Thursday, September 30, 2010

कामनवेल्थ खेलों के चक्कर में दिल्ली के शासकों ने अंगेजों की तरह लूट मचाई

शेष नारायण सिंह

दिल्ली दरबार में आजकल बड़े बड़े खेल हो रहे हैं . सबसे बड़ा खेल तो खेल के मैदानों में होना है लेकिन उसके पहले के खेल भी कम दिलचस्प नहीं हैं. जैसा कि आदि काल से होता रहा है किसी भी आयोजन में राजा के दरबारी अपनी नियमित आमदनी से दो पैसे ज्यादा खींचने के चक्कर में रहते हैं . दिल्ली में आजकल दरबारियों की संख्या में भी खासी वृद्धि हुई है . जवाहरलाल नेहरू के टाइम में तो इंदिरा गाँधी की सहेलियां ही लूटमार के खेल की मुख्य ड्राइविंग फ़ोर्स हुआ करती थीं. वैसे लूटमार होती भी कम थी . दिल्ली में जब १९५६ में संयुक्त राष्ट्र की यूनिसेफ की कान्फरेन्स हुई तो एक आलीशान होटल की ज़रूरत थी . जवाहरलाल नेहरू जहां अशोका होटल बन रहा था ,उस जगह पर खुद ही अपनी मार्निंग वाक में जाकर खड़े हो जाते थे. ज़ाहिर है लूटमार की संभावना बहुत कम होती थी .सरकारी प्रोजेक्ट में लूटमार का सिलसिला सही मायनों में तब शुरू हुआ, जब संजय गाँधी दिल्ली की सडकों पर सक्रिय हुए. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से लेकर अर्जुन दास तक जो भी दिल्ली वाले सरकारी धन की लूट में शामिल हुए ,उन्होंने इसी रास्ते को अपनाया. मोरारजी देसाई के काल में लूट के कई दरबार खुल गए थे. उनका अपना अधेड़ बेटा भी इसी धंधे में था और भी कई दरबार थे . लेकिन सरकारी खजाने की लूट का सबसे बड़ा खेल तब शुरू हुआ जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में गठबंधन सरकार बनी जिसमें भ्रष्टाचार के भांति भांति के शिरोमणि शामिल हुए . उसके बाद देवगौड़ा आये जिनका खुद का रिकार्ड ही एक मामूली ठेकेदार का था . जब १९९८ में बी जे पी वाले सत्ता में आये उसके बाद से खजाने की लूट की विधा को एक ललित कला के रूप में विकसित किया गया. कोई बम्बई का ठग था तो कुछ लोग दिल्ली की सडकों पर पत्रकार बन कर टहल रहे थे. कोई दामाद का अभिनय कर रहा था तो कोई दक्षिण की रानी की सहेली का भतीजा था . कोई किसी साहूकार का दलाल था तो कोई खुद ही दलाल भी था और साहूकार भी. कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा बाकी सभी पार्टियों के नेताओं ने अपने घर वालों को लूट का साम्राज्य सौंप दिया. जिनके तन पर कपड़ा नहीं था वे कपड़ा मंत्री बन गए और लूट के नए नए आयाम तलाशे गए. कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जो लूट हो रही है उसमें कोई भी दोषी नहीं पाया जाएगा क्योंकि जैन हवाला काण्ड की तरह सभी पार्टियों के नेताओं के रिश्तेदारों को पूना से आये बांके ने बाकायदा हिस्सा दिया है . उस बेचारे से ग़लती केवल यह हुई कि उसने एक बड़े मीडिया ग्रुप की बात को गंभीरता से नईं लिया और उसे ठेका नहीं दिया और उसने पोल खोल दी . वरना सारे लोग मिलजुल कर खेल कर जाते और देशवासी टापते रह जाते. बहर हाल पूरी उम्मीद है कि खेलों के ख़त्म होने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा और एक आयोग बैठाया जाएगा जिसका काम यह यह होगा कि वह पता लगाए कि क्या वास्तव में लूट हुए है लेकिन उसको हिदायत दे दी जायेगी कि उसे यह साबित करना होगा कि कहीं कोई लूट हुई ही नहीं है. ऐसा इसलिए संभव होगा कि आजकल कांग्रेस और बी जे पी में बहुत अच्छी जुगलबंदी चल रही है . चाहे अमरीकी हुक्म से परमाणु समझौता हो या भोपाल काण्ड , दोनों पार्टियां एक ही राग गा रही हैं . इसकी वजह शायद यह है कि कांग्रेसी मालिकों को तो पूना वाला शेख बाकायदा हफ्ता पंहुचा रहा है और विपक्ष के हाकिमों के रिश्तेदार ठेके का लुत्फ़ उठा रहे हैं ..

दिल्ली की मौजूदा लूट के कुछ सबक भी हैं. कांग्रेसी नेता, सोनिया गाँधी के परिवार के करीबी और पूर्व खेल मंत्री , मणिशंकर अय्यर इस लूट का सबसे बेहतरीन वर्णन करते हैं . उनका कहना है कि उनके खेल मंत्री बनने के पहले ही दिल्ली में उन्नीसवां कामनवेल्थ खेल आयोजित करने का फैसला हो चुका था . जब वे मंत्री बने तो उन्होंने इस खर्च पर सवाल उठाये लेकिन विरासत का हवाला देकर उनको चुप करा दिया गया. मणिशंकर अय्यर के कई सवाल थे . मसलन उन्होंने कहा कि अगर खेल कूद के इतने बड़े आयोजन से एक नया शहर बसाने के रास्ते खुल सकते हैं तो उत्तरी दिल्ली के बवाना गाँव के पास जो खाली जगह पड़ी है वहां एक नया शहर बसाया जाए और वहीं पर बिना किसी रोक टोक सभी सुविधायें बनाई जाएँ . उस वक़्त कामनवेल्थ खेलों के आयोजन पर कुल छः हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना थी . लेकिन वे हटा दिए गए और नयी व्यवस्था में सब कुछ बदल गया . छः हज़ार करोड़ का खर्च अब दस गुना हो चुका है . खेल कूद के आयोजन के नाम पर दिल्ली शहर के हर कोने में लूटमार मची है . पता चला है कि दिल्ली के कनाट प्लेस को ही चमकाने के लिए एक हज़ार करोड़ का ठेका दे दिया गया. और जिसे ठेका दिया गया उसकी आर्थिक हैसियत बीस करोड़ की भी नहीं है .नतीजा सामने है खिलाड़ी आ चुके हैं और कनाट प्लेस खुदा पड़ा है . अब कहा जा रहा है कि उस से कोई फर्क नहीं पड़ता . कनाट प्लेस में कोई खेल तो होना नहीं है . सवाल उठता है कि जब कनाट प्लेस की खेलों के आयोजन में कोई भूमिका ही नहीं थी तो सरकारी खजाने से एक हज़ार करोड़ रूपया झटकने की क्या ज़रुरत थी. ज़ाहिर है कि किसी ख़ास बन्दे ने इस ठेके में आर्थिक मदद पायी है . लेकिन यह भी उम्मीद करने की ज़रूरत नहीं है कि आने वाले वक़्त में इसका पता चल पायेगा क्योंकि इस सारे भ्रष्टाचार की जब जांच होगी तो दिल्ली दरबार के अमीर उमरा अपने ख़ास लोगों को बचा लेगें . इसी तरह से दिल्ली शहर में तमाम फालतू विकास कार्य चल रहे हैं जिनका खेलों से कोई लेना देना नईं है लेकिन उनका पैसा खेलों के नाम पर ही खींचा जा रहा है और दिल्ली के अमीर उमरा के रिश्तेदार ठेके की गिज़ा उड़ा रहे हैं . पता चला है कि दिल्ली की ज़्यादातर सडकों के फुटपाथों पर जो पत्थर लगे थे, वे सब ठीक हालत में थे. लेकिन सब को उखाड़कर नया पत्थर लगाने का फसिअला कर लिया गया और हज़ारों करोड़ का खेल कर दिया गया. मुराद यह है कि दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जम कर लूट हुई और ऐसे काम के लिए हुई जिसका खेलों से कोई लेना देना नहीं था. खेल गाँव के ठेके में ही दिल्ली के बहुत ताक़तवर लोगों के एक रिश्तेदार को आर्थिक रूप से खस्ता हाल डी डी ए से करीब नौ सौ करोड़ रूपये दिलवा दिया गया . अब खेल गाँव बन कर तैयार है . वहां के फ़्लैट करोड़ों में बेचे जायेगें और उसका फायदा इसी ताक़तवर नेता के मामा को होगा. दिलचस्प बात यह है कि इस खेल में ज़रूरी नहीं कि कांग्रेसी को ही फायदा हुआ हो . इस बार की लूट में सभी शामिल हैं .

Wednesday, September 29, 2010

हर औरत के पाँवो में बंधी होती है एक ज़ंज़ीर

शेष नारायण सिंह


आज के बड़े अखबारों में गरीब की बेटी भी पहले पेज पर है .हालांकि ज़्यादातर खबरें हस्बे-मामूल सम्भ्रान्त वर्गों की मिजाज़ पुरसी करती नज़र आ रही हैं लेकिन अपना सब कुछ गँवा दने वाली कुछ गरीबों की बेटियों को भी पहले पेज पर जगह दी गयी है . और राष्ट्रमंडल खेल के नाम पर पचास हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा रक़म लूट चुके नेताओं और अयोध्या की मस्जिद के बहाने राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे नेताओं,अफसरों और दलालों की ख़बरों के बीच कुछ खबरें ऐसी हैं जो शोषित पीड़ित लोगों की कहानी भी बताती हैं.देश के सबसे बड़े अखबार में खबर है कि उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री के गाँव के आस पास, गौतम बुद्ध नगर और बुलंद शहर जिलों में , दलित लड़कियों की अस्मत लूटी गयी , उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और एक मामले में सबूत मिटाने की गरज से लड़की को जला कर मार डालने की कोशिश की गयी. एक बहुत बड़े अंग्रेज़ी अखबार के पहले पन्ने पर खबर है कि मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके में उसी जिले में तैनात के डिप्टी कलेक्टर के बेटे की अगुवाई में ६-७ लफंगों ने एक दलित बच्ची को पकड़कर उसके साथ बलात्कार किया और अपने जघन्य कार्य का मोबाइल फ़ोन पर वीडियो उतारा और उसे अपने दोस्तों के बीच सर्कुलेट करना शुरू कर दिया . पुलिस की विश्वसनीयता इतनी कम है कि पीड़ित बच्ची के माता पिता की हिम्मत नहीं पड़ी कि वे थाने में जाकर रिपोर्ट लिखाने की हिम्मत जुटा सकें . जब पुलिस को मोबाइल फोन पर सर्कुलेट हो रही तस्वीरों के ज़रिये पता चला तो अधिकारी पीड़ित लड़की के घर गए. वहां जाकर पता चला कि बच्ची के माता पिता और पड़ोसी इस अपराध के बारे में जानते थे. उन्होंने मामले को पुलिस के पास ले जाना इसलिए ठीक नहीं समझा कि अफसर का बेटा ही मुख्य अपराधी है ,अगर उनके खिलाफ शिकायत की तो मुसीबत में पड़ जायेगें.

