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Sunday, July 18, 2010

खैरलांजी के दलितों के हत्यारों के साथ क्यों खडी हैं राजनीतिक पार्टियां

शेष नारायण सिंह

महाराष्ट्र के भंडारा जिले के खैरलांजी गांव में एक दलित परिवार के चार लोगों की ह्त्या और बलात्कार के मामले जिला अदालत का फैसला मुंबई की हाई ने बदल दिया है.जिन लोगों को फांसी की सज़ा सुनायी गयी थी वह अब आजीवन कारावास में बदल दी गयी है . अब इस मामले के सभी आठ मुलजिमों को 25 साल के कठोर कारावास की सजा होगी. राज्य सरकार पर दबाव है कि सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाए . करीब चार साल पहले जब महाराष्ट्र के खैरलांजी गांव में कुछ दबंग लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके दलित भैयालाल भोतमांगे के घर पर रात में हमला बोल कर भोतमांगे की पत्नी सुरेखा, बेटी प्रियंका और दो बेटों सुधीर व रोशन को मार डाला था, तो पूरा देश दहल गया था . आरोप था कि घर की दोनों महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया गया था। उस इलाके के बी जे पी विधायक ने मामले को रफा दफा कराने की गरज़ से मामले की जांच सीआईडी का आदेश करा दिया . इस काम में उसे कांग्रेस और एन सी पी के नेताओं की भी मदद मिली. मराठी के बड़े अखबारों ने भी ऊंची जाति वालों का ही साथ दिया . लेकिन सिविल सोसाइटी की समझ में बात आ गयी. और राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में अभियान चलाया गया. बी बी सी जैसे अंतर राष्ट्रीय संगठनों के मैदान में आ जाने के बाद सरकार पर दबाव पड़ा और जांच सी बी आई के हवाले कर दी गयी.. सी बी आई की चार्ज शीट से साफ़ पता चल गया कि दलितों की आत्मसामान से जीने की कोशिश के खिलाफ यह ताक़तवर लोगों का हमला था. यह भी पता चला कि दलित परिवार के चार लोगों को मौत के घाट उतारने के पहले लड़के को मजबूर किया गया था कि वह अपनी बहन के साथ सबके सामने शारीरिक सम्बन्ध बनाए. उसके मना करने पर दबंगों ने महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उनको गाँव में बिना कपड़ों के घुमाया और फिर मार डाला. जिले की अदालत ने मामले को "रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर" केस माना और सज़ा-ए-मौत का हुक्म दिया . लेकिन हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सत्र न्यायालय द्वारा छ अभियुक्तों ,सकरू बिंजेवार, शत्रुघ्न धांडे, विश्वनाथ धांडे, रामू धांडे, जगदीश मंडलेकर और प्रभाकर मंडलेकर को सुनाई गई फांसी की सजा को रद्द कर दिया और उसे उम्र क़ैद में बदल दिया .जबकि बाकी दोनों की उम्र क़ैद की सज़ा को कायम रखा। सी बी आई ने सभी अभियुक्तों को एट्रॉसिटी एक्ट और बलात्कार के आरोप में भी सजा देने की मांग की थी। हाई कोर्ट ने सीबीआई की इन मांगों को भी खारिज कर दिया।

