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Sunday, June 2, 2013

छत्तीसगढ़ में सरकारी दमनतंत्र को राजनीतिक हथियार बनाना खतरनाक होगा



शेष नारायण सिंह



सुकमा के जंगलों में कांग्रेसी नेताओं की हत्या के मामले में देश की राजनीति में तरह तरह के सवाल उठना शुरू हो गए हैं .केन्द्र सरकार के एक खेमे में तो इस हत्याकांड को इस बात का सबसे बड़ा बहाना माना जा रहा है कि अब मौक़ा है कि माओवादियों को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाए. माओवादी इलाकों में सरकारी दमनतंत्र के ज़रिये कब्जा करने वालों को इस बात की परवाह नहीं है कि माओवादियों का सफाया करने के चक्कर में पूरे इलाके में रहने वाले आदिवासियों का सर्वनाश हो जाएगा . लगता है  कि सरकारी दमनतंत्र को इस्तेमाल करने वालों को इस बात का भी अंदाज़ नहीं है कि इसी नीति का पालन करके सलवा जुडूम ने सब कुछ बर्बाद कर दिया था . जल जंगल और ज़मीन के लिए आदिवासियों की जो लड़ाई शुरू हुई थी ,उसको माओवादी विचारधारा वालों ने नेतृत्व प्रदान किया और आज वही आदिवासी उन योजनाओं को भी एक शिकंजा मानते हैं जो उनके कल्याण के लिए सरकार की तरफ से चलाई जाती हैं . छत्तीसगढ़ , बिहार और उड़ीसा में ऐसी सरकारें हैं जो किसी भी वामपंथी आंदोलन को कम्युनिस्ट कहकर उनपर हमला बोलने के लिए आमादा रहती हैं. दरअसल बीजेपी या उसकी विचारधारा से सहानुभूति रखने वाले नेता और उनकी पार्टियां उस तैयारी में जुटी हुई हैं जिस तैयारी में १९३३ में जर्मनी की सत्ताधारी पार्टी जुट गयी थी. उस वक़्त की सरकार ने  हर उस व्यक्ति को जो उनसे अलग राय रखता था ,कम्युनिस्ट नाम दे दिया था और उसे मार डाला था. दिल्ली के सत्ता के गलियारों में मौजूद वे नेता भी उसी मानसिक सोच के हैं जो सरकारी सत्ता का इस्तेमाल करके विरोधी को तबाह कर देने की बात के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकते.  केन्द्र सरकार ने यह तय किया था कि माओवादी आतंक से प्रभावित इलाकों में आदिवासियों के विकास को मुख्य एजेंडा में लाया जाएगा. सोनिया गांधी के दो सिपहसालार इस काम पर लगा भी दिए गए थे और काम ढर्रे पर चल भी रहा था . जयराम रमेश को ग्रामीण विकास और किशोर चन्द्र देव को आदिवासी  कल्याण का मंत्रिमंडल देकर यह मान लिया गया था कि सब ठीक हो जाएगा लेकिन जब २६ मई को रविवार होने के बावजूद जयराम रमेश ने अपने दफ्तर में कुछ पत्रकारों को बुलवाकर बात की तो साफ़ लग रहा था कि इस आदमी के हाथ के तोते उड़ गए हों , जयराम रमेश की बात से उस मजबूर आदमी की आवाज़ निकल रही थी जिसका घर  अभी अभी आग के हवाले कर दिया  गया  हो . जब उनसे पूछा गया कि बातचीत का रास्ता क्या अभी भी खुला है तो उन्होंने साफ़ कहा कि हालांकि बातचीत की संभावना को नकारा नहीं जा सकता लेकिन अभी तो बातचीत का माहौल नहीं है . उन्होंने इस बात पर ताज्जुब जताया कि नन्द कुमार पटेल को क्यों मार डाला गया जबकि उन्होंने हमेशा आदिवासियों के दमन के खिलाफ आवाज़ उठायी थी. इसी तरह का पछतावा आदिवासी कल्याण के मंत्री किशोर चन्द्र देव की आवाज़ में भी था जब वे किसी टी वी चैनल से बात कर  रहे थे . उन्होंने कहा कि सलवा जुडूम को बढ़ावा देना बिलकुल गलत नीति थी . उन्होंने कहा कि इस नीति के चलते आदिवासी समाज में जो दरारें पडी हैं उनको  ठीक कर पाना बहुत मुश्किल होगा .उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कांग्रेसी नेताओं की परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले में कुछ नेताओं और कारपोरेट घरानों की साज़िश भी  हो सकती है .उन्होंने कहा कि सलवा जुडूम क्या था . इस योजना में कुछ आदिवासियों को उनके घरों से निकाल कर रिफ्यूजी कैम्प में रख दिया गया . बाकी लोगों को माओवादियों ने अपने साथ ले लिया उसके बाद आदिवासी नौजवानों को  अपने ही भाई बन्दों के खिलाफ इस्तेमाल करके हत्याएं की गयीं इस से बुरा क्या हो सकता था . उन्होंने कहा कि माओवादियों को कुछ नेता अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं .इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि आतंकवादियों और कारपोरेट घरानों के बीच किस तरह के सम्बन्ध हैं . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया है कि इस  २५ मई के हमले के टारगेट नन्द कुमार पटेल ही थे . दिग्विजय सिंह ने सवाल किया है  कि नन्द कुमार पटेल को क्यों  तलाश किया जा रहा था जबकि उन्होंने सलवा जुडूम का विरोध किया था और बस्तर में आदिवासियों पर हो रहे हमलों की हमेशा ही निंदा करते थे और यह बात माओवादियों को अच्छी तरह से मालूम थी . ज़ाहिर है कि आदिवासियों के दमन से जुड़े बहुत सारे सवाल २५ मई की घटना के बाद पूछे जायेगें लेकिन आदिवासियों को पूंजीवादी विकास के माडल से पूरी तरह से अलग थलग करने वाले कारकों की भी पड़ताल की जानी चाहिए .

