब तक एक सामाजिक आन्दोलन नहीं होगा , जाति प्रथा को ख़त्म नहीं किया जा सकता . लेकिन अनुभव बताता है कि इस तर्क में कोई दम नहीं है . उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ महीनों में सफाई कर्मियों की भर्ती हुई है . पारंपरिक रूप से सफाई कर्मी दलित जातियों के होते रहे हैं लेकिन सरकारी नौकरी के चक्कर में बड़ी संख्या में ब्राह्मणों और ठाकुरों के बच्चे भर्ती हो गए हैं .ज़ाहिर है सफाई कर्मी बनने वाले सवर्ण जातियों के लोग अपने को जाति के खेल में ऊंचा मानने से बाज़ नहीं आयेगें लेकिन जन्मना जाति के ब्राह्मणवादी शिकंजे से अलग होने का ऐलान सफाईकर्मी की भर्ती की इस व्यवस्था ने कर दिया है . और इसके लिए कोई सामाजिक आन्दोलन नहीं चलाया गया. इसी तरह से और भी पहल की जा सकती है . लेकिन यह पहल अनजाने में हुई है . दुर्भाग्य की बात यह है कि जाति के नाम पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आतंक मचा रही पंचायतों के खिलाफ ठीक से पुलिस कार्रवाई तक नहीं हो रही है . जाति के बाहर जाकर शादी करने वाले लड़के लड़कियों को दिल्ली के आस पास के शहरों में रोज़ मारा पीटा जा रहा है और क़त्ल किया लेकिन उनकी रक्षा के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है. जाति की पुरातनपंथी सोच को ख़त्म करने के लिए डॉ अंबेडकर की विरासत की उत्तराधिकारी , मायावती को फ़ौरन पहल करनी चाहिए क्योंकि अगर वे जाति ख़त्म करने में सफल हो गयीं तो राजनीति के इतिहास में वे अमर हो जायेगीं. जिस तरह से मार्क्स के विचारों को लागू करके लेनिन महान हो गए , उसी तरह अगर मायावाती चाहें तो डॉ भीम राव अंबेडकर के जाति के विनाश संबंधी विचारों को लागू करके आने वाली पीढ़ियों के सामाजिक ताने बाने पर अपना अमिट छाप छोड़ सकती हैं
दिल्ली के उपनगर, उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोयडा में एक गाँव के लोग इसलिए बेईज्ज़त किये जा रहे हैं कि वे जाटव हैं . यह मामला इसलिए और भी हैरतअंगेज़ है कि जिस गाँव की यह खबर है उससे बहुत करीब के एक गाँव की एक लड़की उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री है. दलितों के सम्मान के अभियान के नायक डॉ अंबेडकर के विचारों को लागू करने के लिए बनायी गयी पार्टी का उत्तर प्रदेश में शासन है और वहीं मुख्यमंत्री के जिले में दलितों का अपमान इसलिए किया जा रहा है कि ऊंची जाति की किसी लड़की ने एक दलित लड़के से दोस्ती की , उस से प्रेम किया और सवर्ण आतंक से बचने के लिए अपने प्रेमी के साथ घर छोड़ कर कहीं भाग गयी. अब खबर आई है कि सवर्ण दबंगों ने गाँव के दलितों को हुक्म सुना दिया है कि वे लोग उनकी बिरादरी की लडकी को फ़ौरन से पेशतर हाज़िर करें वरना, उनके परिवार की लड़कियों को उठा लिया जाएगा. इसके बाद पुलिस फ़ौरन हरकत में आ गयी और तुगलकी फरमान जारी करने वालों को पकड़ लिया गया और बताया गया है कि उनके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम यानी रासुका के तहत मामला दर्ज किया जा रहा है . इसके बाद वे ख़ासा वक़्त जेलों में बितायेगें और सारी हेकड़ी भूल जायेगें. सवाल यह उठता है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हमारी राजनीतिक बिरादरी ने जाति के इस खूंखार भूत को दफन करने में सफलता क्यों नहीं पायी. हमारी आज़ादी का इथोस यही था कि बराबरी पर आधारित एक भारतीय समाज की स्थापना की जायेगी. महात्मा गाँधी ने तो आर्थिक और राजनीतिक आज़ादी के साथ ही छुआछूत के खात्मे को भी रख दिया था जबकि राम मनोहर लोहिया और डॉ अंबेडकर ने साफ़ कहा था कि जाति की संस्था का ही विनाश हो जाना चाहिए. डॉ अंबेडकर का साहित्य बहुत बड़ा है लेकिन उनकी सबसे मह्त्व पूर्ण किताब का नाम है ," जाति का विनाश ". इस किताब में साफ़ लिखा है जब तक सभी जातियों के लोग आपस में शादी ब्याह नहीं करने लगेगें , जाति का विनाश हो ही नहीं सकता . अब दुनिया भर के समाज शास्त्री और राजनीति विज्ञान के ज्ञाता इस बात पर सहमत हैं कि अगर भारत में जाति प्रथा समाप्त हो जाए ,तो विकास की गति इतनी तेज़ हो जायेगी कि बहुत कम वक़्त में यह दुनिया की एक मज़बूत ताक़त बन जाएगा. हमारे अपने नेता भी इस बात को सही मानते हैं . जो बात समझ में नहीं आती , वह यह कि इस सबके बावजूद जाति की प्रथा को ख़त्म करने के लिए कोशिश क्यों नहीं की जाती,? इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता क्यों नहीं बनाया जाता ?.