Thursday, November 25, 2010

बिहार में नीतीश की जीत वंशवादी राजनीति के अंत की शुरुआत है

शेष नारायण सिंह

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा के लिए हुए चुनाव नतीजे आ जाने के बाद ऐलान किया कि यह जीत बिहार की जनता की है . यह अलग बात है कि उनके साथ चुनाव लड़ने वाली बीजेपी इसे अपनी जीत मान रही है . और एन डी ए की नीतियों का डंका पीट रही है लेकिन सच्चाई नीतीश कुमार के बयान से साफ़ नज़र आ रही है . राजनीति के जानकार कहते हैं कि यह जीत न तो जे डी यू की है और न ही एन डी ए की , यह साफ़तौर पर नीतीश कुमार की जीत है . उनके साथ जो भी खड़ा था वह जीत गया .चाहे वह बीजेपी जैसी पार्टी ही क्यों न हो . एक और सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए . वह यह कि खुद नीतीश कुमार को भी नहीं अंदाज़ था कि बिहार की जनता उनके साथ इतने बड़े पैमाने पर जुड़ चुकी है . अगर ऐसा होता तो इस बात की पूरी संभावना है कि बीजेपी से ऊब चुके नीतीश कुमार चुनाव के पहले अकेले ही जाने का फैसला कर लेते और दिल्ली से ले कर पटना तक नीतीश की जीत को अपनी जीत बता रही बीजेपी भी उसी हस्र को पंहुच गयी होती जिसको, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान और कांग्रेस के लोग पंहुचे हैं . बिहार के चुनावों में पासवान की तरफ से प्रेस मैनेज कर रहे एक श्रीमानजी से जब पूछा गया था कि क्या राम विलास जी की पार्टी को कुछ सम्मानजनक सीटें मिल जायेगीं ,तो उन्होंने लगभग नाराज़ होते हुए कह दिया था कि २४ नवम्बर को गिनती के बाद देखिएगा, लालू जी के साथ मिलकर पासवान जी सरकार बनायेगें . उसी तरह , लालू भी मुगालते में थे. शायद इसीलिये उन्होंने नतीजों को विस्मयकारी बताया . कांग्रेस के लोग भी राहुल गाँधी की सभाओं में आ रहे लोगों की संख्या को वास्तविक मान रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि इस बार कांग्रेस की किस्मत सुधरेगी. लेकिन नतीजे आने के बाद बिलकुल साफ़ हो गया है कि सब लोग मुगालते में थे . किसी को भनक भी नहीं थी कि जनता क्या फैसला करने वाली है. जनता ने फैसला सुना दिया है और उसने नीतीश कुमार की हर बात का विश्वास किया है .फैसला इस बात का ऐलान है कि बिहार के लोग नीतीश के साथ हैं .

अपनी आदत के मुताबिक नीतीश कुमार ने जनता के फैसले को सिर झुका कर स्वीकार किया है और साफ़ कहा है कि उनके पास जादू की कोई छडी नहीं है जिसको घुमा कर वे हालात को तुरंत बदल दें लेकिन लोगों के लिए काम करने की इच्छाशक्ति है . यही बात सबसे अहम है . किसी के पास जादू की छडी नहीं होती लेकिन कुछ लोग बातें बड़ी बड़ी करते हैं . मौजूदा बिहार का सौभाग्य है कि वहां आज के युग में नीतीश कुमार जैसा व्यक्ति मौजूद है लेकिन राज्य की बदकिसमती यह है कि उसके नेताओं में नीतीश कुमार के अलावा ज़्यादातर ऐसे हैं जो बातें बड़ी बड़ी कर रहे हैं . लालू प्रसाद ने जिस तरह से चुनावी नतीजों पर प्रतिक्रिया दी है वह निराशाजनक है , बीजेपी ने जिस तरह से जीत का दावा करना शुरू किया है वह भी बहुत ही अजीब है . यह किसी पार्टी की जीत नहीं है ,यह शुद्ध रूप से नीतीश कुमार की जीत है . और यह अंतिम सत्य है .

बिहार विधान सभा के लिए हुए २०१० के चुनावों के भारतीय राजनीति में बहुत सारी पुरानी मान्यताओं के खँडहर ढह जायेगें . सबसे बड़ा किला तो जातिवाद का ढह गया है . लालू प्रसाद और राम विलास पासवान ने तय कर लिया था उनकी अपनी जातियों के वोट के साथ जब मुसलमानों का वोट मिला दिया जाएगा तो बिहार में एक अजेय गठबंधन बन जाएगा . लेकिन ऐसा कहीं कुछ नहीं हुआ . उनके अपने सबसे प्रिय लोग चुनाव हार गए. राम विलास पासवान के दो भाई चुनाव हार गए . लालू प्रसाद की पत्नी दो सीटों से चुनाव हार गयीं . जाति के गणित के हिसाब से बहुत ही भरोसेमंद सीटों पर चुनाव लड़ रहे इन लोगों की हार जहां जाति के किले को नेस्तनाबूद करती है , वहीं राजनीति में घुस चुके परिवारबाद के सांप को भी पूरी तरह से कुचल देने की शुरुआत कर चुकी है . पूरे देश में और लगभग हर पार्टी में परिवारवाद का ज़हर फैल चुका है . इस चुनाव ने यह साफ़ संकेत दे दिया है कि अपने परिवार के बाहर देखना लोकतांत्रिक राजनीति का ज़रूरी हिस्सा है और बाकी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को भी अपने परिवार के बाहर टैलेंट तलाशने की कोशिश करनी चाहिए . यह चुनाव साम्प्रदायिक ताक़तों की भी हार है .अपने देश में साम्प्रदायिक वहशत के पर्याय बन चुके , नरेंद्र मोदी को जिस तरह से नीतीश कुमार ने बिहार आने से रोका , वह सेकुलर जमातों को अच्छा लगा और इन चुनावों में सेकुलर बिरादरी को महसूस हो गया कि सत्ता की राजनीति के मजबूरी में भले ही नीतीश कुमार बीजेपी को ढो रहे हैं लेकिन मूल रूप से वे बीजेपी-आर एस एस की साम्प्रदायिक राजनीति के पक्षधर नहीं हैं . शायद इसी समझ का नतीजा है कि इस बार मुसलमानों ने बड़ी संख्या नीतीश कुमार की बात का विश्वास किया और उनके उम्मीदवारों को जिताया . बिहार के विधानसभा चुनावों के बाद एक और ज़बरदस्त सन्देश आया है . इस बार अवाम ने गुंडों को नकार दिया है .हाँ ,एकाध गुंडे जो नीतीश कुमार के साथ थे वे जीत गए हैं .लेकिन नीतीश कुमार के पिछले पांच साल के गुंडा विनाश के प्रोजेक्ट को जिन लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है अब हुकूमत में गुंडों का दखल बहुत कम हो जाएगा . नीतीश कुमार के सत्ता में आने के पहले के पंद्रह वर्षों में जिस तरह से बिहार में गुंडा राज कायम हुआ था और अपहरण एक उद्योग की शक्ल अख्तियार कर चुका था, उसके हवाले से देखने पर साफ़ समझ में आ जाएगा कि गुंडा लालू प्रसाद के परिवार के राज में प्रशासन का स्थायी हिस्सा बन चुका था. पिछले पांच वर्षों में नीतीश ने उसे बहुत कमज़ोर कर दिया .जिसकी वजह से ही इस बार बड़े बड़े गुंडे और उनेक घर वाले चुनाव हार गए हैं. बिहार में नीतीश के राज में गुंडों का आतंक घटा है .

बीजेपी वाले नीतीश की जीत को गुजरात में नरेंद्र मोदी की जीत के सांचे में रखकर देखने के चक्कर में हैं .कई नेता यह कहते पाए जा रहे हैं कि कि एन डी ए का नारा विकास है और वे लोग नीतीश कुमार को भी अपने बन्दे के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं . लेकिन बात इतनी आसान नहीं है . एक तो तथाकथित एन डी ए का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है. गुजरात में भी नहीं . वहां शुद्ध रूप से मोदी के ब्रैंड की राजनीति चल रही है जिसका लक्ष्य हिन्दूराज कायम करना है . २००२ में शुरू करके पिछले गुजरात विधान सभा चुनाओं तक गुजरात के मुसलमानों में मोदी ने इतना आतंक फैला दिया था कि मुसलमान वहां दहशत में है और कई इलाकों में तो वह दर के मारे नरेंद्र मोदी के उम्मीदवारों को वोट भी दे रहा है . गुजरात में मुसलमान अब दबा कुचला वर्ग है और कोई भी राजनीतिक जमात उसके लिए किसी तरह की कोई लड़ाई लड़ सकने की स्थिति में नहीं है . इसके साथ साथ मोदी ने राज्य के औद्योगिक विकास को सरकारी तौर पर प्राथमिकता की सूची में डाल दिया है जिस से साम्प्रदायिक हो चुके समाज को संतुष्ट किया जा रहा है . गुजरात में भी बीजेपी या एन डी ए का कुछ नहीं है , वह नरेंद्र मोदी छाप राजनीति है जो मोदी को सरकार में बनाए हुए है . अपने आप को लूप में रखने के चक्कर में बीजेपी गुजरात से बिहार की तुलना करने की जो जल्दबाजी कर रही है ,उस से बचने की ज़रूरत है . बिहार में नीतीश की जो जीत है उसका गुजरात से कोई लेना देना नहीं है . हाँ अगर कोई बात तलाशी जा सकती है तो वह यह है कि बिहार में नरेंद्र मोदी को फटकार दिया गया था और नरेंद्र मोदी को डांट डपट कर नीतीश ने बिहार में एक बड़े वर्ग को अपने साथ कर लिया था .

