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Tuesday, April 16, 2013

महाराष्ट्र और गुजरात में सूखे के आतंक से ज़िंदगी परेशान है .




शेष नारायण सिंह

पश्चिमी भारत में सूखे से त्राहि त्राहि  मची हुई है . महाराष्ट्र और गुजरात के बड़े इलाके में पानी की भारी किल्लत है , कपास का किसान सबसे ज्यादा परेशान है .महाराष्ट्र और गुजरात में कैश क्राप वाले किसान बहुत भारी मुसीबत में हैं . अजीब बात है कि इन दोनों राज्यों के आला राजनीतिक नेता कुछ और ही राग अलाप रहे हैं . गुजरात के मुख्यमंत्री  दिल्ली और कोलकता में धन्नासेठों के सामने गुजरात माडल के विकास को  मुक्तिदाता के रूप में पेश कर रहे हैं जबकि  महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री  बांधों में पानी की कमी को पेशाब करके पूरा करने की धमकी दे रहे हैं . इस बीच इन दो राज्यों में आम आदमी की समझ में नहीं आ रहा है  कि वह ज़िंदगी कैसे बिताए
  उपभोक्तावाद के चक्कर में इन राज्यों में बड़ी संख्या में किसान कैश क्राप की तरफ मुड चुके हैं .कैश क्राप में आर्थिक फायदा तो होता है लेकिन लागत भी लगती है . अच्छे फायदे के चक्कर में किसानों ने सपने देखे थे और कर्ज लेकर लागत लगा दी . जब सब कुछ तबाह हो गया और कर्ज वापस न कर पाने की स्थिति आ गयी तो मुश्किल आ गयी. ख़बरें हैं कि किसानों की आत्महत्या करना शुरू कर दिया है .महाराष्ट्र का सूखा तो तीसरे सीज़न में पंहुच गया है . योजना बनाने वालों ने ऐसी बहुत सारी योजनाएं बनाईं जिनको अगर लागू कर दिया गया होता तो आज हालत इतनी खराब न होती लेकिन जिन लोगों के ऊपर उन योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी थी वे भ्रष्टाचार के रास्ते सब कुछ डकार गए . आज हालत यह है कि किसान असहाय खड़ा है . महाराष्ट्र में सरकार ने पिछले १२ वर्षों में ७०० अरब रूपये पानी की व्यवस्था पर खर्च किया है लेकिन राज्य के दो तिहाई हिस्से में लोग आज भी बारिश के पानी के सहारे जिंदा रहने और खेती करने को मजबूर हैं . महारष्ट्र सरकार के बड़े अफसरों ने खुद स्वीकार किया है कि हालात बहुत ही खराब हैं. मराठवाडा क्षेत्र में स्थिति बहुत चिंताजनक है .बाकी राज्य में भी पानी के टैंकरों की मदद से हालात संभालने की कोशिश की जा रही है .लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कहीं कोई भी चैन से रह रहा है .केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार इसी क्षेत्र के रहने वाले हैं .उनका कहना है कि बहुत सारे बांध और जलाशय सूख गए हैं . कुछ गाँव तो ऐसे हैं जहां हफ्ते में एक बार ही पानी का टैंकर पंहुचता है .सरकारी अफसर अपनी स्टाइल में आंकड़ों के आधार पर बात करते पाए जा रहे हैं . जहां पूरे ग्रामीण महाराष्ट्र इलाके में चारों तरफ पानी के लिये हर तरह की मुसीबतें पैदा हो चुकी हैं ,वहीं सरकारी अमले की मानें  तो राज्य के ३५ जिलों में से केवल १३ जिलों में सूखे का स्थिति है. ४० साल पहले महाराष्ट्र में इस तरह का सूखा आया था और इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा उसी सूखे की भेंट चढ गया था. कहीं कोई गरीबी नहीं हटी थी और ग्रामीण भारत से भाग कर लोग शहरों में मजदूरी करने के लिए मजबूर हो गए थे.  नतीजा यह हुआ था कि गाँवों में तो लगभग सब कुछ उजड गया था और शहरों में बहुत सारे लोग फुटपाथों और झोपडियों में रहने को मजबूर हो गए थे . देश के बड़े शहरों में १९७२ के बाद से गरीब आदमी का जो रेला आना शुरू हुआ वह रुकने का नाम  नहीं ले रहा है.