अगर जातिप्रथा को ख़त्म कर दिया गया तो देश की बहुत सारी समस्याएं अपने आप ख़त्म हो जायेगीं . सबसे बड़ा तो यही कि अलग जाति में शादी करने के कारण हो रही हिंसक वारदातें अपने आप शांत हो जायेगीं. उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में सामाजिक सर्व नाश का एक और ज़हर घुल गया है जिसे दहेज़ के नाम से जाना जाता है . आज दहेज़ इतना खूंखार रूप धारण कर चुका है कि वह समाज को तबाह करने के कगार पर है. बेटी के बाप को अपना खेत खलिहान बेच कर बेटी ब्याहनी पड़ रही है क्योंकि पारंपरिक रूप से तय बिरादरी और गोत्र में ही शादी करनी है .अगर जाति प्रथा का विनाश हो गया तो यह सारी स्थितियां अपने आप ख़त्म हो जायेगीं . पहले माना जाता था कि जाति के विनाश में सबसे बड़ी बाधा तथाकथित ऊपरी जातियां हैं , वहीं नहीं चाहतीं कि जाति का विनाश हो . लेकिन अब साफ़ हो गया है कि ऐसा नहीं है. वास्तव में जाति के विनाश में सबसे बड़ी बाधा वे राजनीतिक पार्टियां हैं जो जाति को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल कर रही हैं. दुःख की बात यह है कि जाति के विनाश के दर्शनशास्त्र के सबसे बड़े हिमायती डॉ अंबेडकर के विचारों को लागू करने के लिए बनायी गयी पार्टी भी इस दिशा में कोई पहल नहीं कर रही है . इसके पलट बहुजन समाज पार्टी सारी जातियों को अलग अलग खांचों में फिट करके उनका वोट लेने की राजनीति पर काम कर रही है . कई नेताओं से बात चीत के आधार पर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि राजनीतिक बिरादरी जाति को ख़त्म करने के पक्ष में हैं ही नहीं . उनका यह तर्क है कि जब तक एक सामाजिक आन्दोलन नहीं होगा , जाति प्रथा को ख़त्म नहीं किया जा सकता . लेकिन अनुभव बताता है कि इस तर्क में कोई दम नहीं है . उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ महीनों में सफाई कर्मियों की भर्ती हुई है . पारंपरिक रूप से सफाई कर्मी दलित जातियों के होते रहे हैं लेकिन सरकारी नौकरी के चक्कर में बड़ी संख्या में ब्राह्मणों और ठाकुरों के बच्चे भर्ती हो गए हैं .ज़ाहिर है सफाई कर्मी बनने वाले सवर्ण जातियों के लोग अपने को जाति के खेल में ऊंचा मानने से बाज़ नहीं आयेगें लेकिन जन्मना जाति के ब्राह्मणवादी शिकंजे से अलग होने का ऐलान सफाईकर्मी की भर्ती की इस व्यवस्था ने कर दिया है . और इसके लिए कोई सामाजिक आन्दोलन नहीं चलाया गया. इसी तरह से और भी पहल की जा सकती है . लेकिन यह पहल अनजाने में हुई है . दुर्भाग्य की बात यह है कि जाति के नाम पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आतंक मचा रही पंचायतों के खिलाफ ठीक से पुलिस कार्रवाई तक नहीं हो रही है . जाति के बाहर जाकर शादी करने वाले लड़के लड़कियों को दिल्ली के आस पास के शहरों में रोज़ मारा पीटा जा रहा है और क़त्ल किया लेकिन उनकी रक्षा के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है. जाति की पुरातनपंथी सोच को ख़त्म करने के लिए डॉ अंबेडकर की विरासत की उत्तराधिकारी , मायावती को फ़ौरन पहल करनी चाहिए क्योंकि अगर वे जाति ख़त्म करने में सफल हो गयीं तो राजनीति के इतिहास में वे अमर हो जायेगीं. जिस तरह से मार्क्स के विचारों को लागू करके लेनिन महान हो गए , उसी तरह अगर मायावाती चाहें तो डॉ भीम राव अंबेडकर के जाति के विनाश संबंधी विचारों को लागू करके आने वाली पीढ़ियों के सामाजिक ताने बाने पर अपना अमिट छाप छोड़ सकती हैं
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