Wednesday, August 26, 2009

न्यायपालिका की पवित्रता में इज़ाफा

जजों की संपत्ति का मामला बहस के दायरे में आ गया है। न्यायपालिका को एक पवित्र संस्था माना जाता है। आजादी के बाद संविधान सभा की बहसों में उस वक्त के महान नेताओं को भरोसा था कि न्यायपालिका के रखवाले अपना काम ईमानदारी से करेंगे और उनकी आर्थिक स्थिति कभी भी विवाद का विषय नहीं बनेगी। इसलिए यह परंपरा बनी कि जजों की संपत्ति को मुकदमे बाजी का विषय नहीं बनने दिया जायेगा।

जब राजनीतिक नेताओं और बेईमान अफसरों ने घूस के जरिए अकूत संपत्ति बनाना शुरू किया तो जनमत के दबाव के चलते ऐसे कानून बने कि उनको ईमानदार बनाए रखने के लिए कानून का डंडा चलाया गया। नेताओं को तो हलफ नामा देकर अपनी संपत्ति घेषित करने का कानून बन गया और वह सूचना सार्वजनिक भी कर दी जाती है। लेकिन ऐसी जरूरत नहीं पड़ी थी कि जजों के बारे में ऐसा कानून बनाया जाय। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जजों के भ्रष्टïाचार के बहुत सारे मामले अखबार में छपे हैं। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक जज साहब के ऊपर तो महाभियोग की तैयारी भी हो गई थी, उसी हाईकोर्ट की एक जज पिछले साल नकद रिश्वत लेने के मामले में भी चर्चा में आ गई थीं।

कलकत्ता हाईकोर्ट के जज साहब भी विवादों के घेरे में हैं लेकिन कानून ऐसे हैं कि बहुत कुछ किया नहीं जा सकता बहुत सारे फैसले भी विवाद का विषय बन गए हैं। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बना कि हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों पर भी मीडिया या अन्य मंचो पर भ्रष्टाचार से संबंधित बहसों का सिलसिला शुरू हो गया। मांग उठने लगी कि जजों की संपत्ति सार्वजनिक की जाय और उसे सार्वजनिक डोमेन में डाला जाय। इस बात के लागू होने में सबसे बड़ा खतरा यह है कि ईमानदार जजों के सामने परेशानी खड़ी हो सकती है लेकिन उससे भी बड़ा खतरा न्यायपालिका के भ्रष्टाचार का है। पिछले कुछ वर्षों से तो कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भी उंगली उठाने लगे हैं।

और जाने अनजाने जजों की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। यह हमारे देश के जनतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इस विवाद पर विराम देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केजी गोपालकृष्णन ने स्थिति को स्पष्टï करते हुए कहा कि अवांछित विवादों से बचाने के लिए जजों की संपत्ति की घोषणा तो हो सकती है लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए। माना जहा रहा था कि बहस यहीं खत्म हो जायेगी लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति डीवी शैलेंद्र कुमार ने एक अखबार में लेख लिखकर मामले को गंभीर बहस के दायरे में ला दिया।

जस्टिस कुमार ने भारत के मुख्य न्यायधीश की अधिकार सीमा पर ही सवाल उठा दिया। उन्होंने कहा कि सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार नहीं है कि वे जजों की संपत्ति की घोषणा और उसको सार्वजनिक करने के बारे में बात करें। उन्होंने यह भी कहा कि यह अवधारणा गलत है कि ऊंची अदालतों के जज अपनी संपत्ति को सार्वजनिक नहीं करना चाहते। उन्होंने कहा कि वे तो चाहते हैं कि उनकी सारी संपत्ति का ब्यौरा हाईकोर्ट की वेबसाइट पर डाल दिया जाय। जस्टिस कुमार की बात को न्यायविदों के बीच बहुत गंभीरता से लिया जा रहा है और उसकी तारीफ भी हो रही है। लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति के जी गोपालकृष्णन ने न्यायपालिका के आंतरिक मामलों की इस बहस को सार्वजनिक करने के न्यायमूर्ति कुमार के तरीके को ठीक नहीं माना और कहा कि इस तरह का आचरण एक जज के लिए ठीक नहीं है।

न्यायमूर्ति गोपालकृष्णन ने कहा लगता है कि कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जस्टिस डीवी शैलेंद्र कुमार प्रचार के भूखे हैं। उन्होंने अपने बयान के बारे में बताया कि अगर कोई जज अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करना चाहता है तो उसे मैं नहीं रोकूंगा लेकिन जहां तक सभी जजों के बारे में बोलने के अधिकार की बात है, उसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत के मुख्य न्यायाधीश होने के नाते उन्हें यह अधिकार उपलब्ध है।

बाकी दुनिया की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी ऐसे ही होता है। जजों की संपत्ति के बारे में दबी जबान से चर्चा तो बहुत दिनों से चल रही थी लेकिन इस पर बहस नहीं होती थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले पर अपनी बात को मीडिया के माध्यम से बहस के दायरे में लाकर एक बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है। कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, जस्टिस कुमार ने बहस को अखबारी बहस का विषय बनाया तो कुछ अन्य जज अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर संपत्ति के इस विवाद में शामिल हो रहे हैं।

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति के कन्नन ने अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर दी है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर सारी जानकारी डाल दी है। और सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण को चिट्ठी लिखकर अपनी पत्नी और अपने नाम अर्जित की गई सारी संपत्ति का ब्यौरा दे दिया है। प्रशांत भूषण ही जजों के भ्रष्टाचार के बारे में आंदोलन चला रहे हैं। उधर चेन्नई से खबर है कि मद्रास हाईकोर्ट के एक जज भी अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं। इस सारे घटनाक्रम का स्वागत किया जाना चाहिए और देश को भारत के मुख्य न्यायाधीश का आभार व्यक्त करना चाहिए जिन्होंने इतने नाजुक मसले पर बहस का माहौल बनाया। इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता को बहुत ताकत मिलेगी।

Monday, August 24, 2009

बीजेपी के झूठ का भंडाफोड़

बीजेपी से निकाले जाने के बाद जसवंत सिंह ने बहुत सारी ऐतिहासिक सच्चाइयों से परदा उठाया है इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी की शिमला चिंतन बैठक में लिए गए फैसलों से जसवंत सिंह और बीजेपी का चाहे जो नुकसान हो, आम जनता का बहुत फायदा हुआ है। जसवंत सिंह वह सब कुछ बता रहे हैं जो अब तक बीजेपी के बड़े नेताओं को ही मालूम था। जसवंत सिंह ने बताया है कि 2002 में जब गुजरात में नरसंहार हुआ था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री, नरेंद्र मोदी को दंडित करने का फैसला किया था।

पूरी दुनिया की तरह गुजरात में हुई मुसलमानों की तबाही के लिए वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को ही जि़म्मेदार माना था लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी ने मोदी को बचाने के लिए अपनी सारी ताक़त लगा दी थी। उन्होंने वाजपेयी को चेतावनी दी थी कि अगर नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई कार्रवाई की तो बवाल हो जायेगा। अब तक बीजेपी के लोग यही बताते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ कार्रवाई न करने का फैसला सर्वसम्मति से हुआ था। जसवंत सिंह के कंधार विमान अपहरण कांड संबंधी बयान ने तो लालकृष्ण आडवाणी को कहीं का नहीं छोड़ा।

आडवाणी बार-बार कहते रहे थे कि कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान आतंकवादियों को सरकारी विमान से ले जाकर वहां पहुंचाने के फैसले की जानकारी उन्हें नहीं थी। उनके चेलों की टोली भी इसी बात को बार-बार दोहरा रही थी, प्रेस कांफ्रेंस, इंटरव्यू हर माध्यम का इस्तेमाल करके यही बात कही जा रही थी। इस बात में कोई शक नहीं कि लोग इस बात का विश्वास नहीं कर रहे थे। संसदीय लोकतंत्र में मंत्रिपरिषद की संयुक्त जि़म्मेदारी का सिद्घांत लागू होता है। इस लिहाज़ से भी यह बात गले नहीं उतर रही थी कि राष्ट्रहित या अहित से जुड़ा इतना बड़ा फैसला और उपप्रधानमंत्री को जानकारी तक नहीं। अगर यह सच होता तो उस वक्त की केंद्र सरकार अपनी सबसे बड़ी संवैधानिक जि़म्मेदारी का उल्लंघन करने का जुर्म कर रही होती।