यह घटनाएं एक समाज के रूप में हमारे अस्तित्व को चुनौती देती हैं .ऐसा क्यों है कि जिसके पास भी घूस या चोरी के रास्ते कुछ पैसा आ जाता है ,वह सबसे पहले लड़कियों की इज्ज़त पर हमला बोलता है .उनको अपमानित करता है , उनके साथ बलात्कार करता है और उन्हें मार डालने की कोशिश करता है . इन लड़कियों ने इन दरिंदों का क्या बिगाड़ा है . दूसरा सवाल यह है कि हर मामले में इस जघन्य मानसिकता का शिकार गरीब लड़कियां ही क्यों होती हैं . गाँव में गरीब लड़कियां ज़्यादातर दलित परिवारों से आती हैं . और शहरों में गरीब वे हैं जो गाँव में अपना सब कुछ छोड़कर, दो जून की रोटी की तलाश में शहरों की ओर भागने के लिए अभिशप्त हैं. गाँव में छोटी मोटी खेती की ज़मीन अब रोटी नहीं देती ,उसमें क़र्ज़ उपजता है . खेती के चक्कर में बिजली खाद, बीज और मजदूरी में लगने वाला धन, बरास्ते क़र्ज़ उसकी ज़िंदगी पर सवार होता रहता है और बहुत सारे मामलों में तो किसान आत्मह्त्या कर लेता है . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों में सल्फास का नाम नहीं सुना गया था , वहां सल्फास अब कहावतों का हिस्सा बन चुका है . सल्फास एक केमिकल है जिसको खाकर अब गाँवों में किसान अपनी निराशा और हताशा भरी ज़िंदगी को ख़त्म करता है. इसी सल्फास की रेंज में रहकर अपनी ज़िन्दगी बिता रहे लोगों की बेटियाँ घूसखोरों, नरेगा का पैसा चुराने वाले ठेकेदारों ,नेताओं, दलालों और उनके चमचों के बिगडैल लड़कों की हवस का शिकार हो रही हैं .

सवाल यह उठाता है कि क्या समाज की इन सारी विकृतियों का शिकार लड़कियों को ही क्यों बनाया जा रहा है .जवाब साफ़ है ---क्योंकि उनके पास राजनीतिक ताक़त नहीं है . इसके लिए ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है . अपने समाज में माता पिता ही अपने लड़कों और लड़कियों में भेद करते हैं . अव्वल तो लड़कियों की शिक्षा प्राथमिकता सूची में ही नहीं होती और अगर बच्ची को स्कूल भेजा भी जाता है तो उसके लिए दोयम दर्जे के स्कूलों की ही तलाश की जाती है . लड़कियों के खेलने और बाहर निकलने के बारे में हर समाज में एक आचार संहिता होती है जिसमें उसे हर मामले में लड़कों से कमज़ोर माना जाता है . ऐसी व्यवस्था की जाती है कि बच्ची हमेशा अपने को कमज़ोर माने . समाज को इस स्थिति से बाहर आना पड़ेगा . इसके लिए किसी सुधार की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कोई भी व्यक्ति या संगठन जो सुधार करने की कोशिश करेगा वह पूरी बात नहीं होने देगा . वह चाहेगा कि उसका हित भावी व्यवस्था में सुरक्षित रहे . इसलिए किसी समाज सुधार की साज़िश से महिलाओं के भविष्य को मुक्त रखना पडेगा. महिलाओं के बारे में सारी मान्यताएं और नियम पुरुष प्रधान समाज ने बनाए हैं . आगे भी ऐसा ही हो सकता है . इस खतरे से बचने के लिए ज़रूरी है कि महिलायें को इस सड़ी-गली व्यवस्था में इज्ज़त दिलाने का काम महिलाओं के ही कंधों पर डाला जाए. ऐसा अवसर उपलब्ध हैं. लोकसभा ने महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी देने के लिए एक बिल मौजूद है जिसे अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देकर पास कर दिया जाए तो असली परिवर्तन शुरू हो सकता है .हालांकि यह मुगालता भी नहीं पालना चाहिये इस कानून से कोई क्रांतिकारी परिवर्तन होगा. क्योंकि शुरू में तो सत्ता प्रतिष्टानों के ठेकदारों की हुक्म बजाने वाली उनके घरों की महिलायें ही सत्ता में आयेंगीं लेकिन बाद में जनता भी आयेगी क्योंकि जनता के तूफ़ान को कभी कोई नहीं रोक सकता है . इसलिए हमारी बेटियों को अपराधियों की हवस से बचाने का एक ही रास्ता है कि उन्हे राजनीतिक सत्ता की चाभी दे दी जाए.

Monday, September 27, 2010

अमरीका को अफगानिस्तान में वियतनाम की हार की याद आ गयी

शेष नारायण सिंह

अमरीका की फौजें अफगानिस्तान में बुरी तरह से फंस गयी हैं . सैनिक इतिहास के जानकार बताते हैं कि अफगानिस्तान में अमरीका की जो जकड़न है, वह उसकी वियतनाम की दुर्दशा से भी भयावह है. मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति के पूर्ववर्ती ,जार्ज डब्ल्यू बुश ने अफगानिस्तान में सैनिक कार्रवाई शुरू की थी . पता नहीं किस मुगालते में उन्होंने यह सोच लिया था कि अफगानिस्तान के तालिबान हुक्मरान को ख़त्म करने के लिए उन्हें पाकिस्तान से मदद मिलेगी. अमरीकी नीतिकारों की अक्ल पर पड़े हुए परदे ने उन्हें यह देखने ही नहीं दिया कि पाकिस्तानी फौज की एक शाखा के रूप में काम करने वाले तालिबान के खिलाफ पाकिस्तानी सेना कैसे काम करेगी. तुर्रा यह कि उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ खुद तालिबान के संरक्षक थे. बहरहाल अरबों अरब डालर खर्च करके अब अमरीका को लगने लगा है कि गलती हो गयी. इस बीच अमरीकी फौज की गफलत के चलते तालिबान फिर से संगठित हो गए हैं और अब अमरीकी सेना के सामने एक बड़ी चुनौती खडी है. पता चला है कि तालिबान के गढ़ , कंदहार और उसके आस पास के इलाकों में तालिबान इतने मज़बूत हो गए हैं कि उनको वहां से हटाने के लिए अमरीकी सेना ने अब तक का सबसे ज़बरदस्त सैनिक अभियान शुरू कर दिया है . पिछले कुछ दिनों में इस इलाके से सोलह अमरीकी सैनिकों के मारे जाने की खबर है . जबकि बहुत सारे सैनिक मारिजुआना के खेतों में छुपे तालिबान लड़ाकों के हमलों के शिकार हुए हैं .नैटो के प्रवक्ता, ब्रिगेडियर जनरल जोसेफ ब्लोट्ज़ बताया कि पिछले एक हफ्ते से अर्घंदाब , ज़हरी और पंजवाई जिलों में तालिबान के सफाए के प्रोजेक्ट पर काम शुरू हो गया है .उन्हें उम्मीद है कि लड़ाई ज़बरदस्त होगी. आज की ज़मीनी सच्चाई यह है कि तालिबान ने अपने सबसे मज़बूत ठिकाने, कंदहार में पाँव जमा लिए हैं और उनको वहां से हटाने के बाद ही अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों का पलड़ा भारी पडेगा. जहरी जिले के पुलिस प्रमुख बिस्मिल्ला खान ने बताया अमरीकी और अफगान फौजों का हमला पिछले एक हफ्ते से जारी है लेकिन नतीजों के बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम.

अफगानिस्तान में अमरीकी मुसीबतों के कारण तालिबान ही नहीं है . वे अपने ही आदमी , राष्ट्रपति हामिद करज़ई से भी परेशान हैं . अमरीका की तरफ से अफगानिस्तान को संभाल रही खुफिया एजेंसी सी आई ए से करज़ई की पटरी नहीं बैठ रही है . सी आई ए ने आरोप लगाया है कि हामिद करज़ई अक्सर टुन्न रहते हैं और ज़्यादातर नशे का सेवन करते रहते हैं .सी आई ए का आरोप है कि जिस अफगानिस्तान में अमरीकी टैक्स का १२० अरब डालर हर साल फूंका जा रहा है ,वहां का राष्ट्रपति अगर नशेड़ी होगा तो कैसे गुज़र होगा. सी आई ए ने यह भी रिपोर्ट दी है कि करज़ई की पागलपन की बीमारी कई बार इतनी ज़बरदस्त हो गयी थी कि उनका इलाज़ करवाना पड़ा था. खबर यह भी है कि वे बहुत ही भ्रष्ट आदमी हैं और उनके कई रिश्तेदार ड्रग्स के कारोबार में लगे हुए हैं और सबको हामिद करज़ई का संरक्षण प्राप्त है . अमरीकी रक्षा विभाग ने कई बार करज़ई को यह सलाह दी है कि वे राजपाट छोड़कर दुबई में जाकर अपना घर बसायें लेकिन अभी करज़ई इसके लिए तैयार नहीं हैं .इस साल की शुरुआत में अफगानिस्तान में अमरीकी राजदूत , पीटर गालब्रेथ ने आरोप लगाया था कि करज़ई मादक दवाओं का सेवन करते हैं और उनका दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता .गालब्रेथ ने कहा था कि उनके पास राष्ट्रपति के आवास के अन्दर रहने वालों की तरफ से सूचना आई थी कि करज़ई हशीश का दम भी लगाते हैं . अपनी चिट्ठी में गालब्रेथ ने मांग की है कि करज़ई के बारे में अमरीका को अपनी नीतियों पर फिर से विचार करना पडेगा. क्योंकि उनकी नज़र में करज़ई बिकुल बेमतलब के आदमी हैं .