बिहार ने एक बार फिर देश की राजनीति को दिशा दी है . इस बार वहां न तो जातिवाद चला और न ही परिवारवाद . अपने असफल बच्चों को राजनीति में उतारने की नेताओं की कोशिश को भी ज़बरदस्त झटका लगा है . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी राज्यों में भी जातिवाद और परिवारवाद को इसी तरह का झटका लगेगा. इस बार एक और दिलचस्प बात हुई है . बीजेपी के बावजूद मुसलमानों ने नीतीश कुमार का विश्वास किया और लालू प्रसाद के मुसलमानों के रहनुमा बनने के मुगालते को ठीक किया. बाबरी मस्जिद के फैसले के बाद कांग्रेस से दूर खिंच रहे मुसलमान ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर नीयत में ईमानदारी नहीं है तो वह बीजेपी के साथी नीतीश को तो वोट दे सकता है लेकिन अंदर ही अन्दर की दगाबाजी उसे बर्दाश्त नहीं है

Wednesday, November 24, 2010

*टेलीविज़न की खबरें - कहीं पे हकीकत, कहीं पे निशाना*

धर्मेश शुक्ल

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के बाद एशिया का कूटनीतिक
माहौल बदलना तय है। नए समीकरण उभरेगें और शक्ति का संतुलन बदलेगा। अमरीका
की इस इलाके में बढ़ती ताक़त को बैलेंस करने के लिए चीन ने भी अमरीका
विरोधियों का एक खेमा तैयार करना शुरू कर दिया है। म्यांमार और इरान के
प्रति अमरीकी चिढ का उल्लेख कर के ओबामा ने साफ़ संकेत दे दिया है।
वे भारत की तरफ दोस्ती का जो हाथ बढ़ा रहे हैं उसमें बहुत सारी शर्तें
नत्थी हैं ।अपने देश का सौभाग्य है कि यहाँ प्रिंट मीडिया में कुछ बहुत
ही समझदार किस्म के पत्रकार नौकरी कर रहे हैं। जिसकी वजह से घटना के अगले
दिन सही खबर का पता चलता रहा। वरना टेलिविज़न की ख़बरों वाले तो सच्चाई
को इतनी मुहब्बत से और बिलकुल अपने दिल की बात समझ कर पेशकर रहे थे कि
लगता था सब उल्टा पुल्टा हो रहा था। लेकिन जब अगले दिन अखबारों में खबरें
पढी जाती थीं तो सारी बात सही सन्दर्भ में पता लग जाती थी। टेलिविज़न
वालों की एक अच्छाई को मानना पडेगा कि जब अखबार पढ़कर उन्हें भी सच्चाई
का पता चलता था तो वे भी बिना किसी संकोच के अखबार में छपी खबर को सच
मानकर नयी बात कहने लगते थे। एक दिन पहले की अपनी ही खबर को गलत बताते
टेलिविज़न वालों की छटा अवर्णनीय होती थी।

सबसे मजेदार बात वह थी जब मुंबई में एक दिन की यात्रा पूरी होने के बाद
टी वी वालों ने कहना शुरू कर दिया कि ओबामा ने भारत की उम्मीदों पर पानी
फेर दिया ,काम की कोई बात नहीं की। जब उन्हें बताया गया कि अभी तो
राजनीतिक यात्रा शुरू होने वाली है ,तब तक इंतज़ार कर लेते। तो सब ने कुछ
और राग अलापना शुरू कर दिया. पाकिस्तान और सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट
को कुछ इस तरह से प्रचारित किया गया कि लगने लगा कि सब कुछ इन्हीं दो
मूद्दों पर आधारित था। दिल्ली में जब राष्ट्रपति ओबामा ने पाकिस्तान और
सुरक्षा परिषद् दोनों की बात कर दी तो भाई लोग खुश हो गए और जय जय कार
करने लगे। वह तो जब लगभग हर चैनल पर अवकाश प्राप्त राजनयिकों ने सच्चाई
को सही सन्दर्भ में रखा तब जा कर के टी वी पत्रकारिता के महान विचारकों
ने कुछ समझदारी की बात करना शुरू किया. अब सब कुछ ठीक है। ओबामा जा चुके
हैं और सारी बात अखबारों में छप चुकी है। टी वी वालों को भी सब कुछ पता
चल चुका है। लेकिन एक विचार मन में बार बार आता है कि ओबामा से यह
निवेदन किया जाना चाहिए था कि हमारे टी वी पत्रकारों को भी अपने टी वी
वालों की तरह बनाने की ट्रेनिंग दिलवाने का कोई प्रस्ताव रख देते।

ओबामा की भारत यात्रा के कूटनीतिक घटना थी। कूटनीति का पहला सिद्धांत है
कि वह अपने राष्ट्रीय हित को ध्यान में रख कर संचालित की जाती है। ओबामा
ने भी वही किया उनके दिमाग में अमरीकी राष्ट्रीय हित था। जब उन्होंने
मुंबई में करीब दस अरब डालर के अमरीकी निर्यात की बात को पुख्ता किया तो
उनके मन में सौ फीसदी अमरीकी हित काम कर रहा था। दिल्ली आ कर उन्होंने
पाकिस्तान और सुरक्षा परिषद् की बात भी कर दी। यहाँ भी वे शुद्ध रूप से
अमरीकी राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर काम कर रहे थे। हाँ इस बात में दो
राय नहीं हो सकती कि अमरीकी राष्ट्रपति ने भारत की चार दिन की यात्रा
करके और उसके नेताओं के कान में संगीत का असर देने वाली बातें कह कर
माहौल को बहुत ही खुशनुमा बना दिया। भारत में मीडिया और राजनीतिक नेताओं
का एक वर्ग है जो पाकिस्तान का नाम लेकर अपने आपको जिंदा रख रहा है लेकिन
सच्चाई यह है कि पाकिस्तान एक गरीब मुल्क है और अब भारत की विकास यात्रा
में उसका कोई महत्व नहीं है। पाकिस्तान अब अमरीका का भी मित्र नहीं है।
वह अब अमरीका के ठेकेदार के रूप में काम कर रहा है . अमरीका ने उसकी फौज
को ठेका दिया है कि वह पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अमरीकी हितों की
रक्षा करे. इसके लिए उसे बाकायदा मजदूरी दी जा रही है। अमरीका से उसका
बराबरी के धरातल पर कोई सम्बन्ध नहीं है। जबकि भारत के साथ अमरीका को अलग
तरह से सम्बन्ध रखना पड़ रहा है। भारत को अब अमरीका एक पूंजीवादी देश के
रूप में अपना मित्र मानता है।

अमरीका की कोशिश है कि भारत में समाजवाद शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल
करवाया जाय। उसके लिए हालांकि काम शुरू से ही चल रहा था लेकिन १९९१ में
जब पी वी नरसिम्हाराव की सरकार आई तो अमरीका ने उस दिशा में ज़बरदस्त दखल
दिया। वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के
किसी भी पैरोकार के सपनों की ताबीर के रूप में देखे जा सकते हैं। जब
वित्त मंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने काम संभाला था तो अपने
छात्रों की एक बड़ी टीम को महत्वपूर्ण जगहों पर स्थापित कर दिया था।
उनके प्रधान मंत्री बन जाने के बाद तो सब कुछ पूंजीवादी तरीके से चल
निकला। निजी जीवन में बहुत ही ईमानदार प्रधान मंत्री ने मुल्क पर ऐसी
अर्थव्यवस्था को लागू कर दिया जो मूल रूप से आम आदमी के विरोध में ही काम
करती है।

आज भारत पूरी तरह से अमरीकी डिजाइन का पूंजीवादी देश है और अमरीकी
राष्ट्रपति ऐसे देशों का आक़ा होता है। ओबामा की यात्रा को इस सन्दर्भ
में देखा जाय तो बात सही समझ में आ जाती है। पाकिस्तान संघी राजनीति की
जीवनदायिनी शक्ति है इसलिए दक्षिण पंथी मीडिया ख़बरों के डोमेन से
पाकिस्तान को मरने नहीं देगा . और सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट के लिए
सभी पार्टियां बराबर की मशक्क़त कर रही थीं क्योंकि इस तरह की सजावटी
बातों की वजह से ही जनता का ध्यान गरीबी और अन्य ज़रूरी मुद्दों से
हटाया जा सकता है। इस तरह साफ़ नज़र आता है कि अमरीकी राष्ट्रपति की भारत
यात्रा के नतीजों के अन्दर बहुत सारी अंतर्कथाएँ हैं। जो भी हो अब
पूंजीवादी राजनीतिक का अनुयायी , भारत सही अर्थों में अमरीका का मित्र
है और वह एशिया में अपने दुशमनों के खिलाफ भारत का इस्तेमाल करना चाहता
है। उसके लिए जो भी ज़रूरी होगा अमरीकी हुकूमत करेगी।

Saturday, November 20, 2010

अमरीका से दोस्ती करने के पहले इतिहास पर भी नज़र डालना ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

( यह लेख दैनिक जागरण में २०-११-२०१० को छप चुका है )