खैरलांजी की घटना का इतना प्रचार हो गया था कि पूरी दुनिया की निगाहें उस पर लगी हुई थीं लेकिन सरकार और उसके बाहर बैठे सवर्णों की साजिश का नतीजा है कि हाई कोर्ट को निचली अदालत के फैसले को बदलना पड़ा. यहाँ हाई कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाने का कोई मकसद नहीं है लेकिन जिस तरह से दलितों के खिलाफ ऊंची जातियों के लोग एक हो जाते हैं , उस पर चिंता की जानी चाहिए. खैरलांजी के मामले में जिन लोगों ने भी जांच की लगभग सब ने यही बताया कि गाँव के ऊंची जाति के लोग दलित परिवार की तरक्की से ईर्ष्या रखते थे और उनको नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे. ज़ाहिर है यह कोई मामूली अपराध नहीं है . यह किसी बहुत बड़े सामाजिक रोग का पहला लक्षण है . अगर कोई दलित परिवार अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित महाराष्ट्र में इसलिए मार डाला जा रहा है कि उसके सदस्यों ने तरक्की कर ली है , तो बाकी देश का क्या हाल होने वाला है . जिस समाज में दूसरे की तरक्की को देख कर लोग इतना गुस्सा हो जाएँ कि उसे मार डालें , उस समाज में निश्चित रूप से बहुत बड़े पैमाने पर सडन आ चुकी है .इस तरह की मनोवृत्ति को भावी पीढ़ियों की विरासत के रूप में नहीं छोड़ा जा सकता .इसे ख़त्म करना होगा. आदर्श स्थिति तो यह होती कि जाति और उस से जुड़े अपराधों के खिलाफ राजनीतिक चेतना का विकास किया जाता और उसी चेतना के इर्दगिर्द कोई आन्दोलन खड़ा किया जाता लेकिन आज के माहौल में यह संभव नहीं है . राजनीतिक आचरण का पूरी तरह से पतन हो चुका है . आज राजनीति शुद्ध रूप से सत्ता हथियाने का एक साधन बन गयी है .किसी भी समाज के विकास और परिवर्तन के लिए मध्यवर्ग सबसे बड़ी भूमिका निभाता है . आमतौर पर सत्ता परिवर्तन में तो मध्य वर्ग की भूमिका नज़र आती है लेकिन सामाजिक बदलाव में वह उतनी कारगर नहीं होती. कोई फुले, कोई मार्ज़ , कोई गांधी , कोई आम्बेडकर बीज रूप में परिवर्तन के मन्त्र छोड़ जाता है . बाद की पीढियां उस पर काम करती हैं और सामजिक क्रान्ति की शुरुआती चाल भर ली जाती है . लेकिन जाति के विनाश के बारे में अपने महापुरुषों की स्पष्ट हिदायत के बाद भी कोई अहम बदलाव नहीं हो रहा है . यह दुर्भाग्य है . इस पर काबू पाए जाने की ज़रुरत है .. मध्यवर्ग की तैयारी ऐसी नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद भी बांधी जा सके .ऐसी हालत में जो जागरूक राजनीतिक वर्ग है उस से उम्मीद की जानी चाहिए . लेकिन जिस तरह से राजनीतिक नेताओं ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में खाप पंचायतों के सामने घुटने टेके हैं , इनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. खैरलांजी में भी साफ़ नज़र आ रहा है कि दलितों का क़त्ले-आम करने वालों को राजनीतिक वर्ग बचाने में जुटा हुआ है . भ्रष्ट और बेईमान राजनेताओं से और कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए. ऐसी हालत में समाज में बराबरी का माहौल बनाने में सबसे ज्यादा भरोसा न्यायपालिका पर ही किया जाता है लेकिन नागपुर के हाई कोर्ट का जो फैसला आया है वह निराश करता है . अगर सर्वोच्च न्यायालय ने जिला आदालत के फैसले को बहाल न किया तो एक ऐसा माहौल बनेगा जिसमें दलितों पर अत्याचार बढेगा . उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट से जो फैसला आएगा वह भविष्य में दलितों के दुश्मनों में कानून की इज़्ज़त करने की प्रेरणा देगा.