लेकिन शुक्र है कि आडवाणी झूठ बोल रहे थे और उन्हें मालूम था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को छोडऩे कंधार जा रहे थे। एक राष्ट्र के रूप में हमें इस बात पर तो परेशानी होती कि आडवाणी को अंधेरे में रखकर अटल बिहारी वाजपेयी ने हमारे उप प्रधानमंत्री का अपमान किया लेकिन आडवाणी के झूठा साबित होने का हमें कोई ग़म नहीं है। झूठ बोलना कुछ लोगों की फितरत का हिस्सा होता है। जसवंत सिंह ने पार्टी से निकाले जाने के बाद आडवाणी के झूठ का भंडाफोड़ करके राष्टï्रीय मंडल महत्व का काम किया है। जसवंत सिंह ने एक और महत्वपूर्ण विषय पर बात करना शुरू कर दिया है।

उन्होंने आर एस एस वालों से कहा है कि उन्हें इस बात पर अपनी पोजीशन साफ कर देनी चाहिए कि उनका संगठन राजनीति में है कि नहीं। उन्होंने कहा कि आर.एस.एस. वाले आमतौर पर दावा करते रहते हैं कि वे राजनीति में नहीं हैं लेकिन बीजेपी का कोई भी फैसला उनके इशारे पर ही लिया जाता है। बीजेपी उनके मातहत काम करने वाली पार्टी है और अगर कभी आरएसएस की नापसंद वाला कोई फैसला बीजेपी के नेता ले लेते हैं तो उसे तुरंत वीटो कर दिया जाता है। ज़ाहिर है कि वीटो पावरफुल होता है। आरएसएस की सर्वोच्चता और बीजेपी की हीनता समकालीन राजनीतिक इतिहास में कई बार चर्चा का विषय बन चुकी है। 1978 में यह बहस समाजवादी विचारक मधु लिमये ने शुरू की थी। जनता पार्टी में जनसंघ के विलय के बाद जनसंघ के सारे नेता पार्टी में शामिल हो गए थे।

वाजपेयी आडवाणी और बृजलाल वर्मा मंत्री थे। ये लोग रोजमर्रा के प्रशासनिक फैसलों के लिए भी नागपुर से हुक्म लेते थे। इस बात को जनता पार्टी के नेता पसंद नहीं करते थे। मधु लिमये ने कहा कि जनता पार्टी का नियम है कि उसके सदस्य किसी और घटक के मंत्रियों को आरएसएस से रिश्ते खत्म करने पड़ेंगे क्योंकि आरएसएस एक राजनीतिक संगठन है। इन बेचारों की हिम्मत नहीं पड़ी और यह लोग साल भर की कशमकश के बाद जनता पार्टी से अलग हो गए। जसवंत सिंह ने भी उसी बहस को शुरू करने की कोशिश की है लेकिन अब इस बात में कोई दम नहीं है क्योंकि अब सबको मालूम है कि असली राजनीति तो नागपुर में होती है, यह राजनाथ सिंह, आडवाणी वग़ैरह तो हुक्म का पालन करने के लिए हैं।

जसवंत सिंह ने बीजेपी में भरती हुए संजय गांधी के पुत्र वरुण गांधी के गैऱ जि़म्मेदार नफरत भरे भाषण पर भी बीजेपी की सहमति का जि़क्र किया है। वरुण गांधी के नफरत आंदोलन के दौरान आडवाणी समेत सभी भाजपाई ऐसी बानी बोलते थे जिसका मनपसंद अर्थ निकाला जा सके। अब हम जसवंत के हवाले से जानते हैं कि वह उनकी रणनीति का हिस्सा था। यानी वरुण गांधी कोई मनमानी नहीं कर रहे थे बल्कि बीजेपी की नफरत की राजनीति में एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल हो रहे थे। जसवंत सिंह की इन बातों में कोई नयापन नहीं है।

सबको ठीक यही सच्चाई मालूम है लेकिन बीजेपी की तरफ से कोई अधिकारिक बात नहीं आ रही थी। अब उनकी गवाही के बाद बात बिल्कुल पक्की हो गई है लेकिन जसवंत सिंह का इससे कोई फायदा नहीं होने वाला है क्योंकि उनका खिसियाहट में दिया गया यह बयान इतिहास की यात्रा में एक क्षत्रिय की औकात भी नहीं रखता।

Friday, August 21, 2009

जसवंत बर्खास्त! आडवाणी क्यों नहीं?

बीजेपी ने जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने एक किताब लिखी है जिसमें पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिनाह की तारीफ की है और उन्हें सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू की तुलना में ज्याद ऊंचा दर्जा दिया है। जहां तक जसवंत सिंह की किताब का प्रश्न है उसे कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा है, किताब में लिखी गई बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि जसवंत सिंह बेचारे बहुत ही मामूली बौद्घिक स्तर के इंसान हैं। लगता है पढ़ाई लिखाई भी उनकी मामूली ही है क्योंकि पांच साल तक रिसर्च करके उन्होंने जो किताब लिखी है, वह बहुत ही मामूली है।

तथ्यों की तो बहुत सारी गलतियां हैं, और जो निष्कर्ष निकाले गए हैं वे बहुत ही ऊलजलूल है। ऐसा लगता है कि जसवंत सिंह भी इसी क्लास में पढ़ते थे जिसमें मुंगेरी लाल, तीस मार खां, शेख चिल्ली वगैरह ने नाम लिखा रखा था। बहरहाल उनकी किताब को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। इस बात में कोई शक नहीं है कि जसवंत सिंह की जिनाह वाले निष्कर्ष का मुकाम डस्टबिन है और रिलीज होने के साथ वह अपनी मंजिल हासिल कर चुका है लेकिन उनकी पार्टी में इस किताब ने एक तूफान खड़ा कर दिया है। शिमला में शुरू हुई बीजेपी की चिंतन बैठक में शुरू में ही जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया।

मामले को नागपुर मठाधीशों ने भी बहुत गंभीरता से लिया और राजनाथ सिंह को आदेश हो गया कि जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल बाहर करो। राजनाथ सिंह वैसे तो पार्टी के अध्यक्ष हैं लेकिन उनकी छवि एक हुक्म के गुलाम की ही है और जसवंत सिंह बहुत ही बे आबरू होकर हिंदुत्व वादी पार्टी से निकल चुके हैं। जसवंत सिंह का बीजेपी से निष्कासन पार्टी के आंतरिक जनतंत्र पर भी सवाल पैदा करता है अपराध के कारण उन्हें बीजेपी से बाहर किया गया। तो क्या पाकिस्तान के संस्थापक की तारीफ करने वालों को बीजेपी से निकाल दिया जाता है। जाहिर है यह सच नहीं है। अगर ऐसा होता तो लालकृष्ण आडवाणी कभी के बाहर कर दिए गए होते।

जसवंत सिंह पर तो आरोप है कि उन्होंने अपनी किताब में जिनाह की तारीफ की है, आडवाणी तो उनकी कब्र पर गए थे और बाकायदा माथा टेक कर वहां खड़े होकर मुहम्मद अली जिनाह की शान में कसीदे पढ़े थे और पाकिस्तान के संस्थापक को बहुत ज्यादा सेकुलर इंसान बताकर आए थे। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन दिनों आरएसएस की ताकत इतनी कमजोर थी कि वह अपने मातहत काम करने वाली बीजेपी पर लगाम नहीं लगा सकता था। इस हालत में लगता है कि जसवंत के निकाले जाने में जिनाह प्रेम का योगदान उतना नहीं है, जितना माना जा रहा है। अगर ऐसा होता तो आडवाणी का भी वही हश्र होता जो जसवंत सिंह का हुआ।

