शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के फैसले के बाद संघी बिरादरी खुश है . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली है और अब वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी इसी में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. शायद इसीलिए जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा अपनी जगह है और यह फैसला अपनी जगह तो संघ की राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और बयान देने लगे. टेलेविज़न की कृपा से पत्रकार बने कुछ लोग अखबारों में लेख लिखने लगे कि देश की जनता ने शान्ति को बनाए रखने की दिशा में जो काम किया है वह बहुत ही अहम है. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बक रहे हैं जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा है. लेकिन सवाल तो उठ रहे हैं और उम्मीद की जानी चाहिये कि अगले कुछ दिनों में अयोध्या की विवादित ज़मीन के फैसले में जो सूराख हैं वह सारी दुनिया के सामने आ जायेगें . इस बीच धर्मनिरपेक्ष ताक़तों में भी कमजोरी नज़र आ रही है . आम तौर पर सही सोच वाले बहुत सारे लोग अब अजीब बात करने लगे हैं . वह कह रहें हैं कि कितना संयम बरत रहा है हिंदुस्तान . कोई हिंसा नहीं . आम मुसलमान उन्हें याद आ गया है जो सिर्फ रोज़ी रोटी चाहता है . कह रहे हैं कि वह बहुत खुश है फैसले से . सरकार की तारीफ़ कर रहे हैं और इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात कर रहे हैं जिन्होंने यह फैसला सुनाया आज भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है और उस से उम्मीद की जा रही है की वह खुश रहे . पिछले दो महीने से इस फैसले के आने की खबर को इतनी हवा दी गयी है की आम मुसलमान डरा हुआ है कि पता नहीं क्या होगा. ऐसे में सवाल यह उठता है की अगर फैसला कानून के आधार पर हुआ होता और आस्था के आधार पर न हुआ होता ,तो भी क्या इतना ही संयम रहता . सब को मालूम है की संघी बिरादारी बहुत पहले से कहती आ रही थी कि अगर फैसला सुन्नी वक्फ बोर्ड के पक्ष में गया तो वे इस फैसले को नहीं मानेगें. ज़ाहिर है कि फैसला आर एस एस का पसंद का आया है ,इसलिए वे संयम की बात कर रहे हैं . इस तथाकथित संयम के अलम्बरदार यह भी कह रहे हैं की मुसलमान ने संयम दिखा कर बहुत अच्छा किया . इसका अर्थ यह हुआ कि पहले जो भी दंगे होते थे वह मुसलमान की करवाता था. इस फैसले के बाद लगता है कि अब आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह है कि इस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही है . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही है . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही है कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए कि कि इस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होगा. यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं है. यह एक हाई कोर्ट का फैसला है ज्सिको कि बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है . जिसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगेगें.
इस बीच खबर है कि दिल्ली के कुछ बुद्धिजीवियों ने इस फैसले से पैदा होने वाले नतीजों के बारे में विचार किया है और तय किया गया है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर यह आदेश लेने की कोशिश करेगें कि क्या आस्था के सवाल पर अदालत को फैसला देने की आज़ादी है . यह भी सवाल पूछा जाएगा कि क्या कानून को दरकिनार करके किसी विवाद पर आया फैसला मानने के लिए जनता को बाध्य किया जा सकता है . कुछ जागरूक वर्गों की कोशिश है कि सभी राजनीतिक दलों को भी इस फैसले पर अपनी राय बनाने को मजबूर किया जाए, उनसे सार्वजनिक मंचों से सवाल किये जाएँ और भारत के संविधान को बचाने की कोशिश में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाये.
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Sunday, October 3, 2010
Friday, October 1, 2010
क्या कांग्रेस महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्ष राजनीति को संभाल पा रही है .
( गाँधी जयंती पर विशेष )
शेष नारायण सिंह
महात्मा गाँधी होते तो १४१ साल के हो गए होते . इस बार महात्मा गाँधी का जन्म दिन बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के मुक़दमे के आस पास ही पड़ रहा है . बाबरी मस्जिद के मामले में संघी राजनीति के चलते जो उबाल आ गया था, वह तो शांत हो गया था लेकिन धार्मिक भावनाओं के सहारे राजनीति करने की बी जे पी की योजना के तहत देश का बहुत नुकसान हुआ है . इस बार भी उनकी कोशिश थी कि फैसला कुछ भी वे झगडा झंझट का माहौल पैदा करेगें .लेकिन लगता है कि अब भारत का हिन्दू आर एस एस की राजनीति का मोहरा बनने को तैयार नहीं है . वह देश की एकता में ज्यादा रूचि रखता है . बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के दिन तो लगने लगा था कि संघी राजनीति सफल हो जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . आज भारत एक है और रहेगा भी . अब लगने लगा है कि आर एस एस के बूते की बात नहीं है कि वह देश को तोड़ सके. .ऐसा इसलिए है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था .आज महात्मा गांधी के जन्म दिन के मौके पर धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए।लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।
कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"
सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।
कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। लेकिन आज एक बार फिर आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है . कांग्रेस पार्टी और सरकार को धर्म निरपेक्षता की राजनीति को सबसे ऊपर रखने के लिए एकजुट होना पडेगा
शेष नारायण सिंह
महात्मा गाँधी होते तो १४१ साल के हो गए होते . इस बार महात्मा गाँधी का जन्म दिन बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के मुक़दमे के आस पास ही पड़ रहा है . बाबरी मस्जिद के मामले में संघी राजनीति के चलते जो उबाल आ गया था, वह तो शांत हो गया था लेकिन धार्मिक भावनाओं के सहारे राजनीति करने की बी जे पी की योजना के तहत देश का बहुत नुकसान हुआ है . इस बार भी उनकी कोशिश थी कि फैसला कुछ भी वे झगडा झंझट का माहौल पैदा करेगें .लेकिन लगता है कि अब भारत का हिन्दू आर एस एस की राजनीति का मोहरा बनने को तैयार नहीं है . वह देश की एकता में ज्यादा रूचि रखता है . बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के दिन तो लगने लगा था कि संघी राजनीति सफल हो जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . आज भारत एक है और रहेगा भी . अब लगने लगा है कि आर एस एस के बूते की बात नहीं है कि वह देश को तोड़ सके. .ऐसा इसलिए है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था .आज महात्मा गांधी के जन्म दिन के मौके पर धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए।लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।
कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"
सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।
कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। लेकिन आज एक बार फिर आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है . कांग्रेस पार्टी और सरकार को धर्म निरपेक्षता की राजनीति को सबसे ऊपर रखने के लिए एकजुट होना पडेगा
आपके गाँव में इसे फैसला कहते हैं
शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद की ज़मीन का फैसला आ गया है . इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने अपना आदेश सुना दिया है .फैसले से एक बात साफ़ है कि जिन लोगों ने एक ऐतिहासिक मस्जिद को साज़िश करके ज़मींदोज़ किया था , उनको इनाम दे दिया गया है . जो टाइटिल का मुख्य मुक़दमा था उसके बाहर के भी बहुत सारे मसलों को मुक़दमे के दायरे में लेकर फैसला सुना दिया गया है. ऐसा लगता है कि ज़मीन का विवाद अदालत में ले जाने वाले हाशिम अंसारी संतुष्ट हैं. हाशिम अंसारी ने पिछले २० वर्षों में अपने इसी मुक़दमे की बुनियाद पर बहुत सारे झगड़े होते देखे हैं .शायद इसीलिये उनको लगता है कि चलो बहुत हुआ अब और झगड़े नहीं होने चाहिए . लेकिन यह फैसला अगर न्याय की कसौटी पर कसा जाए तो कानून के बहुत सारे जानकारों की समझ में नहीं आ रहा है कि हुआ क्या है . सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए एम अहमदी पूछते हैं कि अगर टाइटिल सुन्नी वक्फ बोर्ड की नहीं है तो उन्हें एक तिहाई ज़मीन क्यों दी गयी और अगर टाइटिल उनकी है तो उनकी दो तिहाई ज़मीन किसी और को क्यों दे दी गयी. उनको लगता है कि यह फैसला कानून और इविडेंस एक्ट से ज़्यादा भावनाओं और आस्था को ध्यान में रख कर दिया गया है .इसलिए यह फैसला किसी हाई कोर्ट का कम किसी पंचायत का ज्यादा लगता है . अगर कोर्ट भी भावनाओं को ध्यान में रख कर फैसले करने लगे तो संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का क्या होगा. हाई कोर्ट का फैसला सब की भावनाओं को ध्यान में रख कर किया गया फैसला लगता है .
जहां तक फैसले के कानूनी पक्ष का सवाल है ,वह तो कानून के ज्ञाता तय करेगें. सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील ज़फ़रयाब जीलानी के बयान के बाद यह लगभग तय है कि मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में जाएगा जहां देश के चोटी के विधिवेत्ता मौजूद हैं . वहां पर इस फैसले और अन्य कानूनी पहलुओं की जांच होगी . उसके बाद जो भी फैसला आयेगा वह सब को मंज़ूर होगा क्योंकि उसके ऊपर कोई अदालत नहीं है लेकिन इसके पीछे की राजनीति साफ़ नज़र आ रही है . ऐसा लगता है कि कांग्रेस की मुराद पूरी हो गयी है .अभी एक हफ्ते पहले अपने आपको कांग्रेस का बन्दा बताने वाले एक संसद सदस्य की ओर से अखबारों में छपा था कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन को तीन हिस्सों में बाँट दिया जाएगा . हालांकि यह मानने के कोई सुबूत नहीं हैं कि फैसले को कांग्रेस ने प्रभावित किया है लेकिन लगता है कि फैसला कांग्रेस की मर्जी और खुशी का हुआ है . बी जे पी वाले खुश हैं कि उनकी बात को अदालत ने सही माना है और उनके संगठनों को हिन्दुओं का प्रतिनधि मान कर आर एस एस की राजनीति को चमकने का मौक़ा मिला है . लेकिन यह बात तय है कि आम मुसलमान इस फैसले से खुश नहीं होगा क्योंकि बाबरी मस्जिद की जगह पर अब आर एस एस वाले अपना क़ब्ज़ा जतायेगें और पूरे देश के मुसलमानों को मुंह चिढायेगें . ज़ाहिर है मुसलमानों का शुभचिंतक बनने की कांग्रेस की मुहिम को भी इस आदेश से भारी नुकसान होगा. बी जे पी को भी इस फैसले से कोई राजनीतिक फायदा होता नहीं दिख रहा है . हालांकि मोहन भागवत, लाल कृष्ण आडवानी, प्रवीण तोगड़िया सहित संघ भावना से ओत प्रोत सभी लोग इसे अपनी जीत बता रहे हैं लेकिन इस बात में शक़ है कि संघी राजनीति को कोई ख़ास फायदा होगा . इसका मुख्य कारण है कि मुसलमान इस फैसले के बाद आर एस एस वालों को किसी तरह का ध्रुवीकरण करने का मौक़ा नहीं देगा. हालांकि आर एस एस की कोशिश है कि हाई कोर्ट के आदेश की आड़ में मुसलमानों को अपमानित किया जाए. इस फैसले के बाद एक बात और साफ़ हो गयी है कि आर एस एस की अब हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वह अपने को हिन्दुओं का प्रतिनधि घोषित करे क्योंकि दिल्ली , फैजाबाद , मुंबई आदि शहरों में कुछ मुकामी संघी नेताओं की कोशिश थी कि फैसले के बाद जश्न मनाया जाय लेकिन उनके साथ अपने सदस्यों के अलावा कोई नहीं आया . उसी तरह से मुसलमानों में इस फैसले के बाद गुस्सा तो है लेकिन बाबरी मस्जिद से जुड़े झगड़ों को याद करके वह तकलीफ में डूब जाता है और उन घटनाओं को दुबारा होने से बचाना चाहता है . शायद इसीलिये वह चुप है . मुसलमान कांग्रेस से नाराज़ है क्योंकि कांग्रेस के नेताओं का नाम लेकर कुछ लोग पिछले कई हफ्ते से इसी तरह के फैसले की बात कर रहे थे . उसे लग रहा है कि सब कांगेस ने करवाया है. लेकिन राजनीतिक रूप से बी जे पी को भी कोई फायदा नहीं होगा . उसके हाथ से हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ा सकने का एक बड़ा हथियार छिन गया है . दुनिया जानती है कि अब इस देश में बी जे पी किसी भी मुद्दे पर भीड़ जुटाने की क्षमता खो चुकी है .. इसे देश की जनता की जीत मानी जानी चाहिए क्योंकि अगर बी जे पी कमज़ोर होती है तो देश मज़बूत होता है . जहां तक फैसले के कानूनी पहलू पर सही आदेश की बात है , वह सुप्रीम कोर्ट में ही होगा
बाबरी मस्जिद की ज़मीन का फैसला आ गया है . इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने अपना आदेश सुना दिया है .फैसले से एक बात साफ़ है कि जिन लोगों ने एक ऐतिहासिक मस्जिद को साज़िश करके ज़मींदोज़ किया था , उनको इनाम दे दिया गया है . जो टाइटिल का मुख्य मुक़दमा था उसके बाहर के भी बहुत सारे मसलों को मुक़दमे के दायरे में लेकर फैसला सुना दिया गया है. ऐसा लगता है कि ज़मीन का विवाद अदालत में ले जाने वाले हाशिम अंसारी संतुष्ट हैं. हाशिम अंसारी ने पिछले २० वर्षों में अपने इसी मुक़दमे की बुनियाद पर बहुत सारे झगड़े होते देखे हैं .शायद इसीलिये उनको लगता है कि चलो बहुत हुआ अब और झगड़े नहीं होने चाहिए . लेकिन यह फैसला अगर न्याय की कसौटी पर कसा जाए तो कानून के बहुत सारे जानकारों की समझ में नहीं आ रहा है कि हुआ क्या है . सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए एम अहमदी पूछते हैं कि अगर टाइटिल सुन्नी वक्फ बोर्ड की नहीं है तो उन्हें एक तिहाई ज़मीन क्यों दी गयी और अगर टाइटिल उनकी है तो उनकी दो तिहाई ज़मीन किसी और को क्यों दे दी गयी. उनको लगता है कि यह फैसला कानून और इविडेंस एक्ट से ज़्यादा भावनाओं और आस्था को ध्यान में रख कर दिया गया है .इसलिए यह फैसला किसी हाई कोर्ट का कम किसी पंचायत का ज्यादा लगता है . अगर कोर्ट भी भावनाओं को ध्यान में रख कर फैसले करने लगे तो संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का क्या होगा. हाई कोर्ट का फैसला सब की भावनाओं को ध्यान में रख कर किया गया फैसला लगता है .
