Saturday, July 6, 2013

डॉ अम्बेडकर ने कहा था " बाबू जगजीवन राम भारत के चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा और ऋषि राजनेता हैं ".



शेष नारायण सिंह  

महात्मा गांधी ने जगजीवनराम  बारे में  कहा था कि  " जगजीवन राम  कंचन की भांति खरे और सच्चे हैं . मेरा हृदय इनके प्रति आदरपूर्ण  प्रशंसा से आपूरित है " यह तारीफ़ किसी के लिए भी एक बहुत बड़ी सर्टिफिकेट हो सकती है . जब आज़ादी के लड़ाई  शिखर पर थी तब महात्मा गांधी ने बाबू जगजीवन राम के प्रति यह राय बनायी थी . लेकिन जगजीवन राम ने इसे कभी भी अपने सर पर सवार नहीं होने दिया हमेशा महात्माजी के बताये गए रास्ते पर चलते रहे और कंचन की तरह तप कर भारत राष्ट्र और उसकी संस्थाओं के निर्माण में लगे रहे . जवाहर लाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य रहेजब कामराज योजना आयी तो सरकार से इस्तीफा दिया फिर नेहरू के आवाहन सरकार में आये .  लाल बहादुर शास्त्री की  सरकार में मंत्री रहे ,इंदिरा गांधी के साथ मंत्री रहे .जब  इंदिरा गांधी ने कुछ  क़दम उठाये  तो कांग्रेसी मठाधीशों के वर्ग सिंडिकेट वालों ने इंदिरा गांधी को औकात बताने की योजना पर काम शुरू किया तो वे इंदिरा गांधी एक साथ रहे . उन्होंने कहा कि  पूंजीवादी विचारों से अभिभूत कांग्रेसी अगर इंदिरा गांधी को हटाने में  सफल हो जाते हैं तो कांग्रेस ने जो भी प्रगतिशील काम करना शुरू किया है वह सब ख़त्म हो जाएगा .इसी सोच के तहत उन्होंने चट्टान की तरह इंदिरा गांधी का साथ दिया . कांग्रेस  विभाजन के बाद वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने और कांग्रेस का नाम उनके नाम से जोड़कर देखा गया . इंदिरा गांधी जिस कांग्रेस की नेता के रूप में  प्रधानमंत्री बनी थीं उसका नाम कांग्रेस ( जगजीवन राम ) था.  पिछली सदी के सबसे महान राजनेताओं में उनका नाम शुमार किया जाता है .  दलित अधिकारों के संघर्ष का पर्याय बन चुके डॉ भीम राव आंबेडकर ने उनके बारे में जो कहा वह किसी भी भारतीय के लिए गर्व की बात  हो सकती है . बाबासाहेब ने कहा  कि ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं ".

इतनी सारी खूबियों के बावजूद बाबू जगजीवन राम ने कभी भी सफलता को अंतिम लक्ष्य  नहीं माना .अपने जीवन एक अंतिम क्षण तक उन्होंने लोकतंत्र , समानता  और इंसानी सम्मान के लिए प्रयास किया . ," बाबू जगजीवन राम भारत के  चोटी के विचारक,भविष्यद्रष्टा  और ऋषि  राजनेता  हैं जो सबके कल्याण की सोचते हैं” . यह बता ऐतिहासिक रूप से  साबित हो चुकी है कि जब बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से किनारा किया तो कांग्रेस के सबसे पक्के वोट बैंक ने कांग्रेस से अपने आपको अलाग कर लिया था. जानकार बताते हैं कि अगर १९७७ की फरवरी में बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा न दिया होता तो कांग्रेस  को १९७७ न देखना पड़ा होता .इस पहेली को समझने के लिए समकालीन इतिहास पर नज़र डालना ज़रूरी है .
२४ मार्च १९७७ के दिन मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ जनता ने फैसला सुना दिया था .अजीब इत्तफाक है कि देश के राजनीतिक इतिहास में इतने बड़े परिवर्तन के बाद सत्ता के शीर्ष पर जो आदमी स्थापित किया गया वह पूरी तरह से परिवर्तन का विरोधी था. मोरारजी देसाई तो इंदिरा गाँधी की कसौटी पर भी दकियानूसी विचारधारा के राजनेता थे लेकिन इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी की सत्ता से मुक्ति की अभिलाषा ही आम आदमी का लक्ष्य बन चुकी थी इसलिए जो भी मिला उसे स्वीकार कर लिया . उत्तर भारत में कांग्रेस के खिलाफ जनता खड़ी हो गयी थी .जो भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ उसको ही नेता मान लिया . कांग्रेस को हराने के बाद जिस जनता पार्टी के नेता के रूप में मोरारजी देसाई ने सत्ता संभाली थी चुनाव के दौरान उसका गठन तक नहीं हुआ था. सत्ता मिल जाने के बाद औपचारिक रूप से १ मई १९७७ के दिन जनता पार्टी का गठन किया गया था .
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की फौरी कारण तो इमरजेंसी की ज्यादतियां थीं .इमरजेंसी में तानाशाही निजाम कायम करके इंदिरा गाँधी ने अपने एक बेरोजगार बेटे को सत्ता थमाने की कोशिश की थी . उस लड़के ने इंदिरा गाँधी के शासन काल में सरकार के फैसलों दखल देना शुरू कर दिया था .वह पूरी तरह से मनमानी कर रहा था . इमरजेंसी लागू होने के बाद तो वह और भी बेकाबू हो गया . कुछ चापलूस टाइप नेताओं और अफसरों को काबू में करके उसने पूरे देश में मनमानी का राज कायम कर रखा था. इमरजेंसी लगने के पहले तक आमतौर पर माना जाता था कि कांग्रेस पार्टी मुसलमानों और दलितों की भलाई के लिए काम करती थी . इमरजेंसी में दलितों और मुसलमानों के प्रति कांग्रेस का जो रुख सामने आया ,वह बहुत ही डरावना था . दोनों ही वर्गों पर खूब अत्याचार हुए . देहरादून के दून स्कूल में कुछ साल बिता चुके इंदिरा गाँधी के उसी बेटे ने ऐसे लोगों को कांग्रेस की मुख्यधारा में ला दिया था जिसकी वजह से कांग्रेस का पुराना स्वरुप पूरी तरह से बदल गया . संजय गांधी के कारण  कांग्रेस ऐलानियाँ सामंतों और उच्च वर्गों की हितचिन्तक पार्टी बन चुकी थी. ऐसी हालत में दलितों और मुसलमानों ने उत्तर भारत में कांग्रेस से किनारा कर लिया . नतीजा दुनिया जानती है . कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से हार गयी और केंद्र में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित हुई .लेकिन सत्ता में आने के पहले ही कांग्रेस के खिलाफ जीत कर आई पार्टियों ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता का परिचय दे दिया . जनता पार्टी की जीत के बाद जो नेता चुनाव जीतकर आये उनमें सबसे बुलंद व्यक्तित्व बाबू जगजीवन राम का था . आम तौर पर माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री पद पर उनको ही बैठाया जाएगा लेकिन जयप्रकाश नारायण के साथ कई दौर की बैठकों के बाद यह तय हो गया कि जगजीवन राम को जनता पार्टी ने किनारे कर दिया हैजो सीट उन्हें मिलनी चाहिए थी वह यथास्थितिवादी राजनेता मोरारजी देसाई को दी गयी . इसे उस वक़्त के प्रगतिशील वर्गों ने धोखा माना था . आम तौर पर माना जा रहा था कि एक दलित और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को प्रधानमंत्री पद पर देख कर सामाजिक परिवर्तन की शक्तियां और सक्रिय हो जायेगीं . जिसका नतीजा यह होता कि सामाजिक परिवर्तन का तूफ़ान चल पड़ता और राजनीतिक आज़ादी का वास्तविक लक्ष्य हासिल कर लिया गया होता . जिन लोगों ने इमरजेंसी के दौरान देश की राजनीतिक स्थिति देखी है उन्हें मालूम है कि बाबू जगजीवन राम के शामिल होने के पहले सभी गैर कांग्रेसी नेता मानकर चल रहे थे कि समय से पहले चुनाव की घोषणा इंदिरा गाँधी ने इसलिए की थी कि उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा था. विपक्ष की मौजूदगी कहीं थी ही नहीं .जेलों से जो नेता छूट कर आ रहे थे ,वे आराम की बात ही कर रहे थे. ,सबकी हिम्मत पस्त थी लेकिन २ फरवरी १९७७ के दिन सब कुछ बदल गया . जब इंदिरा गाँधी की सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम ने बगावत कर दी . सरकार से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना डाली उनके साथ हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थे . उसके बाद तो राजनीतिक तूफ़ान आ गया . इंदिरा गाँधी के खिलाफ आंधी चलने लगी और वे रायबरेली से खुद चुनाव हार गयीं . सबको मालूम था कि १९७७ के चुनाव में उत्तर भारत के दलितों ने पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया था लेकिन जब बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने की बात आई तो सबने कहना शुरू कर दिया कि अभी देश एक दलित को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है .मीडिया में भी ऐसे ही लोगों का वर्चस्व था जो यही बात करते रहते थे . और इस तरह एक बड़ी संभावित सामाजिक क्रान्ति को कुचल दिया गया . जनाकांक्षाओं पर मोरारजी देसाई का यथास्थितिवादी बुलडोज़र चल गया . उसके बाद शासक वर्गों के हितों के रक्षक जनहित की बातें भूल कर अपने हितों की साधना में लग गए . जनता पार्टी में आर एस एस के लोग भी भारी संख्या में मौजूद थे . ज़ाहिर है उनकी ज़्यादातर नीतियों का मकसद सामंती सोच वाली सत्ता को स्थापित करना था. जिसकी वजह से जनता पार्टी राजनीतिक विरोधाभासों का पुलिंदा बन गयी और इंदिरा गाँधी की राजनीतिक कुशलता के सामने धराशायी हो गयी . जो सरकार पांच साल के लिए बनाई गयी थी वह दो साल में ही तहस नहस हो गयी . 
लेकिन जनता पार्टी की दलित और मुसलमान विरोधी मानसिकता को एक भावी राजनीतिक विचारक ने भांप लिया था. और इन वर्गों को एकजुट करने के काम में जुट गए थे. १९७१ में ही वंचितों के हक के पैरोकारकांशीराम ने दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए काम करना शुरू कर दिया था. उन्होंने डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस,६ दिसंबर के दिन १९७८ में नई दिल्ली के बोट क्लब पर दलित ,पिछड़े और अल्पसंख्यक कर्मचारियों के फेडरेशन का बहुत बड़ा सम्मलेन किया  बामसेफ नाम का यह संगठन वंचित तबक़ों के कर्मचारियों में बहुत ही लोकप्रिय हो गया था . शुरू में तो यह इन वर्गों के कर्मचारियों के शोषण के खिलाफ एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा लेकिन बाद में इसी संगठन के अगले क़दम के रूप में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डी एस फोर नाम के संगठन की स्थापना की गई. इस तरह जनता पार्टी के जन्म से जो उम्मीद बंधी उसके निराशा में बदल जाने के बाद दलितों के अधिकारों के संघर्ष का यह मंच सामाजिक बराबरी के इतिहास में मील का एक पत्थर बना. जनता पार्टी जब यथास्थिवाद की बलि चढ़ गयी तो कांशी राम ने सामाजिक बराबरी और वंचित वर्गों के हितों के संगर्ष के लिए एक राजनीतिक मंच की स्थापना की और उसे बहुजन समाज पार्टी का नाम दिया . बाद में यही पार्टी पूरे देश में पुरातनपंथी राजनीतिक और समाजिक् सोच को चुनौती देने के एक मंच में रूप में स्थापित हो गयी. इस तरह हम देखते हैं कि हालांकि मोरारजी देसाई का प्रधानमंत्री बनना देश के राजनीतिक इतिहास में एक कामा की हैसियत भी नहीं रखता लेकिन उनका सत्ता में आना सामाजिक बराबरी के संघर्ष के इतिहास में एक बहुत बड़े रोड़े के के रूप में हमेशा याद किया जाएगा . यह भी सच है कि जगजीवन राम के कांग्रेस से अलग होने के बाद सामाजिक  परिवर्तन की जो संभावना बनी थी वह मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के बाद शून्य में बदल गयी .