उधर पाकिस्तान में भी अमरीकी नीति पूरी तरह से पराजित हो गयी है . पाकिस्तान के उत्तरी इलाकों में तालिबान और अल-कायदा के ज़्यादातर आतंकवादी छुपे हुए हैं . उनके खिलाफ जब अमरीकी सेना ने हमले की योजना बनायी तो उसे पाकिस्तानी सेना को भी साथ लेना पड़ा . पाकिस्तानी सेना पर आई एस आई के असर का नतीजा है कि उस अभियान में शामिल ज़्यादातर सैनिक तालिबान के हमदर्द ही थे और अमरीकी सेना के बारे में तालिबान तक पूरी खबर पंहुचाते थे. ज़ाहिर है अमरीका का यह काम भी बट्टे खाते में ही जाएगा. ऐसी हालत में अब यह साफ़ हो गया है कि अपने अफगानिस्तान के मिशन में अमरीका बुरी तरह से फंस गया है और उसकी हालत वहां वियतनाम से भी खराब होने वाली है . राष्ट्रपति ओबामा इस सारी मुसीबत से बच निकलने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं लेकिन बच निकलने की संभावना बहुत कम है

कश्मीर में सकारत्मक पहल की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह

जम्मू-कश्मीर में भारत के राजनीतिक इकबाल की बुलंदी की कोशिश शुरू हो गयी है .कश्मीर में जाकर वहां के लोगों से मिलने की भारतीय संसद सदस्यों की पहल का चौतरफा असर नज़र आने लगा है . सबसे बड़ा असर तो पाकिस्तान में ही दिख रहा है . पाकिस्तानी हुक्मरान को लगने लगा है कि अगर कश्मीरी अवाम के घरों में घुस कर भारत की जनता उनको गले लगाने की कोशिश शुरू कर देगी तो पाकिस्तान की उस बोगी का क्या होगा जिसमें कश्मीरियों को मुख्य धारा से अलग रखने के लिए तरह तरह की कोशिशें की जाती हैं .पाकिस्तान की घबडाहट का ही नतीजा है कि उनकी संसद में भी भारत की पहल के खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया और अमरीका की यात्रा पर गए उनके विदेश मंत्री अमरीकियों से गिडगिडाते नज़र आये कि अमरीका किसी तरह से कश्मीर मामले में हस्तक्षेप कर दे जिससे वे अपने मुल्क वापस जा कर शेखी बघार सकें कि अमरीका अब उनके साथ है . . जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर गए सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल को आम कश्मीरी से मिलने का मौक़ा तो नहीं लगा लेकिन हज़रत बल और अस्पताल में वे कुछ ऐसे लोगों से मिले जिन्हें उमर अब्दुल्ला की सरकार पकड़ कर नहीं लाई थी . यह अलग बात है कि कुछ दकियानूसी प्रवृत्ति के लोगों ने इस प्रतिनधिमंडल को कांग्रेसी पहल मानकर इसमें खामियां तलाशने की कोशिश की लेकिन लगता है उन लोगों को भी यह अहसास हो गया कि वे गलती कर रहे थे क्योंकि यह प्रतिनधिमंडल पूरे भारत की राजनीतिक इच्छाशक्ति को व्यक्त करता था. जो लोग खासकर प्रतिधिमंडल के सामने प्रायोजित तरीके से लाये गए थे उनसे कोई बात नहीं निकल कर सामने आई क्योंकि सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल में केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला बैठे रहते थे . प्रतिनधिमंडल के एक सदस्य मोहन सिंह ने बताया कि लगता था कि जो लोग पेश किये जा रहे थे उन्हें सब सिखा पढ़ाकर लाया गया था और फारूक अब्दुल्ला उन लोगों पर नज़र रख रहे थे जो उनके बेटे के खिलाफ कुछ भी बोलते थे. इसलिए इस बैठक में सही बात सामने नहीं आ सकी. लेकिन कुछ बातें साफ़ हो गयीं . सबसे बड़ी बात तो यही कि कांग्रेस और केंद्र सरकार की यह जिद कि जब तक हालात सामान्य नहीं होते बात चीत नहीं होगी, को तोड़ दिया गया. सभी पार्टियों के नेताओं को पहली बार पता लगा कि कश्मीर में भारत के प्रति नाराज़गी का स्तर क्या है . अब पूरी राजनीतिक बिरादरी को मालूम है कि नाराज़गी बहुत गहरी है और अब उसका राजनीतिक स्तर पर हल तलाशा जायेगा. सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल के सदस्य सीताराम येचुरी ने बताया कि वहां जाने पर पता चला कि भारत के प्रति कितनी नाराज़गी है . आज़ादी की बात अस्पतालों में भर्ती होने के बावजूद भी लोग करते हैं . सच्चाई यह है केंद्र और राज्य सरकारों ने वहां की स्थिति की सही जानकारी नहीं रखी है . जितनी नज़र आती है स्थिति उस से बहुत ज्यादा खराब है . सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल में शामिल लोगों को कश्मीरियों ने बताया कि उनकी ज़िंदगी बिलकुल बर्बाद हो गयी है . घर से बाहर निकलना दूभर हो गया है .
ऐसी हालत में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से बहुत उम्मीदें हैं .राजनीतिक आकलन के बाद सरकार ने फ़ौरन पहल की है लेकिन ध्यान रखना होगा कि वहां की मौजूदा सरकार की विश्वसनीयता पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी है .इसलिए सरकार जो भी पहल करेगी उसे सही तरीके से लागू करने के लिए उमर अब्दुल्ला की सरकार के अलावा कोई और तरीका सोचना पडेगा. अभी जो पैकेज घोषित किया गया है ,वह एक अच्छी शुरुआत है लेकिन कहीं वह उमर सरकार की नाकामी और लालची नेताओं की बलि न चढ़ जाए .सरकार ने घोषणा की है कि ११ जून से शुरू हुए विरोध में मरने वालों के परिवारों में से हर एक परिवार को पांच पांच लाख रूपया दिया जाएगा . जिन लड़कों पर केवल पत्थर फेंकने के आरोप हैं और अन्य कोई संगीन मामला नहीं है ,उन्हें केंद्र सरकार की सिफारिश पर रिहा किया जाएगा. . राजनीतिक पार्टियों,छात्रों और सिविल सोसाइटी के लोगों से बातचीत करने के लिए कुछ लोगों की कमेटी बनायी जायेगी जो संवाद का माहौल तैयार करेगी. शिक्षा संस्थाओं को ठीक करने के लिए एक सौ करोड़ रूपये की फौरी सहायता दी जायेगी . राज्य के स्कूलों को जल्दी खोलने के लिए राज्य सरकार पर दबाव डाला जाएगा .पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत पकडे गए लोगों के मामलों की जांच की जायेगी और राज्य में बुनियादी ढाँचे को दुरुस्त करने के लिए एक टास्क फ़ोर्स के गठन की भी बात है. उम्मीद की जानी चाहिए कि अब कश्मीर में महाल बदलेगा और हालात में कुछ सुधार होगा.

Sunday, September 26, 2010

भारत ने पाकिस्तान को कश्मीर खाली करने की चेतावनी दी

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख २६ सितम्बर के दैनिक जागरण में छापा हुआ है )

भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा आम तौर पर कमज़ोर राजनेता माने जाते हैं .और विदेश मंत्री के रूप में तो खैर वह बहुत ही कमज़ोर हैं ही . विदेश मंत्रालय के अफसरों में भी शायद अब लीदार्शोप रोल १९८० के बाद ग्रेजुएशन करने वाले लोग आ गए हैं जो अपने समय के सबसे कुशाग्रबुद्धि लोग नहीं हैं . उस दौर में बेहतरीन टैलेंट अन्य क्षेत्रों में जाने लगा था .शायद इसीलिये कूटनीति के क्षेत्र में पाकिस्तान जैसा मामूली मुल्क भी भारत के विदेशमंत्री को कूटनीति के मैदान में मात पर मात दे रहा था . विदेश मंत्री का संयुक्त राष्ट्र की महासभा में दिया गया भाषण इस बात को नकारता है . वहां विदेश मंत्री ने पाकिस्तान समेत बाकी दुनिया को भारत की मजबूती का अहसास करा दिया है . उन्होंने अपने भाषण में पाकिस्तान को साफ़ समझा दिया कि कश्मीर विवाद में जो सबसे महत्वपूर्ण बात होनी है उसे पाकिस्तान को सबसे पहले करना चाहिए . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों से पाकिस्तान को अपना गैरकानूनी क़ब्ज़ा हटा लेना चाहिये . उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि उसे अब गैरज़िम्मेदार तरीके से आचरण नहीं करना चाहिए और भारत को यह बताने से बाज़ आना चाहिए कि वह कश्मीर का प्रशासन कैसे चलाये . पूरी दुनिया के समझदार लोग यह चाहते हैं कि पाकिस्तान अपने देश में मुसीबत झेल रहे आम आदमी को सम्मान का जीवन देने में अपनी सारी ताक़त लगाए लेकिन पाकिस्तानी फौज की दहशत में रहकर वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारत विरोधी राग अलापते रहते हैं . आज की भू भौगोलिक सच्चाई यह है कि अगर पाकिस्तानी नेता तमीज से रहें तो भारत के लोग और सरकार उसकी मदद कर सकते हैं . पाकिस्तान को यह भरोसा होना चाहिए कि भारत को इस बात में कोई रूचि नहीं है कि वह पाकिस्तान को परेशान करे लेकिन मुसीबत की असली जड़ वहां की फौज है . फौज के लिए भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाना लगभग असंभव है . इसके दो कारण हैं . पहला तो यह कि भारत से दुश्मनी का हौव्वा खड़ा करके पाकिस्तानी जनरल अपने मुल्क में राजनीतिक और सिविलियन बिरादरी को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं . इसी के आधार पर उसे चीन जैसे देशों से थोड़ी बहुत आर्थिक मदद भी मिल जाती है . लेकिन दूसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है . आज की पाकिस्तानी फौज में टाप पर वही लोग हैं जिन्होंने १९७१ के आसपास पाकिस्तानी फौज़ में लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी और सेना में अपने जीवन का पहला अनुभव भारत के से हार के रूप में मिला था . उनके बहुत सारे साथी भारत में युद्ध बंदी बना लिए गए थे . उस दर्द को पाकिस्तानी फौज का आला नेतृत्व अभी भूल नहीं पाया है .उसी लड़ाई में पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा उस से अलग हो गया था और बंगलादेश की स्थापना हो गयी थी. पाकिस्तानी फौज़ को यह दंश हमेशा सालता रहता है . इसी दंश की पीड़ा के चक्कर में उनके एक अन्य पराजित जनरल , जिया -उल -हक ने भारत के पंजाब में खालिस्तान बनवा कर बदला लेने की कोशिश की थी . मैजूदा फौजी निजाम यही खेल कश्मीर में करने के चक्कर में है . फौज को मुगालता यह है कि उसके पास परमाणु बम है जिसके कारण भारत उस पर हमला नहीं करेगा . लेकिन ऐसा नहीं है . अगर कश्मीर में पाकिस्तानी फौज और आई एस आई ने संकट का स्तर इतना बढ़ा दिया कि भारत की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो गया तो भारतीय फौज पाकिस्तान को तबाह करने का माद्दा रखती है और वह उसे साबित भी कर सकती है . लेकिन फौजी जनरल को अक्ल की बात सिखा पाना थोडा टेढ़ा काम होता है . इसी तरह के हवाई किले बनाते हुए जनरल अयूब और जनरल याहया ने भारत पर हमला किया था जिसके नतीजे पाकिस्तान आज तक भोग रहा है .और उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती रहेगीं.
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो ,पाकिस्तानी हुक्मरान उससे बेखबर हैं .पाकिस्तानी सिविलियन सरकार के गैरज़िम्मेदार विदेश मंत्री भी आजकल अमरीका में हैं . वहां उन्होंने अमरीका से अपील की है कि उसे कश्मीर में भी उसी तरह से दखल देना चाहिये जैसे वह फिलिस्तीन में कर रहा है . अब इन पाकिस्तानी विदेशमंत्री जी को कौन समझाए कि पश्चिम एशिया में हालात दक्षिण एशिया से अलग हैं . वहां इजरायल सहित ज़्यादातर मुल्क अमरीका के दबाव में हैं .लेकिन दक्षिण एशिया में केवल पाकिस्तान पर उस तरह का अमरीकी दबाव है क्योंकि वह अमरीकी खैरात पर जिंदा है . जहां तक भारत का सवाल है ,वह एक उभरती हुई महाशक्ति है और अमरीका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रहा है . इस लिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो१९६५ में जनरल अयूब ने की थी . उनको लगता था अकी जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा और भारत कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआऔर पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. इस बार भी भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के सन इकहत्तर की लड़ाई के हारे हुए अफसर बदले की आग में जल रहे हैं , वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है . इसलिए इस बात का ख़तरा बढ़ चुका है कि पाकिस्तानी जनरल अपनी सेना के पिछले साठ साल के इतिहास से सबक न लें और भारत पर हमले की मूर्खता कर बैठें . ऐसी हालत में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कश्मीर से पाकिस्तान को हटने की चेतावानी देकर एस एम कृष्णा ने अच्छा काम किया है ताकि सनद रहे और अगर पाकिस्तानी फौज हमला करने के खतरे से खेलती है तो बाकी दुनिया को मालूम रहे कि भारत न तो गाफिल है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह की दया दिखाएगा .

Saturday, September 25, 2010

यूं ही खिलाएं हैं हमने आग में फूल , न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई

शेष नारायण सिंह

भड़ास के संकट के बारे में जानकारी मिलने के बाद थोडा दुखी था. भड़ास और उसके जैसे कई अन्य पोर्टल मीडिया के जनवादीकरण के नायक हैं . इनमें कई नौजवानों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ. इनके पास अपने कंधे पर लटके हुए झोले में रखे कम्प्यूटर के अलावा कुछ नहीं है . ज़्यादातर अपने उसी कमरे से काम चला रहे हैं जिसमें वे रहते हैं . ऐसे ही एक नायक ने पिछले दिनों अपना ज़्यादातर वक़्त दोस्तों के घर में या सडकों पर बिताया . दिल्ली की मई जून की गर्मी उन्होंने अपने स्कूटर पर सवार होकर बिताई . ज़िंदगी की चुनौती को झेल रहे इस पत्रकार ने लगभग रोज़ ही कुछ न कुछ ऐसा पोस्ट किया जो पत्राकारिता की दिशा तय करने में कामयाब होने की क्षमता रखता था . बहुत बाद में मुझे पता चला कि वे दर ब दर हो गए हैं लेकिन काम चलता रहा. भड़ास का संकट जब पब्लिक डोमेन में आया तो मैं सन्न रह गया. मुझे लगा कि अब मदर इण्डिया वाले साहूकार की तरह कोई सेठ आयेगा और भड़ास के संचालक से उस पोर्टल को खरीद लेगा. मैं जानता हूँ कि पूंजी इसी तरह से आम आदमी के आन्दोलनों को को-आप्ट करती है. इसलिए भड़ास के किसी भी पैसे वाले नेता, सेठ या कंपनी के भोंपू बनने के खतरे साफ़ नज़र आने लगे लेकिन अब खबर आई है कि संकट ख़त्म हो गया .राहत की सांस आ रही है लेकिन कितने दिन ? बकरे की माँ को खैर मनाने का विकल्प बहुत कम वक़्त के लिए मिलता है . आज नहीं तो कल यह संकट फिर आयेगा और कहीं ऐसा न हो कि भड़ास का संचालक हिम्मत हार जाए . वह मीडिया के जनवादीकरण का बहुत बुरा दिन होगा. भड़ास जैसे और भी कुछ पोर्टल हैं .. विस्फोट है , जो किसी भी फीचर सम्पादक के लिए संकट मोचक है और किसी भी राजनीतिक पार्टी की एकाधिकारवादी सोच पर अक्सर लगाम लगाता रहता है . उसका सचालक भी आर्थिक संकट में रहता है . जनतंत्र और मोहल्ला वाले भी अपना सब कुछ दांव पर लगाकर मीडिया के जनवादीकरण के यज्ञ में अपनी आहुति दे रहे हैं . अभी हस्तक्षेप और नेटवर्क ६ भी आ गए हैं . यह सारे प्रयास अपने संचालकों की प्रतिबद्धता की वजह से चल रहे हैं और पूंजीवादी मीडिया की मनमानी को चुनौती दे रहे हैं . दकियानूसी विचारों को बहस की सरज़मीन पर बार बार लथेर रहे हैं . सबको बहस में शामिल होने का मौक़ा दे रहे हैं .

सवाल यह उठता है कि क्या इस वैकल्पिक और ताक़तवर मीडिया को मर जाने देना जनहित में है . मुझे लगता है कि सूचना के इस माध्यम को जिंदा रखना जनहित में है. यह माध्यम हुक्मरान और पूंजी के सेठों पर लगाम लगाता है. लेकिन बिना पैसे के कैसे चलेगा यह और कब तक चलेगा. जो लोग इसे चला रहे हैं, उनमें से सब की योग्यता इतनी है कि आज चाहें तो एकाध लाख रूपये महीने की नौकरी पकड़ लें लेकिन सूचनाक्रान्ति के उस रथ का क्या होगा जिसके सारथी बनकर यह लोग भावी मीडिया की कुण्डली बना रहे हैं . ऐसा ही संकट एक बार तहलका पर आया था. उस वक़्त की सरकार ने लाठी भांजना शुरू कर दिया था . उन लोगों को भी जेल की हवा खिला दी थी जो तहलका के संस्थापक , तरुण तेजपाल के मित्र थे. तरुण के पास हार मानने का विकल्प मौजूद था लेकिन उन्होंने जीतने का फैसला किया . लेकिन यह भी तय किया कि बड़ी पूंजी को अपने आन्दोलन का कंट्रोल कभी नहीं देगें . तरुण तेजपाल ने अपने चाहने वालों से कहा अगर वे एक लाख रूपया जमा कर के तहलका के आजीवन सदस्य बनना चाहें तो तहलका फिर से शुरू हो सकता है . याद रखें, तहलका ने उस वक़्त की सरकार से पंगा लिया था और सरकार ने ही तरुण तेजपाल और उनके दोस्तों पर अजीबोगरीब आरोप लगाए थे. हज़ारों की संख्या में लोगों ने एक एक लाख रूपये जमा कर के तहलका को चला दिया . तरुण तेजपाल के सामने एक और विकल्प था कि वे चाहते तो किसी भी पूंजीपति को कह सकते थे और कोई भी उनके उद्यम में पैसा लगाकर धन्य हो जाता लेकिन तब ब्रैंड मेनेजर आ जाता, मार्केटिंग वाला ज्ञान देने लगता और फिर वह नहीं हो पाता जिसके लिए तहलका जाना जाता है .
मेरे मन में बार बार सवाल आता है कि नवजागरण के इन नायकों और उनके पोर्टलों को संभालने के लिए क्या समाज आगे नहीं आ सकता. वैकल्पिक मीडिया के यह स्तम्भ अगर गिर गए तो शायद आवाज़ तो न हो लेकिन राजनीतिक दलों और पूंजी नियंत्रित मीडिया के अन्य माध्यमों की चांदी हो जायगी और आम आदमी की पंहुच से सही खबर एक बार फिर बाहर हो जायेगी. मीडिया के इन मंदिरों के पुजारियों को भी चाहिये की सही सूचना की जिस देवी की यह लोग आराधना कर रहे हैं उस देवी के चरणों में आम आदमी के पत्र-पुष्प का भी स्वागत करें जिससे मीडिया के जनवादीकरण की यह चिंगारी एक ऐसा शोला बन जाए कि आम आदमी की पक्षधरता के सिवा पूंजीवादी मीडिया के सामने कोई रास्ता ही न बचे .
ऐसा नहीं है कि यह प्रयोग पहली बार हो रहा है . बार बार हुआ है और स्थापित मान्यताओं को मुंह की कहानी पड़ी है . आर्थिक सहयोग करना सबको अच्छा लगता है . हमारे मित्र और १९७७ के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के यूनियन के चुनावों के एक महत्वपूर्ण नेता, राजेन्द्र शर्मा की एक सूक्ति मुझे याद आती है . नए लोगों को बता देना ज़रूरी है कि १९७७ का चुनाव इंदिरा-संजय की इमरजेंसी की तानाशाही की हार के बाद लड़ा गया था . राजेन्द्र शर्मा सीताराम येचुरी और उनकी टीम के लिए वोट मांग रहे थे. वोट के साथ चुनाव के लिए वे एक रूपये की आर्थिक सहायता भी लेते थे. जब उनके इस काम पर चर्चा हुई तो आपने फरमाया कि जो भी एक रूपया दे देगा , वह इस चुनाव में जनवादी ताक़तों का पक्ष धर हो जाएगा. राज्नेद्र की उस बात को मैंने बार बार टेस्ट किया है और आज लगता है कि पूंजीवादी मीडिया की मनमानी रोकने के लिए आम आदमी को अपनी पक्षधरता का ऐलान करना चाहिए .

