Friday, August 21, 2009
अकाल का खतरा और मीडिया की ज़िम्मेदारी
नई दिल्ली में सभी राज्यों के कृषि मंत्रियों का सम्मेलन बुलाया गया था जिसमें केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया कि 10 राज्यों के 246 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है। अभी और भी जिलों के इस सूची में शामिल किये जाने की बात भी सरकारी स्तर पर की जा रही है। इसका मतलब यह हुआ कि धान की पैदावार में करीब 170 लाख टन की कमी आ सकती है। इस सम्मेलन में बहुत सारे आंकड़े प्रस्तुत किए गए और सरकारी तौर पर दावा किया गया कि खाने के अनाज की कुल मात्रा में जितनी कमी आएगी उसे पूरा कर लिया जायेगा।
सारा लेखा जोखा बता दिया गया और यह बता दिया गया कि सरकार 60 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी खर्च करके मंहगाई को काबू में कर लेगी। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन की खबर ज्यादातर अखबारों में छपी है। लगभग सभी खबरों में तोता रटन्त स्टाइल में वही लिख दिया गया है जो सरकारी तौर पर बताया गया। सारी खबरें सरकारी पक्ष को उजागर करने के लिए लिखी गई हैं, जो बिलकुल सच है। लेकिन एक सच और है जो आजकल अखबारों के पन्नों तक आना बंद हो चुका है।
वह सच है कि भूख के तरह-तरह के रूप अब सूखा ग्रस्त गांवों में देखे जायेंगे लेकिन वे खबर नहीं बन पाएंगे। खबर तब बनेगी जब कोई भूख से तड़प तड़प कर मर जायेगा। या कोई अपने बच्चे बेच देगा या खुद को गिरवी रख देगा। भूख से मरना बहुत बड़ी बात है, दुर्दिन की इंतहा है। लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैं, भूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है।
इन आंकड़ाबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत है कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेर कर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करें, इसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता है, तभी इस देश का नेता और पत्रकार जगता है। गांव का किसान, जिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती है, वह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता।
कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांग कर नहीं खाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि गांव का गरीब, सरकारी लापरवाही के चलते मानसून खराब होने पर भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषिव्यवस्था नए शासकों को मिली थी, वह लगभग आदिम काल की थी।
जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि औद्योगिक विकास के साथ-साथ खेती का विकास भी चलता रहेगा। लेकिन 1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा। उस साल उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गईं थी। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरल, अयूब ने भी हमला कर दिया। युद्घ का समय और खाने की कमी। बहरहाल प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।
अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आवाहन किया कि सभी लोग एक दिन का उपवास रखें। यानी मुसीबत से लडऩे के लिए हौसलों की ज़रूरत पर बल दिया। लेकिन भूख की लड़ाई हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे उनसे कोई भी पता लगा सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है। लेकिन भूख सब कुछ करवाती है। अमरीका से पी एल 480 योजना के तहत मंगाये गए गेहूं की रोटियां किस रबड़ की तरह होती हैं।
केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम है कि गांव का गरीब किसान जब कोटेदार के यहां अनाज खरीदने या मांगने जाता है, तो कितनी बार मरता है, अपमान के कितने कड़वे घूंट पीता है। इन्हें कुछ नहीं मालूम और न ही आज के तोता रटंत पत्रकारों को जरूरी लगता है कि गांव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन कोल्हू के बैल नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएं। गांव के गरीब की इस निराशा और हताशा को एक महापुरुष ने समझा था।
1967 में कृषि मंत्री रहे सी सुब्रमण्यम ने अपनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह सच्चाई समझाई थी। उनके प्रयासों से ही खेती को आधुनिक बनाने की कोशिश शुरू हुई, इस प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन का नाम दिया गया। लीक से हटकर सोच सकने की सुब्रमण्यम की क्षमता और उस वक्त की प्रधानमंत्री की राजनीतिक इच्छा शक्ति ने अन्न की पैदावार के क्षेत्र में क्रांति ला दिया। खेती से संबंधित हर चीज में सब्सिडी का प्रावधान किया गया। बीज, खाद, कृषि उपकरण, निजी ट्यूबवेल, डीजल, बिजली सब कुछ सरकारी मदद के लायक मान लिया गया। भारत के ज्यादातर किसानों के पास मामूली क्षेत्रफल की जमीनें हैं। भूमि की चकबंदी योजनाएं शुरू हुईं और किसान खुशहाल होने लगा।
लेकिन जब इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आईं तब तक देश में लुंपन राज आ चुका था और गांव के गरीब की खैरियत जानने वाला कोई नहीं था। पिछले 35 वर्षों में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि दिल्ली में बैठा राजनीतिक और नौकरशाह भाग्यविधाता, ग्रीन रिवोल्यूशन की परंपरा के बारे में नहीं सोचता। सुना तो यहां तक गया है कि खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को राजनीतिक आकाओं की कृपा से फैक्टरी मालिक सीधे हड़प कर जा रहे हैं, किसानों को उसमें से कुछ नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में ज़रूरत इस बात की है कि सूचना क्रांति के हथियारों का इस्तेमाल करके राजनीतिक महाप्रभुओं को सच्चाई का आईना दिखाया जाय और यह काम मीडिया को करना है।
भूख से तड़प तड़प कर मरते आदमी को खबर का विषय बनाना तो ठीक है लेकिन उस स्थिति में आने से पहले आदमी बहुत सारी मुसीबतों से गुजरता है और आम आदमी की मुसीबत की खबर लिखकर या न्यूज चैनल पर चलाकर पत्रकारिता के बुनियादी धर्म का पालन हो सकेगा क्योंकि हमेशा की तरह आज भी आम आदमी की पक्षधरता पत्रकारिता के पेशे का स्थायी भाव है।