आजकल अमरीका से भारत के रिश्ते सुधारने की कोशिश चल रही है. लेकिन ज़रूरी यह है कि इस बात की जानकारी रखी जाय कि अमरीका कभी भी भारत के बुरे वक़्त में काम नहीं आया है . अमरीका की जे एफ के लाइब्रेरी में नेहरू-केनेडी पत्रव्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत के वक़्त कोई मदद नहीं की थी. भारत के ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की राजनीति में भारत का अमरीकी हित में इस्तेमाल करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे . यह अलग बात है कि भारत के सत्ता प्रतिष्टान में ऐसे लोगों का एक वर्ग हमेशा से ही सक्रिय रहा है जो अमरीका की शरण में जाने के लिए व्याकुल रहा करता था. लेकिन केंद्र में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार आने के पहले तक इस वर्ग की कुछ चल नहीं पायी. नरसिम्हा राव की सरकार आने के बाद हालात बदल गए थे. सोवियत रूस का विघटन हो चुका था और अमरीका अकेला सुपरपावर रह गया . ऐसी स्थिति में भारतीय राजनीति और नौकरशाही में जमी हुई अमरीकी लॉबी ने काम करना शुरू किया और भारत को अमरीकी हितों के लिए आगे बढ़ाना शुरू कर दिया . जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जसवंत सिंह विदेशमंत्री बने तो अमरीकी विदेश विभाग के लोगों से उन्होंने बिलकुल घरेलू सम्बन्ध बना लिए . डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद तो अमरीका से बिकुल घनिष्ठ सम्बन्ध बन गए हैं . एशिया में बढ़ते हुए चीन के प्रभाव को कम करना अमरीकी विदेशनीति का अहम हिस्सा है और इस मकसद को हासिल करने के लिए वह भारत का इस्तेमाल कर रहा है .हालांकि चीन को बैलेंस करना भारत के हित में भी है लेकिन यह भी ध्यान रखने की ज़रुरत है कि कहीं भारत के राष्ट्रहित को अमरीकी फायदे के लिए कुरबान न करना पड़े.

पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा की नीचा दिखाने की कोशिश की है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था . जे एफ के लाइब्रेरी में मौजूद ताज़ा पत्रों से यह साफ़ ही है कि चीन के हमले में भी अमरीका ने भारत को कमज़ोर करने की कोशिश की थी. १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल अय्यूब ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे . १९७१ की बंगलादेश की मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने पाकिस्तानी तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेडे को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था . उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीकी दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . पूर्वोत्तर भारत में जो आतंकवादी पाकिस्तान की कृपा से सक्रिय हैं , उन सबको को पाकिस्तान उसी पैसे से मदद करता है जो उसे अमरीका से अफगानिस्तान में काम करने के लिए मिलता है . ऐसी हालत में अमरीका से बहुत ज्यादा दोस्ती कायम करने के पहले मौजूदा हुक्मरान को पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डाल लेनी चाहिए . और अमरीका से दोस्ती की पींग बढाने के पहले यह जान लेना चाहिए कि जो अमरीका भारत के बुरे वक़्त में काम कभी नहीं आया . अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा जब कहते हैं कि भारत एक एक महाशक्ति है तो उसमें उनका यह मंसूबा ज़ाहिर हो जाता है कि वे भारत को अपने काम के लिए इस्तेमाल करना चाह रहे हैं .उसमें उसका अपना राष्ट्रहित है , भारत के प्रति मुहब्बत नहीं

Friday, November 19, 2010

भ्रष्टाचार का घेरा प्रधानमंत्री के मोहल्ले तक पंहुचा

शेष नारायण सिंह

डॉ मनमोहन सिंह को बीजेपी ने चारों तरफ से घेर लिया है .उन पर आरोप है कि उन्होंने २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले को शुरू में ही न रोक कर गलती की . उससे देश का करीब पौने दो लाख करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है .संसद के अंदर सरकार को घेरने में जुटी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से दस सवाल पूछकर सदन से बाहर भी उन्हें घेरने की शुरुआत कर दी है। गडकरी ने कहा है कि जब तक उन्हें इन सवालों के जवाब नहीं मिल जाते, वह संसद नहीं चलने देंगे। नितिन गडकरी के सवाल बहुत ही बुनियादी स्तर के हैं लेकिन सवाल तो हैं और मीडिया में चर्चित हो रहे हैं . २ जी स्पेक्ट्रम के घोटाले में सरकार की ज़िम्मेदारी बड़ी है और इसमें दो राय नहीं कि सरकार ने गलती की है .जो लोग गठबंधन सरकार की मजबूरी की बात कर रहे हैं , उनकी बात भी बिल्कुल गलत है. क्या किसी वैद ने बताया है कि कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार चलती ही रहनी चाहिए .तथाकथित गठबंधन धर्म का यही मतलब तो बताया जा रहा है कि सरकार चलाते रहने के लिए ए राजा की कारगुजारियों को बर्दाश्त किया गया . किसने कहा था सरकार चलाने के लिए . इसी गठबंधन धर्म का सहारा लेकर बीजेपी ने भी केंद्र और उत्तरप्रदेश में भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़े थे. अब कांग्रेस ने उनका भी रिकार्ड तोड़ दिया है .२ जी घोटाला बहुत बड़ा है .इसमें डी एम के के आला नेता का परिवार पूरी तरह डूबा हुआ लगता है . उनके परिवार के एक कार्यकर्ता के रूप में दिल्ली में ए राजा तैनात थे . उन्होंने अपने चेन्नई वाले मालिकों के हुक्म से लूटपाट की और सारा माल मालिकों तक पंहुचाया . भ्रष्टाचार के किसी भी प्रोजेक्ट में बड़े पैमाने पर पैसे का योगदान होता है . उसमें आर्थिक अपराध के मुक़दमे बनते हैं . यह देश का दुर्भाग्य है कि लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां सत्ता में रहने के बाद लूटमार करती हैं . जब एक पार्टी लूटमार कर रही होती है तो विपक्षी पार्टियां दूसरी तरफ देखने लगती हैं . और जनता का पैसा बर्बाद होता रहता है . राजनीतिक बिरादरी के स्विस बैंकों के खाते भरते रहते हैं और अपने मुल्क की आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुसीबतों का सामना करता रहता है. लेकिन जब किसी भ्रष्टाचार के मामले में राजनीतिक अवसर दिखता है तो विपक्षी पार्टियां टूट पड़ती हैं . ऐसा पहला बड़ा मौक़ा बोफर्स तोप घोटाला था . हालांकि उस घोटाले में राजीव गाँधी के शामिल होने के कोई साबूत नहीं थे लेकिन उनको एक भ्रष्ट आदमी के रूप में पेश करने में विपक्षी पार्टियां सफल हो गयीं. उनके कुछ करीबी लोग उस घोटाले में शामिल थे, उनको बचाने के चक्कर में राजीव गाँधी उलझते गए .जब १९८९ का चुनाव आया ,तो राजीव गाँधी बोफर्स के अभियुक्त के रूप में पेश किये गए और जनता की अदालत में उन्हें सज़ा सुना दी गयी. दूसरी बार विपक्ष ने सुखराम के टेलीकाम घोटाले में राजनीतिक अवसर देखा . करीब ३७ दिन तक बीजेपी ने लोकसभा का सत्र नहीं चलने दिया लेकिन सुखराम वाले केस में बीजेपी को वह फायदा नहीं हुआ जो १९८९ वाले बोफर्स केस में हुआ था. १९९६ के चुनाव में हालांकि कांग्रेस हार गयी लेकिन बीजेपी वहीं रह गयी जहां थी. शायद इसलिए कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की राजनीतिक क्षमता का पता चल चुका था , वह एक भ्रष्ट पार्टी के रूप में पहचानी जाने लगी थी . बाद में जब सुखराम को बीजेपी ने अपनी पार्टी में भर्ती कर लिया तो सबको पता चल गया कि भ्रष्टाचार के पैमाने पर बीजेपी और कांग्रेस में कोई भेद नहीं है. २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी बीजेपी को वही बोफर्स वाला चांस दिख रहा है इसलिए सीधे प्रधानमंत्री को घेरे में लिया जा रहा है . २००४ में जब कांग्रेस ने डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था तो बीजेपी के हाथ से सोनिया गाँधी पर हमला करने का एक बड़ा हथियार छिन गया था . पार्टी ने कोशिश की कि डॉ मनमोहन सिंह को एक कमज़ोर प्रधानमंत्री के रूप में पेश करके सोनिया गाँधी को घेरा जायेगा लेकिन मनमोहन सिंह बीजेपी के हर नेता से मज़बूत साबित हुए . लोकसभा में भी उन्होंने बार बार यह साबित किया कि वे बीजेपी के मीडिया पोषित नेताओं से बहुत बड़े हैं. हारकर बीजेपी ने स्वीकार किया कि डॉ मनमोहन सिंह बड़े नेता हैं और उनको भी हमले का निशाना बनाया जाना चाहिए . बीजेपी की मुश्किल यह है कि उसकी अपनी छवि एक निहायत ही भ्रष्ट राजनीतिक जमात की बन चुकी है और डॉ मनमोहन सिंह को पूरी दुनिया में एक ईमानदार राजनेता के रूप में जाना जाता है . ऐसी हालत में उन्हें भ्रष्ट साबित कर पाना कम से कम बीजेपी के लिए तो बहुत ही मुश्किल होगा . लेकिन राजनीति की अपनी शर्तें होती हैं . बीजेपी को अब मालूम है कि अगर मनमोहन सिंह को न घेरा गया तो बीजेपी का राजनीतिक भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. २ जी के पहले कामनवेल्थ के घोटाले में बीजेपी ने राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की थी लेकिन उसमें तो बीजेपी वाले कांग्रेसियों से बड़े गुनाहगार के रूप में उभर रहे हैं. अब तक जिन दो बड़े ह्तेकों का खुलासा आया है ,उसमें बीजेपी के नेताओं या उनके रिश्तेदारों के नाम प्रमुखता से आये हैं . शायद इसीलिये अब बीजेपी ने २ जी वाला मामला पकड़ा है .उसमें उनकी पार्टी के लोग तो नहीं शामिल हैं लेकिन जो उद्योगपति फंस रहे हैं वे बीजेपी वाले ही हैं .न . जो भी हो आने वाला वक़्त राजनीतिक आचरण के हिसाब से बहुत ही दिलचस्प होने वाला है