जहां तक फैसले के कानूनी पक्ष का सवाल है ,वह तो कानून के ज्ञाता तय करेगें. सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील ज़फ़रयाब जीलानी के बयान के बाद यह लगभग तय है कि मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में जाएगा जहां देश के चोटी के विधिवेत्ता मौजूद हैं . वहां पर इस फैसले और अन्य कानूनी पहलुओं की जांच होगी . उसके बाद जो भी फैसला आयेगा वह सब को मंज़ूर होगा क्योंकि उसके ऊपर कोई अदालत नहीं है लेकिन इसके पीछे की राजनीति साफ़ नज़र आ रही है . ऐसा लगता है कि कांग्रेस की मुराद पूरी हो गयी है .अभी एक हफ्ते पहले अपने आपको कांग्रेस का बन्दा बताने वाले एक संसद सदस्य की ओर से अखबारों में छपा था कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन को तीन हिस्सों में बाँट दिया जाएगा . हालांकि यह मानने के कोई सुबूत नहीं हैं कि फैसले को कांग्रेस ने प्रभावित किया है लेकिन लगता है कि फैसला कांग्रेस की मर्जी और खुशी का हुआ है . बी जे पी वाले खुश हैं कि उनकी बात को अदालत ने सही माना है और उनके संगठनों को हिन्दुओं का प्रतिनधि मान कर आर एस एस की राजनीति को चमकने का मौक़ा मिला है . लेकिन यह बात तय है कि आम मुसलमान इस फैसले से खुश नहीं होगा क्योंकि बाबरी मस्जिद की जगह पर अब आर एस एस वाले अपना क़ब्ज़ा जतायेगें और पूरे देश के मुसलमानों को मुंह चिढायेगें . ज़ाहिर है मुसलमानों का शुभचिंतक बनने की कांग्रेस की मुहिम को भी इस आदेश से भारी नुकसान होगा. बी जे पी को भी इस फैसले से कोई राजनीतिक फायदा होता नहीं दिख रहा है . हालांकि मोहन भागवत, लाल कृष्ण आडवानी, प्रवीण तोगड़िया सहित संघ भावना से ओत प्रोत सभी लोग इसे अपनी जीत बता रहे हैं लेकिन इस बात में शक़ है कि संघी राजनीति को कोई ख़ास फायदा होगा . इसका मुख्य कारण है कि मुसलमान इस फैसले के बाद आर एस एस वालों को किसी तरह का ध्रुवीकरण करने का मौक़ा नहीं देगा. हालांकि आर एस एस की कोशिश है कि हाई कोर्ट के आदेश की आड़ में मुसलमानों को अपमानित किया जाए. इस फैसले के बाद एक बात और साफ़ हो गयी है कि आर एस एस की अब हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वह अपने को हिन्दुओं का प्रतिनधि घोषित करे क्योंकि दिल्ली , फैजाबाद , मुंबई आदि शहरों में कुछ मुकामी संघी नेताओं की कोशिश थी कि फैसले के बाद जश्न मनाया जाय लेकिन उनके साथ अपने सदस्यों के अलावा कोई नहीं आया . उसी तरह से मुसलमानों में इस फैसले के बाद गुस्सा तो है लेकिन बाबरी मस्जिद से जुड़े झगड़ों को याद करके वह तकलीफ में डूब जाता है और उन घटनाओं को दुबारा होने से बचाना चाहता है . शायद इसीलिये वह चुप है . मुसलमान कांग्रेस से नाराज़ है क्योंकि कांग्रेस के नेताओं का नाम लेकर कुछ लोग पिछले कई हफ्ते से इसी तरह के फैसले की बात कर रहे थे . उसे लग रहा है कि सब कांगेस ने करवाया है. लेकिन राजनीतिक रूप से बी जे पी को भी कोई फायदा नहीं होगा . उसके हाथ से हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ा सकने का एक बड़ा हथियार छिन गया है . दुनिया जानती है कि अब इस देश में बी जे पी किसी भी मुद्दे पर भीड़ जुटाने की क्षमता खो चुकी है .. इसे देश की जनता की जीत मानी जानी चाहिए क्योंकि अगर बी जे पी कमज़ोर होती है तो देश मज़बूत होता है . जहां तक फैसले के कानूनी पहलू पर सही आदेश की बात है , वह सुप्रीम कोर्ट में ही होगा
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Thursday, September 30, 2010
कामनवेल्थ खेलों के चक्कर में दिल्ली के शासकों ने अंगेजों की तरह लूट मचाई
शेष नारायण सिंह
दिल्ली दरबार में आजकल बड़े बड़े खेल हो रहे हैं . सबसे बड़ा खेल तो खेल के मैदानों में होना है लेकिन उसके पहले के खेल भी कम दिलचस्प नहीं हैं. जैसा कि आदि काल से होता रहा है किसी भी आयोजन में राजा के दरबारी अपनी नियमित आमदनी से दो पैसे ज्यादा खींचने के चक्कर में रहते हैं . दिल्ली में आजकल दरबारियों की संख्या में भी खासी वृद्धि हुई है . जवाहरलाल नेहरू के टाइम में तो इंदिरा गाँधी की सहेलियां ही लूटमार के खेल की मुख्य ड्राइविंग फ़ोर्स हुआ करती थीं. वैसे लूटमार होती भी कम थी . दिल्ली में जब १९५६ में संयुक्त राष्ट्र की यूनिसेफ की कान्फरेन्स हुई तो एक आलीशान होटल की ज़रूरत थी . जवाहरलाल नेहरू जहां अशोका होटल बन रहा था ,उस जगह पर खुद ही अपनी मार्निंग वाक में जाकर खड़े हो जाते थे. ज़ाहिर है लूटमार की संभावना बहुत कम होती थी .सरकारी प्रोजेक्ट में लूटमार का सिलसिला सही मायनों में तब शुरू हुआ, जब संजय गाँधी दिल्ली की सडकों पर सक्रिय हुए. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से लेकर अर्जुन दास तक जो भी दिल्ली वाले सरकारी धन की लूट में शामिल हुए ,उन्होंने इसी रास्ते को अपनाया. मोरारजी देसाई के काल में लूट के कई दरबार खुल गए थे. उनका अपना अधेड़ बेटा भी इसी धंधे में था और भी कई दरबार थे . लेकिन सरकारी खजाने की लूट का सबसे बड़ा खेल तब शुरू हुआ जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में गठबंधन सरकार बनी जिसमें भ्रष्टाचार के भांति भांति के शिरोमणि शामिल हुए . उसके बाद देवगौड़ा आये जिनका खुद का रिकार्ड ही एक मामूली ठेकेदार का था . जब १९९८ में बी जे पी वाले सत्ता में आये उसके बाद से खजाने की लूट की विधा को एक ललित कला के रूप में विकसित किया गया. कोई बम्बई का ठग था तो कुछ लोग दिल्ली की सडकों पर पत्रकार बन कर टहल रहे थे. कोई दामाद का अभिनय कर रहा था तो कोई दक्षिण की रानी की सहेली का भतीजा था . कोई किसी साहूकार का दलाल था तो कोई खुद ही दलाल भी था और साहूकार भी. कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा बाकी सभी पार्टियों के नेताओं ने अपने घर वालों को लूट का साम्राज्य सौंप दिया. जिनके तन पर कपड़ा नहीं था वे कपड़ा मंत्री बन गए और लूट के नए नए आयाम तलाशे गए. कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जो लूट हो रही है उसमें कोई भी दोषी नहीं पाया जाएगा क्योंकि जैन हवाला काण्ड की तरह सभी पार्टियों के नेताओं के रिश्तेदारों को पूना से आये बांके ने बाकायदा हिस्सा दिया है . उस बेचारे से ग़लती केवल यह हुई कि उसने एक बड़े मीडिया ग्रुप की बात को गंभीरता से नईं लिया और उसे ठेका नहीं दिया और उसने पोल खोल दी . वरना सारे लोग मिलजुल कर खेल कर जाते और देशवासी टापते रह जाते. बहर हाल पूरी उम्मीद है कि खेलों के ख़त्म होने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा और एक आयोग बैठाया जाएगा जिसका काम यह यह होगा कि वह पता लगाए कि क्या वास्तव में लूट हुए है लेकिन उसको हिदायत दे दी जायेगी कि उसे यह साबित करना होगा कि कहीं कोई लूट हुई ही नहीं है. ऐसा इसलिए संभव होगा कि आजकल कांग्रेस और बी जे पी में बहुत अच्छी जुगलबंदी चल रही है . चाहे अमरीकी हुक्म से परमाणु समझौता हो या भोपाल काण्ड , दोनों पार्टियां एक ही राग गा रही हैं . इसकी वजह शायद यह है कि कांग्रेसी मालिकों को तो पूना वाला शेख बाकायदा हफ्ता पंहुचा रहा है और विपक्ष के हाकिमों के रिश्तेदार ठेके का लुत्फ़ उठा रहे हैं ..
दिल्ली की मौजूदा लूट के कुछ सबक भी हैं. कांग्रेसी नेता, सोनिया गाँधी के परिवार के करीबी और पूर्व खेल मंत्री , मणिशंकर अय्यर इस लूट का सबसे बेहतरीन वर्णन करते हैं . उनका कहना है कि उनके खेल मंत्री बनने के पहले ही दिल्ली में उन्नीसवां कामनवेल्थ खेल आयोजित करने का फैसला हो चुका था . जब वे मंत्री बने तो उन्होंने इस खर्च पर सवाल उठाये लेकिन विरासत का हवाला देकर उनको चुप करा दिया गया. मणिशंकर अय्यर के कई सवाल थे . मसलन उन्होंने कहा कि अगर खेल कूद के इतने बड़े आयोजन से एक नया शहर बसाने के रास्ते खुल सकते हैं तो उत्तरी दिल्ली के बवाना गाँव के पास जो खाली जगह पड़ी है वहां एक नया शहर बसाया जाए और वहीं पर बिना किसी रोक टोक सभी सुविधायें बनाई जाएँ . उस वक़्त कामनवेल्थ खेलों के आयोजन पर कुल छः हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना थी . लेकिन वे हटा दिए गए और नयी व्यवस्था में सब कुछ बदल गया . छः हज़ार करोड़ का खर्च अब दस गुना हो चुका है . खेल कूद के आयोजन के नाम पर दिल्ली शहर के हर कोने में लूटमार मची है . पता चला है कि दिल्ली के कनाट प्लेस को ही चमकाने के लिए एक हज़ार करोड़ का ठेका दे दिया गया. और जिसे ठेका दिया गया उसकी आर्थिक हैसियत बीस करोड़ की भी नहीं है .नतीजा सामने है खिलाड़ी आ चुके हैं और कनाट प्लेस खुदा पड़ा है . अब कहा जा रहा है कि उस से कोई फर्क नहीं पड़ता . कनाट प्लेस में कोई खेल तो होना नहीं है . सवाल उठता है कि जब कनाट प्लेस की खेलों के आयोजन में कोई भूमिका ही नहीं थी तो सरकारी खजाने से एक हज़ार करोड़ रूपया झटकने की क्या ज़रुरत थी. ज़ाहिर है कि किसी ख़ास बन्दे ने इस ठेके में आर्थिक मदद पायी है . लेकिन यह भी उम्मीद करने की ज़रूरत नहीं है कि आने वाले वक़्त में इसका पता चल पायेगा क्योंकि इस सारे भ्रष्टाचार की जब जांच होगी तो दिल्ली दरबार के अमीर उमरा अपने ख़ास लोगों को बचा लेगें . इसी तरह से दिल्ली शहर में तमाम फालतू विकास कार्य चल रहे हैं जिनका खेलों से कोई लेना देना नईं है लेकिन उनका पैसा खेलों के नाम पर ही खींचा जा रहा है और दिल्ली के अमीर उमरा के रिश्तेदार ठेके की गिज़ा उड़ा रहे हैं . पता चला है कि दिल्ली की ज़्यादातर सडकों के फुटपाथों पर जो पत्थर लगे थे, वे सब ठीक हालत में थे. लेकिन सब को उखाड़कर नया पत्थर लगाने का फसिअला कर लिया गया और हज़ारों करोड़ का खेल कर दिया गया. मुराद यह है कि दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जम कर लूट हुई और ऐसे काम के लिए हुई जिसका खेलों से कोई लेना देना नहीं था. खेल गाँव के ठेके में ही दिल्ली के बहुत ताक़तवर लोगों के एक रिश्तेदार को आर्थिक रूप से खस्ता हाल डी डी ए से करीब नौ सौ करोड़ रूपये दिलवा दिया गया . अब खेल गाँव बन कर तैयार है . वहां के फ़्लैट करोड़ों में बेचे जायेगें और उसका फायदा इसी ताक़तवर नेता के मामा को होगा. दिलचस्प बात यह है कि इस खेल में ज़रूरी नहीं कि कांग्रेसी को ही फायदा हुआ हो . इस बार की लूट में सभी शामिल हैं .
दिल्ली दरबार में आजकल बड़े बड़े खेल हो रहे हैं . सबसे बड़ा खेल तो खेल के मैदानों में होना है लेकिन उसके पहले के खेल भी कम दिलचस्प नहीं हैं. जैसा कि आदि काल से होता रहा है किसी भी आयोजन में राजा के दरबारी अपनी नियमित आमदनी से दो पैसे ज्यादा खींचने के चक्कर में रहते हैं . दिल्ली में आजकल दरबारियों की संख्या में भी खासी वृद्धि हुई है . जवाहरलाल नेहरू के टाइम में तो इंदिरा गाँधी की सहेलियां ही लूटमार के खेल की मुख्य ड्राइविंग फ़ोर्स हुआ करती थीं. वैसे लूटमार होती भी कम थी . दिल्ली में जब १९५६ में संयुक्त राष्ट्र की यूनिसेफ की कान्फरेन्स हुई तो एक आलीशान होटल की ज़रूरत थी . जवाहरलाल नेहरू जहां अशोका होटल बन रहा था ,उस जगह पर खुद ही अपनी मार्निंग वाक में जाकर खड़े हो जाते थे. ज़ाहिर है लूटमार की संभावना बहुत कम होती थी .सरकारी प्रोजेक्ट में लूटमार का सिलसिला सही मायनों में तब शुरू हुआ, जब संजय गाँधी दिल्ली की सडकों पर सक्रिय हुए. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से लेकर अर्जुन दास तक जो भी दिल्ली वाले सरकारी धन की लूट में शामिल हुए ,उन्होंने इसी रास्ते को अपनाया. मोरारजी देसाई के काल में लूट के कई दरबार खुल गए थे. उनका अपना अधेड़ बेटा भी इसी धंधे में था और भी कई दरबार थे . लेकिन सरकारी खजाने की लूट का सबसे बड़ा खेल तब शुरू हुआ जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में गठबंधन सरकार बनी जिसमें भ्रष्टाचार के भांति भांति के शिरोमणि शामिल हुए . उसके बाद देवगौड़ा आये जिनका खुद का रिकार्ड ही एक मामूली ठेकेदार का था . जब १९९८ में बी जे पी वाले सत्ता में आये उसके बाद से खजाने की लूट की विधा को एक ललित कला के रूप में विकसित किया गया. कोई बम्बई का ठग था तो कुछ लोग दिल्ली की सडकों पर पत्रकार बन कर टहल रहे थे. कोई दामाद का अभिनय कर रहा था तो कोई दक्षिण की रानी की सहेली का भतीजा था . कोई किसी साहूकार का दलाल था तो कोई खुद ही दलाल भी था और साहूकार भी. कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा बाकी सभी पार्टियों के नेताओं ने अपने घर वालों को लूट का साम्राज्य सौंप दिया. जिनके तन पर कपड़ा नहीं था वे कपड़ा मंत्री बन गए और लूट के नए नए आयाम तलाशे गए. कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जो लूट हो रही है उसमें कोई भी दोषी नहीं पाया जाएगा क्योंकि जैन हवाला काण्ड की तरह सभी पार्टियों के नेताओं के रिश्तेदारों को पूना से आये बांके ने बाकायदा हिस्सा दिया है . उस बेचारे से ग़लती केवल यह हुई कि उसने एक बड़े मीडिया ग्रुप की बात को गंभीरता से नईं लिया और उसे ठेका नहीं दिया और उसने पोल खोल दी . वरना सारे लोग मिलजुल कर खेल कर जाते और देशवासी टापते रह जाते. बहर हाल पूरी उम्मीद है कि खेलों के ख़त्म होने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा और एक आयोग बैठाया जाएगा जिसका काम यह यह होगा कि वह पता लगाए कि क्या वास्तव में लूट हुए है लेकिन उसको हिदायत दे दी जायेगी कि उसे यह साबित करना होगा कि कहीं कोई लूट हुई ही नहीं है. ऐसा इसलिए संभव होगा कि आजकल कांग्रेस और बी जे पी में बहुत अच्छी जुगलबंदी चल रही है . चाहे अमरीकी हुक्म से परमाणु समझौता हो या भोपाल काण्ड , दोनों पार्टियां एक ही राग गा रही हैं . इसकी वजह शायद यह है कि कांग्रेसी मालिकों को तो पूना वाला शेख बाकायदा हफ्ता पंहुचा रहा है और विपक्ष के हाकिमों के रिश्तेदार ठेके का लुत्फ़ उठा रहे हैं ..
दिल्ली की मौजूदा लूट के कुछ सबक भी हैं. कांग्रेसी नेता, सोनिया गाँधी के परिवार के करीबी और पूर्व खेल मंत्री , मणिशंकर अय्यर इस लूट का सबसे बेहतरीन वर्णन करते हैं . उनका कहना है कि उनके खेल मंत्री बनने के पहले ही दिल्ली में उन्नीसवां कामनवेल्थ खेल आयोजित करने का फैसला हो चुका था . जब वे मंत्री बने तो उन्होंने इस खर्च पर सवाल उठाये लेकिन विरासत का हवाला देकर उनको चुप करा दिया गया. मणिशंकर अय्यर के कई सवाल थे . मसलन उन्होंने कहा कि अगर खेल कूद के इतने बड़े आयोजन से एक नया शहर बसाने के रास्ते खुल सकते हैं तो उत्तरी दिल्ली के बवाना गाँव के पास जो खाली जगह पड़ी है वहां एक नया शहर बसाया जाए और वहीं पर बिना किसी रोक टोक सभी सुविधायें बनाई जाएँ . उस वक़्त कामनवेल्थ खेलों के आयोजन पर कुल छः हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना थी . लेकिन वे हटा दिए गए और नयी व्यवस्था में सब कुछ बदल गया . छः हज़ार करोड़ का खर्च अब दस गुना हो चुका है . खेल कूद के आयोजन के नाम पर दिल्ली शहर के हर कोने में लूटमार मची है . पता चला है कि दिल्ली के कनाट प्लेस को ही चमकाने के लिए एक हज़ार करोड़ का ठेका दे दिया गया. और जिसे ठेका दिया गया उसकी आर्थिक हैसियत बीस करोड़ की भी नहीं है .नतीजा सामने है खिलाड़ी आ चुके हैं और कनाट प्लेस खुदा पड़ा है . अब कहा जा रहा है कि उस से कोई फर्क नहीं पड़ता . कनाट प्लेस में कोई खेल तो होना नहीं है . सवाल उठता है कि जब कनाट प्लेस की खेलों के आयोजन में कोई भूमिका ही नहीं थी तो सरकारी खजाने से एक हज़ार करोड़ रूपया झटकने की क्या ज़रुरत थी. ज़ाहिर है कि किसी ख़ास बन्दे ने इस ठेके में आर्थिक मदद पायी है . लेकिन यह भी उम्मीद करने की ज़रूरत नहीं है कि आने वाले वक़्त में इसका पता चल पायेगा क्योंकि इस सारे भ्रष्टाचार की जब जांच होगी तो दिल्ली दरबार के अमीर उमरा अपने ख़ास लोगों को बचा लेगें . इसी तरह से दिल्ली शहर में तमाम फालतू विकास कार्य चल रहे हैं जिनका खेलों से कोई लेना देना नईं है लेकिन उनका पैसा खेलों के नाम पर ही खींचा जा रहा है और दिल्ली के अमीर उमरा के रिश्तेदार ठेके की गिज़ा उड़ा रहे हैं . पता चला है कि दिल्ली की ज़्यादातर सडकों के फुटपाथों पर जो पत्थर लगे थे, वे सब ठीक हालत में थे. लेकिन सब को उखाड़कर नया पत्थर लगाने का फसिअला कर लिया गया और हज़ारों करोड़ का खेल कर दिया गया. मुराद यह है कि दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जम कर लूट हुई और ऐसे काम के लिए हुई जिसका खेलों से कोई लेना देना नहीं था. खेल गाँव के ठेके में ही दिल्ली के बहुत ताक़तवर लोगों के एक रिश्तेदार को आर्थिक रूप से खस्ता हाल डी डी ए से करीब नौ सौ करोड़ रूपये दिलवा दिया गया . अब खेल गाँव बन कर तैयार है . वहां के फ़्लैट करोड़ों में बेचे जायेगें और उसका फायदा इसी ताक़तवर नेता के मामा को होगा. दिलचस्प बात यह है कि इस खेल में ज़रूरी नहीं कि कांग्रेसी को ही फायदा हुआ हो . इस बार की लूट में सभी शामिल हैं .