Monday, June 24, 2013

उत्तराखंड की मौजूदा मुसीबत के पीछे फर्जी तरक्की के सपने हैं



शेष नारायण सिंह

मुझे उत्तराखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के स्वर्गीय पिता हेमवतीनंदन बहुगुणा  का वह इंटरव्यू कभी नहीं भूलता जो उन्होंने १९७४ में उस वक़्त की सम्मानित हिंदी समाचार पत्रिका दिनमान को दिया था . टिहरी बाँध की प्रस्तावना बन चुकी थी ,स्व बहुगुणा जी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और टिहरी बाँध के बारे में उनका वह इंटरव्यू लिया गया था.  हेडलाइन लगी थी कि जब टिहरी का पहाड़ डूबेगा तभी पहाड़ों की तरक्की होगी. उस वक़्त के भूवैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने हेमवतीनंदन बहुगुणा के उस बयान पर सख्त टिप्पणियाँ की थीं और उन टिप्पणियों को  भी दिनमान ने बाद के अंकों में छापा था. बात साफ़ हो गयी थी कि गंगा नदी को  बांधकर शासक वर्गों के प्रतिनिधि एक भयानक आपदा के लिए निमंत्रण लिख रहे हैं कोई भी चेतावनी काम न आयी और बाद में विकास के नाम पर ऐसा अंधड चला कि इलाके के मूल निवासियों के हितों को नज़रअंदाज़ करके , दिल्ली और लखनऊ में बैठे लोग गंगा के आसपास के हिमालय की प्रलयलीला पर दस्तखत करने के लिए मजबूर हो गए . वे पूंजी के चाकर बन चुके थे .
अपने देश में शोषक वर्गों ने विकास की अजीब परिभाषा प्रचलित कर दी है . ग्रामीण इलाकों को शहर जैसा बना देना विकास माना जाता है . इकनामिक फ्रीडम के सबसे बड़े चिन्तक डॉ मनमोहन सिंह और बीजेपी, कांग्रेस और शासक वर्गों की अन्य  पार्टियों में मौजूद उनके ताक़तवर चेले पूंजीपति वर्ग की आर्थिक तरक्की के लिए कुछ भी तबाह कर देने पर आमादा हैं . इसी चक्कर में अब  त्तराखंड की ज़मीन  किसी भी तबाही का इंतज़ार करती रहती है . इस बार की भारी बारिश और बादल फटने के कारण आयी तबाही को लोग यह कहकर टालने के चक्कर में हैं कि बाढ़ एकाएक बहुत ज्यादा हो गयी और संभाल पाना मुश्किल हो गया . कोई इनसे पूछे कि हज़ारों वर्षों से बारिश भी तेज होती रही है और बाढ़ भी आती  रही है लेकिन इस तरह की तबाही नहीं आती थी.जवाब यह है कि अब हिमालय को निजी और पूंजीपति वर्ग के स्वार्थों के कारण इतना कमज़ोर कर दिया गया है कि वह बारिश को संभाल नहीं पाता . और इसका कारण शुद्ध रूप से बिल्डिंग , राजनीति, खनन और पर्यटन माफिया की ज़बरदस्ती है . आज उत्तरखंड ,खासकर गंगा के आसपास के इलाके में पहाड नकली तरीके के विकास की साज़िश का शिकार हो चुका है और वह प्रकृति के मामूली  गुस्से को भी नहीं झेल पा रहा है गंगा नदी को उसके उद्गम के पास ही बांध दिया गया है . बड़े बाँध बन गए हैं और भारत की संस्कृति से जुडी यह नदी  कई जगह पर अपने रास्ते से हटाकर सुरंगों के ज़रिये बहने को मजबूर कर दी गयी है .. पहाडों को खोखला करने का सिलसिला टिहरी बाँध की परिकल्पना के साथ शुरू हुआ  था. हेमवती नंदन बहुगुणा ने सपना देखा था कि प्रकृति पर विजय पाने की लड़ाई के बाद जो जीत मिलेगी वह पहाड़ों को भी उतना ही संपन्न बना देगी जितना मैदानी इलाकों के शहर हैं .उनका कहना था कि पहाड़ों पर बाँध बनाकर देश की आर्थिक तरक्की के लिए बिजली पैदा की जायेगी .
इसी सोच के चलते  गंगा को घेरने की साज़िश रची गयी थी . हालांकि हिमालय के पुत्र हेमवती नंदन बहुगुणा को यह बिलकुल अंदाज़ नहीं रहा होगा कि वे किस तरह की तबाही को अपने हिमालय में न्योता दे रहे हैं . उत्तरकाशी और गंगोत्री के 125 किलोमीटर  इलाके में पांच बड़ी बिजली परियोजनायें है. जिसके कारण गंगा को अपना  रास्ता छोड़ना पड़ा .इस इलाके में बिजली की परियोजनाएं एक दूसरे से लगी हुई हैं .. एक परियोजना जहां  खत्म होती है वहां से दूसरी परियोजना शुरू हो जाती है. यानी नदी एक सुरंग से निकलती है और फिर दूसरी सुरंग में घुस जाती है. इसका मतलब ये है कि जब ये सारी परियोजनाएं पूरी हों जाएंगी तो इस पूरे क्षेत्र में अधिकांश जगहों पर गंगा अपना स्वाभाविक रास्ता छोड़कर सिर्फ सुरंगों में बह रही होगी. वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने गंगा को दुनिया की उन 10 बड़ी नदियों में रखा है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. गंगा मछलियों की 140 प्रजातियों को आश्रय देती है. इसमें पांच ऐसे इलाके हैं जिनमें मिलने वाले पक्षियों की किस्में दुनिया के किसी अन्य हिस्से में नहीं मिलतीं. जानकार कहते हैं कि गंगा के पानी में अनूठे बैक्टीरिया प्रतिरोधी गुण हैं. यही वजह है कि दुनिया की किसी भी नदी के मुकाबले इसके पानी में आक्सीजन का स्तर 25 फीसदी ज्यादा होता है. ये अनूठा गुण तब नष्ट हो जाता है जब गंगा को सुरंगों में धकेल दिया जाता है जहां न ऑक्सीजन होती है और न सूरज की रोशनी.. इसके बावजूद सरकार बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी देने पर आमादा रहती है . .
 भागीरथी को सुरंगों और बांधों के जरिये कैद करने का विरोध तो स्थानीय लोग तभी से कर रहे हैं जब इन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई थी. लेकिन वहीं पर रहने वाले बहुत से नामी साहित्यकार और बुद्धिजीवी  विकास की बात भी करने लगे . उसमें कुछ ऐसे लोग भी शामिल थे  जिन्होंने पहले बड़े बांधों के नुक्सान से लोगों को आगाह भी किया था लेकिन बाद में पता नहीं किस लालच में वे सत्ता के पक्षधर बन  गए. ऐसा भी नहीं है कि हिमालय और गंगा के साथ हो रहे अन्याय से लोगों ने आगाह नहीं किया था. पर्यावरणविद, सुनीता नारायण, मेधा पाटकर , आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर जी डी अग्रवाल और बहुत सारे हिमालय प्रेमियों ने इसका विरोध किया . तहलका जैसी पत्रिकाओं ने बाकायदा अभियान चलाया लेकिन सरकारी तंत्र ने कुछ नहीं सुना. सरकार ने जो सबसे बड़ी कृपा की थी वह यह कि प्रोफ़ेसर अग्रवाल का अनशन तुडवाने के लिए उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री  भुवन चंद्र खंडूड़ी दो परियोजनाओं को अस्थाई रूप से रोकने पर सहमत जता दी थी लेकिन बाद में फिर उन परियोजनाओं पर उसी अंधी गति से काम शुरू हो गया. सबसे तकलीफ की बात यह है कि भारत में बड़े बांधों की योजनाओं को आगे बढ़ाया जा रहा है जब दुनिया भर में बड़े बांधों को हटाया जा रहा है. अकेले अमेरिका में ही करीब ७०० बांधों  को हटाया जा चुका है
सेंटर फार साइंस एंड इन्वायरमेंट ने एक रिपोर्ट जारी करके कहा  था  कि २५ मेगावाट से कम की जिन छोटी पनबिजली परियोजनाओं को सरकार बढ़ावा दे रही है उनसे भी पर्यावरण को बहुत नुक्सान हो रहा  है . इस तरह की देश में हज़ारों परियोजनाएं हैं .उत्तराखंड में भी इस तरह की थोक में परियोजनाएं  हैं  जिनके कारण भी बर्बादी आयी है. उत्तराखंड में करीब १७०० छोटी पनबिजली परियोजनाएं हैं भागीरथी और अलकनंदा के बेसिन में  करीब ७० छोटी पनबिजली स्कीमों पर काम चल रहा है . जो  हिमालय को अंदर से कमज़ोर कर रही  हैं. इन योजनाओं के चक्कर में दोनों ही नदियों के सत्तर फीसदी हिस्से को नुक्सान पंहुचा  है .इन योजनाओंको बनने में जंगलों की भारी  हुई है . सड़क, बिजली के खंभे आदि बनाने के लिए हिमालय में भारी तोड़फोड़ की गयी है और अभी भी जारी है.मौजूदा कहर इसी गैरजिम्मेदार सोच का नतीजा है .

ज़ाहिर है कि उत्तराखंड में आयी मौजूदा तबाही के लिए इंसानी लालच ज़िम्मेदार है और गैर ज़िम्मेदार हुक्मरान ने  इंसानी लालच को तूल दिया और आज भारत की  अस्मिता के प्रतीक, हिमालय और गंगा के अस्तित्व के  सामने संकट पैदा हो गया है 

Sunday, June 23, 2013

नेल्सन मंडेला अब मौत को चुनौती दे रहे हैं


शेष नारायण सिंह

अगले महीने नेल्सन मंडेला ९५ साल के हो जायेगें .उनकी तबियत बहुत खराब है .अस्पताल में आठ जून को भर्ती किये गए थे और तब से ही उनका स्वास्थ्य “स्थिर लेकिन गंभीर” बना हुआ है .२०११ के बाद से तो वे अक्सर अस्पताल में भर्ती होते रहे हैं .वैसे सार्वजनिक रूप से उनको बाहर निकले करीब तीन साल हो गए हैं . २०१० के फीफा वर्ल्ड कप के समय वे गोल्फ कार्ट में बैठकर आये थे . उस समय भी बहुत कमज़ोर थे, हाथ  उठाने में भी दिक्कत हो रही थी. उनकी बीमारी दक्षिण अफ्रीका में चिंता का विषय बनी हुई है . एक दक्षिण अफ्रीकी अखबार ने तो बैनर हेडलाइन लगा दी थी कि , “लेट हिम गो “ यानी अब उन्हें जाने दिया जाए.