Thursday, August 20, 2009
विदेश मंत्रालय की फिल्म- कोई देख नहीं सका
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
Wednesday, August 19, 2009
जंतर-मंतर मरने पहुंचे हैं गोपाल राय
गोपाल राय पिछले 9 दिन से बिना खाये-पिये जंतर-मंतर पर लेटे हैं। आमरण अनशन कर रहे हैं वे। मित्र हैं। इलाहाबाद में बीए के दिन से। छात्र राजनीति में साथ-साथ सक्रिय हुए थे हम दोनों। बाद में मैं बीएचयू चला गया था और वो लखनऊ विवि। संगठन के होलटाइमर भी साथ-साथ ही बने थे। करीब-करीब साथ-साथ ही संगठन से मोह भी टूटा था। किसी भी तरह का गलत होते न देख पाने वाले गोपाल राय लखनऊ विश्वविद्यालय में गुंडों से हर वक्त टकराया करते थे। उनके व्यक्तित्व में अदम्य साहस और आत्मविश्वास है। भय से तो भाई को तनिक भी भय नहीं लगता। चट्टान की तरह अड़ जाता है।
अब गोपाल राय को कौन समझाए कि दिल्ली में रहने वाले 99 फीसदी लोग सिर्फ पेट के लिए जीते-मरते हैं। इनका किसी से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। संवेदना शब्द अब गरीबों व गांववालों के लिए आरक्षित कर दिया गया है। बाजार का नशा महानगरों पर इस कदर चढ़ा है कि अगर कोई थोड़ा भी सिद्धांत की बात करता मिल जाए तो लोग उसे फालतू मानकर दाएं-बाएं निकल लेते हैं। ऐसे में गोपाल का किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर आमरण अनशन करना, थोड़ा चौंकाता है, लेकिन यह भरोसा भी दिलाता है कि कुछ पगले किस्म के लोग अब भी विचारों को जीते हैं और देश-समाज की चिंता करते हुए जान न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं।
गोपाल राय से मिलने इसलिए नहीं गया था कि वे किसी महान काम में लगे हैं, इसलिए भी नहीं गया था कि आमरण अनशन के 9वें दिन में प्रवेश करने से उनके स्वास्थ्य को लेकर मुझे विशेष चिंता हो रही थी। सही कहूं तो मैं भी धीरे-धीरे दिल्ली वाला हो रहा हूं, इसलिए बहुत देर तक इमोशन में न फंस पाने की प्रवृत्ति डेवलप हो रही है। गोपाल राय के यहां सिर्फ इसलिए गया था कि इस दिल्ली में जिन दो-चार बहादुर लोगों को देखा है, उसमें पुराने मित्र गोपाल राय भी हैं। गोली लगने के कारण अस्वस्थ रहने वाले शरीर की वजह से ठीक से चल भी नहीं पाते लेकिन गोपाल राय न तो पहले और न अब, कभी छिछले नहीं हुए, कभी औसत नहीं बने, कभी बेचारे बनकर पेश नहीं हुए, कभी किसी तरह की याचना नहीं की। कितने भी दर्द-दुख में रहें, कभी मुस्कराहट नहीं खत्म की।
दोस्ती की वजह से उनसे मिलने जंतर-मंतर गया।
जंतर-मंतर पहुंचा तो टीवी न्यूज चैनलों की ओवी वैन देख माथा ठनका, माजरा क्या है? पता चला कि महंगाई पर भाजपा का कोई कार्यक्रम है जिसमें राजनाथ सिंह आने वाले हैं। संतोष हुआ। चैनल वाले कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं, सही रास्ते पर हैं। वरना जंतर-मंतर को अब पूछता कौन है। गोपाल राय सरीखे दर्जनों आंदोलनकारी जंतर-मंतर पर अपने जिनुइन मुद्दों को लेकर बैठे रहते हैं हैं, उधर किसी को देखने की फुर्सत नहीं है। लेकिन अगर राजनाथ सिंह जंतर-मंतर टहलने भी पहुंच जाएं तो उन्हें कवर करने मीडिया का मेला पहुंच जाएगा।
इतिहास का जो चारण-भाट दौर था, उसमें भी लेखक-बुद्धिजीवी सिर्फ बड़े राजाओं-महाराजाओं-राजकुमारों-महारानियों-राजकुमारियों-मंत्रियों मतलब कुलीन लोगों के बारे में ही लिखते-पढ़ाते थे। आम जन की स्थिति के बारे में कलम चलाने वाला कोई नहीं था। पूंजीवाद और विज्ञान के विकास ने इतिहास को जड़ों से जोड़ा लेकिन अबका जो चरम पूंजीवाद, बोले तो, बाजारवाद है, वह फिर से इतिहास को पलट रहा है।
देश में अकाल पड़ा हुआ है, लोग भूखों मर रहे हैं, इस पर टीवी वालों को प्राइम टाइम में स्पेशल स्टोरीज चलानी चाहिए, अपनी विशेष टीमें अकालग्रस्त इलाकों की ओर रवाना करनी चाहिए पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। डाउन मार्केट कहकर आंदोलन, सूखा, अकाल, मंहगाई सबको खारिज किया जा रहा है। अगर इन्हें पकड़ा भी जा रहा है तो सिर्फ बड़े नेताओं के बयानों के जरिए। पीएम ने बयान दे दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया। राजनाथ ने विरोध कर दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया।
यही है मीडिया?
गोपाल भाई से अनुरोध किया- अंधों की नगरी में हरियाली लाने के लिए काहे जान दे रहे हैं, ये अनशन-वनशन खत्म करिए। जान है तो जहान है। आजकल यही फंडा है।
इतना सुनकर गोपाल सिर्फ मुस्कराए और बोले- आप बस इतना करा दीजिए कि यह मसला सौ-पचास नए लोगों तक पहुंच जाए, तो समझिए आपकी सफलता है, बाकी मेरी जान की चिंता छोड़िए। मेरे रहने न रहने से क्या फरक पड़ता है।
मैं चुप रह गया।
सोचा, आज जितना भी बिजी रहूं, लेकिन गोपाल भाई पर जरूर कुछ न कुछ लिखूंगा। सो, लिख रहा हूं।
लेकिन मन में कष्ट भी है। गोपाल भाई टाइप लोग कितने हैं इस देश में। ज्यादातर तो मुखौटाधारी हैं, हिप्पोक्रेट हैं, पाखंडी हैं, जो आंदोलन व विचारधारा को पैसा कमाने और बेहतर जीवन जीने का जरिया बनाए हुए हैं या बनाने की फिराक में हैं। कई आंदोलनों को करीब से देख चुका हूं। किस तरह अपने निजी इगो की भेंट आंदोलनों को चढ़ा दिया जाता है, इसका गवाह रहा हूं। किस तरह उन्हीं जोड़-तोड़ व समीकरणों को आंदोलनों में आजमाया जाने लगता है जिनके खिलाफ आंदोलन शुरू किया जाता है, इसे सुन-समझ चुका हूं।
लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हुआ कि संगठन व आंदोलन गैर-जरूरी हैं। दरअसल, सही कहूं तो मुझे भी लगता है कि इस देश व दुनिया को अगर बचा पाएंगे तो ये जनांदोलन ही। ये जनांदोलन कब, किससे व किसलिए शुरू होंगे या हो रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। वरना देश-दुनिया का कबाड़ा करने की पूरी तैयारी इस देश-दुनिया के कुलीन व अभिजात्य लोग कर चुके हैं।
अगर आपको भी लगे कि गोपाल भाई के आंदोलन को सपोर्ट करना है तो आप जंतर-मंतर पर जाकर