Thursday, September 23, 2010

कश्मीर में सर्वदलीय पहल में अडंगा लगाने की बी जे पी की कोशिश

शेष नारायण सिंह

कश्मीर की हालात के बारे में केंद्र सरकार का ताज़ा रुख स्वागत योग्य है . बहुत वर्षों बाद केंद्र सरकार के नेता कश्मीर समस्या के बारे में शुतुरमुर्गी नीति से बाहर निकल पाए हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की दो दिन की यात्रा पर गया सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर की समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में रखने में मील का पत्थर साबित होगा..यह अलग बात है कि बी जे पी ने इस अवसर पर भी राजनीति खेलने की कोशिश की लेकिन आज पूरे देश में कश्मीर समस्या का हल खोजने का माहौल बन चुका है . लगभग सभी चाहते हैं कि कश्मीर समस्या में पाकिस्तान की दखलंदाजी ख़त्म हो. देश में जागरूक जनमत को मालूम है कि कश्मीर समस्या को पैदा करने में सबसे ज्यादा योगदान बी जे पी का ही है . १९४७ में प्रजा परिषद ने कश्मीर के राजा का उस वक़्त भी साथ दिया था जब वह भारत से अलग रहना चाहता था . उस वक़्त भी प्रजा परिषद् राजा के साथ थी जब वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान से मिलना चाहता था.बाद में यही प्रजापरिषद जम्मू-कश्मीर में जनसंघ की शाखा बन गयी. इसी प्रजपरिषद के नेताओं ने डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी का इस्तेमाल शेख अब्दुल्ला के खिलाफ किया था. और अब इसी प्रजापरिषद् की वारिस पार्टी बी जे पी ने कश्मीर समस्या के हल के लिए की जा रही सर्वदलीय पहल में अडंगा डालने की कोशिश की है . इसी पार्टी के मौजूदा नेता , अरुण नेहरू और जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर की हालात को सबसे ज्यादा बिगाड़ा है , यह बात राजनीति शास्त्र का बहुत मामूली जानकार भी बता देगा. जम्मू-कश्मीर में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य के रूप में वहां पंहुची सुषमा स्वराज ने भी हालात को बिगाड़ने में अपनी पार्टी की लाइन के हिसाब से भूमिका निभाई. सुषमा स्वराज ने खबरों में बने रहने के चक्कर में असदुद्दीन ओवैसी,सीताराम येचुरी , राम विलास पासवान आदि की उस कोशिश का विरोध किया जिसमें जम्मू कश्मीर में मुसीबत की जड़ , हुर्रियत नेताओं से संपर्क साधा गया था.देखा गया है कि सुषमा स्वराज सहित लगभग सभी बी जे पी नेताओं की इच्छा रहती है कि वे ही सबके ध्यान का केंद्र बने रहें. शायद इसी चक्कर में उन्होंने अलगाववादी नेताओं से हुई मुलाक़ात को विवाद के घेरे में लाकर अखबारी सुर्ख़ियों में अपना नाम दर्ज करवाया होगा. लेकिन इस बात में दो राय नहीं कि कश्मीर की हालत पर सरकारी अफसरों या नेशनल कान्फरेंस के नेताओं की रिपोर्ट को सच मान कर फैसले लेना गलत था . सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल की यात्रा पिछले ३० साल से जो हो रहा है उसे राष्ट्रहित की कसौटी पर जांचने का यह एक अहम प्रयास है . किसी भी लोकतंत्र के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण है कि सरकार के नीतिगत फैसलों में राजनीतिक बिरादरी के इनपुट का अहम रोल हो . कश्मीर के सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू की मौत के बाद जयप्रकाश नारायण ने इस दिशा में कोशिश की थी और उसका नतीजा भी निकला था . १९७७ का चुनाव कश्मीर में हुए अब तक के चुनावों में सबसे पारदर्शी चुनाव माना जाता है . लेकिन १९८० में दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी के बाद सब कुछ खराब हो गया . पता नहीं किस सोच के तहत इंदिरा गाँधी ने अरुण नेहरू को कश्मीर के मामले में खुली छूट दे दी थी और उनके साथ मिलकर जगमोहन जैसे उनके सलाहकारों ने कश्मीर की राजनीति का मलीदा बना दिया और पाकिस्तान को दखल देने के अवसर उपलब्ध करवाए. . नतीजा सबके सामने है . एक मुकाम तो यह भी आया कि भारत के गृहमंत्री की बेटी को भी आतंकवादियों ने अगवा कर लिया. हालात दिन ब दिन खराब होते गए. आज स्थिति यह है कि कश्मीर से वहां के पंडितों को आतंकवादियों ने भगा दिया है और आतंकवादियों की मनमानी चल रही है . उनको घेर कर भारत की सोच का हिस्सा बनाने की इस राजनीतिक कोशिश का स्वागत किया जाना चाहिए . लेकिन बी जे पी यहाँ भी राजनीतिक बडबोलेपन से बाज़ नहीं आ रही है . बी जे पी को कश्मीर के सन्दर्भ में अपनी सोच की ओवर हालिंग करनी चाहिए वरना अगर कश्मीर में कुछ भी उल्टा सीधा हुआ तो आने वाली नस्लें उसके लिए बी जे पी और उसकी तरह की सोच वालों को ज़िम्मेदार ठहरायेगी . ठीक उसी तरह जैसे आज हर समझदार आदमी कश्मीर की हालात बिगाड़ने के लिए प्रजापरिषद , जनसंघ और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को ज़िम्मेदार मानता है .
इस बार कश्मीर के मसले को ठीक करने की पहल में राजनीति के साथ साथ कूटनीतिक पहल भी हो रही है . पाकिस्तानी संसद में एक गैरजिम्मेदार प्रस्ताव पारित हुआ था जिसमें जम्मू-कश्मीर के मामले में गैरज़रूरी हस्तक्षेप की बू आ रही थी . भारत सरकार ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई है . विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने एक बयान में सरकार की मंशा साफ़ कर दी है . प्रवक्ता ने बताया कि ' हमने पाकिस्तान की कौमी असेम्बली और सेनेट में पास किये गए प्रस्ताव को देखा है . हम उसे सिरे से खारिज करते हैं ..पाकिस्तान का जम्मू-कश्मीर के मामलों में कोई रोल नहीं है .क्योंकि कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है वह भारत का आतंरिक मामला है.'.विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बताया कि पाकिस्तान को चाहिए कि वह अपने देश में संविधान लागू करे और जम्मू-कश्मीर का जो इलाका पाकिस्तान के गैर कानूनी कब्जे में है , वहां लोकतंत्र की स्थापना करे , आतंकवाद को अपने देश से ख़त्म करे और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर सहित बाकी इलाकों में मानवाधिकारों की बहाली करे . पाकिस्तान की हालत आजकल बहुत खराब हैं . आतंकवाद, घूस , बे-ईमानी , फौज की मनमानी , गरीबी जैसे संकट से गुज़र रहे पाकिस्तान के नेताओं को चाहिए कि वे अपने देश में इंसान की इज़्ज़त करने की कोई तरकीब शुरू करें . कुदरत ने भी पाकिस्तान को घेर लिया है . इस साल वहां आई बाढ़ ने पाकिस्तानी समाज को तहस नहस कर दिया है लेकिन घूस की गिज़ा खाकर सत्ता के केंद्र में बैठे पाकिस्तानी नेता भारत के मामलों में टांग अडाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं . भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों ने कश्मीर के प्रति जो सकारात्मक रुख अपनाया है , उसके बाद तो लगता है कि कश्मीरी जनता एक बार अपने आप को फिर भारत का हिस्सा मानने में गर्व महसूस करेगी