दस साल पहले नेल्सन मंडेला ने राजनीति से संन्यास ले लिया था . उसके  बाद से वे सार्वजनिक रूप से बहुत कम देखे गए हैं .उनको फेफड़े की बीमारी है और वह शायद उनकी बहुत लंबी गिरफ्तारी के समय से ही है . अपनी गिरफ्तारी के दौरान वे पत्थर की खान में काम करने के लिए भेजे जाते थे  . जानकार बताते हैं कि पत्थर की खान में जितने भी कैदियों को भेजा जाता था सभी फेफड़े की बीमारी का शिकार हुए . उनमें से ज़्यादातर तो अब जीवित नहीं हैं लेकिन एक एन्ड्रयू म्लान्गेनी जिंदा हैं और उन्होंने मंडेला के परिवार से कहा है कि अब उनको जाने दीजिए जिस से ईश्वर उनको अपनी हिफाज़त में ले ले. उनके साथी और  अफ्रीका में आज़ादी के बहुत बड़े नेता डेसमंड टूटू ने कहा है उनको अपना जीवन सम्मान और मर्यादा के साथ बिताना चाहिए. पूरे अफ्रीका में लोग दुआ कर रहे हैं कि मदीबा जल्दी ठीक हो जाएँ .अफ्रीका में लोग मुहब्बत से मंडेला को मदीबा ही  कहते हैं , जैसे महात्मा गांधी को अपने यहाँ लोग बापू कहते थे . उनके अस्पताल के बाहर मीडिया के लोग दिनरात मौजूद हैं और किसी खबर ,शायद उनकी मौत की खबर का इंतज़ार कर रहे हैं. वे प्रिटोरिया के मेडीक्लिनिक हार्ट हास्पिटल में दाखिल कराये गए हैं . उनके स्वास्थ्य की जानकारी दक्षिण अफ्रीका में अति विशिष्ट जानकारी मानी जाते  है और उस पर देश के राष्ट्रपति के दफ्तर का कंट्रोल है . सरकारी कंट्रोल से बहुत कम खबर बाहर निकलती है लेकिन इतना तय है कि मदीबा की तबियत बहुत खराब है .
आज भी  दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला एक राजनीतिक पूंजी हैं . अगले साल आम चुनाव होने हैं .सत्ताधारी अफ्रीकन नैशनल कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल , डेमोक्रेटिक अलायंस , दोनों की ही नज़रें उनके नाम पर चुनाव अभियान चलाने की है . उनकी कामना है कि आज़ादी का यह महानायक तब तक अस्पताल में ही सही ,जिंदा रहे . उनके नाती पोते भी मंडेला की दीर्घायु की कामना कर  रहे हैं . उनमें से कई मंडेला के नाम पर धंधे कर रहे हैं और कुछ के ऊपर तो अदालतों में मुक़दमें चल रहे  हैं . वे भी नहीं चाहते कि मंडेला  को मुक्ति मिले. हालांकि अब उनकी आँखें बहुत कमज़ोर हैं ,  फेफड़े मशीन के सहारे ही काम कर रहे हैं और उनकी याददाश्त भी बहुत कमज़ोर हो गयी है लेकिन जिजीविषा का यह महानायक अभी भी  मौत को चुनौती दिए जा रहा है , दिए जा रहा है .

Wednesday, June 19, 2013

मुख्यमंत्री सिद्दरमैया का इंटरव्यू , "कर्नाटक की जनता ने जाति के मिथक को तोड़ दिया है ".


कर्नाटक के मुख्यमंत्री  , सिद्दरमैया  ने  जाति को प्राथामिकता देने की  मुख्यमंत्रियों की रिवायत  से साफ़ मना दिया है . उन्होंने अपनी जाति  के किसी भी आदमी को अपने निजी स्टाफ में जगह नहीं देने की घोषणा कर दी है . अपने मंत्रियों को भी उन्होंने सलाह दी है की जाती के शिकंजे से बाहर  आने की कोशिश करें  . पुराने  समाजवादी रहे सिद्दरमैया के इस एक फैसले ने उनको अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री , राम कृष्ण हेगड़े की कतार में खडा कर दिया है , उन्होंने एक बातचीत में बताया की भारत सब का है और आज़ादी के लड़ाई का जो इतिहास है उसके इथास के बाहर जाने  का कोई मतलब नहीं है . अगर अपने निजी स्टाफ की  भर्ती में ही नेता जातिवादी हो जायेगा तो वह जातिवाद को ख़त्म  करने के अपने मकसद में कैसे कामयाब होगा.  हालांकि  राजनीतिक प्रबंधन के काम में सिद्दरमैया जातियों के महत्व  को कम  नहीं मानते . उन्होंने  अहिन्दा की  राजनीति को अपनी जीत की धुरी  बनाया है . अ यानी अल्पसंख्यक, हिन्दुलिगा यानी ओबीसी और दा  यानी दलित . इन तीनों वर्गों के नेता के रूप में अगर उनको मान्यता मिल गयी तो कर्णाटक  में जीत के लिए लिंगायत या वोक्कालिगा होने की जो परंपरा है वह ख़त्म हो जायेगी . कर्नाटक विधान सभा के चुनावों में कांग्रेस को मिले स्पष्ट बहुमत  ने दक्षिण भारत से बीजेपी की राजनीति को ख़त्म कर दिया था . कांग्रेस को इस राज्य में मिली जीत  के बाद लोकसभा २०१४ के लिए भी हौसला अफजाई हुयी थी  . उत्तर भारत में रहने वालों के लिए इस नई इबारत को समझना थोडा मुश्किल माना जाता है . इसी गुत्थी को सुलझाने के लिए कर्नाटक के मुख्यमंत्री , सिद्दरमैया से एक ख़ास बातचीत  की  गयी  . सिद्दरमैया कांग्रेस की राजनीति में थोडा नए हैं . इसलिए उनसे यह समझने की कोशिश भी  की गयी की किस तरह से उन्होंने न केवल बीजेपी की सत्ता को बेदखल किया बल्कि कांग्रेस के अन्दर मौजूद बड़े नताओं की इच्छा के खिलाफ  कांग्रेस आलाकमान की मंजूरी हासिल की और मुख्यमंत्री  बने. पत्रकार शेष नारायण सिंह के साथ हुयी बातचीत के कुछ ख़ास अंश 

सवाल. कर्नाटक में बीजेपी का शासन मजबूती से कायम हुआ था . बी एस येदुरप्पा बहुत ही ज्यादा मजबूती से जमे हुए थे . बीजेपी से हटकर आपके पक्ष में कब महौल बनना शुरू हुआ.  ?

जवाब .जब  जनता दल ( एस ) और बीजेपी की संयुक्त सरकार  बनी थी तो बीस बीस महीने के लिए सत्ता के बंटवारे की बात हुयी थी . एच डी  देवेगौडा ने अपने बेटे कुमारस्वामी को तो मुख्यमंत्री बनवा दिया लेकिन जब बी एस येदुरप्पा का नंबर आया तो तिकड़म करके उनको सत्ता से दूर रखा. उसके बाद जनता की सहानुभूति  येदुरप्पा के साथ हो गयी . जब दोबारा चुनाव हुआ तो बीजेपी को सरकार बनाने का अवसर मिला. लोगों की सहानुभूति येदुरप्पा के साथ थी  . और उसी सहानुभूति के बल पर वे जीत गए लेकिन सत्ता में आते ही येदुरप्पा ने भ्रष्टाचार का राज स्थापित कर दिया और जनता से पूरी तरह से कट गये.  बेल्लारी में रेड्डी भाइयों ने खनिज सम्पदा की लूट मचा दी, येदुरप्पा खुद भी उस से होने वाले लाभ में शामिल थे . यहाँ तक की केंद्र में भी बीजेपी के कुछ नेताओं तक लाभ पंहुच रहा था. कर्नाटक में  भ्रष्टाचार के शासन के खिलाफ माहौल बन रहा था . इसी बीच लोकायुक्त की रिपोर्ट  आ गयी जिसके बाद  सारी दुनिया को मालूम हो गया की येदुरप्पा एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री थे  . सुप्रीम कोर्ट ने  भी भ्रष्टाचार पर काबू करने के लिए संविधान में प्रदत्त तरीकों का इस्तेमाल किया . नतीजा यह हुआ कि  बीजेपी और येदुरप्पा भ्रष्टाचार के  पर्यायवाची   बन गए . . चारों तरफ से येदुरप्पा के इस्तीफे की मांग हो रही थी लेकिन दिल्ली में बैठे बीजेपी के वे नेता जिनको खनिज माफिया से लाभ  मिलता था,मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई भी ऐक्शन लेने को तैयार ही नहीं थे.  . उसी के बाद हमने विधान सभा के अन्दर धरना दिया . मीडिया ने इस धरने को रिपोर्ट किया . हम सी बी आई जांच की मांग कर रहे थे .  जनार्दन रेड्डी ने धमकाया कि अगर हिम्मत है तो बेल्लारी  आइये . उसी के बाद मैने  बंगलूरू से बेल्लारी की  पदयात्रा कॆ.  ३२५ किलोमीटर  की  यह दूरी सोलह दिन में तय की गयी और खनन माफिया और  उनके  समर्थक मुख्यमंत्री और  बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व के खिलाफ माहौल बनना शुरू हो गया .उसके बाद मैंने राज्य के अन्य इलाकों में भी यात्राएं की .हिंदुत्व की प्रयोग्शाला कहे जाने वाले इलाके तटीय कर्नाटक में भी  यात्रा की और बीजेपी के  भ्रष्ट शासन के खिलाफ माहौल बना तो भ्रष्टाचार की प्रतिनिधि सरकार के जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था. 

सवाल- आप पुराने समाजवादी हैं . कांग्रेस की आलाकमान कल्चर में न आप का कैसे एडजस्टमेंट  हो गया . कांग्रेस के स्थापित नेताओं ने आपको कैसे स्वीकार किया ?

जवाब-- हमारी पार्टी की सबसे बड़ी नेता सोनिया गांधी हैं . उनकी  इच्छा थी की कर्णाटक  को भ्रष्टाचार से मुक्त किया जाये. इसीलिये उन्होंने मुझे कांग्रेस में शामिल किया था .  जब राहुल गांधी ने जयपुर  चिंतन शिविर में कहा कि ईमानदार पार्टी कार्यकर्ताओं को आगे महत्व दिया जायेगा तो मुझे अंदाज़ लाग गया था कि आने वाले समय में कांग्रेस में  मेरे जैसे मेहनत करने वाले लोगों को महत्व मिलेगा  .

सवाल  . क्या आपको वादा किया गया था कि  अगर कांग्रेस को सत्ता मिलेगी तो आपको मुख्यमंत्री बनाया जायेगा. ?

जवाब . बिलकुल नहीं . लेकिन विपक्ष के नेता के रूप में मुझे कम करने का मौक़ा देकर  कांग्रेस आलाकमान ने मुझे पर्याप्त सम्मान दे दिया था . जहां तक मुख्यमंत्री पद की बात  है मैंने उसके बारे  में सोचकर कोई काम नहीं किया था. हाँ यह पक्का था कि  सोनिया गांधी और राहुल गांधी  ने देश के सामने जिस तरह की कांग्रेस  की राजनीति का वादा किया था  उसमें मेहनत  करने वाले  को अपने आप बढ़त  मिल  जाती है .

सवाल .. कर्नाटक की राजनीति में जातियों की बहुत प्रमुखता रही है . आपने  वोक्कालिगा और लिगायत न होते हुए भी किस तरह से जातियों के जंगल से निकल कर सफलता पायी . ?

जवाब --कर्नाटक  विधानसभा के चुनावों ने इस बार साबित कर दिया है कि जनता जातियों के बंधन से बाहर निकल चुकी है .इस चुनाव में कांग्रेस को सभी जातियों के वोट मिले हैं और सभी जातियों  के नेता कांग्रेस में महत्वपूर्ण पदों पर मौजूद हैं .  इन चुनावों में लिंगायत जाति के  पचास विधायक जीतकर आये हैं जिनमें से २९  कांग्रेस के हैं , बीजेपी में केवल  दस विधायक लिंगायत हैं . बी एस येदुरप्पा की  पार्टी के केवल  ६ विधायक चुने गए हैं . वोक्कालिगा जाति  के ५३  विधायक हैं। जिनमें से बीस कांग्रेस के पास हैं . अपने आपको वोक्कालिगा नेता बताने वाले देवेगौडा की पार्टी में  केवल १८ विधायक वोक्कालिगा है . अनुसूचित जाति के  ३५ विधायकों में से  १७  कांग्रेस में हैं . अनुसूचित जनजाति के १९ विधायकों में से ११ कांग्रेस में हैं  . ओबीसी विधायकों के संख्या  ३६ है जिनमें से २७ कांग्रेस में हैं  , ११ मुसलमान जीतकर आये हैं जिनमें से ९ कांग्रेस में हैं .  ईसाई ,जैन और वैश्य समुदाय के सभी विधायक कांग्रेस के साथ हैं .इस तरह से किसी ख़ास जाति  का नेता  बनने की राजनीति करने वालों को कर्नाटक की जनता ने कोई महत्व नहीं दिया है .  