Tuesday, November 16, 2010

भ्रष्टाचार के राष्ट्रीय रिकार्ड होल्डर की विदाई

शेष नारायण सिंह

संचारमंत्री ए राजा ने आखिर इस्तीफा दे ही दिया .सी ए जी की रिपोर्ट से पता चला था कि राजा ने देश के सरकारी खजाने को खूब तबियत से लूटा है .करीब पौने दो लाख करोड़ रूपये की हेराफेरी का मामला सामने आया था. हालांकि इसमें से एक मामूली हिस्सा ही बतौर रिश्वत मिला होगा लेकिन जनता का पैसा तो इस भ्रष्ट आदमी ने डुबा ही दिया . लेकिन गठबंधन की राजनीति और उस से जुड़े हुए ब्लैकमेल की ताक़त की वजह से पिछले कई दिनों से राजा और चेन्नई में बैठे उनके पालनहार अड़े हुए थे कि राजा को मंत्रिपद से हटाया नहीं जाएगा . सरकार को समर्थन देने की कीमत वसूल रहे चेन्नई के छत्रप ने अपनी ताक़त का एहसास क़दम क़दम पर करवाया .उनके रुख से समझ में आ गया कि जी २ स्पेक्ट्रम मामले में जो लूट हुई है ,उसमें ए राजा केवल शिखंडी की भूमिका में थे . असली खेल तो चेन्नई वाले उस्ताद ने लगा रखा था. इस इस्तीफे का कोई मतलब नहीं है क्योंकि इसके बाद डी एम के की राजनीतिक ताक़त और उसकी घूस बटोर सकने की क्षमता में कोई कमी नहीं आयेगी और राजा को हटाकर जो दूसरा बंदा मंत्री बनाया जाएगा वह भी राजा की तरह से दिल्ली से चौथ वसूली करके चेन्नई भेजेगा . लेकिन राजा के इस्तीफे से संसद में विपक्ष का हमला झेल रही मनमोहन सिंह सरकार को थोडा सांस लेने का मौक़ा मिल जाएगा. यही देश का दुर्भाग्य है कि भ्रष्टाचार के मामले में लगभग पूरी तरह से डूबे हुए मंत्री को भी हटाने के लिए न तो कांग्रेस और न ही केंद्र सरकार तैयार हैं . हाँ संसद में होने वाली फजीहत से बचने के लिए उन्होंने मंत्री पद से राजा को हटा दिया . इस सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू को याद किया जाना स्वाभाविक है जिन्होंने केशव देव मालवीय जैसे मंत्री को दस हज़ार रूपये के रिश्वत के मामले में मंत्री पद से हटा दिया था . और एक आज का भारत है जहां सत्तर हज़ार करोड़ के घोटाले वाले मौज कर रहे हैं . सबसे तकलीफ की बात यह है कि आज की राजनीतिक बिरादरी में घूस को अपराध मानने का रिवाज़ की ख़त्म हो गया है . संचार मामले के घोटालों में सबसे प्रमुख नाम अब तक सुखराम का हुआ करता था . पी वी नरसिम्हा राव सरकार के संचार मंत्री के रूप में सुखराम ने भ्रष्टाचार की जो मंजिलें तय की थीं , उस से उस वक़्त की मुख्य विपक्षी पार्टी , बी जे पी को बहुत तकलीफ हुई थी और उसने संसद की कार्यवाही करीब सात हफ्ते तक नहीं चलने दिया था. विपक्ष में बी जे पी की इस भूमिका को देख कर लगा था कि बी जे पी वाले ईमानदार लोग हैं और आगे चल कर जब कभी सरकार में आयेगें तो सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार को हमेशा के लिए ख़त्म कर देगें. लेकिन इस सोच को तब भारी झटका लगा जब उन्हीं सुखराम को बी जे पी ने अपनी पार्टी में भर्ती कर लिया और एक नेता के रूप में सम्मान दिया . सुखराम के बी जे पी में भर्ती होने के बाद ही लग गया था भ्रष्टाचार के मामले में बी जे पी वाले भी कांग्रेस से कमज़ोर नहीं पड़ेगें. जब बी जे पी की अगुवायी में सरकार बनी तो इसका सबूत भी मिल गया . सरकारी कंपनी विदेश संचार निगम को बी जे पी के मंत्रियों ने कौड़ियों के मोल बेच दिया , सरकारी खजाने पर बोझ बनी एयर इंडिया के होटलों, सेंटोर को असली कीमत से नब्बे फीसदी कम दाम पर बेच दिया . और भी ऐसे बहुत सारे काम किये जिस में झूम कर भ्रष्टाचार किया गया . और हमेशा के लिए यह साबित हो गया कि जहां तक भ्रष्टाचार की बात है बी जे पी और कांग्रेस में कोई फर्क नहीं है . यह बार कामनवेल्थ खेलों में हुए घोटाले की जांच से और भी साफ़ हो जाती है . करीब सत्तर हज़ार करोड़ के सरकारी धन के खर्च में हेराफेरी का पता चला तो सबसे पहले जो आर्थिक अपराधी पकड़ में आया वह बी जे पी का ही बड़ा नेता निकला . बताते हैं कि बी जे पी में भी वह पार्टी के अध्यक्ष के गुट का खास आदमी है . ऐसी हालत में जब दोनों ही बड़ी राजनीतिक पार्टियां घूस की संस्कृति में आकंठ डूबी हुई हैं तो राजनीतिक सिस्टम से किसी सुधार की उम्मीद करना ज्यादती होगी. बी जे पी के भ्रष्टाचार की बातें इस लिए भी चिंता में डालती हैं कि जिस सरकारी नीति का पालन करके ए राजा ने लूट मचाई थी उसको अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान ही बनाया गया था .यानी अगर दुबारा बी जे पी की सरकार में आती तो जो काम ए राजा ने किया वह एन डी ए के किसी घटक दल के मंत्री ने किया होता . ठीक उसी तरह जैसे इन लोगों ने विदेश संचार निगम को बेचा था या और भी बहुत सारे घपले किये थे . ऐसी हालत में शासक वर्गों की पार्टियों से घूस के खिलाफ आचरण की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए . इनकी देशभक्ति की भावना भी आर्थिक लाभ के लिए होती है . घूसखोरी पर लगाम तभी लगेगा जब इस देश की जनता जागरूक होगी और नेताओं से सीधे जवाब मांगेगी

