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Tuesday, July 27, 2010

घुघूती बासूती जिंदाबाद ,मेरी बेटी जिंदाबाद

यह पोस्ट मैंने घुघूती घोघूती बासूती के ब्लॉग से उठाया है . लगता है कि मेरी ही बेटियों का ज़िक्र है . आप दोनों को ज़िंदगी का हर दिन मुबारक

शेष नारायण सिंह



सोमवार, जुलाई 26, 2010
जब तुम होगे साठ साल के............. घुघूती बासूती

७० के दशक का एक गीत होता था... 'जब हम होंगे साठ साल के और तुम होगी पचपन की!' उस ही गीत की कुछ आगे की पंक्तियाँ थीं.. 'जब तुम होगे साठ साल के और मैं होंगी पचपन की।' कल का सारा दिन यह गीत गुनगुनाते बीता। कल मैं पचपन की हो गई। घुघूत तो कुछ महीने पहले ही साठ के हो चुके हैं। ३७ साल पहले मैंने अपना अठारहवाँ जन्मदिन उनके साथ मनाया था। कल पचपनवाँ मनाया। इस बीच ३७ जन्मदिन बहुधा साथ तो कभी कभार अकेले मनाए। बचपन से तो नहीं, हाँ, मेरी किशोरावस्था से हमारा साथ है।

कल का दिन बहुत बढ़िया था। मौसम तो गजब का था ही। परसों रात बारह बजे से ही बेटियाँ जन्मदिन की शुभकामनाएँ दे रहीं थीं। कल दिन भर बीच बीच में उनसे बात होती रही। बड़ी बिटिया कुछ दिन के लिए विदेश में है फिर भी बहुत लम्बी नहीं तो भी बातें तो हुईं ही। छोटी बेटी और मैं तो बार बार बातें कर ही रहे थे। जँवाइयों ने भी बात की।
कल कितने ही मित्रों व सहेलियों ने याद किया। भान्जी व भतीजी ने फोन किया। भाई भाभी ने याद किया। माँ से बात करवाई। माँ को अब याद नहीं रहता। भाई को उन्हें बताना पड़ा कि जन्मदिन है। मैं भी तो अभी से भूलने लगी हूँ। क्या कभी मैं भी अपनी जन्मी बेटियों का जन्मदिन भूल जाऊँगी?

बेटियों ने सरप्राइज की योजना बनाई थी। जब मेरे हाथ में तरह तरह के ऑर्किड्स के दो गुलदस्ते आए तो लगा जैसे दोनों बेटियाँ ही मेरे गले लग रही होएँ। छोटी बिटिया ने कहा कि उसे पता है कि मुझे ऑर्किड्स कितने पसन्द हैं। साथ में मेरी पसन्द का डार्क चॉकलेट केक व मेवों का डब्बा था।

मैं गुलदस्तों से दूर नहीं हो पाती हूँ। तरह तरह से उनके फोटो लेती हूँ। यह काम मेरे लिए बहुत कठिन है क्योंकि हाथ हिल जाता है। अभी जब कम्प्यूटर वाले कमरे में हूँ तो इन्हें भी अपने साथ ले आई हूँ।

लगता है कि वे दोनों मेरे आस पास हैं। याद आता है अपना पैंतिसवाँ जन्मदिन, जब निश्चय किया कि कुछ नहीं बनाऊँगी। बेटियों ने कहा कि नहीं, वे केक बनाएँगी। नन्हें हाथों ने मुझसे पूछ पूछकर बहुत बड़ा सा केक बनाया। परन्तु शाम को जब पूरी की पूरी मित्र मंडली परिवार सहित अपने उस वनवास वाली बस्ती में जहाँ झट से कुछ भी खरीदा नहीं जा सकता था, जन्मदिन की बधाई देने पहुँची तो केक खिलाते हुए मन बेटियों की सूझबूझ, समझदारी व जिद के आगे नतमस्तक हो गया।

सोचती हूँ कि बिटिया को मेरी पसन्द का कितना ध्यान रहता है। कब बेटी 'दी' हो जाती है, कब माँ! सहेली व सलाहकार तो वह सदा ही होती है।

दोनों गुलदस्ते बहुत सुन्दर हैं। एक में तीन तरह के ऑर्किड्स हैं व एक में एक ही किस्म के। तीन तरह वाले में एक प्रकार का तो लाल रंग का एन्थुरियम है। तीन बत्तख की चोंच जैसे हैं, हाँ उनके कलगी और लगी हुई है।