लगता है कि पेंच कहीं और है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी में आडवाणी गुट की ताकत की धमक ऐसी थी कि आर एस एस वालों की हिम्मत नहीं पड़ी कि उन्हें पार्टी से निकालने की कोशिश करें। डर यह था कि अगर आडवाणी को बाहर किया तो उनके गुट के लोग बाहर चले जाएंगे। जसवंत सिंह को दिल्ली की राजनीतिक गलियों में अटल बिहारी वाजपेयी के आखाड़े का पहलवान माना जाता है। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जसवंत सिंह को महत्व भी खूब दिया था। मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण विभाग भी मिला था उन्हें जब कंधार जाकर आतंकवादियों को छोडऩे की बात आई तो वही भेजे गए थे। वे वाजपेयी गुट के भरोसेमंद माने जाते हैं।

आजकल वाजपेयी गुट के नेता लोग परेशानी में हैं। कहीं ऐसा नही कि वाजपेयी की बीमारी के कारण उनके गुट के कमजोर पड़ जाने की वजह से आडवाणी के चेलों ने आरएसएस के कंधे पर बंदूक चला दी हो और राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में आडवाणी को सबसे ऊंचा बनाने की कोशिश हो। जसवंत सिंह की किताब में नेहरू की निंदा की गई है। इसे संघी राजनीति की गिजा माना जाता है। लेकिन जसवंत बाबू ने साथ में सरदार पटेल को भी लपेट लिया, उनको भी जिनाह से छोटा करार दे दिया। यह बात बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति के खिलाफ जाती है। भगवा ब्रिगेड की पूरी कोशिश है कि सरदार पटेल को अपना नेता बनाकर पेश करें। ऐसा इसलिए कि आज़ादी की लड़ाई में आरएसएस और उसके मातहत संगठनों के किसी नेता ने हिस्सा नहीं लिया था।

उनकी पूरी कोशिश रहती है कि ऐसे किसी भी आदमी को अपनी विचार धारा का बनाकर पेश कर दें जो नेहरू परिवार के मुखालिफ रहा हो। सरदार पटेल की यह छवि बनाने की नेहरू विरोधियों की हमेशा से कोशिश रही है। हालांकि यह बिलकुल गलत कोशिश है लेकिन संघी बिरादरी इसमें लगी हुई है। इसी तरह एक बार आरएसएस वालों ने कोशिश की थी कि सरदार भगत सिंह को अपना लिया जाय। साल-दो साल कोशिश भी चली लेकिन जब पता चला कि भगत सिंह तो कम्युनिस्ट पार्टी में थे तबसे यह कोशिश है कि सरदार पटेल को अपनाया जाय लिहाजा उनके खिलाफ अभी कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा।

इस बीच खबर है कि उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेता कलराज मिश्र ने जसवंत सिंह की बर्खास्तगी का विरोध किया है। उनका कहना है कि जसवंत सिंह ने जो भी कहा है वह तथ्यों पर आधारित है इसलिए उनको हटाने की बात करना ठीक है। अगर इस बात में जरा भी दम है तो इस बात में शक नहीं कि बीजेपी के दो टुकड़े होने वाले हैं।

अकाल का खतरा और मीडिया की ज़िम्मेदारी

देश में सूखा पड़ गया है, खेती चौपट हो चुकी है। खरीफ की फसल के लेट होने वाली बारिश से संभलने की उम्मीद दम तोड़ चुकी है। जिसके पास कुछ पैसे नौकरी या व्यापार का सहारा होगा उनको तो भरपेट खाना मिलेगा वरना रबी की फसल तैयार होने तक भारत के गांवों में रहने वालों का वक्त बहुत ही मुश्किल बीतने वाला है।

नई दिल्ली में सभी राज्यों के कृषि मंत्रियों का सम्मेलन बुलाया गया था जिसमें केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया कि 10 राज्यों के 246 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है। अभी और भी जिलों के इस सूची में शामिल किये जाने की बात भी सरकारी स्तर पर की जा रही है। इसका मतलब यह हुआ कि धान की पैदावार में करीब 170 लाख टन की कमी आ सकती है। इस सम्मेलन में बहुत सारे आंकड़े प्रस्तुत किए गए और सरकारी तौर पर दावा किया गया कि खाने के अनाज की कुल मात्रा में जितनी कमी आएगी उसे पूरा कर लिया जायेगा।

सारा लेखा जोखा बता दिया गया और यह बता दिया गया कि सरकार 60 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी खर्च करके मंहगाई को काबू में कर लेगी। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन की खबर ज्यादातर अखबारों में छपी है। लगभग सभी खबरों में तोता रटन्त स्टाइल में वही लिख दिया गया है जो सरकारी तौर पर बताया गया। सारी खबरें सरकारी पक्ष को उजागर करने के लिए लिखी गई हैं, जो बिलकुल सच है। लेकिन एक सच और है जो आजकल अखबारों के पन्नों तक आना बंद हो चुका है।

वह सच है कि भूख के तरह-तरह के रूप अब सूखा ग्रस्त गांवों में देखे जायेंगे लेकिन वे खबर नहीं बन पाएंगे। खबर तब बनेगी जब कोई भूख से तड़प तड़प कर मर जायेगा। या कोई अपने बच्चे बेच देगा या खुद को गिरवी रख देगा। भूख से मरना बहुत बड़ी बात है, दुर्दिन की इंतहा है। लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैं, भूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है।

इन आंकड़ाबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत है कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेर कर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करें, इसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता है, तभी इस देश का नेता और पत्रकार जगता है। गांव का किसान, जिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती है, वह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता।

कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांग कर नहीं खाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि गांव का गरीब, सरकारी लापरवाही के चलते मानसून खराब होने पर भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषिव्यवस्था नए शासकों को मिली थी, वह लगभग आदिम काल की थी।

जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि औद्योगिक विकास के साथ-साथ खेती का विकास भी चलता रहेगा। लेकिन 1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा। उस साल उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गईं थी। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरल, अयूब ने भी हमला कर दिया। युद्घ का समय और खाने की कमी। बहरहाल प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।

अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आवाहन किया कि सभी लोग एक दिन का उपवास रखें। यानी मुसीबत से लडऩे के लिए हौसलों की ज़रूरत पर बल दिया। लेकिन भूख की लड़ाई हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे उनसे कोई भी पता लगा सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है। लेकिन भूख सब कुछ करवाती है। अमरीका से पी एल 480 योजना के तहत मंगाये गए गेहूं की रोटियां किस रबड़ की तरह होती हैं।

केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम है कि गांव का गरीब किसान जब कोटेदार के यहां अनाज खरीदने या मांगने जाता है, तो कितनी बार मरता है, अपमान के कितने कड़वे घूंट पीता है। इन्हें कुछ नहीं मालूम और न ही आज के तोता रटंत पत्रकारों को जरूरी लगता है कि गांव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन कोल्हू के बैल नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएं। गांव के गरीब की इस निराशा और हताशा को एक महापुरुष ने समझा था।

1967 में कृषि मंत्री रहे सी सुब्रमण्यम ने अपनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह सच्चाई समझाई थी। उनके प्रयासों से ही खेती को आधुनिक बनाने की कोशिश शुरू हुई, इस प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन का नाम दिया गया। लीक से हटकर सोच सकने की सुब्रमण्यम की क्षमता और उस वक्त की प्रधानमंत्री की राजनीतिक इच्छा शक्ति ने अन्न की पैदावार के क्षेत्र में क्रांति ला दिया। खेती से संबंधित हर चीज में सब्सिडी का प्रावधान किया गया। बीज, खाद, कृषि उपकरण, निजी ट्यूबवेल, डीजल, बिजली सब कुछ सरकारी मदद के लायक मान लिया गया। भारत के ज्यादातर किसानों के पास मामूली क्षेत्रफल की जमीनें हैं। भूमि की चकबंदी योजनाएं शुरू हुईं और किसान खुशहाल होने लगा।

लेकिन जब इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आईं तब तक देश में लुंपन राज आ चुका था और गांव के गरीब की खैरियत जानने वाला कोई नहीं था। पिछले 35 वर्षों में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि दिल्ली में बैठा राजनीतिक और नौकरशाह भाग्यविधाता, ग्रीन रिवोल्यूशन की परंपरा के बारे में नहीं सोचता। सुना तो यहां तक गया है कि खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को राजनीतिक आकाओं की कृपा से फैक्टरी मालिक सीधे हड़प कर जा रहे हैं, किसानों को उसमें से कुछ नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में ज़रूरत इस बात की है कि सूचना क्रांति के हथियारों का इस्तेमाल करके राजनीतिक महाप्रभुओं को सच्चाई का आईना दिखाया जाय और यह काम मीडिया को करना है।