सवाल.  विधानसभा  में  कांग्रेस को मिली जीत , बीजेपी और येदुरप्पा के खिलाफ नेगेटिव वोट है . ऐसा बहुत सारे लोग कहते रहते हैं . क्या इस जीत  को आप लोकसभा के अगले साल होने वाले चुनावो में भी जारी रख सकेगें .?

जवाब....यह नेगेटिव वोट नहीं है . हम इसको आगे भी जारी रखेगें  और लोकसभा चुनाव २०१४ में कम से कम बीस सीटें जीतेगें .


सवाल. अपनी जीत से आगे  भी राजनीतिक जीत सुनिश्चित करने  के लिए क्या  आप  कुछ ज़रूरी क़दम उठायेगें  ?

जवाब ... हम उठा चुके हैं .  विधान सभा में दिए गए अपने पहले भाषण में ही मैं ऐलान कर दिया कि अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के सारे क़र्ज़ माफ़ कर दिए गए हैं . यह वह क़र्ज़ है जो इन समुदायों  के लिए बनाए गए सरकारी कारपोरेशन की और से इन लोगों पर बकाया था.  मेरे ऊपर आरोप लगा  कि  इस तरह से तो सरकारी खज़ाना ही खाली हो जाएगा  लेकिन मैंने साफ़ कह दिया की कोई भी इंसान शौकिया क़र्ज़ नहीं लेता. मेरे एक साथी ने कह दिया कि जब बड़ी बड़ी कंपनियों को इनकम टैक्स में हज़ारों करोड़ की छूट दी जाती है तो वह भी तो सरकारी खजाने से ही जाती है  लेकिन उसके खिलाफ कोई नहीं लिखता . इसी तरह से जब मैंने  फैसला किया की राज्य के ९८ लाख बी पी एल परिवारों को एक रूपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से प्रति महीने  के  हिसाब से ३० किलो चावल दिया जाएगा तो बीजेपी ने हल्ला मचाया .  . मीडिया ने भी कहा कि करीब ४ हज़ार करोड़ रूपये सालाना का  जो नुक्सान होगा उसकी  भरपाई कहाँ से होगी . मेरा मानना है कि  कर्णाटक का बजट एक लाख बीस हज़ार करोड़ का है . और अगर उस में से चार हज़ार करोड़ गरीब भी भूख मिटाने  की लिए दे दिया जाएगा तो उसमें कोई परेशानी नहीं होने चाहिए  

Thursday, June 13, 2013

नार्वे पहला स्वतन्त्र देश जहां महिलाओं को मताधिकार मिला.



शेष नारायण सिंह


नार्वे में महिलाओं को मताधिकार मिलने की शताब्दी  वर्ष के  जश्न मनाये  जा  रहे हैं .आजकल वहाँ महिला मताधिकार सप्ताह के उत्सव चल  रहे हैं . भारत के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद भी कुछ कार्यक्रमों में शामिल होने वाले हैं . आजकल वे नार्वे की सरकारी यात्रा पर हैं .इस साल नार्वे में चुनाव भी होने वाले हैं . सरकार की कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस साल मतदान करें  . इस साल नार्वे की राजधानी ओस्लो में १४ नवंबर को महिला सशक्तीकरण और समानता के विषय पर अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन का आयोजन किया गया है . इस मौके पर वहाँ  दुनिया भर के राजनेता और महिलाओं के अधिकार के लिए संघर्ष करने वाले लोगों का जमावड़ा होने वाला है .
आज नार्वे महिलाओं के अधिकार के एक अहम केन्द्र के रूप में जाना जाता है लेकिन यह दर्ज़ा उनको यूं ही नहीं मिल गया .आज से ठीक एक सौ साल पहले ११ जून १९१३ को जब उस वक़्त की नार्वे की सरकार ने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया तो वह दुनिया के उन देशों में शामिल हो गया जहां  महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला था . इसके पहले  न्यूजीलैंड में  १८९३ में , आस्ट्रेलिया में १९०२ में और फिनलैंड में १९०६ में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिल चुका था लेकिन यह तीनों ही देश स्वतन्त्र देश नहीं थे . नार्वे पहला स्वतन्त्र देश है जहां संविधान के अनुसार महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला. लोकशाही के इतिहास में यह एक बहुत ही अहम संगमील है . नार्वे का संविधान १८१४ में बना था और उस संविधान के लागू होने के करीब सौ साल बाद नार्वे के राजनेताओं की समझ में आया कि महिलाओं को भी राजकाज में शामिल  किया जाना चाहिए . हालांकि सौ साल लगे लेकिन बाकी दुनिया के हिसाब से १९१३ का यह फैसला एक क्रांतिकारी क़दम था. जब १८१४ में नार्वे का संविधान बना तो उसमें प्रावधान था कि जनप्रतिनधियों को राजकाज में शामिल किया जाएगा . इस संविधान को बनाने के लिए १७९१ के फ्रांसीसी संविधान और १७८७ के अमरीकी संविधान से प्रेरणा ली गयी . नार्वे में शुरू में उन लोगों को वोट देने का अधिकार था जो या तो सरकारी नौकारियों में थे या ज़मींदार थे. वे लोग जिनके पास ज़मीन नहीं थी उनको वोट देने का अधिकार नहीं था . हर वर्ग की महिलाओं को वोट की प्रक्रिया से बाहर रखा गया था .लेकिन १८९८ में सभी पुरुषों को वोट देने का अधिकार मिल गया . हालांकि उस वक़्त के हिसाब से यह बहुत ही क्रांतिकारी क़दम था . यूरोप के बाकी देशों में  तो यह भी नसीब नहीं था. और जब १९१३ में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिल गया तो नार्वे यूरोप में लोकतंत्र का सबसे प्रमुख केन्द्र बन गया .

१९१३ में महिलाओं को वोट देने  का फैसला कोई एक दिन में नहीं हुआ . उसके लिए २८ साल तक संघर्ष चला था . जब सरकार ने १९१३ में महिलाओं को अधिकार देने का फैसला किया .उस संघर्ष  की नेता जीना क्रोग ने कहा था कि उन्हें  उम्मीद तो थी कि उनके संघर्ष के बाद कुछ सकारात्मक होगा लेकिन उनको भी उम्मीद नहीं थी कि जीत इतनी निर्णायक होगी क्योंकि उस फैसले के बाद सभी महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिल गया था. जब महिलाओं के मताधिकार के लिए बहस हो रही थी तो वही तर्क दिए गए थे जो हर पुरुषप्रधान समाज में दिए जाते हैं .नार्वे की संसद के उस दौर के कई सदस्यों ने कहा कि अगर महिलाओं को वोट देने का अधिकार दे दिया गया तो पारिवारिक जीवन तबाह हो जाएगा.  चर्च की ओर से सबसे ज्यादा एतराज़ उठ रहा था , धार्मिक नेता कह रहे थे कि  राज करना पुरुषों का काम है और अगर महिलओं को राज करने वालों को चुनने का अधिकार दे दिया गया तो बहुत गलत होगा . महिलाओं को पुरुषों का काम नहीं करना चाहिए और पुरुषों को महिलाओं का काम नहीं करना चाहिए . इन दकियानूसी तर्कों के बीच संघर्ष भी चलता रहा और १९१३ आते आते राजनीतिक दलों पर  इतना  दबाव पड़ा कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपने चुनावी वायदों में महिलाओं के मताधिकार की बात को प्रमुखता से शामिल किया .जब मई १९१३ में इस मुद्दे पर बहस शुरू हुई तो किसी भी राजनीतिक पार्टी ने विरोध नहीं किया .एक बार  जब वोट देने का अधिकार मिल गया तो महिलाओं को  वहाँ की संसद की सदस्य बनाने की कोशिश भी शुरू हो गयी. और १९२२ में  पहली बार किसी महिला को नार्वे एक सर्वोच्च पंचायत में  शामिल होने का मौक़ा मिला. 

Saturday, June 8, 2013

कैलिफोर्निया में अमरीका और चीन की शिखर बैठक के भावार्थ


शेष नारायण सिंह 

सात और आठ जून को दुनिया के दो सबसे ताकतवर नेता मिल रहे हैं .चीन के जी जिनपिंग और अमरीका के बराक ओबामा कैलिफोर्निया के सनीलैंड्स में मिल रहे हैं . इन नेताओं की मुलाकात एक ऐसे माहौल में हो रही है जब दोनों देशों के बीच रिश्ते ढलान पर हैं .आर्थिक विकास की हवा पर सवार चीन अपनी क्षेत्रीय हैसियत को बढाने में लगा हुआ है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की कमज़ोर पड़  रही अर्थव्यवस्था के चलते चीन के हौसले और भी बुलंद हैं . अमरीका को अब तक इस बात का गुमान था कि वह चीन के चारों तरफ के देशों में भारी मौजूदगी रखता है और उसके बल पर वह ज़रुरत पड़ने  पर चीन को घेर सकता है .हालांकि अमरीका का यह मुगालता  बंगलादेश की स्थापना के बाद ख़त्म हो गया था लेकिन वह  जापान, कोरिया, पाकिस्तान आदि देशों में अपनी मौजूदगी को अपनी ताक़त मानता रहा था . हालांकि १९७१ में पाक्सितान के बड़े भाई के रूप  में खड़े रहकर भी निक्सन और किसिंजर की टोली  पाकिस्तान को छिन्न भिन्न होने से बचा नहीं पायी थी . भारत ने हस्तक्षेप करके तत्कालीन पाकिस्तान के पूर्वी भाग की अवाम की आज़ादी को  सहारा दिया था और स्वतंत्र देश बंगलादेश  की स्थापना हो गयी थी . एशिया के इस हिस्से में अपनी ताकत के परखचे उड़ते देख अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अप्लीकेशन डाल  दी थी और उनको चेयरमैन माओत्सेतुंग ने हाजिरी बक्श दी थी  . अमरीका परस्त देश और राजनेता उसके बाद से ही दावा करते रहे हैं कि चीन और अमरीका के रिश्तों में सुधार हो रहा है लेकिन सच्चाई यह  है की पूरी दुनिया में हर तरफ अपनी दखलंदाजी करने वाले अमरीका के प्रभाव का दायरा बहुत ही तेज़ी से घट रहा है . ऐसी हालत में अमरीका के हित में है  कि वह  तेज़ी से विकास कर रहे चीन  से अपने सम्बन्ध सुधारे. वरना वह दिन दूर नहीं जब चीन आर्थिक विकास के साथ एक ऐसी सैनिक ताक़त की शक्ल अख्तियार कर लेगा  कि दुनिया भर में अपने को रक्षक के रूप में पेश करने वाले अमरीका की मुश्किलें बहुत बढ़ जायेगीं .
चीन को मालूम है की अब अमरीका और चीन के रिश्ते बहुत ही नाज़ुक दौर में पंहुच चुके हैं और अब एक ऐसे सम्बन्ध की ज़रुरत है जो दो महान देशों के बीच स्थापित किया जाता है. जानकार बताते हैं की दोनों देशों के नेताओं को कूटनीति के जो स्थापित मानदंड हैं उनसे अलग होकर कुछ करना पडेगा . इस सम्बन्ध में १९७२  का उदाहरण दिया जाता है जब अपने भारी मतभेदों को भुलाकर चीने के सबसे बड़े नेता  माओ के सामने रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर ने आपसी हितों के मुद्दे तलाशने की कोशिश की थी  . पिछले चालीस  वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है . चीन को मालूम है की वह अब एक महान आर्थिक ताक़त है और वह अमरीकी बाजार को  अस्थिर करने की शक्ति रखता है .चीन में  अब भी यह माना जाता है की जब भी अमरीका दोस्ती का हाथ बढाता है वह चीन को काबू में करने के चक्कर में  ज्यादा रहता है .लेकिन दोनों ही नेताओं, जी जिनपिंग और बराक ओबामा को मालूम है को दोस्ती की राह ही सही रहेगी क्योंकि और किसी रास्ते में तबाही ही तबाही है .
ओबामा को मालूम है की चीन को साथ लिए बिना ईरान, उत्तरी कोरिया और मौसम के बदलाव जैसे मुद्दों पर कोई सफलता नहीं मिलेगी . इसलिए सनीलैंड्स की मुलाक़ात से अमरीकी कूटनीति को धार मिलने की संभावना है .चीन  के हित में यह है की वह पूर्वी एशिया और अपने प्रभाव के अन्य इलाकों में अमरीका को यह भरोसा दिला सके कि  चीन उसको परेशान नहीं करेगा. चीन  के मौजूदा नेता  जी जिनपिंग ने एक साल की अपनी सत्ता के बाद यह साबित कर दिया है की घरेलू और विदेशी हर मामले में  उनकी ताकत को कम करके नहीं आंका जा सकता . आर्थिक बदलाव के बाद चीन के सरकारी कर्मचारियों में आयी भ्रष्टाचार की वारदातों  पर उन्होंने प्रभावी तरीके से कंट्रोल करने की कोशिश पर काम शुरू कर दिया है जापान को वे अक्सर धमकाते रहते हैं .इस तरह से चीनी राष्ट्रवाद की अनुभूति को भी शक्ति मिलती  है .अमरीका पंहुचने के  पहले वे मेक्सिको, कोस्टा रिका और त्रिनिदाद -टोबैगो होते हुए पंहुचे हैं यानी अमरीका को पता होना चाहिए कि  चीन भी अमरीका के बिलकुल पड़ोस तक असर रखता है .अगर अमरीका पूर्वी एशिया में असर रखता है तो चीन भी दक्षिण  अमरीका में एक ताक़त है। इस पृष्ठभूमि में दो बड़ी ताक़तों के नेताओं का  बेतकल्लुफ़ माहौल में मिलना दुनिया की राजनीति के लिए बड़ी घटना है . इसका असर आने वाले वर्षों में  सभी देशों पर पड़ने वाला है .