Sunday, November 14, 2010

सुदर्शन से पल्ला नहीं झाड़ सकते आर एस एस के नेता

शेष नारायण सिंह

बी जे पी से अलग होकर राजनीतिक लड़ाई लड़ने की आर एस एस की कोशिश को ज़बरदस्त धक्का लगा है . बड़े जोर शोर से जुटने के बाद आर एस एस के धरनों पर इतने आदमी भी नहीं जुट पाए कि पुलिस को कोई अलग से बंदोबस्त करना पड़े. नतीजा साफ़ है . आर एस एस के नेता बौखला गए हैं . इसी बौखलाहट में बेचारे उल जलूल बयान दे रहे हैं . आर एस एस के पूर्व मुखिया सुदर्शन ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के खिलाफ बहुत ही अमर्यादित टिप्पणी कर डाली. उन्हें सी आई से एजेंट कहा और आरोप लगाया कि इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की ह्त्या में भी सोनिया गाँधी का हाथ था. ऊपरी तौर पर देखें तो यह किसी पागल का बयान लगता है लेकिन ऐसा है नहीं .जो व्यक्ति देश के सबसे बड़े आतंकवादी संगठन का मुखिया रह चुका हो,तत्कालीन प्रधान मंत्री और गृह मंत्री जिस के हुक्म से काम करते हों, प्रेस के सामने दिए गए उसके बयान को पागल का बयान कहना ठीक नहीं है . यह बयान आर एस एस के धरने पर बैठे लोगों के बीच में दिन भर वक़्त बिताने के बाद ही सुदर्शन ने दिया है . वह पूरे होशो हवास में दिया गया बयान है.ऐसे राज्य की राजधानी के मुख्य धरना स्थल से दिया गया है जहां आर एस एस की सरकार है .ऐसी हालत में इस बयान को सुदर्शन का अपना दृष्टिकोण यह कहकर टालना संभव नहीं है . हालांकि आर एस एस के आला नेतृत्व ने कोशिश शुरू कर दी है कि सुदर्शन से किनारा कर लिया जाय. उनके बयान को नकार कर के जान बचाई जाय. आर एस एस के प्रभाव वाले मीडियाकर्मी सक्रिय हो गए हैं और प्रचार किया जा रहा है कि सुदर्शन वास्तव में थोडा खिसक गए हैं . इसीलिए आर एस एस की परंपरा से हटकर उन्हें पद से बर्खास्त किया गया था. आर एस एस का नेतृत्व उनको एक गैरजिम्मेदार आदमी के रूप में पेश करके सोनिया के बारे में दिए गए उनके बयान से पल्ला झाड़ने की कोशिश में है . लेकिन लगता है कि यह संभव नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस वाले भी अपनी सर्वोच्च नेता की शान में की गयी गुस्ताखी को राजनीतिक रंग देकर आर एस एस को उसकी औकात बताने की राजनीति पर उतर आये हैं. तोड़ फोड़ और सडकों पर तूफ़ान मचाने में कांग्रेसी भी आर एस एस वालों से कम नहीं होते. बस उनको मौक़ा मिलना चाहिए . और लगता है कि पार्टी के प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने यह मौक़ा दे दिया है . उन्होंने जब सुदर्शन की टिप्पणी पर उसकी थुक्का फजीहत करने के लिए पत्रकारों से बात की तो तर्ज लगभग वहीं था जो इंदिरा जी की हत्या के बाद राजीव गाँधी के बयान में था . जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं को आर एस एस के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर करते वक़्त शान्ति बनाए रखनी चाहिए . साधारण राजनीतिक आचरण की भाषा में इसका अनुवाद करने पर पता चलेगा कि यह मार पीट करने का संकेत है. इसका भावार्थ यह हुआ कि आने वाले कुछ दिनों में कांग्रेसी नौजवान आर एस एस वालों को अपने हमलों का निशाना बनायेगें. अपने को ज़्यादा वफादार साबित करने की कोशिश में कांग्रेसी नेता सक्रिय हो गए हैं .कोई सुदर्शन के खिलाफ आपराधिक मामला चलाने की बात कर रहा है तो कोई उन्हें पागलखाने भेजने की बात कह रहा है . अजीब बात है कि आर एस एस और बी जे पी वाले भी लगभग यही कह रहे हैं . आर एस एस के मुख्यालय से बयान आया है कि सुदर्शन ने जो कहा है वह उनकी अपनी बात है, संघ का उस बयान से कुछ लेना देना नहीं है. यही बात बी जे पी के नेता भी कह रहे हैं. यानी उनके दिमागी संतुलन को मुद्दा बना कर संघी बिरादरी अपने आपको उनसे अलग करना चाहती है .
आर एस एस को जानने वाले जानते हैं कि सुदर्शन का बयान हवा में नहीं आया है . सच्चाई यह है कि यह आर एस एस की सोची समझी राजनीतिक चाल का हिस्सा है . अगर बी जे पी से अलग होकर किये गए राजनीतिक विरोध प्रदर्शन को सफलता मिल गयी होती तो सुदर्शन का बयान न आता अ. उस स्थिति में तो संघी मीडिया में आर एस एस की महान संगठन क्षमता के ही गीत गाये जा रहे होते लेकिन जब धरना प्रदर्शन बुरी तरह से फ्लाप हो गया ,तो सुदर्शन जैसी बुझी कारतूस को आगे कर दिया गया और निहायत ही बेहूदा बयान दिलवा दिया गया . ज़ाहिर है इस बयान के आर एस एस के आयोजन की असफलता गौड़ हो जायेगी . मुख्य चर्चा सुदर्शन की फजीहत पर केन्द्रित हो जायेगी. इसका एक दूसरा मकसद भी संभव है .हो सकता है कि यह सोचा गया हो कि आम आदमी की नाराज़गी का स्तर टेस्ट करने के लिए एक शिगूफा छोड़ दिया जाय. अगर देशभर में लोग नाराज़ हो जाएँ तो सुदर्शन बेचारे को डंप कर दिया जाय और अगर आम आदमी की प्रतिक्रिया ज्यादा गुस्से वाली न हो तो इस लाइन को धीरे धीरे चला दिया जाये. आर एस एस की नीति है कि वह किसी भी बात में पक्ष विपक्ष दोनों का स्पेस अपने ही पास रखना चाहता है . लेकिन लगता है कि बी जे पी को कमज़ोर करके किसी और पार्टी या विश्व हिन्दू परिषद् को अपनी राजनीति के कारोबार को देखने के ज़िम्मा देने की आर एस एस की चाल बेकार साबित हो गयी है . इसके कुछ नतीजे बहुत ही साफ़ होंगें. एक तो बी जे पी के दिल्ली दरबार वाले नेता आर एस एस की धमकियों को अब उतनी गंभीरता से नहीं लेगें जितनी अब तक लेते थे . दूसरा जिस नितिन गडकरी को मज़बूत करने के लिए मोहन भागवत सारा खेल कर रहे हैं, वह अब और भी कमज़ोर हो जायेगें. कुल मिलाकर संघी आतंकवाद के स्रोत के रूप में स्थापित हो चुके आर एस एस को यह झटका शायद कुछ सद्बुद्धि देने में सफल हो और देश की लोकशाही की परंपरा को कमज़ोर करने की उसकी योजना को लगाम लगे.

Thursday, November 11, 2010

राजनीतिक अदूरदशिता और दिशाभ्रम का शिकार है बोडो आन्दोलन

शेष नारायण सिंह

नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ़ बोरोलैंड ने दावा किया है कि उन्होंने पिछले दिनों कुछ ऐसे लोगों को मौत के घाट उतार दिया है जो असम में रहते थे और मूलतः हिन्दी भाषी थे. एशियन सेंटर फॉर ह्युमन राइट्स ने नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ़ बोरोलैंड की निंदा की है . उन्होंने कहा है कि इस तरह से निर्दोष और निहत्थे नागरिकों को मारना बिलकुल गलत है और इसकी निंदा की जानी चाहिए . नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ़ बोडोलैंड ने क़त्ल-ए-आम की ज़िम्मेदारी लेते हुए दावा किया है कि उनके किसी कार्यकर्ता की कथित फर्जी मुठभेड़ में हुई मौत का बदला लेने के लिए इन लोगों को मार डाला गया . यह वहशत की हद है .अपनी राजनीतिक मंजिल को हासिल करने के लिए निर्दोष बिहारी लोगों को मारना बिकुल गलत है और उसकी चौतरफा निंदा की जानी चाहिए . बदकिस्मती यह है कि कुछ राजनीतिक पार्टियों ने बोडो अवाम और उसकी मांगों के उल्टी पुलटी व्याख्या करके इस समस्या के आस पास भी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना शुरू कर दिया है . इस तरह की हल्की राजनीतिक पैंतरेबाजी की भी निंदा की जानी चाहिए .इस बात में कोई शक़ नहीं है कि असम के आदिवासी इलाकों में रहने वाले बोडो सैकड़ों वर्षों से उपेक्षा का शिकार हैं .अंग्रेजों के वक़्त में भी इनके लिए सरकारी तौर पर कुछ नहीं हुआ . आज़ादी के बाद भी ब्रह्मपुत्र के उत्तर के इन इलाकों में शिक्षा का सही प्रसार नहीं हुआ . बोडो भाषा बोलने वाले इन आदिवासियों को गौहाटी , डिब्रूगढ़ और शिलांग के अच्छे कालेजों में दाखिला नहीं मिलता था . देश की राजनीति में भी इनकी मौजूदगी शून्य ही रही. जवाहरलाल नेहरू के जाने के बाद बोडो इलाके में असंतोष बढ़ना शुरू हुआ . कोकराझार, बसका ,चिरांग और उदालगिरी जिलों में फैले हुए इन आदिवासियों ने ७० के दशक में अपने आपको विकास की गाडी में जोड़ने के लिए राजनीतिक प्रयास शुरू किया लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि उसके बाद राज्य और केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व ऐसे लोगों के पास पंहुच गया जो दूरदर्शी नहीं थे . नतीजा यह हुआ कि बोडो लोग अलग-थलग पड़ते गए . ६० के दशक में प्लेन्स ट्राइबल्स कौंसिल ऑफ़ असम के बैनर के नीचे बोडो अधिकारों की बात की जाने लगी. देखा यह गया कि आदिवासियों के लिए जो सुविधाएं सरकार की तरफ से उपलब्ध कराई गयी थीं , उन पर अन्य ताक़तवर वर्गों का क़ब्ज़ा शुरू हो गया था . बोडो इलाकों में शिक्षा के केंद्र नहीं बनाए गए इसलिए वहां शिक्षित लोगों की कमी बनी रही. उनके लिए आरक्षित सीटों पर सही उम्मीदवार न मिलने के कारण सामान्य वर्ग के लोग भर्ती होते रहे. १९६७ में प्लेन्स ट्राइबल्स कौंसिल ऑफ़ असम ने एक अलग केंद्र शासित क्षेत्र , 'उदयाचल' की स्थापना की मांग की लेकिन राजनीतिक बिरादरी ने उस मांग को गंभीरता से नहीं लिया . खासी और गारो आदिवासियों ने तो राजनीतिक ताक़त का इस्तेमाल करके अपने लिए एक नए राज्य मेघालय का गठन करवा लिए लेकिन बोडो आदिवासी निराश ही रहे . बाद में जब १९७९ में असम गण परिषद् ने बाहर से आये भारतीयों और बंगलादेशियों को भगाने का अभियान चलाया , तब भी बोडो समुदाय के लोग राजनीतिक तंत्र से बाहर ही रहे .८० के दशक में मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों के नेताओं से पूरी तरह निराश होने के बाद बोडो छात्रों ने एक संगठन बनाया और अलग राज्य की स्थापना की मांग शुरू कर दी. १९८७ में शुरू हुए इस आन्दोलन के नेता उपेन्द्र नाथ ब्रह्मा थे . भारत की केंद्रीय राजनीति में यही दौर सबसे ज़्यादा अस्थिरता का भी है . १९८९ में जो राजनीतिक प्रयोगों का दौर शुरू हुआ अभी तक वह चल रहा है . केंद्र में सभी पार्टियों में सत्ता के भूखे नेताओं का मेला लगा हुआ है . अपराधियों क एक बड़ा वर्ग राष्ट्र की राजनीति में हावी है . नतीजा यह है कि बोडो लोगों की जायज़ मांगों पर किसी का ध्यान ही नहीं गया .