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शेष नारायण सिंह
Wednesday, September 29, 2010
हर औरत के पाँवो में बंधी होती है एक ज़ंज़ीर
शेष नारायण सिंह
आज के बड़े अखबारों में गरीब की बेटी भी पहले पेज पर है .हालांकि ज़्यादातर खबरें हस्बे-मामूल सम्भ्रान्त वर्गों की मिजाज़ पुरसी करती नज़र आ रही हैं लेकिन अपना सब कुछ गँवा दने वाली कुछ गरीबों की बेटियों को भी पहले पेज पर जगह दी गयी है . और राष्ट्रमंडल खेल के नाम पर पचास हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा रक़म लूट चुके नेताओं और अयोध्या की मस्जिद के बहाने राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे नेताओं,अफसरों और दलालों की ख़बरों के बीच कुछ खबरें ऐसी हैं जो शोषित पीड़ित लोगों की कहानी भी बताती हैं.देश के सबसे बड़े अखबार में खबर है कि उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री के गाँव के आस पास, गौतम बुद्ध नगर और बुलंद शहर जिलों में , दलित लड़कियों की अस्मत लूटी गयी , उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और एक मामले में सबूत मिटाने की गरज से लड़की को जला कर मार डालने की कोशिश की गयी. एक बहुत बड़े अंग्रेज़ी अखबार के पहले पन्ने पर खबर है कि मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके में उसी जिले में तैनात के डिप्टी कलेक्टर के बेटे की अगुवाई में ६-७ लफंगों ने एक दलित बच्ची को पकड़कर उसके साथ बलात्कार किया और अपने जघन्य कार्य का मोबाइल फ़ोन पर वीडियो उतारा और उसे अपने दोस्तों के बीच सर्कुलेट करना शुरू कर दिया . पुलिस की विश्वसनीयता इतनी कम है कि पीड़ित बच्ची के माता पिता की हिम्मत नहीं पड़ी कि वे थाने में जाकर रिपोर्ट लिखाने की हिम्मत जुटा सकें . जब पुलिस को मोबाइल फोन पर सर्कुलेट हो रही तस्वीरों के ज़रिये पता चला तो अधिकारी पीड़ित लड़की के घर गए. वहां जाकर पता चला कि बच्ची के माता पिता और पड़ोसी इस अपराध के बारे में जानते थे. उन्होंने मामले को पुलिस के पास ले जाना इसलिए ठीक नहीं समझा कि अफसर का बेटा ही मुख्य अपराधी है ,अगर उनके खिलाफ शिकायत की तो मुसीबत में पड़ जायेगें.
यह घटनाएं एक समाज के रूप में हमारे अस्तित्व को चुनौती देती हैं .ऐसा क्यों है कि जिसके पास भी घूस या चोरी के रास्ते कुछ पैसा आ जाता है ,वह सबसे पहले लड़कियों की इज्ज़त पर हमला बोलता है .उनको अपमानित करता है , उनके साथ बलात्कार करता है और उन्हें मार डालने की कोशिश करता है . इन लड़कियों ने इन दरिंदों का क्या बिगाड़ा है . दूसरा सवाल यह है कि हर मामले में इस जघन्य मानसिकता का शिकार गरीब लड़कियां ही क्यों होती हैं . गाँव में गरीब लड़कियां ज़्यादातर दलित परिवारों से आती हैं . और शहरों में गरीब वे हैं जो गाँव में अपना सब कुछ छोड़कर, दो जून की रोटी की तलाश में शहरों की ओर भागने के लिए अभिशप्त हैं. गाँव में छोटी मोटी खेती की ज़मीन अब रोटी नहीं देती ,उसमें क़र्ज़ उपजता है . खेती के चक्कर में बिजली खाद, बीज और मजदूरी में लगने वाला धन, बरास्ते क़र्ज़ उसकी ज़िंदगी पर सवार होता रहता है और बहुत सारे मामलों में तो किसान आत्मह्त्या कर लेता है . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों में सल्फास का नाम नहीं सुना गया था , वहां सल्फास अब कहावतों का हिस्सा बन चुका है . सल्फास एक केमिकल है जिसको खाकर अब गाँवों में किसान अपनी निराशा और हताशा भरी ज़िंदगी को ख़त्म करता है. इसी सल्फास की रेंज में रहकर अपनी ज़िन्दगी बिता रहे लोगों की बेटियाँ घूसखोरों, नरेगा का पैसा चुराने वाले ठेकेदारों ,नेताओं, दलालों और उनके चमचों के बिगडैल लड़कों की हवस का शिकार हो रही हैं .
सवाल यह उठाता है कि क्या समाज की इन सारी विकृतियों का शिकार लड़कियों को ही क्यों बनाया जा रहा है .जवाब साफ़ है ---क्योंकि उनके पास राजनीतिक ताक़त नहीं है . इसके लिए ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है . अपने समाज में माता पिता ही अपने लड़कों और लड़कियों में भेद करते हैं . अव्वल तो लड़कियों की शिक्षा प्राथमिकता सूची में ही नहीं होती और अगर बच्ची को स्कूल भेजा भी जाता है तो उसके लिए दोयम दर्जे के स्कूलों की ही तलाश की जाती है . लड़कियों के खेलने और बाहर निकलने के बारे में हर समाज में एक आचार संहिता होती है जिसमें उसे हर मामले में लड़कों से कमज़ोर माना जाता है . ऐसी व्यवस्था की जाती है कि बच्ची हमेशा अपने को कमज़ोर माने . समाज को इस स्थिति से बाहर आना पड़ेगा . इसके लिए किसी सुधार की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कोई भी व्यक्ति या संगठन जो सुधार करने की कोशिश करेगा वह पूरी बात नहीं होने देगा . वह चाहेगा कि उसका हित भावी व्यवस्था में सुरक्षित रहे . इसलिए किसी समाज सुधार की साज़िश से महिलाओं के भविष्य को मुक्त रखना पडेगा. महिलाओं के बारे में सारी मान्यताएं और नियम पुरुष प्रधान समाज ने बनाए हैं . आगे भी ऐसा ही हो सकता है . इस खतरे से बचने के लिए ज़रूरी है कि महिलायें को इस सड़ी-गली व्यवस्था में इज्ज़त दिलाने का काम महिलाओं के ही कंधों पर डाला जाए. ऐसा अवसर उपलब्ध हैं. लोकसभा ने महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी देने के लिए एक बिल मौजूद है जिसे अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देकर पास कर दिया जाए तो असली परिवर्तन शुरू हो सकता है .हालांकि यह मुगालता भी नहीं पालना चाहिये इस कानून से कोई क्रांतिकारी परिवर्तन होगा. क्योंकि शुरू में तो सत्ता प्रतिष्टानों के ठेकदारों की हुक्म बजाने वाली उनके घरों की महिलायें ही सत्ता में आयेंगीं लेकिन बाद में जनता भी आयेगी क्योंकि जनता के तूफ़ान को कभी कोई नहीं रोक सकता है . इसलिए हमारी बेटियों को अपराधियों की हवस से बचाने का एक ही रास्ता है कि उन्हे राजनीतिक सत्ता की चाभी दे दी जाए.
आज के बड़े अखबारों में गरीब की बेटी भी पहले पेज पर है .हालांकि ज़्यादातर खबरें हस्बे-मामूल सम्भ्रान्त वर्गों की मिजाज़ पुरसी करती नज़र आ रही हैं लेकिन अपना सब कुछ गँवा दने वाली कुछ गरीबों की बेटियों को भी पहले पेज पर जगह दी गयी है . और राष्ट्रमंडल खेल के नाम पर पचास हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा रक़म लूट चुके नेताओं और अयोध्या की मस्जिद के बहाने राजनीति की रोटियाँ सेंक रहे नेताओं,अफसरों और दलालों की ख़बरों के बीच कुछ खबरें ऐसी हैं जो शोषित पीड़ित लोगों की कहानी भी बताती हैं.देश के सबसे बड़े अखबार में खबर है कि उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री के गाँव के आस पास, गौतम बुद्ध नगर और बुलंद शहर जिलों में , दलित लड़कियों की अस्मत लूटी गयी , उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और एक मामले में सबूत मिटाने की गरज से लड़की को जला कर मार डालने की कोशिश की गयी. एक बहुत बड़े अंग्रेज़ी अखबार के पहले पन्ने पर खबर है कि मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके में उसी जिले में तैनात के डिप्टी कलेक्टर के बेटे की अगुवाई में ६-७ लफंगों ने एक दलित बच्ची को पकड़कर उसके साथ बलात्कार किया और अपने जघन्य कार्य का मोबाइल फ़ोन पर वीडियो उतारा और उसे अपने दोस्तों के बीच सर्कुलेट करना शुरू कर दिया . पुलिस की विश्वसनीयता इतनी कम है कि पीड़ित बच्ची के माता पिता की हिम्मत नहीं पड़ी कि वे थाने में जाकर रिपोर्ट लिखाने की हिम्मत जुटा सकें . जब पुलिस को मोबाइल फोन पर सर्कुलेट हो रही तस्वीरों के ज़रिये पता चला तो अधिकारी पीड़ित लड़की के घर गए. वहां जाकर पता चला कि बच्ची के माता पिता और पड़ोसी इस अपराध के बारे में जानते थे. उन्होंने मामले को पुलिस के पास ले जाना इसलिए ठीक नहीं समझा कि अफसर का बेटा ही मुख्य अपराधी है ,अगर उनके खिलाफ शिकायत की तो मुसीबत में पड़ जायेगें.
यह घटनाएं एक समाज के रूप में हमारे अस्तित्व को चुनौती देती हैं .ऐसा क्यों है कि जिसके पास भी घूस या चोरी के रास्ते कुछ पैसा आ जाता है ,वह सबसे पहले लड़कियों की इज्ज़त पर हमला बोलता है .उनको अपमानित करता है , उनके साथ बलात्कार करता है और उन्हें मार डालने की कोशिश करता है . इन लड़कियों ने इन दरिंदों का क्या बिगाड़ा है . दूसरा सवाल यह है कि हर मामले में इस जघन्य मानसिकता का शिकार गरीब लड़कियां ही क्यों होती हैं . गाँव में गरीब लड़कियां ज़्यादातर दलित परिवारों से आती हैं . और शहरों में गरीब वे हैं जो गाँव में अपना सब कुछ छोड़कर, दो जून की रोटी की तलाश में शहरों की ओर भागने के लिए अभिशप्त हैं. गाँव में छोटी मोटी खेती की ज़मीन अब रोटी नहीं देती ,उसमें क़र्ज़ उपजता है . खेती के चक्कर में बिजली खाद, बीज और मजदूरी में लगने वाला धन, बरास्ते क़र्ज़ उसकी ज़िंदगी पर सवार होता रहता है और बहुत सारे मामलों में तो किसान आत्मह्त्या कर लेता है . अभी २५ साल पहले तक जिन गावों में सल्फास का नाम नहीं सुना गया था , वहां सल्फास अब कहावतों का हिस्सा बन चुका है . सल्फास एक केमिकल है जिसको खाकर अब गाँवों में किसान अपनी निराशा और हताशा भरी ज़िंदगी को ख़त्म करता है. इसी सल्फास की रेंज में रहकर अपनी ज़िन्दगी बिता रहे लोगों की बेटियाँ घूसखोरों, नरेगा का पैसा चुराने वाले ठेकेदारों ,नेताओं, दलालों और उनके चमचों के बिगडैल लड़कों की हवस का शिकार हो रही हैं .
सवाल यह उठाता है कि क्या समाज की इन सारी विकृतियों का शिकार लड़कियों को ही क्यों बनाया जा रहा है .जवाब साफ़ है ---क्योंकि उनके पास राजनीतिक ताक़त नहीं है . इसके लिए ऐतिहासिक रूप से महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है . अपने समाज में माता पिता ही अपने लड़कों और लड़कियों में भेद करते हैं . अव्वल तो लड़कियों की शिक्षा प्राथमिकता सूची में ही नहीं होती और अगर बच्ची को स्कूल भेजा भी जाता है तो उसके लिए दोयम दर्जे के स्कूलों की ही तलाश की जाती है . लड़कियों के खेलने और बाहर निकलने के बारे में हर समाज में एक आचार संहिता होती है जिसमें उसे हर मामले में लड़कों से कमज़ोर माना जाता है . ऐसी व्यवस्था की जाती है कि बच्ची हमेशा अपने को कमज़ोर माने . समाज को इस स्थिति से बाहर आना पड़ेगा . इसके लिए किसी सुधार की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कोई भी व्यक्ति या संगठन जो सुधार करने की कोशिश करेगा वह पूरी बात नहीं होने देगा . वह चाहेगा कि उसका हित भावी व्यवस्था में सुरक्षित रहे . इसलिए किसी समाज सुधार की साज़िश से महिलाओं के भविष्य को मुक्त रखना पडेगा. महिलाओं के बारे में सारी मान्यताएं और नियम पुरुष प्रधान समाज ने बनाए हैं . आगे भी ऐसा ही हो सकता है . इस खतरे से बचने के लिए ज़रूरी है कि महिलायें को इस सड़ी-गली व्यवस्था में इज्ज़त दिलाने का काम महिलाओं के ही कंधों पर डाला जाए. ऐसा अवसर उपलब्ध हैं. लोकसभा ने महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी देने के लिए एक बिल मौजूद है जिसे अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देकर पास कर दिया जाए तो असली परिवर्तन शुरू हो सकता है .हालांकि यह मुगालता भी नहीं पालना चाहिये इस कानून से कोई क्रांतिकारी परिवर्तन होगा. क्योंकि शुरू में तो सत्ता प्रतिष्टानों के ठेकदारों की हुक्म बजाने वाली उनके घरों की महिलायें ही सत्ता में आयेंगीं लेकिन बाद में जनता भी आयेगी क्योंकि जनता के तूफ़ान को कभी कोई नहीं रोक सकता है . इसलिए हमारी बेटियों को अपराधियों की हवस से बचाने का एक ही रास्ता है कि उन्हे राजनीतिक सत्ता की चाभी दे दी जाए.
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Monday, September 27, 2010
अमरीका को अफगानिस्तान में वियतनाम की हार की याद आ गयी
शेष नारायण सिंह
अमरीका की फौजें अफगानिस्तान में बुरी तरह से फंस गयी हैं . सैनिक इतिहास के जानकार बताते हैं कि अफगानिस्तान में अमरीका की जो जकड़न है, वह उसकी वियतनाम की दुर्दशा से भी भयावह है. मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति के पूर्ववर्ती ,जार्ज डब्ल्यू बुश ने अफगानिस्तान में सैनिक कार्रवाई शुरू की थी . पता नहीं किस मुगालते में उन्होंने यह सोच लिया था कि अफगानिस्तान के तालिबान हुक्मरान को ख़त्म करने के लिए उन्हें पाकिस्तान से मदद मिलेगी. अमरीकी नीतिकारों की अक्ल पर पड़े हुए परदे ने उन्हें यह देखने ही नहीं दिया कि पाकिस्तानी फौज की एक शाखा के रूप में काम करने वाले तालिबान के खिलाफ पाकिस्तानी सेना कैसे काम करेगी. तुर्रा यह कि उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ खुद तालिबान के संरक्षक थे. बहरहाल अरबों अरब डालर खर्च करके अब अमरीका को लगने लगा है कि गलती हो गयी. इस बीच अमरीकी फौज की गफलत के चलते तालिबान फिर से संगठित हो गए हैं और अब अमरीकी सेना के सामने एक बड़ी चुनौती खडी है. पता चला है कि तालिबान के गढ़ , कंदहार और उसके आस पास के इलाकों में तालिबान इतने मज़बूत हो गए हैं कि उनको वहां से हटाने के लिए अमरीकी सेना ने अब तक का सबसे ज़बरदस्त सैनिक अभियान शुरू कर दिया है . पिछले कुछ दिनों में इस इलाके से सोलह अमरीकी सैनिकों के मारे जाने की खबर है . जबकि बहुत सारे सैनिक मारिजुआना के खेतों में छुपे तालिबान लड़ाकों के हमलों के शिकार हुए हैं .नैटो के प्रवक्ता, ब्रिगेडियर जनरल जोसेफ ब्लोट्ज़ बताया कि पिछले एक हफ्ते से अर्घंदाब , ज़हरी और पंजवाई जिलों में तालिबान के सफाए के प्रोजेक्ट पर काम शुरू हो गया है .उन्हें उम्मीद है कि लड़ाई ज़बरदस्त होगी. आज की ज़मीनी सच्चाई यह है कि तालिबान ने अपने सबसे मज़बूत ठिकाने, कंदहार में पाँव जमा लिए हैं और उनको वहां से हटाने के बाद ही अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों का पलड़ा भारी पडेगा. जहरी जिले के पुलिस प्रमुख बिस्मिल्ला खान ने बताया अमरीकी और अफगान फौजों का हमला पिछले एक हफ्ते से जारी है लेकिन नतीजों के बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम.
अफगानिस्तान में अमरीकी मुसीबतों के कारण तालिबान ही नहीं है . वे अपने ही आदमी , राष्ट्रपति हामिद करज़ई से भी परेशान हैं . अमरीका की तरफ से अफगानिस्तान को संभाल रही खुफिया एजेंसी सी आई ए से करज़ई की पटरी नहीं बैठ रही है . सी आई ए ने आरोप लगाया है कि हामिद करज़ई अक्सर टुन्न रहते हैं और ज़्यादातर नशे का सेवन करते रहते हैं .सी आई ए का आरोप है कि जिस अफगानिस्तान में अमरीकी टैक्स का १२० अरब डालर हर साल फूंका जा रहा है ,वहां का राष्ट्रपति अगर नशेड़ी होगा तो कैसे गुज़र होगा. सी आई ए ने यह भी रिपोर्ट दी है कि करज़ई की पागलपन की बीमारी कई बार इतनी ज़बरदस्त हो गयी थी कि उनका इलाज़ करवाना पड़ा था. खबर यह भी है कि वे बहुत ही भ्रष्ट आदमी हैं और उनके कई रिश्तेदार ड्रग्स के कारोबार में लगे हुए हैं और सबको हामिद करज़ई का संरक्षण प्राप्त है . अमरीकी रक्षा विभाग ने कई बार करज़ई को यह सलाह दी है कि वे राजपाट छोड़कर दुबई में जाकर अपना घर बसायें लेकिन अभी करज़ई इसके लिए तैयार नहीं हैं .इस साल की शुरुआत में अफगानिस्तान में अमरीकी राजदूत , पीटर गालब्रेथ ने आरोप लगाया था कि करज़ई मादक दवाओं का सेवन करते हैं और उनका दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता .गालब्रेथ ने कहा था कि उनके पास राष्ट्रपति के आवास के अन्दर रहने वालों की तरफ से सूचना आई थी कि करज़ई हशीश का दम भी लगाते हैं . अपनी चिट्ठी में गालब्रेथ ने मांग की है कि करज़ई के बारे में अमरीका को अपनी नीतियों पर फिर से विचार करना पडेगा. क्योंकि उनकी नज़र में करज़ई बिकुल बेमतलब के आदमी हैं .