उनसे मिल सकते हैं, गोपाल के आंदोलन को अपने अखबार या टीवी में जगह दे सकते हैं, गोपाल भाई को फोन या मेल कर अपना नैतिक समर्थन व्यक्त कर सकते हैं। शायद, संभव है, हम कुछ लोगों के ऐसा करने से ही गोपाल जैसे जिद्दी और धुन के धनी लोग इस बुरे समय में भी अपने जन की बेहतरी के लिए लड़ने का हौसला कायम रख सकें।
एक बार फिर, गोपाल भाई के हौसले को सलाम।
Sunday, August 16, 2009
हमारी माटी में त्रिपाठी जैसे भी
हिंदुत्व के नाम पर आतंक की खेती करने वाली जमातों की पूरी कोशिश थी कि इस देश में मुसलमानों को अपमानित किया जाय उनकी देश प्रेम की भावना पर सवाल उठाया जाय। हर शहर में मुसलमान को घेरने की कोशिश की जा रही थी। मुंबई शहर में शिव सेना की वजह से मुसलमानों को बहुत मुश्किलें पेश आईं, बहुत सारे घर जला दिए गए, लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। बहुत सारे मामलों में तो मरे हुए लोगों की लाशें गायब कर दी गईं। दंगाइयों को मालूम था कि अगर मृतक की लाश गायब कर दी जाय तो उसके आश्रितों को मुआवज़ा नहीं मिलता।
बंबई दंगों में मारे गए बहुत से लोगों की लाशें भी नहीं मिली थीं। कहीं-कहीं तो पूरे परिवार तबाह हो गए थे और बच्चे अनाथ हो गए थे। बंबई और अन्य शहरों के दंगाइयों के खिलाफ पूरे देश में धर्मनिरपेक्ष सोच के लोग लामबंद हो गए थे। दंगा करने वालों के खिलाफ एक मौन आक्रोश था लेकिन नागरिकों का एक वर्ग ऐसा भी था जिनका आक्रोश मुखर था। बंबई में धर्मनिरपेक्ष बुद्घिजीवियों की खासी बड़ी संख्या है। असगर अली इंजीनियर राम पुनियानी, शबाना आजमी, सुमा जोसन, शुक्ला सेन कुछ ऐसे नाम हैं जो दंगे के खिलाफ जनमत बनाने में जुट गए। चिंतित नागरिकों की जमात में एक ऐसा आदमी था जो सरकारी अफसर था, दंगा पीडि़तों की मदद करना उसकी सरकारी ड्यूटी थी। वह भी दंगाइयों के हौसलों के सामने अपने आपको असहाय महसूस कर रहा था।
मुंबई दंगों के बाद किसी नेता की हिम्मत नहीं थी कि पीडि़तों के इलाकों में शक्ल दिखाने जा सके। सबको मालूम था कि उस वक्त की कांग्रेसी सरकार के दंगाइयों के नेता से बहुत अच्छे संबंध थे। सरकार की ध्वस्त हो चुकी साख के बीच किसी सरकारी अफसर का वहां पहुंचना और पीडि़त लोगों का विश्वास हासिल कर पाना बहुत ही कठिन काम था। ऐसे माहौल में महाराष्ट्र में तैनात आईएएस अधिकारी सतीश त्रिपाठी ने जब दंगा पीडि़त इलाकों का दौरा किया तो सन्न रह गए थे। दंगाइयों ने जिस तरह से मुसलमानों को तबाह किया था उसके बारे में सोच कर आज भी वे सिहर उठते हैं। त्रिपाठी ने देखा कि सरकारी कायदे कानून ऐसे हैं जिनकी सीमा में रहकर पीडि़तों की मदद नहीं की जा सकती।
उन्होंने एक गैर सरकारी संगठन बनाकर लोगों की मदद करने का फैसला किया और 'सेतु' नाम का संगठन बनाया। दंगे में मारे गए जिन लोगों की लाशों को गायब कर दिया था या जिनका अपहरण करके कहीं और ले जाकर मारा गया था और शव ठिकाने लगा दिया गया था उनके परिवार वालों को मदद दिलवाने के लिए सतीश त्रिपाठी ने दिल्ली तक लड़ाई लड़ी। उन्होंने सरकारी मशीनरी का पीडि़तों के पक्ष में इस्तेमाल करने का फैसला किया। साथ ही अपने स्वयंसेवी संगठन को भी सक्रिय कर दिया। उनके संगठन ने दंगों में अनाथ हुए 92 बच्चों की पढ़ाई लिखाई का जिम्मा लिया।
इनमें से कई बच्चे तो आत्मनिर्भर हो चुके हैं, अपनी रोजी रोटी कमा रहे हैं। बाकी पढ़ रहे हैं और आगे चलकर उनके भी कामकाज में लग जाने की संभावना है। सतीश त्रिपाठी अब सरकारी सेवा से रिटायर हो चुके हैं। सांप्रदायिक सद्भाव के बारे में उनकी सोच अन्य लोगों के लिए उदाहरण बन सकती है। मूलरूप से उत्तर प्रदेश के देवरिया के रहने वाले सतीश त्रिपाठी ने कलकत्ता विश्व विद्यालय से शिक्षा ग्रहण करके आईएएस में प्रवेश किया था। 37 साल की सेवा के बाद सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं अब वह काम पूरी मेहनत से कर रहे हैं जो वे हमेशा से ही करना चाहते थे। अब वे पूरा समय मुसलमानों की पक्षधरता में लगाते हैं।
दिसंबर 1992 के बाद जब सारी दुनिया बदल गई थी तो बहुत सारे लोगों की शख्सियत की पहचान हुई। बाद में उन्होंने महाराष्ट्र के औरंगाबाद और मालेगांव के पीडि़तों के साथ खड़े होकर उनकी मदद की, लापता लोगों को तलाशने में सरकारी ताकत का इस्तेमाल किया। सतीश त्रिपाठी की संस्था सेतु का सांप्रदायिक सदभाव का रिकॉर्ड अनुकरणीय है। इसीलिए उनकी संस्था को सन 2007 का राष्टï्रीय सांप्रदायिक सदभावना पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार केंद्र सरकार की तरफ से सांप्रदायिकता के खिलाफ काम करने वालों को दिया जाता है। आजकल श्री त्रिपाठी मदरसों में पढऩे वाले गरीब मसुलमानों के बच्चों की शिक्षा के लिए काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में मदरसों की व्यवस्था बहुत ही अव्यवस्थित है। जो भी बच्चे वहां भरती होते हैं, उसमें मुश्किल से दो तीन फीसद बच्चे ही धार्मिक विषयों की उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं और समाज में सम्मानित होते हैं।
लेकिन 95 फीसद बच्चे मदरसे में चार पांच साल बिताकर ही वापस आ जाते हैं। तब तक उनकी उम्र 13-14 साल की हो चुकी होती है। ज़ाहिर है वे नए सिरे से पढ़ाई नहीं शुरू कर सकते और शिक्षा के अभाव में सही रोजगार नहीं मिलता। सतीश त्रिपाठी ने ऐसी स्कीम बनाई है कि इन बच्चों को उनके मदरसों में ही सर्वशिक्षा अभियान की योजना के तहत दीनी तालीम के अलावा अन्य विषयों की भी शिक्षा दी जाय। जब यह बच्चे मदरसों से निकलते हैं तो उनके पास पांचवी या छठवीं पास का ट्रांसफर सर्टिफिकेट होता है जो सरकार की ओर से मान्यता प्राप्त होता है और जिसकी बिना पर उन्हें छठवीं या सातवीं क्लास में प्रवेश मिल जाता है। इस तरीके से वे अपनी ही आयु वर्ग के बच्चों के साथ उच्च शिक्षा हासिल कर सकते हैं।
सतीश त्रिपाठी का यह काम आने वाली नस्लों को इज्ज़त से रोटी कमाने और सम्मान से जिंदा रहने का मौका देता है। इस तरह से शिक्षित नागरिक मदरसा की शिक्षा के कारण अच्छी उर्दू के जानकार होंगे। इनको धार्मिक मामलों की समझ होगी और नौकरी के लिए ज़रूरी शिक्षा भी उनके पास होगी जिसकी वजह से उन्हें समाज में सम्मान मिलेगा। समाज को सतीश त्रिपाठी जैसे लोगों पर गर्व करना चाहिए।