भूख से तड़प तड़प कर मरते आदमी को खबर का विषय बनाना तो ठीक है लेकिन उस स्थिति में आने से पहले आदमी बहुत सारी मुसीबतों से गुजरता है और आम आदमी की मुसीबत की खबर लिखकर या न्यूज चैनल पर चलाकर पत्रकारिता के बुनियादी धर्म का पालन हो सकेगा क्योंकि हमेशा की तरह आज भी आम आदमी की पक्षधरता पत्रकारिता के पेशे का स्थायी भाव है।

Thursday, August 20, 2009

विदेश मंत्रालय की फिल्म- कोई देख नहीं सका


कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।


वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।


आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।


वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी।


सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।


अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।


इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।


अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।


उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।


इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था।


सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं।


गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।


1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।




वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।


शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।


उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।


बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।


1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।


कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।


आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में

उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।

गंगा जमुना के दो आब में जन्मी और विकसित हुई इस जबान की ऐतिहासिक यात्रा के बारे में विदेश मंत्रालय की ओर से एक बहुत अच्छी फिल्म बनाई गई है। इस फिल्म का नाम है, ''उर्दू है जिसका नाम'। इसके निर्देशक हैं सुभाष कपूर। फिल्म की अवधारणा, शोध और कहानी सुहैल हाशमी की है। इस फिल्म में संगीत का इस्तेमाल बहुत ही बेहतरीन तरीके से किया गया है जिसे प्रसिद्घ गायिका शुभा मुदगल और डा. अनीस प्रधान ने संजोया है। शुभा की आवाज में मीर और ग़ालिब की गज़लों को बिलकुल नए अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।


फिल्म पर काम 2003 में शुरू हो गया था और 2007 में बनकर तैयार हो गई थी। अभी तक दूरदर्शन पर नहीं दिखाई गई है। इस फिल्म के बनने में सुहैल हाशमी का सबसे ज्य़ादा योगदान था और आजकल वे ही इसे प्राइवेट तौर पर दिखाते हैं। पिछले दिनों प्रेस क्लब दिल्ली में कुछ पत्रकारों को यह फिल्म दिखाई गई। मैंने भी फिल्म देखी और लगा कि उर्दू के विकास की हर गली से गुजर गया।

Wednesday, August 19, 2009

जंतर-मंतर मरने पहुंचे हैं गोपाल राय

यशवंत सिंह
गोपाल राय पिछले 9 दिन से बिना खाये-पिये जंतर-मंतर पर लेटे हैं। आमरण अनशन कर रहे हैं वे। मित्र हैं। इलाहाबाद में बीए के दिन से। छात्र राजनीति में साथ-साथ सक्रिय हुए थे हम दोनों। बाद में मैं बीएचयू चला गया था और वो लखनऊ विवि। संगठन के होलटाइमर भी साथ-साथ ही बने थे। करीब-करीब साथ-साथ ही संगठन से मोह भी टूटा था। किसी भी तरह का गलत होते न देख पाने वाले गोपाल राय लखनऊ विश्वविद्यालय में गुंडों से हर वक्त टकराया करते थे। उनके व्यक्तित्व में अदम्य साहस और आत्मविश्वास है। भय से तो भाई को तनिक भी भय नहीं लगता। चट्टान की तरह अड़ जाता है।

अब गोपाल राय को कौन समझाए कि दिल्ली में रहने वाले 99 फीसदी लोग सिर्फ पेट के लिए जीते-मरते हैं। इनका किसी से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। संवेदना शब्द अब गरीबों व गांववालों के लिए आरक्षित कर दिया गया है। बाजार का नशा महानगरों पर इस कदर चढ़ा है कि अगर कोई थोड़ा भी सिद्धांत की बात करता मिल जाए तो लोग उसे फालतू मानकर दाएं-बाएं निकल लेते हैं। ऐसे में गोपाल का किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर आमरण अनशन करना, थोड़ा चौंकाता है, लेकिन यह भरोसा भी दिलाता है कि कुछ पगले किस्म के लोग अब भी विचारों को जीते हैं और देश-समाज की चिंता करते हुए जान न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं।

गोपाल राय से मिलने इसलिए नहीं गया था कि वे किसी महान काम में लगे हैं, इसलिए भी नहीं गया था कि आमरण अनशन के 9वें दिन में प्रवेश करने से उनके स्वास्थ्य को लेकर मुझे विशेष चिंता हो रही थी। सही कहूं तो मैं भी धीरे-धीरे दिल्ली वाला हो रहा हूं, इसलिए बहुत देर तक इमोशन में न फंस पाने की प्रवृत्ति डेवलप हो रही है। गोपाल राय के यहां सिर्फ इसलिए गया था कि इस दिल्ली में जिन दो-चार बहादुर लोगों को देखा है, उसमें पुराने मित्र गोपाल राय भी हैं। गोली लगने के कारण अस्वस्थ रहने वाले शरीर की वजह से ठीक से चल भी नहीं पाते लेकिन गोपाल राय न तो पहले और न अब, कभी छिछले नहीं हुए, कभी औसत नहीं बने, कभी बेचारे बनकर पेश नहीं हुए, कभी किसी तरह की याचना नहीं की। कितने भी दर्द-दुख में रहें, कभी मुस्कराहट नहीं खत्म की।

दोस्ती की वजह से उनसे मिलने जंतर-मंतर गया।
जंतर-मंतर पहुंचा तो टीवी न्यूज चैनलों की ओवी वैन देख माथा ठनका, माजरा क्या है? पता चला कि महंगाई पर भाजपा का कोई कार्यक्रम है जिसमें राजनाथ सिंह आने वाले हैं। संतोष हुआ। चैनल वाले कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं, सही रास्ते पर हैं। वरना जंतर-मंतर को अब पूछता कौन है। गोपाल राय सरीखे दर्जनों आंदोलनकारी जंतर-मंतर पर अपने जिनुइन मुद्दों को लेकर बैठे रहते हैं हैं, उधर किसी को देखने की फुर्सत नहीं है। लेकिन अगर राजनाथ सिंह जंतर-मंतर टहलने भी पहुंच जाएं तो उन्हें कवर करने मीडिया का मेला पहुंच जाएगा।


इतिहास का जो चारण-भाट दौर था, उसमें भी लेखक-बुद्धिजीवी सिर्फ बड़े राजाओं-महाराजाओं-राजकुमारों-महारानियों-राजकुमारियों-मंत्रियों मतलब कुलीन लोगों के बारे में ही लिखते-पढ़ाते थे। आम जन की स्थिति के बारे में कलम चलाने वाला कोई नहीं था। पूंजीवाद और विज्ञान के विकास ने इतिहास को जड़ों से जोड़ा लेकिन अबका जो चरम पूंजीवाद, बोले तो, बाजारवाद है, वह फिर से इतिहास को पलट रहा है।

देश में अकाल पड़ा हुआ है, लोग भूखों मर रहे हैं, इस पर टीवी वालों को प्राइम टाइम में स्पेशल स्टोरीज चलानी चाहिए, अपनी विशेष टीमें अकालग्रस्त इलाकों की ओर रवाना करनी चाहिए पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। डाउन मार्केट कहकर आंदोलन, सूखा, अकाल, मंहगाई सबको खारिज किया जा रहा है। अगर इन्हें पकड़ा भी जा रहा है तो सिर्फ बड़े नेताओं के बयानों के जरिए। पीएम ने बयान दे दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया। राजनाथ ने विरोध कर दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया।

यही है मीडिया?
गोपाल भाई से अनुरोध किया- अंधों की नगरी में हरियाली लाने के लिए काहे जान दे रहे हैं, ये अनशन-वनशन खत्म करिए। जान है तो जहान है। आजकल यही फंडा है।
इतना सुनकर गोपाल सिर्फ मुस्कराए और बोले- आप बस इतना करा दीजिए कि यह मसला सौ-पचास नए लोगों तक पहुंच जाए, तो समझिए आपकी सफलता है, बाकी मेरी जान की चिंता छोड़िए। मेरे रहने न रहने से क्या फरक पड़ता है।