अब हालात बदल गए हैं . बोडोलैंड के आन्दोलन को विदेशी सहायता मिल रही है . यह सहायता उन लोगों की तरफ से आ रही है जो भारत की एकता के दुश्मन हैं . ज़ाहिर है कि अब साधारण बोडो अवाम के बीच ही के कुछ लोग आतंकवादी बनकर किसी अदृश्य ताक़त के हाथों में खेल रहे हैं . इसलिए बोडो आन्दोलन के नाम पर कुछ ऐसे काम हो रहे हैं जो किसी भी तरह से राजनीतिक नहीं कहे जा सकते . पिछले एक हफ्ते में असम में बोडो आतंकवादियों की तरफ से निरीह हिन्दी भाषियों को मौत के घाट उतारना बहुत ही घटिया काम है . ऐसी हालात देश की एकता के लिए बहुत बड़ा ख़तरा हैं . सभी राजनीतिक पार्टियों को अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर बोडो अवाम की जायज़ मांगों पर गौर करना चाहिए और उनके आन्दोलन में घुस गए विदेशी प्रभाव को ख़त्म करने में राजनीतिक सहयोग देना चाहिए . बी जे पी ने निरीह लोगों की ह्त्या के मामले में राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश शुरू कर दी है, उसे भी ऐसा करने से बचना चाहिए

मुंबई लक्ष्मी का नइहर है

शेष नारायण सिंह

जब २००४ में मुंबई में जाकर काम करने का प्रस्ताव मिला तो मेरी माँ दिल्ली में ही थीं. घर आकार मैं बताया कि नयी नौकरी मुंबई में मिल रही है . माताजी बहुत खुश हो गयीं और कहा कि भइया चले जाओ, मुंबई लक्ष्मी का नइहर है . सारा दलेद्दर भाग जाएगा. मुंबई चला गया , करीब दो साल तक ठोकर खाने के बाद पता चला कि जिस प्रोजेक्ट के लिए हमें लाया गया था उसे टाल दिया गया है . बहुत बड़ी कंपनी थी लेकिन काम के बिना कोई पैसा नहीं देता. बहरहाल वहां से थके हारे लौट कर फिर दिल्ली आ गए और अपनी दिल्ली में ही रोजी रोटी की तलाश में लग गए. लेकिन अपनी माई की बात मुझे हमेशा झकझोरती रहती थी . अगर मुंबई लक्ष्मी का नइहर है तो मैं क्यों बैरंग लौटा . इस बीच मुंबई में बहुत कुछ हुआ. अपने मुंबई प्रवास के दौरान मुझे अपने बचपन के कई साथी भी मिले जो वहां रोज़गार की तलाश में सत्तर के दशक में गए थे ,अब आराम से हैं . अब साल में कई बार मुंबई जाना होता है . मेरे बेटे की नौकरी वहीं है . अपने बचपन के साथियों से अब भी मिलना जुलना होता है . उनमें से एक पहलवान ने तो इस साल नए सिरे से कारोबार शुरू किया . पिछली बार उसने कहा था कि अपनी भी अजीब ज़िन्दगी है, लोग ६० साल की उम्र में रिटायर हो जाते हैं और हम हैं कि अभी फिर से नौकरी तलाश रहे हैं . लेकिन इस बार उसका कारोबार देख कर मज़ा आ गया. मेरी ही पृष्ठभूमि के लोग अब मुंबई में अरब पति हैं . तुर्रा यह कि किसी ने कोई बेईमानी नहीं की , अपनी मेहनत के बल पर जमे हुए हैं . अभी मेरा एक दोस्त शिक्षा विभाग से रिटायर हुआ. बड़े पद पर था .कल्याण के पास उल्लास नगर में रहता था , रोज़ दक्षिण मुंबई काम करने आता था . नौकरी में बहुत मुश्किल से काम चलता रहा लेकिन अब रिटायर होने पर पैसे वाला बन गया. इस बार मुझे भी एक दोस्त ने समझाया कि दिल्ली की माया छोडो ,मुंबई आ जाओ . अपनी उम्र के बहुत सारे लोगों ने रिटायर होने के बड़ा काम शुरू किया है और अब ज्यादा आराम से हैं . फिर लगा कि माई ने सही कहा था , मुंबई वास्तव में लक्ष्मी का नइहर है . अगर थोड़े धीरज के साथ काम करने का मन कोई भी बना ले तो मुंबई में उसे निराश नहीं होना पड़ेगा .

ओबामा की यात्रा के बाद हालात बदल जायेगें

शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है)

इरान के खिलाफ भारत को इस्तेमाल करने की अमरीकी मंशा अभी ख़त्म नहीं हो रही है . लगभग पूरी भारत यात्रा के दौरान भारत के पसंद की बातें करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ,बराक ओबामा ने इरान के बारे में बात करके भारत को छेड़ने की कोशिश की. हालांकि इस बात में दो राय नहीं है कि अब अमरीका भारत के ज़्यादा करीब है लेकिन कई हलकों में अमरीकी नीति के इस ताज़ा झुकाव को नापसंद भी किया जा रहा है . उसी वर्ग को संतुष्ट करने के लिए शायद इरान का उल्लेख संसद के भाषण में किया गया .ज़ाहिर है इजरायल और पश्चिम एशिया की कुछ राजधानियों में इरान के विरोध को अच्छा माना जाता है . लगता है कि इरान के बारे में बात करते हुए ओबामा उसी वर्ग को संबोधित कर रहे थे. यह अलग बात है कि बहुत सारी अमरीकी कोशिशों को भारत ने टाल दिया है जिन में इरान से रिश्ते ख़त्म करने की अपील की गयी थी . इसलिए एक भाषण में इरान का उल्लेख करके भारत को अमरीकी विदेश नीति का पक्ष धर बनाना न तो अमरीकी राष्ट्रपति का इरादा रहा होगा और न ही उन्हें उम्मीद रही होगी कि भारत इरान के खिलाफ जाकर अमरीका से दोस्ती करना चाहेगा. इरान भारत का दोस्त है . अमरीकी हुक्म के गुलाम और इरान के सम्राट, शाह रजा पहलवी को जब वहां की जनता ने हटाने का फैसला किया था तो भारत ने उस क्रान्ति की मदद की थी. उस वक़्त भी अमरीका शाह का मददगार था लेकिन इरानी अवाम ने उसकी परवाह नहीं की थी . भारत ने भी अमरीकी नीति के खिलाफ शाह का विरोध किया था . उसके बाद से ही अमरीका ण एइआन के खिलाफ तलवार भांजना शुरू कर दिया था. लेकिन भारत कभी इरान के खिलाफ नहीं गया . इस सन्दर्भ में ओबामा के संसद वाले भाषण से कुछ भी बदलने वाला नहीं है . जहां तक भारत के सम्बन्ध है उसे मालूम है कि भारत की दोस्ती अब अमरीका के लिए भी महत्वपूर्ण है. एशिया की राजनीति में चीन के बढ़ रहे दबदबे को अब दक्षिण कोरिया या जापान से बैलेंस नहीं किया जा सकता . जहां तक चीन का सवाल है , उसकी ताक़त एशिया और अफ्रीका में साफ़ नज़र आने लगी है . पाकिस्तान, उत्तर कोरिया , म्यांमार, नेपाल आदि देशों में उसका असर इतना ज़्यादा है कि वह भारत को भी परेशान कर सकता है . ऐसी हालत में भारत की तरफ बढे हुए अमरीकी हाथ दोनों ही देशों के राष्ट्रीय हित में हैं और भारत को मालूम है कि इरान के मामले में अमरीका उस पर ज़्यादा दबाव डाल पाने की स्थिति में नहीं है. तेल के खेल में भी इरान से दोस्ती भारत के राष्ट्रहित को साध सकती है और सबसे ज़रूरी बात यह है कि जब भी अमरीका भारत पर दबाव डालने की कोशिश करेगा , इरान कूटनीतिक सेफ्टी वाल्व की तरह भारत को मजबूती देगा.
इरान के बारे में अमरीकी राष्ट्रपति के दृष्टिकोण को संसद के भाषण में शायद इसलिए डाल दिया गया था कि ओबामा की नज़र अपने घरेलू श्रोताओं पर रही होगी लेकिन कुल मिलाकर भारत-अमरीकी संबंधों में ओबामा की यात्रा की वजह से जो परिवर्तन हुआ है उसका असर दक्षिण एशिया की सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में भी अहम है . दक्षिण एशिया की राजनीति में भारत और अमरीका परम्परागत विरोधी रहे हैं . यह पहली बार हो रहा है अमरीका भारत का साथी बन कर काम करने की सोच रहा है . इस की वजह से अमरीका के परम्परागत साथियों को तकलीफ होना स्वाभाविक है लेकिन यह भारत के हित में है कि वह दक्षिण और उत्तर-पश्चिम एशिया में बढ़ रहे आतंकवाद के खतरे को कम करने के लिए अमरीका की मदद करे. चाहे पाकिस्तानी आतंकवाद हो या भारत में जोर मार रहा माओवादी आतंकवाद , ख़तरा दोनों से ही भारत को है. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है , उसकी फौज़ के मुखिया जनरल कयानी लश्कर-ए-तैयाबा के ख़ास हिमायती हैं और उनके मन में बंगलादेश में १९७१ में हुई पाकिस्तानी फौज़ की धुनाई का बदल लेने की आग हरदम जलती रहती है लेकिन भारत और अमरीका अगर गंभीरता से काम करें तो पाकिस्तान में मौजूद भले आदमियों की बहुत बड़ी संख्या लोकशाही के पक्ष में खडी हो सकती है . अगर ऐसा हुआ तो दक्षिण एशिया में स्थिरता का माहौल बनेगा और आतंकवाद कमज़ोर होगा.
भारत और अमरीका के बीच सहयोग बढ़ने का एक फायदा यह भी हो सकता है कि हिंद महासागर के क्षेत्र में झगड़े कम करने के भारत के मूल सिद्धांत को ताक़त मिलेगी . इस बात में दो राय नहीं है कि इस इलाके में बराक ओबामा की यात्रा के बाद हालत वही नहीं रहेगें .