Friday, August 14, 2009
Wednesday, August 12, 2009
पूरी दुनिया में है गांधी का सम्मान
मायावती की पार्टी में महात्मा गांधी की इज्जत करने की रिवाज नहीं है इसलिए पिछले दिनों उन्होंने महात्मा जी को नाटकबाज कह दिया था। उनकी इस बात का याचिका कर्ताओं ने बुरा माना और फरियाद लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि इस देश में और बाकी दुनिया में महात्मा गांधी का सम्मान इसलिए नहीं किया जाता कि उसके लिए कानून है या किसी कोर्ट का आदेश है। महात्मा जी का सम्मान करने वाले अपनी अंतरात्मा की प्रेरणा से उनका सम्मान करते हैं।
याचिका कर्ताओं की यह उम्मीद कि गांधी जी का सम्मान सभी करें, बेमतलब है। जिसके मन में उनके प्रति सम्मान का भाव होगा वह उनका सम्मान करेगा और जिसके मन में नहीं होगा, वह सम्मान नहीं करेगा। लाठी के जोर पर या भीख मांगकर सम्मान पाना बहुत बड़ा असम्मान है और इस बारे में सरकारी फरमान न जारी करके माननीय न्यायालय ने बहुत बड़ा और अच्छा काम किया है।
जहां तक महात्मा गांधी के सम्मान की बात है, पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक और भक्त फैले हुए हैं। महात्मा जी के सम्मान का आलम तो यह है कि वे जाति, धर्म, संप्रदाय, देशकाल सबके परे समग्र विश्व में पूजे जाते हैं। वे किसी जाति विशेष के नेता नहीं हैं। हां यह भी सही है कि भारत में ही एक बड़ा वर्ग उनको सम्मान नहीं करता बल्कि नफरत करता है। इसी वर्ग और राजनीतिक विचारधारा के एक व्यक्ति ने 30 जनवरी 1948 के दिन गोली मारकर महात्मा जी की हत्या कर दी थी। उसके वैचारिक साथी और कुछ साधारण लोग उस हत्यारे को सिरफिरा कहते हैं लेकिन महात्मा गांधी की हत्या किसी सिरफिरे का काम नहीं था।
वह उस वक्त की एक राजनीतिक विचारधारा के एक प्रमुख व्यक्ति का काम था। उनका हत्यारा कोई सड़क छाप व्यक्ति नहीं था, वह हिंदू महासभा का नेता था और 'अग्रणी' नाम के उनके अखबार का संपादक था। गांधी जी की हत्या के आरोप में उसके बहुत सारे साथी गिरफ्तार भी हुए थे। ज़ाहिर है कि गांधीजी की हत्या करने वाला व्यक्ति भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करता था और उसके वे साथी भी जो आजादी मिलने में गांधी जी के योगदान को कमतर करके आंकते हैं। यह सारे लोग भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करते। जिन लोगों ने 1920 से लेकर 1947 तक महात्मा गांधी को जेल की यात्राएं करवाईं, वे भी उनको सम्मान नहीं करते थे।
भारत के कम्युनिस्ट नेता भी महात्मा गांधी के खिलाफ थे। उनका आरोप था कि देश में जो राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था, उसे मजदूर और किसान वर्ग के हितों के खिलाफ इस्तेमाल करने में महात्मा गांधी का खास योगदान था। कम्युनिस्ट बिरादरी भी महात्मा गांधी के सम्मान से परहेज करती थी। जमींदारों और देशी राजाओं ने भी गांधी जी को नफरत की नजर से ही देखा था, अपनी ज़मींदारी छिनने के लिए वे उन्हें ही जिम्मेदार मानते थे। इसलिए यह उम्मीद करना कि सभी लोग महात्मा जी की इज्जत करेंगे, बेमानी है। लेकिन एक बात और भी सच है, वह यह कि महात्मा गांधी से नफरत करने वाली सभी जमातें बाद में उनकी प्रशंसक बन गईं। जो कम्युनिस्ट हमेशा कहते रहते थे कि महात्मा गांधी ने एक जनांदोलन को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया था, वही अब उनकी विचारधारा की तारीफ करने के बहाने ढूंढते पाये जाते हैं। अब उन्हें महात्मा गांधी की सांप्रदायिक सदभाव संबंधी सोच में सदगुण नजर आने लगे है।
आर.एस.एस. के ज्यादातर विचारक महात्मा गांधी के विरोधी रहे थे लेकिन 1980 में बीजेपी ने गांधीवादी समाजवाद के सिद्घांत का प्रतिपादन करके इस बात को ऐलानिया स्वीकार कर लिया कि महात्मा गांधी का सम्मान किया जाना चाहिए। जिन अंग्रेजों ने महात्मा जी को उनके जीवनकाल में अपमान की नजर से देखा, उनको जेल में बंद किया, टे्रन से बाहर फेंका उन्हीं के वंशज अब दक्षिण अफ्रीका और इंगलैंड के हर शहर में उनकी मूर्तियां लगवाते फिर रहे हैं। यह सब कहने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि आप किसी को मजबूर नहीं कर सकते कि वह किसी व्यक्ति का सम्मान करे। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का सम्मान किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को यह निर्देश भी दे देना चाहिए कि भविष्य में भी कोई सरकार यह कानून न बनाए जिसके तहत किसी का सम्मान करना अनिवार्य कर दिया जाय क्योंकि इस बात का खतरा बना हुआ है कि उत्तरप्रदेश में जनता के पैसे बन रही मूर्तियों की इज्जत करने के लिए कोई नियम न बन जाय।
बहरहाल मायावती के नाटकबाज कहने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता, नाथूराम गोडसे के गोली मारने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता और चर्चिल के नंगा फकीर कहने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता। गांधी जो को जिसने भी अपमानित किया, पता नहीं गुमनामी के किए गढढे में होगा लेकिन महात्मा गांधी की शान पूरी दुनिया में बनी हुई है, उनको सम्मान भीख में नहीं मिला और न ही किसी ने लाठी के जोर पर महात्मा गांधी को सम्मानित करवाया।
जहां तक कानून बनाकर जबरदस्ती सम्मान उगाहने की बात है, उसके बारे में कुछ लोगों का जिक्र करना सही होगा। हिटलर, सद्दाम हुसैन, किम इल सुंग, फ्रांको, च्यांग काई शेक आदि कुछ ऐसा राजनेता हैं जिन्होंने कानून और आतंक के जरिए अपना सम्मान करवाने की कोशिश की लेकिन इनकी ताकत कम होते ही जनता ने इनकी औकात बता दी। सद्दाम हुसैन की मूर्तिंयों पर तो इराकी जनता को जूते बरसाते पूरी दुनिया ने देखा है। ठीक यही हाल अन्य तानाशाहों का भी हुआ था जिन्होंने अपनी ही मूर्तियां देश के कोने कोने में बनवाई थीं और लोगों को मजबूर किया था कि उनका सम्मान करें। जहां तक महात्मा गांधी का सवाल है, उनके जीवन काल में उनकी कोई मूर्ति नहीं बनी थी लेकिन आज दुनिया के हर प्रमुख शहर में उनकी मूर्तियां हैं और लोग उन्हें सम्मान करते हैं। मायावती के नाटकबाज कहने से महात्मा गांधी की महानता में कोई कमी नहीं आती। गांधी जी के प्रशंसकों को इतिहास की न्याय क्षमता पर भरोसा करके शांत बैठे रहना चाहिए। उनके सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं आएगी।