मैं चुप रह गया।

सोचा, आज जितना भी बिजी रहूं, लेकिन गोपाल भाई पर जरूर कुछ न कुछ लिखूंगा। सो, लिख रहा हूं।
लेकिन मन में कष्ट भी है। गोपाल भाई टाइप लोग कितने हैं इस देश में। ज्यादातर तो मुखौटाधारी हैं, हिप्पोक्रेट हैं, पाखंडी हैं, जो आंदोलन व विचारधारा को पैसा कमाने और बेहतर जीवन जीने का जरिया बनाए हुए हैं या बनाने की फिराक में हैं। कई आंदोलनों को करीब से देख चुका हूं। किस तरह अपने निजी इगो की भेंट आंदोलनों को चढ़ा दिया जाता है, इसका गवाह रहा हूं। किस तरह उन्हीं जोड़-तोड़ व समीकरणों को आंदोलनों में आजमाया जाने लगता है जिनके खिलाफ आंदोलन शुरू किया जाता है, इसे सुन-समझ चुका हूं।

लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हुआ कि संगठन व आंदोलन गैर-जरूरी हैं। दरअसल, सही कहूं तो मुझे भी लगता है कि इस देश व दुनिया को अगर बचा पाएंगे तो ये जनांदोलन ही। ये जनांदोलन कब, किससे व किसलिए शुरू होंगे या हो रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। वरना देश-दुनिया का कबाड़ा करने की पूरी तैयारी इस देश-दुनिया के कुलीन व अभिजात्य लोग कर चुके हैं।


अगर आपको भी लगे कि गोपाल भाई के आंदोलन को सपोर्ट करना है तो आप जंतर-मंतर पर जाकर
उनसे मिल सकते हैं, गोपाल के आंदोलन को अपने अखबार या टीवी में जगह दे सकते हैं, गोपाल भाई को फोन या मेल कर अपना नैतिक समर्थन व्यक्त कर सकते हैं। शायद, संभव है, हम कुछ लोगों के ऐसा करने से ही गोपाल जैसे जिद्दी और धुन के धनी लोग इस बुरे समय में भी अपने जन की बेहतरी के लिए लड़ने का हौसला कायम रख सकें।

एक बार फिर, गोपाल भाई के हौसले को सलाम।

Sunday, August 16, 2009

हमारी माटी में त्रिपाठी जैसे भी

6 दिसंबर 1992 के दिन जब आरएसएस की साजिश के चलते अयोध्या की ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था तो उसके मलबे के नीचे बहुत कुछ दब गया था। सुप्रीम कोर्ट का उत्तर प्रदेश सरकार के ऊपर से विश्वास चकनाचूर हो गया था, इंसानी रिश्तों के अर्थ बदलने लगे थे और पहली बार दंगा गांवों में फैल गया था।

हिंदुत्व के नाम पर आतंक की खेती करने वाली जमातों की पूरी कोशिश थी कि इस देश में मुसलमानों को अपमानित किया जाय उनकी देश प्रेम की भावना पर सवाल उठाया जाय। हर शहर में मुसलमान को घेरने की कोशिश की जा रही थी। मुंबई शहर में शिव सेना की वजह से मुसलमानों को बहुत मुश्किलें पेश आईं, बहुत सारे घर जला दिए गए, लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। बहुत सारे मामलों में तो मरे हुए लोगों की लाशें गायब कर दी गईं। दंगाइयों को मालूम था कि अगर मृतक की लाश गायब कर दी जाय तो उसके आश्रितों को मुआवज़ा नहीं मिलता।

बंबई दंगों में मारे गए बहुत से लोगों की लाशें भी नहीं मिली थीं। कहीं-कहीं तो पूरे परिवार तबाह हो गए थे और बच्चे अनाथ हो गए थे। बंबई और अन्य शहरों के दंगाइयों के खिलाफ पूरे देश में धर्मनिरपेक्ष सोच के लोग लामबंद हो गए थे। दंगा करने वालों के खिलाफ एक मौन आक्रोश था लेकिन नागरिकों का एक वर्ग ऐसा भी था जिनका आक्रोश मुखर था। बंबई में धर्मनिरपेक्ष बुद्घिजीवियों की खासी बड़ी संख्या है। असगर अली इंजीनियर राम पुनियानी, शबाना आजमी, सुमा जोसन, शुक्ला सेन कुछ ऐसे नाम हैं जो दंगे के खिलाफ जनमत बनाने में जुट गए। चिंतित नागरिकों की जमात में एक ऐसा आदमी था जो सरकारी अफसर था, दंगा पीडि़तों की मदद करना उसकी सरकारी ड्यूटी थी। वह भी दंगाइयों के हौसलों के सामने अपने आपको असहाय महसूस कर रहा था।

मुंबई दंगों के बाद किसी नेता की हिम्मत नहीं थी कि पीडि़तों के इलाकों में शक्ल दिखाने जा सके। सबको मालूम था कि उस वक्त की कांग्रेसी सरकार के दंगाइयों के नेता से बहुत अच्छे संबंध थे। सरकार की ध्वस्त हो चुकी साख के बीच किसी सरकारी अफसर का वहां पहुंचना और पीडि़त लोगों का विश्वास हासिल कर पाना बहुत ही कठिन काम था। ऐसे माहौल में महाराष्ट्र में तैनात आईएएस अधिकारी सतीश त्रिपाठी ने जब दंगा पीडि़त इलाकों का दौरा किया तो सन्न रह गए थे। दंगाइयों ने जिस तरह से मुसलमानों को तबाह किया था उसके बारे में सोच कर आज भी वे सिहर उठते हैं। त्रिपाठी ने देखा कि सरकारी कायदे कानून ऐसे हैं जिनकी सीमा में रहकर पीडि़तों की मदद नहीं की जा सकती।

उन्होंने एक गैर सरकारी संगठन बनाकर लोगों की मदद करने का फैसला किया और 'सेतु' नाम का संगठन बनाया। दंगे में मारे गए जिन लोगों की लाशों को गायब कर दिया था या जिनका अपहरण करके कहीं और ले जाकर मारा गया था और शव ठिकाने लगा दिया गया था उनके परिवार वालों को मदद दिलवाने के लिए सतीश त्रिपाठी ने दिल्ली तक लड़ाई लड़ी। उन्होंने सरकारी मशीनरी का पीडि़तों के पक्ष में इस्तेमाल करने का फैसला किया। साथ ही अपने स्वयंसेवी संगठन को भी सक्रिय कर दिया। उनके संगठन ने दंगों में अनाथ हुए 92 बच्चों की पढ़ाई लिखाई का जिम्मा लिया।

इनमें से कई बच्चे तो आत्मनिर्भर हो चुके हैं, अपनी रोजी रोटी कमा रहे हैं। बाकी पढ़ रहे हैं और आगे चलकर उनके भी कामकाज में लग जाने की संभावना है। सतीश त्रिपाठी अब सरकारी सेवा से रिटायर हो चुके हैं। सांप्रदायिक सद्भाव के बारे में उनकी सोच अन्य लोगों के लिए उदाहरण बन सकती है। मूलरूप से उत्तर प्रदेश के देवरिया के रहने वाले सतीश त्रिपाठी ने कलकत्ता विश्व विद्यालय से शिक्षा ग्रहण करके आईएएस में प्रवेश किया था। 37 साल की सेवा के बाद सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके हैं अब वह काम पूरी मेहनत से कर रहे हैं जो वे हमेशा से ही करना चाहते थे। अब वे पूरा समय मुसलमानों की पक्षधरता में लगाते हैं।

दिसंबर 1992 के बाद जब सारी दुनिया बदल गई थी तो बहुत सारे लोगों की शख्सियत की पहचान हुई। बाद में उन्होंने महाराष्ट्र के औरंगाबाद और मालेगांव के पीडि़तों के साथ खड़े होकर उनकी मदद की, लापता लोगों को तलाशने में सरकारी ताकत का इस्तेमाल किया। सतीश त्रिपाठी की संस्था सेतु का सांप्रदायिक सदभाव का रिकॉर्ड अनुकरणीय है। इसीलिए उनकी संस्था को सन 2007 का राष्टï्रीय सांप्रदायिक सदभावना पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार केंद्र सरकार की तरफ से सांप्रदायिकता के खिलाफ काम करने वालों को दिया जाता है। आजकल श्री त्रिपाठी मदरसों में पढऩे वाले गरीब मसुलमानों के बच्चों की शिक्षा के लिए काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में मदरसों की व्यवस्था बहुत ही अव्यवस्थित है। जो भी बच्चे वहां भरती होते हैं, उसमें मुश्किल से दो तीन फीसद बच्चे ही धार्मिक विषयों की उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं और समाज में सम्मानित होते हैं।