Wednesday, September 22, 2010

अफगानिस्तान में इंसान को मारकर खुश होते थे अमरीकी सैनिक

शेष नारायण सिंह



अमरीकी फौजियों की वहशत का एक नया मामला सामने आया है . पता चला है कि अफगानिस्तान में तैनात अमरीकी सेना के दूसरे इन्फैंट्री डिवीज़न के पांचवे स्ट्राइकर कोम्बाट ब्रिगेड के कुछ सैनिकों ने एक ऐसा खेल ईजाद किया जिसमें अफगानिस्तान के निर्दोष नागरिकों को मार डालने और बच निकलने को मज़े के लिए खेले जाने वाले एक खेल का रूप दे दिया गया था . इस जालिमाना खेल का और कोई नियम नहीं था . बस कोई बहाना ढूंढ कर किसी निर्दोष अफगान नागरिक को मार डालना था . हर वारदात के लिए नंबर मिलते थे. यह खेल २००७ में १५ जनवरी को शुरू हुआ जब एक अफगान नागरिक ब्रिगेड की कैम्प के पास आया . एक सैनिक ने एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया और कहा कि वह अफगान हमला करने की गरज से आया था , बस क्या था ,बाकी लोगों ने गोलियां बरसाना शुरू कर दिया . यह खेल एक महीने तक चलता रहा और बहुत सारे अफगान नागरिक मारे गए. ज़ुल्म का आलम यह था कि इस प्लाटून के सदस्य मरे हुए नागरिकों की लाशों की फोटो खींच कर ट्राफी की तरह रखते थे. एक सैनिक के पास तो एक नरमुंड भी पकड़ा गया है . ऐसा नहीं है कि सेना के अधिकारियों को इसके बारे में मालूम नहीं था. एक अमरीकी नागरिक ने अमरीकी सेना के सर्वोच्च नेतृत्व को इस तरह की पहली ह्त्या बाद ही चेतावनी दे दी थी . उसका अपना ही बेटा इस खेल में शामिल था जिसने अपने पिता को इस सम्बन्ध में जानकारी देते हुए ,शेखी बघारी थी लेकिन सेना के बड़े अधिकारियों ने इस जानकारी को पूरी तरह से नज़रंदाज़ किया था. यहीं नहीं इस सैनिक के पिता को सेना के अधिकारियों ने डांट भी दिया था. इस जघन्य अपराध में शामिल अमरीकियों ने अफगानिस्तान के कंदहार प्रांत में और भी कई आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने का काम किया है . उनके ही एक साथी ने जब इस सारे मामले को ऊपर तक पंहुचाने की कोशिश की तो उसे भी ठिकाने लगाने की कोशिश की गयी. अपराधी फौजियों के इस कारनामे की जांच अब अमरीकी सेना कर रही है लेकिन उन्हें अपराधी सैनिकों को सज़ा दिलवाने से ज्यादा चिंता इस बात की है कि कहीं बात खुल न जाए क्योंकि उस हालत में अमरीकी सेना की बहुत बदनामी होगी . अपराधी सैनिकों के घर वाले और उनके वकील अपने बन्दों को निर्दोष बता रहे हैं और औरों के ऊपर आरोप लगा रहे हैं लेकिन बात इतनी गंभीर है कि अपराध के बारे में किसी को शक़ नहीं है . जानकार बाते हैं कि बात के खुल जाने के बाद अमरीकी अधिकारी जांच इस लिए कर रहे हैं कि मामले को रफा दफा किया जा सके. लेकिन अब यह इतना आसन नहीं होगा क्योंकि चश्मदीद गवाहों ने इस मौत के अमरीकी खेल के पहले शिकार की पहचान गुलमुद्दीन नाम के अफगान के रूप में की है ,जो कंदहार प्रांत के मैवंद जिले के ला मोहम्मद काले गाँव का रहने वाला था . वह इस वहशत भरे अपराध का पहला शिकार था इसके बाद क़त्ल का यह सिलसिला चलता रहा और अमरीकी प्रशासन के बड़े फौजियों ने हस्तक्षेप करने के बजाय मामले को दबाने की कोशिश की. अपराध में शरीक एक अमरीकी सैनिक के पिता ने सारे मामले को बाहर लाने में मदद की , यह अलग बात है कि अब उसकी परेशानियाँ बहुत बढ़ गयी हैं . शुरू में तो उसे अधिकारियों ने टालने की कोशिश की लेकिन बाद में उनकी कोशिश रंग लाई और अब सेना ही जांच कर रही है . बात मीडिया की नज़र में है इसलिए दब जाने की कोई संभावना नहीं है . जब अमरीका ने आज से करीब ९ साल पहले अफगानिस्तान का अभियान शुरू किया था तो जानकारों ने कहा था कि यह अमरीका के लिए वियतमान से भी ज्यादा मुश्किल सैनिक अभियान साबित होगा लेकिन उन दिनों अमरीकी राष्ट्रपति , बुश जूनियर के पास ब्रिटेन के प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर थे जो बुश की हर बात को सही साबित करने के लिए व्याकुल रहते थे. बहर हाल अमरीका ने जिस मकसद को घोषित करके अफगानिस्तान पर हमला किया था वहां तक पंहुचने की तो कोई संभावना ही नहीं है . क्योंकि अल कायदा और उसके मातहत काम करने वाले तालिबान पहले से ज्यादा मज़बूत हो गए हैं जबकि अमरीका अफगानिस्तान की लड़ाई में रोज़ ही शिकस्त झेल रहा है .अब तो मानवाधिकारों के क्षेत्र में इतनी नीच गतिविधियों में शामिल अपने फौजियों को लेकर अमरीकी सेना कहाँ मुंह छुपाएगी.

जहां तक अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले की बात है ,उसे तो अब कोई सही नहीं मानता लेकिन इस हमले से हुए अमरीकी नुकसान का आकलन कर पाना अपने आप में एक कठिन काम है . इस लड़ाई में अमरीकी सेना के बहुत ज्यादा सैनिक मारे गए हैं , बहुत ज़्यादा धन लगा है और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले एक मुल्क को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता देनी पड़ी है . लेकिन उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति बुश को आम तौर पर मंदबुद्धि इंसान मान जाता है . उन्होंने इस मूर्खता पूर्ण अभियान की शुरुआत की थी जिसे आने वाले वक़्त में अमरीकी जनता भोगेगी.