जो लोग भी हालात से वाकिफ हैं उनका कहना है कि  सिचाई की जो परियोजनाएं शुरू की गयी थें अगर वे समय पर पूरी कर ली गयी होतीं तो सूखे के आतंक को झेल रहे इलाको की संख्या आधे से भी कम हो गयी होती. पिछले साल कुछ गैर सरकारी संगठनों ने राज्य सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार का भंडाफोड किया था और बताया था कि राज्य के मंत्री अजीत पवार ने भारी हेराफेरी की थी. उनको उसी चक्कर में सरकार से इस्तीफ़ा भी देना पड़ा था लेकिन जब बात चर्चा में नहीं रही तो फिर सरकार में वापस शामिल हो गए थे . अभी पिछले दिनों उनका एक बयान आया है  जो कि  सूखापीड़ित लोगों का अपमान करता है और किसी भी राजनेता के लिए बहुत ही घटिया बयान माना जाएगा .खबर है कि केन्द्र सरकार ने इस साल महारष्ट्र सरकार को १२ अरब रूपये की रकम सूखे की हालत को काबू करने के लिए दी है .केन्द्र सरकार ने यह भी कहा है कि जिन किसानों की फसलें बर्बाद हो गयी हैं उनको उसका मुआवजा दिया जाएगा . इसके लिए कोई रकम  या सीमा तय नहीं  की गयी है . सरकार का कहना है कि जो भी खर्च होगा वह दिया जाएगा. देश में चारों तरफ सूखे और किसानों की आत्महत्या के विषय पर  गंभीर  काम कर रहे पत्रकार पी साईनाथ ने कहा है कि जब भी भयानक सूखा पड़ता है तो सरकारी अफसरों , ठेकेदारों और राजनीतिक नेताओं की आमदनी का एक और ज़रिया बढ़ जाता है . साईनाथ ने तो इसी विषय पर बहुत पहले एक किताब भी लिख दी थी और दावा किया था कि सभी लोग एक अच्छे सूखे से  खुश हो जाते हैं .महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों से लौट कर आने वाले सभी पत्रकारों ने बताया कि अगर भ्रष्टाचार इस स्तर पर न होता तो इस साल के सूखे से आसानी से लड़ा जा सकता था .सरकार ने अपने ही आर्थिक सर्वे में यह बात स्वीकार किया है कि १९९९ और २०११ के बीच राज्य में सिंचित क्षेत्र में शून्य दशमलव एक ( ०.१ ) प्रतिशत की वृद्धि हुई है .इस बात को समझने के लिए इसी  कालखंड में हुए ७०० अरब रूपये के खर्च पर भी नज़र डालना ज़रूरी है . इसका भावार्थ यह हुआ कि ७०० अरब रूपये खर्च करके  सिंचाई की स्थिति में कोई भी बढोतरी नहीं हुई .पूरे देश में सिंचित क्षेत्र का राष्ट्रीय औसत ४५ प्रतिशत है जब कि महाराष्ट्र में यह केवल १८ प्रतिशत है . यानी अगर पिछले १२ साल में जो ७०० अरब रूपये पानी के मद में राज्य सरकार को मिले थे उसका अगर सही इस्तेमाल किया गया होता, भ्रष्टाचार का आतंक न फैलाया गया होता तो हालात आज जैसे तो बिलकुल न होते. आज तो हालत यह हैं कि पिछली फसल तो तबाह हो ही चुकी है इस बार भी गन्ने की  खेती  शुरू नहीं हो पा रही है क्योंकि उसको लगाने के लिये पानी की  ज़रूरत होती  है .
गुजरात के सूखे की हालत भी महाराष्ट्र जैसी ही है .वहाँ पीने के पाने के लिये मीलों जाना पड़ता है तब जाकर कहीं पानी मिलता है .सौराष्ट्र और कच्छ में करीब २५० बाँध ऐसे हैं जो पूरी तरह से सूख चुके हैं .करीब ४००० गाँव और करीब १०० छोटे बड़े शहर  सूखे की चपेट में हैं  सौराष्ट्र ,कच्छ और उत्तर गुजरात में पानी के  लिए त्राहि त्राहि मची हुई है .राज्य की ताक़तवर मंत्री आनंदीबेन पटेल ने स्वीकार किया है कि राज्य के २६ जिलों में से १० जिले भयानक सूखे के शिकार हैं . राज्य के ३९१८ गाँव पानी की किल्लत झेल रहे हैं . इस सबके बावजूद गुजरात सरकार के लिए कोई फर्क नहीं पड़ रहा था .जब यह सारी जानकारी मीडिया में आ गयी तो सरकार ने दावा किया है कि वन विभाग को कह दिया गया है कि वह लोगों को सस्ते दाम पर जानवरों के लिये चारा देगा और टैंकरों से लोगों को पानी दिया जायेगा . गुजरात  सरकार की बात को सूखे से प्रभावित  लोग मानने को तैयार नहीं हैं. उनका आरोप है कि गुजरात सरकार के मुख्यमंत्री महोदय जिस गुजरात माडल के विकास की तारीफ़ करते घूम रहे हैं , वह और भी तकलीफ देता  है क्योंकि गुजरात में किसानों के हित की अनदेखी करके या उनके अधिकार को छीनकर मुख्यमंत्री  के उद्योगपति मित्रों को मनमानी  करने का  मौक़ा दिया  गया है और किसान आज सूखे को झेलने के लिए अभिशप्त है .गुजरात में सूखे से लड़ रहे लोगों के बीच काम करने वाले कार्यकर्ताओं को कांग्रेस से भी बहुत शिकायत है . उनका कहना है कि अगर उन्होंने अपने मंचों से गुजरात के सूखा पीड़ित लोगों की तकलीफों का उल्लेख किया होता तो आज हालत ऐसी न होती . महाराष्ट्र की तरह गुजरात के सूखा पीड़ित  इलाकों में कुछ क्षेत्रों में हफ्ते में एक दिन पानी का टैंकर आता है .सौराष्ट्र के अमरेली कस्बे में १५ दिन के बाद एक घंटे के लिए पानी की सप्लाई आती है जबकि भावनगर जिले के कुछ कस्बे ऐसे हैं जहां २० दिन बाद पानी आता है . सौराष्ट्र और उत्तर गुजरात से ग्रामीण लोगों में भगदड़ शुरू हो चुकी है किसान सबकुछ छोड़कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं .
महाराष्ट्र और गुजरात की हालत देखने से साफ़ लगता है कि प्रकृति की आपदा से लड़ने के लिए अपना देश बिलकुल तैयार नहीं है और मीडिया का इस्तेमाल करके वे नेता अभी देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं . यह अलग बात है कि इन दोनों ही राज्यों में सूखे से दिनरात जूझ रहे लोगों में मीडिया की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं .

Sunday, July 18, 2010

खैरलांजी के दलितों के हत्यारों के साथ क्यों खडी हैं राजनीतिक पार्टियां

शेष नारायण सिंह

महाराष्ट्र के भंडारा जिले के खैरलांजी गांव में एक दलित परिवार के चार लोगों की ह्त्या और बलात्कार के मामले जिला अदालत का फैसला मुंबई की हाई ने बदल दिया है.जिन लोगों को फांसी की सज़ा सुनायी गयी थी वह अब आजीवन कारावास में बदल दी गयी है . अब इस मामले के सभी आठ मुलजिमों को 25 साल के कठोर कारावास की सजा होगी. राज्य सरकार पर दबाव है कि सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाए . करीब चार साल पहले जब महाराष्ट्र के खैरलांजी गांव में कुछ दबंग लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर चुके दलित भैयालाल भोतमांगे के घर पर रात में हमला बोल कर भोतमांगे की पत्नी सुरेखा, बेटी प्रियंका और दो बेटों सुधीर व रोशन को मार डाला था, तो पूरा देश दहल गया था . आरोप था कि घर की दोनों महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया गया था। उस इलाके के बी जे पी विधायक ने मामले को रफा दफा कराने की गरज़ से मामले की जांच सीआईडी का आदेश करा दिया . इस काम में उसे कांग्रेस और एन सी पी के नेताओं की भी मदद मिली. मराठी के बड़े अखबारों ने भी ऊंची जाति वालों का ही साथ दिया . लेकिन सिविल सोसाइटी की समझ में बात आ गयी. और राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में अभियान चलाया गया. बी बी सी जैसे अंतर राष्ट्रीय संगठनों के मैदान में आ जाने के बाद सरकार पर दबाव पड़ा और जांच सी बी आई के हवाले कर दी गयी.. सी बी आई की चार्ज शीट से साफ़ पता चल गया कि दलितों की आत्मसामान से जीने की कोशिश के खिलाफ यह ताक़तवर लोगों का हमला था. यह भी पता चला कि दलित परिवार के चार लोगों को मौत के घाट उतारने के पहले लड़के को मजबूर किया गया था कि वह अपनी बहन के साथ सबके सामने शारीरिक सम्बन्ध बनाए. उसके मना करने पर दबंगों ने महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उनको गाँव में बिना कपड़ों के घुमाया और फिर मार डाला. जिले की अदालत ने मामले को "रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर" केस माना और सज़ा-ए-मौत का हुक्म दिया . लेकिन हाई कोर्ट ने अपने फैसले में सत्र न्यायालय द्वारा छ अभियुक्तों ,सकरू बिंजेवार, शत्रुघ्न धांडे, विश्वनाथ धांडे, रामू धांडे, जगदीश मंडलेकर और प्रभाकर मंडलेकर को सुनाई गई फांसी की सजा को रद्द कर दिया और उसे उम्र क़ैद में बदल दिया .जबकि बाकी दोनों की उम्र क़ैद की सज़ा को कायम रखा। सी बी आई ने सभी अभियुक्तों को एट्रॉसिटी एक्ट और बलात्कार के आरोप में भी सजा देने की मांग की थी। हाई कोर्ट ने सीबीआई की इन मांगों को भी खारिज कर दिया।