प्रधानमंत्री ने बार बार अपने  भाषणों में कहा है कि बन्दूक की दहशत की मौजूदगी में आदिवासियों का विकास नहीं हो सकता .आदिवासियों और माओवादियों के ऊपर ज़रूरत से ज्यादा सरकारी दमनतंत्र का इस्तेमाल करने की वकालत करने वाले दिल्ली के सत्ता के ठेकेदार भी प्रधानमंत्री के इसी तर्क को इस्तेमाल करने जा रहे हैं और जानकार बताते हैं कि आने वाले वक़्त में माओवादियों को नेस्तनाबूद करने के बहाने आदिवासियों पर भारी मुसीबतों का पहाड टूटने वाला है .  मार्क्सवादी लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी को भी यही डर है .  सवाल उठता है कि क्या आदिवासी इलाकों के लोग शुरू से ही बंदूक लेकर घूमते रहते थे। आजादी के बाद उन्होंने 50 से भी अधिक वर्षों तक इंतजार किया। इस बीच उनका घर-बार तथाकथित विकास योजनाओं की भेंट चढ़ता रहा। आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा की लालच में सरकारें जंगलों में ऊल जलूल परियोजनाएं चलाती रही। यह परियोजनाएं आदिवासियों के शोषण का सबसे बड़ा साधन बनीं। कहीं भी किसी स्तर पर उनको भागीदारी के अवसर नहीं दिए गए। जहां भी आदिवासी इलाकों में विकास का स्वांग रचा गया वहां आदिवासियों की तबाही की इबारत मोटे अक्षरों में लिख दी गई।
वन संपदा पर उनका अधिकार पूरी तरह से खारिज कर दिया गया और उनकी जीवन शैली पर हमला बोला गया। नई परियोजनाओं के लिए बाहर से गए लोगों ने वहां पर सस्ती मजदूरी पर लोगों को काम पर लगाया। कुछ जगहों से तो लड़कियों के शारीरिक शोषण की ख़बरें भी आती थीं। उनके रीति रिवाजों पर हमला हुआ। ईसाई मिशनरियों ने उनके विकास के नाम पर बडे़ पैमाने पर धर्म परिवर्तन करवाकर आस्था के संकट को इतना गहरा कर दिया कि उन इलाकों में पहचान का संकट पैदा हो गया। ग्रामदेवता और कुलदेवता जैसे प्राकृतिक रूप से विकसित आस्था के आदर्शों के स्थान पर एक नए देवता की पूजा की परंपरा शुरू की। इस संकट का हल सरकारी स्तर पर कहीं नहीं किया गया। आस्था बदलवाने के काम में हिंदुत्ववादी राजनीतिक  भी घुसे लेकिन उन्होंने भी आदिवासी जीवनशैली को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन लोगों ने स्थानीय देवताओं के बजाय हनुमान जी की पूजा करवाने पर जोर दिया। स्थानीय भावनाओं पर अपने पूर्वाग्रहों को लादने के इस खेल के लिए सभी पार्टियां बराबर की जिम्मेदार हैं।
संविधान में व्यवस्था है कि सरकारी नौकरियों में आदिवासी लोगों के लिए आरक्षण रहेगा लेकिन जब उनके पास बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं है तो वे सरकारी नौकरियों तक पहुंचेगे कैसे। इन लोगों की शिक्षादीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई इसलिए इनके लिए रिजर्व नौकरियों में वे लोग घुस गए जो अपेक्षाकृत विकसित थेशिक्षित थे लेकिन आदिवासी श्रेणी में आते थे। राजस्थान की एक ऐसी ही बिरादरी का आजकल सरकारी नौकरियों में दबदबा है। लेकिन बिहारउड़ीसापश्चिम बंगालआंध्रप्रदेश 
और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों के लोगों को केंद्रीय नौकरियों में ठिकाना नहीं मिला क्योंकि उनके पास पढ़ने लिखने का साधन नहीं था। नतीजा यह हुआ कि उनका शोषण और बढ़ गया। 