मन विह्वल हो रहा है। कभी 'दी' यूँ ही मेरी पसन्द का ध्यान रखती थी। ३७ साल पहले वाले अठारहवें जन्मदिन पर भी तो उसने अपनी रिसर्च के लिए किए लखनऊ प्रवास से मेरे लिए लाई साड़ी पर फॉल लगाया था, ब्लाउज, पेटीकोट सिला था ! उसे भी सदा मेरे लिए चॉकलेट व मेवों की याद रहती थी। 'दी' होती तो वह भी तो एक सप्ताह पहले ही साठ की हुई होती। २५ साल बीत गए हैं 'दी' किन्तु हर सुख व दुख में तुम साथ रहती हो। साथ तो ४२ साल पहले साथ छोड़ने वाली 'बड़ी दी' भी रहती हैं। परन्तु मेरी प्रेम कथा में 'दी' तुम भी तो किस तरह से गुँथी हुई हो!

ये तीनों बत्तख जैसे(हैलिकोनिया का कोई प्रकार? नहीं, नहीं, ये तो बर्ड्स औफ़ पैरेडाइज़ हैं! परन्तु हैं शायद हैलिकोनिया परिवार के ही! ) ऑर्किड्स जो हैं न वे हम तीनों हैं। जो पहले मुरझा जाएगा वह 'बड़ी दी' जो उसके बाद वह 'दी' तुम और जो सबसे अन्त में वह मैं!

प्रेम के कितने ही तो रूप हैं। सब सुन्दर हैं। प्रेमियों का प्रणय, पति पत्नी का उससे भी कुछ आगे निकला हुआ प्रेम जिसमें प्रणय भी है, मित्रों का स्नेह भी, माँ की ममता भी, वात्सल्य भी, करुणा भी है, पिता का वरद हस्त भी। माता पिता का अपने बच्चों के लिए प्रेम, वात्सल्य, ममता तो हर माता पिता जानता है। बच्चा जन्मा नहीं कि औसीटॉसिन इस भावना की बाढ़ भी अपने साथ ले आता है। माता पिता के लिए प्रेम किन्हीं हॉर्मोन्स के कारण नहीं अपने बचपन की मधुर यादों के कारण होता है। बहनों का स्नेह तो बेजोड़ होता ही है, एकदम अलग, अद्वितीय। भाई बहन का एक अलग किस्म का अदृष्य पतली डोरियों से खींचता स्नेह। भाभी में बहन ढूँढता स्नेह। सहेलियों का स्नेह तो कोई सहेली ही समझ सकती हैं। मित्र से अपनत्व की बँधी वह डोर जिसका कौनसा सिरा कब किसके हाथ में होता हैं समझ ही नहीं आता। डोर है यह भी तभी महसूस होता है जब जरा सा दूर जाएँ और डोर खिंचने लगती है। वह ऑल्टर ईगो वाला आभास!

यह प्रेम है तो जीवन है, जन्म है, ऐसी मृत्यु है जिसे कोई बार बार फिर से जीता है। अन्यथा क्या जिए और क्या मरे? यह न हो तो क्या है? (यह सब तब हैं जब प्रेम के बीच कोई लालच, स्वार्थ ना आ जाएँ।)

ऐसे में जब भी प्रेमी शब्द सुन कोई अभागा भड़क उठता है तो सोचती हूँ कि उन्होंने प्रेम का ऐसा कौन सा विभत्स रूप देख लिया होगा कि किसी के भी ब्लॉग में प्रेम विवाह, प्रेमी शब्द सुन उन जैसा प्रायः नरम दिल मनुष्य यूँ क्यों भड़कता है कि हर प्रेमी के गाल पर उनके थप्पड़ का अहसास ही नहीं होता अपितु लगता है कि प्रेम शब्द ही गाली हो। हृदय में कुछ चटख जाता है। एक बार विषाक्त भोजन खाने पर हम भोजन करना नहीं छोड़ देते, हाथ जलने पर पका खाना नहीं खाना छोड़ देते तो प्रेम जैसे भाव को उससे लुटने पिटने पर भी क्या यूँ ही छोड़ा जा सकता है? यदि हमने किसी हत्यारे प्रेमी को भी देखा हो तो प्रेम करना क्यों छोड़ेंगे या प्रेमियों से घृणा क्यों करेंगे? क्या किसी हत्यारे डॉक्टर, वकील, चित्रकार, ड्राइवर, अध्यापक को देखने के बाद इलाज, वकालत, कार, अध्ययन से तौबा कर लेते हैं? फिर प्रेम से ऐसी घृणा क्यों?

यह सब तो पचपन वर्ष का सार है। जीवन के अन्तिम जन्मदिन पर क्या सोच रही होऊँगी पता नहीं। बस, प्रेम से घृणा न कर रही होऊँ तो भी धन्य हो जाऊँगी। अभी तो प्रेम, तुझे सलाम।

घुघूती बासूती