उधर पाकिस्तान में भी अमरीकी नीति पूरी तरह से पराजित हो गयी है . पाकिस्तान के उत्तरी इलाकों में तालिबान और अल-कायदा के ज़्यादातर आतंकवादी छुपे हुए हैं . उनके खिलाफ जब अमरीकी सेना ने हमले की योजना बनायी तो उसे पाकिस्तानी सेना को भी साथ लेना पड़ा . पाकिस्तानी सेना पर आई एस आई के असर का नतीजा है कि उस अभियान में शामिल ज़्यादातर सैनिक तालिबान के हमदर्द ही थे और अमरीकी सेना के बारे में तालिबान तक पूरी खबर पंहुचाते थे. ज़ाहिर है अमरीका का यह काम भी बट्टे खाते में ही जाएगा. ऐसी हालत में अब यह साफ़ हो गया है कि अपने अफगानिस्तान के मिशन में अमरीका बुरी तरह से फंस गया है और उसकी हालत वहां वियतनाम से भी खराब होने वाली है . राष्ट्रपति ओबामा इस सारी मुसीबत से बच निकलने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं लेकिन बच निकलने की संभावना बहुत कम है
अमरीका की फौजें अफगानिस्तान में बुरी तरह से फंस गयी हैं . सैनिक इतिहास के जानकार बताते हैं कि अफगानिस्तान में अमरीका की जो जकड़न है, वह उसकी वियतनाम की दुर्दशा से भी भयावह है. मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति के पूर्ववर्ती ,जार्ज डब्ल्यू बुश ने अफगानिस्तान में सैनिक कार्रवाई शुरू की थी . पता नहीं किस मुगालते में उन्होंने यह सोच लिया था कि अफगानिस्तान के तालिबान हुक्मरान को ख़त्म करने के लिए उन्हें पाकिस्तान से मदद मिलेगी. अमरीकी नीतिकारों की अक्ल पर पड़े हुए परदे ने उन्हें यह देखने ही नहीं दिया कि पाकिस्तानी फौज की एक शाखा के रूप में काम करने वाले तालिबान के खिलाफ पाकिस्तानी सेना कैसे काम करेगी. तुर्रा यह कि उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ खुद तालिबान के संरक्षक थे. बहरहाल अरबों अरब डालर खर्च करके अब अमरीका को लगने लगा है कि गलती हो गयी. इस बीच अमरीकी फौज की गफलत के चलते तालिबान फिर से संगठित हो गए हैं और अब अमरीकी सेना के सामने एक बड़ी चुनौती खडी है. पता चला है कि तालिबान के गढ़ , कंदहार और उसके आस पास के इलाकों में तालिबान इतने मज़बूत हो गए हैं कि उनको वहां से हटाने के लिए अमरीकी सेना ने अब तक का सबसे ज़बरदस्त सैनिक अभियान शुरू कर दिया है . पिछले कुछ दिनों में इस इलाके से सोलह अमरीकी सैनिकों के मारे जाने की खबर है . जबकि बहुत सारे सैनिक मारिजुआना के खेतों में छुपे तालिबान लड़ाकों के हमलों के शिकार हुए हैं .नैटो के प्रवक्ता, ब्रिगेडियर जनरल जोसेफ ब्लोट्ज़ बताया कि पिछले एक हफ्ते से अर्घंदाब , ज़हरी और पंजवाई जिलों में तालिबान के सफाए के प्रोजेक्ट पर काम शुरू हो गया है .उन्हें उम्मीद है कि लड़ाई ज़बरदस्त होगी. आज की ज़मीनी सच्चाई यह है कि तालिबान ने अपने सबसे मज़बूत ठिकाने, कंदहार में पाँव जमा लिए हैं और उनको वहां से हटाने के बाद ही अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों का पलड़ा भारी पडेगा. जहरी जिले के पुलिस प्रमुख बिस्मिल्ला खान ने बताया अमरीकी और अफगान फौजों का हमला पिछले एक हफ्ते से जारी है लेकिन नतीजों के बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम.
अफगानिस्तान में अमरीकी मुसीबतों के कारण तालिबान ही नहीं है . वे अपने ही आदमी , राष्ट्रपति हामिद करज़ई से भी परेशान हैं . अमरीका की तरफ से अफगानिस्तान को संभाल रही खुफिया एजेंसी सी आई ए से करज़ई की पटरी नहीं बैठ रही है . सी आई ए ने आरोप लगाया है कि हामिद करज़ई अक्सर टुन्न रहते हैं और ज़्यादातर नशे का सेवन करते रहते हैं .सी आई ए का आरोप है कि जिस अफगानिस्तान में अमरीकी टैक्स का १२० अरब डालर हर साल फूंका जा रहा है ,वहां का राष्ट्रपति अगर नशेड़ी होगा तो कैसे गुज़र होगा. सी आई ए ने यह भी रिपोर्ट दी है कि करज़ई की पागलपन की बीमारी कई बार इतनी ज़बरदस्त हो गयी थी कि उनका इलाज़ करवाना पड़ा था. खबर यह भी है कि वे बहुत ही भ्रष्ट आदमी हैं और उनके कई रिश्तेदार ड्रग्स के कारोबार में लगे हुए हैं और सबको हामिद करज़ई का संरक्षण प्राप्त है . अमरीकी रक्षा विभाग ने कई बार करज़ई को यह सलाह दी है कि वे राजपाट छोड़कर दुबई में जाकर अपना घर बसायें लेकिन अभी करज़ई इसके लिए तैयार नहीं हैं .इस साल की शुरुआत में अफगानिस्तान में अमरीकी राजदूत , पीटर गालब्रेथ ने आरोप लगाया था कि करज़ई मादक दवाओं का सेवन करते हैं और उनका दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता .गालब्रेथ ने कहा था कि उनके पास राष्ट्रपति के आवास के अन्दर रहने वालों की तरफ से सूचना आई थी कि करज़ई हशीश का दम भी लगाते हैं . अपनी चिट्ठी में गालब्रेथ ने मांग की है कि करज़ई के बारे में अमरीका को अपनी नीतियों पर फिर से विचार करना पडेगा. क्योंकि उनकी नज़र में करज़ई बिकुल बेमतलब के आदमी हैं .
उधर पाकिस्तान में भी अमरीकी नीति पूरी तरह से पराजित हो गयी है . पाकिस्तान के उत्तरी इलाकों में तालिबान और अल-कायदा के ज़्यादातर आतंकवादी छुपे हुए हैं . उनके खिलाफ जब अमरीकी सेना ने हमले की योजना बनायी तो उसे पाकिस्तानी सेना को भी साथ लेना पड़ा . पाकिस्तानी सेना पर आई एस आई के असर का नतीजा है कि उस अभियान में शामिल ज़्यादातर सैनिक तालिबान के हमदर्द ही थे और अमरीकी सेना के बारे में तालिबान तक पूरी खबर पंहुचाते थे. ज़ाहिर है अमरीका का यह काम भी बट्टे खाते में ही जाएगा. ऐसी हालत में अब यह साफ़ हो गया है कि अपने अफगानिस्तान के मिशन में अमरीका बुरी तरह से फंस गया है और उसकी हालत वहां वियतनाम से भी खराब होने वाली है . राष्ट्रपति ओबामा इस सारी मुसीबत से बच निकलने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं लेकिन बच निकलने की संभावना बहुत कम है
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शेष नारायण सिंह
कश्मीर में सकारत्मक पहल की ज़रुरत
शेष नारायण सिंह
जम्मू-कश्मीर में भारत के राजनीतिक इकबाल की बुलंदी की कोशिश शुरू हो गयी है .कश्मीर में जाकर वहां के लोगों से मिलने की भारतीय संसद सदस्यों की पहल का चौतरफा असर नज़र आने लगा है . सबसे बड़ा असर तो पाकिस्तान में ही दिख रहा है . पाकिस्तानी हुक्मरान को लगने लगा है कि अगर कश्मीरी अवाम के घरों में घुस कर भारत की जनता उनको गले लगाने की कोशिश शुरू कर देगी तो पाकिस्तान की उस बोगी का क्या होगा जिसमें कश्मीरियों को मुख्य धारा से अलग रखने के लिए तरह तरह की कोशिशें की जाती हैं .पाकिस्तान की घबडाहट का ही नतीजा है कि उनकी संसद में भी भारत की पहल के खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया और अमरीका की यात्रा पर गए उनके विदेश मंत्री अमरीकियों से गिडगिडाते नज़र आये कि अमरीका किसी तरह से कश्मीर मामले में हस्तक्षेप कर दे जिससे वे अपने मुल्क वापस जा कर शेखी बघार सकें कि अमरीका अब उनके साथ है . . जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर गए सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल को आम कश्मीरी से मिलने का मौक़ा तो नहीं लगा लेकिन हज़रत बल और अस्पताल में वे कुछ ऐसे लोगों से मिले जिन्हें उमर अब्दुल्ला की सरकार पकड़ कर नहीं लाई थी . यह अलग बात है कि कुछ दकियानूसी प्रवृत्ति के लोगों ने इस प्रतिनधिमंडल को कांग्रेसी पहल मानकर इसमें खामियां तलाशने की कोशिश की लेकिन लगता है उन लोगों को भी यह अहसास हो गया कि वे गलती कर रहे थे क्योंकि यह प्रतिनधिमंडल पूरे भारत की राजनीतिक इच्छाशक्ति को व्यक्त करता था. जो लोग खासकर प्रतिधिमंडल के सामने प्रायोजित तरीके से लाये गए थे उनसे कोई बात नहीं निकल कर सामने आई क्योंकि सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल में केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला बैठे रहते थे . प्रतिनधिमंडल के एक सदस्य मोहन सिंह ने बताया कि लगता था कि जो लोग पेश किये जा रहे थे उन्हें सब सिखा पढ़ाकर लाया गया था और फारूक अब्दुल्ला उन लोगों पर नज़र रख रहे थे जो उनके बेटे के खिलाफ कुछ भी बोलते थे. इसलिए इस बैठक में सही बात सामने नहीं आ सकी. लेकिन कुछ बातें साफ़ हो गयीं . सबसे बड़ी बात तो यही कि कांग्रेस और केंद्र सरकार की यह जिद कि जब तक हालात सामान्य नहीं होते बात चीत नहीं होगी, को तोड़ दिया गया. सभी पार्टियों के नेताओं को पहली बार पता लगा कि कश्मीर में भारत के प्रति नाराज़गी का स्तर क्या है . अब पूरी राजनीतिक बिरादरी को मालूम है कि नाराज़गी बहुत गहरी है और अब उसका राजनीतिक स्तर पर हल तलाशा जायेगा. सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल के सदस्य सीताराम येचुरी ने बताया कि वहां जाने पर पता चला कि भारत के प्रति कितनी नाराज़गी है . आज़ादी की बात अस्पतालों में भर्ती होने के बावजूद भी लोग करते हैं . सच्चाई यह है केंद्र और राज्य सरकारों ने वहां की स्थिति की सही जानकारी नहीं रखी है . जितनी नज़र आती है स्थिति उस से बहुत ज्यादा खराब है . सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल में शामिल लोगों को कश्मीरियों ने बताया कि उनकी ज़िंदगी बिलकुल बर्बाद हो गयी है . घर से बाहर निकलना दूभर हो गया है .
ऐसी हालत में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से बहुत उम्मीदें हैं .राजनीतिक आकलन के बाद सरकार ने फ़ौरन पहल की है लेकिन ध्यान रखना होगा कि वहां की मौजूदा सरकार की विश्वसनीयता पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी है .इसलिए सरकार जो भी पहल करेगी उसे सही तरीके से लागू करने के लिए उमर अब्दुल्ला की सरकार के अलावा कोई और तरीका सोचना पडेगा. अभी जो पैकेज घोषित किया गया है ,वह एक अच्छी शुरुआत है लेकिन कहीं वह उमर सरकार की नाकामी और लालची नेताओं की बलि न चढ़ जाए .सरकार ने घोषणा की है कि ११ जून से शुरू हुए विरोध में मरने वालों के परिवारों में से हर एक परिवार को पांच पांच लाख रूपया दिया जाएगा . जिन लड़कों पर केवल पत्थर फेंकने के आरोप हैं और अन्य कोई संगीन मामला नहीं है ,उन्हें केंद्र सरकार की सिफारिश पर रिहा किया जाएगा. . राजनीतिक पार्टियों,छात्रों और सिविल सोसाइटी के लोगों से बातचीत करने के लिए कुछ लोगों की कमेटी बनायी जायेगी जो संवाद का माहौल तैयार करेगी. शिक्षा संस्थाओं को ठीक करने के लिए एक सौ करोड़ रूपये की फौरी सहायता दी जायेगी . राज्य के स्कूलों को जल्दी खोलने के लिए राज्य सरकार पर दबाव डाला जाएगा .पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत पकडे गए लोगों के मामलों की जांच की जायेगी और राज्य में बुनियादी ढाँचे को दुरुस्त करने के लिए एक टास्क फ़ोर्स के गठन की भी बात है. उम्मीद की जानी चाहिए कि अब कश्मीर में महाल बदलेगा और हालात में कुछ सुधार होगा.
जम्मू-कश्मीर में भारत के राजनीतिक इकबाल की बुलंदी की कोशिश शुरू हो गयी है .कश्मीर में जाकर वहां के लोगों से मिलने की भारतीय संसद सदस्यों की पहल का चौतरफा असर नज़र आने लगा है . सबसे बड़ा असर तो पाकिस्तान में ही दिख रहा है . पाकिस्तानी हुक्मरान को लगने लगा है कि अगर कश्मीरी अवाम के घरों में घुस कर भारत की जनता उनको गले लगाने की कोशिश शुरू कर देगी तो पाकिस्तान की उस बोगी का क्या होगा जिसमें कश्मीरियों को मुख्य धारा से अलग रखने के लिए तरह तरह की कोशिशें की जाती हैं .पाकिस्तान की घबडाहट का ही नतीजा है कि उनकी संसद में भी भारत की पहल के खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया और अमरीका की यात्रा पर गए उनके विदेश मंत्री अमरीकियों से गिडगिडाते नज़र आये कि अमरीका किसी तरह से कश्मीर मामले में हस्तक्षेप कर दे जिससे वे अपने मुल्क वापस जा कर शेखी बघार सकें कि अमरीका अब उनके साथ है . . जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर गए सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल को आम कश्मीरी से मिलने का मौक़ा तो नहीं लगा लेकिन हज़रत बल और अस्पताल में वे कुछ ऐसे लोगों से मिले जिन्हें उमर अब्दुल्ला की सरकार पकड़ कर नहीं लाई थी . यह अलग बात है कि कुछ दकियानूसी प्रवृत्ति के लोगों ने इस प्रतिनधिमंडल को कांग्रेसी पहल मानकर इसमें खामियां तलाशने की कोशिश की लेकिन लगता है उन लोगों को भी यह अहसास हो गया कि वे गलती कर रहे थे क्योंकि यह प्रतिनधिमंडल पूरे भारत की राजनीतिक इच्छाशक्ति को व्यक्त करता था. जो लोग खासकर प्रतिधिमंडल के सामने प्रायोजित तरीके से लाये गए थे उनसे कोई बात नहीं निकल कर सामने आई क्योंकि सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल में केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला बैठे रहते थे . प्रतिनधिमंडल के एक सदस्य मोहन सिंह ने बताया कि लगता था कि जो लोग पेश किये जा रहे थे उन्हें सब सिखा पढ़ाकर लाया गया था और फारूक अब्दुल्ला उन लोगों पर नज़र रख रहे थे जो उनके बेटे के खिलाफ कुछ भी बोलते थे. इसलिए इस बैठक में सही बात सामने नहीं आ सकी. लेकिन कुछ बातें साफ़ हो गयीं . सबसे बड़ी बात तो यही कि कांग्रेस और केंद्र सरकार की यह जिद कि जब तक हालात सामान्य नहीं होते बात चीत नहीं होगी, को तोड़ दिया गया. सभी पार्टियों के नेताओं को पहली बार पता लगा कि कश्मीर में भारत के प्रति नाराज़गी का स्तर क्या है . अब पूरी राजनीतिक बिरादरी को मालूम है कि नाराज़गी बहुत गहरी है और अब उसका राजनीतिक स्तर पर हल तलाशा जायेगा. सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल के सदस्य सीताराम येचुरी ने बताया कि वहां जाने पर पता चला कि भारत के प्रति कितनी नाराज़गी है . आज़ादी की बात अस्पतालों में भर्ती होने के बावजूद भी लोग करते हैं . सच्चाई यह है केंद्र और राज्य सरकारों ने वहां की स्थिति की सही जानकारी नहीं रखी है . जितनी नज़र आती है स्थिति उस से बहुत ज्यादा खराब है . सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल में शामिल लोगों को कश्मीरियों ने बताया कि उनकी ज़िंदगी बिलकुल बर्बाद हो गयी है . घर से बाहर निकलना दूभर हो गया है .