खैरलांजी की घटना का इतना प्रचार हो गया था कि पूरी दुनिया की निगाहें उस पर लगी हुई थीं लेकिन सरकार और उसके बाहर बैठे सवर्णों की साजिश का नतीजा है कि हाई कोर्ट को निचली अदालत के फैसले को बदलना पड़ा. यहाँ हाई कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाने का कोई मकसद नहीं है लेकिन जिस तरह से दलितों के खिलाफ ऊंची जातियों के लोग एक हो जाते हैं , उस पर चिंता की जानी चाहिए. खैरलांजी के मामले में जिन लोगों ने भी जांच की लगभग सब ने यही बताया कि गाँव के ऊंची जाति के लोग दलित परिवार की तरक्की से ईर्ष्या रखते थे और उनको नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे. ज़ाहिर है यह कोई मामूली अपराध नहीं है . यह किसी बहुत बड़े सामाजिक रोग का पहला लक्षण है . अगर कोई दलित परिवार अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित महाराष्ट्र में इसलिए मार डाला जा रहा है कि उसके सदस्यों ने तरक्की कर ली है , तो बाकी देश का क्या हाल होने वाला है . जिस समाज में दूसरे की तरक्की को देख कर लोग इतना गुस्सा हो जाएँ कि उसे मार डालें , उस समाज में निश्चित रूप से बहुत बड़े पैमाने पर सडन आ चुकी है .इस तरह की मनोवृत्ति को भावी पीढ़ियों की विरासत के रूप में नहीं छोड़ा जा सकता .इसे ख़त्म करना होगा. आदर्श स्थिति तो यह होती कि जाति और उस से जुड़े अपराधों के खिलाफ राजनीतिक चेतना का विकास किया जाता और उसी चेतना के इर्दगिर्द कोई आन्दोलन खड़ा किया जाता लेकिन आज के माहौल में यह संभव नहीं है . राजनीतिक आचरण का पूरी तरह से पतन हो चुका है . आज राजनीति शुद्ध रूप से सत्ता हथियाने का एक साधन बन गयी है .किसी भी समाज के विकास और परिवर्तन के लिए मध्यवर्ग सबसे बड़ी भूमिका निभाता है . आमतौर पर सत्ता परिवर्तन में तो मध्य वर्ग की भूमिका नज़र आती है लेकिन सामाजिक बदलाव में वह उतनी कारगर नहीं होती. कोई फुले, कोई मार्ज़ , कोई गांधी , कोई आम्बेडकर बीज रूप में परिवर्तन के मन्त्र छोड़ जाता है . बाद की पीढियां उस पर काम करती हैं और सामजिक क्रान्ति की शुरुआती चाल भर ली जाती है . लेकिन जाति के विनाश के बारे में अपने महापुरुषों की स्पष्ट हिदायत के बाद भी कोई अहम बदलाव नहीं हो रहा है . यह दुर्भाग्य है . इस पर काबू पाए जाने की ज़रुरत है .. मध्यवर्ग की तैयारी ऐसी नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन की उम्मीद भी बांधी जा सके .ऐसी हालत में जो जागरूक राजनीतिक वर्ग है उस से उम्मीद की जानी चाहिए . लेकिन जिस तरह से राजनीतिक नेताओं ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में खाप पंचायतों के सामने घुटने टेके हैं , इनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. खैरलांजी में भी साफ़ नज़र आ रहा है कि दलितों का क़त्ले-आम करने वालों को राजनीतिक वर्ग बचाने में जुटा हुआ है . भ्रष्ट और बेईमान राजनेताओं से और कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए. ऐसी हालत में समाज में बराबरी का माहौल बनाने में सबसे ज्यादा भरोसा न्यायपालिका पर ही किया जाता है लेकिन नागपुर के हाई कोर्ट का जो फैसला आया है वह निराश करता है . अगर सर्वोच्च न्यायालय ने जिला आदालत के फैसले को बहाल न किया तो एक ऐसा माहौल बनेगा जिसमें दलितों पर अत्याचार बढेगा . उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट से जो फैसला आएगा वह भविष्य में दलितों के दुश्मनों में कानून की इज़्ज़त करने की प्रेरणा देगा.