लेकिन 95 फीसद बच्चे मदरसे में चार पांच साल बिताकर ही वापस आ जाते हैं। तब तक उनकी उम्र 13-14 साल की हो चुकी होती है। ज़ाहिर है वे नए सिरे से पढ़ाई नहीं शुरू कर सकते और शिक्षा के अभाव में सही रोजगार नहीं मिलता। सतीश त्रिपाठी ने ऐसी स्कीम बनाई है कि इन बच्चों को उनके मदरसों में ही सर्वशिक्षा अभियान की योजना के तहत दीनी तालीम के अलावा अन्य विषयों की भी शिक्षा दी जाय। जब यह बच्चे मदरसों से निकलते हैं तो उनके पास पांचवी या छठवीं पास का ट्रांसफर सर्टिफिकेट होता है जो सरकार की ओर से मान्यता प्राप्त होता है और जिसकी बिना पर उन्हें छठवीं या सातवीं क्लास में प्रवेश मिल जाता है। इस तरीके से वे अपनी ही आयु वर्ग के बच्चों के साथ उच्च शिक्षा हासिल कर सकते हैं।

सतीश त्रिपाठी का यह काम आने वाली नस्लों को इज्ज़त से रोटी कमाने और सम्मान से जिंदा रहने का मौका देता है। इस तरह से शिक्षित नागरिक मदरसा की शिक्षा के कारण अच्छी उर्दू के जानकार होंगे। इनको धार्मिक मामलों की समझ होगी और नौकरी के लिए ज़रूरी शिक्षा भी उनके पास होगी जिसकी वजह से उन्हें समाज में सम्मान मिलेगा। समाज को सतीश त्रिपाठी जैसे लोगों पर गर्व करना चाहिए।

Friday, August 14, 2009

Wednesday, August 12, 2009

पूरी दुनिया में है गांधी का सम्मान

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्टï कर दिया है कि ऐसा कोई दिशा निर्देश नहीं जारी किया जा सकता जिसके तहत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सम्मान करना अनिवार्य किया जा सके। माननीय न्यायालय ने यह टिप्पणी एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की। कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर प्रार्थना की थी कि उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री को चेताया जाय कि महात्मा गांधी का सम्मान किया जाना चाहिए।

मायावती की पार्टी में महात्मा गांधी की इज्जत करने की रिवाज नहीं है इसलिए पिछले दिनों उन्होंने महात्मा जी को नाटकबाज कह दिया था। उनकी इस बात का याचिका कर्ताओं ने बुरा माना और फरियाद लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि इस देश में और बाकी दुनिया में महात्मा गांधी का सम्मान इसलिए नहीं किया जाता कि उसके लिए कानून है या किसी कोर्ट का आदेश है। महात्मा जी का सम्मान करने वाले अपनी अंतरात्मा की प्रेरणा से उनका सम्मान करते हैं।

याचिका कर्ताओं की यह उम्मीद कि गांधी जी का सम्मान सभी करें, बेमतलब है। जिसके मन में उनके प्रति सम्मान का भाव होगा वह उनका सम्मान करेगा और जिसके मन में नहीं होगा, वह सम्मान नहीं करेगा। लाठी के जोर पर या भीख मांगकर सम्मान पाना बहुत बड़ा असम्मान है और इस बारे में सरकारी फरमान न जारी करके माननीय न्यायालय ने बहुत बड़ा और अच्छा काम किया है।

जहां तक महात्मा गांधी के सम्मान की बात है, पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक और भक्त फैले हुए हैं। महात्मा जी के सम्मान का आलम तो यह है कि वे जाति, धर्म, संप्रदाय, देशकाल सबके परे समग्र विश्व में पूजे जाते हैं। वे किसी जाति विशेष के नेता नहीं हैं। हां यह भी सही है कि भारत में ही एक बड़ा वर्ग उनको सम्मान नहीं करता बल्कि नफरत करता है। इसी वर्ग और राजनीतिक विचारधारा के एक व्यक्ति ने 30 जनवरी 1948 के दिन गोली मारकर महात्मा जी की हत्या कर दी थी। उसके वैचारिक साथी और कुछ साधारण लोग उस हत्यारे को सिरफिरा कहते हैं लेकिन महात्मा गांधी की हत्या किसी सिरफिरे का काम नहीं था।

वह उस वक्त की एक राजनीतिक विचारधारा के एक प्रमुख व्यक्ति का काम था। उनका हत्यारा कोई सड़क छाप व्यक्ति नहीं था, वह हिंदू महासभा का नेता था और 'अग्रणी' नाम के उनके अखबार का संपादक था। गांधी जी की हत्या के आरोप में उसके बहुत सारे साथी गिरफ्तार भी हुए थे। ज़ाहिर है कि गांधीजी की हत्या करने वाला व्यक्ति भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करता था और उसके वे साथी भी जो आजादी मिलने में गांधी जी के योगदान को कमतर करके आंकते हैं। यह सारे लोग भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करते। जिन लोगों ने 1920 से लेकर 1947 तक महात्मा गांधी को जेल की यात्राएं करवाईं, वे भी उनको सम्मान नहीं करते थे।

भारत के कम्युनिस्ट नेता भी महात्मा गांधी के खिलाफ थे। उनका आरोप था कि देश में जो राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था, उसे मजदूर और किसान वर्ग के हितों के खिलाफ इस्तेमाल करने में महात्मा गांधी का खास योगदान था। कम्युनिस्ट बिरादरी भी महात्मा गांधी के सम्मान से परहेज करती थी। जमींदारों और देशी राजाओं ने भी गांधी जी को नफरत की नजर से ही देखा था, अपनी ज़मींदारी छिनने के लिए वे उन्हें ही जिम्मेदार मानते थे। इसलिए यह उम्मीद करना कि सभी लोग महात्मा जी की इज्जत करेंगे, बेमानी है। लेकिन एक बात और भी सच है, वह यह कि महात्मा गांधी से नफरत करने वाली सभी जमातें बाद में उनकी प्रशंसक बन गईं। जो कम्युनिस्ट हमेशा कहते रहते थे कि महात्मा गांधी ने एक जनांदोलन को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया था, वही अब उनकी विचारधारा की तारीफ करने के बहाने ढूंढते पाये जाते हैं। अब उन्हें महात्मा गांधी की सांप्रदायिक सदभाव संबंधी सोच में सदगुण नजर आने लगे है।

आर.एस.एस. के ज्यादातर विचारक महात्मा गांधी के विरोधी रहे थे लेकिन 1980 में बीजेपी ने गांधीवादी समाजवाद के सिद्घांत का प्रतिपादन करके इस बात को ऐलानिया स्वीकार कर लिया कि महात्मा गांधी का सम्मान किया जाना चाहिए। जिन अंग्रेजों ने महात्मा जी को उनके जीवनकाल में अपमान की नजर से देखा, उनको जेल में बंद किया, टे्रन से बाहर फेंका उन्हीं के वंशज अब दक्षिण अफ्रीका और इंगलैंड के हर शहर में उनकी मूर्तियां लगवाते फिर रहे हैं। यह सब कहने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि आप किसी को मजबूर नहीं कर सकते कि वह किसी व्यक्ति का सम्मान करे। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का सम्मान किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को यह निर्देश भी दे देना चाहिए कि भविष्य में भी कोई सरकार यह कानून न बनाए जिसके तहत किसी का सम्मान करना अनिवार्य कर दिया जाय क्योंकि इस बात का खतरा बना हुआ है कि उत्तरप्रदेश में जनता के पैसे बन रही मूर्तियों की इज्जत करने के लिए कोई नियम न बन जाय।