स्टिंग आपरेशन पर मुहर
यानी स्टिंग आपेरशन करने की मनमानी छूट नहीं दी गई है। अदालत के इस फैसले से मीडिया को अनुशासन और उच्च आदर्शो के प्रति समर्पित रहने का एक बेहतरीन मौका मिला है। आदेश में साफ कहा गया है कि मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश में अगर नियम-कानून बनाए गए तो लाभ कम और नुकसान अधिक होगा। मीडियाकर्मियों को चाहिए कि खुद की आचार संहिता के कायदे-कानून खुद बनाएं और पेशागत मानदंडों को हासिल करने के लिए उन्हें लागू करें। 1950 में आल इंडिया न्यूजपेपर एडिटर्स कांफ्रेंस में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ''इसमें शक नहीं कि सरकार प्रेस की आजादी को बहुत पसंद नहीं करती और उसे खतरनाक मानती है, फिर भी प्रेस की आजादी में दखल देना गलत है।
मैं एकदम स्वतंत्र प्रेस को सही मानता हूं। हर वह खतरा बर्दाश्त करने को तैयार हूं जो प्रेस की आजादी की वजह से संभावित है, लेकिन दबा हुआ या सरकारी कानून के दायरे में बंधा प्रेस मुझे मंजूर नहीं है।'' प्रेस की आजादी कितनी आवश्यक है, यह नेहरू के उपरोक्त कथन से स्पष्ट हो जाती है।
शीर्षस्थ अदालत ने कहा है कि टीवी चैनलों के कुछ कार्यक्रम तो अच्छे हैं, लेकिन कुछ इतने बेकार हैं कि उनके बारे में बातचीत करना भी ठीक नहीं है। इसलिए टीवी चैनलों को अपना स्तर सुधारने का प्रयास करना होगा।
इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में सुप्रीम कोर्ट का विचार एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान आया। वरिष्ठ अधिवक्ता आरके आनंद को हाईकोर्ट से मिली सजा के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट का आदेश देश के न्याय शास्त्र के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगा। एक गवाह को रिश्वत देने के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने आरके आनंद और सरकारी वकील आईयू खान को सजा सुनाई थी। यह मामला हाई कोर्ट की जानकारी में एक निजी टीवी चैनल के स्टिंग आपरेशन के जरिए आया था।
हाई कोर्ट ने दोनों वकीलों पर दो-दो हजार रुपए का जुर्माना लगाया था। सीनियर एडवोकेट की पदवी छीन ली थी और चार महीने तक वकालत करने पर पाबंदी लगा दी थी। दोनों वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसमें हाई कोर्ट के फैसले को रद करने की प्रार्थना की गई थी और साथ ही यह भी कि स्टिंग आपरेशन करके न्यूज चैनल ने गलती की और मीडिया ने उन्हें फंसाया है। अर्जी में न्यूज चैनलों पर सख्ती लागू करने और सरकारी नियंत्रण की बात भी की गई थी। मीडिया पर नकेल कसने की अभियुक्तों की अपील उल्टी पड़ गई।
अदालत ने एक तरह से स्टिंग आपरेशन को समाचार संकलन की एक तरकीब के रूप में मान्यता दे दी, बशर्ते वह राष्ट्रीय हित में हो। आईयू खान को भी फटकार लगाकर छोड़ दिया, लेकिन आरके आनंद को हैसियत का बोध कराने वाला आदेश पारित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि हाई कोर्ट ने उनके साथ नरमी बरती है।
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि उनकी सजा को क्यों न बढ़ा दिया जाए? कोर्ट ने आनंद को बताया कि उनका जुर्म गंभीर है। एक आपराधिक मुकदमे में गवाह को रिश्वत देने की कोशिश करना निंदनीय है। इसके अलावा हाई कोर्ट के सामने उनका आचरण मामले को और भी गंभीर बना देता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आनंद के अपराध की गंभीरता के मद्देनजर उनको दी गई सजा बहुत कम है।
आर के आनंद को जो सजा मिली है उसके गुण-दोष विवेचन तो अभी सुप्रीम कोर्ट को करना है। आने वाले वक्त में कानून के विद्यार्थी इस मामले की रोशनी में भारतीय न्याय प्रक्रिया का अध्ययन करेंगे, लेकिन साधारण आदमी को इस केस के मानवीय पहलू में भी रुचि है। जिस मामले में आरके आनंद और आईयू खान को टीवी चैनल ने पकड़ा था वह एक रईसजादे द्वारा गरीब लोगों को बीएमडब्लू कार से कुचल कर मार डालने से संबंधित है।
इसी रईसजादे को कानून से बचाने के लिए आरके आनंद ने यह अपराध किया था। जानकार बताते हैं कि आरके आनंद की सजा बढ़ने की संभावना है, क्योंकि वह न्यूज चैनल के स्टिंग आपरेशन पर हमला करके अपने आपको बरी करवाना चाहते थे।
लेख
Sunday, August 9, 2009
बाल की खाल
चर्मकार समाज की मांग को लेकर २७ दिनों तक भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर धरने पर बैठे सुरेश को जब अखबारों में पर्याप्त जगह नहीं मिली तो उन्होंने मन में ठान लिया कि अब वे अखबारों में अपनी खबर छपवाने के लिए नहीं जाएंगे बल्कि अपना अखबार निकालेंगे जो उनके समाज की आवाज उठाने में आगे रहेगा।
इस तरह एक अखबार का जन्म हुआ और नाम रखा गया 'बाल की खाल'। आगे पढें...
Saturday, August 8, 2009
ग़रीब लड़की चोरी नहीं करती...
यह सब खत्म हो गया क्योंकि बिट्टन पर चोरी का आरोप लगाकर राय साहब और उनके घर वालों से बिट्टन को पीटा, उसके शरीर के नाजुक अंगों में लोहे की गर्म सलाखों से निशान लगा दिए और बिट्टन की जिंदगी तबाह कर दी। बिट्टन की उम्र यही कोई 15-16 साल होगी। पूरी संभावना है कि बिट्टन की नानी 1947 के बाद पैदा हुई हो, यानी आज़ाद भारत मे जन्म लेने वाले गरीब दलितों की तीसरी पीढ़ी को भी इस देश का दबंग वर्ग लोहे की रॉड से दागता है और आजादी की लड़ाई में शामिल हर महापुरुष की विरासत को मुंह चिढ़ाता है।
कैसे होता है यह सब, खासकर उत्तरप्रदेश में जहां दलित की एक बेटी राज कर रही है, राज्य से गुंडो का सर्वनाश करने का बीड़ा उठाकर सत्ता में आई है और दलितों को आत्मसम्मान से जिंदा रहने का अधिकार देना उसकी राजनीति का बुनियादी आधार है?????