इन आदिवासी इलाकों का दुर्भाग्य यह भी था कि इनके अपने बीच से जो नेता भी निकले उनकी ईमानदारी संदिग्ध रही। शिबू सोरेन और उनके परिवार की गाथाएं जगजाहिर हैं। इसी तरह के और भी बहुत से नेता देखे और सुने गए हैं। तथाकथित मुख्यधारा में लाने की कोशिश में भी इनके ऊपर चौतरफा हमला हुआ। जहां भी प्रोजेक्ट लगाए गए वहां के सारे जीवन मूल्य बदल दिए गए। आदिवासी इलाकों के शोषण के रोज ही नए तरीके निकाले गए। एक मुकाम पर तो लगता था कि आदिवासियों के शोषण की सारी सीमाएं पार कर ली गई हैं। लेकिन ऐसा नहीं थाजब बालको का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अधिग्रहण किया तब लगा कि आने वाला वक्त इन इलाकों के शोषण की नई ऊंचाइयां देगा। बहरहाल अब साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने सत्ता और पूंजी की ताकत इन आदिवासियों के सर्वनाश के लिए झोंक दिया है। और इस मामले में बीजेपी और कांग्रेस में कोई भेद नहीं है। दोनों ही सलवा जुडूम के रास्ते चल रहे थे इस संगठन को अपना मानते थे .आजादी की बाद की राजनीतिक पार्टियों ने आदिवासी इलाकों में मूल निवासियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भी नज़र अंदाज किया। जबकि आज़ादी की लड़ाई में सबसे अधिक कुर्बानी इस इलाके के आदिवासियों के नाम दर्ज है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ और झारखंड से आए नेताओं पर एक नजर डालिए। वही भाई लोग जो वहां की खनिज संपदा से लाभ लेने पहुंचे थेवही आज वहां के नेता बने बैठे हैं। और जो नेता वहां से निकले भी वे इन्हीं पूंजीवादी शोषक नेताओं के पिछलग्गू बन गए जिसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति की संसदीय जनतंत्र की धारा में यह लोग नहीं आ सके। जब बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी हितों को लगा कि दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों की मदद से इन इलाकों पर कब्जा नहीं जमाया जा सकता तो साम्राज्यवादी विस्तारवाद के इन पोषकों ने कुछ ट्रास्टकीवादियों को पकड़ लिया। आदिवासी इलाकों में माओवाद के नाम जो आतंक का राज कायम किया जा रहा हैवह इन्हीं दिग्भ्रमित अति वामपंथियों की कृपा से हो रहा है। मार्क्सवादी लफ्फाजी की मदद से इन्हें हथियार उठाने के लिए तैयार किया गया है। इनकी राजनीतिक शिक्षा शून्य है। ध्यान से देखें तो समझ में आ जाएगा कि इन इलाकों में आदिवासियों के गुस्से का निशाना उन्हीं लोगों को बनाया जा रहा है जो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिनिधि है। निजी या बहुराष्ट्रीय हितों को कहीं भी निशाने पर नहीं लिया जा रहा है।
इस पृष्ठभूमि में ज़रूरी यह है कि आदिवासी इलाकों में ऐसे विकास कार्यक्रम चलाएं जिनका फायदा केवल आदिवासियों को हो। हालांकि यह बहुत बड़ी बात है लेकिन इससे कम पर बात बनने की संभावना नहीं है। मुद्दा यह है कि आदिवासियों के दमन की जो साजिशें शासक वर्गों की सोच का स्थायी भाव बन चुकी हैं उसको रोका  जाना चाहिए और २५ मई की घटना के बहाने सरकारी दमन को राजनीतिक हथियार बनाए जाने का विरोध किया जाना चाहिए .