बहरहाल मायावती के नाटकबाज कहने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता, नाथूराम गोडसे के गोली मारने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता और चर्चिल के नंगा फकीर कहने से महात्मा गांधी का सम्मान कम नहीं होता। गांधी जो को जिसने भी अपमानित किया, पता नहीं गुमनामी के किए गढढे में होगा लेकिन महात्मा गांधी की शान पूरी दुनिया में बनी हुई है, उनको सम्मान भीख में नहीं मिला और न ही किसी ने लाठी के जोर पर महात्मा गांधी को सम्मानित करवाया।

जहां तक कानून बनाकर जबरदस्ती सम्मान उगाहने की बात है, उसके बारे में कुछ लोगों का जिक्र करना सही होगा। हिटलर, सद्दाम हुसैन, किम इल सुंग, फ्रांको, च्यांग काई शेक आदि कुछ ऐसा राजनेता हैं जिन्होंने कानून और आतंक के जरिए अपना सम्मान करवाने की कोशिश की लेकिन इनकी ताकत कम होते ही जनता ने इनकी औकात बता दी। सद्दाम हुसैन की मूर्तिंयों पर तो इराकी जनता को जूते बरसाते पूरी दुनिया ने देखा है। ठीक यही हाल अन्य तानाशाहों का भी हुआ था जिन्होंने अपनी ही मूर्तियां देश के कोने कोने में बनवाई थीं और लोगों को मजबूर किया था कि उनका सम्मान करें। जहां तक महात्मा गांधी का सवाल है, उनके जीवन काल में उनकी कोई मूर्ति नहीं बनी थी लेकिन आज दुनिया के हर प्रमुख शहर में उनकी मूर्तियां हैं और लोग उन्हें सम्मान करते हैं। मायावती के नाटकबाज कहने से महात्मा गांधी की महानता में कोई कमी नहीं आती। गांधी जी के प्रशंसकों को इतिहास की न्याय क्षमता पर भरोसा करके शांत बैठे रहना चाहिए। उनके सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं आएगी।

स्टिंग आपरेशन पर मुहर

एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने न्यूज चैनलों के स्टिंग आपरेशन पर वैधता की मुहर लगा दी है। बीएमडब्लू स्टिंग मामले में तीन जजों की बेंच ने कहा कि स्टिंग आपरेशन में कोई बुराई नहीं है। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि यह फैसला स्टिंग आपरेशन के लिए खुली छूट नहीं है। आदेश में एक महत्वपूर्ण शर्त भी लगा दी गई कि स्टिंग आपरेशन तभी सही माना जाएगा जब वह सार्वजनिक हित में किया गया हो।

यानी स्टिंग आपेरशन करने की मनमानी छूट नहीं दी गई है। अदालत के इस फैसले से मीडिया को अनुशासन और उच्च आदर्शो के प्रति समर्पित रहने का एक बेहतरीन मौका मिला है। आदेश में साफ कहा गया है कि मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश में अगर नियम-कानून बनाए गए तो लाभ कम और नुकसान अधिक होगा। मीडियाकर्मियों को चाहिए कि खुद की आचार संहिता के कायदे-कानून खुद बनाएं और पेशागत मानदंडों को हासिल करने के लिए उन्हें लागू करें। 1950 में आल इंडिया न्यूजपेपर एडिटर्स कांफ्रेंस में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ''इसमें शक नहीं कि सरकार प्रेस की आजादी को बहुत पसंद नहीं करती और उसे खतरनाक मानती है, फिर भी प्रेस की आजादी में दखल देना गलत है।

मैं एकदम स्वतंत्र प्रेस को सही मानता हूं। हर वह खतरा बर्दाश्त करने को तैयार हूं जो प्रेस की आजादी की वजह से संभावित है, लेकिन दबा हुआ या सरकारी कानून के दायरे में बंधा प्रेस मुझे मंजूर नहीं है।'' प्रेस की आजादी कितनी आवश्यक है, यह नेहरू के उपरोक्त कथन से स्पष्ट हो जाती है।
शीर्षस्थ अदालत ने कहा है कि टीवी चैनलों के कुछ कार्यक्रम तो अच्छे हैं, लेकिन कुछ इतने बेकार हैं कि उनके बारे में बातचीत करना भी ठीक नहीं है। इसलिए टीवी चैनलों को अपना स्तर सुधारने का प्रयास करना होगा।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में सुप्रीम कोर्ट का विचार एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान आया। वरिष्ठ अधिवक्ता आरके आनंद को हाईकोर्ट से मिली सजा के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट का आदेश देश के न्याय शास्त्र के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगा। एक गवाह को रिश्वत देने के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने आरके आनंद और सरकारी वकील आईयू खान को सजा सुनाई थी। यह मामला हाई कोर्ट की जानकारी में एक निजी टीवी चैनल के स्टिंग आपरेशन के जरिए आया था।

हाई कोर्ट ने दोनों वकीलों पर दो-दो हजार रुपए का जुर्माना लगाया था। सीनियर एडवोकेट की पदवी छीन ली थी और चार महीने तक वकालत करने पर पाबंदी लगा दी थी। दोनों वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसमें हाई कोर्ट के फैसले को रद करने की प्रार्थना की गई थी और साथ ही यह भी कि स्टिंग आपरेशन करके न्यूज चैनल ने गलती की और मीडिया ने उन्हें फंसाया है। अर्जी में न्यूज चैनलों पर सख्ती लागू करने और सरकारी नियंत्रण की बात भी की गई थी। मीडिया पर नकेल कसने की अभियुक्तों की अपील उल्टी पड़ गई।

अदालत ने एक तरह से स्टिंग आपरेशन को समाचार संकलन की एक तरकीब के रूप में मान्यता दे दी, बशर्ते वह राष्ट्रीय हित में हो। आईयू खान को भी फटकार लगाकर छोड़ दिया, लेकिन आरके आनंद को हैसियत का बोध कराने वाला आदेश पारित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि हाई कोर्ट ने उनके साथ नरमी बरती है।

सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि उनकी सजा को क्यों न बढ़ा दिया जाए? कोर्ट ने आनंद को बताया कि उनका जुर्म गंभीर है। एक आपराधिक मुकदमे में गवाह को रिश्वत देने की कोशिश करना निंदनीय है। इसके अलावा हाई कोर्ट के सामने उनका आचरण मामले को और भी गंभीर बना देता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आनंद के अपराध की गंभीरता के मद्देनजर उनको दी गई सजा बहुत कम है।


आर के आनंद को जो सजा मिली है उसके गुण-दोष विवेचन तो अभी सुप्रीम कोर्ट को करना है। आने वाले वक्त में कानून के विद्यार्थी इस मामले की रोशनी में भारतीय न्याय प्रक्रिया का अध्ययन करेंगे, लेकिन साधारण आदमी को इस केस के मानवीय पहलू में भी रुचि है। जिस मामले में आरके आनंद और आईयू खान को टीवी चैनल ने पकड़ा था वह एक रईसजादे द्वारा गरीब लोगों को बीएमडब्लू कार से कुचल कर मार डालने से संबंधित है।

इसी रईसजादे को कानून से बचाने के लिए आरके आनंद ने यह अपराध किया था। जानकार बताते हैं कि आरके आनंद की सजा बढ़ने की संभावना है, क्योंकि वह न्यूज चैनल के स्टिंग आपरेशन पर हमला करके अपने आपको बरी करवाना चाहते थे।

लेख

Sunday, August 9, 2009

बाल की खाल

भोपाल के सुरेश नंदमेहर एक मामूली चर्मकार हैं। अन्याय सहना उनकी फितरत में नहीं है और इसी फितरत के चलते उन्होंने पानी में आग लगाने जैसा काम करने निकल पड़े हैं।

चर्मकार समाज की मांग को लेकर २७ दिनों तक भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर धरने पर बैठे सुरेश को जब अखबारों में पर्याप्त जगह नहीं मिली तो उन्होंने मन में ठान लिया कि अब वे अखबारों में अपनी खबर छपवाने के लिए नहीं जाएंगे बल्कि अपना अखबार निकालेंगे जो उनके समाज की आवाज उठाने में आगे रहेगा।

इस तरह एक अखबार का जन्म हुआ और नाम रखा गया 'बाल की खाल'। आगे पढें...