बिट्टन को असहाय किसने बनाया? आजादी के बासठ साल बाद भी बिट्टन पर ही चोरी का इल्जाम क्यों लगता है, जबकि इस बात की पूरी संभावना है कि राय साहब के घर में चोरी उनके परिवार के ही किसी व्यक्ति ने की हो, या उनकी पत्नी ने ही की हो, कथित रूप से जिनका मंगलसूत्र चोरी हुआ है। लेकिन संभ्रांत मानसिकता के दल-दल में फंसा हुआ प्रशासन, पुलिस, समाज यह मान ही नहीं सकता कि राय साहब का कोई संपन्न रिश्तेदार चोरी कर सकता है। चोरी करे या ना करे इलजाम तो बिट्टन पर ही लगेगा। इसलिए नहीं कि वह गरीब है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी रक्षा में खड़ी नहीं हो सकती।
बिट्टन को इतना असहाय किसने बनाया। सीधा सा जवाब है-अगर आजादी के बाद पैदा हुई बिट्टन की नानी ने गांव के पास के प्राइमरी स्कूल में जाकर शिक्षा ले ली होती तो पूरी संभावना है कि बिट्टन की मां किसी सरकारी नौकरी में होती और बिट्टन आज एक पढ़ी-लिखी लड़की होगी और किसी भी राक्षसनुमा राय साहब के यहां मजूरी न कर रही होती। बिट्टन की दुर्दशा पर आज क्रोध, निराशा, हताशा और पछतावा सब कुछ है।
जब आजादी के बाद सबको शिक्षा देने का इंतजाम कर दिया गया था तो बिट्टन की नानी के हाथ से तख्ती किसने छीन ली, क्यों हमारे देश में गरीबी और बदहाली को जिंदा रखने की राजनीति खेली जा रही है। सामाजिक बराबरी से परहेज यह मामला उत्तरप्रदेश का है लेकिन मायावती को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना गलत होगा, कायरता होगी। जरूरत इस बात की है कि यह समझा जाए आजादी मिलने के तीन पीढ़ियों बाद तक लोग क्यों गुलामी की जिंदगी बसर करने पर मजबूर क्यों हैं। जब महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भीमराव अंबेडकर और राममनोहर लोहिया ने समतामूलक, छुआछूत विहीन समाज की बात की थी तो उनके अनुयायियों ने आजादी के बाद उनकी राजनीतिक सोच को कार्यरूप में क्यों नहीं बदला।
शुरू के बीस साल उत्तरप्रदेश में गांधी नेहरू की पार्टी का राज रहा। बाद में भी कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में पंद्रह साल राज किया। गांधी ने कहा था कि छुआछूत को समाज से मिटाना होगा, जाति के आधार पर शोषण के निजाम को खत्म करना होगा। महात्मा जी ने जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात तो नहीं की थी लेकिन जाति को शोषण का आधार बनाने की हर स्तर पर मुखालफत की थी। सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के अलावा किसी कांग्रेसी ने कोई योजना चलाने की नहीं सोची। उल्टे इंदिरा गांधी के बाद के कांग्रेसियों ने ब्रिटिश हुकूमत के गुलाम राजाओं महाराजाओं को इतनी अहमियत दी कि कभी-कभी तो लगने लगा कि ब्रिटिश हुकूमत फिर लौट आई है।
डा.राम मनोहर लोहिया ने साफ कहा था कि जातिप्रथा का विनाश किया जाना चाहिए इसके लिए उन्होंने अपने सभी शिष्यों से कहा था कि सोचने या भाषण देने से जातिप्रथा समाप्त नहीं होगी। उसके लिए अंर्तजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना होगा और छुआछूत को मिटाना होगा। जातिवाद की दलदललोहिया के चेलों में जिन लोगों ने राज किया उनमें प्रमुख हैं, कर्पूरी ठाकुर, लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार। इन लोगों ने क्या कभी भी अपने राज्य में सह विवाह और सह भोजन की बात की? क्या कभी इन्होंने सरकारी नीतियों में कोई ऐसी राजनीतिक लाइन डालने की कोशिश की जिससे जाति प्रथा का जहर खत्म हो।
पिछले चालीस साल के राजनीतिक इतिहास पर गौर करें तो कहीं भी इस तरह की राजनीतिक सोच के बारे में जानकारी होने तक का पता नहीं लगता। डा.अंबेडकर का तो पूरा राजनीतिक दर्शन ही जाति के विकास के सिद्घांत पर आधारित है। उनका कहना था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, सामाजिक बराबरी का सपना पूरा नहीं होगा। पिछले पंद्रह साल से उत्तरप्रदेश की राजनीति में दखल रखने वाली मायावती ने एक बार भी डा.अंबेडकर के इस सपने को पूरा करने की कोशिश क्यों नहीं की, यह पहेली समझ पाना थोड़ा मुश्किल जरूर है, असंभव नहीं। लगता है कि सभी पार्टियों के बड़े नेता किसी न किसी जाति के मतदाताओं को अपना खास समर्थक मानते हैं और उस जाति की पहचान से छेड़छाड़ नहीं करना चाहते शायद इसीलिए गांधी, लोहिया और अंबेडकर के बताए रास्ते में चलने के बजाय जातिवाद के दलदल में फंसते गए।
लोकसभा चुनाव 2009 से कुछ संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि जातियां किसी भी पार्टी के साथ अब बहुत दिन तक चिपकी रहने वाली नहीं हैं। मसलन दलितों ने उत्तरप्रदेश में कई क्षेत्रों में मायावती के उम्मीदवार को हराने की कोशिश की। उत्तरप्रदेश के बाहर तो मायावती को दलित वोट लगभग न के बराबर मिला। बाकी दलों का भी यही हाल है। जाति को राजनीति का आधार बनाने वाली पार्टियों को आने वाले चुनावों में और तरीकों पर गौर करना होगा।
इसलिए उम्मीद बंधती है कि जाति को समाप्त करने की राजनीतिक आवश्यकता पर इनका ध्यान जायेगा और जाति का विनाश एक वास्तविकता की शक्ल अख्तियार करेगा। ऐसी हालत में सामाजिक और आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा और कोई बिट्टन इसलिए नहीं अपमानित होगी कि वह दलित है।
Wednesday, August 5, 2009
बुंदेलखंड की राजनीतिक लड़ाई
उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में अपनी खोई हुई राजनीतिक हैसियत को दोबारा हासिल करने के लिए कांग्रेस ने बुंदेलखंड का रास्ता चुना है। बुंदेलखंड में ही राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को फिर से जीवित करने के अपनी योजना का परीक्षण किया था इलाके के दलितों के यहां भोजन करके उन्होंने राज्य की सबसे बड़ी पार्टी की नेता और मुख्यमंत्री मायावती को चुनौती दी थी।