Thursday, June 6, 2013

सिख आतंकवाद फिर सर उठा रहा है -गृहमंत्री


शेष नारायण सिंह

नयी दिल्ली ५ जून .छत्तीसगढ़ के जीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हुए बर्बर हमले की पृष्ठभूमि में आज यहाँ मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन में प्रधानमंत्री ने देश की चिंता को रेखांकित किया . मूलरूप से आतंरिक सुरक्षा के लिए बुलाई गयी बैठक में माओवादी हिंसा के अलावा साम्प्रदायिक हिंसा और महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा का मुकाबला करने का भी आह्वान किया गया . गृहमंत्री शुशील कुमार शिंदे ने कहा कि  अस्सी  के दशक में देश को अस्थिरता  के मुकाम तक पंहुचा चुके सिख आतंकवाद ने भी सिर उठाना शुरू कर दिया है . उन्होंने बताया कि  विदेशों में बसे सिखों को पाकिस्तान सरकार और आई एस आई की मदद से भारत के खिलाफ भड़काने का काम एक बार फिर शुरू हो गया है .

प्रधानमंत्री ने दावा किया कि नक्सलवाद की  चुनौती पर सरकार पूरा ध्यान दे रही है .उन्होंने कहा कि वामपंथी आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए  सरकार ने सुरक्षा बलों को बहुत ही मजबूती से सक्रिय कर दिया है लेकिन आदिवासियों की समस्याओं को हल करना और उस इलाके में विकास को हमेशा प्राथमिकता दी जायेगी इस रणनीति को लागू करने के लिए हर कोशिश की जा रही है . वामपंथी आतंक से सबसे ज़्यादा प्रभावित जिलो  में सुरक्षा का तंत्र बहुत ही मज़बूत किया जा रहा है . इन जिलों में केंद्र की योजनाओं को और उपयोगी बनाने के लिए  नियमों में बदलाव किया जा रहा है  . इसके अलावा ८२  जिलों में विकास की रफ़्तार को बहुत तेज़ किया जा रहा है जहां आदिवासी आबादी बहुत ज़्यादा है और जहां अब तक विकास की भारी कमी  है  . वामपंथी आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए देश में राजनीतिक माहौल बनाने की ज़रुरत है और उसे हासिल करने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों की एक बैठक बुलाई गयी है .प्रधानमंत्री ने जम्मू-कश्मीर, और पूर्वोत्तर राज्यों में चल रहे आतंकवाद विरोधी कार्यों को भी गिनाया . प्रधानमंत्री ने महिलाओं  ,बच्चों और अल्प्संक्यकों के खिलाफ हो रही  हिंसक घटनाओं पर भी रोक लगाने के लिए ऐसा ढांचा तैयार करने की बात की जिसके बाद इस तरह की वारदात को होने से पहले ही रोक जा सके .

सम्मलेन में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने देश में आतंकवाद की घटनाओं में पाकिस्तानी भूमिका की ज़बरदस्त आलोचना की . उन्होंने बताया कि  पाकिस्तान सरकार और आई एस आई के लोग एक बार फिर सिख आतंकवाद को हवा देने के काम में जुट गए हैं .सिख नौजवानों  को एक बार फिर आई एस आई के ठिकानों पर ट्रेनिंग दी जा रही है .उन्होंने कहा कि  आई एस आई के लोग नेपाल और बंगलादेश के रास्ते भी हमारे देश में आतंकवादी भेज रहे हैं जो चिंता का विषय है .पाकिस्तान की जेहादी तंजीमें  पाकिस्तान से भारत के आतंकवादियों को धन भेज रही हैं . इस काम में हवाला के अलावा वेस्टर्न युनियन मनी ट्रांसफर का भी इस्तेमाल हो रहा है .

इस सम्मेलन में मुख्यमंत्रियों के भाषण भी हुए . हालांकि उनका भाषण शुरू होने के पहले मीडिया को बाहर कर दिया गया लेकिन सभी मुख्यमंत्रियों ने अपने भाषण पत्रकारों के बीच बंटवा दिया था और सभी भाषणों में उनकी घोषित नीतियों को ही उठाया गया था. सम्मेलन में ममता बनर्जी और जयललिता नहीं शामिल हुईं लेकिन रमण सिंह . नरेन्द्र मोदी, सिद्धरमैया आदि मुख्यमंत्री आये और अपना भाषण बंटवाया  बाद में नयी दिल्ली में तैनात राज्यों के सूचना अधिकारी टी वी चैनलों के रिपोर्टरों से अपने मुख्यमंत्री  की बाईट लगवाने के लिए  निवेदन करते देखे गए 

राजस्थान में कांग्रेस की हालत बहुत खराब है


शेष नारायण सिंह

ई दिल्ली,४ जून. लोकसभा चुनाव २०१४ की तैयारियां हर पार्टी शुरू कर  चुकी है . कांग्रेस ने कर्नाटक में बीजेपी को हराकर एक ज़बरदस्त संकेत दिया है . छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं पर हुए माओवादी हमले के बाद दो और राज्यों में भी बीजेपी की हालत डावांडोल हो चुकी है . मुख्यमंत्री रमन सिंह के राज्य में कानून-व्यवस्था की हालत बहुत ही दयनीय मुकाम पर पायी जा रही है जबकि बीजेपी सुशासन और सुराज के नारे के बल पर केन्द्र की सत्ता में वापसी चाहती है . मध्यप्रदेश में भी लाल कृष्ण आडवानी ने मुख्यमंत्री की तारीफ़ के पुल बाँधने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया है लेकिन वहाँ बीजेपी के कई बड़े नेता राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पैदल करने में  चक्कर में बीजेपी को ही झटका देने पर आमादा हैं . हाँ राजस्थान में बीजेपी की हालत मज़बूत बतायी जा रही है . मिजोरम और दिल्ली के अलावा इन तीनों राज्यों में भी विधानसभा चुनाव २०१३ में होंगे और २०१४ के पहले जो माहौल बनने वाला है उसमें इनके नतीजों की भारी भूमिका होगी. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों पर बस्तर में हुए कांग्रेसी नेताओं के संहार का असर ज़रूर पडेगा . सुरक्षा की खामी उसमें मुख्य मुद्दा है . यह अलग बात है कि बीजेपी वाले उस नरसंहार की जिम्मेदारी कांग्रेस की आपसी सिरफुटव्वल पर मढने की पूरी कोशिश कर रहे हैं . इसी योजना के तहत कुछ वफादार टीवी चैनलों पर खबर भी चलवा दी गयी लेकिन राजनीतिक हलकों में यह बात हंसी में टाल दी गयी , किसी ने भी इन बातों पर विश्वास नहीं किया . अभी तक स्थिति यह है कि बीजेपी में सुकमा के जंगलों में हुए हत्याकांड में सरकारी असफलता की बात को काटने में नाकामयाब रही  है . हालांकि छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह की अपनी पार्टी के अंदर उनको चुनौती देने वाले बीजेपी नेता नहीं है लेकिन उनको कांग्रेस और अपनी नाकामयाबी की ज़बरदस्त चुनौती मिल  रही है .