Saturday, August 8, 2009

ग़रीब लड़की चोरी नहीं करती...

देवरिया जिले के किसी गांव में बिट्‌टन नाम की एक लड़की रहती है, गरीब है, दलित है और मेहनत मजूरी करके दो जून की रोटी का इंतजाम करती है। गांव में ही कोई राय साहब रहते हैं उनका भरा-पूरा परिवार है, ग्रामीण हिसाब से संपन्न हैं और बिट्‌टन की गरीबी पर भारी पड़ते हैं। बिट्‌टन इन्हीं राय साहब के घर मजदूरी करती थी, घर का काम टहल करती थी, जूठा खाती थी, पुराने कपड़े पाकर धन्य हो जाती थी और राय साहब के घर की नौकरानी होने की वजह से अपने आस-पड़ोस में भी उसकी हनक थी।

यह सब खत्म हो गया क्योंकि बिट्‌टन पर चोरी का आरोप लगाकर राय साहब और उनके घर वालों से बिट्‌टन को पीटा, उसके शरीर के नाजुक अंगों में लोहे की गर्म सलाखों से निशान लगा दिए और बिट्‌टन की जिंदगी तबाह कर दी। बिट्‌टन की उम्र यही कोई 15-16 साल होगी। पूरी संभावना है कि बिट्‌टन की नानी 1947 के बाद पैदा हुई हो, यानी आज़ाद भारत मे जन्म लेने वाले गरीब दलितों की तीसरी पीढ़ी को भी इस देश का दबंग वर्ग लोहे की रॉड से दागता है और आजादी की लड़ाई में शामिल हर महापुरुष की विरासत को मुंह चिढ़ाता है।

कैसे होता है यह सब, खासकर उत्तरप्रदेश में जहां दलित की एक बेटी राज कर रही है, राज्य से गुंडो का सर्वनाश करने का बीड़ा उठाकर सत्ता में आई है और दलितों को आत्मसम्मान से जिंदा रहने का अधिकार देना उसकी राजनीति का बुनियादी आधार है?????

बिट्टन को असहाय किसने बनाया? आजादी के बासठ साल बाद भी बिट्‌टन पर ही चोरी का इल्जाम क्यों लगता है, जबकि इस बात की पूरी संभावना है कि राय साहब के घर में चोरी उनके परिवार के ही किसी व्यक्ति ने की हो, या उनकी पत्नी ने ही की हो, कथित रूप से जिनका मंगलसूत्र चोरी हुआ है। लेकिन संभ्रांत मानसिकता के दल-दल में फंसा हुआ प्रशासन, पुलिस, समाज यह मान ही नहीं सकता कि राय साहब का कोई संपन्न रिश्तेदार चोरी कर सकता है। चोरी करे या ना करे इलजाम तो बिट्टन पर ही लगेगा। इसलिए नहीं कि वह गरीब है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी रक्षा में खड़ी नहीं हो सकती।

बिट्‌टन को इतना असहाय किसने बनाया। सीधा सा जवाब है-अगर आजादी के बाद पैदा हुई बिट्‌टन की नानी ने गांव के पास के प्राइमरी स्कूल में जाकर शिक्षा ले ली होती तो पूरी संभावना है कि बिट्‌‌टन की मां किसी सरकारी नौकरी में होती और बिट्टन आज एक पढ़ी-लिखी लड़की होगी और किसी भी राक्षसनुमा राय साहब के यहां मजूरी न कर रही होती। बिट्टन की दुर्दशा पर आज क्रोध, निराशा, हताशा और पछतावा सब कुछ है।

जब आजादी के बाद सबको शिक्षा देने का इंतजाम कर दिया गया था तो बिट्टन की नानी के हाथ से तख्ती किसने छीन ली, क्यों हमारे देश में गरीबी और बदहाली को जिंदा रखने की राजनीति खेली जा रही है। सामाजिक बराबरी से परहेज यह मामला उत्तरप्रदेश का है लेकिन मायावती को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना गलत होगा, कायरता होगी। जरूरत इस बात की है कि यह समझा जाए आजादी मिलने के तीन पीढ़ियों बाद तक लोग क्यों गुलामी की जिंदगी बसर करने पर मजबूर क्यों हैं। जब महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भीमराव अंबेडकर और राममनोहर लोहिया ने समतामूलक, छुआछूत विहीन समाज की बात की थी तो उनके अनुयायियों ने आजादी के बाद उनकी राजनीतिक सोच को कार्यरूप में क्यों नहीं बदला।

शुरू के बीस साल उत्तरप्रदेश में गांधी नेहरू की पार्टी का राज रहा। बाद में भी कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में पंद्रह साल राज किया। गांधी ने कहा था कि छुआछूत को समाज से मिटाना होगा, जाति के आधार पर शोषण के निजाम को खत्म करना होगा। महात्मा जी ने जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात तो नहीं की थी लेकिन जाति को शोषण का आधार बनाने की हर स्तर पर मुखालफत की थी। सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के अलावा किसी कांग्रेसी ने कोई योजना चलाने की नहीं सोची। उल्टे इंदिरा गांधी के बाद के कांग्रेसियों ने ब्रिटिश हुकूमत के गुलाम राजाओं महाराजाओं को इतनी अहमियत दी कि कभी-कभी तो लगने लगा कि ब्रिटिश हुकूमत फिर लौट आई है।

डा.राम मनोहर लोहिया ने साफ कहा था कि जातिप्रथा का विनाश किया जाना चाहिए इसके लिए उन्होंने अपने सभी शिष्यों से कहा था कि सोचने या भाषण देने से जातिप्रथा समाप्त नहीं होगी। उसके लिए अंर्तजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना होगा और छुआछूत को मिटाना होगा। जातिवाद की दलदललोहिया के चेलों में जिन लोगों ने राज किया उनमें प्रमुख हैं, कर्पूरी ठाकुर, लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार। इन लोगों ने क्या कभी भी अपने राज्य में सह विवाह और सह भोजन की बात की? क्या कभी इन्होंने सरकारी नीतियों में कोई ऐसी राजनीतिक लाइन डालने की कोशिश की जिससे जाति प्रथा का जहर खत्म हो।

पिछले चालीस साल के राजनीतिक इतिहास पर गौर करें तो कहीं भी इस तरह की राजनीतिक सोच के बारे में जानकारी होने तक का पता नहीं लगता। डा.अंबेडकर का तो पूरा राजनीतिक दर्शन ही जाति के विकास के सिद्घांत पर आधारित है। उनका कहना था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, सामाजिक बराबरी का सपना पूरा नहीं होगा। पिछले पंद्रह साल से उत्तरप्रदेश की राजनीति में दखल रखने वाली मायावती ने एक बार भी डा.अंबेडकर के इस सपने को पूरा करने की कोशिश क्यों नहीं की, यह पहेली समझ पाना थोड़ा मुश्किल जरूर है, असंभव नहीं। लगता है कि सभी पार्टियों के बड़े नेता किसी न किसी जाति के मतदाताओं को अपना खास समर्थक मानते हैं और उस जाति की पहचान से छेड़छाड़ नहीं करना चाहते शायद इसीलिए गांधी, लोहिया और अंबेडकर के बताए रास्ते में चलने के बजाय जातिवाद के दलदल में फंसते गए।

लोकसभा चुनाव 2009 से कुछ संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि जातियां किसी भी पार्टी के साथ अब बहुत दिन तक चिपकी रहने वाली नहीं हैं। मसलन दलितों ने उत्तरप्रदेश में कई क्षेत्रों में मायावती के उम्मीदवार को हराने की कोशिश की। उत्तरप्रदेश के बाहर तो मायावती को दलित वोट लगभग न के बराबर मिला। बाकी दलों का भी यही हाल है। जाति को राजनीति का आधार बनाने वाली पार्टियों को आने वाले चुनावों में और तरीकों पर गौर करना होगा।

इसलिए उम्मीद बंधती है कि जाति को समाप्त करने की राजनीतिक आवश्यकता पर इनका ध्यान जायेगा और जाति का विनाश एक वास्तविकता की शक्ल अख्तियार करेगा। ऐसी हालत में सामाजिक और आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा और कोई बिट्‌टन इसलिए नहीं अपमानित होगी कि वह दलित है।