काफी हद तक कामयाब रहे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस आज बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को बराबर की टक्कर दे रही है। रीता बहुगुणा जोशी को गिरफ्तार करवाने की योजना की सफलता के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। जानकार बताते हैं कि रीता बहुगुणा की गिरफ्तारी करवाने की रणनीति के पीछे कांग्रेस की योजना वास्तव में राज्य में विपक्ष के स्पेस पर कब्जा करने की थी लेकिन गिरफ्तारी के साथ-साथ मायावती की पार्टी और सरकार ने राजनीतिक भूल कर दी। रीता बहुगुणा का किराए का घर जलवा दिया।
बस फिर क्या था पूरे देश में इस प्रशासनिक बर्बरता के खिलाफ माहौल बन गया। जिसका कांग्रेस को बड़ा फायदा हुआ। हर जिले में जो भी कुछ लोग कांग्रेसी कार्यकर्ता के नाम पर बचे खुचे थे, सड़कों पर आ गए और हर जिले में कांग्रेस का मामूली ही सही संगठन खड़ा हो गया। अजीब संयोग है कि उत्तर प्रदेश में कांशीराम की राजनीतिक कुशलता के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन खत्म हुआ था, जब मुलायम सिंह और बीजेपी का विरोध करने के नाम पर काशीराम ने कांग्रेस से विधानसभा चुनाव के लिए सीटों का समझौता किया था।
425 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को 134 सीटों पर सीमित कर दिया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। आज उन्हीं कांशीराम की शिष्या मायावती की एक राजनीतिक गलती से उत्तर प्रदेश के हर गांव में कांग्रेसी लामबंद हो रहे हैं और मामूली ही सही, एक संगठन का स्वरूप ले रहे हैं। रीता बहुगुणा का घर जलना, कांग्रेस के पुनर्जीवन की पहली सीढ़ी बन गया है। पिछले 20 साल से उत्तर प्रदेश में खाली बैठे कांग्रेसियों का एका एक कुछ काम मिल गया है और राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी बनने का सपना पूरा होने की तरफ बढ़ रहा है।
उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में उम्मीद से ज्यादा सीटें पाकर कांग्रेस के नेतृत्व में भी उत्साह है। इसी उत्साह के चलते पार्टी में उत्तर प्रदेश को लेकर सक्रियता बढ़ गई है। राज्य के सांसदों का जो दल प्रधानमंत्री से मिलकर बुंदेलखंड की तरक्की के लिए अलग संगठन बनाने की बात कर रहा था, वह राजनीतिक शतरंज की बहुत अहम चाल को अंजाम दे रहा था। दुनिया जानती है कि बुंदेलखंड देश का सबसे पिछड़ा इलाका है।
उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में 2009 के पहले तक मायावती की पार्टी सबसे मजबूत थी लेकिन मायावती ने सरकार बनाने के बाद इलाके की उपेक्षा की। नतीजा यह हुआ कि वहां राजनीतिक स्पेस बन गया। राहुल गांधी ने इसी राजनीतिक स्पेस को भरने की कोशिश शुरू कर दी है। चुनाव के पहले दलितों के यहां खाना पीना एकदम सोची समझी रणनीति के तहत किया गया था और अब बुंदेलखंड के विकास की बात कराना उसी स्पेस को भरने की तैयारी है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसी सांसदों ने उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके की तरक्की की बात को मुख्य एजेंडा बनाकर राजनीतिक शतरंज की ऐसी शह दी है जो दोनों ही राज्यों में मौजूदा राजनीतिक ता$कतों को मात देने की ताकत रखती है।
दोनों ही राज्यों में बुंदेलखंड का इलाका सदियों से उपेक्षित है। यह भी सही है कि इस उपेक्षा के लिए कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है लेकिन वह अब इतिहास का हिस्सा है। आज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि जवाहर लाल नेहरू का एक वंशज बुंदेलखंड के रास्ते लखनऊ और भोपाल की रियासतों पर कब्ज़ा करने की मंसूबाबंदी कर चुका है।
हालांकि कांग्रेस की बुंदेलखंड नीति से उत्तर प्रदेश में बीएसपी और मध्यप्रदेश में बीजेपी को नु$कसान होने की संभावना है लेकिन घबराहट बीएसपी में ही ज्य़ादा है। बीजेपी ने तो सोमवार को लोकसभा में कांग्रेस की नीयत को कटघरे में लाने की कोशिश की लेकिन लखनऊ की सरकार में तो बुंदेलखंड के मैदान में राहुल को हर क़ीमत पर शिकस्त देने की कोशिश चल रही है। कहीं समरा कमेटी की रिपोर्ट का हवाला दिया जा रहा है जिसने बुंदेलखंड के विकास के लिए 3866 करोड़ रुपये के पैकेज की बात की थी तो मुख्यमंत्री खुद 80, 000 करोड़ की सहायता की मांग कर रही है।
राजनीति के जानकार बताते हैं कि बुंदेलखंड की लड़ाई आंकड़ों के खेल के दायरे से बाहर जा चुकी है, अब कुछ शुद्घ रूप से राजनीतिक युद्घ है जिसमें मैदान बेशक बुंदेलखंड का हो, हथियार और मकसद शुद्घ रूप में राजनीतिक है। सांसद में बीजेपी और बीएसपी के शोर गुल के बाद सरकार की तरफ से स्पष्टीकरण आ गया कि बुंदेलखंड के विकास के लिए किसी सरकारी एजेंसी का गठन पर अभी सरकार कोई विचार नहीं कर रही है।
बहुत सही बात है, सरकार ऐसी कोई योजना नहीं बना रही है। लेकिन एक बात और सच है कि बुंदेलखंड पर जो कांग्रेस की तरफ से जो चालें चली जा रही हैं, वे भी सरकारी नहीं है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात शुद्घ रूप से आइडिया के स्तर पर है लेकिन इस आइडिया ने अपना काम कर दिया है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात करके कांग्रेस ने यह बात साफ कर दिया है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारें इला$के के विकास के प्रति गंभीर नहीं हैं और कांग्रेसी बेचारे बहुत चिंतित हैं।
गेंद अब मायावती और शिवराज सिंह चौहान के पाले में है और उनके जवाब की ता$कत से ही बुंदेलखंड में कांग्रेस को पछाड़ा जा सकता है, दिल्ली में सरकार के सामने हल्ला गुल्ला करके राजनीतिक लड़ाई की बात सोचना भी दीवालियापन की श्रेणी में आएगा। बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी देश की राष्टï्रीय पार्टियां हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें और बुंदेलखंड में हो रहे कांग्रेसी हमले का जवाब राजनीतिक तरीके से दें क्योंकि राजनीतिक लड़ाई के फैसले प्रशासनिक हथियारों से नहीं होते।
जनता की संपत्ति की पूंजीवादी बंदर बांट