ऐसी हालत में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से बहुत उम्मीदें हैं .राजनीतिक आकलन के बाद सरकार ने फ़ौरन पहल की है लेकिन ध्यान रखना होगा कि वहां की मौजूदा सरकार की विश्वसनीयता पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी है .इसलिए सरकार जो भी पहल करेगी उसे सही तरीके से लागू करने के लिए उमर अब्दुल्ला की सरकार के अलावा कोई और तरीका सोचना पडेगा. अभी जो पैकेज घोषित किया गया है ,वह एक अच्छी शुरुआत है लेकिन कहीं वह उमर सरकार की नाकामी और लालची नेताओं की बलि न चढ़ जाए .सरकार ने घोषणा की है कि ११ जून से शुरू हुए विरोध में मरने वालों के परिवारों में से हर एक परिवार को पांच पांच लाख रूपया दिया जाएगा . जिन लड़कों पर केवल पत्थर फेंकने के आरोप हैं और अन्य कोई संगीन मामला नहीं है ,उन्हें केंद्र सरकार की सिफारिश पर रिहा किया जाएगा. . राजनीतिक पार्टियों,छात्रों और सिविल सोसाइटी के लोगों से बातचीत करने के लिए कुछ लोगों की कमेटी बनायी जायेगी जो संवाद का माहौल तैयार करेगी. शिक्षा संस्थाओं को ठीक करने के लिए एक सौ करोड़ रूपये की फौरी सहायता दी जायेगी . राज्य के स्कूलों को जल्दी खोलने के लिए राज्य सरकार पर दबाव डाला जाएगा .पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत पकडे गए लोगों के मामलों की जांच की जायेगी और राज्य में बुनियादी ढाँचे को दुरुस्त करने के लिए एक टास्क फ़ोर्स के गठन की भी बात है. उम्मीद की जानी चाहिए कि अब कश्मीर में महाल बदलेगा और हालात में कुछ सुधार होगा.
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Sunday, September 26, 2010
भारत ने पाकिस्तान को कश्मीर खाली करने की चेतावनी दी
शेष नारायण सिंह
( मूल लेख २६ सितम्बर के दैनिक जागरण में छापा हुआ है )
भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा आम तौर पर कमज़ोर राजनेता माने जाते हैं .और विदेश मंत्री के रूप में तो खैर वह बहुत ही कमज़ोर हैं ही . विदेश मंत्रालय के अफसरों में भी शायद अब लीदार्शोप रोल १९८० के बाद ग्रेजुएशन करने वाले लोग आ गए हैं जो अपने समय के सबसे कुशाग्रबुद्धि लोग नहीं हैं . उस दौर में बेहतरीन टैलेंट अन्य क्षेत्रों में जाने लगा था .शायद इसीलिये कूटनीति के क्षेत्र में पाकिस्तान जैसा मामूली मुल्क भी भारत के विदेशमंत्री को कूटनीति के मैदान में मात पर मात दे रहा था . विदेश मंत्री का संयुक्त राष्ट्र की महासभा में दिया गया भाषण इस बात को नकारता है . वहां विदेश मंत्री ने पाकिस्तान समेत बाकी दुनिया को भारत की मजबूती का अहसास करा दिया है . उन्होंने अपने भाषण में पाकिस्तान को साफ़ समझा दिया कि कश्मीर विवाद में जो सबसे महत्वपूर्ण बात होनी है उसे पाकिस्तान को सबसे पहले करना चाहिए . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों से पाकिस्तान को अपना गैरकानूनी क़ब्ज़ा हटा लेना चाहिये . उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि उसे अब गैरज़िम्मेदार तरीके से आचरण नहीं करना चाहिए और भारत को यह बताने से बाज़ आना चाहिए कि वह कश्मीर का प्रशासन कैसे चलाये . पूरी दुनिया के समझदार लोग यह चाहते हैं कि पाकिस्तान अपने देश में मुसीबत झेल रहे आम आदमी को सम्मान का जीवन देने में अपनी सारी ताक़त लगाए लेकिन पाकिस्तानी फौज की दहशत में रहकर वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारत विरोधी राग अलापते रहते हैं . आज की भू भौगोलिक सच्चाई यह है कि अगर पाकिस्तानी नेता तमीज से रहें तो भारत के लोग और सरकार उसकी मदद कर सकते हैं . पाकिस्तान को यह भरोसा होना चाहिए कि भारत को इस बात में कोई रूचि नहीं है कि वह पाकिस्तान को परेशान करे लेकिन मुसीबत की असली जड़ वहां की फौज है . फौज के लिए भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाना लगभग असंभव है . इसके दो कारण हैं . पहला तो यह कि भारत से दुश्मनी का हौव्वा खड़ा करके पाकिस्तानी जनरल अपने मुल्क में राजनीतिक और सिविलियन बिरादरी को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं . इसी के आधार पर उसे चीन जैसे देशों से थोड़ी बहुत आर्थिक मदद भी मिल जाती है . लेकिन दूसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है . आज की पाकिस्तानी फौज में टाप पर वही लोग हैं जिन्होंने १९७१ के आसपास पाकिस्तानी फौज़ में लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी और सेना में अपने जीवन का पहला अनुभव भारत के से हार के रूप में मिला था . उनके बहुत सारे साथी भारत में युद्ध बंदी बना लिए गए थे . उस दर्द को पाकिस्तानी फौज का आला नेतृत्व अभी भूल नहीं पाया है .उसी लड़ाई में पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा उस से अलग हो गया था और बंगलादेश की स्थापना हो गयी थी. पाकिस्तानी फौज़ को यह दंश हमेशा सालता रहता है . इसी दंश की पीड़ा के चक्कर में उनके एक अन्य पराजित जनरल , जिया -उल -हक ने भारत के पंजाब में खालिस्तान बनवा कर बदला लेने की कोशिश की थी . मैजूदा फौजी निजाम यही खेल कश्मीर में करने के चक्कर में है . फौज को मुगालता यह है कि उसके पास परमाणु बम है जिसके कारण भारत उस पर हमला नहीं करेगा . लेकिन ऐसा नहीं है . अगर कश्मीर में पाकिस्तानी फौज और आई एस आई ने संकट का स्तर इतना बढ़ा दिया कि भारत की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो गया तो भारतीय फौज पाकिस्तान को तबाह करने का माद्दा रखती है और वह उसे साबित भी कर सकती है . लेकिन फौजी जनरल को अक्ल की बात सिखा पाना थोडा टेढ़ा काम होता है . इसी तरह के हवाई किले बनाते हुए जनरल अयूब और जनरल याहया ने भारत पर हमला किया था जिसके नतीजे पाकिस्तान आज तक भोग रहा है .और उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती रहेगीं.
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो ,पाकिस्तानी हुक्मरान उससे बेखबर हैं .पाकिस्तानी सिविलियन सरकार के गैरज़िम्मेदार विदेश मंत्री भी आजकल अमरीका में हैं . वहां उन्होंने अमरीका से अपील की है कि उसे कश्मीर में भी उसी तरह से दखल देना चाहिये जैसे वह फिलिस्तीन में कर रहा है . अब इन पाकिस्तानी विदेशमंत्री जी को कौन समझाए कि पश्चिम एशिया में हालात दक्षिण एशिया से अलग हैं . वहां इजरायल सहित ज़्यादातर मुल्क अमरीका के दबाव में हैं .लेकिन दक्षिण एशिया में केवल पाकिस्तान पर उस तरह का अमरीकी दबाव है क्योंकि वह अमरीकी खैरात पर जिंदा है . जहां तक भारत का सवाल है ,वह एक उभरती हुई महाशक्ति है और अमरीका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रहा है . इस लिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो१९६५ में जनरल अयूब ने की थी . उनको लगता था अकी जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा और भारत कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआऔर पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. इस बार भी भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के सन इकहत्तर की लड़ाई के हारे हुए अफसर बदले की आग में जल रहे हैं , वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है . इसलिए इस बात का ख़तरा बढ़ चुका है कि पाकिस्तानी जनरल अपनी सेना के पिछले साठ साल के इतिहास से सबक न लें और भारत पर हमले की मूर्खता कर बैठें . ऐसी हालत में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कश्मीर से पाकिस्तान को हटने की चेतावानी देकर एस एम कृष्णा ने अच्छा काम किया है ताकि सनद रहे और अगर पाकिस्तानी फौज हमला करने के खतरे से खेलती है तो बाकी दुनिया को मालूम रहे कि भारत न तो गाफिल है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह की दया दिखाएगा .
( मूल लेख २६ सितम्बर के दैनिक जागरण में छापा हुआ है )
भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा आम तौर पर कमज़ोर राजनेता माने जाते हैं .और विदेश मंत्री के रूप में तो खैर वह बहुत ही कमज़ोर हैं ही . विदेश मंत्रालय के अफसरों में भी शायद अब लीदार्शोप रोल १९८० के बाद ग्रेजुएशन करने वाले लोग आ गए हैं जो अपने समय के सबसे कुशाग्रबुद्धि लोग नहीं हैं . उस दौर में बेहतरीन टैलेंट अन्य क्षेत्रों में जाने लगा था .शायद इसीलिये कूटनीति के क्षेत्र में पाकिस्तान जैसा मामूली मुल्क भी भारत के विदेशमंत्री को कूटनीति के मैदान में मात पर मात दे रहा था . विदेश मंत्री का संयुक्त राष्ट्र की महासभा में दिया गया भाषण इस बात को नकारता है . वहां विदेश मंत्री ने पाकिस्तान समेत बाकी दुनिया को भारत की मजबूती का अहसास करा दिया है . उन्होंने अपने भाषण में पाकिस्तान को साफ़ समझा दिया कि कश्मीर विवाद में जो सबसे महत्वपूर्ण बात होनी है उसे पाकिस्तान को सबसे पहले करना चाहिए . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाकों से पाकिस्तान को अपना गैरकानूनी क़ब्ज़ा हटा लेना चाहिये . उन्होंने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि उसे अब गैरज़िम्मेदार तरीके से आचरण नहीं करना चाहिए और भारत को यह बताने से बाज़ आना चाहिए कि वह कश्मीर का प्रशासन कैसे चलाये . पूरी दुनिया के समझदार लोग यह चाहते हैं कि पाकिस्तान अपने देश में मुसीबत झेल रहे आम आदमी को सम्मान का जीवन देने में अपनी सारी ताक़त लगाए लेकिन पाकिस्तानी फौज की दहशत में रहकर वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भारत विरोधी राग अलापते रहते हैं . आज की भू भौगोलिक सच्चाई यह है कि अगर पाकिस्तानी नेता तमीज से रहें तो भारत के लोग और सरकार उसकी मदद कर सकते हैं . पाकिस्तान को यह भरोसा होना चाहिए कि भारत को इस बात में कोई रूचि नहीं है कि वह पाकिस्तान को परेशान करे लेकिन मुसीबत की असली जड़ वहां की फौज है . फौज के लिए भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाना लगभग असंभव है . इसके दो कारण हैं . पहला तो यह कि भारत से दुश्मनी का हौव्वा खड़ा करके पाकिस्तानी जनरल अपने मुल्क में राजनीतिक और सिविलियन बिरादरी को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं . इसी के आधार पर उसे चीन जैसे देशों से थोड़ी बहुत आर्थिक मदद भी मिल जाती है . लेकिन दूसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है . आज की पाकिस्तानी फौज में टाप पर वही लोग हैं जिन्होंने १९७१ के आसपास पाकिस्तानी फौज़ में लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी और सेना में अपने जीवन का पहला अनुभव भारत के से हार के रूप में मिला था . उनके बहुत सारे साथी भारत में युद्ध बंदी बना लिए गए थे . उस दर्द को पाकिस्तानी फौज का आला नेतृत्व अभी भूल नहीं पाया है .उसी लड़ाई में पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा उस से अलग हो गया था और बंगलादेश की स्थापना हो गयी थी. पाकिस्तानी फौज़ को यह दंश हमेशा सालता रहता है . इसी दंश की पीड़ा के चक्कर में उनके एक अन्य पराजित जनरल , जिया -उल -हक ने भारत के पंजाब में खालिस्तान बनवा कर बदला लेने की कोशिश की थी . मैजूदा फौजी निजाम यही खेल कश्मीर में करने के चक्कर में है . फौज को मुगालता यह है कि उसके पास परमाणु बम है जिसके कारण भारत उस पर हमला नहीं करेगा . लेकिन ऐसा नहीं है . अगर कश्मीर में पाकिस्तानी फौज और आई एस आई ने संकट का स्तर इतना बढ़ा दिया कि भारत की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो गया तो भारतीय फौज पाकिस्तान को तबाह करने का माद्दा रखती है और वह उसे साबित भी कर सकती है . लेकिन फौजी जनरल को अक्ल की बात सिखा पाना थोडा टेढ़ा काम होता है . इसी तरह के हवाई किले बनाते हुए जनरल अयूब और जनरल याहया ने भारत पर हमला किया था जिसके नतीजे पाकिस्तान आज तक भोग रहा है .और उसकी आने वाली नस्लें भी भोगती रहेगीं.
ज़मीनी सच्चाई जो कुछ भी हो ,पाकिस्तानी हुक्मरान उससे बेखबर हैं .पाकिस्तानी सिविलियन सरकार के गैरज़िम्मेदार विदेश मंत्री भी आजकल अमरीका में हैं . वहां उन्होंने अमरीका से अपील की है कि उसे कश्मीर में भी उसी तरह से दखल देना चाहिये जैसे वह फिलिस्तीन में कर रहा है . अब इन पाकिस्तानी विदेशमंत्री जी को कौन समझाए कि पश्चिम एशिया में हालात दक्षिण एशिया से अलग हैं . वहां इजरायल सहित ज़्यादातर मुल्क अमरीका के दबाव में हैं .लेकिन दक्षिण एशिया में केवल पाकिस्तान पर उस तरह का अमरीकी दबाव है क्योंकि वह अमरीकी खैरात पर जिंदा है . जहां तक भारत का सवाल है ,वह एक उभरती हुई महाशक्ति है और अमरीका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते बनाए रखने की कोशिश कर रहा है . इस लिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो१९६५ में जनरल अयूब ने की थी . उनको लगता था अकी जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा और भारत कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआऔर पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. इस बार भी भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के सन इकहत्तर की लड़ाई के हारे हुए अफसर बदले की आग में जल रहे हैं , वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है . इसलिए इस बात का ख़तरा बढ़ चुका है कि पाकिस्तानी जनरल अपनी सेना के पिछले साठ साल के इतिहास से सबक न लें और भारत पर हमले की मूर्खता कर बैठें . ऐसी हालत में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कश्मीर से पाकिस्तान को हटने की चेतावानी देकर एस एम कृष्णा ने अच्छा काम किया है ताकि सनद रहे और अगर पाकिस्तानी फौज हमला करने के खतरे से खेलती है तो बाकी दुनिया को मालूम रहे कि भारत न तो गाफिल है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह की दया दिखाएगा .
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शेष नारायण सिंह
Saturday, September 25, 2010
यूं ही खिलाएं हैं हमने आग में फूल , न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई
शेष नारायण सिंह
भड़ास के संकट के बारे में जानकारी मिलने के बाद थोडा दुखी था. भड़ास और उसके जैसे कई अन्य पोर्टल मीडिया के जनवादीकरण के नायक हैं . इनमें कई नौजवानों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ. इनके पास अपने कंधे पर लटके हुए झोले में रखे कम्प्यूटर के अलावा कुछ नहीं है . ज़्यादातर अपने उसी कमरे से काम चला रहे हैं जिसमें वे रहते हैं . ऐसे ही एक नायक ने पिछले दिनों अपना ज़्यादातर वक़्त दोस्तों के घर में या सडकों पर बिताया . दिल्ली की मई जून की गर्मी उन्होंने अपने स्कूटर पर सवार होकर बिताई . ज़िंदगी की चुनौती को झेल रहे इस पत्रकार ने लगभग रोज़ ही कुछ न कुछ ऐसा पोस्ट किया जो पत्राकारिता की दिशा तय करने में कामयाब होने की क्षमता रखता था . बहुत बाद में मुझे पता चला कि वे दर ब दर हो गए हैं लेकिन काम चलता रहा. भड़ास का संकट जब पब्लिक डोमेन में आया तो मैं सन्न रह गया. मुझे लगा कि अब मदर इण्डिया वाले साहूकार की तरह कोई सेठ आयेगा और भड़ास के संचालक से उस पोर्टल को खरीद लेगा. मैं जानता हूँ कि पूंजी इसी तरह से आम आदमी के आन्दोलनों को को-आप्ट करती है. इसलिए भड़ास के किसी भी पैसे वाले नेता, सेठ या कंपनी के भोंपू बनने के खतरे साफ़ नज़र आने लगे लेकिन अब खबर आई है कि संकट ख़त्म हो गया .राहत की सांस आ रही है लेकिन कितने दिन ? बकरे की माँ को खैर मनाने का विकल्प बहुत कम वक़्त के लिए मिलता है . आज नहीं तो कल यह संकट फिर आयेगा और कहीं ऐसा न हो कि भड़ास का संचालक हिम्मत हार जाए . वह मीडिया के जनवादीकरण का बहुत बुरा दिन होगा. भड़ास जैसे और भी कुछ पोर्टल हैं .. विस्फोट है , जो किसी भी फीचर सम्पादक के लिए संकट मोचक है और किसी भी राजनीतिक पार्टी की एकाधिकारवादी सोच पर अक्सर लगाम लगाता रहता है . उसका सचालक भी आर्थिक संकट में रहता है . जनतंत्र और मोहल्ला वाले भी अपना सब कुछ दांव पर लगाकर मीडिया के जनवादीकरण के यज्ञ में अपनी आहुति दे रहे हैं . अभी हस्तक्षेप और नेटवर्क ६ भी आ गए हैं . यह सारे प्रयास अपने संचालकों की प्रतिबद्धता की वजह से चल रहे हैं और पूंजीवादी मीडिया की मनमानी को चुनौती दे रहे हैं . दकियानूसी विचारों को बहस की सरज़मीन पर बार बार लथेर रहे हैं . सबको बहस में शामिल होने का मौक़ा दे रहे हैं .