Monday, November 8, 2010

आर एस एस ने बी जे पी के विकल्प की तलाश शुरू की

शेष नारायण सिंह

आर एस एस ने अब शायद बी जे पी को हाशिये पर लाने का मन बना लिया है .अपनी आबरू बचाने के लिए १० नवम्बर को आर एस एस के नेता खुद सडकों पर उतरेगें और धरना प्रदर्शन करेगें . उनकी शिकायत है कि यू पी ए सरकार संघी आतंकवाद के ब्रैंड को प्रचारित करने में लगभग कामयाब हो गयी है और बी जे पी वाले कोई भी राजनीतिक पहल नहीं कर रहे हैं. नाराज़ संघी नेतृत्व अब खुद ही मैदान ले रहा है . 1980 से ही आर एस एस की राजनीतिक लडाइयां संचालित करने का ज़िम्मा बी जे पी के पास था . लेकिन जब १९८४ में पार्टी लगभग शून्य पर पंहुच गयी तो राजनीतिक काम के लिए विश्व हिन्दू परिषद् को आगे किया गया . लेकिन आर एस एस का दुर्भाग्य है कि वहां भी निराशा ही हाथ लगी. विश्व हिन्दू परिषद् के नेता बी जे पी वालों से भी ज्यादा गैर ज़िम्मेदार निकले . उन्होंने चौतरफा लूटमार शुरू कर दी .नतीजा यह हुआ कि आर एस एस ने एक बार फिर बी जे पी को आजमाने की कोशिश की लेकिन नागपुर वालों को बी जे पी राजनीतिक क्षमता पर अब भरोसा नहीं है . एक एक करके आर एस एस के आतंकवादी सेल के नेताओं को पकड़ा जा रहा है और बी जे पी की तरफ कोई राजनीतिक एक्शन नज़र नहीं आ रहा है .बी जे पी के रुख से परेशान आर एस एस ने अब कमान खुद ही अपने हाथ में ले ली है . आर एस एस के प्रवक्ता, राम माधव ने शनिवार को संवाद दाताओं को बताया कि १० नवम्बर को देश के हर जिले में आर एस एस के कार्यकर्ता इकट्ठा होंगें और केंद्र सरकार की तरफ से आर एस एस की पोल खोलने की कोशिश के खिलाफ धरना देगें . आर एस एस की तरफ से दावा किया जा रहा है कि उस दिन पूरे देश में आम आदमी की ज़िंदगी दुश्वार कर दी जायेगी लेकिन जानकार बाते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है. जिन राज्यों में आर एस एस के कंट्रोल वाली सरकारें हैं ,वहां तो ज़रूर कुछ बसें आदि तोडी जायेगीं , कुछ राजनीतिक विरोधियों को मारा पीटा जाएगा लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात के बाहर कोई ख़ास तोड़ फोड़ नहीं होगी. आर एस एस के आवाहन पर आयोजित १० नवम्बर के धरने की सफलता या असफलता का कोई मतलब नहीं है लेकिन राजनीतिक लडाइयां खुद न लड़ कर अपने अधीन सगठनों को आगे करने वाले संगठन के लिए राजनीति की पिच पर उतरना इस बात का संकेत है कि संघी राजनीति में काफी उथलपुथल है . २००४ में केंद्र सरकार से हटाये जाने के बीद बी जे पी में राजनीतिक समायोजन की बात चल रही है . राजनाथ सिंह के कार्यकाल में तो आडवाणी गुट भारी पड़ गया था और आडवाणी के लोगों ने राजनाथ सिंह के लिए क़दम क़दम पर मुश्किलें पैदा कीं लेकिन उनके बाद जब नितिन गडकरी को अध्यक्ष बना दिया गया तो दिल्ली के वे नेता जो गडकरी को एक मामूली कार्यकर्ता समझते थे, परेशान हो गए. आर एस एस और उसके मातहत सभी संगठनों में आतंरिक लोकतंत्र बिलकुल नहीं है . इसीलिये बी जे पी जैसे राजनीतिक रूप से मान्यता प्राप्त संगठन का अध्यक्ष भी नागपुर से तय होता है . वहां किसी को भी नेता मान लेने का फैशन नहीं है . ज़ाहिर है गडकरी को दिल्ली वालों ने वह क़द नहीं हासिल करने दिया जो एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष का होना चाहिये .गडकरी ने जिस तरह से अर्जुन मुंडा को झारखण्ड का मुख्य मंत्री बनाया उसकी फजीहत दिल्ली के नेताओं ने मीडिया के अपने बन्दों के ज़रिये करवाई. केंद्र सरकार में अपने कांग्रेसी मित्रों की मदद से आडवाणी गुट के नेताओं ने गडकरी के ख़ास साथी सुधांशु मित्तल को कामनवेल्थ खेलों की जांच में सुरेश कलमाड़ी से ज्यादा भ्रष्ट साबित करवाने की कोशिश की और काफी हद तक सफल रहे. मुंबई के आदर्श हाउसिंग घोटाले में भी आर एस एस के भरोसेमंद व्यापारी, नागपुर के संचेती को फंसाने की सफलता पूर्वक कोशिश की गयी . नतीजा यह हुआ कि संघी आतंकवाद से लेकर आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों में आर एस एस के करीबी लोगों को फंसा दिया गया . सारा आपरेशन आडवाणी गुट के दिल्ली वाले नेताओं ने कांग्रेस में मौजूद अपने साथियों की मदद से किया इसलिए तकनीकी रूप से उनको ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता . ऐसी हालत में खिसियाहट होती है . आर एस एस आजकल बी जे पी के दिल्ली वाले नेताओं से खिसियाया हुआ है और अब उनको दरकिनार करके वह अपनी लड़ाई खुद ही लड़ने की तैयारी कर चुका है . अजीब बात यह है कि दिल्ली वाले इन ताक़तवर लोगों के बीच भी एकता नहीं है . अब यह तय है कि २०१४ में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में लाल कृष्ण आडवाणी को नहीं पेश किया जाएगा . शायद इसी वजह से आडवानी गुट की दूसरी कतार के नेता भी अपना वर्चस्व कायम करने में भिड़ गए हैं .कुल मिलाकर माहौल ऐसा है कि बी जे पी में हर कोने में मारकाट मची हुई है . कहीं बेल्लारी ब्रदर्स को घेरा जा रहा है तो कहीं सुधांशु मित्तल लतियाये जा रहे हैं . नतीजा साफ़ है कि आर एस एस की राजनीतिक शाखा ,बी जे पी से नागपुर का भरोसा उठ गया है . और हिन्दू राष्ट्र कायम करने की आर एस एस की कोशिश में किसी नयी राजनीतिक सत्ता की आमद की संभावना की हवा बह रही है.