Monday, May 27, 2013

छत्तीसगढ़ का माओवादी हमला लोकतंत्र पर हमला है

शेष नारायण सिंह
बस्तर में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के काफिले पर हुए माओवादी हमले की चारों तराफ से निंदा हो रही है . कांग्रेस तो इस हमले का पीड़ित पक्ष है और बीजेपी पहली बार किसी बर्बरतापूर्ण हमले को राजनीतिक रंग देने की कोशिश न करने की अपील करती नज़र आ रही है .बीजेपी में हडकंप है और घबडाहट का आलम यह है कि उनकी महत्वाकांक्षी जेलभरो योजना स्थगित कर दी गयी . बीजेपी के गंभीर नेता माओवादी हमले को आतंकवादी कार्रवाई बता रहे हैं और उस से राजनीतिक स्तर पर निपटने की चर्चा हो रही है . बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी ने माओवादी आतंकवाद का राजनीतिक हल तलाशने की कोशिश शुरू कर दिया है .
जहां तक माओवादियों को कम्युनिस्ट कहने की बात है उसका हर स्तर पर खंडन हो चुका है और सबको मालूम है कि कि माओवादी केवल आतंकवादी हैं , और कुछ नहीं . देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी छत्तीसगढ़ में हुए माओवादी हमले की निन्दा की है . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने एक बयान जारी किया है जिसमें कहा गया है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए बर्बरतापूर्ण हमले की निंदा की है .पार्टी ने कहा है कि इस हमले के बाद छत्तीसगढ़ के कांग्रेस अध्यक्ष सहित  और भी कई नेता और कार्यकर्ता मारे गए हैं . इस बर्बरतापूर्ण घटना ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ माओवादी किस तरह से आतंक से परिपूर्ण हिंसक आचरण करते हैं.पार्टी ने छत्तीसगढ़  सरकार के गैरजिम्मेदार रुख का ज़िक्र किया है और कहा है सरकार ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में सुरक्षा के ज़रूरी क़दम नहीं उठाये . छत्तीसगढ़ सरकार ने माओवादियों से लड़ने के नाम पर निर्दोष आदिवासियों की हत्या करवाई और जब माओवादियों का मुकाबला कारने की बात आयी तो अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया .
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( एम-एल ) ने भी माओवादियों के हमले की निंदा की है और उनके काम को एक दिग्भ्रमित राजनीति का नतीजा बताया है . लेफ्ट फ्रंट की अन्य पार्टियों ने भी इस हमले की निंदा की है . ज़ाहिर है छत्तीसगढ़ सहित कई अन्य राज्यों में आतंक के ज़रिये राजनीति कर रहे माओवादी किसी भी तरह से कम्युनिस्ट नहीं हैं और उनकी सभी राजनीतिक पार्टियों की तरफ से निंदा की जा रही है . ऐसी स्थिति में अति दक्षिणपंथी ताक़तों की उस कोशिश को भी  नाकाम किया जाना चाहिए इसमें नरेंद्र मोदी जैसे लोग माओवादियों को  कम्युनिस्ट बताकर देश के लोकतांत्रिक वामपंथी आंदोलन को तबाह करने की योजना पर काम शुरू कर चुके हैं . देश में सही राजनीतिक परंपरा को विकसित करने के उद्देश्य से इन लोगों की अराजकतावादी राजनीति को रोका जाना चाहिए .
कांग्रेस के युवा संगठनों के नेता बीजेपी की छत्तीसगढ़ सरकार को बरखास्त कारने की मांग शुरू कर चुके हैं . छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अजीत जोगी भी रमण सिंह सरकार क बर्खास्त करने की मांग कर चुके हैं . लेकिन सबको मालूम है कि किसी राज्य सरकार को बर्खास्त करके इतनी खतरनाक और बराबर समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता .रायपुर की शोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन  सिंह ने भी राजनीतिक अडवेंचर की भावना को कोई महत्व नहीं दिया . प्रधानमंत्री के साथ रायपुर से लौटकर केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश  ने पत्रकारों से बताया कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों का हमला लोकतंत्र को कमज़ोर करने की साजिश का नतीजा है .उन्होंने कहा कि आतंक का सहारा लेकर माओवादी लोकतंत्र को कमज़ोर करना चाहते हैं क्योंकि अगर खुले आम चुनाव प्रचार करने पर आतंक का साया पड़ जाएगा तो किसी भी हालत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं चल सकती. इस बीच छत्तीसगढ़ एक मुख्यमंत्री रमन सिंह ने आत्नकवादी हमले की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग के गठन की घोषणा कर दी है .