Monday, June 14, 2010

दांतेवाडा के आस पास दलितों की बेटियों की इज्ज़त लूटी जा रही है

शेष नारायण सिंह


छत्तीस गढ़ के दांतेवाडा जिले में माओवादी आतंकवादियों ने केंद्रीय रिज़र्व पुलिस के ७६ सिपाहियों को ६ अप्रैल २०१० की रात में मार डाला था. मारे गए पुलिस के वे जवान अपनी ड्यूटी कर रहे थे , उनको बहुत ही मुश्किल से सी आर पी की नौकरी मिली थी. गरीबी से जूझ रहे भारत के गावों में जब किसी बच्चे को सी आर पी एफ , बी एस एफ, आई टी बी पी या अन्य अर्ध सैनिक संगठनों में नौकरी मिल जाती है तो खुशी मनाई जाती है ., प्रीतिभोज किया जाता है और इलाके में परिवार की इज़्ज़त बढ़ती है . संपन्न इलाकों के लोगों की समझ में यह बात नहीं आयेगी लेकिन व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि इन अर्ध सैनिक बलों में नौकरी पाने के लिए इन बच्चों के मातापिता बड़ी रक़म बतौर रिश्वत के भी देते हैं . सरकारी नौकरी की सुरक्षा के लिए गरीब आदमी सब कुछ करता है . लेकिन जब दांतेवाडा में आतंकवादियों ने इन्ही गरीब परिवारों के बच्चों को मार डाला तो पूरे देश में गम और गुस्से का माहौल बन गया .वैसे भी जिन लोगों के हाथों में माओवादी लुटेरों ने बंदूक पकड़ा दी है , वे भी तो गरीब लोगों की औलादें हैं और उनको बेवक़ूफ़ बना कर कुछ पैसों की लालच में फंसाया गया है . इसलिए माओवादी आतंक के इस खूनी खेल में दोनों तरफ ही शिकार हो रही शोषित पीड़ित जनता है और शासक वर्गों के लोग उनको अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं . वास्तव में सरकारी नेताओं और माओवादी आतंकवादियों का वर्गचरित्र एक ही है. . वे दोनों ही गरीबों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन इस सब में सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी सरकारों की है , केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों की . उन्होंने विदेशी और स्वदेशी पूंजीपतियों के हाथों आदिवासी इलाकों की खनिज सम्पदा को औने पौने दामों में बेच कर इन इलाकों में रहने वाले और इस खनिज सम्पदा के असली वारिस लोगों के भविष्य को बड़ी पूंजी के हाथों गिरवी रख दिया है. ज़ाहिर हैं यह वही लोग हैं जो राजनीति और नौकरशाही में बड़े पदों पर विराजमान हैं और हज़ारों करोड़ की रिश्वत खा कर आम आदमी का शोषण कर रहे हैं . दूसरी तरफ माओवादी हैं जो अपने हितों के लिए गरीब आदिवासी जनता के हाथों में बंदूक पकड़ा रहे हैं . इस सारे ड्रामे में मुकामी बदमाश भी शामिल हो गए हैं और चारों तरफ से राष्ट्र हित पर हमला बोल दिया गया है .यहाँ यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज्य या केंद्र में सरकार चाहे जिस पार्टी की हो , सभी पार्टियां घूस की लालच में अपने देश के हितों के खिलाफ काम कर रही हैं . जहां भी आतंकवाद बढ़ता है, वहां हालात पर सामाजिक कंट्रोल बिलकुल ख़त्म हो जाता है . उसके बाद हालात पर लोकल ठगों का क़ब्ज़ा हो जाता है , सरकार का हुक्म नहीं चलता और आतंकवादी संगठन जो अपने को क्रांतिकारी समझ रहे होते हैं, वे बदमाशों को भी अपना मानने की गलती कर बैठते हैं और हालात बेकाबू हो जाते हैं . दांतेवाडा के आस पास भी यही हो रहा है. हालात के बेकाबू होने का सबसे बड़ा नुकसान उन लोगों को होता है जो गरीब होते हैं और जिनमें शिक्षा का अभाव होता है . कुछ चालाक और शातिर किस्म के लोग आतंकवादियों और सरकारी एजेंसियों के मुखबिर बन जाते हैं और आतंक की वजह से जो लूट होती है उनको यही करते हैं .
दांतेवाडा के आस पास आजकल हर लेवल पर आतंक का राज है . दैनिक हिन्दू अखबार के रिपोर्टर ने दांतेवाडा जिले के गावों का दौरा करने के बाद अपनी आँखों से देखा कि पुलिस और माओवादियों के मुखबिर किस तरह से लोगों का शोषण कर रहे हैं . इस इलाके में आजकल पुलिस का बहुत ही भारी बंदोबस्त है . लिहाजा माओवादी आतंकवादियों की गतिविधियाँ तो उतनी ज्यादा नहीं हैं लेकिन पुलिस के मुखबिर खुले आम लूट पाट कर रहे हैं . मुकरम गाँव में जाकर संवाददाता ने पाया कि मुखबिरों ने तीन लड़कियों को मारा पीटा और उनके साथ बलात्कार किया . उनके शरीर के नाजुक स्थानों पर लात से मारा और बच्चियों को फेंक कर चले गए.इन लड़कियों ने बताया कि जब एक बड़ा पुलिस अधिकारी उधर से गुज़रा तब यह लोग उन्हें फेंक कर भागे वरना पता नहीं क्या हो सकता था. यह तो एक गाँव की घटना है . छत्तीस गढ़ और झारखण्ड में इस तरह के हज़ारों गाँव हैं और इमकान है कि हर जगह यही हो रहा होगा . इस घटना का पता तो बाकी दुनिया को इस लिए चल गया कि वहां एक सम्मानित अखबार का रिपोर्टर पंहुच गया . इस रिपोर्टर ने पड़ोस के गाँव में भी इसी तरह का आतंक देखा जो कि सरकारी पक्ष से हो रहा है
दांतेवाडा नरसंहार को दो महीने हो गए हैं और आस पास का इलाका पूरी तरह से छावनी की शक्ल अख्तियार कर चुका है .वहां गए रिपोर्टर को गाँव वालों ने बताया कि जब गाँव के मर्द खेतों में काम करने चले जाते हैं , तो आस पास तैनात पुलिस वाले गश्त के बहाने गाँवों में आते हैं और औरतों को परेशान करते हैं इस तरह की अमानवीय आचरण की बहुत सारी घटनाएं इन इलाकों में हो रही हैं .सरकारों और सिविल सोसाइटी को चाहिए कि फ़ौरन से पेशतर ज़रूरी कार्रवाई करें वरना बहुत देर हो जायेगी. .