सवाल यह उठता है कि क्या इस वैकल्पिक और ताक़तवर मीडिया को मर जाने देना जनहित में है . मुझे लगता है कि सूचना के इस माध्यम को जिंदा रखना जनहित में है. यह माध्यम हुक्मरान और पूंजी के सेठों पर लगाम लगाता है. लेकिन बिना पैसे के कैसे चलेगा यह और कब तक चलेगा. जो लोग इसे चला रहे हैं, उनमें से सब की योग्यता इतनी है कि आज चाहें तो एकाध लाख रूपये महीने की नौकरी पकड़ लें लेकिन सूचनाक्रान्ति के उस रथ का क्या होगा जिसके सारथी बनकर यह लोग भावी मीडिया की कुण्डली बना रहे हैं . ऐसा ही संकट एक बार तहलका पर आया था. उस वक़्त की सरकार ने लाठी भांजना शुरू कर दिया था . उन लोगों को भी जेल की हवा खिला दी थी जो तहलका के संस्थापक , तरुण तेजपाल के मित्र थे. तरुण के पास हार मानने का विकल्प मौजूद था लेकिन उन्होंने जीतने का फैसला किया . लेकिन यह भी तय किया कि बड़ी पूंजी को अपने आन्दोलन का कंट्रोल कभी नहीं देगें . तरुण तेजपाल ने अपने चाहने वालों से कहा अगर वे एक लाख रूपया जमा कर के तहलका के आजीवन सदस्य बनना चाहें तो तहलका फिर से शुरू हो सकता है . याद रखें, तहलका ने उस वक़्त की सरकार से पंगा लिया था और सरकार ने ही तरुण तेजपाल और उनके दोस्तों पर अजीबोगरीब आरोप लगाए थे. हज़ारों की संख्या में लोगों ने एक एक लाख रूपये जमा कर के तहलका को चला दिया . तरुण तेजपाल के सामने एक और विकल्प था कि वे चाहते तो किसी भी पूंजीपति को कह सकते थे और कोई भी उनके उद्यम में पैसा लगाकर धन्य हो जाता लेकिन तब ब्रैंड मेनेजर आ जाता, मार्केटिंग वाला ज्ञान देने लगता और फिर वह नहीं हो पाता जिसके लिए तहलका जाना जाता है .
मेरे मन में बार बार सवाल आता है कि नवजागरण के इन नायकों और उनके पोर्टलों को संभालने के लिए क्या समाज आगे नहीं आ सकता. वैकल्पिक मीडिया के यह स्तम्भ अगर गिर गए तो शायद आवाज़ तो न हो लेकिन राजनीतिक दलों और पूंजी नियंत्रित मीडिया के अन्य माध्यमों की चांदी हो जायगी और आम आदमी की पंहुच से सही खबर एक बार फिर बाहर हो जायेगी. मीडिया के इन मंदिरों के पुजारियों को भी चाहिये की सही सूचना की जिस देवी की यह लोग आराधना कर रहे हैं उस देवी के चरणों में आम आदमी के पत्र-पुष्प का भी स्वागत करें जिससे मीडिया के जनवादीकरण की यह चिंगारी एक ऐसा शोला बन जाए कि आम आदमी की पक्षधरता के सिवा पूंजीवादी मीडिया के सामने कोई रास्ता ही न बचे .
ऐसा नहीं है कि यह प्रयोग पहली बार हो रहा है . बार बार हुआ है और स्थापित मान्यताओं को मुंह की कहानी पड़ी है . आर्थिक सहयोग करना सबको अच्छा लगता है . हमारे मित्र और १९७७ के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के यूनियन के चुनावों के एक महत्वपूर्ण नेता, राजेन्द्र शर्मा की एक सूक्ति मुझे याद आती है . नए लोगों को बता देना ज़रूरी है कि १९७७ का चुनाव इंदिरा-संजय की इमरजेंसी की तानाशाही की हार के बाद लड़ा गया था . राजेन्द्र शर्मा सीताराम येचुरी और उनकी टीम के लिए वोट मांग रहे थे. वोट के साथ चुनाव के लिए वे एक रूपये की आर्थिक सहायता भी लेते थे. जब उनके इस काम पर चर्चा हुई तो आपने फरमाया कि जो भी एक रूपया दे देगा , वह इस चुनाव में जनवादी ताक़तों का पक्ष धर हो जाएगा. राज्नेद्र की उस बात को मैंने बार बार टेस्ट किया है और आज लगता है कि पूंजीवादी मीडिया की मनमानी रोकने के लिए आम आदमी को अपनी पक्षधरता का ऐलान करना चाहिए .
भड़ास के संकट के बारे में जानकारी मिलने के बाद थोडा दुखी था. भड़ास और उसके जैसे कई अन्य पोर्टल मीडिया के जनवादीकरण के नायक हैं . इनमें कई नौजवानों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ. इनके पास अपने कंधे पर लटके हुए झोले में रखे कम्प्यूटर के अलावा कुछ नहीं है . ज़्यादातर अपने उसी कमरे से काम चला रहे हैं जिसमें वे रहते हैं . ऐसे ही एक नायक ने पिछले दिनों अपना ज़्यादातर वक़्त दोस्तों के घर में या सडकों पर बिताया . दिल्ली की मई जून की गर्मी उन्होंने अपने स्कूटर पर सवार होकर बिताई . ज़िंदगी की चुनौती को झेल रहे इस पत्रकार ने लगभग रोज़ ही कुछ न कुछ ऐसा पोस्ट किया जो पत्राकारिता की दिशा तय करने में कामयाब होने की क्षमता रखता था . बहुत बाद में मुझे पता चला कि वे दर ब दर हो गए हैं लेकिन काम चलता रहा. भड़ास का संकट जब पब्लिक डोमेन में आया तो मैं सन्न रह गया. मुझे लगा कि अब मदर इण्डिया वाले साहूकार की तरह कोई सेठ आयेगा और भड़ास के संचालक से उस पोर्टल को खरीद लेगा. मैं जानता हूँ कि पूंजी इसी तरह से आम आदमी के आन्दोलनों को को-आप्ट करती है. इसलिए भड़ास के किसी भी पैसे वाले नेता, सेठ या कंपनी के भोंपू बनने के खतरे साफ़ नज़र आने लगे लेकिन अब खबर आई है कि संकट ख़त्म हो गया .राहत की सांस आ रही है लेकिन कितने दिन ? बकरे की माँ को खैर मनाने का विकल्प बहुत कम वक़्त के लिए मिलता है . आज नहीं तो कल यह संकट फिर आयेगा और कहीं ऐसा न हो कि भड़ास का संचालक हिम्मत हार जाए . वह मीडिया के जनवादीकरण का बहुत बुरा दिन होगा. भड़ास जैसे और भी कुछ पोर्टल हैं .. विस्फोट है , जो किसी भी फीचर सम्पादक के लिए संकट मोचक है और किसी भी राजनीतिक पार्टी की एकाधिकारवादी सोच पर अक्सर लगाम लगाता रहता है . उसका सचालक भी आर्थिक संकट में रहता है . जनतंत्र और मोहल्ला वाले भी अपना सब कुछ दांव पर लगाकर मीडिया के जनवादीकरण के यज्ञ में अपनी आहुति दे रहे हैं . अभी हस्तक्षेप और नेटवर्क ६ भी आ गए हैं . यह सारे प्रयास अपने संचालकों की प्रतिबद्धता की वजह से चल रहे हैं और पूंजीवादी मीडिया की मनमानी को चुनौती दे रहे हैं . दकियानूसी विचारों को बहस की सरज़मीन पर बार बार लथेर रहे हैं . सबको बहस में शामिल होने का मौक़ा दे रहे हैं .
सवाल यह उठता है कि क्या इस वैकल्पिक और ताक़तवर मीडिया को मर जाने देना जनहित में है . मुझे लगता है कि सूचना के इस माध्यम को जिंदा रखना जनहित में है. यह माध्यम हुक्मरान और पूंजी के सेठों पर लगाम लगाता है. लेकिन बिना पैसे के कैसे चलेगा यह और कब तक चलेगा. जो लोग इसे चला रहे हैं, उनमें से सब की योग्यता इतनी है कि आज चाहें तो एकाध लाख रूपये महीने की नौकरी पकड़ लें लेकिन सूचनाक्रान्ति के उस रथ का क्या होगा जिसके सारथी बनकर यह लोग भावी मीडिया की कुण्डली बना रहे हैं . ऐसा ही संकट एक बार तहलका पर आया था. उस वक़्त की सरकार ने लाठी भांजना शुरू कर दिया था . उन लोगों को भी जेल की हवा खिला दी थी जो तहलका के संस्थापक , तरुण तेजपाल के मित्र थे. तरुण के पास हार मानने का विकल्प मौजूद था लेकिन उन्होंने जीतने का फैसला किया . लेकिन यह भी तय किया कि बड़ी पूंजी को अपने आन्दोलन का कंट्रोल कभी नहीं देगें . तरुण तेजपाल ने अपने चाहने वालों से कहा अगर वे एक लाख रूपया जमा कर के तहलका के आजीवन सदस्य बनना चाहें तो तहलका फिर से शुरू हो सकता है . याद रखें, तहलका ने उस वक़्त की सरकार से पंगा लिया था और सरकार ने ही तरुण तेजपाल और उनके दोस्तों पर अजीबोगरीब आरोप लगाए थे. हज़ारों की संख्या में लोगों ने एक एक लाख रूपये जमा कर के तहलका को चला दिया . तरुण तेजपाल के सामने एक और विकल्प था कि वे चाहते तो किसी भी पूंजीपति को कह सकते थे और कोई भी उनके उद्यम में पैसा लगाकर धन्य हो जाता लेकिन तब ब्रैंड मेनेजर आ जाता, मार्केटिंग वाला ज्ञान देने लगता और फिर वह नहीं हो पाता जिसके लिए तहलका जाना जाता है .
मेरे मन में बार बार सवाल आता है कि नवजागरण के इन नायकों और उनके पोर्टलों को संभालने के लिए क्या समाज आगे नहीं आ सकता. वैकल्पिक मीडिया के यह स्तम्भ अगर गिर गए तो शायद आवाज़ तो न हो लेकिन राजनीतिक दलों और पूंजी नियंत्रित मीडिया के अन्य माध्यमों की चांदी हो जायगी और आम आदमी की पंहुच से सही खबर एक बार फिर बाहर हो जायेगी. मीडिया के इन मंदिरों के पुजारियों को भी चाहिये की सही सूचना की जिस देवी की यह लोग आराधना कर रहे हैं उस देवी के चरणों में आम आदमी के पत्र-पुष्प का भी स्वागत करें जिससे मीडिया के जनवादीकरण की यह चिंगारी एक ऐसा शोला बन जाए कि आम आदमी की पक्षधरता के सिवा पूंजीवादी मीडिया के सामने कोई रास्ता ही न बचे .
ऐसा नहीं है कि यह प्रयोग पहली बार हो रहा है . बार बार हुआ है और स्थापित मान्यताओं को मुंह की कहानी पड़ी है . आर्थिक सहयोग करना सबको अच्छा लगता है . हमारे मित्र और १९७७ के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के यूनियन के चुनावों के एक महत्वपूर्ण नेता, राजेन्द्र शर्मा की एक सूक्ति मुझे याद आती है . नए लोगों को बता देना ज़रूरी है कि १९७७ का चुनाव इंदिरा-संजय की इमरजेंसी की तानाशाही की हार के बाद लड़ा गया था . राजेन्द्र शर्मा सीताराम येचुरी और उनकी टीम के लिए वोट मांग रहे थे. वोट के साथ चुनाव के लिए वे एक रूपये की आर्थिक सहायता भी लेते थे. जब उनके इस काम पर चर्चा हुई तो आपने फरमाया कि जो भी एक रूपया दे देगा , वह इस चुनाव में जनवादी ताक़तों का पक्ष धर हो जाएगा. राज्नेद्र की उस बात को मैंने बार बार टेस्ट किया है और आज लगता है कि पूंजीवादी मीडिया की मनमानी रोकने के लिए आम आदमी को अपनी पक्षधरता का ऐलान करना चाहिए .
Thursday, September 23, 2010
कश्मीर में सर्वदलीय पहल में अडंगा लगाने की बी जे पी की कोशिश
शेष नारायण सिंह
कश्मीर की हालात के बारे में केंद्र सरकार का ताज़ा रुख स्वागत योग्य है . बहुत वर्षों बाद केंद्र सरकार के नेता कश्मीर समस्या के बारे में शुतुरमुर्गी नीति से बाहर निकल पाए हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की दो दिन की यात्रा पर गया सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर की समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में रखने में मील का पत्थर साबित होगा..यह अलग बात है कि बी जे पी ने इस अवसर पर भी राजनीति खेलने की कोशिश की लेकिन आज पूरे देश में कश्मीर समस्या का हल खोजने का माहौल बन चुका है . लगभग सभी चाहते हैं कि कश्मीर समस्या में पाकिस्तान की दखलंदाजी ख़त्म हो. देश में जागरूक जनमत को मालूम है कि कश्मीर समस्या को पैदा करने में सबसे ज्यादा योगदान बी जे पी का ही है . १९४७ में प्रजा परिषद ने कश्मीर के राजा का उस वक़्त भी साथ दिया था जब वह भारत से अलग रहना चाहता था . उस वक़्त भी प्रजा परिषद् राजा के साथ थी जब वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान से मिलना चाहता था.बाद में यही प्रजापरिषद जम्मू-कश्मीर में जनसंघ की शाखा बन गयी. इसी प्रजपरिषद के नेताओं ने डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी का इस्तेमाल शेख अब्दुल्ला के खिलाफ किया था. और अब इसी प्रजापरिषद् की वारिस पार्टी बी जे पी ने कश्मीर समस्या के हल के लिए की जा रही सर्वदलीय पहल में अडंगा डालने की कोशिश की है . इसी पार्टी के मौजूदा नेता , अरुण नेहरू और जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर की हालात को सबसे ज्यादा बिगाड़ा है , यह बात राजनीति शास्त्र का बहुत मामूली जानकार भी बता देगा. जम्मू-कश्मीर में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य के रूप में वहां पंहुची सुषमा स्वराज ने भी हालात को बिगाड़ने में अपनी पार्टी की लाइन के हिसाब से भूमिका निभाई. सुषमा स्वराज ने खबरों में बने रहने के चक्कर में असदुद्दीन ओवैसी,सीताराम येचुरी , राम विलास पासवान आदि की उस कोशिश का विरोध किया जिसमें जम्मू कश्मीर में मुसीबत की जड़ , हुर्रियत नेताओं से संपर्क साधा गया था.देखा गया है कि सुषमा स्वराज सहित लगभग सभी बी जे पी नेताओं की इच्छा रहती है कि वे ही सबके ध्यान का केंद्र बने रहें. शायद इसी चक्कर में उन्होंने अलगाववादी नेताओं से हुई मुलाक़ात को विवाद के घेरे में लाकर अखबारी सुर्ख़ियों में अपना नाम दर्ज करवाया होगा. लेकिन इस बात में दो राय नहीं कि कश्मीर की हालत पर सरकारी अफसरों या नेशनल कान्फरेंस के नेताओं की रिपोर्ट को सच मान कर फैसले लेना गलत था . सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल की यात्रा पिछले ३० साल से जो हो रहा है उसे राष्ट्रहित की कसौटी पर जांचने का यह एक अहम प्रयास है . किसी भी लोकतंत्र के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण है कि सरकार के नीतिगत फैसलों में राजनीतिक बिरादरी के इनपुट का अहम रोल हो . कश्मीर के सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू की मौत के बाद जयप्रकाश नारायण ने इस दिशा में कोशिश की थी और उसका नतीजा भी निकला था . १९७७ का चुनाव कश्मीर में हुए अब तक के चुनावों में सबसे पारदर्शी चुनाव माना जाता है . लेकिन १९८० में दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी के बाद सब कुछ खराब हो गया . पता नहीं किस सोच के तहत इंदिरा गाँधी ने अरुण नेहरू को कश्मीर के मामले में खुली छूट दे दी थी और उनके साथ मिलकर जगमोहन जैसे उनके सलाहकारों ने कश्मीर की राजनीति का मलीदा बना दिया और पाकिस्तान को दखल देने के अवसर उपलब्ध करवाए. . नतीजा सबके सामने है . एक मुकाम तो यह भी आया कि भारत के गृहमंत्री की बेटी को भी आतंकवादियों ने अगवा कर लिया. हालात दिन ब दिन खराब होते गए. आज स्थिति यह है कि कश्मीर से वहां के पंडितों को आतंकवादियों ने भगा दिया है और आतंकवादियों की मनमानी चल रही है . उनको घेर कर भारत की सोच का हिस्सा बनाने की इस राजनीतिक कोशिश का स्वागत किया जाना चाहिए . लेकिन बी जे पी यहाँ भी राजनीतिक बडबोलेपन से बाज़ नहीं आ रही है . बी जे पी को कश्मीर के सन्दर्भ में अपनी सोच की ओवर हालिंग करनी चाहिए वरना अगर कश्मीर में कुछ भी उल्टा सीधा हुआ तो आने वाली नस्लें उसके लिए बी जे पी और उसकी तरह की सोच वालों को ज़िम्मेदार ठहरायेगी . ठीक उसी तरह जैसे आज हर समझदार आदमी कश्मीर की हालात बिगाड़ने के लिए प्रजापरिषद , जनसंघ और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को ज़िम्मेदार मानता है .