Saturday, December 25, 2010

डॉ बिनायक सेन को सज़ा देने के लिए हुकूमत ने किया पुलिस का इस्तेमाल

शेष नारायण सिंह

छत्तीसगढ़ में रायपुर की एक अदालत ने मानवाधिकार नेता , डॉ. बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी. पुलिस ने डॉ सेन पर कुछ मनगढ़ंत आरोप लगाए हैं लेकिन उनपर असली मामला यह है कि उन्होंने छत्तीसगढ़ रियासत के शासकों की भैंस खोल ली है . बिनायक सेन बहुत बड़े डाक्टर हैं, बच्चों की बीमारियों के इलाज़ के जानकार हैं . किसी भी बड़े शहर में क्लिनिक खोल लेते तो करोड़ों कमाते और मौज करते . शासक वर्गों को कोई एतराज़ न होता .छतीसगढ़ का ठाकुर भी बुरा न मानता लेकिन उन्हें पता नहीं क्या भूत सवार हुआ कि वे पढ़ाई लिखाई पूरी करके छत्तीसगढ़ पंहुच गए और गरीब आदमियों की मदद करने लगे. अगर उन्हें गरीब आदमियों की मदद करनी थी तो छत्तीसगढ़ के बाबू साहेब से मिलते और सलवा जुडूम टाइप किसी सामजिक संगठन में भर्ती हो जाते. गरीब आदमी की मदद भी होती और शासक वर्ग के लोग खुश भी होते . लेकिन उन्होंने राजा के खिलाफ जाने का रास्ता चुना और असली गरीब आदमियों के पक्षधर बन गए . केसरिया रंग के झंडे के नीचे काम करने वाले छत्तीसगढ़ के राजा को यह बात पसंद नहीं आई और जब उनकी चाकर पुलिस ने फर्जी आरोप पत्र दाखिल करके उन्हें जेल में भर्ती करवा दिया है तो देश भर में लोकतंत्र और नागरिक आज़ादी की बात करने वाले आग बबूला हो गए हैं और अनाप शनाप बक रहे हैं . दिल्ली हाई कोर्ट में पूर्व मुख्य न्यायाधीश , राजेन्द्र सच्चर कहते हैं कि न्याय नहीं हुआ . मुझे ताज्जुब है कि जस्टिस सच्चर इस तरह की गैर ज़िम्मेदार बात क्यों कर रहे हैं . उनके स्वर्गीय पिता जी , स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,भीमसेन सच्चर ने तो सत्ता के मद में पागल लोगों की कारस्तानियों को बहुत करीब से देखा है . वे आज़ादी के बाद भारतीय पंजाब के मुख्य मंत्री थे . आज का दिल्ली , हरियाणा , हिमाचल प्रदेश और भारतीय पंजाब तब एक सूबा था . स्व भीमसेन सच्चर उसी राज्य के मुख्य मंत्री थे और जब उनको 1975 में लोकतंत्र की रक्षा की बीमारी लगी तो जेल में ठूंस दिए गए . उनपर इमरजेंसी की मार पड़ गयी थी . जब वे जेल के अन्दर बंद करने के लिए ले जाए जा रहे थे तो उन्होंने जेल के गेट पर लगी शिलापट्टिका को पढ़ा . लिखा था " इस जेल का शिलान्यास पंजाब के मुख्य मंत्री ,श्री भीमसेन सच्चर के कर कमलों से संपन्न हुआ. " मुस्कराए और आगे बढ़ गए . तो जब उन आज़ादी के दीवानों को जिनकी वजह से इमरजेंसी की देवी प्रधान मंत्री बनी