Showing posts with label बोडो आन्दोलन. Show all posts
Showing posts with label बोडो आन्दोलन. Show all posts

Thursday, November 11, 2010

राजनीतिक अदूरदशिता और दिशाभ्रम का शिकार है बोडो आन्दोलन

शेष नारायण सिंह

नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ़ बोरोलैंड ने दावा किया है कि उन्होंने पिछले दिनों कुछ ऐसे लोगों को मौत के घाट उतार दिया है जो असम में रहते थे और मूलतः हिन्दी भाषी थे. एशियन सेंटर फॉर ह्युमन राइट्स ने नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ़ बोरोलैंड की निंदा की है . उन्होंने कहा है कि इस तरह से निर्दोष और निहत्थे नागरिकों को मारना बिलकुल गलत है और इसकी निंदा की जानी चाहिए . नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ़ बोडोलैंड ने क़त्ल-ए-आम की ज़िम्मेदारी लेते हुए दावा किया है कि उनके किसी कार्यकर्ता की कथित फर्जी मुठभेड़ में हुई मौत का बदला लेने के लिए इन लोगों को मार डाला गया . यह वहशत की हद है .अपनी राजनीतिक मंजिल को हासिल करने के लिए निर्दोष बिहारी लोगों को मारना बिकुल गलत है और उसकी चौतरफा निंदा की जानी चाहिए . बदकिस्मती यह है कि कुछ राजनीतिक पार्टियों ने बोडो अवाम और उसकी मांगों के उल्टी पुलटी व्याख्या करके इस समस्या के आस पास भी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना शुरू कर दिया है . इस तरह की हल्की राजनीतिक पैंतरेबाजी की भी निंदा की जानी चाहिए .इस बात में कोई शक़ नहीं है कि असम के आदिवासी इलाकों में रहने वाले बोडो सैकड़ों वर्षों से उपेक्षा का शिकार हैं .अंग्रेजों के वक़्त में भी इनके लिए सरकारी तौर पर कुछ नहीं हुआ . आज़ादी के बाद भी ब्रह्मपुत्र के उत्तर के इन इलाकों में शिक्षा का सही प्रसार नहीं हुआ . बोडो भाषा बोलने वाले इन आदिवासियों को गौहाटी , डिब्रूगढ़ और शिलांग के अच्छे कालेजों में दाखिला नहीं मिलता था . देश की राजनीति में भी इनकी मौजूदगी शून्य ही रही. जवाहरलाल नेहरू के जाने के बाद बोडो इलाके में असंतोष बढ़ना शुरू हुआ . कोकराझार, बसका ,चिरांग और उदालगिरी जिलों में फैले हुए इन आदिवासियों ने ७० के दशक में अपने आपको विकास की गाडी में जोड़ने के लिए राजनीतिक प्रयास शुरू किया लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि उसके बाद राज्य और केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व ऐसे लोगों के पास पंहुच गया जो दूरदर्शी नहीं थे . नतीजा यह हुआ कि बोडो लोग अलग-थलग पड़ते गए . ६० के दशक में प्लेन्स ट्राइबल्स कौंसिल ऑफ़ असम के बैनर के नीचे बोडो अधिकारों की बात की जाने लगी. देखा यह गया कि आदिवासियों के लिए जो सुविधाएं सरकार की तरफ से उपलब्ध कराई गयी थीं , उन पर अन्य ताक़तवर वर्गों का क़ब्ज़ा शुरू हो गया था . बोडो इलाकों में शिक्षा के केंद्र नहीं बनाए गए इसलिए वहां शिक्षित लोगों की कमी बनी रही. उनके लिए आरक्षित सीटों पर सही उम्मीदवार न मिलने के कारण सामान्य वर्ग के लोग भर्ती होते रहे. १९६७ में प्लेन्स ट्राइबल्स कौंसिल ऑफ़ असम ने एक अलग केंद्र शासित क्षेत्र , 'उदयाचल' की स्थापना की मांग की लेकिन राजनीतिक बिरादरी ने उस मांग को गंभीरता से नहीं लिया . खासी और गारो आदिवासियों ने तो राजनीतिक ताक़त का इस्तेमाल करके अपने लिए एक नए राज्य मेघालय का गठन करवा लिए लेकिन बोडो आदिवासी निराश ही रहे . बाद में जब १९७९ में असम गण परिषद् ने बाहर से आये भारतीयों और बंगलादेशियों को भगाने का अभियान चलाया , तब भी बोडो समुदाय के लोग राजनीतिक तंत्र से बाहर ही रहे .८० के दशक में मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों के नेताओं से पूरी तरह निराश होने के बाद बोडो छात्रों ने एक संगठन बनाया और अलग राज्य की स्थापना की मांग शुरू कर दी. १९८७ में शुरू हुए इस आन्दोलन के नेता उपेन्द्र नाथ ब्रह्मा थे . भारत की केंद्रीय राजनीति में यही दौर सबसे ज़्यादा अस्थिरता का भी है . १९८९ में जो राजनीतिक प्रयोगों का दौर शुरू हुआ अभी तक वह चल रहा है . केंद्र में सभी पार्टियों में सत्ता के भूखे नेताओं का मेला लगा हुआ है . अपराधियों क एक बड़ा वर्ग राष्ट्र की राजनीति में हावी है . नतीजा यह है कि बोडो लोगों की जायज़ मांगों पर किसी का ध्यान ही नहीं गया .

अब हालात बदल गए हैं . बोडोलैंड के आन्दोलन को विदेशी सहायता मिल रही है . यह सहायता उन लोगों की तरफ से आ रही है जो भारत की एकता के दुश्मन हैं . ज़ाहिर है कि अब साधारण बोडो अवाम के बीच ही के कुछ लोग आतंकवादी बनकर किसी अदृश्य ताक़त के हाथों में खेल रहे हैं . इसलिए बोडो आन्दोलन के नाम पर कुछ ऐसे काम हो रहे हैं जो किसी भी तरह से राजनीतिक नहीं कहे जा सकते . पिछले एक हफ्ते में असम में बोडो आतंकवादियों की तरफ से निरीह हिन्दी भाषियों को मौत के घाट उतारना बहुत ही घटिया काम है . ऐसी हालात देश की एकता के लिए बहुत बड़ा ख़तरा हैं . सभी राजनीतिक पार्टियों को अपने निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर बोडो अवाम की जायज़ मांगों पर गौर करना चाहिए और उनके आन्दोलन में घुस गए विदेशी प्रभाव को ख़त्म करने में राजनीतिक सहयोग देना चाहिए . बी जे पी ने निरीह लोगों की ह्त्या के मामले में राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश शुरू कर दी है, उसे भी ऐसा करने से बचना चाहिए