Monday, September 20, 2010

सफ़ेद हाथी, प्रसार भारती और कांग्रेसी राज में ईमानदारी के नए प्रतिमान

शेष नारायण सिंह

१९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो तय किया गया कि टेलीविज़न और रेडियो की खबरों के प्रसारण से सरकारी कंट्रोल ख़त्म कर दिया जाएगा. क्योंकि ७७ के चुनाव के पहले और १९७५ में इमरजेंसी लगने के बाद दूरदर्शन और रेडियो ने उस वक़्त की इंदिरा-संजय सरकार के लिए ढिंढोरची का काम किया था और ख़बरों के नाम पर झूठ का एक तामझाम खड़ा किया था . जिन सरकारी अफसरों से उम्मीद थी कि वे राष्ट्रहित और संविधान के हित में अपना काम करेगें ,वे फेल हो गए थे. उस वक़्त के सूचनामंत्री विद्याचरण शुक्ल संजय गांधी के हुक्म के गुलाम थे. उन्होंने सरकारी अफसरों को झुकने के लिए कहा था और यह संविधान पालन करने की शपथ खाकर आई ए एस में शामिल हुए अफसर रेंगने लगे थे. ऐसी हालत दुबारा न हो , यह सबकी चिंता का विषय था और उसी काम के लिए उस वक़्त की सरकार ने दूरदर्शन और रेडियो को सरकारी कंट्रोल से मुक्त करने की बात की थी. यह प्रसार भारती की स्थापना का बीज था और आज वह संस्था बन गयी है लेकिन अब उसकी वह उपयोगिता नहीं रही. सूचना क्रान्ति की वजह से आज किसी भी टेलिविज़न कंपनी की हैसियत नहीं है कि झूठ को खबर की तरह पेश करके बच जाए . लेकिन आज भी प्रसार भारती आम आदमी की गाढ़ी कमाई का तीन हज़ार करोड़ रूपया साल में डकार लेता है . पिछले १२ साल में भ्रष्ट नेताओं की कृपा से वहां जमे हुए नौकरशाह खूब मौज कर रहे हैं और रिश्वत की गिज़ा खा रहे हैं .. समय समय पर सरकारी मंत्रियों को भरोसे में लेकर इन अफसरों ने ऐसे नियम कानून बनवा लिए हैं कि प्रसार भारती का बोर्ड इनका कुछ भी नहीं बना बिगाड़ सकता.जबकि कायदे से यही बोर्ड ही प्रसार भारती को चला रहा है, यही प्रसार भारती के सी ई ओ का बॉस है .लेकिन मौजूदा प्रसार भारती की तो इतनी भी ताक़त नहीं बची है कि वह अपनी मीटिंग का सही मिनट्स लिखवा सके. देश की एक बहुत बड़ी पत्रकार और मीडिया की जानकार ने प्रसार भारती की अंदरूनी कहानी पर नज़र डालने की कोशिश की . उनके पास बहुत सारा ऐसा मसाला था जिसको छापने से प्रसार भारती के वर्तमान सी ई ओ की प्रतिष्ठा को आंच आ सकती थी लिहाज़ा उन्होंने उस अधिकारी से बात करने के लिए औपचारिक रूप से निवेदन किया . १० दिन तक इंतज़ार करने के बाद उन्हें मजबूरन हिम्मत छोड़ देनी पड़ी. इसके बाद जो खुलासा हुआ वह हैरतअंगेज़ है. केंद्रीय सतर्कता आयोग की जांच में जो बातें सामने आई हैं , वे इस संस्था में भारी भ्रष्टाचार की कहानी बयान करती हैं. पता चला है कि प्रसार भारती की बैठक में जो भी फैसले लिए जाते हैं , उनको रिकार्ड तक नहीं किया जाता .ऐसा इसलिए होता है कि मीटिंग के मिनट रिकार्ड करने का काम सी ई ओ का है . अगर सी ई ओ साहेब को लगता है कि बोर्ड का कोई फैसला ऐसा है जो उनके हित की साधना नहीं करता तो वे उसे रिकार्ड ही नहीं करते. जब अगली बैठक में बोर्ड पिछली बैठक के मिनट रिकार्ड का अनुमोदन का समय आता है तो बोर्ड के सदस्य यह देख कर हैरान रह जाते हैं कि मिनट्स तो वे है ही नहीं जो मीटिंग में तय हुए थे. अब नियम यह है कि मिनट्स का रिकार्ड सी ई ओ साहेब करेगें तो वे अड़ जाते हैं कि यही असली रिकार्ड है . लुब्बो लुबाब यह है कि मौजूदा व्यवस्था ऐसी है कि प्रसार भारती में अब वही होता है जो सी ई ओ चाहते हैं और आजकल यह बोर्ड की मर्जी के खिलाफ होता है . बोर्ड के पिछले अध्यक्ष, अरुण भटनागर राजनीतिक रूप से बहुतही ताक़तवर थे लेकिन मौजूदा अध्यक्ष ने उनकी एक नहीं चलने दी . आजकल तो बोर्ड और सी ई ओ के बीच ऐलानियाँ ठनी हुई है . मामला बहुत ही दिलचस्प हो गया है . कल्पना कीजिये कि बोर्ड तय करता है कि सी ई ओ की छुट्टी कर दी जाए . यह फैसला बोर्ड की एक बैठक में होगा लेकिन बैठक बुलाने का अधिकार केवल सी ई ओ का है . अगर वह बैठक नहीं बुलाता तो उसे कोई नहीं हटा सकता . इस बीच पता लगा है कि सी ई ओ के खिलाफ केंद्रीय सतर्कता आयोग ने बहुत सारे आर्थिक हेराफेरी के माले पकडे हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . क्रिकेट के मैच आजकल किसी भी प्रसारण कंपनी के लिए मुनाफे का सौदा होते हैं लेकिन दूरदर्शन ने अपने प्रसारण के बहुत सारे अधिकार बिना किसी फायदे के एक निजी कंपनी को दे दिया. सतर्कता आयोग ने इस पर भी सवाल उठाया है..प्रसार भारती के मुखिया पर आर्थिक हेरा फेरी के बहुत सारे आरोपों के मद्दे नज़र मामला प्रधानमंत्री कार्यालय के पास भेज दिया गया है. प्रसार भारती के बोर्ड के सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति पर भी सरकार नए सिरे से नज़र डाल रही है . इस बात पर भी सरकार की नज़र है कि क्या उन लोगों को प्रसार भारती के अध्यक्ष पद पर तैनात किया जाना चाहिए जिनके ऊपर सी ई ओ के एहसान हों . कुल मिलाकर एक बहुत ही पवित्र उद्देश्य से शुरू किया गया प्रसार भारती संगठन आजकल दिल्ली के सत्ता के गलियारों में सक्रिय लोगों का चरागाह बन गया है और इसमें टैक्स अदा करने वाले लोगों का तीन हज़ार करोड़ रूपया स्वाहा हो रहा है . देखना यह हिया कि मनमोहन सिंह की सरकार क्या इस विकत परिस्थिति से देश को बचा पायेगी. हालांकि सरकार के लिए भ्रष्ट अधिकारियों को बचा पाने में बहुत मुश्किल पेश आयेगी क्योंकि देश के सबसे आदरणीय अखबार, हिन्दू ने भी प्रसार भारती की हेराफेरी के खिलाफ बिगुल बजा दिया है.कांग्रेसी सत्ता के शीर्ष पर विराजमान दोनों ही लोगों की ईमान दारी की परीक्षा भी प्रसार भारती के विवाद के बहाने हो जायेगी.

Saturday, September 18, 2010

मिजवां और हैदराबाद की बेटी लीक से हटकर काम करती है

शेष नारायण सिंह
( शबाना आजमी के जन्मदिन पर एक पुराना लेख )

आज़ादी के 63 साल बाद भी देश में आज़ादी पूरी तरह से नहीं आई है . शायद इसीलिये आज़ादी का जो सपना हमारे महानायकों ने देखा था वह पूरा नहीं हो रहा है ..सबसे मुश्किल बात यह है कि राज-काज के फैसलों से देश की आधी आबादी को बाहर रखा जा रहा है ..अपने देश में आज भी महिलायें मुख्य धारा से बाहर हैं . असंवेदनशीलता की हद तो यह है कि जनगणना में गृहिणी को अनुत्पादक काम में शामिल माना गया है और उन्हें भिखारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश की गयी . लेकिन हल्ला गुल्ला होने के बाद शायद यह मसला तो दब गया लेकिन महिलाओं को सत्ता से बाहर रखने में अभी तक मर्दवादी राजनीति के पैरोकार सफल हैं और उन्हें संसद और विधान मंडलों में बराबर का हक नहीं दे रहे हैं . महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी बड़ी है जो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . अजीब बात है कि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जिन डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं , वही डॉ लोहिया महिलाओं को आरक्षण के पक्षधर थे.इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं .शबाना इस रैली की मुख्य आकर्षण थीं . उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल औरतों के बारे में नहीं है , यह इन्साफ की लड़ाई है .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि ३३ फीसदी आरक्षण कोई जादू की छडी नहीं है कि यह हो जाने के बाद सारी समस्याओं का हल मिल जाएगा. यह तो औरतों का वह हक है जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था. यह सच है कि जब महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी तो आवाहन किया था कि महिलाओं को उनका अधिकार दिया जाना चाहिए . लेकिन हुआ ठीक उसका उल्टा. आज आज़ादी के ६३ साल बाद भी संसद में केवल ८ फीसदी महिलायें हैं ज़रुरत इस बात की है कि महिलाओं को उनका वाजिब हक दिया जाए .अगर ऐसा हुआ तो हमारा समाज एक बेहतर समाज होगा क्योंकि महिलायें समाज की बेहतरी के लिए हमेशा काम करती हैं..उनको मालूम है कि यह लड़ाई मामूली नहीं है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि लोकसभा में ३३ फीसदी आरक्षण के लिए बिल पास नहीं हो जाता .

शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
इस तरह के माहौल से शबाना आजमी आई हैं . उनके बचपन की भी अजीब यादें हैं . संघर्ष करने में उनको मज़ा आता है . शायद ऐसा इसलिए कि रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाला झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हने दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे कोई जश्न का माहौल हो.

ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक आबादी के बहुत सारे लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. शबाना आज़मी एक ऐसी महिला कार्यकर्ता हैं जिन्हें पुरुषों से बेपनाह प्यार मिला है . उनका आन्दोलन पुरुष विरोधी नहीं है. उनके अब्बा, कैफ़ी आजमी उन्हें जान से बढ़ कर मुहब्बत करते थे. शबाना को आम बहुत पसंद हैं .उनके बचपन में जब बहुत गरीबी थी तो कैफ़ी अपनी बेटी को आम बहुत मुश्किल से दे पाते थे . लेकिन जब उन्हें अपने गाँव में फिर से रहने का मौक़ा मिला तो उन्होंने शबाना के लिए आम का पूरा एक बाग़ लगवा दिया . इसलिए शबाना का महिला अआरक्षण आन्दोलन में शामिल होना न तो इत्तिफाक है और नहीं किसी तरह की पुरुष विरोधी मानसिकता . वे इन्साफ की लड़ाई लड़ रही हैं .

लगता है कि अब लड़ाई एक निर्णायक मुकाम तक पंहुच चुकी है . इस संघर्ष की एक अच्छाई यह भी है कि इसमें अगुवाई उन महिलाओं के हाथ में है जो अपने क्षेत्र में बुलंदियां हासिल कर चुकी हैं , किसी नेता की बेटी या बहू नहीं हैं . उम्मीद है कि इसी सत्र में लोकसभा महिला आरक्षण को मंजूरी दे देगी और हम एक देश के रूप में गर्व से सिर ऊंचा कर सकेगें