थीं ,भी जेल में ठूंसा जा सकता है तो डॉ बिनायक सेन की क्या औकात है . उनका तो छत्तीस गढ़ के बाबू या उनके दिल्ली वाले आकाओं पर कोई एहसान नहीं है , उनको जेल में बंद करने में कितना वक़्त लगेगा . यहाँ यह भी समझने की गलती नहीं करनी चाहिए कि बिनायक सेन को जेल में ठूंसने वाली सरकार और स्व भीमसेन सच्चर को जेल में बंद करने वाली सरकार की विचारधारा अलग थी . ऐसा कुछ नहीं था . दोनों ही शासक वर्गों के हित साधक हैं और दोनों ही गरीब आदमी को केवल मजदूरी करने का हक देने के पक्ष धर हैं . ऐसी मजदूरी जिसमें मेहनत की असली कीमत न मिले . डॉ बिनायक सेन की गलती यह है कि उन्होंने अपने आपको उन गरीब आदमियों के साथ खड़ा कर दिया जिनका शोषण शासक वर्गों के लोग कर रहे थे और डॉ सेन ने उनको जागरूक बनाने की कोशिश की . इसके पहले इसी गलती में जयप्रकाश नारायण को जेल की हवा खानी पड़ी थी.महात्मा गाँधी और उनके सभी साथियों को 1920 से 1945 तक बार बार जेल जाना पड़ा था .उनका भी जुर्म वही था जो बिनायक सेन का है यानी गरीब आदमी को उसके हक की बात बताना.. शासकवर्ग शोषित पीड़ित जनता के जागरण को कभी बर्दाश्त नहीं करता . जो भी उन्हें जागरूक बनाने की कोशिश करेगा , वह मारा जायेगा. वह महात्मा गाँधी भी हो सकता है , जयप्रकाश नारायण हो सकता है , या बिनायक सेन हो सकता है . एक बात और. अगर महात्मा गाँधी के साथ पूरा देश न खड़ा हुआ , तो आज उनकी कहानी का कोई नामलेवा न होता . जेपी के साथ भी देश का नौजवान खड़ा हो गया तो सत्ता के मद में पागल लोग हार गए . अगर हुजूम न बना होता तो सब को मालूम है कि इमरजेंसी की देवी ने हर उस आदमी को जेल में बंद कर दिया था जो जयप्रकाश नारायण को सही मानता था . अगर सब उनके साथ न आ गए होते तो जेपी के साथ साथ हर उस आदमी की मौत की खबर जेल से ही आती जो लोकतंत्र और नागरिक आज़ादी को सही मानते थे. डॉ बिनायक सेन के केस में भी यही होने वाला है. अगर लोकशाही की पक्षधर जमातें ऐलानियाँ उनके साथ न खडी हो गयीं तो सब का वही हाल होगा जो बिनायक सेन का हुआ है .बिनायक सेन के दुश्मन छत्तीस गढ़ के राजा हैं लेकिन उनके साथी हर राज्य में हैं , कहीं वे कांग्रेस पार्टी में हैं तो कहीं बीजेपी में लेकिन हैं सभी लोकतंत्र की मान्यताओं के दुश्मन . इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि देश भर में वे लोग मैदान ले लें जो नागरिक आज़ादी और जनवाद को सही मानते हैं . वरना आज जो लोग बिनायक सेन का घर जलाने पंहुचे हैं वे कल मेरे और आपके दरवाज़े भी आयेगें और हमारे साथ खड़ा होने के लिए कोई नहीं होगा .