इस बार कश्मीर के मसले को ठीक करने की पहल में राजनीति के साथ साथ कूटनीतिक पहल भी हो रही है . पाकिस्तानी संसद में एक गैरजिम्मेदार प्रस्ताव पारित हुआ था जिसमें जम्मू-कश्मीर के मामले में गैरज़रूरी हस्तक्षेप की बू आ रही थी . भारत सरकार ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई है . विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने एक बयान में सरकार की मंशा साफ़ कर दी है . प्रवक्ता ने बताया कि ' हमने पाकिस्तान की कौमी असेम्बली और सेनेट में पास किये गए प्रस्ताव को देखा है . हम उसे सिरे से खारिज करते हैं ..पाकिस्तान का जम्मू-कश्मीर के मामलों में कोई रोल नहीं है .क्योंकि कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है वह भारत का आतंरिक मामला है.'.विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बताया कि पाकिस्तान को चाहिए कि वह अपने देश में संविधान लागू करे और जम्मू-कश्मीर का जो इलाका पाकिस्तान के गैर कानूनी कब्जे में है , वहां लोकतंत्र की स्थापना करे , आतंकवाद को अपने देश से ख़त्म करे और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर सहित बाकी इलाकों में मानवाधिकारों की बहाली करे . पाकिस्तान की हालत आजकल बहुत खराब हैं . आतंकवाद, घूस , बे-ईमानी , फौज की मनमानी , गरीबी जैसे संकट से गुज़र रहे पाकिस्तान के नेताओं को चाहिए कि वे अपने देश में इंसान की इज़्ज़त करने की कोई तरकीब शुरू करें . कुदरत ने भी पाकिस्तान को घेर लिया है . इस साल वहां आई बाढ़ ने पाकिस्तानी समाज को तहस नहस कर दिया है लेकिन घूस की गिज़ा खाकर सत्ता के केंद्र में बैठे पाकिस्तानी नेता भारत के मामलों में टांग अडाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं . भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों ने कश्मीर के प्रति जो सकारात्मक रुख अपनाया है , उसके बाद तो लगता है कि कश्मीरी जनता एक बार अपने आप को फिर भारत का हिस्सा मानने में गर्व महसूस करेगी
कश्मीर की हालात के बारे में केंद्र सरकार का ताज़ा रुख स्वागत योग्य है . बहुत वर्षों बाद केंद्र सरकार के नेता कश्मीर समस्या के बारे में शुतुरमुर्गी नीति से बाहर निकल पाए हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की दो दिन की यात्रा पर गया सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर की समस्या को सही परिप्रेक्ष्य में रखने में मील का पत्थर साबित होगा..यह अलग बात है कि बी जे पी ने इस अवसर पर भी राजनीति खेलने की कोशिश की लेकिन आज पूरे देश में कश्मीर समस्या का हल खोजने का माहौल बन चुका है . लगभग सभी चाहते हैं कि कश्मीर समस्या में पाकिस्तान की दखलंदाजी ख़त्म हो. देश में जागरूक जनमत को मालूम है कि कश्मीर समस्या को पैदा करने में सबसे ज्यादा योगदान बी जे पी का ही है . १९४७ में प्रजा परिषद ने कश्मीर के राजा का उस वक़्त भी साथ दिया था जब वह भारत से अलग रहना चाहता था . उस वक़्त भी प्रजा परिषद् राजा के साथ थी जब वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान से मिलना चाहता था.बाद में यही प्रजापरिषद जम्मू-कश्मीर में जनसंघ की शाखा बन गयी. इसी प्रजपरिषद के नेताओं ने डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी का इस्तेमाल शेख अब्दुल्ला के खिलाफ किया था. और अब इसी प्रजापरिषद् की वारिस पार्टी बी जे पी ने कश्मीर समस्या के हल के लिए की जा रही सर्वदलीय पहल में अडंगा डालने की कोशिश की है . इसी पार्टी के मौजूदा नेता , अरुण नेहरू और जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर की हालात को सबसे ज्यादा बिगाड़ा है , यह बात राजनीति शास्त्र का बहुत मामूली जानकार भी बता देगा. जम्मू-कश्मीर में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य के रूप में वहां पंहुची सुषमा स्वराज ने भी हालात को बिगाड़ने में अपनी पार्टी की लाइन के हिसाब से भूमिका निभाई. सुषमा स्वराज ने खबरों में बने रहने के चक्कर में असदुद्दीन ओवैसी,सीताराम येचुरी , राम विलास पासवान आदि की उस कोशिश का विरोध किया जिसमें जम्मू कश्मीर में मुसीबत की जड़ , हुर्रियत नेताओं से संपर्क साधा गया था.देखा गया है कि सुषमा स्वराज सहित लगभग सभी बी जे पी नेताओं की इच्छा रहती है कि वे ही सबके ध्यान का केंद्र बने रहें. शायद इसी चक्कर में उन्होंने अलगाववादी नेताओं से हुई मुलाक़ात को विवाद के घेरे में लाकर अखबारी सुर्ख़ियों में अपना नाम दर्ज करवाया होगा. लेकिन इस बात में दो राय नहीं कि कश्मीर की हालत पर सरकारी अफसरों या नेशनल कान्फरेंस के नेताओं की रिपोर्ट को सच मान कर फैसले लेना गलत था . सर्वदलीय प्रतिनधिमंडल की यात्रा पिछले ३० साल से जो हो रहा है उसे राष्ट्रहित की कसौटी पर जांचने का यह एक अहम प्रयास है . किसी भी लोकतंत्र के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण है कि सरकार के नीतिगत फैसलों में राजनीतिक बिरादरी के इनपुट का अहम रोल हो . कश्मीर के सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू की मौत के बाद जयप्रकाश नारायण ने इस दिशा में कोशिश की थी और उसका नतीजा भी निकला था . १९७७ का चुनाव कश्मीर में हुए अब तक के चुनावों में सबसे पारदर्शी चुनाव माना जाता है . लेकिन १९८० में दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी के बाद सब कुछ खराब हो गया . पता नहीं किस सोच के तहत इंदिरा गाँधी ने अरुण नेहरू को कश्मीर के मामले में खुली छूट दे दी थी और उनके साथ मिलकर जगमोहन जैसे उनके सलाहकारों ने कश्मीर की राजनीति का मलीदा बना दिया और पाकिस्तान को दखल देने के अवसर उपलब्ध करवाए. . नतीजा सबके सामने है . एक मुकाम तो यह भी आया कि भारत के गृहमंत्री की बेटी को भी आतंकवादियों ने अगवा कर लिया. हालात दिन ब दिन खराब होते गए. आज स्थिति यह है कि कश्मीर से वहां के पंडितों को आतंकवादियों ने भगा दिया है और आतंकवादियों की मनमानी चल रही है . उनको घेर कर भारत की सोच का हिस्सा बनाने की इस राजनीतिक कोशिश का स्वागत किया जाना चाहिए . लेकिन बी जे पी यहाँ भी राजनीतिक बडबोलेपन से बाज़ नहीं आ रही है . बी जे पी को कश्मीर के सन्दर्भ में अपनी सोच की ओवर हालिंग करनी चाहिए वरना अगर कश्मीर में कुछ भी उल्टा सीधा हुआ तो आने वाली नस्लें उसके लिए बी जे पी और उसकी तरह की सोच वालों को ज़िम्मेदार ठहरायेगी . ठीक उसी तरह जैसे आज हर समझदार आदमी कश्मीर की हालात बिगाड़ने के लिए प्रजापरिषद , जनसंघ और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को ज़िम्मेदार मानता है .
इस बार कश्मीर के मसले को ठीक करने की पहल में राजनीति के साथ साथ कूटनीतिक पहल भी हो रही है . पाकिस्तानी संसद में एक गैरजिम्मेदार प्रस्ताव पारित हुआ था जिसमें जम्मू-कश्मीर के मामले में गैरज़रूरी हस्तक्षेप की बू आ रही थी . भारत सरकार ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई है . विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने एक बयान में सरकार की मंशा साफ़ कर दी है . प्रवक्ता ने बताया कि ' हमने पाकिस्तान की कौमी असेम्बली और सेनेट में पास किये गए प्रस्ताव को देखा है . हम उसे सिरे से खारिज करते हैं ..पाकिस्तान का जम्मू-कश्मीर के मामलों में कोई रोल नहीं है .क्योंकि कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है वह भारत का आतंरिक मामला है.'.विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बताया कि पाकिस्तान को चाहिए कि वह अपने देश में संविधान लागू करे और जम्मू-कश्मीर का जो इलाका पाकिस्तान के गैर कानूनी कब्जे में है , वहां लोकतंत्र की स्थापना करे , आतंकवाद को अपने देश से ख़त्म करे और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर सहित बाकी इलाकों में मानवाधिकारों की बहाली करे . पाकिस्तान की हालत आजकल बहुत खराब हैं . आतंकवाद, घूस , बे-ईमानी , फौज की मनमानी , गरीबी जैसे संकट से गुज़र रहे पाकिस्तान के नेताओं को चाहिए कि वे अपने देश में इंसान की इज़्ज़त करने की कोई तरकीब शुरू करें . कुदरत ने भी पाकिस्तान को घेर लिया है . इस साल वहां आई बाढ़ ने पाकिस्तानी समाज को तहस नहस कर दिया है लेकिन घूस की गिज़ा खाकर सत्ता के केंद्र में बैठे पाकिस्तानी नेता भारत के मामलों में टांग अडाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं . भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों ने कश्मीर के प्रति जो सकारात्मक रुख अपनाया है , उसके बाद तो लगता है कि कश्मीरी जनता एक बार अपने आप को फिर भारत का हिस्सा मानने में गर्व महसूस करेगी
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शेष नारायण सिंह,
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Wednesday, September 22, 2010
अफगानिस्तान में इंसान को मारकर खुश होते थे अमरीकी सैनिक
शेष नारायण सिंह
अमरीकी फौजियों की वहशत का एक नया मामला सामने आया है . पता चला है कि अफगानिस्तान में तैनात अमरीकी सेना के दूसरे इन्फैंट्री डिवीज़न के पांचवे स्ट्राइकर कोम्बाट ब्रिगेड के कुछ सैनिकों ने एक ऐसा खेल ईजाद किया जिसमें अफगानिस्तान के निर्दोष नागरिकों को मार डालने और बच निकलने को मज़े के लिए खेले जाने वाले एक खेल का रूप दे दिया गया था . इस जालिमाना खेल का और कोई नियम नहीं था . बस कोई बहाना ढूंढ कर किसी निर्दोष अफगान नागरिक को मार डालना था . हर वारदात के लिए नंबर मिलते थे. यह खेल २००७ में १५ जनवरी को शुरू हुआ जब एक अफगान नागरिक ब्रिगेड की कैम्प के पास आया . एक सैनिक ने एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया और कहा कि वह अफगान हमला करने की गरज से आया था , बस क्या था ,बाकी लोगों ने गोलियां बरसाना शुरू कर दिया . यह खेल एक महीने तक चलता रहा और बहुत सारे अफगान नागरिक मारे गए. ज़ुल्म का आलम यह था कि इस प्लाटून के सदस्य मरे हुए नागरिकों की लाशों की फोटो खींच कर ट्राफी की तरह रखते थे. एक सैनिक के पास तो एक नरमुंड भी पकड़ा गया है . ऐसा नहीं है कि सेना के अधिकारियों को इसके बारे में मालूम नहीं था. एक अमरीकी नागरिक ने अमरीकी सेना के सर्वोच्च नेतृत्व को इस तरह की पहली ह्त्या बाद ही चेतावनी दे दी थी . उसका अपना ही बेटा इस खेल में शामिल था जिसने अपने पिता को इस सम्बन्ध में जानकारी देते हुए ,शेखी बघारी थी लेकिन सेना के बड़े अधिकारियों ने इस जानकारी को पूरी तरह से नज़रंदाज़ किया था. यहीं नहीं इस सैनिक के पिता को सेना के अधिकारियों ने डांट भी दिया था. इस जघन्य अपराध में शामिल अमरीकियों ने अफगानिस्तान के कंदहार प्रांत में और भी कई आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने का काम किया है . उनके ही एक साथी ने जब इस सारे मामले को ऊपर तक पंहुचाने की कोशिश की तो उसे भी ठिकाने लगाने की कोशिश की गयी. अपराधी फौजियों के इस कारनामे की जांच अब अमरीकी सेना कर रही है लेकिन उन्हें अपराधी सैनिकों को सज़ा दिलवाने से ज्यादा चिंता इस बात की है कि कहीं बात खुल न जाए क्योंकि उस हालत में अमरीकी सेना की बहुत बदनामी होगी . अपराधी सैनिकों के घर वाले और उनके वकील अपने बन्दों को निर्दोष बता रहे हैं और औरों के ऊपर आरोप लगा रहे हैं लेकिन बात इतनी गंभीर है कि अपराध के बारे में किसी को शक़ नहीं है . जानकार बाते हैं कि बात के खुल जाने के बाद अमरीकी अधिकारी जांच इस लिए कर रहे हैं कि मामले को रफा दफा किया जा सके. लेकिन अब यह इतना आसन नहीं होगा क्योंकि चश्मदीद गवाहों ने इस मौत के अमरीकी खेल के पहले शिकार की पहचान गुलमुद्दीन नाम के अफगान के रूप में की है ,जो कंदहार प्रांत के मैवंद जिले के ला मोहम्मद काले गाँव का रहने वाला था . वह इस वहशत भरे अपराध का पहला शिकार था इसके बाद क़त्ल का यह सिलसिला चलता रहा और अमरीकी प्रशासन के बड़े फौजियों ने हस्तक्षेप करने के बजाय मामले को दबाने की कोशिश की. अपराध में शरीक एक अमरीकी सैनिक के पिता ने सारे मामले को बाहर लाने में मदद की , यह अलग बात है कि अब उसकी परेशानियाँ बहुत बढ़ गयी हैं . शुरू में तो उसे अधिकारियों ने टालने की कोशिश की लेकिन बाद में उनकी कोशिश रंग लाई और अब सेना ही जांच कर रही है . बात मीडिया की नज़र में है इसलिए दब जाने की कोई संभावना नहीं है . जब अमरीका ने आज से करीब ९ साल पहले अफगानिस्तान का अभियान शुरू किया था तो जानकारों ने कहा था कि यह अमरीका के लिए वियतमान से भी ज्यादा मुश्किल सैनिक अभियान साबित होगा लेकिन उन दिनों अमरीकी राष्ट्रपति , बुश जूनियर के पास ब्रिटेन के प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर थे जो बुश की हर बात को सही साबित करने के लिए व्याकुल रहते थे. बहर हाल अमरीका ने जिस मकसद को घोषित करके अफगानिस्तान पर हमला किया था वहां तक पंहुचने की तो कोई संभावना ही नहीं है . क्योंकि अल कायदा और उसके मातहत काम करने वाले तालिबान पहले से ज्यादा मज़बूत हो गए हैं जबकि अमरीका अफगानिस्तान की लड़ाई में रोज़ ही शिकस्त झेल रहा है .अब तो मानवाधिकारों के क्षेत्र में इतनी नीच गतिविधियों में शामिल अपने फौजियों को लेकर अमरीकी सेना कहाँ मुंह छुपाएगी.
जहां तक अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले की बात है ,उसे तो अब कोई सही नहीं मानता लेकिन इस हमले से हुए अमरीकी नुकसान का आकलन कर पाना अपने आप में एक कठिन काम है . इस लड़ाई में अमरीकी सेना के बहुत ज्यादा सैनिक मारे गए हैं , बहुत ज़्यादा धन लगा है और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले एक मुल्क को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता देनी पड़ी है . लेकिन उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति बुश को आम तौर पर मंदबुद्धि इंसान मान जाता है . उन्होंने इस मूर्खता पूर्ण अभियान की शुरुआत की थी जिसे आने वाले वक़्त में अमरीकी जनता भोगेगी.
अमरीकी फौजियों की वहशत का एक नया मामला सामने आया है . पता चला है कि अफगानिस्तान में तैनात अमरीकी सेना के दूसरे इन्फैंट्री डिवीज़न के पांचवे स्ट्राइकर कोम्बाट ब्रिगेड के कुछ सैनिकों ने एक ऐसा खेल ईजाद किया जिसमें अफगानिस्तान के निर्दोष नागरिकों को मार डालने और बच निकलने को मज़े के लिए खेले जाने वाले एक खेल का रूप दे दिया गया था . इस जालिमाना खेल का और कोई नियम नहीं था . बस कोई बहाना ढूंढ कर किसी निर्दोष अफगान नागरिक को मार डालना था . हर वारदात के लिए नंबर मिलते थे. यह खेल २००७ में १५ जनवरी को शुरू हुआ जब एक अफगान नागरिक ब्रिगेड की कैम्प के पास आया . एक सैनिक ने एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया और कहा कि वह अफगान हमला करने की गरज से आया था , बस क्या था ,बाकी लोगों ने गोलियां बरसाना शुरू कर दिया . यह खेल एक महीने तक चलता रहा और बहुत सारे अफगान नागरिक मारे गए. ज़ुल्म का आलम यह था कि इस प्लाटून के सदस्य मरे हुए नागरिकों की लाशों की फोटो खींच कर ट्राफी की तरह रखते थे. एक सैनिक के पास तो एक नरमुंड भी पकड़ा गया है . ऐसा नहीं है कि सेना के अधिकारियों को इसके बारे में मालूम नहीं था. एक अमरीकी नागरिक ने अमरीकी सेना के सर्वोच्च नेतृत्व को इस तरह की पहली ह्त्या बाद ही चेतावनी दे दी थी . उसका अपना ही बेटा इस खेल में शामिल था जिसने अपने पिता को इस सम्बन्ध में जानकारी देते हुए ,शेखी बघारी थी लेकिन सेना के बड़े अधिकारियों ने इस जानकारी को पूरी तरह से नज़रंदाज़ किया था. यहीं नहीं इस सैनिक के पिता को सेना के अधिकारियों ने डांट भी दिया था. इस जघन्य अपराध में शामिल अमरीकियों ने अफगानिस्तान के कंदहार प्रांत में और भी कई आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने का काम किया है . उनके ही एक साथी ने जब इस सारे मामले को ऊपर तक पंहुचाने की कोशिश की तो उसे भी ठिकाने लगाने की कोशिश की गयी. अपराधी फौजियों के इस कारनामे की जांच अब अमरीकी सेना कर रही है लेकिन उन्हें अपराधी सैनिकों को सज़ा दिलवाने से ज्यादा चिंता इस बात की है कि कहीं बात खुल न जाए क्योंकि उस हालत में अमरीकी सेना की बहुत बदनामी होगी . अपराधी सैनिकों के घर वाले और उनके वकील अपने बन्दों को निर्दोष बता रहे हैं और औरों के ऊपर आरोप लगा रहे हैं लेकिन बात इतनी गंभीर है कि अपराध के बारे में किसी को शक़ नहीं है . जानकार बाते हैं कि बात के खुल जाने के बाद अमरीकी अधिकारी जांच इस लिए कर रहे हैं कि मामले को रफा दफा किया जा सके. लेकिन अब यह इतना आसन नहीं होगा क्योंकि चश्मदीद गवाहों ने इस मौत के अमरीकी खेल के पहले शिकार की पहचान गुलमुद्दीन नाम के अफगान के रूप में की है ,जो कंदहार प्रांत के मैवंद जिले के ला मोहम्मद काले गाँव का रहने वाला था . वह इस वहशत भरे अपराध का पहला शिकार था इसके बाद क़त्ल का यह सिलसिला चलता रहा और अमरीकी प्रशासन के बड़े फौजियों ने हस्तक्षेप करने के बजाय मामले को दबाने की कोशिश की. अपराध में शरीक एक अमरीकी सैनिक के पिता ने सारे मामले को बाहर लाने में मदद की , यह अलग बात है कि अब उसकी परेशानियाँ बहुत बढ़ गयी हैं . शुरू में तो उसे अधिकारियों ने टालने की कोशिश की लेकिन बाद में उनकी कोशिश रंग लाई और अब सेना ही जांच कर रही है . बात मीडिया की नज़र में है इसलिए दब जाने की कोई संभावना नहीं है . जब अमरीका ने आज से करीब ९ साल पहले अफगानिस्तान का अभियान शुरू किया था तो जानकारों ने कहा था कि यह अमरीका के लिए वियतमान से भी ज्यादा मुश्किल सैनिक अभियान साबित होगा लेकिन उन दिनों अमरीकी राष्ट्रपति , बुश जूनियर के पास ब्रिटेन के प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर थे जो बुश की हर बात को सही साबित करने के लिए व्याकुल रहते थे. बहर हाल अमरीका ने जिस मकसद को घोषित करके अफगानिस्तान पर हमला किया था वहां तक पंहुचने की तो कोई संभावना ही नहीं है . क्योंकि अल कायदा और उसके मातहत काम करने वाले तालिबान पहले से ज्यादा मज़बूत हो गए हैं जबकि अमरीका अफगानिस्तान की लड़ाई में रोज़ ही शिकस्त झेल रहा है .अब तो मानवाधिकारों के क्षेत्र में इतनी नीच गतिविधियों में शामिल अपने फौजियों को लेकर अमरीकी सेना कहाँ मुंह छुपाएगी.