राजस्थान में भी  सत्ताधारी पार्टी की नाकामयाबियाँ विधानसभा चुनाव का मुद्दा बन चुकी हैं . मुख्यमंत्री अशोक गहलौत की असफलता गिनाने के लिए बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे निकल पडी हैं . जहां भी जा रही हैं जनता उनका स्वागत कर रही है .वसुंधरा राजे को उनकी पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह का पूरा समर्थन हासिल है ,हालांकि इसके पहले भारी नाराजगी थी . जाति के गणित में भी वे जाटों और राजपूतों में अपनी नेता के रूप में पहचानी जा रही हैं .राजनाथ सिंह के कारण पूरे उत्तर भारत में राजपूतों का झुकाव बीजेपी की तरफ है उसका फायदा भी उनको मिल रहा है .जाटों की राजनीति का अजीब हिसाब है .कांग्रेस ने जाटों को साथ लेने के लिए उसी बिरादरी का अध्यक्ष बना दिया है लेकिन उनकी वजह से कांग्रेस की  तरफ उनकी जाति का वोट नहीं जा रहा है . बल्कि उससे कांग्रेस को नुक्सान ही हो रहा है . परंपरागत रूप से बीजेपी के मतदाता रहने वाले जाटों को राज्य कांग्रेस के लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर बैठा दिए जाने के बाद राज्य के राजपूत नेताओं में भारी नाराज़गी है . मुख्यमंत्री अशोक गहलौत की राजनीति इस तरह से डिजाइन की गयी है जिससे राज्य में कांग्रेस की हार को सुनिश्चित किया जा सके. दिल्ली में ज़्यादातर कांग्रेस नेता यह मानकर चल रहे हैं कि अशोक गहलौत अकेले ही चलना चाहते हैं क्योंकि उन्होंने अपनी पार्टी के ज़्यादातर केंद्रीय मंत्रियों को नाराज कर रखा है. अशोक गहलौत ने ऐसा माहौल बना रखा  कि केंद्रीय मंत्री सी पी जोशी,सचिन पाइलट,भंवर जीतेंद्र सिंह और लाल सिंह कटारिया उनको पूरा समर्थन नहीं दे रहे हैं . महिपाल मदेरणा, ज्योति मिर्धा और शीशराम ओला भी उनसे नाराज़ बताए जा रहे  हैं .जब पूछा गया कि अगर राज्य के सभी केंद्रीय नेता उनसे नाराज़ हैं तो वे चल क्यों रहे हैं .जवाब मिला कि मुख्यमंत्री ने पता नहीं क्या कर रखा है कि दस जनपथ का उन्हें पूरा समर्थन मिल रहा  है . इस सूचना के मिलते ही कांग्रेस अध्यक्ष के रिश्तेदारों के व्यापारिक कारोबार पर बरबस ही ध्यान चला जाता है और अशोक गहलौत की कुर्सी की स्थिरता की पहेली समझ में आने लगती है . जहां तक रिश्तेदारों की बात है मुख्यमंत्री ने अपने रिश्तेदारों को भी सत्ता से मिलने वाले लाभ को पंहुचाने में संकोच नहीं किया है .जयपुर के स्टेच्यू सर्किल के एक ज़मीन का ज़िक्र बार बार उठ जाता  है जहां बन रहे फ्लैटों की कीमत आठ करोड रूपये से ज्यादा बतायी जा रही है और खबर यह है कि गहलौत जी के बहुत करीबी लोग उसमें लाभार्थी हैं . एक नेता जी ने तो यहाँ तक कह दिया कि जिस कम्पनी की संस्थागत ज़मीन का लैंड यूज बदल कर इतनी मंहगी प्रापर्टी बना दिया गया है उसमें मुख्यमंत्री का बेटा ही डाइरेक्टर है . पत्थर की खदानों का घोटाला भी  राजस्थान के मुख्यमंत्री के नाम पर दर्ज है . उस घोटाले को तो टी वी चैनलों  ने भी उजागर किया था. बताते हैं कि इस घोटाले में २१ खानें एलाट की गयी थीं जिनमें से १८ मुख्यमंत्री जी के क़रीबी लोगो और रिश्तेदारों को दे दी गयी थीं .

राजस्थान में कांग्रेस की मुश्किलें बहुजन समाज पार्टी भी बढाने वाली है क्योंकि राज्य के कुछ क्षेत्रों में उसकी प्रभावशाली उपस्थिति है .पिछले चुनाव में ६ सीटें जीतने वाली बहुजन समाज पार्टी इस बार दस का टारगेट लेकर चल रही  है . बी एस पी को मिलने वाला हर वोट कांग्रेस का संभावित  वोट माना जाता है इसलिए बी एस पी भी कांग्रेस को नुक्सान पंहुचायेगी .इस चुनाव में वसुन्धरा राजे संचार के आधुनिक तरीकों का भी पूरा इस्तेमाल कर रही हैं जबकि मुख्यमंत्री उस मैदान में भी पीछे हैं , किसी शुभचिंतक ने उनका ट्विटर एकाउंट खोल दिया था  . लेकिन उसमें वही दर्ज़न भर ट्वीट हैं जो जिस दिन खाता बनाया गया था उस दिन ट्रायल के तौर पर दर्ज किया गया था जबकि  वसुंधरा राजे के फालोवर बीस हज़ार से ज्यादा हैं , हालांकि चुनावों में इन चोचलों से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन अपनी यात्रा के दौरान आने वाली भीड़ को देख कर अशोक गहलौत तो निराश हो ही रहे हैं ,उनके साथ जाने वाले केंद्रीय नेता भी बहुत खुश नहीं हैं . उधर वसुंधरा राजे ने ऐसा माहौल बना दिया है कि उनकी सभाओं में जाना और उनको सुनना अब राजस्थानी अवाम के लिए एक ज़रूरी काम माना जाने लगा है .ऐसी स्थिति में लगता  है कि राजस्थान में कांग्रेस को पैदल होना पड़ेगा .यह अलग बात है कि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में अच्छा प्रदर्शन करके कांग्रेस २०१४ के लिए अपने कार्यकर्ताओं के हौसले बढ़ाने  में कामयाब हो जायेगी . कर्नाटक और  हिमाचल प्रदेश में यह कारनामा पहले ही अंजाम दिया जा चुका है .

Sunday, June 2, 2013

म्यांमार में मुसलमानों पर जारी है बौद्ध और सरकारी आतंक का कहर




शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, ३१ मई .म्यांमार में मुसलमानों के ऊपर कहर जारी है . देश में पांच फीसदी आबादी मुसलमानों की है .दुनिया भर के अखबारों में म्यांमार में मुसलमानों के ऊपर हो रहा अत्याचार बड़ी खबर बन रहा है . न्यूयार्क टाइम्स ने तो सम्पादकीय लिखकर इस समस्या पर अमरीका सहित पश्चिमी देशों का ध्यान खींचने की कोशिश की है .मुसलमानों के ऊपर हो रहे इस अत्याचार का नतीजा यह है कि पिछले कई वर्षों से तानाशाही और फौजी हुकूमत झेल रहे म्यांमार के ऊपर मुसीबतों का एक पहाड टूट  पड़ा है . देश की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि अब वहाँ स्थिरता ला पाना बहुत मुश्किल होगा ,देश में लोकतंत्र को स्थिर बनाने की उम्मीदें और दूर चली जायेगीं.
म्यांमार में जातीय और धार्मिक हिंसा का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि वहाँ मुसलमानों को मारने वाले बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और हिंसा को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि बौद्ध धर्म की बुनियाद में अहिंसा सबसे अहम शर्त है .जानकार बताते हैं कि अगर देश के पांच फीसदी मुसलमानों के ऊपर अत्याचार जारी रहा तो वहाँ लोकतंत्र की स्थापना असंभव हो जायेगी ,पहले की तरह तानाशाही निजाम ही चलता रहेगा. म्यांमार में बौद्ध धर्म के अनुयायी बहुमत में हैं.
उत्तरी शहर लाशियो से ख़बरें आ रही हैं कि वहाँ मुसलमानों की दुकानें ,घर और स्कूल जला दिए गए हैं .एक बौद्ध महिला डीज़ल बेच रही थी और उसकी किसी मुस्लिम खरीदार से कहा सूनी हो गयी . बहुमत वाली बौद्ध आबादी के कुछ गुंडे आये और एक मसजिद में आग लगा दी . मुसलमानों ने भी अपनी जान बचाने की कोशिश की . झगड़े में एक मुसलमान की मौत हो गयी जबकि चार बौद्धों को चोटें आयीं . मामूली सी बात पर आगजनी की नौबत आने का मतलब यह है कि म्यांमार में बहुमत वाले बौद्धों में जो लोग धर्म को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते है उनकी संख्या बढ़ रही है . ऐसा लगता है कि लोकतंत्र विरोधियों का एक खेमा भी पूरी तरह से सक्रिय है क्योंकि अगर धार्मिक हिंसा का यह सिलसिला जारी रहा तो पिछले पचास साल से जारी तानाशाही की सत्ता को हटाकर कर लोकतंत्र की स्थापना असंभव है .तानाशाही फौजी सरकार ने मुसलमानों के रोहिंग्या जाति को म्यांमार की नागरिकता ही नहीं दी है .उनकी आबादी पश्चिमी राज्य राखिने में हैं और वहाँ उनको हर तरह का भेदभाव झेलना पड़ता है , अपमानित होना पड़ता है .वहाँ की सरकार ने रोहिंग्या आबादी पर यह पाबंदी लगा रखी है कि एक परिवार में दो बच्चों से ज्यादा नहीं  पैदा किये जायेगें .अगर ज्यादा बच्चे हो गए तो सरकारी प्रताडना का शिकार होना पड़ता है .और देश छोडना पड़ता है . म्यांमार में इस चक्कर में  लाखों मुसलमानों को सज़ा दी जा चुकी है .अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों को रोकने में पुलिस और अन्य सुरक्षाबल पूरी तरह से नाकाम हैं . आरोप हैं कि वे बौद्ध सम्प्रदाय वाले हैं इसलिए मुसलमानों की रक्षा करना ही नहीं चाहते .इस बीच खबर है कि लाशियो के एक बौद्ध मठ में सैकड़ों मुस्लिम परिवारों ने पनाह ली है क्योंकि उनके घरों में बौद्ध गुंडों ने उन्हें घेर लिया था और कुछ घरों में आग भी लगा दी थी .मामला जब बहुत बिगड गया तो सुरक्षा बलों ने हस्तक्षेप किया और  उन लोगों को मठ में पंहुचाया . मयांमार में सुरक्षा बल पिछले पचास साल से लोगों धमकाने के काम में ही ज्यादातर इस्तेमाल होते रहे हैं इसलिए उनसे शान्ति स्थापित करने के काम सफलता की उम्मीद  नहीं की जानी चाहिए .उनको सही ट्रेनिंग देने की ज़रूरत है .