कृष्णा गोदावरी बेसिन से निकलने वाली गैस राष्ट्रीय और प्राकृतिक संपदा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के चक्कर में इस क्षेत्र की गैस की तलाश का काम अस्सी के दशक में रिलायंस ग्रुप की किसी कंपनी को दे दिया गया था। दिल्ली की राजनीति में रिलायंस और उसके सेठ धीरूभाई अंबानी का पिछले तीस साल से बहुत प्रभाव है। धीरूभाई ने उद्योग और व्यापार की दुनिया में बहुत तेजी से ऊंचाइयां तय की हैं। उनके निधन के बाद उनके दोनों बेटों ने कारोबार संभाल लिया था लेकिन कुछ दिन बाद ही मतभेद शुरू हो गए।
आज दोनों भाई अलग हैं और खूब लड़ रहे हैं। जैसा कि पूंजीवादी समाजों में होता है, एक-एक पैसे के लिए लड़ाई चल रही है। धीरूभाई अंबानी के जीवनकाल में ही इस परिवार का देश की राजनीति पर भारी प्रभाव था। उनके जाने के बाद उनके दोनों बेटों की राजनीतिक ताकत बिलकुल कम नहीं हुई है। आजकल कृष्णा गोदावरी गैस का मामला उद्योग व्यापार के साथ-साथ राजनीति के दायरे में भी आ चुका है।
पिछले हफ्ते लोकसभा में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस उत्तर प्रदेश के दादरी पावर प्लांट को दिए जाने में सरकारी गैर जिम्मेदारी का मामला जोर शोर से उठाया था और लोकसभा की कार्यवाही तक स्थगित हो गई थी। मामले के राजनीतिक महत्व के मद्देनजर सरकार ने सोमवार को बयान देने का वायदा किया था। वह बयान आ चुका है। लोकसभा में सरकारी बयानों की सधी हुई भाषा का इस्तेमाल करते हुए पेट्रोलियम मंत्री ने जो बयान दिया है, उससे हर तरह के अर्थ निकाले जा सकते हैं।
उन्होंने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के कृष्णा गोदावरी बेसिन से मिलने वाली गैस का बंटवारा करने के लिए एक नीति बनाई गई है, उसी नीति के हिसाब से बंटवारा होगा। यह नीति क्या है इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। ज़ाहिर है कि नीति है तो सरकारी कागजों में कहीं न कहीं दर्ज ज़रूर होगी। हां उनके बयान का अगला हिस्सा अनिल अंबानी खेमे को मायूस करने वाला है। उसमें मंत्री जी ने कहा कि कृष्णा गोदावरी बेसिन के डी ब्लाक की गैस ऐसे किसी प्लांट को एलाट नहीं की गई है जो उत्पादन की स्टेज तक नहीं पहुंचा है। यानी अनिल अंबानी ग्रुप के दादरी पावर प्लांट का कहीं कोई जिक्र नहीं है।
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुंख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा में उत्तर प्रदेश के हितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया था। पेट्रोलियम मंत्री ने कहा कि दादरी प्लांट जब चल ही नहीं रहा है तो उसे गैस देने का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने साफ किया जब प्लांट चलने लगेगा तो गैस की उपलब्धता की रौशनी में उसे गैस एलाट करने की बात पर विचार किया जाएगा। अपने इस बयान से पेट्रोलियम मेंत्री ने अंबानी बंधुओं के झगड़े और उससे संबद्घ राजनीति को एकदम नई दिशा दे दी है और निश्चित रूप से यह राउंड बड़े भाई मुकेश अंबानी की झोली में डाल दिया है। अनिल अंबानी की शिकायत यह नहीं है कि दादरी प्लांट चालू होने पर उन्हें गैस मिलेगी कि नहीं।
उनका आरोप है कि भाइयों के बीच कारोबार के बंटवारे के वक्त तय हुआ था कि अनिल अंबानी की कंपनियों के लिए कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस सस्ते दाम पर मिलेगी। हालांकि यह बात सार्वजनिक स्तर पर तो किसी को नहीं मालूम है लेकिन अंदर की बात को बुनियाद बनाकर गैस के बारे में समझौता हुआ था। आमतौर पर माना जाता है कि सरकार और रिलायंस के बीच हुए गैस के बंटवारे के समझौते में रिलायंस को बहुत ही रियायतें दी गई थीं। भाइयों के झगड़े के वक्त इन रियायतों को रिकॉर्ड पर तो नहीं लाया जा सकता था लेकिन अनिल अंबानी को अपनी कंपनियों के लिए मिलने वाली गैस की रियायती कीमत के जरिए बात दुरुस्त कर ली गई थी।
अब बाजार के रेट से गैस देने की बात करके मुकेश अंबानी खेमा अनौपचारिक समझौते से मुकर रहा है। सारी परेशानी की जड़ यही है। जहां तक राजनीतिक बिरादरी का सवाल है, वह इस मुद्दे पर पूरी तरह से विभाजित है। मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेसी नेता और पेट्रोलियम मंत्री पर आरोप लगाया है कि वह मुकेश अंबानी का पक्ष ले रहे हैं जबकि पेट्रोलियम मंत्री के करीबी लोगों का कहना है कि मुलायम सिंह यादव दूसरे अंबानी का पक्ष ले रहे हैं। इस सारी मारामारी में जनता की पक्षधरता वाली राजनीति बहुत कमजोर पड़ रही है।
सवाल पूछा जा रहा है कि कृष्णा गोदावरी बेसिन की गैस वास्तव में जनता से क्यों छीनी जा रही है जबकि जमीन की नीचे की हर संपदा राष्ट्र की संपत्ति होती है और राष्ट्र जनता का है। जब अस्सी के दशक में रिलायंस इंडस्ट्रीज को कृष्णा गोदावरी बेसिन में गैस ढूंढने का काम दिया गया था तो वह एक ठेकेदार की हैसियत से वहां गए थे। पिछले बीस वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि अंबानी परिवार जनता की उस संपत्ति का मालिक बन बैठा। यह सवाल बहुत ही गंभीर है और इसकी पूरी गंभीरता से जांच की जानी चाहिए। नेताओं को भी चाहिए कि पूंजीपतियों के हित के साथ-साथ थोड़ा बहुत जनता का भी ध्यान दें।
महुआ टीवी- महकती मिट्टी और सिसकती बोलियां
तू केकरा से प्यार करेलू हो....बोल न...काहे डेरा तारू....मनोज तिवारी प्रतियोगियों से इसी ज़ुबान में बोल रहे थे। प्रतियोगी सहमे हुए लेकिन सहज भी लग रहे थे। अपनों के बीच भी सहम जाता है। रांची की रीमा सिंह का वीडियो प्रोफाइल चल रहा था। बिस्तर पर उनके पांव बिखरे पड़े थे। कैमरा पांव पर था। वॉयस ओवर कहता है कि पांव पर ही फिदा हो गए थे रीमा के पति। शादी कर ली। अब चाहते हैं कि रीमा संगीत की दुनिया में नाम करे।
अपने संबंधों की निजता को लेकर सार्वजनिक होने का मौका अपनी बोली में जितना मिलता है उतना किसी में नहीं। रीमा खुलने लगती हैं। पहली बार वैसे कपड़ो में मंच पर हैं, जो शायद उनके पहनावा का हिस्सा न होगा। लेकिन जैसे ही माइक हाथ में दी जाती है...उनका सुर आगे पढ़े