जहां तक अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले की बात है ,उसे तो अब कोई सही नहीं मानता लेकिन इस हमले से हुए अमरीकी नुकसान का आकलन कर पाना अपने आप में एक कठिन काम है . इस लड़ाई में अमरीकी सेना के बहुत ज्यादा सैनिक मारे गए हैं , बहुत ज़्यादा धन लगा है और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले एक मुल्क को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता देनी पड़ी है . लेकिन उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति बुश को आम तौर पर मंदबुद्धि इंसान मान जाता है . उन्होंने इस मूर्खता पूर्ण अभियान की शुरुआत की थी जिसे आने वाले वक़्त में अमरीकी जनता भोगेगी.
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Monday, September 20, 2010
सफ़ेद हाथी, प्रसार भारती और कांग्रेसी राज में ईमानदारी के नए प्रतिमान
शेष नारायण सिंह
१९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो तय किया गया कि टेलीविज़न और रेडियो की खबरों के प्रसारण से सरकारी कंट्रोल ख़त्म कर दिया जाएगा. क्योंकि ७७ के चुनाव के पहले और १९७५ में इमरजेंसी लगने के बाद दूरदर्शन और रेडियो ने उस वक़्त की इंदिरा-संजय सरकार के लिए ढिंढोरची का काम किया था और ख़बरों के नाम पर झूठ का एक तामझाम खड़ा किया था . जिन सरकारी अफसरों से उम्मीद थी कि वे राष्ट्रहित और संविधान के हित में अपना काम करेगें ,वे फेल हो गए थे. उस वक़्त के सूचनामंत्री विद्याचरण शुक्ल संजय गांधी के हुक्म के गुलाम थे. उन्होंने सरकारी अफसरों को झुकने के लिए कहा था और यह संविधान पालन करने की शपथ खाकर आई ए एस में शामिल हुए अफसर रेंगने लगे थे. ऐसी हालत दुबारा न हो , यह सबकी चिंता का विषय था और उसी काम के लिए उस वक़्त की सरकार ने दूरदर्शन और रेडियो को सरकारी कंट्रोल से मुक्त करने की बात की थी. यह प्रसार भारती की स्थापना का बीज था और आज वह संस्था बन गयी है लेकिन अब उसकी वह उपयोगिता नहीं रही. सूचना क्रान्ति की वजह से आज किसी भी टेलिविज़न कंपनी की हैसियत नहीं है कि झूठ को खबर की तरह पेश करके बच जाए . लेकिन आज भी प्रसार भारती आम आदमी की गाढ़ी कमाई का तीन हज़ार करोड़ रूपया साल में डकार लेता है . पिछले १२ साल में भ्रष्ट नेताओं की कृपा से वहां जमे हुए नौकरशाह खूब मौज कर रहे हैं और रिश्वत की गिज़ा खा रहे हैं .. समय समय पर सरकारी मंत्रियों को भरोसे में लेकर इन अफसरों ने ऐसे नियम कानून बनवा लिए हैं कि प्रसार भारती का बोर्ड इनका कुछ भी नहीं बना बिगाड़ सकता.जबकि कायदे से यही बोर्ड ही प्रसार भारती को चला रहा है, यही प्रसार भारती के सी ई ओ का बॉस है .लेकिन मौजूदा प्रसार भारती की तो इतनी भी ताक़त नहीं बची है कि वह अपनी मीटिंग का सही मिनट्स लिखवा सके. देश की एक बहुत बड़ी पत्रकार और मीडिया की जानकार ने प्रसार भारती की अंदरूनी कहानी पर नज़र डालने की कोशिश की . उनके पास बहुत सारा ऐसा मसाला था जिसको छापने से प्रसार भारती के वर्तमान सी ई ओ की प्रतिष्ठा को आंच आ सकती थी लिहाज़ा उन्होंने उस अधिकारी से बात करने के लिए औपचारिक रूप से निवेदन किया . १० दिन तक इंतज़ार करने के बाद उन्हें मजबूरन हिम्मत छोड़ देनी पड़ी. इसके बाद जो खुलासा हुआ वह हैरतअंगेज़ है. केंद्रीय सतर्कता आयोग की जांच में जो बातें सामने आई हैं , वे इस संस्था में भारी भ्रष्टाचार की कहानी बयान करती हैं. पता चला है कि प्रसार भारती की बैठक में जो भी फैसले लिए जाते हैं , उनको रिकार्ड तक नहीं किया जाता .ऐसा इसलिए होता है कि मीटिंग के मिनट रिकार्ड करने का काम सी ई ओ का है . अगर सी ई ओ साहेब को लगता है कि बोर्ड का कोई फैसला ऐसा है जो उनके हित की साधना नहीं करता तो वे उसे रिकार्ड ही नहीं करते. जब अगली बैठक में बोर्ड पिछली बैठक के मिनट रिकार्ड का अनुमोदन का समय आता है तो बोर्ड के सदस्य यह देख कर हैरान रह जाते हैं कि मिनट्स तो वे है ही नहीं जो मीटिंग में तय हुए थे. अब नियम यह है कि मिनट्स का रिकार्ड सी ई ओ साहेब करेगें तो वे अड़ जाते हैं कि यही असली रिकार्ड है . लुब्बो लुबाब यह है कि मौजूदा व्यवस्था ऐसी है कि प्रसार भारती में अब वही होता है जो सी ई ओ चाहते हैं और आजकल यह बोर्ड की मर्जी के खिलाफ होता है . बोर्ड के पिछले अध्यक्ष, अरुण भटनागर राजनीतिक रूप से बहुतही ताक़तवर थे लेकिन मौजूदा अध्यक्ष ने उनकी एक नहीं चलने दी . आजकल तो बोर्ड और सी ई ओ के बीच ऐलानियाँ ठनी हुई है . मामला बहुत ही दिलचस्प हो गया है . कल्पना कीजिये कि बोर्ड तय करता है कि सी ई ओ की छुट्टी कर दी जाए . यह फैसला बोर्ड की एक बैठक में होगा लेकिन बैठक बुलाने का अधिकार केवल सी ई ओ का है . अगर वह बैठक नहीं बुलाता तो उसे कोई नहीं हटा सकता . इस बीच पता लगा है कि सी ई ओ के खिलाफ केंद्रीय सतर्कता आयोग ने बहुत सारे आर्थिक हेराफेरी के माले पकडे हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . क्रिकेट के मैच आजकल किसी भी प्रसारण कंपनी के लिए मुनाफे का सौदा होते हैं लेकिन दूरदर्शन ने अपने प्रसारण के बहुत सारे अधिकार बिना किसी फायदे के एक निजी कंपनी को दे दिया. सतर्कता आयोग ने इस पर भी सवाल उठाया है..प्रसार भारती के मुखिया पर आर्थिक हेरा फेरी के बहुत सारे आरोपों के मद्दे नज़र मामला प्रधानमंत्री कार्यालय के पास भेज दिया गया है. प्रसार भारती के बोर्ड के सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति पर भी सरकार नए सिरे से नज़र डाल रही है . इस बात पर भी सरकार की नज़र है कि क्या उन लोगों को प्रसार भारती के अध्यक्ष पद पर तैनात किया जाना चाहिए जिनके ऊपर सी ई ओ के एहसान हों . कुल मिलाकर एक बहुत ही पवित्र उद्देश्य से शुरू किया गया प्रसार भारती संगठन आजकल दिल्ली के सत्ता के गलियारों में सक्रिय लोगों का चरागाह बन गया है और इसमें टैक्स अदा करने वाले लोगों का तीन हज़ार करोड़ रूपया स्वाहा हो रहा है . देखना यह हिया कि मनमोहन सिंह की सरकार क्या इस विकत परिस्थिति से देश को बचा पायेगी. हालांकि सरकार के लिए भ्रष्ट अधिकारियों को बचा पाने में बहुत मुश्किल पेश आयेगी क्योंकि देश के सबसे आदरणीय अखबार, हिन्दू ने भी प्रसार भारती की हेराफेरी के खिलाफ बिगुल बजा दिया है.कांग्रेसी सत्ता के शीर्ष पर विराजमान दोनों ही लोगों की ईमान दारी की परीक्षा भी प्रसार भारती के विवाद के बहाने हो जायेगी.
१९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो तय किया गया कि टेलीविज़न और रेडियो की खबरों के प्रसारण से सरकारी कंट्रोल ख़त्म कर दिया जाएगा. क्योंकि ७७ के चुनाव के पहले और १९७५ में इमरजेंसी लगने के बाद दूरदर्शन और रेडियो ने उस वक़्त की इंदिरा-संजय सरकार के लिए ढिंढोरची का काम किया था और ख़बरों के नाम पर झूठ का एक तामझाम खड़ा किया था . जिन सरकारी अफसरों से उम्मीद थी कि वे राष्ट्रहित और संविधान के हित में अपना काम करेगें ,वे फेल हो गए थे. उस वक़्त के सूचनामंत्री विद्याचरण शुक्ल संजय गांधी के हुक्म के गुलाम थे. उन्होंने सरकारी अफसरों को झुकने के लिए कहा था और यह संविधान पालन करने की शपथ खाकर आई ए एस में शामिल हुए अफसर रेंगने लगे थे. ऐसी हालत दुबारा न हो , यह सबकी चिंता का विषय था और उसी काम के लिए उस वक़्त की सरकार ने दूरदर्शन और रेडियो को सरकारी कंट्रोल से मुक्त करने की बात की थी. यह प्रसार भारती की स्थापना का बीज था और आज वह संस्था बन गयी है लेकिन अब उसकी वह उपयोगिता नहीं रही. सूचना क्रान्ति की वजह से आज किसी भी टेलिविज़न कंपनी की हैसियत नहीं है कि झूठ को खबर की तरह पेश करके बच जाए . लेकिन आज भी प्रसार भारती आम आदमी की गाढ़ी कमाई का तीन हज़ार करोड़ रूपया साल में डकार लेता है . पिछले १२ साल में भ्रष्ट नेताओं की कृपा से वहां जमे हुए नौकरशाह खूब मौज कर रहे हैं और रिश्वत की गिज़ा खा रहे हैं .. समय समय पर सरकारी मंत्रियों को भरोसे में लेकर इन अफसरों ने ऐसे नियम कानून बनवा लिए हैं कि प्रसार भारती का बोर्ड इनका कुछ भी नहीं बना बिगाड़ सकता.जबकि कायदे से यही बोर्ड ही प्रसार भारती को चला रहा है, यही प्रसार भारती के सी ई ओ का बॉस है .लेकिन मौजूदा प्रसार भारती की तो इतनी भी ताक़त नहीं बची है कि वह अपनी मीटिंग का सही मिनट्स लिखवा सके. देश की एक बहुत बड़ी पत्रकार और मीडिया की जानकार ने प्रसार भारती की अंदरूनी कहानी पर नज़र डालने की कोशिश की . उनके पास बहुत सारा ऐसा मसाला था जिसको छापने से प्रसार भारती के वर्तमान सी ई ओ की प्रतिष्ठा को आंच आ सकती थी लिहाज़ा उन्होंने उस अधिकारी से बात करने के लिए औपचारिक रूप से निवेदन किया . १० दिन तक इंतज़ार करने के बाद उन्हें मजबूरन हिम्मत छोड़ देनी पड़ी. इसके बाद जो खुलासा हुआ वह हैरतअंगेज़ है. केंद्रीय सतर्कता आयोग की जांच में जो बातें सामने आई हैं , वे इस संस्था में भारी भ्रष्टाचार की कहानी बयान करती हैं. पता चला है कि प्रसार भारती की बैठक में जो भी फैसले लिए जाते हैं , उनको रिकार्ड तक नहीं किया जाता .ऐसा इसलिए होता है कि मीटिंग के मिनट रिकार्ड करने का काम सी ई ओ का है . अगर सी ई ओ साहेब को लगता है कि बोर्ड का कोई फैसला ऐसा है जो उनके हित की साधना नहीं करता तो वे उसे रिकार्ड ही नहीं करते. जब अगली बैठक में बोर्ड पिछली बैठक के मिनट रिकार्ड का अनुमोदन का समय आता है तो बोर्ड के सदस्य यह देख कर हैरान रह जाते हैं कि मिनट्स तो वे है ही नहीं जो मीटिंग में तय हुए थे. अब नियम यह है कि मिनट्स का रिकार्ड सी ई ओ साहेब करेगें तो वे अड़ जाते हैं कि यही असली रिकार्ड है . लुब्बो लुबाब यह है कि मौजूदा व्यवस्था ऐसी है कि प्रसार भारती में अब वही होता है जो सी ई ओ चाहते हैं और आजकल यह बोर्ड की मर्जी के खिलाफ होता है . बोर्ड के पिछले अध्यक्ष, अरुण भटनागर राजनीतिक रूप से बहुतही ताक़तवर थे लेकिन मौजूदा अध्यक्ष ने उनकी एक नहीं चलने दी . आजकल तो बोर्ड और सी ई ओ के बीच ऐलानियाँ ठनी हुई है . मामला बहुत ही दिलचस्प हो गया है . कल्पना कीजिये कि बोर्ड तय करता है कि सी ई ओ की छुट्टी कर दी जाए . यह फैसला बोर्ड की एक बैठक में होगा लेकिन बैठक बुलाने का अधिकार केवल सी ई ओ का है . अगर वह बैठक नहीं बुलाता तो उसे कोई नहीं हटा सकता . इस बीच पता लगा है कि सी ई ओ के खिलाफ केंद्रीय सतर्कता आयोग ने बहुत सारे आर्थिक हेराफेरी के माले पकडे हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है . क्रिकेट के मैच आजकल किसी भी प्रसारण कंपनी के लिए मुनाफे का सौदा होते हैं लेकिन दूरदर्शन ने अपने प्रसारण के बहुत सारे अधिकार बिना किसी फायदे के एक निजी कंपनी को दे दिया. सतर्कता आयोग ने इस पर भी सवाल उठाया है..प्रसार भारती के मुखिया पर आर्थिक हेरा फेरी के बहुत सारे आरोपों के मद्दे नज़र मामला प्रधानमंत्री कार्यालय के पास भेज दिया गया है. प्रसार भारती के बोर्ड के सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति पर भी सरकार नए सिरे से नज़र डाल रही है . इस बात पर भी सरकार की नज़र है कि क्या उन लोगों को प्रसार भारती के अध्यक्ष पद पर तैनात किया जाना चाहिए जिनके ऊपर सी ई ओ के एहसान हों . कुल मिलाकर एक बहुत ही पवित्र उद्देश्य से शुरू किया गया प्रसार भारती संगठन आजकल दिल्ली के सत्ता के गलियारों में सक्रिय लोगों का चरागाह बन गया है और इसमें टैक्स अदा करने वाले लोगों का तीन हज़ार करोड़ रूपया स्वाहा हो रहा है . देखना यह हिया कि मनमोहन सिंह की सरकार क्या इस विकत परिस्थिति से देश को बचा पायेगी. हालांकि सरकार के लिए भ्रष्ट अधिकारियों को बचा पाने में बहुत मुश्किल पेश आयेगी क्योंकि देश के सबसे आदरणीय अखबार, हिन्दू ने भी प्रसार भारती की हेराफेरी के खिलाफ बिगुल बजा दिया है.कांग्रेसी सत्ता के शीर्ष पर विराजमान दोनों ही लोगों की ईमान दारी की परीक्षा भी प्रसार भारती के विवाद के बहाने हो जायेगी.
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