छत्तीसगढ़ में सरकारी दमनतंत्र को राजनीतिक हथियार बनाना खतरनाक होगा



शेष नारायण सिंह



सुकमा के जंगलों में कांग्रेसी नेताओं की हत्या के मामले में देश की राजनीति में तरह तरह के सवाल उठना शुरू हो गए हैं .केन्द्र सरकार के एक खेमे में तो इस हत्याकांड को इस बात का सबसे बड़ा बहाना माना जा रहा है कि अब मौक़ा है कि माओवादियों को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाए. माओवादी इलाकों में सरकारी दमनतंत्र के ज़रिये कब्जा करने वालों को इस बात की परवाह नहीं है कि माओवादियों का सफाया करने के चक्कर में पूरे इलाके में रहने वाले आदिवासियों का सर्वनाश हो जाएगा . लगता है  कि सरकारी दमनतंत्र को इस्तेमाल करने वालों को इस बात का भी अंदाज़ नहीं है कि इसी नीति का पालन करके सलवा जुडूम ने सब कुछ बर्बाद कर दिया था . जल जंगल और ज़मीन के लिए आदिवासियों की जो लड़ाई शुरू हुई थी ,उसको माओवादी विचारधारा वालों ने नेतृत्व प्रदान किया और आज वही आदिवासी उन योजनाओं को भी एक शिकंजा मानते हैं जो उनके कल्याण के लिए सरकार की तरफ से चलाई जाती हैं . छत्तीसगढ़ , बिहार और उड़ीसा में ऐसी सरकारें हैं जो किसी भी वामपंथी आंदोलन को कम्युनिस्ट कहकर उनपर हमला बोलने के लिए आमादा रहती हैं. दरअसल बीजेपी या उसकी विचारधारा से सहानुभूति रखने वाले नेता और उनकी पार्टियां उस तैयारी में जुटी हुई हैं जिस तैयारी में १९३३ में जर्मनी की सत्ताधारी पार्टी जुट गयी थी. उस वक़्त की सरकार ने  हर उस व्यक्ति को जो उनसे अलग राय रखता था ,कम्युनिस्ट नाम दे दिया था और उसे मार डाला था. दिल्ली के सत्ता के गलियारों में मौजूद वे नेता भी उसी मानसिक सोच के हैं जो सरकारी सत्ता का इस्तेमाल करके विरोधी को तबाह कर देने की बात के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकते.  केन्द्र सरकार ने यह तय किया था कि माओवादी आतंक से प्रभावित इलाकों में आदिवासियों के विकास को मुख्य एजेंडा में लाया जाएगा. सोनिया गांधी के दो सिपहसालार इस काम पर लगा भी दिए गए थे और काम ढर्रे पर चल भी रहा था . जयराम रमेश को ग्रामीण विकास और किशोर चन्द्र देव को आदिवासी  कल्याण का मंत्रिमंडल देकर यह मान लिया गया था कि सब ठीक हो जाएगा लेकिन जब २६ मई को रविवार होने के बावजूद जयराम रमेश ने अपने दफ्तर में कुछ पत्रकारों को बुलवाकर बात की तो साफ़ लग रहा था कि इस आदमी के हाथ के तोते उड़ गए हों , जयराम रमेश की बात से उस मजबूर आदमी की आवाज़ निकल रही थी जिसका घर  अभी अभी आग के हवाले कर दिया  गया  हो . जब उनसे पूछा गया कि बातचीत का रास्ता क्या अभी भी खुला है तो उन्होंने साफ़ कहा कि हालांकि बातचीत की संभावना को नकारा नहीं जा सकता लेकिन अभी तो बातचीत का माहौल नहीं है . उन्होंने इस बात पर ताज्जुब जताया कि नन्द कुमार पटेल को क्यों मार डाला गया जबकि उन्होंने हमेशा आदिवासियों के दमन के खिलाफ आवाज़ उठायी थी. इसी तरह का पछतावा आदिवासी कल्याण के मंत्री किशोर चन्द्र देव की आवाज़ में भी था जब वे किसी टी वी चैनल से बात कर  रहे थे . उन्होंने कहा कि सलवा जुडूम को बढ़ावा देना बिलकुल गलत नीति थी . उन्होंने कहा कि इस नीति के चलते आदिवासी समाज में जो दरारें पडी हैं उनको  ठीक कर पाना बहुत मुश्किल होगा .उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कांग्रेसी नेताओं की परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले में कुछ नेताओं और कारपोरेट घरानों की साज़िश भी  हो सकती है .उन्होंने कहा कि सलवा जुडूम क्या था . इस योजना में कुछ आदिवासियों को उनके घरों से निकाल कर रिफ्यूजी कैम्प में रख दिया गया . बाकी लोगों को माओवादियों ने अपने साथ ले लिया उसके बाद आदिवासी नौजवानों को  अपने ही भाई बन्दों के खिलाफ इस्तेमाल करके हत्याएं की गयीं इस से बुरा क्या हो सकता था . उन्होंने कहा कि माओवादियों को कुछ नेता अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं .इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि आतंकवादियों और कारपोरेट घरानों के बीच किस तरह के सम्बन्ध हैं . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया है कि इस  २५ मई के हमले के टारगेट नन्द कुमार पटेल ही थे . दिग्विजय सिंह ने सवाल किया है  कि नन्द कुमार पटेल को क्यों  तलाश किया जा रहा था जबकि उन्होंने सलवा जुडूम का विरोध किया था और बस्तर में आदिवासियों पर हो रहे हमलों की हमेशा ही निंदा करते थे और यह बात माओवादियों को अच्छी तरह से मालूम थी . ज़ाहिर है कि आदिवासियों के दमन से जुड़े बहुत सारे सवाल २५ मई की घटना के बाद पूछे जायेगें लेकिन आदिवासियों को पूंजीवादी विकास के माडल से पूरी तरह से अलग थलग करने वाले कारकों की भी पड़ताल की जानी चाहिए .

प्रधानमंत्री ने बार बार अपने  भाषणों में कहा है कि बन्दूक की दहशत की मौजूदगी में आदिवासियों का विकास नहीं हो सकता .आदिवासियों और माओवादियों के ऊपर ज़रूरत से ज्यादा सरकारी दमनतंत्र का इस्तेमाल करने की वकालत करने वाले दिल्ली के सत्ता के ठेकेदार भी प्रधानमंत्री के इसी तर्क को इस्तेमाल करने जा रहे हैं और जानकार बताते हैं कि आने वाले वक़्त में माओवादियों को नेस्तनाबूद करने के बहाने आदिवासियों पर भारी मुसीबतों का पहाड टूटने वाला है .  मार्क्सवादी लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी को भी यही डर है .  सवाल उठता है कि क्या आदिवासी इलाकों के लोग शुरू से ही बंदूक लेकर घूमते रहते थे। आजादी के बाद उन्होंने 50 से भी अधिक वर्षों तक इंतजार किया। इस बीच उनका घर-बार तथाकथित विकास योजनाओं की भेंट चढ़ता रहा। आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा की लालच में सरकारें जंगलों में ऊल जलूल परियोजनाएं चलाती रही। यह परियोजनाएं आदिवासियों के शोषण का सबसे बड़ा साधन बनीं। कहीं भी किसी स्तर पर उनको भागीदारी के अवसर नहीं दिए गए। जहां भी आदिवासी इलाकों में विकास का स्वांग रचा गया वहां आदिवासियों की तबाही की इबारत मोटे अक्षरों में लिख दी गई।
वन संपदा पर उनका अधिकार पूरी तरह से खारिज कर दिया गया और उनकी जीवन शैली पर हमला बोला गया। नई परियोजनाओं के लिए बाहर से गए लोगों ने वहां पर सस्ती मजदूरी पर लोगों को काम पर लगाया। कुछ जगहों से तो लड़कियों के शारीरिक शोषण की ख़बरें भी आती थीं। उनके रीति रिवाजों पर हमला हुआ। ईसाई मिशनरियों ने उनके विकास के नाम पर बडे़ पैमाने पर धर्म परिवर्तन करवाकर आस्था के संकट को इतना गहरा कर दिया कि उन इलाकों में पहचान का संकट पैदा हो गया। ग्रामदेवता और कुलदेवता जैसे प्राकृतिक रूप से विकसित आस्था के आदर्शों के स्थान पर एक नए देवता की पूजा की परंपरा शुरू की। इस संकट का हल सरकारी स्तर पर कहीं नहीं किया गया। आस्था बदलवाने के काम में हिंदुत्ववादी राजनीतिक  भी घुसे लेकिन उन्होंने भी आदिवासी जीवनशैली को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन लोगों ने स्थानीय देवताओं के बजाय हनुमान जी की पूजा करवाने पर जोर दिया। स्थानीय भावनाओं पर अपने पूर्वाग्रहों को लादने के इस खेल के लिए सभी पार्टियां बराबर की जिम्मेदार हैं।
संविधान में व्यवस्था है कि सरकारी नौकरियों में आदिवासी लोगों के लिए आरक्षण रहेगा लेकिन जब उनके पास बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं है तो वे सरकारी नौकरियों तक पहुंचेगे कैसे। इन लोगों की शिक्षादीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई इसलिए इनके लिए रिजर्व नौकरियों में वे लोग घुस गए जो अपेक्षाकृत विकसित थेशिक्षित थे लेकिन आदिवासी श्रेणी में आते थे। राजस्थान की एक ऐसी ही बिरादरी का आजकल सरकारी नौकरियों में दबदबा है। लेकिन बिहारउड़ीसापश्चिम बंगालआंध्रप्रदेश 
और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों के लोगों को केंद्रीय नौकरियों में ठिकाना नहीं मिला क्योंकि उनके पास पढ़ने लिखने का साधन नहीं था। नतीजा यह हुआ कि उनका शोषण और बढ़ गया। 
इन आदिवासी इलाकों का दुर्भाग्य यह भी था कि इनके अपने बीच से जो नेता भी निकले उनकी ईमानदारी संदिग्ध रही। शिबू सोरेन और उनके परिवार की गाथाएं जगजाहिर हैं। इसी तरह के और भी बहुत से नेता देखे और सुने गए हैं। तथाकथित मुख्यधारा में लाने की कोशिश में भी इनके ऊपर चौतरफा हमला हुआ। जहां भी प्रोजेक्ट लगाए गए वहां के सारे जीवन मूल्य बदल दिए गए। आदिवासी इलाकों के शोषण के रोज ही नए तरीके निकाले गए। एक मुकाम पर तो लगता था कि आदिवासियों के शोषण की सारी सीमाएं पार कर ली गई हैं। लेकिन ऐसा नहीं थाजब बालको का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अधिग्रहण किया तब लगा कि आने वाला वक्त इन इलाकों के शोषण की नई ऊंचाइयां देगा। बहरहाल अब साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने सत्ता और पूंजी की ताकत इन आदिवासियों के सर्वनाश के लिए झोंक दिया है। और इस मामले में बीजेपी और कांग्रेस में कोई भेद नहीं है। दोनों ही सलवा जुडूम के रास्ते चल रहे थे इस संगठन को अपना मानते थे .आजादी की बाद की राजनीतिक पार्टियों ने आदिवासी इलाकों में मूल निवासियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भी नज़र अंदाज किया। जबकि आज़ादी की लड़ाई में सबसे अधिक कुर्बानी इस इलाके के आदिवासियों के नाम दर्ज है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ और झारखंड से आए नेताओं पर एक नजर डालिए। वही भाई लोग जो वहां की खनिज संपदा से लाभ लेने पहुंचे थेवही आज वहां के नेता बने बैठे हैं। और जो नेता वहां से निकले भी वे इन्हीं पूंजीवादी शोषक नेताओं के पिछलग्गू बन गए जिसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति की संसदीय जनतंत्र की धारा में यह लोग नहीं आ सके। जब बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी हितों को लगा कि दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों की मदद से इन इलाकों पर कब्जा नहीं जमाया जा सकता तो साम्राज्यवादी विस्तारवाद के इन पोषकों ने कुछ ट्रास्टकीवादियों को पकड़ लिया। आदिवासी इलाकों में माओवाद के नाम जो आतंक का राज कायम किया जा रहा हैवह इन्हीं दिग्भ्रमित अति वामपंथियों की कृपा से हो रहा है। मार्क्सवादी लफ्फाजी की मदद से इन्हें हथियार उठाने के लिए तैयार किया गया है। इनकी राजनीतिक शिक्षा शून्य है। ध्यान से देखें तो समझ में आ जाएगा कि इन इलाकों में आदिवासियों के गुस्से का निशाना उन्हीं लोगों को बनाया जा रहा है जो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिनिधि है। निजी या बहुराष्ट्रीय हितों को कहीं भी निशाने पर नहीं लिया जा रहा है।
इस पृष्ठभूमि में ज़रूरी यह है कि आदिवासी इलाकों में ऐसे विकास कार्यक्रम चलाएं जिनका फायदा केवल आदिवासियों को हो। हालांकि यह बहुत बड़ी बात है लेकिन इससे कम पर बात बनने की संभावना नहीं है। मुद्दा यह है कि आदिवासियों के दमन की जो साजिशें शासक वर्गों की सोच का स्थायी भाव बन चुकी हैं उसको रोका  जाना चाहिए और २५ मई की घटना के बहाने सरकारी दमन को राजनीतिक हथियार बनाए जाने का विरोध किया जाना चाहिए .