Thursday, September 16, 2010

कश्मीर समस्या का हल सोनिया गाँधी के रास्ते ही संभव है

शेष नारायण सिंह

जम्मू-कश्मीर के संकट में सभी राजनीतिक दलों को शामिल करने की गरज से प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की पहल का स्वागत किया जाना चाहिए . कश्मीर की समस्या पिछले ६३ वर्षों से भारत के लिए मुसीबत बनी हुई है . उसका हल निकालना इसलिए बहुत मुश्किल है कि उसमें शुरू से ही पाकिस्तानी पेंच फंसी हुई है बल्कि यह कहना ठीक होगा कि कश्मीर समस्या है ही पाकिस्तान की वजह से . मुल्क के बँटवारे के बाद पता नहीं किस पिनक में पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल , मुहम्मद अली जिन्ना कश्मीर को अपना मान बैठे थे. उसी चक्कर में वे कश्मीर के उस वक़्त के राजा को पट्टी पढ़ाते रहे . लेकिन धीरज नाम की चीज़ तो जिन्ना को छू नहीं गयी थी इसलिए राजा की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बिना उन्होंने कुछ कबायलियों के साथ पाकिस्तानी सेना को भेज दिया . राजा घबडा गया और उसने सरदार पटेल के सामने आकर भारत के साथ विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिया. बाद में भारत ने पाकिस्तानी सेना को मय कबायलियों के खदेड़ा लेकिन जिन हिस्सों पर यह कबायली क़ब्ज़ा कर चुके थे , वह विवादित हो गया . आज भी कश्मीर के मुज़फराबाद सहित कुछ इलाकों पर पाकिस्तानी क़ब्ज़ा है . कश्मीर समस्या में दिनोंदिन पेंच फंसती गयी और अब हालत यह है कि कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ जिस मुकाम पर है, वह भारत की एकता के लिए चुनौती बन चुका है . सच्चाई यह है कि पाकिस्तान में जो हालात हैं , उसे अब न तो पाकिस्तान काबू कर सकता है और न ही वहां पाकिस्तानी पैसे से काम कर रहे अलगाववादी . अब लड़ाई में वह आबादी शामिल हो चुकी है जो पैदा ही आतंकवाद के माहौल में हुई और बचपन से उसने वही देखा है . अब इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर उनसे बात करने की ज़रुरत है .
प्रधानमंत्री के दफ्तर से बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक में भी यही बात उभर कर सामने आई है . तय किया गया कि सभी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेजा जाएगा जो वहां के सभी पक्षों से बात करेगा और लौटकर केंद्र सरकार को रिपोर्ट देगा . उसी के आधार पर अगली कार्रवाई का रास्ता तय किया जाएगा. कश्मीर की हालात पर विचार करते समय राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की सीमा से बाहर नहीं आ पाते . सच्ची बात यह है कि कश्मीर की समस्या की जड़ में ही राजनीतिक लोगों का राजनीतिक स्वार्थ रहा है . १९४७ में कश्मीर की राजा की जेब में एक राजनीतिक पार्टी हुआ करती थी . नाम था प्रजा परिषद् . राजा इस पार्टी का इस्तेमाल , रियासत के लोकप्रिय नेता , शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के खिलाफ किया करते थे. यह पार्टी राजा के हुक्म की इतनी बड़ी गुलाम थी कि जब राजा ने पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय करने का मंसूबा बनाया तो यह पार्टी उसके लिए भी राजी हो गयी थी. बाद में प्रजा परिषद का आर एस एस के मातहत काम करने वाली पार्टी, भारतीय जनसंघ के साथ हो विलय गया था . इन्हीं प्रजा परिषद् वालों के कहने पर ही जन संघ के उस वक़्त के नेता, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शेख के खिलाफ अभियान चलाया था . ऐसे ही एक अभियान के दौरान जब वे कश्मीर गए तो उनकी मौत हो गयी. बाद में शेख के बडबोलेपन की वजह से जवाहरलाल नेहरू ने उनकी सरकार को बर्खास्त किया और उन्हें जेल में डाला . डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी वाले आज भी अपने स्वर्गीय नेता के गैरजिम्मेदार आचरण से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . प्रधानमंत्री की बैठक में भी बी जे पी के अध्यक्ष के साथ आडवानी गुट के जो नेता शामिल हुए उनकी राय यही थी कि कश्मीर की हालात का फायदा उठा कर बाकी देश में वोट जीते जाएँ . बहरहाल इस बैठक में सोनिया गांधी ने जो कुछ भी कहा , उसके बाद सभी पार्टियों से ज़िम्मेदार राजनीतिक आचरण की उम्मीद की जानी चाहिये.

कश्मीर के बारे में विचार करते वक़्त जो सबसे ज़रूरी बात ध्यान में रखने की है, वह कश्मीर की विशेष राजनीतिक परिस्थितियाँ हैं. जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद दिल्ली के अदूरदर्शी नेताओं ने कश्मीर की जनता - कश्मीरी पंडित और मुसलमान - दोनों की भावनाओं के साथ खूब खिलवाड़ किया है . उस से बाहर आने की ज़रुरत है . इसलिए ज़रूरी है कि सर्वदलीय बैठक में कही गयी सोनिया गांधी की बातों को गंभीरता से लें और उन्हीं बातों को आदर्श मान कर कश्मीर समस्या के हल के लिए आगे बढे. सोनिया गांधी ने बैठक में कहा कि राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को भुलाकर हिंसा और तकलीफ के ज़हरीले घुमावदार रास्ते को दरकिनार करके कश्मीर में जो इंसानियत रहती है उसके घावों पर बातचीत का मलहम लगाएं. उन्होंने कहा कि ऐसे संवाद को कायम करने के लिए कश्मीरी अवाम की जायज़ महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रखना ज़रूरी होगा. यहाँ यह भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाले लोगों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि सोनिया गांधी आज की तारीख में इस देश की सबसे बड़ी नेता हैं और उनके प्रति नफरत का ज़हर फैलाने से बाज़ आना चाहिए . अगर बी जे पी की बड़ी नेता, सुषमा स्वराज कह सकती हैं कि उन्हें राजीव गाँधी की समाधि पर पुष्प चढाने में कोई दिक्कत नहीं है तो छुटभैये नेताओं को इस सच्चाई को समझ में लेने में ज्यादा मुश्किल पेश नहीं आनी चाहिए . इस बात में कोई दो राय नहीं है कि बुधवार को हुई सर्वदलीय बैठक के बाद सोनिया गांधी का क़द बहुत बड़ा हो गया है लिहाज़ा बी जे पी के छोटे नेताओं को चाहिए कि उन्हें देश का नेता स्वीकार कर लें . बी जे पी आलाकमान उस रास्ते पर पहले ही चल चुका है .

Wednesday, September 15, 2010

जाति के आ़धार पर आरक्षण जैसे गंभीर मुद्दे को खेल का विषय न बनाएं

शेष नारायण सिंह

आजकल हरियाणा में जाटों के नौजवान सडकों पर हैं और सरकारी नौकरियों में अपनी जाति के लिए आरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं .उनका आन्दोलन हिंसक है और उसमें सामाजिक संपत्ति को आग के हवाले किया जा रहा है . इसके पहले इसी बिरादरी के लोगों ने हरियाणा में उत्पात मचाया था और वे मांग कर रहे थे कि जो लोग उनकी खाप की मर्ज़ी के खिलाफ शादी करें उन्हें भारतीय दंड विधान के तहत सज़ा दी जानी चाहिए .उनकी मांग थी कि अपने पिंड में शादी करने के काम को अपराध माना जाए और उस तथाकथित अपराध को करने वाले को कानून सज़ा दे. हरियाणा के मुख्य मंत्री भी इसी बिरदारी के हैं और इस बिरादरी के वोटों के बल पर ही सत्ता में हैं .पिछले करीब बीस वर्षों से सरकारी नौकरियों और अन्य पदों पर आरक्षण को एक सुविधा के रूप में देखा जाने लगा है . जिसकी संख्या ज्यादा है वह उठ कर बैठ जाता है और आरक्षण की बात करने लगता है . जबकि आरक्षण को एक ऐसे तरीके के रूप में विकसित किया गया था जिस से समता मूलक समाज की स्थापना हो सके. जो जातियां पारंपरिक रूप से दबी कुचली हैं , उनको बाकी लोगों के बराबर लाने के लिए आरक्षण को एक राजनीतिक हथियार के रूप में हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रस्तुत किया था. आरक्षण से उम्मीद के मुताबिक़ नतीजे नहीं मिले इसलिए उसे और संशोधित भी किया गया लेकिन आजकल एक अजीब बात देखने में आ रही है . वे जातियां जिनकी वजह से देश और समाज में दलितों को शोषित पीड़ित रखा गया था , वही आरक्षण की बात करने लगी हैं . काका कालेलकर और मंडल कमीशन की सिफारिशों में क्रीमी लेयर की बात की गयी थी . इसका मतलब यह था कि जो लोग आरक्षण के लाभ को लेकर आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े नहीं रह गए हैं, उनके घर के बच्चों को आरक्षण के लाभ से अलग कर दिया जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है . सवाल पूछे जा आरहे हैं कि लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान, मीरा कुमार , शुशील कुमार शिंदे, गोपीनाथ मुंडे , नीतीश कुमार के बच्चों को क्यों आरक्षण दिया जाये जबकि वे लोग समाज के सबसे एलीट वर्ग में शामिल हो चुके हैं . जब इस तरह के शासक वर्ग भी आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं तो जाटों के नौजवान भी इसी लाइन में लग गए . अभी तो हद होने वाली है . सुना है कि राजपूतों के नौजवान भी आरक्षण के लिए लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं . उनका तर्क है कि लड़ाई भिड़ाई की वजह से उनके पुरखे शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ गए थे इसलिए अब आरक्षण के ज़रिये सब ठीक कर लिया जाएगा . यह हद है जिसकी वजह से समाज का एक बड़ा वर्ग शोषित पीडित हुआ वही आरक्षण की बात कर रहा है .

ज़रुरत स बात की है कि आरक्षण के दर्शन को पूरी तरह से समझ लिया जाए . बीसवीं सदी में आरक्षण के दो सबसे बड़े समर्थक हुए हैं जिन्होंने सामाजिक बराबारी के लिए अफरमेटिव एक्शन की बात की. डॉ राम मनोहर लोहिया ने साफ़ कहा कि पिछड़ों और हर वर्ग के एमहिलाओं को ऊपर लाने के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाना चाहिए . दूसरे राजनेता , बी आर अंबेडकर हुए जिन्होंने आरक्षण को सामाजिक बराबरी का एक बड़ा हथियार माना और उसे संविधान में शामिल करवाया . आज ६० साल बाद सामाजिक परिवर्तन का यह माध्यम राजनीतिक रूप से ताक़तवर लोगों के हाथों में खिलौना होने जा रहा है . आरक्षण की मांग कर रहे इन संपन्न वर्गों के लड़कों को कौन बताये कि भैया आपके पूर्वजों के एवाजः से तो सामाजिक गैर बराबरी आई थी उसे ख़त्म करने के लिए जो व्यवस्था बनायी गयी है जब आप ही उसमें घुस जायेगें तो क्या फायदा . लेकिन राजनीतिक सुविधाभोगियों के दौर में कुछ भी संभव है . लेकिन सामाजिक बराबरी दर्शन शास्त्र के आदिपुरुष महात्मा फुले ने इसे एक बहुत ही ग़म्भीर राजनीतिक परिवर्तन का हथियार माना है उनका मानना था कि दबे कुचले वर्गों को अगर बेहतर अवसर दिए जाएँ तो सब कुछ बदल सकता है ... महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया।

महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
एक लम्बा इतिहास है सकारात्मक हस्तक्षेप का और इसे हमेशा हे यैसा राजनीतिक विमर्श माना जाता रहा है जो मुल्क और कौम के मुस्तकबिल को प्रभावित करता है . राजनेताओं को इसे खेल का विषय बनाने से बाज़ आना चाहिए