Sunday, November 7, 2010

ओबामा बोले---इक्कीसवीं सदी भारत और अमरीका की है

शेष नारायण सिंह

बराक ओबामा की भारत यात्रा ने भारतीय उप महाद्वीप की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ दिया है .पहले दिन ही १० अरब डालर के अमरीकी निर्यात का बंदोबस्त करके उन्होंने अपने देश में अपनी गिरती लोकप्रियता को थामने का काम किया है . अमरीकी चुनावों में उनकी पार्टी की खासी दुर्दशा भी हुई है . दोबारा चुना जाना उनका सपना है .ज़ाहिर है, भारत के साथ व्यापार को बढ़ावा देकर उन्होंने अपना रास्ता आसान किया है . भारत में उनकी यात्रा को कूटनीतिक स्तर पर सफलता भी माना जा रहा है . बराक ओबामा भारत को एक महान शक्ति मानते हैं . मुंबई के एक कालेज में उन्होंने कहा कि वे इस बात को सही नहीं मानते कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है क्योंकि उनका कहना है कि भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर चुका है. अपने भाषण में ओबामा ने कहा कि इक्कीसवीं सदी में दुनिया की दो महाशक्तियां ही प्रमुख रूप से जानी जायेगीं . उन्होंने कहा कि इस सदी में अमरीका के अलावा भारत की दूसरी महाशक्ति रहेगी. इसके अलावा भी उनका रुख भारत के प्रति ऐसा है जिसे दोस्ती के उदाहरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत से दोस्ती करके अमरीका एशिया में अपने आप को बैलेंस करना चाहता है . अमरीका सहित पूरी दुनिया में चीन की बढ़ती ताक़त और उसकी वजह से कूटनीतिक शक्ति संतुलन को नोटिस किया जा रहा है . भारत और चीन के बीच रिश्तों में १९६२ में शुरू हुआ तनाव बिलकुल ख़त्म नहीं हो रहा है . अमरीकी कूटनीति के जानकार इसी मनमुटाव को अपनी पूंजी मानकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नए व्याकरण की स्थापना करने की कोशिश कर रहे हैं . वे चीन की बढ़ती ताक़त को भारत से बैलेंस करना चाहते हैं . उसके बदले में वे पाकिस्तान को उसकी वास्तविक औकात पर रखने की रण नीति पर काम कर रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में अमरीका की पूरी कोशिश थी कि वह पाकिस्तान का इस्तेमाल करके सोवियत खेमे को कमज़ोर करे . उस दौर में भारत भी हालांकि निर्गुट देशों के नेता के रूप में अपने आपको पेश करता था लेकिन अमरीका की नज़र में वह रूस के ज्यादा करीब था. . भारत को कमज़ोर करके प्रस्तुत करने की अमरीकी जल्दी के तहत भारत और पाकिस्तान को एक ही खांचे में रखा जाता था . लेकिन अब सब बदल गया है. सोवियत रूस एतूत चुका है . पाकिस्तान की छवि आतंकवाद के एक समर्थक देश की बन चुकी है और पाकिस्तान का अमरीका की विदेशनीति में कोई इस्तेमाल नहीं है . पाकिस्तान की भूमिका अमरीका के लिए अब केवल इतनी है कि वह अपने आतंकवादी मित्रों की मदद से अमरीका की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकता है क्योंकि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय तालिबान और अल कायदा को पाकिस्तानी सेना और आई एस आई की कृपा से ही दाल रोटी मिल रही है . आज की तारीख में अमरीका के लिए तालिबान और अल कायदा से बड़ा कोई ख़तरा नहीं है . इन दो आतंकवादी संगठनों को काबू करने में पाकिस्तान का इस्तेमाल हो रहा है . और इस काम के लिए अमरीका की तरफ से पाकिस्तान को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता मिल रही है . भारत के लिए भी पाकिस्तान का कमज़ोर होना ज़रूरी है क्योंकि भारत की पश्चिमी सीमा पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब पाकिस्तानी फौज़ की कृपा से हो रहा है . इसलिए भारत की कोशिश है कि वह अमरीका की मदद से पाकिस्तान को एक दुष्ट राज्य की श्रेणी में रखने में सफलता पा सके. मुंबई में जो कुछ भी ओबामा ने कहा है उसका सार तत्व यह है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के खिलाफ हैं और आतंकवाद के खिलाफ भारत और अमरीका को सहयोग करना चाहिए . उन्होंने साफ़ बता दिया है कि भारत और अमरीका की दोस्ती बराबर के दो देशों की दोस्ती है जबकि पाकिस्तान की स्थिति अमरीका की प्रजा की है . हालांकि भारत में कुछ शेखीबाज़ टाइप नेताओं ने टिप्पणी की थी कि ओबामा ने मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों में पाकिस्तान का नाम न लेकर अच्छा नहीं किया . ऐसे बयान राजनीतिक अज्ञान के उदाहरण हैं और इन बयानों को देने वाले नेताओं की वैसे भी कोई औकात नहीं है .सच्चाई यह है कि ओबामा की इस यात्रा ने एशिया की भू-राजनीतिक सच्चाई को बदल दिया है और उसका असर बहुत दूर तक महसूस किया जायेगा

Monday, October 25, 2010

बिहार में बदमाशी की राजनीति के खात्मे की शुरुआत

शेष नारायण सिंह


बिहार विधानसभा के लिए दूसरे दौर का मतदान पूरा हो गया . अभी चार दौर बाकी हैं . बिहार-2010 का चुनाव ऐतिहासिक माना जाएगा क्योंकि परम्परागत बिहारी मजबूती के सामने मुकामी गुंडे और माओवादी गुंडे नरम पड़ गए. जनता का राज कायम होने की दिशा में बिहार में यह पहला क़दम है . जनता ने पहली बार अपने आपको अधिकार देने का फैसला किया है. आज़ादी के बाद बिहार में नेताओं की जिस जमात ने काम संभाला उनमें से लगभग सभी सामंती सोच के लोग थे. और भी कारण रहे होगें लेकिन थे लेकिन वहां आज़ादी के बाद सामंतवाद का कुछ नहीं बिगड़ा. जो लोग ज़मींदार थे वे ही सत्ता में शामिल हो गए. हद तो तब हो गयी जब वहां ज़मींदारी उन्मूलन के लिए कोई प्रयास नहीं किये गए. नतीजा यह हुआ कि बिहार में कोई भी मिडिल क्लास नहीं बन पाया . बिहार में या तो बहुत ही संपन्न ज़मींदार थे और या बहुत गरीब लोग जो मूल रूप से ज़मींदारों की ज़मीन पर काम करने वाले खेतिहर मजदूर थे . साठ के दशक में जब गरीबों के बच्चे स्कूल जाने लगे तो शोषित पीड़ित लोग भी राजनीति में आये. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद राज्य में नौजवान नेताओं का जो नया वर्ग सामने आया ,उसमें बड़ी संख्या में पिछड़े और दलित थे. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद , राम विलास पासवान जैसे लोग राजनीति की शासकवर्गी धारा में शामिल हुए लेकिन शामिल होने के साथ साथ वे रास्ता भूल गए. दलितों वंचितों को अधिकार दिलाने के लिए किसी मौलिक संघर्ष की योजना पर इन लोगों ने विचार ही नहीं किया.. इन्होने वहीं जीवनशैली अपना ली जो बड़ी जातियों के सामंती सोच वाले नेताओं ने अपना रखी थी . डॉ राम मनोहर लोहिया की मृत्यु हो चुकी थी, जयप्रकाश बूढ़े हो चले थे और कर्पूरी टाकुर और भोला पासवान शास्त्री का जीवन इन नौरईस नेताओं को प्रभावित नहीं करता था . इन लोगों ने राजा की तरह ज़िन्दगी जीने के चक्कर में समतामूलक समाज की राजनीतिक लड़ाई को छोड़ दिया और दिल्ली में कहीं विश्वनाथ प्रताप सिंह तो कहीं सोनिया गांधी के दरबार के मुसाहिब हो गए . कुल मिलाकर इन्होने अपना सब कुछ अच्छे खाने और अच्छे कपडे के लिए दांव पर लगा दिया . जबकि इन्हें सभी दलितों-वंचितों के लिए उसी तरह की जीवन शैली का प्रबंध करने के लिए संघर्ष करना चाहिए था जैसी इन्होने अपने लिए तलाश ली थी. बहरहाल सत्तर के दशक में जे पी के आन्दोलन के बाद जो संभावना बनी थी उसे पिछड़े वर्गों के नेताओं ने ख़त्म कर दिया . अस्सी और नब्बे का दशक पूरी तरह से दलितों और पिछड़ों के नेताओं की उस विफलता की कहानी बयान करता है जिसमें वे भी सामंतों के साथ सुर में सुर मिला रहे थे. गरीबों के बहुत सारे बच्चे दिशा भूल चुके माओवादियों के जाल में फंस रहे थे और राज्य फिर तबाही की तरफ बढ़ रहा था . विचारधारा से शून्य जिन नेताओं ने बिहार पर राज किया उन्होंने गुंडों को इतनी इज्ज़त दे दी कि बिहार में जीना दूभर हो गया. बहुत बड़ी संख्या में लोग बिहार छोड़कर भागने लगे . मजदूर भी और पैसे वालों के बच्चे भी . शायद राज्य छोड़ कर बाहर गये लोगों ने अपने नए ठिकाने वाले राज्य से बिहार की तुलना की होगी और राजनीतिक ताक़त के मह्त्व को समझा होगा जिसके चलते आज बिहार में गुंडे बैकफुट पर हैं , उनको समर्थन देने वाले नेता अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं , माओवादियों की हैसियत सड़क छाप बदमाशों की रह गयी है , उनके किसी भी आवाहन को जनता टाल देती है.राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री भी अपराधियों के संरक्षक रह चुके हैं और गुजरात नरसंहार के खलनायकों के साथ कभी उनका बहुत याराना था .लेकिन आजकल असामाजिक तत्वों से बचकर रहते हैं.लालू के पंद्रह साल के राज से त्रस्त जनता उनको गंभीरता से ले रही है . हो सकता है कि उनकी किस्मत में ही बिहार को कुशासन से मुक्त कराना लिखा हो . बहरहाल दो दौर के मतदान बाद साफ़ संकेत मिल रहा है कि अब बिहार में बदमाशी और सामंती सोच वालों की राजनीति आख़री साँसे ले रही है