Thursday, May 30, 2013

सीरिया का गृहयुद्ध लेबनान के रास्ते एक क्षेत्रीय युद्ध में बदल सकता है


शेष नारायण सिंह 
अमरीका सहित अन्य यूरोपीय देशों की सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश एक नए और खतरनाक दौर में पंहुच गयी है . २५ मई को हेज़बोल्ला संगठन के मुखिया हसन नसरुल्ला ने ऐलान किया कि बशर अल-असद को राष्ट्रपति पद से हटाने की कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा . टेलिविज़न पर दिया गया हसन नसरुल्ला का यह भाषण पूरे लेबनान में देखा गया जिसमें उन्होंने कहा कि ,” यह हमारी लड़ाई है और हम इसमें फतेह्याब  होगें .उन्होंने कहा कि अब युद्ध एक नए दौर में पंहुच गया है .”  उधर यूरोपीय यूनियन ने सीरिया पर लागू हथियारों की पाबंदी को हटा लिया है . हालांकि सीरिया के ऊपर लगी हथियारों की पाबंदी को हटाने का यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों नें विरोध किया लेकिन ब्रिटेन और नीदरलैंड्स जैसे देशों ने पाबंदी को हटाने की जोरदार मांग की . इसका मतलब यह हुआ कि अब अमरीका के मित्र देश सीरिया के राष्ट्रपति को हटाने की मुहिम में लगी अधिकांशतः सुन्नी  लड़ाकुओं की जमात को जमकर हथियार  देगें . यूरोपीय यूनियन  के मेंबर कई देशों ने तो कहा कि इस बात की पूरी संभावना है कि अगर सीरियाई विद्रोहियों को हथियार दिए गए तो वे अल-कायदा के  हाथों में पंहुच जायगें और उनका इस्तेमाल यूरोप और अमरीका के हितों के खिलाफ होगा लेकिन दमिश्क में अफगानिस्तान या इराक जैसी वफादार हुकूमत करने की जल्दी में अमरीका कुछ भी करने को तैयार नज़र आ रहा है .ब्रसेल्स में हुई यूरोपीय यूनियन की बैठक में एक मुकाम पर तो यह तर्क दिया गया कि अगर पाबंदी हटा ली गयी तो रूस और इरान सीरिया के राष्ट्रपति  को खुले आम हथियार  मुहैया करवाने लगेगें लेकिन बात आई गई हो गयी क्योंकि स्वीडन के विदेशमंत्री ने  कहा कि यह दोनों देशों बशर अल असद को खूब हथियार दे चुके हैं .अब और अधिक हथियार देकर उनकी लड़ाई की ताक़त को नहीं बढ़ाया जा सकता ,उससे उनका हथियारों का ज़खीरा ही मज़बूत होगा .हालैंड के विदेशमंत्री फ़्रांस टिमरमैंस ने कहा कि हथियारों के निर्यात पर लगी पाबंदी हटा ली गयी है उन्होंने इस बात पर खुशी ज़ाहिर की कि बाकी आर्थिक पाबंदियां बरकारार हैं .इसका मतलब यह नहीं कि यूरोपीय यूनियन के सदस्य देश तुरंत ही सीरिया के बागियों के लिए हथियार भेजना शुरू कर देगें लेकिन यह बात मुकम्मल तौर पर सही है कि अब  सीरिया पर कब्जे की लड़ाई में हथियारों की कमी नहीं रह जायेगी. आस्ट्रिया ,चेक रिपब्लिक और स्वीडन ने सीरिया को हथियार भेजने का ज़बरदस्त विरोध किया .उनका कहना था कि सीरिया में जो विरोधी ताक़तें हैं उनके अलकायदा वालों से अच्छे सम्बन्ध हैं और जो हथियार बशर अल-असद के  खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए भेजे जायेगे, वे धार्मिक आतंकवादियों के हाथों भी लग सकते हैं .

 हेज़बोल्ला का सीधे तौर पर युद्ध में शामिल होना और यूरोपीय यूनियन की हथियारों की सप्लाई के मद्दे नज़र यह बात तय है कि यह लड़ाई अब बढ़ जायेगी. हेज़बोल्ला के शामिल होने के मतलब यह है कि लेबनान तो अब लड़ाई में शामिल ही  हो गया है क्योंकि हेज़बोल्ला का मुख्यालय लेबनान में ही है .और उस पर अभी इसी हफ्ते राकेट से हमला हो चुका है . हेज़बोल्ला और इरान में जो सम्बन्ध हैं उसके चलते इरान पूरी तरह से  सीरिया की लड़ाई में शामिल है ही. क्योंकि अल्वी सम्प्रदाय के शिया बशर अल-असद को सीरिया के बहुमत वाले सुन्नी अवाम पर हुकूमत का अवसर उपलब्ध कराते रहना इरान की नीति का एक प्रमुख हिस्सा है . हेज़बोल्ला का खुले आम  सीरिया की सरकार की मददमें  जाना इस लड़ाई के लिए बहुत ही खतरनाक  संकेत हैं .हालांकि अभी भी  हेज़बोल्ला के लड़ाके सीरिया की फौज के साथ बागियों के खिलाफ लड़ाई मेंशामिल हैं लेकिन औपचारिक रूप से इसका ऐलान नहीं किया जा रहा थाअब हसन नसरुल्ला के ऐलान के ाद तस्वीर बदल जायेगी .हसन नसरुल्ला के लिएबशर अल-असद  की सत्ता को कायम रखना उनके अपने अस्तित्व से भी जुड़ा हुआ है .  लेबनान में रहकर अपना अभियान चलाने वाले हेज़बोल्ला  लिएइरान के साथ सड़क मार्ग से संपर्क रखने का रास्ता सीरिया  अंदर से ही है . अगर सीरिया  किसी ऐसी सत्ता का कब्ज़ा हो या जो अमरीका या अन्ययूरोपीय यूनियन सदस्यों के प्रति वफादार ुई तो हेज़बोल्ला के लिए बहुत मुश्किल पेश आयेगी  ,उसका अपने सबसे बड़े समर्थक से संपर्क खत्म हो जाएगा.ऐस हालत में असद के लिए तो दमिश् की सत्ता पर काबिज रहना बहुत ही अहम है ही , हेज़बोल्ला के लि भी कम महत्वपूर्ण नहीं है .
उधर अमरीका अपनी तिकडम की विदेशनीति को लागू करने की योजना पर भी लगातार काम कर रहा है .पेरिस में अमरीकी विदेशमंत्री जान केरी और रूस के विदेशमंत्री सर्जेई लेवरोव के बीच एक मुलाक़ात हुई है जिसमें अगले महीने जिनेवा में प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय शान्ति सम्मलेन के लिए समर्थन जुटाने की योजना पर बात हुई है . इस सम्मलेन का एजेंडा ही यह  है कि बशर अल-असद को हटाकर किसी कठपुतली हुकूमत को सीरिया में कैसे बैठाया जाए. इस बातचीत में शामिल होने के लिए असद की सरकार तैयार है लेकिन सुन्नी प्रमुखता वाले विपक्ष के नेता अभी सलाह मशविरा कर रहे हैं .
सीरिया की आतंरिक  लड़ाई मार्च २०११ में शुरू हुई थी और अब तक सत्तर हज़ार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं लेकिन अभी ऐसा कोई संकेत नहीं है कि लड़ाई खत्म होने वाली है . कोई भी पक्ष अपनी पोजीशन से पीछे हटने को तैयार नहीं है .ताज़ा स्थिति यह है कि दमिश्क से समुद्र की तरफ जाने वाली सड़क के शहर कुसैर पर कब्जे के लिए घमासान युद्ध चल रहा है .सरकारी फौजों ने हेज़बोल्ला के लड़ाकों की मदद से हमीदिया कस्बे पर कब्जा कर लिया है और कुसैर की घेराबंदी को मज़बूत कर लिया है. ऐसे माहौल में सीरिया की सरकारी फौजों के साथ हेज़बोल्ला का ऐलानियाँ शामिल होना इस युद्ध को एक क्षेत्रीय युद्ध बना सकता है .अभी सीरिया की लड़ाई मूल रूप से देश के बहुसंख्य सुन्नी और शासक शिया के बीच हक की  लड़ाई है .दोनों पक्ष खिलाफ पार्टी की ताक़तों को बेझिझक क़त्ल कर रहे हैं .हेज़बोल्ला के शामिल होने के बाद सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का पलड़ा बहुत भारी हो जाएगा. लगता है कि इसी समर्थन के असर को कमज़ोर करने के उद्देश्य से यूरोपीय देशों ने अब सीरियाई बागियों को हथियार देने का फैसला किया है .
सीरिया के  गृहयुद्ध का असर बाकी दुनिया पर तो कूटनीति के स्तर पर पडेगा लेकिन लेबनान में इस लड़ाई का सीधा असर पड़ने वाला है .लेबनान १९७५ के बाद से अपने ही गृह युद्ध की आग में झुलस चुका है . १९९० के बाद से वहाँ थोड़ी शान्ति हुई है . वहाँ की शिया,सुन्नी और ईसाई आबादी के बीच मौजूद बहुत ही नाज़ुक रिश्तों की बुनियाद पर टिकी लेबनान की शान्ति में हेज़बोल्ला के शिया शासक के पक्ष में ऐलानियाँ उतर जाने के बाद निश्चित रूप से बदलाव आएगा . डर  यह है कि यह  बदलाव लेबनान में ही शिया-सुन्नी संघर्ष में न तब्दील हो जाए. वहाँ हेज़बोल्ला कहने को तो एक राजनीतिक जमात है लेकिन उसके पास फौज भी है और वह फौज लेबनान की सेना से भी भारी है .इसलिए हेज़बोल्ला का खुले आम सीरिया में शिया शासक के साथ शामिल होना लेबनान के अंदर के शिया सुन्नी रिश्तों को प्रभावित करने की क्षमता  रखता है . पश्चिम एशिया की राजनीति के जानकारों को मालूम है कि हेज़बोल्ला को लेबनान में  कोई भी नहीं धमका सकता है . इसलिए जानकार आशंका जता रहे हैंकि अभी तक जो सीरिया के युद्धस्थल है वह आगे चल कर सीरिया और लेबनान का संयुक्त मैदान न बन जाए. लेबनान के सुन्नी लोग भी गुपचुप तरीके से सीरिया में बागियों की मदद में जाते रहे हैं . सीरिया के बागियों ने भी बार बार हेज़बोल्ला को चेताया है कि अगर वह सीरिया में सुन्नियों के खिलाफ मोर्चे में शामिल होता है तो लड़ाई से फारिग  होकर हेज़बोल्ला को भी निशाना बनाया जाएगा. इस सारी स्थिति का मतलब यह है कि इस क्षेत्र में जारी खूंखार युद्ध के भौगोलिक दायरे में वृद्धि के संकेत साफ नज़र आ रहे हैं .अभी मार्च में लेबनान के सुन्नी राजनेता और प्रधानमंत्री नजीब मिकाती ने इस्तीफा दे दिया था .सबको मालूम है कि हेज़बोल्ला की मर्जी के खिलाफ जाकर लेबनान में किसी भी प्रधानमंत्री का सत्ता में बने रहना असंभव होता है .खासकर जबकि सीमा के उस पार हेज़बोल्ला के लड़ाके सुन्नियों को चुन चुन कर मार  रहे हों .
सीरिया में बगावत शुरू हुए दो साल हो गए हैं . अमरीका का दावा है कि उसने बागियों को हथियार नहीं दिया है . लेकिन अमरीकी नीति निर्धारक भी स्वीकार करते हैं उन्होंने सीरियाई बागियों को अन्य तरह से मदद दी है . इसका मतलब यह हुआ कि सीरिया के बागियों के पास जो हथियार हैं उसमें अमरीकी धन की भूमिका है . वैसे भी पूरे पश्चिम एशिया में अमरीका के मदद से बहुत सारे हथियार फैले पड़े हैं और वे हथियार सीरियाई बागियों के पास पंहुच रहे हैं.. राष्ट्रपति ओबामा प्रकट रूप से अपने आपको अभी सीरिया के मामले से अलग रखा हुआ है .वे कहते हैं कि सरिया की लड़ाई में बहुत सारी पेचीदगियां  हैं और उनमें फंसना खतरे से खाली नहीं . ओबामा का यह तर्क अब तक तो चल रहा था लेकिन अब खेल बदल चुका है . हेज़बोल्ला के ऐलानियाँ शामिल हो जाने के बाद बाद सीरिया की लड़ाई को पश्चिम एशिया के अन्य देशों में जाने से कोई रोक नहीं सकता . ऐसी हालात में अमरीका का इस से बिलकुल बाहर रह पाना संभव नहीं रह जाएगा और अमरीका के शामिल होने के मतलब  अलग अलग इलाकों में अलग अलग संदर्भों में देखा जाएगा लेकिन एक बात तय है कि अमरीकी राजनीति और विदेशनीति को एक बार फिर बहुत ही भयानक परीक्षा के दौर से गुज़रना पडेगा .